________________
( १६३ )
करते
प्रिये ? आज पिताजी ने मुझे वीणारव को रथ-दान हुए टोका । इस थोड़े से दान से भी वे रुष्ट होते हैं, तो बताओ ? मैं कैसे अपनी इच्छानुसार दान कर सकता हूँ । पिताजी ने आज से पहिले कभी कुछ न कहा, और मैंने भी उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं किया। परन्तु आजकी बात से मेरा दिल टूट गया । दान किये घोड़ों को मूल्य देकर वापस लेने का पिताजी का आग्रह मुझे ठोक नहीं मालूम दिया ।
अयि चतुरे ! मैं मानता हूँ कि माता पिता और गुरु की शिक्षा अमृत से भी अधिक मूल्यवान् होती है"फिर भी उसे मैं मान नहीं रहा हूँ । | अतः मैं पुण्य हीन हूं, क्योंकि आज मेरा मन भी हठी हो रहा है । देखो ! पिता की आज्ञा से राम वनवासी हुए। पिता को सुख पहुचाने के लिये भीष्म ने आजन्म ब्रह्मचारी रहना स्वीकार किया । पिता की आज्ञा से परशुराम ने अपनी ही माता का सिर काट लिया। अब तुम्हीं बताओ पिता की श्राज्ञा का उल्लंघन करने वाले मुझ जैसे कृतघ्न की क्या सभ्य संसार में हँसी नहीं होगी ? कहा है
तात मात गुरु स्वामी सिख सिर घर करहिं सुभाय ।