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सभी प्रदीपती रा शिक्षा देते कहा
सुचित
अभ्युत्थामुपागते तत्पादाचित दृष्टि
सुप्ते तत्र शयति तत्प्रथमं मुच्य शय्यामपि, प्रोष्टचैः पुत्रि ! निवेदिताः कुल वधू-सिद्धान्त धर्मा श्रमी ॥
गुरुपती
साप नम्रता,
रासन - विधि स्तस्योपचर्यस्वयम्
बेटी ! गुरुजनों और पति के आने पर अपने आसन से उठ कर उनका स्वागत करना । उनके साथ संभाषण में नम्रता रखना । अपनी लज्जालु दृष्टि को उनके चरणों की ओर झुकाये रखना । आने पर उन्हें आसन देना । अधिक क्या ? उनको खिलाकर खाना, सुलाकर सोना, जगने से पहिले जगना, यही धर्म कुलीन स्त्रियों के लिये शास्त्रों में बताये गये हैं ।
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इस प्रकार चन्द्रकला को उनकी सखियों को दासदासियों को सबको यथायोग्य शिक्षा देकर आंखों में हर्ष और विषाद के आंसू भर, आशीर्वाद देती हुई दोनों राजा दीपचन्द्र देव के साथ लौट आई। वरदत्त सेठ ने भी कुमार की आज्ञा से अपने घर की राह ली । उपस्थित याचकों को वस्त्र आभूषण घोड़े आदिकों के दान से संतुष्ट करके कुमार ने विदा किया ।