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कोई किसी को सुख या दुख पहुँचाता है यह धारणा ही गलत है । मैंने उसे ऐसा कर दिया, यह भी एक भू ठा अभिमान है । वस्तुतः सारा संसार अपने २ कर्मों से गूंथा हुआ है ।
पूर्व जन्म में अबोध अवस्था में मैंने ही कभी शील भ्रष्ट किया होगा । या किसी जीव को सताया होगा ? किसी की कोई बडी भारी चोरी की होगी ? किसी के बच्चे को उसकी मां से जुदा किया होगा ? करडके मोड़े होंगे या किसी पक्षी के अंडे फोडे होंगे ? द्व ेष वश किसी कोठे कलंक दिये होंगे ? अथवा ऐसे हो घोर पाप मैंने किये होंगे ? जिनको जिनेश्वर भगवान ही जान सकते हैंउन पापों का दुष्परिणाम आज मैं इस प्रकार भोग रही हूँ ।
महारानी के विलाप से दुःखी हुए निकट रहनेवाले स्वजन स्वयं दुःखी होते हुए भी उनको धीरज बंधाने लगे "स्वामिनि ! भावी किसी के टाले नहीं टलती । संयोग वियोग सुख दुःख ये सब अपने किये कर्मों का ही फल है । ये अवश्य भोगने होते हैं इस में किसी का किन्तु परन्तु नहीं चलता । आप स्वयं तत्त्व को जानती हैं अधिक शोक करने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । आये हुए दुःख को मिटाने का उपाय धीरज से शोचना चाहिये ।