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श्री लक्ष्मीदत्त सेठ अपने चिरंजीवी कुमार श्रीचन्द्र को पुरुषों की बहत्तर कलाओं में निपुण देखना चाहते थे । संपूर्ण कलाओं की शिक्षा देने वाले कलाचार्य को खोज करते हुए उन्हें सद्भाग्य से गंगा तट की तरफ से यात्रा करते हुए श्री गुगंधर नाम के कलाचार्य की भेंट हुई ।
श्री गुगंधर - उपाध्याय सब विद्याओं में पारंगत जितेन्द्रिय, स्पष्ट वक्ता, शान्त स्वभाव वाले, जैन दर्शन के अनन्य उपासक और बृहस्पति के समान सब शास्त्रों के ज्ञाता थे। अधिक क्या जितने गुण एक गुरु में होने चाहियें वे सब उनमें मौजूद थे ।
लक्ष्मीदश सेठ को एक दिन अचानक श्रीगुगंधर उपाध्याय से मुलाकात हो गई । एक दूसरे के परिचय के बाद सेठ ने अपने पुत्र को पढाने के लिये उनसे प्रार्थना की । उपाध्यायजी ने भी कुमार श्रीचन्द्र को विनयादि
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गुणों से संपन्न और सामुद्रिक शास्त्र के शुभ लक्षणों से युक्त योग्य - सुपात्र समझ कर अन्यत्र जाने का विचार स्थगित करते हुए विद्या पढाना स्वीकार कर लिया ।
सेठ ने उपाध्याय को प्रसन्न करने के लिये धन देना चाहा पर उनने इस बात का निषेध करते हुए कहा सेठ !