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( ११४ ) शोमा को निहारते थे। इतने में श्रीचन्द्र के मुंहसे ये भाव निकलने लगे।
कूलनमें केलिमें कछारनमें कुंजनमें क्यारिनमें कलिन कलीन किलकत है। कहे 'पद्माकर' परागनमें पान हू में पानन में पीक में पलाशन पगंत है । द्वार में दिशान में दुनी में देश देशन में देखो दीप दीफन में दीपत दिगंत है। वीथिन में ब्रजमें नवेलिन में वेलिन में वनन में बागन में बगरो बसन्त है।
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.इन भावों को सुन कर गुण चन्द्र भी अपने को रोक न सका, और बोल उठा
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्म, स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः । सुस्वाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः, सर्वे सखे ! चारुतरं वसन्ते ।।
मित्र! क्या बताऊं ? विकसित फूलों वाले पेड़, कमलों से परिपूर्ण जलाशय सकामा स्त्रियें, सुरभित पवन, सुखकारक सायंकाल, और रमणीय दिन अधिक क्या वसंत में सभी सुन्दर हो जाते हैं।