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अनगार
धर्म
सम्यक्त्वसे युक्त ज्ञानधनके धारण करनेवाले श्रोतामें इन आठ बातोंको, धर्मका उपदेश देनेकेलिये देखना उचित है। १- जो दृष्ट और इष्ट किसी भी प्रमाणसे विरुद् न रहनेवाले अनेकान्तात्मक सिद्धान्त--जिना गमको सदा सुननेकी इच्छा रखता हो । २ केवल सुनने की इच्छा रखता हो इतना ही नहीं, बल्कि गुरुओंका अपलाप न करनेवाले-गुरुसम्प्रदायके अनुसार कहनेवाले तथा कल्याणके अभिलाषी वक्ताओंके द्वारा कहेजाने पर-प्रवचनका व्याख्यान होनेपर. उसको आदर-भाक्तके माथ सुनता भी हो । ३ व्याख्यान या प्रवचनमें जो विषय कहा गया है -जो बातें बताई गई हों उनका प्रयत्न करके निश्चय करनेवाला हो । ४-निश्चित विषयको आत्मस्वरूपकी तरह अचल बनाकर धारण करनेवाला हो-कभी भूलनेवाला न हो । यह धारणा इतनी अचल हो कि जिससे उसके विषयका संस्कार जन्मान्तरं में भी चला जाय । आत्मरूपकी तरह इसलिये कि उसका वियोग कभी न होना चाहिये । ५ उस गृहीत तथा धारित विषयका प्रवचन के जानकारोंके साथ मिलकर संशय विपर्यय अनध्यवसायरहित श्रद्धान करनेवाला हो । क्योंकि ऐसे मनुष्पोंसे मिलकर विचार करना, उस विषयमें विशेष ज्ञान प्राप्त करनेका प्रधान कारण है । ६--इन जाने हुए विषयोंमें व्याप्तिके द्वारा विशेष तर्क करनेवाला हो । "जो इस प्रकारका स्थिर सिद्वान्त है वह सर्वत्र सर्वदा इसी प्रकारका रहेगा" इस व्याप्तिके अनुसार जाने हुए विषयोंके आधारपर अज्ञात-प्रवचनोपदेशमें न सुने हुए विषयोंका भी श्रद्धान करनेवाला हो । ७-प्रमाणबाधित -आगम और युक्तिसे विरुद्ध पदार्थोंको अश्रद्धेय समझकर प्रत्यवायकी संभावनासे छोड देनेवाला हो। ८-अंतमें जिन जिनका स्वरूप जिस जिस प्रकारसे-हेयरूपसे या उपादेय रूपसे अथवा उपेक्ष्य रूपसे जैसा व्यवस्थित हो चुका है उन उन तत्चोंका उसी उसी प्रकारसे अभिनिवेश--आग्रह रखनेवाला हो।
भावार्थ- इस पद्यमें क्रमसे श्रोताके १ शुश्रूषा २ श्रवण ३ ग्रहण ४ धारण ५ विज्ञान ६ ऊह ७ अपोह ८और तवाभिनिवेश इन आठ बुद्धिसम्बन्धी गुणोंको बताया है, और दिखाया है कि इन गुणोंसे युक्त बुद्धिमान् श्रोता ही पूर्णतया धर्मोपदेशका पात्र है।
इन आठ गुणोंसे युक्त बुद्धिके धारण करनेवाले श्रोताको भी प्रज्ञा, विना धर्मोपदेशके धर्ममें प्रवृत्त नहीं हो सकती । यही बात बताते हैं--
अन. ध.६
अध्याय
-- PatanANMITTuorummaNamesess
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