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( १४५ ) है क्या ? मैंने बहुत सी स्त्रियों को देखी हैं परन्तु ऐसा मनोहर रूप किसी का भी नहीं देखा । इस प्रकार स्नेहभरी दृष्टि से प्रशंसा करते हुए कुमार को देख कर गुणचन्द्र ने मन ही मन राजकन्या की मनोरथ सिद्धि मानी । - इसके बाद कुमार फिर अपने मित्र गुणचन्द्र से कहने लगे कि भाई ! संसार में सिर्फ मन ही एक ऐसी वस्तु है जो मोक्ष और बंधन का कारण है। यह बड़ा ही चंचल है बडे २ योगी महात्माओं के लिये भी दुर्जेय है। इसी मन के कारण
विमुच्य दृग्लक्ष्यगतं जिनेन्द्र', ध्याता मया मूढधिया हृदंतः । कटाक्ष-वक्षोज-गमीर-नाभि-,
कटीतटीयाः सुदृशां विलासाः॥ सामने विराजमान जिनेन्द्र देव का ध्यान छोडकर मृढबुद्धिवाले मैंने अपने मनमें स्त्रियों के कटाक्ष स्तन-नाभि
और कटि आदि अंगों के विलासों का ध्यान किया। ___मित्र ! वेही मनुष्य धन्य हैं जो इन लीलावतियों के चक्कर में न फंस कर अपने मन पर काबू रखते हैं। मेरी राय में अब यहां अधिक ठहरना उचित नहीं है। ऐसा कह कर कुमार वहां से चल पड़ा।