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महामोहतमश्छन्नं श्रेयोमार्ग न पश्यति । ।
विपुलापि हगालोकादिव श्रुत्या विना मतिः ॥ १५ ॥ जिस प्रकार प्रशस्त भी दृष्टि प्रदीपादिकके प्रकाशके विना अंधकार-निबिड अंधकारमें छिपे हुए मार्गको देख नहीं सकती, उसी प्रकार प्रशस्त भी मति धर्मोपदेशके सुने विना मोहके निबिड अंधकारसे छिपे हुए कल्याण-मोक्षके मार्गको देख नहीं सकती। क्योंकि ऐसा विधान भी है कि - " श्रुत्वा धर्म विजानन्ति," सुनकर ही धर्मको जान सकता या धारण कर सकता है। शासनके संस्कारसे बुद्धिमें जो अतिशय प्राप्त होता है उसकी प्रशंसा करते हैं।
दृष्टमात्रपरिच्छेत्री मतिः शास्त्रेण संस्कृता ।
व्यनक्त्यदृष्टमप्यर्थ दर्पणेनेव दृङ्मुखम् ॥ १६ ॥ आंखें दीख सकनेवाले पदार्थको ही देखनेवाली हैं, मुखको नहीं देख सकतीं। किंतु दर्पणके निमितसे उसको भी देख सकती हैं। इसी तरह मति -इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला अ. पग्रहादिक ज्ञान, यद्यपि केवल दृष्ट-इन्द्रिय और मनसे दीख सकनेवाले पदार्थों को ही जाननेवाला है; तो भी शास्त्र-आप्त भगवान्के वचनसे उत्पन्न हुए दृष्टादृष्टपदार्थविषयक ज्ञानसे अतिशयको प्राप्त कर अदृष्ट-उक्त दोनो साधनों-इन्द्रिय और मनके अविषय पदार्थोको भी प्रकाशित कर सकता है।
श्रोताओंके चार भेद हैं-अव्युत्पन्न संदिग्ध व्युत्पन्न विपर्यस्त । इनमें आदिके दो प्रकारके श्रोता ही प्रतिपाद्य-उपदेशके पात्र हो सकते हैं। इसी बातको दृढ करते हैं।
अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं,
अध्याग