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(१९० ) हमारी पुत्र-वधू चन्द्रकला महारानी सूर्यवती की भानजी हैं अतः यह भी उनसे मिलेंगी।
धीर मंत्री ने भी सेठ के विचारों को पसंद किया, और महाराजा से मिलने की प्रतीक्षा करता हुआ अपने उतारे पर पहुंच गया। मित्र-गुणचन्द्र ने कुमार श्रीचन्द्र को इन सारी बातों से सूचित कर दिया। कुमार भी मित्र के साथ कुछ गुप्त-मन्त्रणा करके वहां से ऊठा और भोजनशाला में जा पहुँचा। वहां सेठानी से "माता जी ! मुझे भूख लगी है लड्डु दीजियें" कह कर भोजन करने बैठ गया।
वात्सल्यमयी माताने बड़ी-प्रसन्नता से उसे थालमें बहुत लड्डु परोसे । उसने अपनी पत्नियों उनकी सखियों अादि सभी को लड्डु बांटे और खुदने भी खाये । इस प्रकार अपने सारे कुटुम्ब के साथ-वैकालिक-दुपहरी करके वह कुमार श्रीचन्द्र अपने महल में आया । अपनी रीयासत कणकोट्टपुर के मंत्रियों के साथ लिखा पढी के काम में भी गुणचन्द्र को नियुक्त किया दूसरे भी जिस २ को जिस २ काम पर नियुक्त करना था, किया। इस प्रकार विदेश जाने से पहिले सारी तैयारी जो करनी थी, कर ली। महापुरुषों की महत्ता उनके विचारों की दृढता और योग्य कार्य-सरणी को अवलम्बित हुआ करती है।