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आत्मा देह आदि से भिन्न है
और, फिर मनुष-मनुष्य में भी शक्ति की तरतमता देखने में आती है । एक प्रखर बुद्धिशाली होता है, तो दूसरा अक्ल में कच्चा होता है । एक की स्मरण-गक्ति बहुत तीव्र होती है, तो दूसरे को पच्चीस बार रटने पर भी याद नहीं रहता । एक खुब होगिवार चालाक होता है, तो दूसरा बिलकुल बुद्ध होता है।
अगर भूतो के प्रमाण में चैतन्य का आविर्भाव माना जाये, तो मोटे आदमी में ज्यादा चैतन्य होना चाहिए और पतले आदमी में कम । लेकिन, बात इससे उल्टी ही दिखायी देती है। मोटे आदमियो में स्फूर्ति कम होती है.जहाँ बैठ गये वहाँ से उटने का उनका मन नहीं करता-जब कि पतले आदमियो में स्फूर्ति ज्यादा होती है. ये फिरकनी की तरह फिरते रहते हैं।
अगर चैतन्य का कारण पचभूतो का विशिष्ट सयोजन है, तो जीवन का कारण क्या है ? यह प्रश्न भी खडा होता है।
अगर पचभूतो का विशिष्ट सयोजन जीवन का एक कारण हो, तो सबका जोवन समान आयुष्य वाला होना चाहिए, लेकिन उसमे बड़ी तरतमता दिखायी देती है। इसलिए, पंचभूतो का सयोजन कारण घटित नहीं होता । तथ्य यह है कि चैतन्य का कारण आत्मा है और जीवन का कारण कर्म है। कर्म के कारण जितना आयुष्य मिलता है, उतने समय तक- प्राणी जीता है। अगर आयुष्य पूरा न हुआ हो तो हाथ-पैर टूट जाने पर भी प्राणी जीता है।
पचभूतों के सयोजन से चैतन्य की उत्पत्ति का सिद्वान्त दूसरे प्रकार से भी खोखला ठहरता है । अगर हम ऐसा विधान करें कि, अमुक वस्तु के
५ जिनमें शुरू की एक इन्द्रिय यानी कि मात्र स्पर्शन-इन्द्रिय होती है, वे एकइन्द्रिय प्राणी कहलाते है वे पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति का शरीर धारण करते हैं। उनके विशेष वर्णन के लिए जीवाजीवभिगम तथा पन्नवणा-सूत्र देखना जरूरी हैं । सामान्य जानकारी के लिए जीव-विचार तथा नवतत्त्व प्रकरण भी उपयोगी है।