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( १३१) हुए, और वहाँ बडीमारी भीड़ भोर कोलाहल मच गया। भीड़ में अवसर पाकर श्री चन्द्रकुमार अपने मित्र का हाथ पकड कर अपने रथ के पास आ पहुंचा। मित्रने उसे बहुत समझाया कि मित्र ! यहां ठहरो और विवाह करके राजपरिवार और माता पिता को आनन्दित करो।
मित्र को उत्तर देते हुए श्रीचन्द्रकुमार ने कहा-"हे सखे ! तुम्हें इस बात का तो पता ही है कि हम पिताजी को सूचित किये विना ही चुपचाप यहां आये हैं । अतः अब देर मत करो शीघ्र रथ में बैठो"। इतना कह उसने मित्र के रथ में बैठ जाने पर घोड़ों की लगाम ढीली कर दी। घोड़े हवा से बातें करने लगे। . ___ इधर बन्दी जनों ने श्रोष्ठी-पुत्र श्रीचन्द्रकुमार को पहचान लिया, और सबके सामने उसके दिव्य चरित को प्रकट कर दिया कि यह–'कुशस्थलपुर निवासी सेठ लक्ष्मीदत्त का श्रीचन्द्र नाम का कुमार है । इसके आठ पत्नियां हैं । सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री गुणधर गुरु के पास सारी विद्यायें पढी हैं और सारी कलाओं का अभ्यास किया है । इसके पास सुवेग नाम का रथ है जिसमें पवनवेग और महावेग नाम के घोड़े जोते. जाते हैं। वह महाराज प्रतापसिंह द्वारा प्रदान किये गये कणकोहपुर का अधिपति है।
दी। घोड़े होने
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