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.:४२ :) मार सोचते हैं भान रात को ही चुपके से सके यहां से . चल देना चाहिये । मुझे थोडा बहुत विचार-नवपरिणीता
चन्द्रकला का है। यह मेरे विना जल हीन मीन की तरह छटपटाती हुई प्राणों को कैसे धारण कर सकेगी। इसने मेरे लिये अपने माता पिता को और राज्य-सुखों को छोड़ कर, दर्शनमात्र से ही मुझे अपना लिया है। यह मुझ में अत्यन्त अनुरागवाली है। इसने मेरे लिये राज-कुल के रीति-रिवाजों और नियमों का परित्याग करके वणिक-कुल के रीति-रिवाजों एवं नियमों को विना किसी हिचकिचाहट के अपनाये हैं । इस हालत में इस प्यार की प्रतिमा को 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' जैसी हालत में छोड़ जाना भी क्या ठीक होगा ? अगर मैं ऐसा करता हूं तो संसार में इससे बढकर दूसरा क्या अन्याय, और विश्वासघात हो सकता है ? । दुनियां मेरे ऐसे कर्तव्यों पर थूकेगी, और मुझे घृणा की दृष्टि से देखेगी।
तो क्या मैं ऐसा साहस न करू १ नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता । मैंने अपने विचारों से पीछे हटना कभी सीखा ही नहीं। मैं उन पुरुषों में से नहीं हूँ, जिनके मनोरथ अधूरे ही रहजाते हैं अतः मैं यहां से जाउंगा तो जरूर उसमें कोई संदेह नहीं। मैं पुरुष हूँ, पुरुषार्थे मेरा धर्म है। अगर मेरे विचारों और स्वतंत्रता के मार्ग में