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। १०१ ) मेरा मन बहुत प्रसन्न हो रहा है। आप ठीक ही कहते हैं कि कायर कपूतों के होने से न होना ही अच्छा है । कहा भी है
जननी जणे तो भक्त जण, कां दाता का शूर। नहीं तो रहिजे वांझणी, मती गमावे नूर ॥
अब आपकी प्रेरणा से मैं श्रीचन्द्रकुमार को धनुर्वेद की-राधावेध पर्यन्त की सारी शिक्षा उच्च स्तर पर दूंगा।
उपाध्याय ने सेठ की प्रार्थना से प्रेरित हो दुगुने उत्साह से कुमार को शस्त्रास्त्र-विद्या में पूर्णतया निपुण किया । जल में तैल के जैसे कुमार की बुद्धि में पहुँचा हुआ गुरु का ज्ञान भारी विस्तार को पाया।
कुमार की शिक्षा पूर्ण होने पर एक दिन श्रीगुणंधराचार्य ने स्वदेश लोटने की अपनी इच्छा अपने शिष्य के प्रति प्रकट की। उस समय जैसे कोई बड़ा भारी निधान कोई हठात छिन लेता है। ऐसा दुःख कुमार के मन में उपस्थित हुआ । उसका खाना पीना सोना आमोद प्रमोद सभी तो छूट गये । अपने लाडले बेटे की ऐसी हालत को देखकर सेठ लक्ष्मीदत्त पूछते हैं बेटा ! क्या बात है ? क्यों अनमने उदास हो रहे हो ? क्या किसी वस्तु का प्रभाव मालूम देता है ? क्या बात है ? मैं तुम्हारे इस उदास चेहरे को देख नहीं सकता हूँ।