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का परिचय - " कुशस्थलपुर के रहने वाले लक्ष्मीदत्त सेठ का पुत्र श्रीचन्द्र कुमार नाम " - बता दिया । चतुरा ने चन्द्रकला को सारे संकेत सुना दिये उसने भी गुणचन्द्र को कुछ विलम्ब करने का संकेत किया । एवं कुमार का परिचय अपनी माता को भी सूचित कर दिया ।
इधर कुमार भगवान की चैत्य-वंदना विधि - पूर्वक करता हुआ मूल मन्दिर से निकल कर बाहर मंडप में लौट आता है । वहां कुशल कारीगरों के द्वारा निर्माण किये हुए हाथी सिंह, शुकसारिकाओं के जोडले, पेड - लता व पूतलियों के दिव्य दृश्य देखता हुआ कुमार अपने मित्रको भी बड़ी बारीकी से दिखाता हुआ द्वार देश के पास आता है। वहां मित्र ने प्रेरणा की कि 'सखे ! इस स्वगोपम स्थान की अवर्णनीय सुन्दरता को कुछ देर के लिये बैठ कर देखने को जी चाहता है" - इष्टं वैद्योपदिष्टं के न्याय से कुमार भी मित्र की बात को मंजूर करता हुआ वहां बैठ जाता है। उतने में पद्मिनी चंद्रकला उसके दृष्टि पथ की अतिथि हुई ।
वह बोला – प्रिय गुणचन्द्र ! देखो तो सही कितना सुन्दर रूप है ? इस कन्या के प्रत्येक अंग से अमृत के झरणे भरते हैं । प्रकृति का यह अनुपम निर्माण नहीं