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( ११८ ) से उतर कर हाथों में वरमाला लिये वह खम्मेकी जिमणी तरफ आकर खड़ी हो गई। हजारों आंखें एक साथ उस पर आकृष्ट हो गई। उसके सौन्दर्यामृत पान में राजा लोग इतने लीन हो गये जो उन के मन शरीर से बाहर हो गये । सिंहासन पर केवल शरीर मात्र ही रह गये ।
श्रीचन्द्र ने मित्र से कहा मित्र! अलौकिक सौंदर्यमयी इस राज-बाला का कहां तक वर्णन करें यह तो
अनाघ्रातं पुष्पं किसलय मलूनं कररुहै: अनाविद्ध रत्नं मधुनव मनास्वादितरसम् । अखण्ड पुण्यानां फल मिवच तद्रप मनघ,
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः।। बिना सूघा हुआ फूल है। नखों से अछूता यह कोमल पान है । अणवींध रत्न है। विना चखा हुआ यह नवीन पुष्प रस है । इसका निष्पाप रूप, पुण्यों का मानों अखण्ड फल ही है । न मालूम विधाता किसको इस का भोक्ता नियत करेगा ? मित्रने जवाब दिया अभी सब कुछ सामने ही पाया जाता है। । स्वयंवर मण्डप में श्रीषेण हरिषेण आदि बहुत से राजा और राजकुमार आये हुए थे। तिलकसेन की आज्ञासे वहां के भने उन सूर्यवंशी चन्द्रवंशी राजाओं के नाम