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( ७३ ) .. उधर सूर्यवती महाराज के चले जाने से हृदय में उत्पन्न होने वाले दुःख को वीतराग भगवान के वचनों से दूर करके स्वाभाविकतया धार्मिक कृत्यों में लग गई । एक दिन उसने अपने महल के बाहर सशस्त्र सिपाहियों को देखकर अपनी सखी से कहा हे सखि ! देखो ये सिपाही किसके हैं ? और ये यहां क्यों आये हैं ? यह सुन सैन्द्रीने उनके पास जाकर उन्हें पूछा कि तुम कौन हो ? उसके इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे बोले 'हे सैन्द्री ! हम महाराजा के नौकर हैं रानीजी के गर्भ की रक्षा के लिये हमें रत्नपुर से यहां भेजा है। तुम किसी बात की अपने मन में शंका मत करो" । उनके इस प्रकार के वचन सुनकर और उनकी अलग २ अच्छी तरह जांच करके वापस लौटी हुई उसने रानी से कहा- "हे स्वामिनी ! सुनो द्वार पर खडे ये सिपाही जयकुमार के प्रतीत होते हैं और झूठमूठ में अपने को महाराज के सवक बता कर हमें धोखा देते हैं । ऐसा मालूम होता है कि जयकुमार ने गभरक्षा के बहाने अपनी दुष्ट-बुद्धि से गर्भ-हत्या के लिये इन्हें नियुक्त किया है।
सैन्द्री के मुख से इस दुःखद वृत्तान्त को सुनकर रानी ने एक लम्बी सांस भर कर कहा-हा सैन्द्री ! मैं अब क्या करू?। कहां जाउं ? तुमने जो उस निमित्तज्ञ के वचन,