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' ( १८७ ) ओर कुछ लेने की इच्छा हो तो मांग लो, और लेकर चले जाओ । रथ वापस नहीं लिया जा सकता।
कुमार की इस दृढ भावना को जानकर गुणचन्द्रने चीणारव को वहां से विदा किया । वह वापस कुमार के पास आया। कुमारने भावी वियोग की सूचना बडे दुःखित हृदय से देते हुए कहा, "मित्र गुणचन्द्र ! मेरे और पिताजी के विचारों में अंतर है । स्वभाव के न मिलने से हर बात में खींचातानी बनी रहती है। इस हेतु से मैं अपनी उन्नति और उत्कर्ष में बाधा पहुंचाने वाले पिता के पास नहीं रह सकता । अपना स्वाधीन जीवन बीताने की भावना से मैं यहां से अन्यत्र जाना चाहता हूँ।
एकाएक कुमार की बात को सुन घबडाया हुआ गुणचन्द्र कहने लगा-कुमार ! क्या कहते हो ? ऐसा करना ठीक नहीं होगा। आपको किस चीज का प्रभाव है? धन धान्य ऐश्वर्य और सम्पत्ति सभी तो आपके पास मौजूद हैं। आप अपनी इच्छानुसार उपभोग कर सकते हैं। आप को ऐसे विचार मनमें नहीं लाने चाहिये।
इस प्रकार मित्रों की बात हो ही रही थी कि धनंजय नाम का सारथी भागता, हांफता वहां प्रापहूँचा, और कुमार से कहने लगा, स्वामिन ! आपकी आज्ञा से