________________
( १६५ ) कामदेव रूपी राज का सोद छात्र, और चांदनी रूप प्रवृत भरी बावड़ी के जैसे श्री शोभावासी चन्द्रकला से संपन्न 'श्रीचन्द्र देव जयते रहो।
इसके बाद सब सखियों ने कुमार से भी कहा-हे कुमार ! कृपा कर आप भी चन्द्रकला इस नाम का अर्थान्तरसे वर्णन कीजिये-वारंवार कहने पर श्रीचन्द्र ने कहा
ॐ कारो-महन द्विजस्य गगन-क्रौडेक-दंष्ट्रांकुर स्तारा मौक्तिक शुक्ति रन्धतमसः स्तम्बरमस्याङ्क शः। शृङ्गारार्गल-कुंचिका विरहिणी मानच्छिदे कर्तरी, सन्ध्या-वार-वधू नखक्षतिरियं चान्द्रीकला राजते ।
संसार में चन्द्रमा की कला क्या है ? तो कहते हैंकामदेव रूप ब्राह्मण का ओंकार । आकाश रूप सूअर की दाढ का अंकूर | तारा रूप मोतियों की सीप । अधेरा रूप हाथी का अकूश । शृंगार रूप ताले की चाबी । विरहिणी के मान को काटने की कैंची। सन्ध्या रूप वेश्या के शरीर में जार पुरुष का किया हुआ नख-क्षत । इस प्रकार यह चन्द्रकला चमक रही है।
इस प्रकार हास-परिहास के बीच होती हुई सबगोष्ठी को सुनकर सब लोग दंग रह गये। परस्पर लोग कहने लगे-विधाता ने कड़ी सुन्दर जोड़ी मिसाई है।