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( १०० ) - मैं विद्वान के साथ साथ बलवान होना भी जरूरी समझता हूँ। दुश्मनों से, गुण्डों से देश की, समाज की
और धर्म की रक्षा करने के प्रसंगों में केवल कलम चलाने वाला ही काफी नहीं होता । तलवारें भी उठानी पडती हैं। निर्बल आदमी दूसरों की रक्षा तो दूर, अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता । ऐसे कंगलों से उनके पूर्वजों की कीर्तिकथायें भी कलङ्कित होती हैं। ... मैं अहिंसा में मानता हूँ। आतताइयों के मुकाबले में उनसे हाथ जोड कर प्राण बचा लेने या भाग जाने को मैं ठीक नहीं मानता हूँ । इस प्रकार की अहिंसा को मैं हिंसा ही मानता हूँ । अत्याचार करनेवाले हमेशा बुरे होते हैं। पर अत्याचारियों के अत्याचार को प्रतिरोधक शक्ति के रहते हुए चुपचाप सहन करनेवाले को मैं बहुत बुरा मानता हूँ । प्रसंगों के उपस्थित होने पर पुरुष को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र सब कुछ होना चाहिये । ऐसा होने के लिये भी उस अवस्था के शास्त्रों का अभ्यास जरूर ही करना चाहिये।
इसीलिये आपसे मेरी प्रार्थना है कि श्रीचन्द्रकुमारको आप धनुर्वेद की ऊंची-शिक्षा देने की कृपा करें । सेठ की इस बात को सुनकर श्रीगुणंधराचार्य ने बडी प्रसन्नता से कहा सेठ ! आपकी इस भाव-भरी-प्रार्थना से