Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ धवला - टीका - समन्वितः षट्खंडागमः वर्गणाखंडे - स्पर्श-कर्म-प्रकृत्यनुयोगद्वाराणि खंड- ५ -- पुस्तक-१३ भाग-१, २, ३ प्रकाशक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमाला द्वारा अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला. ( धवला-पुष्प १३) श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः षटखंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः तस्य पंचमखंडे वर्गणानामधेये हिन्दी भाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टः सम्पादितानि स्पर्श-कर्म-प्रकृत्यनुयोगद्वाराणि खंड ५ पुस्तक १३ भाग १, २,३ - ग्रंथसम्पादक - स्व. डॉ. होरालालो जैनः - सहसम्पादकौ - स्व. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री स्व. पं. बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री - प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर वीर नि. संवत् २५१९ इ. सन १९९३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक - सेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष- जैन संस्कृति संरक्षक संघ फलटण गल्ली, सोलापुर-२ संशोधित द्वितीय आवृत्ति १९९३, प्रतियाँ - ११०० संशोधन सहाय्यक स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये पं. जवाहरलाल शास्त्री, भिण्डर श्रीमती कैलास जैन, भिण्डर पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री, सोलापुर __(न्यायतीर्थ, महामहिमोपाध्याय) डॉ. पं. देवेंद्र कुमार शास्त्री, नीमच मुद्रक - कल्याण प्रेस, सोलापुर. मुद्रण सम्राट, सोलापुर. मुल्य- १२०/- रुपये (सर्वाधिकार सुरक्षित) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rights to Publish Received From Shrimant Seth Sitabrai Lakshmichandra Jain Sahityoddharaka Siddhanta Granthamala Jivaraj Jain Granthamala Dhavala Section - 13 THE SHATKHANDAGAMA OF PUSHPADANTA AND BHOOTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VEERASENA Varganakhanda (Sparsha-Karma-Prakriti Anuyogadwaras ) Edited with introduction, translation, notes and indexes By Late Dr. Hiralal Jain Assisted by Late Pt. Phoolachandra Siddhanta Shastri Late Pt. Balachandra Siddhanta Shastri Vol. 5 Book - 13 Section - 1, 2, 3 Published by Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha SOLAPUR. Veera Samvat - 2519 A. D. 1993 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by - Seth Aravind Raoji. President Jaina Samskriti Samrashaka Sangha Phaltan Galli, SOLAPUR-2 Revised Second Edition, 1993 (1100 Copies ) Research Assistants Late Dr. A. N. Upadhye Pt. Jawaharlal Jain Shastri (Bhindar) Smt. Kailash Jain (Bhindar) Editors of GranthamalaPt. Narendrakumar Bhisikar Shastri (Solapur) (Nyayateertha, Mahamahimopadhyaya ) Dr. Pt. Devendrakumar Shastri ( Neemach ) Printed by Kalyan Press, Solapur. . Mudran Samrat, Solapur. Price : Rs. 120/ ( Copyright Reserved) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक अभिनंदन... धवला षट्खंडागमके भाग १० से १६ तक के पुनर्मुद्रण के लिए 'धर्मानुरागी' धवला परम संरक्षक श्री. डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील और उनकी धर्मपत्नी सौ. डॉ. त्रिशलादेवी अप्पासाहेब नाडगौडा पाटील रबकवी (कर्नाटक) इन्होंने आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीको सेवाका जो महान् आदर्श उपस्थित किया है उसके लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके प्रति अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं। - विश्वस्त मंडल, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन षट्खण्डागम धवला सिद्धांत ग्रंथके पंचम खण्डके प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय भाग में अर्थात् तेरहवें पुस्तक में वर्गणाओंका सविस्तर वर्णना किया गया है। - इस ग्रंथका पूर्व प्रकाशन श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक फंड विदिशा द्वारा हुआ है । उसका मूल ताडपत्र ग्रंथसे मिलानकर संशोधित पाठसहित द्वितीयावृत्तिका प्रकाशन अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर द्वारा प्रकाशित करने में हम अपना सौभाग्य समझते हैं । स्व. ब्र. रतनचंदजी मुख्त्यार ( सहारनपुर ) तथा आदरणीय पू. आर्यिका विशुद्धमती माताजी इनके संपर्क में धवला ग्रंथोंका सूक्ष्म, गहन स्वाध्याय जिनका होता रहा ऐसे श्रीमान् पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ( भिंडर ) इनके तथा उनकी सुविद्य धर्मपत्नी श्रीमती कैलास जैन ( भिंडर ) द्वारा भेजे हुए संशोधनका भी इस संशोधनकार्य में हमें सहयोग मिला जिसके लिए हम सभी सज्जनोंके अतीव आभारी हैं । प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वमुद्रित पाठ और संशोधित पाठ अलगसे संलग्न किया गया है । इस ग्रंथ का प्रूफ संशोधन कार्य जीवराज जैन ग्रंथमालाके संपादक श्री. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री तथा धन्यकुमार जैनी द्वारा संपन्न हुआ है। तथा मुद्रणकार्य कल्याण प्रेस, तथा मुद्रण सम्राट, सोलापुर इनके द्वारा संपन्न हुआ है। हम इनके भी आभार प्रदर्शित करते है | धर्मानुरागी श्रीमान् डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील तथा उनकी धर्मपत्नी डॉ. सौ. त्रिशलादेवी नाडगौडा पाटील इन महानुभावोंने षट्खण्डागम धवला भा. १० से १६ तकके पुनर्मुद्रण के लिए आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका महान आदर्श उपस्थित किया । इसलिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके सहयोग के लिए अनेकशः धन्यवाद प्रकट करते हैं । - रतनचंद सखाराम शहा मंत्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगाते रहे । सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजकी उन्नतिके कार्यमें करें । तदनुसार उन्होंने समस्त भारतका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे इस बातको साक्षात् और लिखित संमतियां संग्रह की कि कौनसे कार्य में संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेने के पश्चात् सन १९४१ के ग्रीष्म कालमें व्रम्हचारीजीने श्रीसिद्धक्षेत्र गजपथ के पवित्र भूमिपर विद्वानोंकी समाज एकत्रित की और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वत्संमेलनके फलस्वरूप ब्रम्हचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की और उसके लिये ३०,००० तीस हजार रुपयोंके दानकी घोषणा कर दी। उनकी परिग्रह निवृत्ति बढती गई । सन १९४४ में उन्होंने लगभग २,००,००० दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की। इसी संघ के अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचलन हो रहा है । प्रस्तुत ग्रंथ, श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमालाके द्वारा अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमालाका धवला विभागका तेरहवाँ पुष्प है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची पृष्ठ प्रस्तावना विषय-परिचय २ विषयसूची १-३९२ मूल अनुवाद और टिप्पण १ स्पर्शानुयोगद्वार २ कर्मानुयोगद्वार ३ प्रकृतिअनुयोगद्वार ३७-१९६ १९७-३९२ परिशिष्ट १ स्पर्शानुयोगद्वार आदिका सूत्रपाठ गाथासूत्र २ अवतरण-गाथासूची ३ न्यायोक्तियाँ ४ ग्रन्थोल्लेख ५ पारिभाषिक शब्द-सूची Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विषय परिचय स्पर्श अनुयोगद्वारसे वर्गणाखण्ड प्रारम्भ होता है। इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अधिकारों के साथ बन्धन अनुयोगद्वारके बन्ध और बन्धनीय इन दो अधिकारोंका विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। फिर भी इसमें बन्धनीयका आलम्बन लेकर वर्गणाओंका सविस्तर वर्णन किया है, इसलिए इसे वर्गणाखण्ड इस नामसे सम्बोधित करते हैं । १ स्पर्श अनुयोगद्वार - स्पर्श छूने को कहते हैं । वह नामस्पर्श और स्थापनास्पर्श आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिए प्रकृत में कौनसा स्पर्श गृहीत है यह बतलाने के लिए यहां स्पर्श अनुयोगद्वारका आलम्बन लेकर स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान स्पर्शद्रव्यविधान आदि १६ अधिकारोंके द्वारा स्पर्शका विचार किया है । १ स्पर्शननिक्षेप स्पर्शनिक्षेपके नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श ये तेरह भेद है । २ स्पर्शनयविभाषणता अभी जो स्पर्शनिक्षेपके तेरह भेद बतलाए हैं उनमें से कौन स्पर्श किस नयका विषय है, यह बतलाने के लिए यह अधिकार आया है। नयके मुख्य भेद पांच हैं- नेगमनय, व्यवहारनय, संग्रहनय, ऋजुसूत्रनय और शब्दनय । इनमेंसे नैगमनय नामस्पर्श आदि सब स्पर्शोका स्वीकार करता है । व्यवहार और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करते, शेष ग्यारहको स्वीकार करते हैं । ये दोनों नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको क्यों स्वीकार नहीं करते, इसके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि इन नयोंकी दृष्टि में एक तो बन्धस्पर्श कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये इसे अलग से स्वीकार नहीं करते । दूसरे बन्धस्पर्श बनता ही नहीं है, क्योंकि बन्ध ओर स्पर्श इनमें कोई भेद ही नहीं है, इसलिए भी इसे स्वीकार नहीं करते । तथा भव्यस्पर्श वर्तमान समय में उपलब्ध नहीं होता, इसलिए बन्धस्पर्श के समान भव्यस्पर्श भी इनका विषय नहीं है । ऋजुसूत्रनय स्थापनास्पर्श एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श इन पांच को स्वीकार नहीं करता; शेष नो स्पर्शोको स्वीकार करता है । ऋजुसूत्रनय एकक्षेत्रस्पर्शको क्यों विषय नहीं करता, इसके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि इस नयकी दृष्टिमें एकक्षेत्र नहीं बनता क्योंकि एकक्षेत्र पदका एक जो क्षेत्र वह एकक्षेत्र' ऐसा अर्थ करनेपर आकाशकी दृष्टिसे एक आकाशप्रदेश उपलब्ध होता है । परन्तु वह ऋजुसूत्र की दृष्टि में एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बन सकता, क्योंकि स्पर्श दोका होता है, और नय दोको स्वीकार नहीं करता । इसी प्रकार इस नयकी दृष्टिसे अन्तरक्षेत्र स्पर्श भी नहीं बनता, क्योंकि यह नय आधार - आधेयभावको स्वीकार नहीं - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ) प्रस्तावना करता । इसी प्रकार इस नयकी दृष्टिसे स्थापनास्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शका निषेध जानना चाहिए। यहां यद्यपि सूत्रगाथामें ऋजुसूत्र के विषयरूपसे स्थापना स्पर्शका निषेध नहीं किया है, पर स्थापना ऋजुसूत्रका विषय नहीं है, इसलिए उसका निषेध स्वयं ही सिद्ध हैं । शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्शको स्वीकार करता है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि भावस्पर्श शब्दनयका विषय है, यह तो स्पष्ट ही है । किन्तु नामके विना भावस्पर्शका कथन नहीं किया जा सकता है, इसलिए नामस्पर्श भी शब्दनयका विषय है । और द्रव्यकी विवक्षा किये विना भी कर्कश आदि गुणोंका अन्य गुणोंके साथ संबंध देखा जाता है, इसलिए स्पर्शस्पर्श भी शब्दनयका विषय है । आगे स्पर्शनामविधान आदि चौदह अनुयोगद्वारोंका मूलमें कथन न कर स्पर्शनिक्षेप आदि तेरह निक्षेपोंका ही स्वरूप निर्देश किया है जो इस प्रकार है -- नामस्मर्श- - एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव, तथा नाना जीव और नाना अजीव; इनमें से जिस किसीका भी ' स्पर्श' ऐसा नाम रखना नामस्पर्श है । स्थापनास्पर्श - काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म आदि विविध प्रकारके कर्म तथा अक्ष और वराटक आदि जो भी संकल्पद्वारा स्पर्शनरूपसे स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनास्पर्श है । द्रव्यस्पर्श - एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ जो सम्बन्ध होता है वह सब द्रव्यस्पश है । सब मिलाकर यह द्रव्यस्पर्श ६३ प्रकारका है, क्योंकि छहों द्रव्योंके एकसयोगी ६, द्विसंयोगी १५, त्रिसंयोगी २०, चतुःसंयोगी १५, पञ्चसंयोगी ६ और छहसंयोगी १, कुल ६३ संयोगी भङ्ग होते हैं । एकक्षेत्रस्पर्श- जो द्रव्य अपने एक अवयवद्वारा अन्य द्रव्यका स्पर्श करता है उसे एकक्षेत्रस्पर्श कहते हैं । जैसे एक आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु संयुक्त होकर या बन्धको प्राप्त होकर निवास करते हैं । अनन्तरक्षेत्रस्पर्श- विवक्षित क्षेत्रसे लगा हुआ क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र कहलाता है । कोई द्रव्य विवक्षित क्षेत्र में स्थित है वह अन्य द्रव्य उससे लगे हुए क्षेत्र में स्थित है । ऐसी अवस्था में इन दो द्रव्योंका जो स्पर्श होता हैं वह अनन्तरक्षत्रस्पर्श कहलाता है । इसी प्रकार जो द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध होते हैं उनका दो आकाशप्रदेशों आदिमें निवास करनेपर उन स्कन्धों में रहनेवाले परमाणुओं का भी अनन्तरक्षेत्र स्पर्श घटित कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जहां क्षेत्रका व्यवधान न होकर दो द्रव्योंका स्पर्श होता हैं वहां यह स्पर्श घटित होता है । देशस्पर्श- एक द्रव्यके एकदेशका अन्य द्रव्यके एकदेशके साथ जो स्पर्श होता है उसे देशस्पर्श कहते हैं । यह देशस्पर्श स्कन्धों के अवयवोंका ही होता है, परमाणुरूप पुद्गलोंका नहीं; क्योंकि, परमाणुओंके अवयव नहीं उपलब्ध होते; यदि ऐसा कोई कहे तो उसका यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि परमाणुका विभाग नहीं हो सकता इस अपेक्षा उसे अप्रदेशी कहा है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय परिचय . वैसे तो परमाणु भी सावयव होता है, अन्यथा परमाणुओंके संयोगसे स्कन्धकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसलिए दो या दोसे अधिक परमाणुओंका भी एकदेशस्पर्श होता है । त्वकस्पर्श - वृक्षकी छालको त्वक और पपडीको नोत्वक् कहते हैं। तथा सूरण, अदरख' प्याज और हलदी आदिकी बाह्य पपडीको भी नोत्वक कहते है । द्रव्यका त्वचा और नोत्वचाके साथ जो स्पर्श होता है उसे त्वक्स्पर्श कहते हैं। त्वचा और नोत्वचा ये स्कन्धके ही अवयव हैं। इसलिये पृथक् द्रव्य न होनेसे इसका द्रव्यस्पर्शमें अन्तर्भाव नहीं किया है। यहां त्वचा और नोत्वचाके एक और नाना भेद करके आठ भंग उत्पन्न करने चाहिए। ये भेद वीरसेन स्वामीने लिखे हैं, इसलिए उनका अलगसे विवेचन नहीं किया है । यहां त्वचा और नोत्वचाका द्रव्यके साथ अथवा परस्पर स्पर्श विवक्षित है, इतना विशेष जानना चाहिये। सर्वस्पर्श - एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ जो सर्वांग स्पर्श होता है उसे सर्वस्पर्श कहते है। उदाहरणार्थ एक आकाशप्रदेश में बन्धको प्राप्त हुए दो परमाणुओंका सर्वांग स्पर्श देखा जाता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका यथासम्भव सर्वस्पर्श जानना चाहिए। स्पर्शस्पर्श - स्पर्श गुणके आठ भेद हैं । उनका स्पर्शन इन्द्रियके साथ जो स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते है । यहांपर कर्कश आदि गुणोंके परस्पर स्पर्शकी विवक्षा नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अन्य रूप आदि गुणोंका भी स्पर्श लेना पडेगा । किन्तु सूत्र में स्पर्शस्पर्शसे कर्कश आदि आठ प्रकारके स्पर्शका ही ग्रहण किया है। इससे स्पष्ट है कि यहां कर्कश आदिका परस्पर स्पर्श विवक्षित नहीं है । कर्मस्पर्श - ज्ञानावरण आदिके भेदसे कर्म आठ प्रकारके हैं । इनका तथा इनके विस्रसोप चयोंका जीवके साथ जो सम्बन्ध है वह सब कर्मस्पर्श कहलाता है। ज्ञानावरणादि कुल कर्म आठ हैं। इनमेंसे प्रत्येक कर्मका अपने साथ व अन्य कर्मों के साथ सम्बन्ध है, अतः कुल चौंसठ भंग होते हैं। उनमेंसे पुनरुक्त २८ भंगोंको कम कर देनेपर ३६ अपुनरुक्त भंग शेष रहते हैं। बन्धस्पर्श - औदारिकशरीरका औदारिकशरीरके साथ, तथा इसी प्रकार अन्य शरीरोंका अपने अपने साथ जो स्पर्श होता है उसे बन्धस्पर्श कहते हैं । कर्मका कर्म ओर नोकर्मके साथ तथा नोकर्मका नोकर्म और कर्मके साथ स्पर्श होता है, यह दिखलाने के लिए कर्मस्पर्श और बन्धस्पर्शको द्रव्यस्पर्शसे अलग कहा है । इस बन्धस्पर्शके कुल भंग २३ हैं। उनमेंसे ९ पुनरुक्त भंग अलग कर देनेपर १४ अपुनरुक्त भंग शेष रहते हैं । वीरसेन स्वामीने इनका अलगसे निर्देश किया ही है। भव्यस्पर्श - जो आगे स्पर्श करने योग्य होंगे, परन्तु वर्तमान में स्पर्श नहीं करते, वह भव्यस्पर्श कहलाता है । मूल सूत्र में इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार दिए हैं- विष, कूट, यन्त्र, पिंजरा, कन्दक और जाल आदि तथा इनको करनेवाले और इन्हें इच्छित स्थानमें रखनेवाले। यद्यपि इनका वर्तमानमें अन्य पदार्थसे स्पर्श नहीं हो रहा है, पर आगे होगा; इसलिए इसकी भव्यस्पर्श संज्ञा हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ) प्रस्तावना भावस्पर्श - स्पर्शविषयक शास्त्रका जानकार और वर्तमान में उसके उपयोगवाला जीव भावस्पर्श कहलाता है । जो स्पर्शविषयक शास्त्रका ज्ञाता नहीं हैं, परन्तु स्पर्शरूप उपयोग से उपयुक्त है, उसकी भी भावस्पर्श संज्ञा है । अथवा जीव और पुद्गल आदि द्रव्योंके जो ज्ञान आदि भाव होते हैं उनके सम्बन्धको भी भावस्पर्श कहते हैं । इस प्रकार ये कुल १३ स्पर्श हैं । इनमेंसे इस शास्त्र में कर्मस्पर्शसे ही प्रयोजन है, क्योंकि यह शास्त्र अध्यात्मविद्याका विवेचन करता है, इसलिए यहां अन्य स्पर्श नहीं लिए गये हैं और न स्पर्शनामविधान आदि अन्य अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर उनका विचार ही किया है । उसमें भी कर्मका विवेचन वेदना आदि अनुयोगद्वारों में विस्तार के साथ किया है, इसलिए यहां उसका भी कर्मस्पर्शनयविभाषणता आदि अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार नही किया है। २ कर्म अनुयोगद्वार कर्मका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है क्रिया । निक्षेपव्यवस्थाके अनुसार इसके नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ये दस भेद हैं। साधारणतः कर्मका कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता आदि सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया जाता है। यहां सर्वप्रथम कर्मनिक्षेपके दस भेद गिनाकर किस कर्मको कौन नय स्वीकार करता है, यह बतलाया गया है, । इसके बाद प्रत्येक निक्षेपके स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है । नयके पांच भेद पहले लिख आयें हैं । उनमें से नैगमनय, व्यवहारनय और संग्रहनय सब कर्मोंको विषय करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्थापना कर्म के सिवा शेष नौ कर्मोंको स्वीकार करता हैं । तथा शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको ही स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है । नामकर्म और स्थापनाकर्म सुगम हैं । जीव या अजीवका 'कर्म' ऐसा नाम रखना नामकर्म हैं । काष्ठकर्म आदिमें तदाकार या अतदाकार कर्मकी स्थापना करना स्थापनाकर्म है । द्रव्यकर्म - जिस द्रव्यकी जो सद्भाव क्रिया हैं । उदाहरणार्थ- ज्ञान दर्शन रूपसे परिणमन करना जीव द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । वर्ण, गन्ध आदि रूपसे परिणमन करना पुद्गल द्रव्यकी सद्भाव किया है। जीवों और पुद्गलोंके गमनागमन में हेतुरूपसे परिणमन करना अधर्म द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । सब द्रव्योंके परिणमन में हेतु होना काल द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । अन्य द्रव्यों के अवकाशदानरूपसे परिणमन करना आकाश द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है। इस प्रकार विवक्षित क्रिया रूपसे द्रव्योंके परिणमनका जो स्वभाव है वह सब द्रव्यकर्म है । प्रयोगकर्म - मनः प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्मके भेदसे प्रयोगकर्म तीन प्रकारका है । मन, वचन और काय आलम्बन हैं । इनके निमित्तसे जो जीवका परिस्पंद होता है उसे प्रयोगकर्म कहते हैं । मनःप्रयोगकर्म और वचनप्रयोगकर्म मंसे प्रत्येक सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेंदसे चार प्रकारका है । कायप्रयोगकर्म औदारिकशरीर कायप्रयोगकर्म आदिके Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय भेदसे सात प्रकारका है । यह तीनों प्रकारका प्रयोगकर्म यथासम्भव संसारी जीवोंके और सयोगी जिनके होता है। समवदानकर्म- जीव आठ प्रकारके, सात प्रकारके या छह प्रकारके कर्मोको ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है; इसलिए यह सब समवदानकर्म हैं। समवदानका अर्थ विभाग करना हैं । जीव मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके निमित्तसे कर्मोंको ज्ञानावरणादिरूपसे आठ सात या छह भेद करके ग्रहण करता है, इसलिए इसे समवदानकर्म कहते हैं; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अध:कर्म- जीव अंगछेदन, परिताप और आरम्भ आदि नाना कार्य करता है । उसमें भी ये कार्य औदारिकशरीरके निमित्तसे होते हैं, इसलिए उसकी अध:कर्म संज्ञा है। यद्यपि नारकियोंके वैक्रियिकशरीरके द्वारा भी य कार्य देखे जाते है। पर वहां इनका फल जीववध नहीं दिखाई देता । इसीलिए औदारिकशरीरकी ही यह संज्ञा है। ईर्यापथकर्म- ईर्या अर्थात् केवल योगके निमित्तसे जो कर्म होता है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है । यह ग्यारहवेंसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक होता है, क्योंकि केवल योग इन्हीं गुणस्थानोंमें उपलब्ध होता है । यहां वीरसेन स्वामीने तीन पुरानी गाथाओंको उद्धृत कर ईर्यापथकर्मका अति सुन्दर विवेचन करते हुए लिखा है कि ईर्यापथकर्म अल्प है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अल्प अर्थात् एक समय तक ही रुकते हैं । वह बादर है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्मपुदगल बहुत होते हैं। यहां यह कथन वेदनीय कर्मकी मुख्यतासे किया है। वह मृदु है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म कर्कश आदि गुणोंसे रहित होते हैं । वह रूक्ष है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म रूक्ष गुणयुक्त होते हैं ! वह शुक्ल है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अन्य वर्णसे रहित एक मात्र शक्ल रूपको लिए हए होते हैं। वह मन्द्र है. क्योंकि वह सातारूप परिणामको लिए हुए होता है । वह महाव्ययवाला हैं, क्योंकि यहां असंख्यातगुणी निर्जरा देखी जाती है । वह सातारूप है, क्योंकि वहां भूख-प्यास आदिकी बाधा नहीं देखी जाती । वह गृहीत होकर भी अगृहीत है, बद्ध होकर भी अबद्ध है, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट है, उदित होकर भी अनुदित है, वेदित होकर भी अवेदित है, निर्जरवाला होकर भी एक साथ निर्जरवाला नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है । कारणका निर्देश वीरसेन स्वामीने किया ही है । तपःकर्म- रत्नत्रयको प्रगट करने के लिये जो इच्छाओंका निरोध किया जाता है वह तप कहलाता है । इसके बारह भेद हैं । छह अभ्यन्तर तप और छह बाह्य तप । बाह्य तपोंमें पहला अनशन तप है । इसे अनेषण भी कहते हैं। विवक्षित दिन या कई दिन तक किसी प्रकारका आहार न लेना अनशन तप है । स्वाभाविक आहारसे कम आहार लेना अवमौदर्य तप है । सामान्यतः पुरुषका आहार ३२ ग्रासका और महिलाका आहार २८ ग्रासका माना गया है । एक ग्रास एक हजार चावल का होता है और इसी अनुपातसे यहां पुरुष और महिलाके ग्रासोंका विधान किया गया है । वैसे जो जिसका स्वाभाविक आहार है वह उसका आहार माना गया है और उससे न्यून आहार अवमोदर्य तप कहलाता है । भोजन, भाजन और घर आदिको वृत्ति कहते हैं और इसका परिसंख्यान करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । क्षीर, गुड, घी, नमक और Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दही आदि रस हैं। इनका परित्याग करना रसपरित्याग तप है ! वृक्षके मल में निवास, आतापन योग और पर्यंकासन आदिके द्वारा जीवका दमन करना कायक्लेश तप है । तथा विविक्त अर्थात् एकान्तमें उठना, बैठना व शयन करना विविक्तशय्यासन तप है । यह छह प्रकारका बाह्य तप है । यह बाह्य अर्थात् मार्गविमुख जनोंके भी ध्यान में आता है, इसलिए इसकी बाह्य तप संज्ञा है। कृत अपराधके निराकरणके लिए जो अनुष्ठान किया जाता है उसकी प्रायश्चित संज्ञा है। यहांपर प्रायः शब्दका अर्थ लोक है और चित्तका अर्थ मन है। अत: चित्तका सशोधन करना ही प्रायश्चित है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह प्रायश्चित आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धानके भेदसे दस प्रकारका है। इनमें से आलोचना गुरुकी साक्षीपूर्वक और प्रतिक्रमण गुरुके विना अल्प अपराध होनेपर किया जाता है । तदुभय स्पष्ट ही है । गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक है। तात्पय है कि जिस द्रव्य आदिके संयोगसे दोषोत्पत्तिकी सम्भावना हो उससे जुदा कर देना विवेक प्रायश्चित है। ध्यानपूर्वक नियत समयके लिए कायसे मोह छोडक र स्थित रहना व्युत्सग प्रायश्चित है। उपवास, आचाम्ल आदि करना तप प्रायश्चित हैं। विवक्षित समय तककी दीक्षाका छेद करना छेद प्रायश्चित है। पूरी दीक्षाका छेद करना मूल प्रायश्चित है। परिहार दो प्रकारका है- अनवस्थाप्य और पारंचिक । अनवस्थाप्यका जघन्य काल छह माह और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है । वह कायभूमिसे दूर रहकर विहार करता है, उसकी कोई प्रतिवन्दना नहीं करता, वह गुरुके साथ ही संभाषण कर सकता है । पारंचिक तपमें इतनी विशेषता है कि इसे जहां साधर्मी बन्धु नहीं होते ऐसे क्षेत्रमें आहारादिकी विधि सम्पन्न करते हुए निवास करना पडता है । यह दोनों प्रकारका प्रायश्चित राज्यविरुद्ध कार्य करनेपर दिया जाता है। मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर पुनः सद्धर्मको स्वीकार करना श्रद्धान नामका प्रायश्चित है । ज्ञानादिके भेदसे विनय पांच प्रकारका है। आचार्य आदिकी आपत्तिको दूर करना वैयावृत्त्य तप है । जिनागमके रहस्यका अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। एकाग्न होकर अन्य चिन्ताका निरोध करना ध्यान तप है । कषायोंके साथ देहका त्याग करना कायोत्सर्ग तप है । यह छह प्रकारका अम्यन्तर तप है । यहां ध्यानका विस्तारसे वर्णन करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानका फल, इन चारोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। ध्यानके चार भदोंमेंसे धर्मध्यान अविरतसम्यग्दष्टि गुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक, और शुक्लध्यान उपशान्तमोह गुणस्थानसे होता है, यह बतलाया है। शुक्लध्यानके चार भेदोंमेंसे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम ध्यान उपशान्तकषाय गुणस्थानमें मुख्य रूपसे होता है और कदाचित् एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान भी होता है । क्षीणमोह गुणस्थानमें एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान मुख्य रूपसे होता है और प्रारम्भमें पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भी होता है। क्रियाकर्म- इसमें आत्माधीन होकर गुरु, जिन और जिनालयकी तीन बार प्रदक्षिणा की जाती है। अथवा तीनों संध्याकालोंमें नमस्कारपूर्वक प्रदक्षिणा की जाती है, तीन बार भूमिपर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - परिचय बैठकर नमस्कार किया जाता है । विधि यह है कि शुद्धमनसे और पादप्रक्षालन कर जिन भगवान्‌ के आगे बैठना प्रथम नमस्कार है । फिर उठकर और प्रार्थना करके बैठना दूसरा नमस्कार है । पुनः उठकर और सामायिकदण्डक द्वारा आत्मशुद्धि करके कषाय और शरीरका उत्सर्ग करके जिन देवके अनन्त गुणोंका चिन्तवन करते हुए चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करके तथा जिन जिनालय और गुरुकी स्तुति करके बैठना तीसरा नमस्कार है । इस प्रकार एक क्रियाकर्म में तीन अवनति होती हैं । सब क्रियाकर्म चार नमस्कारोंको लिए हुए होता है । यथासामायिक के प्रारंभ में और अंतमें जिनदेवको नमस्कार करना तथा ' त्योस्सामि' दंडक के आदिमें और अंत में नमस्कार करना । इस प्रकार एक क्रियाकर्म में चार नमस्कार होते हैं । तथा प्रत्येक नमस्कार के प्रारंभ में मन, वचन और कायकी शुद्धिके ज्ञापन करने के लिए तीन आवर्त किये जाते हैं । सब आवर्त बारह होते हैं । यह क्रियाकर्म है । मूलाचार और प्राचीन अन्य साहित्यमें भी उपासना की यही विधि उपलब्ध होती है। यह साधु और श्रावक दोनोंके द्वारा अवश्यकरणीय है । भावकर्म - जिसे कर्मप्राभृतका ज्ञान है और उसका उपयोग है उसे भावकर्म कहते हैं । इस प्रकार कर्मके दस भेद हैं । उनमेंसे प्रकृतमें समवदानकर्मका प्रकरण है, क्योंकि, कर्म अनुयोगद्वार में विस्तारसे इसीका विवेचन किया गया है । न ू ) इसके आगे वीरसेन स्वामीने प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म; इन छह कर्मोंका सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अधिकारोंके द्वारा ओघ और आदेश से विवेचन किया है । यथा - ओघसे छहों कर्म हैं । आदेशसे नारकियों और देवों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म हैं । शेष नहीं हैं । तिर्यञ्चों में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं हैं, शेष चार हैं। मनुष्यों में छहों कर्म हैं । कारण स्पष्ट है । इसी प्रकार शेष मार्गणाओं में घटित कर लेना चाहिए । तात्पर्य इतना है कि प्रयोगकर्म तेरहवें गुणस्थान तक सब जीवोंके उपलब्ध होता है, क्योंकि यथासम्भव मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति अयोगी और सिद्ध जीवोंको छोड़कर सर्वत्र पायी जाती है । समवदानकर्म सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक सब जीवोंके होता है, क्योंकि यहां तक किसीके आठ, किसीके सात और किसीके छह प्रकारके कर्मोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । अधःकर्म केवल औदारिकशरीरके आलम्बनसे होता है, इसलिए इसका सद्भाव मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही होता है । ईर्यापथकर्म उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली के होता है, इसलिए यह मनुष्योंके बतलाया गया हैं । क्रियाकर्म अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे होता है, अत: इसका सद्भाव चारों गतियों में कहा गया है । तपःकर्म प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे होता है, अतः इसके स्वामी मनुष्य ही हैं । यह चार गतिका विवेचन है । अन्य मार्गणाओं में इस विधिको जानकर घटित कर लेना चाहिए। तथा इसी विधि के अनुसार ओघ और आदेश से इनकी संख्या आदि भी जान लेनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्या आदि प्ररूपणाओं का विचार करते समय इन छह कर्मोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी अपेक्षा कथन किया है, इसलिए यहां इनकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका ज्ञान करा देना आवश्यक है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ) प्रस्तावना प्रयोगकर्म तपः कर्म और क्रियाकर्म में उस उस कर्मवाले जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन जीवोंके प्रदेशोंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । समवदानकर्म और ईर्यापथक में उस उस कर्मवाले जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन जीवोंसे सम्बन्धको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । अधः कर्ममें औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्धोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है ओर औदारिकशरीर के उन नोकर्मस्कन्धोंके परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । इसलिए संख्या आदिका विचार इन कर्मोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी संख्या आदिको समझकर करना चाहिए। ३ प्रकृति अनुयोगद्वार प्रकृति, शील और स्वभाव इनका एक ही अर्थ है । उसका जिस अनुयोगद्वार में विवेचन हो उसका नाम प्रकृति अनुयोगद्वार है । इसका विचार प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया जाता है । उसमें पहले प्रकृतिनिक्षेपका विचार करते हुए इसके नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं और इसके वाद कौन नय किस प्रकृतिको स्वीकार करता है, यह बतलाते हुए कहा है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब प्रकृतियोंको स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्थापनाप्रकृतिको स्वीकार नहीं करता । शब्दनय केवल नाम और भावप्रकृतिको स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है । आगे नामप्रकृति आदिका विस्तारसे विचार किया है । यथा नामप्रकृति- जीव और अजीवके एकवचन और बहुवचन तथा एकसंयोगो और द्विसंयोगी जो आठ भेद हैं उनमेंसे जिस किसीका 'प्रकृति' ऐसा नाम रखना वह नामप्रकृति है । स्थापनाप्रकृति - काष्ठकर्म आदिमें व अक्ष और वराटक आदिमें बुद्धिसे ' यह प्रकृति है ' ऐसी स्थापना करना वह स्थापनाप्रकृति है । द्रव्यप्रकृति- द्रव्यका अर्थ भव्य है । इसके दो भेद हैं- आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगद्रव्यप्रकृति | आगमद्रव्यप्रकृति में प्रकृतिविषयक शास्त्रका जानकार उपयोगरहित जीव लिया गया है । अतः आगमके अधिकारीभदसे स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ये नौ भेद करके उनकी वाचना, पृच्छना प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा द्वारा ज्ञान सम्पादनकी बात कही है। इस विधि से प्रकृतिविषयक ज्ञान सम्पादन कर जो उसके उपयोगसे रहित है वह आगमद्रव्यप्रकृति कहलाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । द्रव्यप्रकृतिका दूसरा भेद नोआगमद्रव्यप्रकृति है। इसके दो भेद हैंकर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति। यहां सर्वप्रथम नोकर्मद्रव्यप्रकृति के अनेक भेदोंका संकेत करके कुछ उदाहरणों द्वारा नोकर्मकी प्रकृति बतलाई गयी है । यथा घट सकोरा आदिकी प्रकृति मिट्टी है, धानकी प्रकृति जौ है, और तर्पणकी प्रकृति गेहूं है । तात्पर्य यह है कि किसी कार्य के होने में जो पदार्थ निमित्त पडते हैं उन्हे नोकर्म कहते हैं । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी दृष्टिसे प्रत्येक कर्मके नोकर्मका स्वतन्त्र विवेचन किया है । यथा- वस्त्र ज्ञानावरनोकर्म है । प्रतीहार दर्शनावरणका नोकर्म है । तलवार वेदनीयका नोकर्म है । मद्य मोहनका नोकर्म है | आहार आयुकर्मका नोकर्म है। देह नामकर्मका नोकर्म है। उच्च-नीच शरीर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - परिचय ( ९ गोत्रकर्मका नोकर्म है । भण्डारी अन्तराय कर्मका नोकर्म हैं । तात्पर्य यह है कि वस्त्रादि द्रव्यके सामने आ जानेपर ज्ञानावरणका उदयविशेष होता है, जिससे वस्तुका ज्ञान नहीं होता, इसलिए इसकी नोकर्म संज्ञा है । इसी प्रकार अन्य कर्मोंके नोकर्मको घटित कर लेना चाहिए । वहां ये मूल प्रकृतियों की अपेक्षा नोकर्म कहे गये हैं । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा नोकर्मका विचार करते हुए इष्ट अन्न-पान आदिको सातावेदनीयका और अनिष्ट अन्न-पान आदिको असातावेदनया नोकम कहा है । इसका भी यही तात्पर्य है कि इष्ट अन्न पान आदिका संयोग होनेपर सातावेदनीयकी उदय उदीरणा होती है और अनिष्ट अन्न-पान आदिका संयोग होनेपर असातावेदनीयकी उदय - उदीरणा होती हैं । इन बाह्य पदार्थोंके संयोग-वियोग यथासम्भव उस कर्मके उदय - उदीरणा में निमित्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहां प्रकृति अनुयोगद्वारम मुख्य रूपसे नोकर्मकी क्या प्रकृति है, इसका विचार हो रहा है । इसलिए किस कार्यका क्या नोकर्म है, यह न बतलाकर जो पदार्थ नोकर्म हो सकते हैं उनकी प्रकृतिका निर्देश किया है । कर्म प्रकृतिके ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं । इनका स्वरूप इनके नामसे ही परिज्ञात है । ज्ञानावरण- ज्ञान एक होकर भी बन्धविशेषके कारण उसके पांच भेद हैं, अतः सर्वत्र ज्ञांनावरण के पांच भेद किये गये हैं । जो इन्द्रिय और नोइन्द्रियके अभिमुख अर्थात् ग्रहणयोग्य नियमित विषयको जानता है वह आभिनिबोधिकज्ञान है । यह पांच इन्द्रियों और मनके निमितसे अप्राप्तरूप बारह प्रकारके पदार्थोंका अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप तथा प्राप्तरूप उन बारह प्रकारके पदार्थोंका स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इंद्रियोंके द्वारा मात्र अवग्रहरूप होता है; इसलिए इसके अनेक भेद हो जाते हैं । यथा - अवग्रह आदिके भेदसे वह चार प्रकारका हैं, इन चार भेदोंको पांच इन्द्रिय और मन इन छहसे गुणा करनेपर चौवीस प्रकारका है, इन चौबीस भेदोंमें व्यंजनावग्रहके चार भेद मिलानेपर अट्ठाईस प्रकारका है, और इनमें अवग्रह आदि चार सामान्य भेद मिलानेपर बत्तीस प्रकारका है। पुन: इन ४, २४, २८ और ३२ भेदों को छह प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर २४, १४४, १६८, और १९२ प्रकारका है तथा १२ प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर ४८, २२८, ३३६ और ३८४ प्रकारका है । अवग्रहके भेदोंका स्वरूपनिर्देश करते हुए वीरसेन स्वामीने उनकी स्वतंत्र व्याख्या प्रस्तुत की है । वे कहते हैं कि अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है और प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह है । इस आधारसे उन्होंने स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों को प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके अर्थका ग्रहण करनेवाला माना है । इस कथनकी पुष्टिमें उन्होंने अनेक हेतु भी दिये हैं । श्रोत्रेन्द्रिय विषयका ऊहापोह करते हुए उन्होंने भाषा के स्वरूपपर भी प्रकाश डाला है। वे अक्षरगत भाषाके भाषा और कुभाषा य दो भेद करके लिखते हैं कि काश्मीर देशवासी, पारसीक, सिंहल और वर्वरिक आदि जनोंकी भाषा कुभाषा है और ऐसी कुभाषायें सात सौ हैं। भाषायें अठारह हैं । इनका विभाग करते हुए वीरसेन स्वामीने भारत देश के मुख्य छह विभाग Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) प्रस्तावना किये हैं और प्रत्येक विभागकी तीन तीन भाषायें मानी हैं । वे छह विभाग ये हैं- कुरु लाढा मरहठा, मालव, गौड और मागध । इसी प्रकार शब्द एक स्थानपर उत्पन्न होकर अन्य प्रदेश में कैसे सुना जाता है, इस विषयका ऊहापोह करते हुए उन्होंने लिखा है कि शब्द जिस प्रदेशमें उत्पन्न होते हैं उनमेंसे बहुभाग तो वहीं रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द उससे लगे हुए प्रदेश तक जाते हैं। इनमें भी बहभाग उस दूसरे प्रदेशमें रह जाते हैं और एक भाग प्रमाण शब्द आगेके प्रदेश तक जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर कम कम होते हए वे लोकके अन्त तक जाते हैं। समयके सम्बन्ध में विचार करते हुए उन्होंने दो समयसे लेकर अन्त हुर्त प्रमाण काल निर्धारित किया है । अर्थात इन शब्दोंको अपने उत्पत्तिस्थानसे लोकान्त तक जाने में कमसे कम दो समय लगते अधिकसे अधिक अन्तर्महतं काल लगता है। उन्होंने शब्द लोकान्त तक जाते हैं. इस विषयको स्पष्ट करते हुए कहा है कि वे उछल कर जाते है। इसलिए जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे ही उछल कर लोकान्त तक जाते हैं या तरंगक्रमसे वे आगे नये नये शब्दोंको उत्पन्न कर लोकान्त तक जाते हैं, यह विचारणीय है । वे शब्द सुने कैसे जाते हैं, इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि उत्पत्तिस्थानसे जो शब्द सीधमें सूने जाते हैं वे दो प्रकारसे सुने जाते हैं- परघातरूपसे और अपरघातरूपसे । यदि वे दूसरे पदार्थसे टकराये नहीं है तो बाणके समान सीधी गतिसे आकर जौर कर्णछिद्र में प्रविष्ट होकर सुने जाते हैं और यदि वे दूसरेसे टकराकर सुने जाते है तो पहले वे सीधमें किसी पदार्थसे टकराते हैं और तब फिर सीधको छोडकर अन्य दिशामें गति करते है पश्चात् वे फिरसे अन्य पदार्थसे टकराकर सीधमें आकर सुने जाते हैं। यह श्रेणिगत शब्दोंके सम्बन्धमें विचार हुआ। इनसे भिन्न उच्छेणिगत शब्द परघातसे ( टकराकर ) ही सुने जाते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानावरणके प्रकरणको समाप्त करते हुए यहां अन्तमें आभिनिबोधिकज्ञान और अवग्रह आदिके पर्याय शब्द दिय गये हैं और उसे ' अण्णा परूवणा' कहा है। आभिनिबोधिकज्ञानके पर्यायवाची शब्द लिखते हुए कहा है कि संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये उसके पर्यायवाची नाम है। जहां तक विदित हआ है आगमिक परम्परामें प्रथम ज्ञानको आभिनिबोधिक ज्ञान ही कहा है और संज्ञा आदि उसके पर्यायवाची नाम कहे गय हैं। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें आमिनिबोधिकज्ञान शब्दके स्थानमें मतिज्ञान शब्द दृष्टिगोचर होता है और उसके बाद तत्वार्थसत्रमें यह क्रम दिखाई देता है। श्वेताम्बर आगम साहित्यमें भी इन शब्दोंके प्रयोगमें व्यत्यय देखा जाता है। उदाहरणार्थ समवायांग व नंदीसूत्रमें आभिनिबोधिकज्ञान शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु अन्यत्र व्यत्यय देखा जाता है। इससे स्पष्ट है कि य आभिनिबोधिक, मति और स्मृति आदि शब्द एक हों अर्थको कहते हैं व्युत्पत्ति भेदसे इनमें जो अथभंद किया जाता है वह ग्राह्य नहीं है । हा परोक्ष ज्ञानके भेदों में जो स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान और तर्कज्ञान ये भेद आते हैं वे अवश्य हो आभिनिबोधि कज्ञानसे भिन्न हैं और तर्कज्ञान ये भेद आते हैं वे अवश्य हो आमिनिबोधिकज्ञानसे भिन्न हैं और उनका समावेश मुख्यतया क्षुतज्ञानमें होता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ( ११ ज्ञानका दूसरा भेद श्रुतज्ञान है। यह मतिज्ञानपूर्वक मनके आलम्बनसे होता है । तात्पर्य यह कि पांच इंद्रियों और मनके द्वारा पदार्थको जानकर आगे जो उसीके सम्बन्धमें या उसके सम्बन्धसे अन्य पदार्थके सम्बन्धमें विचारकी धारा प्रवृत्त होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यहां सर्वप्रथम द्वादशांग वाणीकी मुख्यतासे उसके संख्यात भेद किये गये हैं, क्योंकि कुल अक्षर और उनके संयोगी भङ्ग संख्यात ही होते हैं | कुल अक्षर ६४ हैं। यथा- २५ वर्गाक्षर, य, र, ल और व ये चार अन्तस्थ अक्षर; श, ष, स और ह ये ४ ऊष्माक्षर; अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ऐ, ओ और औ ये नौ स्वर -हस्व, दीर्घ और प्लुतके भेदसे २७; तथा अं, अः, ~क और ये ४ अयोगवाह । इस प्रकार सब मिलाकर ४ स्वतन्त्र अक्षर होते हैं। इनके एकसंयोगी और द्विसंयोगीसे लेकर चौसठसंयोगी तक सब अक्षर एकट्ठी प्रमाण होते हैं। एकट्ठीसे तात्पर्य १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ संख्यासे है। चौंसठ बार दोका अंक (२४२४२ इत्यादि ) रख कर और परस्पर गणा कर लब्ध राशिमेंसे एक कम करनेपर यह संख्या आती है। द्वादशांगवाणीका संकलन इन सब अक्षरोंमें हुआ था और इसलिए यह बतलाया गया है कि किस अंगमें कितने अक्षर थ । वीरसेन स्वामीने' इन संयोगी और असंयोगी अक्षरोंका स्वयं ऊहापोह किया है। वे बतलाते हैं कि अ आदि प्रत्येक अक्षर असंयोगी अर्थात् स्वतन्त्र अक्षर है और अनेक अक्षर मिल कर जो शब्द या वाक्य बनता है वह संयोगी अक्षरोंका उदाहरण है। इसके लिए उन्होंने 'या, श्री: सा गौ: ' यह दृष्टांत उपस्थित किया है। इस दृष्टांतमें 'य, आ, श्, र, ई, अः, स्, आ, ग्, औ और अः' ये ग्यारह अक्षर आये है। वीरसेन स्वामी इन्हें एक संयुक्ताक्षर मानते हैं। इससे द्वादशांगमें संयुक्त और असंयुक्त अक्षर किस प्रकारके होंगे और उनका उच्चारण किस प्रकारसे होता होगा, यह सब स्थिति स्पष्ट हो जाती है । पुनरुक्त अक्षरोंका जो प्रश्न खडा किया जाता है उसपर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पडता है। द्वादशांग वाणीमें पदका प्रमाण अलगसे माना गया है । इससे विदित होता है कि वहां पदोंकी परिगणना किसी वाक्य या श्लोकके एक चरणके आधारसे नहीं की जाती रही है जिस प्रकार कि वर्तमानमें गद्यात्मक या पद्यात्मक ग्रंथके परिमाणकी गणना बत्तीस अक्षरोंके अधारसे की जाती है। विचार कर देखा जाय तो वहां एक अनुष्टुप्में केवल बत्तीस अक्षर ही नहीं होते; किन्तु मात्रा, विसर्ग और संयुक्त अक्षर बाद करके ये लिए जाते हैं । तथा गद्यात्मक या अनुष्टुप्के सिवा अन्य पद्यात्मक साहित्यमें चाहे वाक्य पूरा हो या न हो जहां बत्तीस अक्षर होते है वहां एक अनुष्टुप् श्लोकका परिमाण मान लिया जाता है। उसी प्रकार द्वादशांग वाणीमें भी मध्यम पदके द्वारा इन अक्षरोंकी परिगणना की गई होगी। मात्र वहांपर गणना करते समय मात्रा आदि भी अक्षरके रूपमें परिगणित किये गये होंगे। हां प्रत्येक अंग ग्रन्थमें अपुनरुक्त अक्षरोंका विभाग किस प्रकार किया गया होगा और प्रत्येक ग्रन्थ का इतना महा परिमाण कैसे सम्भव है, ये प्रश्न अवश्य ही ध्यान देने योग्य हैं । सभ्मव हे उत्तर कालमें इनका भी निर्णय हो जाय और एतद्विषयक जिज्ञासा समाप्त हो जाय । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) प्रस्तावना इस प्रकार अक्षरोंकी अपेक्षा श्रुतज्ञानका विचार कर आगे क्षयोपशमकी दृष्टिसे उसका विचार किया गया है। इसमें सबसे अल्प क्षयोपशम रूप ज्ञानको श्रुतज्ञानका प्रथम भेद माना गया है। इसका नाम पर्यायज्ञान है। यह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता है और नित्योद्घाटित है । अर्थात् इस ज्ञानके योग्य क्षयोपशमका संसारी छद्मस्थ जीवके कभी अभाव नहीं होता। इसका परिमाण अक्षरस्वरूप केवलज्ञानका अनन्तवां भाग है। इसके बाद दूसरा भेद पर्यायसमास है । यह पर्यायज्ञानसे क्रमवृद्धिरूप है। वृद्धिका निर्देश धवला) किया ही है। तीसरा भेद अक्षरज्ञान है। विवक्षित अकारादि एक अक्षरके ज्ञान के लिए जितना क्षयोपशम लगता है तत्प्रमाण यह ज्ञान है। इसी प्रकार क्रमवद्धिरूप आगके ज्ञान जानने चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्यायज्ञानके आर छह स्थानपतित वृद्धि होती है ओर अक्षरज्ञानके ऊपर अक्षरज्ञानके क्रमसे वृद्धि होती है। यद्यपि कुछ आचार्य अक्षरज्ञानके ऊार भी छह स्थानपतित वृद्धि स्वीकार करते हैं, पर वीरसेन स्वामी इससे सहमत नहीं हैं। पदज्ञानसे यहां मध्यम पदका ज्ञान लिया गया है। एक मध्यम पदमें १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं। क्योंकि द्वादशांगके पदोंकी गणना इतने अक्षरोंका एक पद मानकर की जाती है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होकर पूर्वसमास ज्ञानके अन्तिम विकल्पमें श्रुतज्ञानको समाप्ति होती हैं। यह ज्ञान श्रुतके वलीके होता है । इस प्रकार सयोपशमकी दृष्टि से श्रुतज्ञानके कुल भद २० होते हैं। पूर्व चौदह है। उनमेंसे प्रथम पूर्वका नाम उत्पादपूर्व है और अन्तिम पूर्वका नाम लोकबिन्दुसार हैं । इसलिए प्रथम पूर्वको मुख्य मान कर क्षयोपशमकी वृद्धि करनेपर भी यही क्रम बैठता है और अन्तिम पूर्वको प्रथम मान कर क्षयोपशमको वृद्धि करनेपर भी यही क्रम उपलब्ध होता है, क्योंकि सब पूर्वोमें अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास' प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार अनुयोगद्वारसमास, प्राभृताप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभूतसमास, वस्तु, वस्तुसमासः, पूर्व और पूर्वसमासरूप ज्ञान विवक्षित है । किस क्रमसे ज्ञान होता है, इसकी यहां मुख्यता नहीं है; यह अभ्यासकी बात है। हो सकता है कि पर्याय और पर्यायसमास ज्ञानके बाद किसीको उत्पादपूर्वके एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो, क्सिीको लोकबिन्दुसारके एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो, और किसीको अन्य पूर्व के एक अक्षरका ज्ञान सर्वप्रथम हो । ज्ञान किसी भी पूर्वका हो, वह होगा अक्षरादि क्रमसे ही; क्योंकि संघात आदि पूर्वके अधिकार हैं। किस पूर्व में कितनी वस्तुएं होती हैं, इसका अलगसे निर्देश या है। सब वस्तओंका ज्ञान वस्तसमासज्ञान कहलाता है। मात्र एक अक्षरका ज्ञान इस ज्ञानमेंसे घटा देना चाहिए, क्योंकि एक पूर्वसम्बन्धी सब बस्तुओं का पूरा ज्ञान हो जानेपर वह पूर्वज्ञान इस संज्ञा को प्राप्त होता है और सब पूर्वसम्बन्धी सब वस्तुओंका पूरा ज्ञान हो जानेपर उसकी पूर्वसमास श्रुतज्ञान संज्ञा होती है। इसी प्रकार वस्तुके अवान्तर अधिकार प्राभृतोंके सम्बन्धमें जानना चाहिए। तथा यही क्रम अन्य अधिकारों, अधिकारोंके पदों और पदोंके Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय (१३ अक्षरोंके विषयमें भी जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि समस्त श्रुतज्ञानके विकल्प मुख्यतया चौदह पूर्वज्ञानसे सम्बन्ध रखते हैं, क्योंकि श्रुतज्ञानमें पूर्वज्ञानकी ही मुख्यता है । इस प्रकार समस्त श्रुतज्ञान चौदह पूर्वोके ज्ञानके साथ सम्बन्धित हो जानेपर अंगबाह्यज्ञग्न, ग्यारह अंगोंका ज्ञान ; और परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग तथा चूलिकाओंका ज्ञान; ये श्रुतज्ञानके किस भदमें गभित है, यह प्रश्न उठता है । वीरसेन स्वामीने इस प्रश्नका इस प्रकार समाधान किया है- वे कहते हैं कि इस सब ज्ञानका अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमासमें या प्रतिपत्तिसमास ज्ञानमें अन्तर्भाव किया जा सकता हैं । यह पूछनेपर कि ये सब तो पूर्वसम्बन्धी अवान्तर अधिकार हैं, इनमें पूर्वातिरिक्त श्रुतज्ञानका अन्तर्भाव कैसे हो सकता है । इसपर वीरसेन स्वामीका कहना है कि ये पूर्व के अवान्तर अधिकार ही होने चाहिए, ऐसी कोई बात नहीं है; पूर्वातिरिक्त साहित्यके भी ये अधिकार हो सकते हैं। साधारणत: इस प्रकार समाधान तो हो जाता है, पर भी यह जिज्ञासा बनी रहती है कि यदि यही बात थी तो समस्त श्रुतज्ञानके भेद-प्रभेद समस्त पूर्वो और उनके अधिकारों व अवान्तर अधिकारोंकी दृष्टिसे ही क्यों किये गये हैं। पूर्वोके य अधिकार और अवान्तर अधिकार केवल दिगम्बर परम्परा ही स्वीकार करती हो, ऐसी बात नहीं है; श्वेताम्बर परम्पराम भी ये इसी प्रकार स्वीकार किये गये हैं। हमारा विश्वास है कि विशेष अनुसन्धान करनेपर इससे ऐतिहासिक तथ्यपर प्रकाश पडना सम्भव है। क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि श्रुतज्ञानमें पहले पूर्वो सम्बन्धी ज्ञान ही विवक्षित था । बादमें उसमें आचारांग आदि सम्बन्धी अन्य ज्ञान गभित किया गया है । जो कुछ हो, है, यह प्रश्न विचारणीय । इस प्रकार श्रुनज्ञानकी प्ररूपणा करके अन्त में उसके पर्याय नाम दिये गये हैं जो कई दृष्टियोंसे महत्व रखते हैं । तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान है । इसे मर्यादाज्ञान भी कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदिकी सहायताके विना होता है । क्षयोपशमकी दृष्टिसे असंख्यात प्रकारका होकर भी इसके मुख्य भेद दो हैं- भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों तथा तीर्थंकरोंके होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यञ्चों व मनुष्योंके होता है । देवों और नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होते हुए भी वह पर्याप्त अवस्थामें ही होता है, इतना विशेष समझना चाहिए। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त अवस्थामे ही होता है, यह स्पष्ट है । इन दोनों अवधिज्ञानोंके अनेक भेद हैं - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित अनुगामी, अननुगामी सप्रतिपाती, अप्रतिपाती एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इन सबका विशेष विचार यहां वीरसेन स्वामीने किया है। किस अवधिज्ञानका द्रव्य, क्षेत्र और काल कितना है१ इसका भी विचार मूल सूत्रोंमें और धवला टीकामें भी किया गया है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४) प्रस्तावना ___ ज्ञानका चौथा भेद मनःपर्ययज्ञान है । यह दूसरेके मनमें अवस्थित विषयको जानता है, इसलिए इसकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । इनमें विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानके उत्कृष्ट क्षेत्रका विचार करते हुए सूत्र में कहा है कि यह ज्ञान उत्कृष्ट रूपसे मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं। वीरसेन स्वामीने इसका व्याख्यान करते हुए क्षेत्रके विषयमें तो यह बतलाया है कि मानुषोत्तर शैल पैतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्रका उपलक्षण है । इसलिए इससे मानुषोत्तर शैलके बाहर का प्रदेश भी लिया जा सकता है। कारण कि उत्कृष्ट विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी जहां स्थित होगा वहांसे दोनों ओरके समान क्षत्रके विषयको ही जानेगा । मान लीजिये कि कोई एक विपुलमनिमनःपर्ययज्ञानी मानुषोत्तर शैलसे एक लाख योजन हटकर अवस्थित है। ऐसी अवस्थामें वह दोनों ओर साढे बाईस लाख योजन तकके विषयको जानेगा, अतः स्वभावत: उसका विषयक्षेत्र मानुषोत्तर शैलके बाहर हो जायगा । यह नहीं हो सकता कि एक ओर वह एक लाख योजन क्षेत्रका विषय जाने और दूसरी ओर ४४ लाख योजनका (देखिये पृ. ३४४ का विशेषार्थ ) ज्ञानका पांचवां भेद केवलज्ञान है । यह सकल है, सम्पूर्ण है, और असपत्न है । खण्डरहित होनेसे वह सकल हैं । पूर्णरूपसे विकासको प्राप्त होकर अवस्थित हैं, इसलिए सम्पूर्ण है । कर्म-शत्रुओंका अभाव हो जानेके कारण असपत्न है । इसके विषयका निर्देश करते हुए बतलाया है कि यह सब लोक, सब जीव और सब भावोंको एक साथ जानता है । कारण स्पष्ट है। क्योंकि आत्माका स्वभाव जानना और देखना है। यदि वह समर्याद जानता है तो उसका कारण प्रतिबन्धक कारण है। किन्तु जब सब प्रकारके प्रतिबन्धक कारण दूर हो जाते हैं तो फिर ज्ञान में यह मर्यादा नहीं की जा सकती कि वह इतने क्षेत्र और इतने कालके भीतरके विषयको ही जान सकता है । इसलिए केवलज्ञानका विषय तीनों कालों और तीनों लोकोंके समस्त पदार्थ माने गये हैं। ये ज्ञानके पांच भेद हैं इसलिए ज्ञातावरण कर्मके भी पाच भेद माने गये हैं। आत्मसंवेदनाका नाम दर्शन है। इसका जो आवरण करता है उसे दर्शनावरण कहते हैं । इसकी चक्षुदशनावरण आदि ९ प्रकृतियां हैं । साधारणत: दशनके स्वरूपके विषयमें विवाद है । कुछ ऐसा मानते है कि ज्ञानके पूर्व तो सामान्यावलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं। किन्तु वीरसेन स्वामी यहां 'सामान्य ' पदसे आत्माको ग्रहण करके यह अर्थ करते हैं कि उपयोगकी आभ्यन्त र प्रवृत्तिका नाम दर्शन और बाह्य प्रवृत्तिका नाम ज्ञान है । दर्शनमें कर्ता और कर्ममें भेद नहीं होता, परन्तु ज्ञानमें कर्ता और कर्मका स्पष्टतः भेद परिलक्षित होता है । तात्पर्य यह है कि किसी विषयको जानने के पहले जो आत्मोन्मुख वृत्ति होती है उसे दर्शन कहते हैं और घट आदि पदार्थोंको जानना ज्ञान है । दर्शनके मुख्य भेद चार हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । श्रुतज्ञान Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उसके पहले दर्शन नहीं होता; यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उसके पहले भी दर्शन नहीं होता, यह भी स्पष्ट है । शेष रहे तीन ज्ञान, सौ इनमें मतिज्ञान पांच इन्द्रियों और मनके निमित्तसे होता है। उसमें भी चाक्षुष ज्ञानको मुख्य मानकर दर्शनका एक भेद चक्षुदर्शन कहा गया है। शेष इन्द्रियों और मनकी मुख्यतासे दूसरे दर्शनका नाम अचक्षुदर्शन रखा है। अवधिज्ञानके पहले अवधिदर्शन होता है। यद्यपि आगममें अवधिदर्शनका सद्भाव चौथे गुणस्थानसे माना गया है; इसलिये विभंगज्ञानके पहले कौनसा दर्शन होता है, यह शंका होती है जो वीरसेन स्वामीके सामने भी थी। पर वीरसेन स्वामीने विभंगज्ञानके पहले होनेवाले दर्शनको अवधिदर्शन ही माना है । केवलज्ञानके साथ जो दर्शन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं। इस प्रकार दर्शन चार है, अतः इनको आवरण करनेवाले चार दर्शनावरण और निद्रादिक पांच, कुल नौ दर्शनावरण कर्म माने गये हैं। वेदनीय- जो आत्माको सुख और दुःखका वेदन कराने में सहायक है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके सातावेदनीय और असातावेवनीय ये दो भेद हैं । सात परिणामका कारण सातावेदनीय और असाता परिणामका कारण असातावेदनीय कम है । यहांपर वीरसेन स्वामीने दुःखके प्रतिकारमें कारणभत द्रव्यका संयोग कराना और दुःखको उत्पन्न करनेवाले कर्मद्रव्यकी शक्तिका विनाश करना भी सातावेदनीय कर्मका कार्य माना है। मोहनीय कर्म- जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। परको स्व समझना, स्व और परमे भेद न करना. स्व को परका कर्ता मान इष्टानिष्ट करनेके लिए या उसे ग्रहण करनेके लिए उद्यत होना, और गृहीत वस्तुको स्व म:नकर उसका संग्रह करना आदि यह सब मोहका कार्य है । इसके दो भेद है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके उदयमें 'स्व' की प्रतीति नह होती या 'पर' में 'स्व' की बुद्धि होती है और चारित्रमोहनीयके उदयमें परका ग्रहण और उसमें विविध प्रकारके भाव होते हैं । दर्शनमोहनीय- यह मूलमें एक है, अर्थात् बन्ध केवल मिथ्यात्वका ही होता है । और अनादि काल से जब तक जीव मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक एक मिथ्यात्वकी ही सत्ता रहती है, फल भी इसीका भोगना पडता है। किन्तु प्रथम बार सम्यक्त्वके होनेपर यह मिथ्यात्व कर्म तीन भागोंमें बट जाता है- मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति । नामानुसार कार्य भी इनके अलग अलग हो जाते हैं । मिथ्यात्वके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि ही रहता हैं, सम्यमिथ्यात्वके उदयसे सम्यग्मिथ्यादष्टि होता हैं और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे सम्यग्दर्शन में दोष लगाता है । आगे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होने तक मिथ्यात्वकी सत्ता तो नियमसे बनी रहती है, परन्तु शेष दोषकी सत्ता मिटती-बनती रहती है । पल्यके असंख्यातवें भाग कालसे अधिक समय तक यदि मिथ्यात्वमें रहता है तो इनकी सत्ता नहीं रहती और इस बीच या नय सिरसे सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो इनकी सत्ताका क्रम या तो चालू हो जाता है या पुतः प्राप्त हो जाती हैं । हां दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके बाद इनकी सत्ता नियमसे नहीं रहती, यह निश्चित है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चारित्रमोहनीय- इसके दो भेद हैं कषायवेदनोय और नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयके १६ और नोकषायवेदनीयके ९ भेद हैं । इनके और कार्य स्पष्ट हैं । आयुकर्म- जो नारक आदि भवधारणका कारण कर्म है उसे आयुकर्म कहते हैं । भव अन्य कर्मके उदयसे होना है । किन्तु उसमें विवक्षित समय तक रखना इस कर्मका कार्य है। भवकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार इस कर्मकी भी तीव्रता और मन्दता जाननी चाहिए । भव मुख्यरूपसे चार है । नारकभव तिर्यन्चभव मनुष्यभव और देवभव । अतः आयुकर्मके भी चार ही भेद हैं - नारकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु । नामकर्म- जो जीवकी नारक आदि नाना अवस्थाओं और शरीर आदि नाना भेदोंके होने में कारण है उसे नामकर्म कहते हैं। इसके पिण्ड प्रकृतियोंकी दृष्टिसे मुख्य भेद ब्यालीस हैं । जिस प्रकृतिका जो नाम है तदनुरूप उसका कार्य है । मात्र इत प्रकृतियोंका लक्षण करते समय जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के विभागको ध्यान में रखकर लक्षण करना चाहिए । आनुपूर्वीका उदय विग्रहगतिमें होता है । इसके उदयसे विग्रहगतिमें जीवप्रदेशोका आनुपूर्वीक्रमसे विशिष्ट आकार प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि विग्रहगतिमें संस्थाननामकर्मका उदय नहीं होता, इसलिए जीवप्रदेशोंको विशिष्ट आकार प्रदान करना इसका मुख्य कार्य प्रतीत होता है । आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृति है, इसलिए अपनी अपनी गतिके विग्रहक्षेत्रके अनुसार तो इसके भेद होते ही हैं, साथ ही जितनी प्रकारकी अवगाहनाओंका त्याग होकर अगली गति प्राप्त होती है वे सब अवगाहनायें भी आनुपूर्वीके अवान्तर भेदोंकी कारण है। यही कारण है कि प्रत्येक आनुपूर्वीके विकल्पोंका विवेचन सूत्रकारने इन दो दृष्टियोंको ध्यानमें रखकर किया है । पहले तो एक अवगाहना और क्षेत्रके कारण जितने विकल्प सम्भव है वे लिये है, फिर इन विकल्पोंको अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणित कर दिया है और इस प्रकार प्रत्येक आनुपूर्वीके सब विकल्प उत्पन्न किये गये हैं। इस प्रकार राजुके वर्गको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने नरकगत्यानपूर्वीके भेद है। लोकको जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्धआवे उतने तिर्यग्गत्यानुपूर्वी के विकल्प हैं । पैतालीस लाख योजन बाहल्यवाले राजुवर्गको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने मनुष्यगत्यानुपुर्वीके भेद होते हैं । और नौ सौ योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको जगणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने देवगत्यानुपूर्वीके अवगाहनाविकल्प होते हैं । यहां पैतालीस लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतरको जगश्रेणिके असख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करने पर मनुष्यगत्यानुपूर्वी के कुल भेद उत्पन्न होते हैं, एक ऐसा उपदेश भी उपलब्ध होता है । इस प्रकार इन दो उपदेशों से प्रथम उपदेशके अनुसार नरकगत्यानुपूर्वीके भेद सबसे कम प्राप्त होते हैं और दूसरे उपदेशके अनुसार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भेद सबसे कम प्राप्त होते हैं। ये दोनों ही Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ( १७ उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि, चारों आनुपूर्वियोंके अल्पबहुत्वका विचार इन दोनों उपदेशोंका आलम्बन लेकर किया है। गोत्रकम- गोत्रकर्मका अर्थ है जीवकी आचारगत परम्परा । यह दो प्रकारकी होती है- उच्च और नीच । इसलिए गोत्रकर्मके भी दो भेद हो जाते हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र । ब्राह्मण परम्परामें रक्तकी आनुवंशिकता गोत्रमें विवक्षित है और जैन परम्परामें आचारगत परम्परा विवक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण परम्परामें जहां उच्चत्व' और नीचत्वका सम्बन्ध जन्मसे अर्थात् माता-पिताकी जातिसे लिया गया है, वहां जैन परम्पराम . यह वस्तु सदाचार और असदाचारसे सम्बन्ध रखती है। इसी कारण वीरसेन स्वामीने अनेक प्रकारके शंका-समाधानके बाद उच्चगोत्रका लक्षण कहते समय यह कहा है कि जो दीक्षा योग्य साधु आचारवाले हैं, तथा साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, जिन्हें देखकर — आर्य ' ऐसी प्रतीति होती है, और जो आर्य कहे भी जाते हैं, ऐसे पुरुषोंकी सन्तानको उच्चगोत्री कहते हैं और इनसे विपरीत परम्परावाले नीचगोत्री कहलाते हैं। अन्तरायकर्म- दानशक्ति लाभशक्ति, भोगशक्ति, उपभोगशक्ति और वीर्यशक्ति ये जीवकी स्वभावगत पांच प्रकारकी शक्तियां मानी गई हैं। इन्हें पांच लब्धियां भी कहते हैं। इन्हीं पांच लब्धियोंकी प्राप्ति में जो अन्तराय करता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। न्यनाधिक रूपमें सब संसारी जीवोंके अन्तराय कर्मका क्षयोपशम देखा जाता है, इसलिए अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार प्रत्येक जीव ये पांच लब्धियां उपलब्ध होती हैं और तदनुसार इनका कार्य भी देखा जाता है। लोकमें माला, ताम्बूल आदि भोग; और शय्या, अश्व आदि उपभोग माने जाते हैं। धनादिककी प्राप्तिको लाभ गिना जाता है, और आहारादिकके प्रदान करनेको दान कहा जाता है। इन वस्तुओंका ग्रहण होता तो है कषाय और योगसे ही; पर इनके ग्रहण में जो भोग, उपभोग और लाभ भाव होता है वह अन्तराय कर्मके क्षयोपशमका फल है। इसी प्रकार आहारादिकका दान तो होता है कषायकी मन्दता या उसके अभावसे ही, पर आहारादिकके देने में जो भाव होता है वह भी दानान्तराय कर्मके क्षयोपशमका फल है। आशय यह है कि अन्तराय कर्मके क्षय और क्षयोपशमका कार्य इन भो भावोंको उत्पन्न करना है। यदि मिथ्यादृष्टि जीव है तो वह पर वस्तुओंके इन्द्रियोंके विषय होनेपर या उनके मिलनेपर उन्हें अपना भोग आदि मानता है, और यदि सम्यग्दृष्टि जीव है तो वह स्वके आधारसे स्वमें ही अपने भोगादिकको मानता है । भोगादि रूप परिणाम स्वमें हो या परमें, यह तो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका माहात्म्य है। यहां तो केवल आत्मामें ये भोगादि भाव क्यों नहीं होते हैं, और यदि होते हैं तो किस कारणसे होते हैं, इसी बातका विचार किया गया है और इसके उत्तरस्वरूप बतलाया है कि भोगादि भावके न होनेका मुख्य कारण अन्तराय कर्म है । भोगादि भाव पांच हैं, इसलिए अन्तरायके भी पांच ही भेद हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) प्रस्तावना भावप्रकृति-- प्रकृतिनिक्षेपका चौथा भेद भावप्रकृति है। भावका अर्थ पर्याय है। इसके दो भेद हैं-- आगमभावप्रकृति और नोआगमभावप्रकृति । आगमभावप्रकृतिमें प्रकृतिविषयक स्थित-जित आदि अनेक प्रकारके शास्त्रोंका जानकार और उनके वाचना, पृच्छना आदि अनेक प्रकारके उपयोगसे युक्त आत्मा लिया गया है। जब तक कोई जीव प्रकृति विषयका प्रतिपादन करनेवाले स्थित-जित आदि शास्त्रोंको जानते हुए भी उन शास्त्रोंकी वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना और परिवर्तना आदि करता है तब तक वह आगमभावप्रकृति कहलाता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं। तथा नोआगमभावप्रकृतिमें वर्तमान पर्याययुक्त वह वस्तु ली गई है। यथा- सुर, और असुर और नाग । जो अहिंसा आदिके अनुष्ठान में रत हैं वे सुर हैं, इनसे भिन्न असुर हैं। तथा जो फणसे उपलक्षित हैं वे नाग हैं आदि। इसमें पर्यायकी मुख्यता है। इस प्रकार प्रकृतिनिक्षप नामादिकके भेदसे चार प्रकारका है। उनमें से यहां किसकी मुख्यता है, इस प्रश्नको ध्यान में रखकर सूत्रकारने बतलाया है कि यहां कर्मप्रकृतिकी मुख्यता है । वीरसेन स्वामीने इसकी टीका करते हुए कहा है कि सूत्रकारने 'यहां कर्मप्रकृतिकी मुख्यता है' यह वचन उपसंहारको ध्यान में रखकर कहा है। वैसे यहां नोआगमद्रव्यप्रकृति और नोआमगभावप्रकृति इन दोनोंकी मुख्यता है। वीरसेन स्वामीके ऐसा कहनेका कारण यह है कि आगे केवल कर्मप्रकृतिका ही विवेचन न होकर इन दोनोंका भी विवेचन किया गया है। यहां प्रारम्भमें १६ अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश किया था। किन्तु प्रकृतमें प्रकृतिनिक्षेप और प्रकृतिनयविभाषणता इन दो अधिकारोंका ही विचार किया है, शेषका विचार नहीं किया। अतएव उनके विषयमें विशेष जानकारी कराने के लिए यह कहा है- सेसं वेदणाए भंगो' । आशय यह है कि वेदनाखण्डमें जिस प्रकार वर्णन किया है तदनुसार यहां शेष अनुयोगद्वारोंका वर्णन कर लेना चाहिए। . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय पृष्ठ | विषय १ स्पर्श अनुयोगद्वार देशस्पर्श विचार परमाणुके सावयवत्वकी सिद्धि टीकाकारका मङ्गलाचरण १ | त्वक्स्पर्श विचार स्पर्श अनुयोगद्वारके कथनकी सूचना | त्वक् और नोत्वक्का लक्षण स्पर्श अनुयोगद्वारके १६ अधिकारोंका त्वक् और नोत्वक्स्पर्शके ८ भङ्ग नामनिर्देश सर्वस्पर्श विचार स्पर्शनिक्षेपकी प्रतिज्ञा " | एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ स्पर्शनिक्षेपके १३ भेद ३ | किस प्रकारका संयोग होता है, इसका स्पर्श नयविभाषणताके कथनकी प्रतिज्ञा , विचार तेरह प्रकारके स्पर्शनिक्षेपोंका कथन न कर स्पर्शस्पर्श विचार पहले स्पर्शनयविभाषाके कथन करनेका स्पर्शस्पर्शके आठ भेद कारण मतान्तर और उसका निराकरण कौन नय किस स्पर्शको स्वीकार करता आठ स्पर्शोके २५५ संयोगी भङ्ग है, इसका विचार कर्मस्पर्श विचार नैगम, व्यवहार और संग्रह नयको अपेक्षा , कर्मस्पर्शके आठ भेद ऋजुसूत्रनय और शब्दनयकी अपेक्षा सब कर्मों के संयोगसे कुल ६४ भग नामस्पर्शका विचार उनमें ३६ अपुनरुक्त भङ्ग स्थापनास्पर्शका विचार द्रव्यस्पर्शका विचार बन्धस्पर्श विचार अमूर्त जीवका मूर्त पुद्गलके साथ सम्बन्ध बन्धस्पर्शके मुख्य पाँच भेद कैसे होता है, इस शंकाका समाधान , औदारिक आदि शरीरोंके संयोगसे संसारी जीव यदि मूर्त है तो उसके होनेवाले २३ भङ्ग मर्तत्वका अभाव कैसे होता है, इस उनमें १४ अपुनरुक्त भङ्ग शंकाका समाधान भव्यस्पर्श विचार जीव और पुद्गलका आदि बन्ध क्यों भावस्पर्श विचार नहीं बनता प्रकृतमें कर्मस्पर्श विवक्षित है द्रव्यकी स्पर्श संज्ञाका कारण महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमें द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श द्रव्यस्पर्शके ६३ भङ्ग | और कर्मस्पर्श विवक्षित हैं एकक्षेत्रस्पर्श विचार | कर्मस्पर्शका शेष १५ अधिकारोंके द्वारा अनन्तक्षेत्रस्पश विचार १७ । कथन नहीं करनेका प्रयोजन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विषय पृष्ठ | विषय ___ २ कर्म अनुयोगद्वार तीसरी गाथाका अर्थ तपःकर्म विचार टीकाकारका मङ्गलाचरण तपःकर्मके भेद-प्रभेद कर्म अनुयोगद्वारके कथनकी प्रतिज्ञा तपका लक्षण कर्म अनुयोगद्वारके १६ अधिकार अनेषण तप और उसका फल कर्मनिक्षेपका विचार अवमौदर्य तप और उसका फल कर्मनिक्षेपके दस भेद स्त्री और पुरुषके ग्रासका नियम कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता वृत्तिपरिसंख्यान तप और उसका फल है, इस बातका विचार रसपरित्याग तप और उसका फल नैगम, व्यवहार और संग्रह नयकी अपेक्षा कायक्लेश तप और उसका फल उसका विचार विविक्तशय्यासन तप और उसका फल ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा विचार शब्द नयकी अपेक्षा विचार प्रायश्चित्त तप नामकर्मका विचार प्रायश्चितके दस भेद और उनका स्वरूप स्थापनाकर्मका विचार विनय तप द्रव्यकर्मका विचार वैयावृत्त्य तप प्रयोगकर्मका विचार व्युत्सर्ग तप प्रयोगकर्मके तीन भेद और स्वामी ध्यान तप समवदानकर्मका विचार ध्यानके चार अधिकार अधःकर्मका विचार | ध्याताका विशेष विचार ध्येयका विशेष विचार ईपिथकर्म और उसके स्वामीका विचार ४७ | पुरानी तीन गाथाओंके आधारसे ईर्यापथ- [ध्यानके दो भद कर्मका विशेष विवेचन धर्मध्यानके चार भेद प्रथम गाथाका अथ | आज्ञाविचय धर्मध्यान ईर्यापथकर्ममें प्रदेश व अनुभागका विचार ४९ अपायविचय धर्मध्यान ईर्यापथकर्म सातारूप है, इस प्रसंगसे | विपाकविचय धर्मध्यान सुखका विचार संस्थानविचय धर्मध्यान दूसरी गाथाका अर्थ , धर्मध्यान और शुक्लध्यानका विषय जिन देव आमय और तृष्णासे रहित क्यों एक होकर भी उन दोनों ध्यानोंमें हैं, इस बातका विचार ५३ भेदोंका कारण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ | विषय विषय पृष्ठ १९८ सकषाय जीव धर्मध्यानका अधिकारी हैं ७४ | स्पटीकरण कषायरहित जीव शुक्लध्यानका क्षेत्रानुगम निरूपण अधिकारी है स्पर्शनानुगम निरूपण १०० ध्यानसम्बन्धी अन्य विशेषताएँ कालानुगम निरूपण धर्मध्यानमें तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं ७६ अन्तरानुगम निरूपण १३२ धर्मध्यानका फल शुक्लध्यान में शुक्ल विशेषणका कारण भावानुगम निरूपण १७२ शुक्लध्यानके चार भेद अल्पबहुत्व निरूपण १७५ पृथक्त्ववितर्कअवीचार | यहां कर्मके शेष अनुयोगद्वारोंका कथन एकत्ववितर्कअवीचार ७९ । न करने का कारण १९६ दोनों शुक्लध्यानोंका आलम्बन दोनों शुक्लध्यानों व धर्मध्यानका ३ प्रकृति अनुयोगद्वार फलविचार एकत्ववितर्कअवीचार ध्यानको अप्रतिपाती। टीकाकारका मङ्गलाचरण विशेषण न देनेका कारण तथा प्रकृतिके १६ अधिकार स्वामी विचार ८१ | प्रकृतिनिक्षेपके चार भेद शुवलध्यानके चिह न | कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानका विचार ८३ | है, इस बातका निरूपण केवलज्ञानके कालमें सयोगी जिनके नैगम, व्यवहार और संग्रह नयकी अपेक्षा , होनेवाली क्रियाओंका निर्देश ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातीको ध्यान संज्ञा शब्दनयकी अपेक्षा देनेका कारण | नामप्रकृति विचार व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानका विचार स्थापनाप्रकृति विचार इसे ध्यानसंज्ञा देनेका कारण | द्रव्यप्रकृतिके दो भेद व स्वरूपनिर्देश क्रियाकर्म विचार | आगमद्रव्यप्रकृतिके अर्थाधिकार भावकर्म विचार यहां समवदान कर्मका प्रकरण है उपयोगके प्रकार दस कर्मोंमेंसे छह कर्मों की अपेक्षा सत् संख्या नोआगमद्रव्यप्रकृतिके दो भेद आदि आठ अधिकारोंका निरूपण ९१ | नोकर्मप्रकृतिका विचार सदनुयोगद्वारनिरूपण | कर्मप्रकृतिके आठ भेद २०५ द्रव्य प्रमाणानुगमनिरूपण ९३/ ज्ञानावरणके प्रसंगसे ज्ञानका स्वरूपनिर्देश छह कर्मोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका व जीवके पृथक् अस्तित्वकी सिद्धि २०६ २०० २०१ Pox Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) प्रस्तावना विषय विषय पृष्ठ २२५ २१३ २ mr २३२ mr . दर्शनका स्वरूपनिर्देश २०७ | विचार ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियां २०९ | अर्थावग्रहावरणीयके छह भेद पाँचों ज्ञानोंका स्वरूपनिर्देश सब इन्द्रियां अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती जीवके केवलज्ञानस्वभाव होनेपर भी हैं, इसकी सिद्धि पाँच ज्ञानोंकी उत्पत्तिका कारण सहित अर्थावग्रहावरणीयके छह भेदोंके नाम २२७ विवेचन अधिकारीभेदसे कौन इन्द्रिय कितने आभिनिबोधिकज्ञानावरणके भेद | दूरके विषयको जानती है, इसका विचार , अवग्रह आदिकी मुख्यतासे चार भेद । ईहावरणीय कर्मके छह भेद व विशेष अवग्रहज्ञानका स्वरूपनिर्देश विवेचन ईहाज्ञानका स्वरूपनिर्देश संशयप्रत्ययका अन्तर्भाव आवयावरणीयके छह भेद ईहा अनुमानज्ञान नहीं है आदि विचार , धारणावरणीयके छह भेद अवायज्ञानका स्वरूपनिर्देश २१८ आभिनिबोधिकज्ञानावरणके सब भेदोंका धारणाज्ञानका स्वरूपनिर्देश निर्देश २३४ अवग्रहावरणीय कर्मके दो भेद २१९ बहु आदि पदार्थोंका स्वरूपनिर्देश अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रहका स्वरूप २२० उच्चारणा द्वारा उन सब भेदोंका उल्लेख व्यञ्जनावग्रह कर्मके चार भेद २३९ २२१ शब्दके छह भेद व उनका स्वरूप आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकी अन्य प्ररूपणा २४१ भाषाके भेद और उनके स्वामी अवग्रह ईहा आदिके पर्याय नाम २४२ अक्षरात्मक भाषाके दो भेद और उनके आभिनिबोधिकके पर्याय नाम २४४ बोलनेवाले २२२ श्रुतज्ञानावरणकर्मका विचार श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहका स्वरूप श्रुतज्ञानका स्वरूपनिर्देश शब्द-पुद्गल लोकान्त तक कैसे फैलते हैं, श्रतज्ञानावरणीयकी संख्यात प्रकृतियोंका इसका विचार निर्देश २४७ शब्दोंके लोकान्त तक जाने में कितना अक्षरोंका प्रमाण काल लगता है, इसका विचार २२३ | संयोगी अक्षरोंका प्रमाण व उनके समणि और विषमश्रेणिसे आये हुए लाने की विधि आदि २४८ शब्द किस प्रकार सुने जाते हैं, यहां संयोगसे क्या लिया है, इसका इसका विचार विचार २५० शेष व्यञ्जनावग्रहों व उनके आवरणोंका । संयोगी अक्षरका दृष्टांत २५९ २४५ , Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ श्रुतज्ञानावरण कर्मकी २० प्रकारकी बातका निर्देश प्ररूपणा व स्वरूपनिर्देश २६० | भवप्रत्यय अवधिज्ञानके स्वामी २९२ पर्यायज्ञानका स्वामी व विशेष गुणप्रत्यय अवधिज्ञानके स्वामी २९२ विचार २६२ अवधिज्ञानके भेद-प्रमेद और उनका पर्यायसमासज्ञान | व्याख्यान पद श्रुतज्ञान २६५ एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञानका पदके तीन भेद विशेष व्याख्यान २९७ मध्यम पदमें अक्षरोंकी संख्या २६६ अवधिज्ञानका काल २९८ सकल श्रुतके समस्त पदोंकी संख्या क्षण, लव' आदि शब्दोंका अर्थ २९९ पदसमास व संघात श्रुतज्ञान २६७ जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र ३०१ अक्षर श्रुतके ऊपर छह प्रकारकी अवधिज्ञानके क्षेत्र और कालका वृद्धिका निषेध एकसाथ विचार ३०४ संघातसमास व प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान प्रसंगसे क्षेत्र आदि चारकी वृद्धिका प्रतिपत्तिसमास आदि श्रुतज्ञानके नियम ३०९ शेष भेद भवनत्रिकमें अवधिज्ञानके क्षेत्र और प्रतिसारीबुद्धिवाले जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार ३१४ श्रुतका विचार २७१ सौधर्म कल्प आदिमें अवधिज्ञान के क्षेत्र श्रुतके बीस भेदोंका विशेष विचार २७३ | और कालका विचार ३१६ अङ्गबाह्य, ग्यारह अङ्ग और परिकर्म परमावधिज्ञानके क्षत्र और कालका आदिका कहां अन्तर्भाव होता है, विचार ३२२ इसका विचार २७६ सर्वावधिज्ञानके क्षेत्र और कालके श्रुतज्ञानके आवरणोंकी व्यवस्था २७७ जाननेकी सूचना ३२५ श्रुतज्ञानावरणीयके प्रसंगसे श्रुतके पर्याय तिर्यञ्चोंमें अवधिज्ञानके उत्कृष्ट द्रव्य वाची नाम और उनकी व्याख्या २७० | तथा नारकियोंमें जघन्य व उत्कृष्ट अवधिज्ञानावरणीय कर्म और उसकी क्षेत्रका निर्देश प्रकृतियाँ २८९ | जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानके अवधिज्ञानके दो भेद स्वामीका निर्देश ३२७ पर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानकी उत्पत्ति मनःपर्ययज्ञानावरण और उसके भेद ३२८ होती है, इसका सकारण विचार | ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणके भेद व किन्तु भवानुगामी अवधिज्ञान भवके विशेष विचार ३२९ प्रथम समयमें भी होता है, इस | ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानका विषय ३३२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ) विषय पृष्ठ विषय कालकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय ३३८ । नामकर्म और उसकी ४२ पिण्डप्रकृतियां क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानके छह भेद विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानका विषय प्रकारान्तरसे विषय निर्देश कालकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय क्षेत्रकी अपेक्षासे जघन्य और उत्कृष्ट विषयका विवरण मानुषोत्तर शैलसे ४५ लाख योजनका ग्रहण किया है, इस बातका समर्थन केवलज्ञानावरणका निर्देश केवलज्ञानका स्वरूप निर्देश केवलज्ञानीका विषय दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियां व उनका स्वरूप वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियां मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियां दर्शन मोहनीय कर्मका विचार चारित्रमोहनीय कर्म के दो भेद कषायवेदनीय कर्मके १६ भेद नोकषाय वेदनीयके ९ भेद आयुकर्म और उसके चार भेद प्रस्तावना तथा उनका स्वरूपनिर्देश 13 21 ३४० | गति आदि नामकर्मों के उत्तर भेद ३४१ | नरकगत्यानुपूर्वीकी उत्तर प्रकृतियां ३४२ | तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी उत्तर प्रकृतियां | मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी उत्तर प्रकृतियां देवगत्यानुपूर्वीकी उत्तर प्रकृतियां ३४३ | आनुपूर्वीयोंका अल्पबहुत्व पुनः वही अल्पबहुत्व नामकर्मकी शेष प्रकृतियां ३४५ गोत्रकर्म और उसके दो भेद शंका-समाधान द्वारा गोत्रकर्मके अस्तित्वकी ३४६ | सिद्धि उच्चगोत्र और नीचगोत्रका लक्षण ३५३ | अन्तरायकर्मकी पांच प्रकृतियां ३५६ | भावप्रकृति के दो भेद ३५७ | आगमभावप्रकृति ३५८ नोआगमभाव प्रकृति ३९२ ३५९ प्रकृत में कर्मप्रकृति विवक्षित है, इस बातका ३६० निर्देश ३६१ शेष भंग वेदना के समान है. इस बात की ३६२ | सूचना 31 31 पृष्ठ ३६३ ३६७ ३७१ ३७५ ३७७ ३८२ १८४ ३८६ ३८७ ३८८ " ३८९ " ३९० " 17 ३९१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूवबलि-पणीदो छपरवंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पंचमे खंडे वग्गणाए फासाणुओगदारं सयलोवसग्गणिवहा संवरणेणेव जस्स फिट्टति । पासस्स तस्स णमित्रं फासणुयोअं परूवेमो ॥ फासे त्ति ॥१॥ जं तं फासे त्ति अणुयोगद्दारं पुबमादिळं तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो ति पुवुद्दिवअहियारसंभालणमेदेण सुत्तेण कदं । जिसकी आराधना करने से ही सब प्रकारके उपसर्गोके समुदाय नष्ट हो जाते हैं, उस पार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं स्पर्श अनुयोगद्वारका निरूपण करता हूं ॥ अब ‘स्पर्श अनुयोगद्वार' का प्रकरण है ॥१॥ जो पहले स्पर्श अनुयोगद्वारका निर्देश कर आये हैं उसके अर्थका कथन करते हैं। इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पहले कहे गये अधिकारकी सम्हाल की गई है। विशेषार्थ- पहले सत्प्ररूपणाकी उत्थानिकामें जो कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंका नाम-निर्देश कर आये हैं, उनमेंसे प्रारम्भके दो अनुयोगद्वारोंका विवेचन हो चुका है। स्पर्श यह तीसरा अनुयोगद्वार क्रमप्राप्त है। इसी बातका ज्ञान कराने के लिये 'फासे ति' यह सूत्र आया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ( अ-आ प्रत्योः 'संभरणणेव' इति पाठः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५,३, २. तत्थ इमाणि सोलस अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - फासणिकखेवे फासणय विभासणदाए फासणामविहाणे फासदव्वविहाणे फासखेत्तविहाणे फासकालविहाणे फासभावविहाणे फासपच्चयविहाणे फाससामित्तविहाणे फासफासविहाणे फासगइविहाणे फासअणंतरविहाणे फाससण्णियासविहाणे फासपरिमाणविहाणे फासभागाभाग - विहाणे फास अप्पा बहुए ति ॥ २ ॥ एवमेदे फासाणुयोगद्दारस्स सोलस अत्याहियारा । किमट्टमेदे सोलस अत्याहियारा एत्थ पडिवज्जंति ? ण, एदेहि विणा फासाणुयोगद्दारस्स अवगमोवायाभावादो । तम्हा सोलसेहि अणुयोगद्दारेहि फासपरूवणा कायव्वा त्ति सिद्धं । जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो पढमं फासणिक्खेवपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदिफासणिक्खेवेति ॥ ३ ॥ पुध्वं जमादिट्ठो फासणिक्वेवो तस्स परूवणं कस्सामा | किमहं फासणिक्खेवो आगो ? एसो फासो तेरसेसु अत्थेसु वट्टदे । तत्थ केण अत्थेण पयदं केण वाण उसमें ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं - स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनय विभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्रविधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्शभावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्श विधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनन्तरविधान, स्पर्शसंनिकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्श अल्पबहुत्व ॥ २ ॥ इस प्रकार स्पर्श अनुयोगद्वारके ये सोलह अर्थाधिकार होते हैं । शंका- यहां ये सोलह अर्थाधिकार क्यों कहे गये है ? समाधान- नहीं, क्योंकि इनके विना स्पर्श अनुयोगद्वारके ज्ञान करानेका अन्य कोई उपाय नहीं है 1 इसलिये इन सोलह अनुयोगोंके द्वारा स्पर्शका कथन करना चाहिये, यह बात सिद्ध होती है । अब ' उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायके अनुसार पहले स्पर्शनिक्षेप अधिकारका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं अब ' स्पर्श निक्षेप' का अधिकार है ॥ ३ ॥ पहले जिस स्पर्शनिक्षेपका निर्देश कर आये हैं, उसका यहां कथन करते हैं । शंका- स्पर्शनिक्षेप अधिकार किसलिये आया है ? समाधान - यह स्पर्श शब्द तेरह अर्थों में विद्यमान है। उनमें से प्रकृत में किस अर्थ से प्रयोजन है और किस अर्थसे प्रयोजन नहीं है, अथवा वे तेरह अर्थ कौन हैं, ऐसा प्रश्न करनेपर स्पर्श प्रतिपु 'तं जहा' इति पाठः । अ-आ प्रत्योः 'परुविदो' इति पाठः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, ५.) फासाणुओगद्दारे फासणयविभासणदा (३ पयदं के वा ते तेरस अत्या ति पुच्छि दे तेरसण्णं फाससहत्थाणं परूवणं काऊण अपयदत्थे णिराकरिय पयदत्थपरूवणटुमागदो। तेरसविहे फासणिक्खेवे-णामफासे ठवणफासे दवफासे एयखेत्तफासे अणंत रखेत्तफासे देसफासे तयफासे सव्वफासे फासफासे कम्मफासे बंधफासे भवियफासे चेदि ॥४॥ एवं फाससद्दो तेरसेसु अत्थेसु वट्टदे। ण च तेरसेसु चेव अत्थेसु फाससद्दो वट्टदि त्ति अवहारणमत्थि, किंतु फाससद्दत्थाणं दिसादरिसणमेदेण कयं । फासणयविभासणदाए ।। ५ ।। फासस्स णयविभासणदा फासणयविभासणदा, तीए फासणयविभासणदाए अहियारो* त्ति भणिदं होदि । तेरसणिक्खेवे भणिदण तेसिमट्ठमभणिय किमढें फासणय विभासा कीरदे ? ण एस दोसो; णयविभासणदाए विणा णिक्खेवत्थपरूवणाणुववत्तीदो। निश्चये क्षिपतीति निक्षेपो नाम। ण च णयविभासणदाए विणा संसयाणज्झवसायविवज्जासट्टियजोवे तत्तो ओहट्टिदूण* णिक्खेवो णिच्छयम्मि टुविदुं समत्थो, अणुवलंभादो। शब्दके तेरह अर्थोंका कथन करके, उनमेंस अप्रकृत अर्थों का निराकरण करके प्रकृत अर्थका प्ररूपण करने के लिये यह स्पर्शनिक्षेप अधिकार आया है। स्पर्शनिक्षेप तेरह प्रकारका है नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श ॥४॥ इस प्रकार स्पर्श शब्द तेरह अर्थो में उपलब्ध होता है । स्पर्श शब्द इन तेरह अर्थों में ही पाया जाता है, ऐसा कोई निश्चय नहीं हैं; किन्तु इस सूत्र द्वारा स्पर्श शब्दके अर्थोंका मात्र दिशाज्ञान कराया गया है। स्पर्शनयविभाषणताका अधिकार है ॥५॥ स्पर्शका नयद्वारा विशेष व्याख्यान करना स्पर्शनयविभाषणता कहलाता है । उसका यहां अधिकार है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। शका- तेरह प्रकारके निक्षेपोंका निर्देश तो किया, पर उनका अर्थ न कहकर पहले स्पर्शोका नयद्वारा विशेष व्याख्यान क्यों किया जा रहा है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नयद्वारा विशेष व्याख्यान किये विना निक्षेपार्थका कथन करना सम्भव नहीं है। निक्षेप शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः' अर्थात् जो किसी एक निश्चयपर पहुँचाता है उसे निक्षप कहते हैं। परन्तु निक्षेप नयविभाषणता अधिकारका कथन किये विना सशय, अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञानमें स्थित जीवोंको वहांसे हटा कर किसी एक निश्चय में स्थापित करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि, 3 अप्रतौ 'फास सब दवाण', ताप्रतौ 'फाससद्दद्धा (त्था) णं' इति पाठः। O ताप्रतौ 'तेरसविहो फासणिक्खे' इति पाठः । ॐ अ-ताप्रत्योः 'अहियादो (रो)' इति पाठः । * प्रतिषु 'आयट्रिदूण' इति पाठः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ खंडागमे वेयणाखंड तम्हा पुवं ताव णयविभासणदा कीरदे । उक्तं च प्रमाणनयनिक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ १॥ को णओ के फासे इच्छदि ? ।।६। के वा णेच्छदि त्ति एत्थ पुच्छा किण्ण कदा? ण, एदे इच्छदि ति अवगदे सेसे ण इच्छदि त्ति उवदेसेण विणा अवगमादो। सवे एदे फासा बोद्धव्वा होंति णेगमणयस्स । णेच्छदि य बंध-भवियं ववहारो संगहणओ य ।।७।। एदस्स गाहासुत्तस्स अत्थो उच्चदे।तं जहा-णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरस वि फासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो। ववहारणओ संगहणओ च बंध-भवियफासे णेच्छंति । एदेहि णएहि किमळं बंधफासो अवणिदो? ण एस दोसो, कम्मप्फासे तस्स अंतब्भावादो। तं जहा-कम्मफासो दुविहो कम्मफासो णोकम्मफासो चेदि। तेसु दोसु वि बंधफासो पददि ; तेहितो वदिरित्तबंधाभावादो। अधवा बंधफासो ऐसा देखा नहीं जाता। इसलिये पहले नयविभाषणता अधिकारका कथन करते हैं। कहा भी है जिस पदार्थका प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा, नेगमादि नयों के द्वारा और नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है, वह पदार्थ युक्त ( मंगत) होते हुए भी अयुक्तसा (असंगतसा) प्रतीत होता है, और अयुक्त होते हुए भी युक्तसा प्रतीत होता है । कौन नय किन स्पर्शोको स्वीकार करता है ? ॥६॥ शंका-यहां 'और किन स्पर्शोको नहीं स्वीकार करता है' एसी पृच्छा क्यों नहीं की? समाधान- नहीं, क्योंकि इन स्पर्शोको स्वीकार करता है, ऐसा ज्ञान हो जानेपर शेषको नहीं स्वीकार करता, यह उपदेशके विना ही जाना जाता है। नैगमनयके ये सब स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। किन्तु व्यवहारनय और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करते ॥७॥ इस गाथासत्रका अर्थ कहते हैं। यथा-असंग्रहिक नैगमनयके ये तेरह ही स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहां जानना चाहिये, क्योंकि यह नय सब नयोंके विषयोंको स्वीकार करता है। व्यवहारनय और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको नहीं स्वीकार करते। शंका- बन्धस्पर्श इन दोनों नयों का विषय क्यों नहीं है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन दोनों नयोंकी दृष्टि में उसका कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है। यथा-कर्मस्पर्श दो प्रकारका है कर्मस्पर्श और नोकर्मस्पर्श । बन्धस्पर्शका उन दोनोंमें ही अन्तर्भाव होता है, क्योंकि इन दोनोंके सिवाय बन्ध नहीं पाया जाता। अथवा बन्धस्पर्श है ही नहीं, क्योंकि, बन्ध और स्पर्श इन दोनों शब्दोंमें अर्थभेद नहीं ॐति प. १, ८२., वि. भा. २७६४. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ५, ३, ७. ) फासाणुओगद्दारे फासणयविभासणदा णत्थि चेव; बंध-फाससद्दाणमत्थभेदाभावादो। बंधेण विणा वि लोहग्गीणं फासो दोसदि त्ति भगिदे - ण, संजोग-समवायलक्खणसंबंधेहि विणा फासाणुवलंभादो। भवियफासो किमट्टमवणिदो ? विस-जंत-कूड-पंजरादीणमिच्छिददव्वेहि संपहि फासो णत्थि त्ति अवणिदो । ण च दोण्णं फासेण विणा फाससण्णा जुज्जदे, विरोहादो। अपुट्टकाले फासो पत्थि, पुटुकाले कम्म-णोकम्म-सव्व-देसफासेसु पविसदि ति भवियफासो अवणिदो ति दृढव्वो। भवियफासो ठवणफासे पविसदि त्ति संगहणओ अवणेदि, सो एसो ति अज्झारोवेण विणा संपहि जंतादिसु फासाणुववत्तीदो। पाया जाता । यदि कहा जाय कि बन्धके विना भी लोह और अग्निका स्पर्श देखा जाता है, इसलिये बन्धसे स्पर्श भिन्न है, सो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि संयोग सम्बन्ध और समवाय सम्बन्धके विना स्पर्श स्वतन्त्ररूपसे नहीं पाया जाता । विशेषार्थ-यहां यह प्रश्न है कि बन्ध स्पर्श संग्रहनय और व्यवहारनयका विषय क्यों नहीं है? इस प्रश्नका दो प्रकारसे समाधान किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि बन्धस्पर्शका कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है । कर्मस्पर्शके कर्म और नोकर्म ये दो भेद हैं। लोकों और आगममें बन्ध शब्द द्वारा इन्हींका ग्रहण होता है, इसलिये बन्धस्पर्शका कर्मस्पर्श में अन्तर्भाव किया गया है। पर बन्ध शब्दका जो अर्थ है वही अर्थ स्पर्श शब्दसे भी ध्वनित होता है, यह देखकर दूसरा उत्तर यह दिया गया है कि बन्धस्पर्श स्वतन्त्र वस्तु ही नहीं है, इसलिये उसे व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं माना गया है । शंका- भव्यस्पर्शको उक्त दोनों नयोंका विषय क्यों नहीं कहा है ? समाधान- एक तो विष, यन्त्र, कूट और पिंजरा आदिका विवक्षित द्रव्योंके साथ वर्तमानमें स्पर्श नहीं उपलब्ध होता, इसलिये भव्यस्पर्शको उक्त दोनों नयोंका विषय नहीं कहा है। यदि कहा जाय कि दोका स्पर्श हुए विना भी पर्श संज्ञा बन जायगी, सो भी बात नही है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। दूसरे, अस्पृष्ट काल में स्पर्श है नहीं और स्पष्टकालमें उसका कर्मस्पर्श, नोकर्मस्पर्श, सर्वस्पर्श और देशस्पर्श में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये भी भव्यस्पर्शको व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं माना, ऐसा यहां जानना चाहिये । तथा भव्यस्पर्श स्थापनास्पर्शमें अन्तर्भूत हो जाता है, इसलिये सग्रहनय उसे स्वीकार नहीं करता; क्योंकि वह यह है ' ऐसा अध्यारोप किये विना वर्तमान काल में यन्त्रादिकमें स्पर्श-व्यवहार नहीं बन सकता। विशेषार्थ- भव्यस्पर्शका स्वरूप आगे बतलानेवाले हैं। उससे स्पष्ट है कि भव्यस्पर्शमें वर्तमानकालीन स्पर्श विवक्षित न होकर स्पर्शकी योग्यता ली गई है, और व्यवहारनय तथा संग्रहनय ऐसे स्पर्शको स्वतन्त्ररूपसे ग्रहण नहीं करते ; इसलिए यहां भव्यस्पर्श व्यवहारनय और संग्रहनयका विषय नहीं है, यह कहा है। अप्रतौ 'अभणिदो' इति परिवर्तितः पाठः। 6 अप्रतौ च दोपणं', ताप्रतौ च (ण) दोण्णं' इति पाठः। . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, ८. एयक्खेत्तमणंतरबंधं भवियं च णेच्छदुज्जुसुदो । णामं च फासफासं भावप्फासं च सद्दणओ ॥ ८॥ एदस्स गाहासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-क्षियन्ति निवसन्ति * यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम्। एकंच तत्क्षेत्रं च एकक्षेत्रमिति व्युत्पत्तिमाश्रित्य जदि एगो आगासपदेसो घेप्पदि तो एगक्खेत्तफासो णत्थि। कुदो? अण्णे सिमण्णत्थ अप्पाणं मोत्तूण णिवासाभावादो, सव्वेसि पयत्थाणं सरूवे चेव गिविट्ठाणमुवलंभादो च। जो जस्स अप्पोवलद्धीए कारणं सोतस्स आहारो। इयरो वि तत्थ वसदि ति भणिदे, ण च आग:सादो सेसदव्वाणं सरूवोवलद्धी; णिप्फण्णाणं तत्थावट्ठाणदंसगादो। तदो आगासस्स खेत्तत्ताभावादो एगक्खेत्तफासो णत्थि । अथ खियंतिज गिवसंति जम्हि तं खेत्तमिदि जदि सगरूवं चेव घेपदि तो वि एगक्खेत्तफासो णत्थि, एगक्खेत्ते एगसरूवे दुभावाभावादो। ण च एकम्हि फासो अत्थि; तस्स दुप्पहुडीसु चेव उवलंभादो। ऋजुसूत्र एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करता। किन्तु शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्शको ही स्वीकार करता है ॥ ८॥ अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा- 'क्षि' धातुका अर्थ · निवास करना है। इसलिये क्षेत्र शब्दका यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गल आदि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं। एक जो क्षेत्र वह एकक्षेत्र कहलाता है। इस प्रकार इस व्युत्पत्तिका आलम्बन लेकर यदि एक आकाशप्रदेश ग्रहण किया जाता है, तो एक क्षेत्रस्पर्श नहीं बनता; क्योंकि, अन्य द्रव्योंका अपने सिवाय अन्य द्रव्योंमें निवास नहीं पाया जाता, और सभी पदार्थ अपने स्वरूप में निविष्ट ही उपलब्ध होते हैं । ऐसा नियम है कि जो जिसकी स्वरूपोपलब्धिका कारण होता है वही उसका आधार माना जा सकता है। यदि कहा जाय कि इतर पदार्थ भी उसमें निवास करता है तो इसपर हमारा कहना यह है कि आकाश द्रव्यसे शेष द्रव्योंकी स्वरूपोपलब्धि तो होती नहीं, क्योंकि, निष्पन्न पदार्थोंका ही आकाशमें अवस्थान देखा जाता है. इसलिये आकाशको क्षेत्रपना नहीं प्राप्त होनेसे एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बनता। जिसमें 'खियंति णिवसंति' अर्थात् निवास करते हैं वह क्षेत्र है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार यदि वस्तुका अपना स्वरूप ही ग्रहण किया जाता है, तो भी एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बनता; क्योंकि ऐसा मानने पर एकक्षेत्रका अर्थ होता है एक स्वरूप, और ऐसी अवस्थामें उसमें द्वित्व नहीं बन सकता। यदि कहा जाय कि एकमें भी स्पशकी उपलब्धि हो जायगी, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, उसकी दो आदि द्रव्यों के रहने पर ही उपलब्धि होती है। ॐ प्रतिषु 'क्षीयंति' इति पाठः । *ताप्रती-'सन्त्यस्मिन' इति पाठः । अ-काप्रत्योः भगणदे' इति पाठः । ताप्रती 'गिफणाण' इति पाठः । ॐ प्रतिषु ‘खीयंति' इति पाठः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, ८. ) फासाणुओगद्दारे फासणय विभासणदा ( ७ एवमत रखेत्तफासो वि णत्थि । कुदो ? खेत्ताभावादो । जदि आगासस्स खेत्तत्तं सिद्धं तो सांतरखेत्त-अनंतरखेत्ताणं पि संभवो होज्ज । ण च वृत्तणाएण आगासस्स खेत्तत्तमत्थि । तदो अनंत रखेत्ताभावादो अणंतरखेत्तफासो वि णत्थि त्ति घेत्तव्वो । खेत्तसद्दे सरूवे वट्टमाणे संते वि गाणंतरक्खेत्तमत्थि एदमेदस्स अनंतर मिदि वयणपवृत्तीए णिबंधणाभावादो। ण च अच्चंतपुधभूदाणमत्थाणमणंतरमत्थि, विरोहादो । बंधफासो वि णत्थि । कुदो? बंधो णाम दुभावपरिहारेण एयत्तावत्ती । ण च तत्थ फासो अत्थ; यत्ते तव्विरोहादो : ण च सव्वफासेण वियहिचारो, तत्थ एगत्तावत्ती विणा सव्वावयवेहि फासब्भुवगमादो । तहा भवियफासो वि णत्थि ; अणुप्पण्णफासपज्जायस वट्टमाणकाले अत्थित्तविरोहादो, उप्पण्णस्स विसेसफासेसु अंतब्भावदंसणादो, वट्टमाणकालं मोत्तू सेसकालाभावादो च । तहा वणफासो वि णत्थि ; सोयमिदि संकप्पवसेण अण्णस्स अण्णसरूवावत्तीए अभावादो, वट्टमाणकालेण सह दुवणाए विरोहादो च । इसी प्रकार अनन्तरक्षेत्रस्पर्श भी नहीं बनता, क्योंकि, क्षेत्र नामकी कोई वस्तु ही नहीं ठहरती । यदि आकाश द्रव्यको क्षेत्रपना सिद्ध हो, तो सान्तरक्षेत्र और अनन्तरक्षेत्र भी सिद्ध हो सकते है । परन्तु पूर्वोक्त न्यायसे आकाश के क्षेत्रपना सिद्ध नहीं होता, इसलिये अनन्तर क्षेत्र की सिद्धि न होनेसे अनन्तरक्षेत्र स्पर्श भी नहीं बनता, ऐसा यहां स्वीकार करना चाहिये । यदि स्वरूपार्थ में विद्यमान क्षेत्र शब्द लिया जाता है, तो भी अनन्तक्षेत्र नहीं बनता, क्योंकि यह इसके अनन्तर है, इस वचनप्रवृत्तिका कोई कारण नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि अत्यन्त पृथग्भूत पदार्थों का अन्तर नहीं पाया जाता, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। बन्धस्पर्श भी नहीं है, क्योंकि द्वित्वका त्यागकर एकत्वकी प्राप्तिका नाम बन्ध है । परन्तु एकत्वके रहते हुए स्पर्श नहीं पाया जाता, क्योंकि एकत्वमें स्पर्शके मानने में विरोध आता हैं । यदि कहा जाय कि इस तरह तो सर्वस्पर्श के साथ व्यभिचार हो जायगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि वहां पर एकत्वकी प्राप्ति के विना सब अवयवोंद्वारा स्पर्श स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार भव्यस्पर्श भी नहीं है, क्योंकि जब स्पर्श पर्यायही उत्पन्न नहीं हुई तब उसका वर्तमान कालमें सद्भाव मानने में विरोध आता है । और यदि स्पर्श पर्याय उत्पन्न भी हो गई है, तो उसका शेष स्पर्शो में अन्तर्भाव देखा जाता है । दूसरे, वर्तमान कालके सिवाय शेष कालोंका अस्तित्व भी नहीं पाया जाता, इसलिये भी भव्यस्पर्श नहीं बनता । इसी प्रकार स्थापना स्पर्श भी नहीं है, क्योंकि ' वह यह है ' इस संकल्पके कारण अन्य अन्यस्वरूप नहीं हो सकता, और वर्तमान कालके साथ स्थापना-निक्षेपका विरोध भी है । विशेषार्थ - यहां युक्तिपूर्वक यह बतलाया गया है कि ऋजुसूत्र नय एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्र स्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और स्थापना स्पर्शको क्यों नहीं स्वीकार करता । सार यह है कि ऋसूत्र नयका विषय न तो द्वित्व हैं और न अतीत अनागत काल है, किन्तु इन अप्रती 'पारब्भुवगमादो', ताप्रती 'पारंभुवगमादो' इति पाठः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, ९. सद्दणओ पुण णामफासमिच्छदि, फाससद्देण विणा भावफासपरूवणाए उवायाभावादो। फासफासं पि इच्छदि; दव्वेण विणा कक्खडादिगुणाणं अण्णेहि गुणेहि सह संबंधदसणादो। भावफासं पि इच्छदि,णाणेण परिछिज्जमाणकक्खडादिगुणाणमुवलंभादो अवसेसफासे ण इच्छदि, सगविसए तेसिमभावादो। एवं फासणयविभासणदा समता। संपहि णाम फासणिक्खेव परूवणठें उत्तरसुत्तमागदं जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा जोवस्स च अजीवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि फासे त्ति सो सव्वो णामफासो णाम ॥९॥ ___णामस्स आहारभूदा जीवाजीवाणं एगाणेगसंजोगजणिदा अट्ट चेव भंगा होंति; अण्णेसिमणुवलंभादो। एदेसु अट्टसु जस्स णामं कीरदि फासे त्ति सो सव्वो फाससद्दो एकक्षेत्रस्पर्श आदिकी सिद्धि के लिये कहीं तो द्वित्व और कहीं अतीत-अनागत कालको स्वीकार करना पडता है; तभी इनका सद्भाव बनता है। यही कारण है कि यहां पर ऋजुसूत्र नयके विषय रूपसे इन पाँचोंको अस्वीकार किया है । यद्यपि गाथासूत्र में स्थापनास्पर्शका ऋजुसूत्र नयके अविषयरूपसे निर्देश नहीं किया है, किन्तु स्थापनानिक्षप ऋजुसूत्रनयका विषय न होनेसे स्थापनास्पर्शको ऋजुसूत्रनय नहीं स्वीकार करता, यह अपने आप फलित हो जाता है। परन्त शब्द नय तो नामस्पर्शको स्वीकार करता है, क्योंकि स्पर्शशब्दके विना भावस्पर्शके कथन करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है । वह स्पर्शस्पर्शको भी स्वीकार करता है, क्योंकि द्रव्यके विना कर्कश आदि गुणोंका अन्य गुणोंके साथ सम्बन्ध देखा जाता है। भावस्पर्शको भी वह स्वीकार करता है, क्योंकि, ज्ञानसे जिन कर्कश आदि गणोंको हम जानते हैं उनका वर्तमान काल में सद्भाव पाया जाता है । विशेषार्थ- शब्दनय नामनिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेपको विषय करता हैं, इसीसे यहां उक्त तीन स्पर्श शब्दनयके विषयरूपसे निर्दिष्ट किये गये हैं। शब्दनय शेष स्पर्शों को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि अपने विषयमें उन स्पर्शों का अभाव है। इस प्रकार स्पर्शनय विभाषणताका कथन समाप्त हुआ। अब नामस्पर्शनिक्षेपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है जो वह नामस्पर्श है वह एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव, नाना जीव और नाना अजीव, इनमेंसे जिसका स्पर्श ऐसा नाम किया जाता है वह सब नामस्पर्श है ॥९॥ नामके आधारभूत, जीव और अजीवके एक और अनेकके संयोगसे, आठ ही भंग उत्पन्न होते हैं; अन्य भंग नहीं होते। इन आठोंमें जिसका स्पर्श ऐसा नाम रखा जाता है, वह सब * अप्रतौ 'संपहि फाराणिक्खेव', ताप्रतौ 'संपहि (णाम) फासणिक्खेव-' इति पाठः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, १०.) फासाणुओगद्दारे ठवणफासो णामफासो णाम। कधमेक्कम्हि कम्म-कत्तारभावो जुज्जदे? ण, सुज्जेंदु-खज्जोअ-जलणमणिणक्खत्तादिसु उभयभावुवलंभादो । एवं णामफासपरूवणा गदा। जो सो ठवणफासो णाम सो कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि फासे त्ति सो सम्वो ठवणफासो गाम ॥ १०॥ कट्ठेसु जाओ पडिमाओ घडिदाओ दुवय-चउप्पय-अपाद-पादसंकुलाणं ताओ कट्टकम्माणि णाम। एदाओ चेव चउविहाओ पडिमाओ कुड्ड-पड-त्थंभादिसु रायवट्टादिवण्णविसेसेहि चित्तियाओ चित्तकम्माणि णाम । हय-हत्थि-णर-णारि-वय-वग्धादिपडिमाओ वत्थ विसेसेसु उद्दाओ पोत्तकम्माणि णाम। मट्टिया-खड*-सक्करादिलेवेण स्पर्शशब्द नामस्पर्श कहलाता है। शंका- एक ही स्पर्श शब्दमें कर्मत्व व कर्तृत्व दोनों कैसे बन सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि लोकमें सूर्य, चन्द्र, खद्यात, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ हैं जिनमें उभयभाव देखा जाता है । उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये। विशेषार्थ- यहां स्पर्श शब्दको अन्य पदार्थका वाचक न मानकर वही उसका वाच्य और वही उसका वाचक माना गया है। इसीपर यह शंका की गई है कि एक ही स्पर्श शब्द एक साथ कर्ता और कर्म दोनों कैसे हो सकता है? इसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र आदि प्रकाशमान एक एक पदार्थमें युगपत् प्रकाश्य-प्रकाशकभाव देखा जाता है उसी प्रकार यहां एक स्पर्श शब्दको भी युगपत् कर्ता और कर्म मानने में कोई वाधा नहीं आती। इस प्रकार नाम स्पर्श प्ररूपणा समाप्त हुई। जो वह स्थापनास्पर्श है वह काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म इनमें; तथा अक्ष और वराडक एवं इनको लेकर इसी प्रकार और भी जो एकत्वके संकल्पद्वारा स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्पर्शरूपसे स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनास्पर्श है ॥१०॥ दो पैर, चार पैर, विना पैर और बहुत पैरवाले प्राणियोंकी काष्ठमें जो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं उन्हें काष्ठकर्म कहते हैं। जब ये ही चार प्रकारको प्रतिमाएं भित्ति, वस्त्र और स्तम्भ आदिपर रागवर्त आदि वर्णविषोंके द्वारा चित्रित की जाती हैं तब उन्हें चित्रकर्म कहते हैं। घोडा, हाथी, मनुष्य, स्त्री, वृक और वाघ आदिकी वस्त्रविशेष में उकीरी गई प्रतिमाओंको पोतकर्म कहते हैं। @प खं पु ९ पृ. २४८. * अ-ताप्रत्यो: 'वुत्थु' इति पाठः । * ताप्रतौ ‘ख (क) ड' इति पाठः । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ) छ खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, १०. घडिदाओ पडिमाओ लेप्पकम्माणि णाम। सिलामयपव्वदेहितो अभेदेणःघडिदपडिमाओ लेणकम्माणि णाम । पुधभूदसिलासु घडिदपडिमाओ सेलकम्माणि णाम । गोपुराणं सिहरेहितो अभेदेण इट्ठ-पत्थरादीहि चिदपडिमाओ गिहकम्माणि णाम। कुडेहितो अभेदेण कदएहि® णिप्पाइयपडिमाओ भित्तिकम्माणि णाम । हत्थिदंतुक्किण्णपडिमाओ दंतकम्माणि णाम। भेंडमोएण घडिदपडिमाओ भेंडकम्माणि णाम। आदिसद्देण कंस-तंब-रुप्पसुवण्णादीहि सेक्कारेहि भरिदपडिमाओ वि घेत्तव्वाओ। एवं सब्भावट्ठवणाए आधारपरूवणा कदा। जूअट्टवणे जयपराजयणिमित्तकवडुओ खुल्लो पासओ वा अक्खो णाम। जो अण्णो कवडुओ सो वराडओणाम। एवमेदेहि दोहि वि पदेहि असब्भावढवणविसओ दरिसिदोहोदि। पुग्विल्लेहि च पदेहि सम्भावट्ठवणविसओ णिदरिसिदो। 'जेच अमी अण्णे एवमादिया' एदस्स वयणस्स उभयत्थ वि संबंधो कायव्वो अवुत्तसगहट्टं। ठवणा त्ति वुत्ते मदिविसेसधारणाणाणं घेत्तव्वं । एदेसु पुव्वुत्तेसु सब्भावासब्भावभेएण दुब्भावमावण्णेसु ट्ठवणाए बुद्धीए अमा एयत्तेण जं ठविज्जदि फासे त्ति सो सम्वो ठवणफासो णाम: मिट्टी, खडिया और बालू आदिके लेपसे जो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं उन्हें लेप्यकर्म कहते हैं। शिलास्वरूप पर्वतोंसे अभिन्न जो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं उन्हें लयनकर्म कहते हैं। पृथक पडी हुई शिलाओंमें जो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं उन्हे शैलकर्म कहते हैं । गोपुरोंके शिखरोंसे अभिन्न ईंट और पत्थर आदिके द्वारा जो प्रतिमाएं चिनी जाती हैं उन्हें गृहकर्म कहते हैं । भित्तिसे अभिन्न तणोंसे जो प्रतिमाएं बनाई जाती है उन्हें भित्तिकर्म कहते हैं। हाथीके दांत में जो प्रतिमाएं उत्कीर्ण की जाती हैं उन्हें दन्तकर्म कहते हैं। तथा भेंड अर्थात् से घडी गई प्रतिमाओंको भेंडकर्म कहते हैं। आदि शब्दसे कांसा तांबा, चांदी और सुवर्ण आदि द्वारा साँचे में ढाली गई प्रतिमाएं भी ग्रहण करनी चाहिये। इस प्रकार सद्भावस्थापनाके आधारका कथन किया। द्यूतकर्मकी स्थापनामें जो जय-पराजयकी निमित्तभूत छोटी कौडियां और पांसे होते हैं उन्हें अक्ष कहते हैं और इनके अतिरिक्त कौडियोंको वराटक कहते हैं। इस प्रकार इन दोनों पदोंके द्वारा असद्भावस्थापनाका विषय दिखलाया है और पूर्वोक्त पदोंके द्वारा सद्भावस्थापनाका विषय दिखलाया है। सूत्र में 'जे च अमी अण्णे एवमादिया यह जो वचन आया है सो अनुक्तका संग्रह करने के लिये इसका उभयत्र ही सम्बन्ध करना चाहिये । 'स्थापना' ऐसा कहनेपर उससे मतिविशेषरूप धारणाज्ञान ग्रहण करना चाहिये । इन पूर्वोक्त सद्भाव और असद्भावके भेदसे दो प्रकारके पदार्थों में स्थापना अर्थात् बुद्धिसे अमा अर्थात् अभेदरूपसे जो स्पर्श ऐसी स्थापना होती है वह सब स्थापनास्पर्श है। शंका- यहां स्पृश्य-स्पर्शक भाव कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि बुद्धिसे एकत्वको प्राप्त हुए उनमें स्पृश्य-स्पर्शक भावके होने में कोई ® ताप्रतौ 'कद (ड) एहि' इति पाठः । * ताप्रतौ 'गदा' इति पाठः Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, १२.) फासाणुओगद्दारे दव्वफासो ( ११ कधमत्र स्पृश्य-स्पर्शकभावः ? ण, बुद्धीए एयत्तमावण्णेसु तदविरोहादो सत्त-पमेयतादीहि सव्वस्त सव्वविसयफोसणुवलंभादो वा। जो सो दवफासो णाम ॥ ११ ।। एवं पुव्वपइज्जासंभालणवयणं। एदस्स अत्थो वच्चदे त्ति वा जाणावणमेदं वुच्चदे। जं दव्वं दवेण फसदि सो सम्वो दववफासो णाम ।। १२॥ तं जहा-परमाणुपोग्गलो सेसपोग्गलदव्वेण फुसदि; पोग्गलदव्वभावेण परमाणुपोग्गलस्स सेसपोग्गलेहि सह एयत्तुवलंभादो। एयपोग्गलदव्वस्स सेसपोग्गलदव्वेहि संजोगो समवाओ वा दववफासो गामा अधवा जीवदव्वस्स पोग्गलदव्वस्स य जो एयत्तण संबंधो सो दव्वफासो णाम। जीव-पोग्गलदव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधो? ण एस दोसो, संसारावत्थाए जीवाणममुत्तत्ताभावादो। जदि संसारावत्थाए मुत्तो जीवो, विरोध नहीं आता, अथवा सत्त्व और प्रमेयत्व आदिकी अपेक्षा सबका सर्वविषयक स्पर्शन पाया जाता है। विशेषार्थ- स्थापनाके दो भेद हैं सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । तदाकार स्थापनाको सद्भावस्थापना कहते हैं और अतदाकार स्थापनाको असद्भावस्थापना कहते हैं। जिनमें स्थापना की जाती है वे पदार्थ जुदे होते हैं और जिनकी स्थापना की जाती है वे पदार्थ जुदे होते हैं। प्रकृत में स्पर्शका विचार चला है, इसलिये प्रश्न है कि स्पर्शसे भिन्न पदार्थों में स्पर्श शब्दका व्यवहार कैसे किया जा सकेगा। समाधान यह है कि बुद्धिसे अन्य पदार्थमें स्पर्शका आरोप कर लिया जाता है जिससे उसमें 'यह स्पर्श' है ऐसा व्यवहार बन जाता है। प्रकृतमें इसी दृष्टिसे स्पर्शस्थापनाके दो भेद और उनके विविध उदाहरण उपस्थित किये गये हैं। अब द्रव्यस्पर्शका अधिकार है ॥११॥ यह वचन पूर्व प्रतिज्ञाकी सम्हाल करता है । अथवा आगे 'इसका अर्थ कहते हैं' यह जतलाने के लिये यह वचन कहा है। जो एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे स्पर्शको प्राप्त होता है वह सब द्रव्यस्पर्श है ॥ १२ ॥ यथा- परमाणु पुद्गल शेष पुद्गल द्रव्य के साथ स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि पुद्गल द्रव्यरूपसे परमाणु पुद्गलका शेष पुद्गलोंके साथ एकत्व पाया जाता है। एक पुद्गल द्रव्यका शेष पुद्गल द्रव्योंके साथ जो संयोग या समवाय सम्बन्ध होता है वह द्रव्यस्पर्श कहलाता है। अथवा जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्यका जो एकमेक सम्बन्ध होता है वह द्रव्यस्पर्श कहलाता है। शंका- जीव द्रव्य अमूर्त है और पुद्गल द्रव्य मूर्त है। इनका एकमेक सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थामें जीवोंमें अमूर्तपना नहीं पाया जाता। शंका- यदि संसार अवस्था में जीव मूर्त है तो मुक्त होनेपर वह अमूर्तपनेको कैसे प्राप्त हो सकता है ? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) छक्खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, १२. कधं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्तमल्लियइ? ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबंधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभावसिद्धीदो। जीवपोग्गलाणं कधंमादिबंधो? ण, पवाहसरूवेण अणादिबंधणबद्धाणं आदीए अभावादो। ण च कम्मवत्तिबंध पडि अणादित्तमत्थि, कम्मविणासाभावेण जीवस्स मरणाभावप्पसंगादो उवजीविदोसहाणं वाहिविणासाभावप्पसंगादो च। ण च पोग्गलाणं जीव-पोग्गलेहि चेव फासो, किंतु आगासादिदव्वेहि वि फासो अत्थि; णेगमणएण पच्चासत्तिदंसणादो । कधं दव्वस्स फाससण्णा? ण, स्पृश्यते अनेन स्पृशतीति वा स्पर्श-शब्दसिद्धेर्द्रव्यस्य स्पर्शत्वोपपत्तेः। सत्त-पमेयत्तादिणा सरिसाणं दव्वाणं छण्णं पि दव्वफासो णइगमणयमस्सिदूण अस्थि त्ति एगादिसंजोगेहि भंगपमाणुप्पत्ति वत्तइस्सामो।तं जहा-जीवदव्वं जीवदव्वेण पुस्सिज्जदि,अणंताणं णिगोदाणमेगणिगोदसरीरे समवेदाणमवट्ठाणुवलंभादो जीवभावेण एयत्तदंसणादो वा। १। पोग्गलदव्वं पोग्गलदव्वेण पुस्सिज्जदि, अणंताणं पोग्गलदव्वपरमाणूणं समवेदाणमुवलंभादो पोग्गलभावेण एयत्तदंसणादो वा।२। धम्मदध्वं धम्म समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवमें मूर्तत्वका कारण कर्म है, अतः कर्मका अभाव हो जानेपर तज्जनित मूर्तत्वका भी अभाव हो जाता और इसलिये सिद्ध जीवोंके अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है। शंका- जीव और पुद्गलोंका आदि बन्ध कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्रवाहरूपसे जीव और पुद्गल अनादि बन्धन बद्ध हैं, अतः उसका आदि नहीं बनता। पर इसका अर्थ यह नहीं कि कर्मव्यक्तिरूप बन्धकी अपेक्षा वह अनादि है, क्योंकि, ऐसा माननेपर कर्मका कभी नाश नहीं होनेसे जीवके मरणके अभावका प्रसंग आता है और उपजीवी औषधियोंके निमित्तसे व्याधिविनाशके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । पुद्गलोंका जीव और पूद्गलोंके साथ ही स्पर्श नहीं पाया जाता, किन्तु आकाश आदि द्रव्यों के साथ भो उनका स्पर्श पाया जाता है; क्योंकि नंगम नयकी अपेक्षा इनकी प्रत्यासत्ति देखी जाती है। शंका- द्रव्यकी स्पर्श संज्ञा कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है या जो स्पर्श करता है' इस व्युत्पत्तिके अनुसार स्पर्श शब्दकी सिद्धि होनेसे द्रव्यकी स्पर्श संज्ञा बन जाती है। सत्त्व और प्रमेयत्व आदिको अपेक्षा सदश ऐसे छहों द्रव्योंके भो द्रव्यस्पर्श नैगम नयकी अपेक्षा पाया जाता है, इसलिये एक आदि संयोगोंकी अपेक्षा जितने भंग उत्पन्न होते हैं उन्हें बतलाते हैं। यथा-एक जोव दसरे जीव द्रव्य के द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है क्योंकि, एक निगोदशरीरमें समवेत अनन्त निगोद जोवोंका अवस्थान पाया जाता है; अथवा जीवरूपसे उन सबमें एकत्व देखा जाता है । १। एक पुद्गल द्रव्य दूसरे पुद्गल द्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि, समवेत अनन्त पुद्गल परमाणु पाये जाते हैं, अथवा पुद्गल रूपसे AB ताप्रतौ ‘णेगमगयपच्चासत्तिदंसणादो' इति पाठः । 0 ताप्रतौ 'स्पृश्यतीति' इति पाठः । . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, १२.) फासाणुओगद्दारे दवफासो (१३ दवेण पुस्सिज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो ।३। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुस्सिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो ।४। कालदव्वं कालदव्वेण पुस्सिज्जदि, लोगागासपदेसमेत्तकालपरमाणूणं एगक्खेतठइदमुत्ताहलाणं व समवायवज्जियाणं कालभावेण एयत्तुवलंभादो एगलोगागासावद्वाणेण एयत्तदंसणादो वा । ५। आगासदत्वमागासदत्वेण पुस्सिज्जदि, आगासक्खंधदेस-पदेस-परमाणूणं णेगमणएण पुध पुध लद्धदव्वभावाणं अण्णोण्णफासुवलंभादो। ६ । एत्थुव उज्जतीओ गाहाओ लोगागासपदेसे एक्केके जे ट्ठिया हु एक्केका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥२॥ खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणं ति देसो त्ति । अद्धद्धं च पदेसो अविभागी जो स परमाणू * ॥ ३ ॥ संपहि दुसंजोगेण दव्वभंगुप्पत्ती कीरदे। तं जहा-जीवदव्वेण पोग्गलदव्वं पुसिज्जदि; जीवदव्वस्स अणंताणंतकम्म-णोकम्मपोग्गलक्खंधेहि एयत्तदंसणादो। ७ । जीव-धम्मदउनमें एकत्व देखा जाता है । २ । धर्म द्रव्य धर्म द्रव्य के द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्रहिक नैगम नयकी अपेक्षा लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण और पृथक् पृथक् द्रव्य संज्ञाको प्राप्त हुए धर्म द्रव्यके प्रदेशोंका परस्परमें स्पर्श देखा जाता है। ३ । अधर्म द्रव्य अधर्म द्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्रहिक नैगमनयको अपेक्षा द्रव्यभावको प्राप्त हुए अधर्म द्रव्यके स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुओंका एकत्व देखा जाता है । ४ । काल द्रव्य काल द्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त होता है, क्योंकि एक क्षेत्रमें स्थापित मुक्ताफलोंके समान समवायसे रहित लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण कालपरमाणुओंका कालरूपसे एकत्व देखा जाता है; अथवा एक लोकाकाशमें अवस्थान होनेसे उनमें एकत्व देखा जाता हैं । ५ । आकाश द्रव्य आकाश द्रव्यके द्वारा स्पर्शको प्राप्त हो रहा है, क्योंकि नैगम नयकी अपेक्षा पृथक् पृथक् द्वव्यभावको प्राप्त हुए आकाशके स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणओंका परस्पर स्पर्श देखा जाता है। ६ । प्रकृतमें उपयुक्त गाथाएं लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान जो एक एक स्थित हैं वे कालाणु हैं, ऐसा जानना चाहिये ।। २ ।।। जो सर्वांशमें समर्थ है उसे स्कन्ध कहते हैं। उसके आधेको देश और आधेके आधेको प्रदेश कहते हैं । तथा जो अविभागी है उसे परमाणु कहते हैं ।। ३॥ __ अब द्विसंयोगकी अपेक्षा द्रव्यके भंगोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। यथा-जीव द्रव्यके द्वारा पुद्गल द्रव्य स्पर्श किया जाता है,क्योंकि जीव द्रव्यका अनन्तानन्त कर्म व नोकर्मरूप पुद्गलस्कन्धोंके साथ एकत्व देखा जाता है । ७। जीवद्रव्य और धर्मद्रव्यका परस्परमें स्पर्श है, क्योंकि, B अ-ताप्रत्योः 'एगखेत्तं रइद' इति पाठः ॐ गो. जी. ५८८. * पंचा. ७५, मूला. १३१, ति. प. १-९५, गो. जी. ६०३. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ) छ खंडागमे वेयणाखंड ( ५, ३, १२. व्वाणमत्थि फासो, सत्त-पमेयत्तादीहि लोगमेत्तखेत्तावद्वाणेण एयत्तदंसणादो । ८ । जीवअधम्मदव्वाणमत्थि फासो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । ९ । जीव- कालदव्वाणमत्थि फासो । कारणं सुगमं । १० । जोवागासदव्वाणमत्थि फासो । कारणं सुगमं । ११ । पोग्गल धम्मदव्वाणमत्थि फासो । १२ । पोग्गल - अधम्मदव्वाणमत्थि फासो । १३ । पोग्गल - काल aaraft फासो । १४ । पोग्गल - आगासदव्वाणमत्थि फासो । १५ । धम्माधम्मदव्वाणमत्थि फासो । १६ । धम्म - कालदव्वाणमत्थि फासो । १७ । धम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । १८ । अधम्म - कालाणमत्थि फासो । १९ । अधम्मागासाणमत्थि फासो । २० । कालागासाणमत्थि फासो । २१ । जीव- पोग्गल-धम्मदव्वाणमत्थि फासो । २२ । जीव- पोग्गल - अधम्मदव्वाणमत्थि फासो । २३ । जीवपोग्गलकालदव्वाणमत्थि फासो । २४ । जीवपोग्गलागासदव्वाणमत्थि फासो । २५ । जीवधम्माधम्मदव्वाणमत्थि फासो । २६ । जीवधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो । २७ । जीवधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । २८ । जीवअधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो । २९ । जीवअधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । ३० । जीवकालागासदव्वाणमत्थि फासो । ३१ । पोग्गलधम्माधम्मदव्वाणमत्थि फासो । ३२ । पोग्गलधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो |३३| पोग्गलधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । ३४ । पोग्गलअधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो । ३५ । पोग्गलअधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो | ३६ | पोग्गलवालागा सदव्वाणमत्थि फासो । ३७ धम्माधम्मकालदव्वाणमत्थि T सत्त्व व प्रमेयत्व आदि धर्मोकी अपेक्षा और लोकमात्र क्षेत्रके अवस्थानकी अपेक्षा इनका एकत्व देखा जाता है | ८ | जीव और अधर्म द्रव्यका परस्पर में स्पर्श है। कारण पहले के समान कहना चाहिये । ९ । जीव और काल द्रव्यका स्पर्श है। कारण सुगम है । १० । जीव और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । कारण सुगम है । ११ । पुद्गल और धर्म द्रव्यका स्पर्श है | १२ | पुद्गल और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । १३ । पुद्गल और काल द्रव्यका स्पर्श है । १४ । पुद्गल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है | १५ | धर्म और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । १६ । धर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है १७ । धर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । १८ अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । १९ । अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श हैं । २० काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । २१ । जीव, पुद्गल और धर्म द्रव्यका स्पर्श है । २२ । जीव, पुद्गल और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । २३ । जीव पुद्गल और काल द्रव्यका स्पर्श है । २४ । जीव, पुद्गल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । २५ । जीव, धर्म और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । २६ । जीव, धर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । २७ । जीव, धर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । २८ । जीव, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । २९ । जीव, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ३० । जीव, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है 1 ३१ । पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । ३२ । पुद्गल, धर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ३३ । पुद्गल, धर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ३४ । पुद्गल, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ३५ । पुद्गल, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है | ३६ | पुद्गल, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ३७ । धर्म, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ३८ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, १२.) फासाणुओगद्दारे दव्वफा सो फासो। ३८। धम्माधम्मागासदव्वाणमथि फासो। ३९ । धम्मकालागासदव्वाणमथि फासो। ४०। अधम्मकालागासदव्वाणमस्थि फासो। ४१। जीव-पोग्गल-धम्माधम्मदव्वाणमस्थि फासो ।४२। जीवपोग्गलधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो। ४३ । जीवपोग्गलधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । ४४ । जीवपोग्गलअधम्मकालदवाणमत्यि फासो ।४५। जीवपोग्गलधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । ४६। जीवपोग्गलकालागासदव्वाणमत्यि फासो। ४७। जीवधम्माधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो । ४८। जीवधम्भाधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो। ४९ । जीवधम्मकालागासदव्वागमत्थि फासो। ५० । जीव अधम्मकालागासदव्वाणमत्थि फासो । ५१ । पोग्गलधम्माधम्मकालदव्वाणमत्थि फासो ।५२। पोग्गलधम्माधम्मागासदव्वाणमत्थि फासो । ५३। पोग्गलधम्मकालागासदव्वाणमत्थि फासो। ५४ । पोग्गलअधम्मकालागासदव्वाणमत्थि फासो । ५५ । धम्माधम्मकालागासदवाणमत्थि फासो । ५६। जीवपोग्गलधम्माधम्मकालदवाणमत्यि फासो । ५७ । जीवपोग्गलधम्माधम्मआगासदवाणमत्थि फासो।५८। जीव-पोग्गल-धम्म-कालागासदव्वाणमत्थि फातो । ५९। जीवपोग्गलअधम्मकालागासदबागमत्थि फासो । ६० । जीवधम्माधम्मकालागासव्वाणमत्यि फासो । ६१। पोग्गलधम्माधम्मकालागासदव्वाणमत्थि फासो। ६२। जीवपोग्गलधम्माधम्मकालागासदव्वाणमत्थि फासो।।३। एवं तेस ट्ठिदवफासवियप्पा सकारणा वत्तव्वा । एत्थुव उज्जती गाहा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ३९ । धर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ४० । अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका पर्श हैं । ४१। जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यका स्पर्श है । ४२ । जीव, पुद्गल, धर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ४३ । जीव, पुद्गल, धर्म और आकाश द्रव्यका स्पश है । ४४ । जीव, पुद्गल, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ४५। जीव, पुद्गल, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ४६ । जीव, पुद्गल, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ४७ । जीव, धर्म, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ४८ । जीव, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ४९ । जीव, धर्म, काल और आकाश द्रव्य का स्पर्श है । ५० । जीव, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ५५ । पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है । ५२ । पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है। ५३ । पुद्गल धर्म, काल और आकाश द्रव्य का स्पर्श है । ५४ । पुद्गल, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ५५ । धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श हैं । ५६ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श है। ५७ । जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ५८ जीव, पुद्गल, धर्म, काल और आकाश द्रव्य का स्पर्श है । ५९ । जोव, पुद्गल, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है। ६० । जीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ६१ । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ६२ । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यका स्पर्श है । ६३ । इस प्रकार द्रव्यस्पर्शके वेसठ विकल्प सकारण कहने चाहिये । यहां उपयोगी पडनेवाली गाथा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड (५, ३, १३. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पायधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवइ एक्का ।। ४ ।। एवं दव्वफासपरूवणा गदा । जो सो एयक्खेत्तफासो णाम ।। १३ ।। तस्स अत्थपरूवणा कीरदि त्ति भणिदं होदि । जंदव्वमेयखेत्तेण फुसदि सो सम्वो एयक्खेत्तफासो णाम ॥ १४ ॥ एक्कम्हि आगासपदेसे ट्ठिदअणंतागंतपोग्गलक्खंधाणं समवाएण संजोएण वा जो फासो सो एयक्खेत्तफासो णाम । बहुआगं दवाणं अक्कमेण एयक्खेत्तफुसणदुवारेण वा एयक्खेत्तफासो वत्तव्यो । ___ सत्ता सब पदार्थों में स्थित है, सविश्वरूप है, अनन्त पर्यायवाली हैं; नाश, उत्पाद और ध्रौव्यस्वरूप है; तथा सप्रतिपक्ष होकर भी एक है ।। ४ ।। विशेषार्थ- यहां द्रव्योंके स्पर्शके भेद और उनके कारणोंकी विस्तृत चर्चा की गई है। सब द्रव्योंके दो प्रकारका सम्बन्ध दिखलाई देता है- एक अनादि सम्बन्ध और दूसरा सादि सम्बन्ध । धर्म, आदि चार द्रव्योंके साथ जीव और पुद्गल का तथा उनका परस्पर में अनादि सम्बन्ध है। तथा जीव जीवका, जीव पुद्गलका और पुद्गल पुद्गलका दोनों प्रकारका सम्बन्ध देखा जाता हैं । प्रकृतमें स्पर्श शब्दकी व्याख्या है- जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है या जो स्पर्श करता है । इस व्याख्यानके अनुसार सभी द्रव्योंका परस्पर में सर्शभाव बन जाता है। बन्धविशेषकी अपेक्षा जीव जीवके साथ, जीव पुद्गलके साथ और पुद्गल पुद्गल के साथ परस्पर संश्लेषको प्राप्त होते रहते हैं इसलिये इनका तो स्पर्श है ही; किन्तु सत्त्व. प्रमेयत्व आदि धर्मोंकी अपेक्षा इनका अन्य द्रव्योंके साथ और अन्य द्रव्योंका परस्परमें स्पर्श बन जाता है। नयविशेषकी दृष्टिसे यह योजना की गई है जिसका खुलासा मूलमें किया ही है। इस प्रकार छह द्रव्योंके स्वसंयोगी, द्विसंयोगी आदिकी अपेक्षा कुल भंग ६३ होते हैं। स्वसंयोगी ६, द्विसंयोगी १५, त्रिसंयोगी २०, चतुःसंयोगी १५, पंचसंयोगी ६ और षट्संयोगी १; कुल ६३ भंग होते हैं । इनका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है । इस प्रकार द्रव्यस्पर्शका कथन समाप्त हुआ। अब एकक्षेत्रस्पर्शका अधिकार है ॥ १३ ॥ इसकी अर्थप्ररूपणा करते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो द्रव्य एक क्षेत्रके साथ स्पर्श करता है वह सब एकक्षेत्रस्पर्श है ॥१४॥ एक आकाशप्रदेशमें स्थित अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंका समवाय सम्बन्ध या संयोग सम्बन्धद्वारा जो स्पर्श होता है वह एकक्षेत्रस्पर्श कहलाता है । अथवा बहुत द्रव्योंका युगपत् एकक्षेत्रके स्पर्शनद्वारा एकक्षेत्रस्पर्श कहना चाहिये । ॐ पंचा. ८, प. खं. पु. ९ पृ. १७१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, १६. ) फासाणुओगद्दारे अणंतरफासो जो सो अणंतरक्खेत्तफासो णाम ॥ १५ ॥ तस्स पुवुद्दिट्टस्स अत्थो वुच्चदे जं दव्वमणंतरक्खेत्तेण पुसदि सो सम्वो अणंतरक्खेत्तफासो णाम ॥१६॥ किमणंतरक्खेत्तं णाम? एगागासपदेसक्खेत्तं पेक्खिऊण अणेगागासपदेसक्खेत्तमणंतरं होदि, एगाणेगसंखाणमंतरे अण्णसंखाभावादो। दुपदेसट्टिददव्वाणमण्णेहि दोआगासपदेसट्टिददव्वेहि जो फासो सो अणंतरक्खेत्तफासो णाम। दुपदेसट्ठियखंधाणं तिपदेसट्ठियखंधाणं च जो फासो सो वि अणंतरक्खेत्तफासो। एवं चदु-पंचादिपदेसट्ठियखंधेहि दुसंजोगपरूवणाए बिदियक्खो संचारेदवो जाव देसूणलोयट्टियमहक्खंधे ति। एदेण कमेण सव्वे दुसंजोगभंगे जहासंभवे परूविय तिसंजोगादिभंगा वि परूवेदव्वा । अधवा पुविल्लसुत्तट्टियएगसद्दो संखाए वट्टमाणो त्ति ण वत्तव्वो, किंतु समाणत्थे वट्टदे। एवं संते समाणोगाहणखंधाणं जो फासो सो एयक्खेत्तफासो णाम। असमाजोगाहणखंधाणं विशेषार्थ- यहां एकक्षेत्रस्पर्शका विचार किया गया है । एकक्षेत्रस्पर्श में एक शब्द क्षेत्रका विशेषण है। तदनुसार यह अर्थ फलित होता है कि विवक्षित एक आकाशके प्रदेशके साथ अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंका या अनेक द्रव्यों का युगपत् जो स्पर्श होता है वह एकक्षेत्रस्पर्श कहलाता है। अब अनन्तरक्षेत्रस्पर्शका अधिकार है ॥ १५॥ इस पूर्वोक्त स्पर्शका अर्थ कहते हैंजो द्रव्य अनन्तर क्षेत्र के साथ स्पर्श करता है वह सब अनन्तरक्षेत्रस्पर्श है ॥१६॥ शंका- अनन्तर क्षेत्र किसे कहते हैं? समाधान- एक आकाशप्रदेशरूप क्षेत्रको देखते हुए अनेक आकाशप्रदेशरूप क्षेत्र अनन्तरक्षेत्र है, क्योंकि, एक और अनेक संख्याके मध्य में अन्य संख्या नहीं उपलब्ध होती। दो प्रदेशों में स्थित द्रव्योंका दो आकाशके प्रदेशोंमें स्थित अन्य द्रव्योंके साथ जो स्पर्श होता है वह अनन्तरक्षेत्रस्पर्श हैं। दो प्रदेशों में स्थित स्कन्धोंका और तीन प्रदेशों में स्थित स्कन्धोंका जो स्पर्श होता है वह भी अनन्तरक्षेत्रस्पर्श है। इसी प्रकार चार, पांच आदि प्रदेशोंमें स्थित स्कन्धोंके साथ दो संयोगका कथन करते समय कुछ कम लोकमें स्थित महास्कन्धके प्राप्त होने तक द्वितीय अक्षका संचार करना चाहिये। इस क्रमसे सभी द्विसयोगी भंगोंका यथासम्भव कथन करके तोनसंयोगी आदि भंगोंका भो कथन करना चाहिये। अथवा पूर्वोक्त मूत्र में स्थित जो 'एक' शब्द है वह संख्यावाची है, ऐसा नहीं कहना चाहिये ; किन्तु समानार्थवाची है, ऐसा कहना चाहिये। इस स्थितिमें समान अवगाहनावाले स्कन्धोंका जो स्पर्श होता है वह एकक्षेत्रस्पर्श है और असमान अवगाहनावाले स्कन्धोंका जो स्पर्श होता है वह अनन्त रक्षेत्रस्पर्श है। *ताप्रतौ 'समाणोगाहगाखंधाण ' इति पाठः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) छक्खंडागमे वग्गणाखंड ( ५, ३, १७. जो फासो सो अणंतरखेत्तफासो णाम। कधमणतरत्तं? समाणासमाणक्खेत्ताणमंतरे खेत्तंतराभावादो। एवमणंतरखेत्तफासपरूवणा गदा। जो सो देसफासो णाम ।। १७॥ तस्स अत्थपरूवणा कीरदेजं दम्वदेसंदेसेण फसदि सो सम्वो देसफासो णाम ।। १८॥ एगस्स दव्वस्स वेसं अवयवं जदि (देसेण) अण्णदव्वदेसेण* अप्पणो अवयवेण पुसदि तो देसफासो त्ति दट्टव्वो। एसो देसफासो खंधावयवाणं चेव होदि, ण परमाणुपोग्गलाणं; जिरवयवत्तादो ति ण पच्चवठेयं, परमाणूणं गिरवयवत्तासिद्धीदो। 'अपदेसं व इंदिए गेज्झं इदि परमाणूणं गिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि णासंकणिज्ज*, पदेसो णाम परमाणू, सो जम्हि परमाणुम्हि समवेदभावेण पत्थि सो परमाण अपदेसओ ति परियम्मे वुत्तो। तेण ण णिरवयवत्तं तत्तो गम्मदे। परमाणू सावयवो त्ति शंका- इसे अनन्तरपना कैसे प्राप्त होता है ? समाधान- क्योंकि समान और असमान क्षेत्रोंके मध्य में अन्य क्षेत्र नहीं उपलब्ध होता, इसलिये इसे अनन्तरपना प्राप्त है। विशेषार्थ- अनन्तर शब्द सापेक्ष है । पहले एक क्षेत्रका विवेचन कर आये हैं। उसके सिवा शेष सब क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र कहलाता है । और इन क्षेत्रों में स्थित स्कन्धका स्पर्श अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है । यदि एकका अर्थ समान किया जाता है तो अनन्तरक्षेत्र स्पर्शका अर्थ असमान अवगाहनावाले स्कन्धोंका स्पर्श फलित होता है। इस प्रकार अनन्तरक्षेत्रस्पर्श प्ररूपणा समाप्त हुई। अब देशस्पर्शका अधिकार है ॥ १३ ॥ उसके अर्थका विवेचन करते हैंजो द्रव्यका एक देश एक देशके साथ स्पर्श करता है वह सब देशस्पर्श है॥१८॥ एक द्रव्यका देश अर्थात् अवयव यदि अन्य द्रव्यके देश अर्थात् उसके अवयवके साथ स्पर्श करता है तो वह देशस्पर्श जानना चाहिये । यह देशस्पर्श स्कन्धोंके अवयवोंका हो होता है, परमाणुरूप पुद्गलोंका नहीं; क्योंकि वे निरवयव होते हैं। यदि कोई ऐसा निश्चय करे तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु निरवयव होते हैं, यह बात असिद्ध है। ‘परमाणु अप्रदेशी होता है और उसका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता।' इस प्रकार परमाणुओंका निरवयवपना परिकर्ममें कहा है । यदि कोई ऐसो आशंका करे तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रदेशका अर्थ परमाणु है । वह जिस परमाणुमें समवेतभावसे नहीं है वह परमाणु अप्रदेशी है, इस प्रकार परिकर्म में कहा है । इसलिये परमाणु निरवयव होता है, यह बात परिकर्मसे नहीं जानी जाती । शंका- परमाणु सावयव होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- स्कन्धभावको अन्यथा वह प्राप्त नहीं हो सकता, इसोसे जाना जाता है कि परमाणु सावयव होता है। अप्रतो 'दब्वं देसं' इति पाठः। * अप्रतौ 'अण्णदव्वं देसेण' इति पाठः । ति.प.१-९८. *ताप्रती 'ण संकणिज्ज' इति पाठः । , Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २०. ) फासाणुओगद्दारे तयफासो ( १९ कतो णव्वदे? खंधभावण्णहाणुववत्तीदो। जदि परमाणू णिरवयवो होज्ज तो क्खंधापत्ती जायदे, अवयवाभावेण देसफासेण विणा सव्वफासमुवगर्हितो धुप्पत्तिविरोहादो । ण च एवं उप्पण्णखंधुवलंभादो । तम्हा सावयवो परमाणू त्ति घेत्तव्वो । जो सो तयफासो णाम ।। १९ ।। तस्स अत्यो उच्चदे जं दव्वं तयं वा गोतयं वा फुसदि सो सव्वो तयफासो णाम ॥ २० ॥ तयो णाम रुक्खाणं गच्छाणं कंधाणं वा वक्कलं । तस्सुवरि पप्पदकलाओ यं । सूरणलय-लंड-हलिद्दादीणं वा बज्झपप्पदकलाओ णोतयं णाम । जं दव्वं तयं वाणोतयं वा पुसदि सो तयफासो णाम । एसो तयफासो दव्वफासे अंतब्भावं किण्ण यदि परमाणु निरवयव होवे तो स्कन्धोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि, जब परमाणुओंके अवयव नहीं होंगे तो उनका एकदेशस्पर्श नहीं बनेगा और एकदेशस्पर्शके विना सर्वस्पर्श मानना पडेगा जिससे स्कन्धोंकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उत्पन्न हुए स्कन्धोंको उपलब्धि होती है । इसलिये परमाणु सावयव होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ जो एकदेश स्पर्श होता है उसे देशस्पर्श कहते हैं । उदाहरणार्थ - एक स्कन्धका अन्य स्कन्धके साथ बन्ध होनेपर जो नया स्कन्ध बनता है वह देशस्पर्शका उदाहरण है। इसी प्रकार एक परमाणुका दूसरे परमाणु के साथ बन्ध होनेपर जो दो प्रदेशावगाही स्कन्ध बनता है वह भी देशस्पर्शका उदाहरण है । प्रकृतमें परमाणुको सावयव सिद्ध करनेके लिये जो युक्ति दी गई है और आगमका अर्थ किया गया है उसका भाव इतना ही है कि परमाणुके छेद करना तो शक्य नहीं है, पर पूर्वभाग व पश्चिमभाग इत्यादि रूपसे उसका भी विभाग होता है। अन्य दर्शनोंमें परमाणुको जैसा सर्वथा निरंश कहा है वैसा निरंश जैन दर्शन नहीं मानता । अब त्वक्स्पर्शका अधिकार है ॥ १९ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं जो द्रव्य त्वचा या नोत्वचाको स्पर्श करता है वह सब त्वक्स्पर्श है | ॥ २० ॥ वृक्ष, गच्छ या स्कन्धोंकी छलको त्वचा कहते हैं और उसके ऊपर जो पपडीका समूह होता है उसे नोत्वचा कहते हैं । अथवा सूरण, अदरख, प्याज और हलदी आदिकी जो बाह्य पपडीका समूह है उसे नोत्वचा कहते हैं । जो द्रव्य त्वचा या नोत्वचाको स्पर्श करता है वह त्वक्स्पर्श कहलाता है । शका - यह त्वक्स्पर्श द्रव्यस्पर्श में अन्तर्भावको क्यों नहीं प्राप्त होता ? (१) प्रतिषु 'कंदाणं' इति पाठ: । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५,३, २०. गच्छदे ? ण, तय-गोतयाणं खंधम्हि समवेदाणं पुधदव्वत्ताभावादो। खंध-तय-गोतयाणं समूहो दव्वं । ण च एक्कम्हि दव्वे दव्वफासो अत्थि, विरोहादो। एत्थ फासभंगे वत्तइसाम । तं जहा - खंधो तयं फुसदि । १ । खंधो णोतयं फुसदि । २ । खंधो तए फुसदि | ३ | धो णोत फुसदि । ४॥ खंधो तयं णोतयं च फुसदि ।५। कत्थ विरुक्खादिविसेसे खंधो तयं णोतयेच फुसदि । ६ । कत्थ वि तये गोतयं च फुसदि । ७| कत्थ विरुवखादिखंधो तए णोतए च फुसदि । ८ । एवमट्ठ भंगा। अधवा खंधेण विणा तय-गोतयेसु चेव अट्ठफासभंगा उप्पाएयव्वा । तं जहा -- तओ तयं फुसदि । १ । गोतओ गोतयं फुसदि । २ । तया तए फुसंति | ३ | णोतया णोतए फुति |४| तओ गोतयं फुसदि । ५। तओ णोतए फुसदि । ६ । तया गोतयं फुर्तति ॥७॥ तया णोत फुसंति | ८ | तयफासो देसफासे किण्ण पविसदि ? UT, णाणादव्वविसए देतफा से एगदव्वविसयस्स तयफासस्स पवेसविरोहादो। एवं तयफासपरूवणा गदा । समाधान- नहीं, क्योंकि, त्वचा और नोत्वचा स्कन्धमें समवेत हैं, अतः उन्हें पृथक् द्रव्य नहीं माना जा सकता । स्कन्ध, त्वचा और नोत्वचाका समुदाय द्रव्य है । पर एक द्रव्यमें द्रव्यस्पर्श नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा माननेपर विरोध आता है ! यहां स्पर्शके भंग बतलाते हैं । यथा-स्कन्ध त्वचाको स्पर्श करता है । १ । स्कन्ध नोत्वचाको स्पर्श करता है । २ । स्कन्ध त्वचाओंको स्पर्श करता है । ३ । स्कन्ध नोत्वचाओंको स्पर्श करता है । ४ । स्कन्ध त्वचा और नोत्वचाको स्पर्श करता है । ५ । कहीं वृक्ष आदि विशेष में स्कन्ध एक त्वचा और अनेक नोत्वचाओंको स्पर्श करता है । ६ । कहीं स्कन्ध अनेक त्वचाओं और एक नोत्वचाको स्पर्श करता है । ७ । कहीं वृक्षादिका स्कन्ध अनेक त्वचाओं और अनेक नोत्वचाओंको स्पर्श करता है । ८ । इस प्रकार आठ भंग होते हैं । अथवा स्कन्धके विना ही त्वचा और नोत्वचाके स्पर्श सम्बन्धी आठ भंग उत्पन्न करने चाहिये । यथा-त्वचा त्वचाको स्पर्श करती है । १ । नोत्वचा नोत्वचाको स्पर्श करती है । २ । त्वचाएं त्वचाओं को स्पर्श करती हैं । ३ । नोत्वचाएं नोत्वचाओंको स्पर्श करती हैं । ४ । त्वचा नोत्वचाको स्पर्श करती है । ५ । त्वचा नोत्वचाओंको स्पर्श करती है । ६ | त्वचाएं नोत्वचाको स्पर्श करती हैं । ७ 1 त्वचाएं नोत्वचाओंको सर्श करती हैं । ८ा शंका- त्वक्स्पर्श देशस्पर्श में क्यों नहीं अन्तर्भूत होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नाना द्रव्योंको विषय करनेवाले देशस्पर्श में एक द्रव्यको विषय करनेवाले त्वक्स्पर्शका अन्तर्भाव मानने में विरोध आता है । विशेषार्थ - द्रव्य स्पर्श में दो द्रव्यों के परस्पर स्पर्शकी और देशस्पर्श में दो द्रव्योंके एकदेश स्पर्शको मुख्यता रहती है । यही कारण है कि त्वक्स्पर्शका इन दोनों स्पर्शो में अन्तर्भाव नहीं किया है। माना कि त्वचा, नोत्वचा और स्कन्ध अलग अलग अनेक परमाणुओंसे बनते हैं इसलिये इससे अनेक द्रव्योंका ग्रहण होना सम्भव है । पर यहां स्कन्धरूपसे इस सबको एक द्रव्य अप्रतौ ' तयाफासो देसफासे', ताव्रती ' तयाफासो देसकासो' इति पाठः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २२. ) फासाणुओगद्दारे सव्व फासो जो सो सव्वफासो णाम ।। २१ । तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो जं दव्वं सव्वं सव्वेण फुसदि, जहा परमाणुदव्वमिदि, सो सव्व सव्वफासो णाम ।। २२ ।। जं किंचि दव्वमण्णेण दव्वेण सव्वं सव्वप्पणा पुसिज्जदि सो सव्वफासो णाम । जहा परमाणुदव्वमिदि । एदं दिट्ठतवयणं । एदस्स अत्थो वुच्चदे - जहा परमाणुदव्वमण्णेण परमाणुणा पुसज्जमाणं सव्वं सव्वप्पणा पुसिज्जदि तहा अण्णो वि जो एवंविहो फासो सो सव्वफासो त्ति दट्ठव्वो । एत्थ चोदओ भगदि - एसो दिट्ठतो ण घडदे । तं जहा - परमाणू परमाणुम्हि पविसमाणो किमेगदेसेण पविसदि आहो सव्वापणा ? ण पढमपक्खो, परमाणुदव्वं * सव्वं सव्वप्पणा अण्णेण परमाणुणा पुसिज्जदित्ति वयणेण सह विरोहादो। ण बिदियपक्खो वि, दव्वे दव्वहि गंधे गंधम्मि रुवे रूवम्हि रसे रसम्मि फासे फासम्मि पविट्टे परमाणुदव्वस्स अभावप्पसंगादो। ण चाभावो, दव्वस्स अभावत्तविरोहादो। ण सरुवमच्छंडिय मान कर त्वक्स्पर्श का पृथक्से विवेचन किया गया है । शेष कथन सुगम है । इस प्रकार त्वक्स्पर्शप्ररूपणा समाप्त हुई । अब सर्वस्पर्शका अधिकार है ।। २१ । उसके अर्थका कथन करते हैं जो द्रव्य सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है, यथा परमाणु द्रव्य, वह सब सर्व स्पर्श है ॥ २२ ॥ ( २१ जो कोई द्रव्य अन्य द्रव्यके साथ सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है वह सर्वस्पर्श है । यथा परमाणु द्रव्य । यह दृष्टान्त वचन है । आगे इसका अर्थ कहते हैं - जिस प्रकार परमाणु द्रव्य अन्य परमाणु के साथ स्पर्श करता हुआ सबका सब सर्वात्मना स्पर्श करता है उसी प्रकार अन्य भी जो इस प्रकारका स्पर्श है वह सर्वस्पर्श है. ऐसा जानना चाहिये । शंका- यहां शंकाकारका कहना है कि यह दृष्टान्त घटित नहीं होता है । वह इस प्रकारसे - एक परमाणु अन्य परमाणुमें प्रवेश करता हुआ क्या एकदेशेन प्रवेश करता है या सर्वात्मना प्रवेश करता है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि, 'परमाणु द्रव्य सबका सब अन्य परमाणु के साथ सर्वात्मना स्पर्श करता है' इस वचनके साथ विरोध आता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, द्रव्यका द्रव्यमें, गन्धका गन्ध में, रूपका रूपमें, रसका रसमें और स्पर्शका स्पर्श में प्रवेश हो जानेपर परमाणु द्रव्यका अभाव प्राप्त होता है । परन्तु अभाव हो नहीं सकता, क्योंकि, द्रव्यका अभाव मानने में विरोध आता है । एक पुद्गल का अपने स्वरूपको छोड़कर अन्य पुद्गल में प्रवेश ताप्रतौ 'पविसमाणो ' इति पाठः । पणा' इति पाठः । * अप्रतौ 'मच्छद्दिय' अप्रतौ 'सवप्पणेग' इति पाठः । * ताप्रती ' - दव्वं इति पाठः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंड ( ५,३, २२. पविसदि, पोग्गलम्मि ओगाहणधम्माभावादो। भावे वा आगासदव्वस्स अभावो होज्ज, तेण कीरमाणकज्जस्स पोग्गलेणेव कदत्तादो । सुवण्णम्हि पारयस्स पवेसो सरूवपरिच्चागमंतरेण उवलब्भदि त्ति चे-होदु खंधेसु खंधाणं पवेसो, सरुव परिच्चागेण विणा छारच्छाणिमट्टियासु जलादीणं पवेसुवलंभादो । न च परमाणूणमेस क्कमो, सयलथूलकज्जाणमभावप्प संगादो। केसि पि परमाणूणं एगदेसेण फासो, केसि पि सव्वपणा, ते परमाणू हितो थूलकज्जुप्पत्ती ण विरुज्झदि त्ति चे-ण, कम्हि वि कालम्हि सव्वेसु पोग्गलेसु एगपरमाणु म्हि पविट्ठेसु परमाणुमेत्तस्स अवद्वाणप्पसंगादो । होदु चे - ण, तिहुवणजणतणुविणासेण सव्वजीवाणं णिव्वुइप्पसंगादो । एक्कम्हि परमाणुम्हि सव्वो पोग्गलरासी ण पविसदि, किंतु थोवा चेव परमाणू पविसंति त्ति चे ण, थोवपवेसस्स कारणाभावाद । ओगाहणसत्ती बहुआ णत्थि त्ति थोवा चेव पविसंति त्ति चे-ण, आयासं मोत्तून अण्णत्थ ओगाह धम्माभावादो । जदि परमाणुम्हि परमाणूणं पवेसो णत्थि तो असंखेज्जपदेसिए लोगागासे कधमणंताणं पोग्गलाणं नहीं होता, क्योंकि, पुद्गलमें अवगाहन धर्मका अभाव है । और यदि उसमें अवगाहन धर्मका सद्भाव माना भी जाय तो आकाश द्रव्यका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि, उसके द्वारा किये जानेवाले कार्यको पुद्गलने ही कर दिया । यदि कहा जाय कि सुवर्ण में पारदका अपने स्वरूपका त्याग किये बिना ही प्रवेश देखा जाता है, तो इसपर यह कहना है कि स्कन्धों में स्कन्धों का प्रवेश भले ही हो जाय, क्योंकि, स्वरूपका परित्याग किये बिना ही क्षार, छाणि, और मिट्टी में जल आदिकका प्रवेश देखा जाता है । परन्तु परमाणुओं में यह क्रम नहीं पाया जाता, क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त स्थूल कार्योंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है | यदि कहा जाय कि किन्हीं परमाणुओंका एकदेशेन स्पर्श होता है और किन्ही परमाणुओंका सर्वात्मना स्पर्श होता है, इसलिये परमाणुओंसे स्थूल कार्यकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता । सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर स्यात् किसी काल में सब पुद्गल एक परमाणुमें प्रविष्ट हो जायेंग तब परमाणुमात्र अवस्थान प्राप्त होगा। यदि कहा जाय कि ऐसा ही हो जाय, सो यह बात भी नहीं है; क्योंकि, तब तीन लोकके जीवोंके शरीरका विनाश हो जानेसे सब जीवोंको मुक्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि एक परमाणु में सब पुद्गल राशि प्रवेश नहीं करती, किन्तु स्वल्प परमाणु ही प्रवेश करते हैं । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, स्वल्प परमाणु ही प्रवेश करते हैं इसका कोई कारण नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि अधिक अवगाहन शक्ति नहीं पाई जाती, इसलिये स्वल्प परमाण ही प्रवेश करते हैं । सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, आकाश के सिवाय अन्य द्रव्यमें अवगाहन धर्म नहीं पाया जाता। इसपर कहा जाय कि यदि परमाणुमें परमाणुओंका प्रवेश नहीं होता तो असंख्यप्रदेशी लोकाकाशमें अनन्त पुद्गलोंका अवस्थान कैसे बन सकता है । सो भी कहना Q अप्रतौ ' सुव्वण्णम्हि' इति पाठ: । प्रतिषु मट्टियासजलादीणं' इति पाठः । अप्रतौ 'सव्वष्णासेण तेण ' इति पाठः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २२. ) फासाणुओगद्दारे ठवणफासो (२३ अवट्ठाणं चे- ण, अगोहणशम्मियआयासमाहप्पेण तेसिमवट्ठाणविरोहाभावादो? एत्थ परिहारो वच्चद। तं जहा-परमाणू किं सावयवो किम णिरवयवो? ण ताव सावयवो, परमाणुसद्दाहिहेयादो पुधभूदअवयवाणुवलंभादो। उवलंभे वा ण सो परमाणू, अपत्तभिज्जमाणभेद पेरंततादो। ण च अवयवी चेव अवयवो होदि, अण्णपदत्थेणल विणा बहुव्वीहिसमासाणुववत्तीदो संबंधेण विणा संबंधणिबंधण-इं-*पच्चयाणुववत्तीदो वा। ण च परमाणुस्स उद्घाधोमज्झभागाणमवयवत्तमत्थि, तेहितो पुधभूवपरमाणुस्स अवयवविसण्णिदस्स अभावादो। एदम्हि गए अवलंबिज्जमाणे सिद्धं परमाणुस्स णिरवयवत्तं। संजुत्ताणमसंजुत्ताणं च परमाणुपमाणत्तणेण उवलब्भमाणपोग्गलक्खंधाणमभावप्पसंगादो अवगयावयवपरमाणुदेसपासो चेव दव्वट्ठियबलेण सव्वफासो त्ति परूविदो अखंडाणं परमाणूणमवयवाभावेण सव्वफासस्सेव संभवदंसणादो। अधवा दोण्णं परमाणूणं देसफासो होदि, थूलक्खंधुप्पत्तीए अण्णहा अणुववत्तीदो। सव्वफासो वि होदि, परमाणुम्मि परमाणुस्स सव्वप्पणा पवेसाविरोहादो। ण च पविसंतपरमाणुस्स परमाणू ठीक नहीं है, क्योंकि अवगाहन धर्मवाले आकाशके माहात्म्यसे अनन्त पुद्गलोंका असंख्यप्रदेशी लोकाकाशमें अवस्थान मानने में कोई विरोध नहीं आता? समाधान- यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं । यथा-परमाणु क्या सावयव होता है या निरवयव? सावयव तो हो नहीं सकता, क्योंकि परमाणु शब्दके वाच्यरूप उससे अवयव पृथक नहीं पाये जाते । यदि उसके पृथक् अवयव माने जाते हैं तो वह परमाणु नहीं ठहरता, क्योंकि जितने भेद होने चाहिये उनके अन्तको वह अभी नहीं प्राप्त हुआ है। यदि कहा जाय कि अवयवीको ही हम अवयव मान लेंग सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो बहुब्रीहि समास अन्यपदार्थप्रधान होता है, कारण कि उसके बिना वह बन नहीं सकता। दूसरे, सम्बन्धके बिना सम्बन्धका कारणभूत ‘णिनि' प्रत्यय भी नहीं बन सकता । यदि कहा जाय कि परमाणुके ऊर्ध्व भाग, अधोभाग और मध्य भाग रूपसे अवयव बन जायेंगे सो भी बात नहीं है, क्योंकि इन भागोंके अतिरिक्त अवयवी संज्ञावाले परमाणुका अभाव है । इस प्रकार इस नयके अवलम्बन करनेपर परमाणु निरवयव है, यह बात सिद्ध होती है। संयुक्त पुद्गलस्कंध और असंयुक्त परमाणु प्रमाण उपलब्ध होनेवाले पुद्गलस्कन्धोंका अभाव न प्राप्त हो इसलिये अवयव रहित परमाणुओंका देशस्पर्श ही यहां द्रव्याथिकनयके बलसे सर्वस्पर्श है ऐसा कहा है, क्योंकि अखण्ड परमाणओंके अवयव नहीं होने के कारण उनका सर्वस्पर्श ही सम्भव दिखाई देता है। अथवा दो परमाणुओंका देशस्पर्श होता है, अन्यथा स्थूल स्कन्धोंकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। उनका सर्व. स्पर्श भी होता है, क्योंकि एक परमाणुका दूसरे परमाणु में सर्वात्मना प्रवेश होने में कोई विरो नहीं आता। पर इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवेश करनेवाले परमाणुको दूसरा परमाणु प्रतिबन्ध B अप्रतौ 'भेदे परतत्तादो', ताप्रतौ 'भेदे पेरंतत्तादो' इति पाठः। ॐ प्रतिषु 'पदत्तेण' इति पारः । *ताप्रती 'णिबंध णाई' इति पाठ. । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४) छखंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ३, २३. पडिबंधदि, सुहमस्स सुहमेण बादरक्खंधेण वा पडिबंधकरणाणुववत्तीदो। सुहुमं णाम सण्णं, ण अपडिहण्णमाणमिदि चे-ण, आयासादीणं महल्लाणं सुहमत्ताभावप्पसंगादो। तदो सरूपापरिच्चाएण सव्वप्पणा परमाणुस्स परमाणुम्मि पवेसो सव्वफासो त्ति ण दिलैंतो वइधम्मिओ। . जो सो फासफासो णाम ।। २३ ।। , एदस्सत्थो वुच्चदे... सो* अट्टविहो-कक्खडफासो मउवफासो गरुवफासो लहुवफासो णिद्धफासो रुक्खफासो सीदफासो उहफासो । सो सव्वो फासफासो णाम ॥ २४ ।। स्पृश्यत इति स्पर्शः कर्कशादि । स्पृश्यत्यनेनेति स्पर्शस्त्वगिन्द्रियम् । तयोर्द्वयोः स्पर्शयोः स्पर्शः स्पर्शस्पर्शः । स च अष्टविधः-कर्कशस्पर्शः मृदुस्पर्शः गुरुस्पर्शः लघुस्पर्शः करता है, क्योंकि, सूक्ष्मका दूसरे सूक्ष्म स्कन्धके द्वारा या वादरके द्वारा प्रतिवन्ध करने का कोई कारण नहीं पाया जाता। शंका- सूक्ष्मका अर्थ बारीक है। दूसरेके द्वारा नहीं रोका जाना, यह उसका अर्थ नहीं है? समाधान-नहीं, क्योंकि, सूक्ष्मका यह अर्थ करनेपर महान् आकाश आदि सूक्ष्म नहीं ठहरेंगे। इसलिये अपने स्वरूपको छोडे विना एक परमाणुका दूसरे परमाणमें सर्वात्मना प्रवेशका नाम सर्वस्पर्श कहलाता है, अतः सूत्रमे सर्वस्पर्शके लिये परमाणु का दिया गया दृष्टान्त वैधर्मा नहीं है। विशेषार्थ- सर्वस्पर्शमें एक वस्तुका दूसरी वस्तुके साथ पूरा स्पर्श लिया गया है और इसके उदाहरण स्वरूप परमाणु द्रव्य उपस्थित किया गया है । एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ देश और सर्व दोनों प्रकारका स्पर्श देखा जाता है। परमाणु निरंश होता है या प्रश्न पुराना है। परमाणु अखण्ड और एक है, इस नयकी अपेक्षा वह निरंश माना किन्तु प्रत्येक परमाणु में पूर्व पश्चिम आदि भाग देखे जाते हैं, इस नयकी अपेक्षा वह सांश माना जाता है । इसलिये जब एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ एकप्रदेशावगाही स्पर्श होता है तब वह सर्वस्पर्श कहलाता है और जब दोप्रदेशावगाही स्पर्श होता है तब वह देशस्पर्श कहलाता है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये। अब स्पर्शस्पर्शका अधिकार है ।। २३॥ अब इस सूत्रका अर्थ कहते है वह आठ प्रकारका है-कर्कशस्पर्श, मृदुस्पर्श, गुरुस्पर्श, लघुस्पर्श, स्निग्धस्पर्श, रुक्षस्पर्श, शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श । वह सब स्पर्शस्पर्श है ॥ २४ ॥ ..: जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श है, यथा कर्कश आदि। जिसके द्वारा स्पर्श किया जाय वह स्पर्श है, यथा त्वचा इन्द्रिय । इन दोनों स्पर्शोका स्पर्श स्पर्शस्पर्श कहलाता है। वह आठ प्रकारका है-कर्कशस्पर्श, मृदुस्पर्श, गुरुस्पर्श, लघुस्पर्श, स्निग्धस्पर्श, रूक्षस्पर्श, शीतस्पर्श अ-ताप्रत्याः 'जा सो' इति पाठः । * अप्रतौ 'कर्कशादीहि', ताप्रतौ 'कर्कशादीहि (नि)' इति पाठः । . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २४. ) फासाणुओगद्दारे फासफासो (२५ स्निग्धस्पर्शः रुक्षस्पर्शः शीतस्पर्शः उष्णस्पर्शश्चेति। स्पर्शभेदात्स्पर्शस्पर्शोऽपि अष्टधा भवतीत्यवगन्तव्यः । एत्थ केवि आइरिया कक्खडादिफासार्ण पहाणीकयाणं एगादिसंजोगेहि फासभंगे उप्पायंति, तण्ण घडदे; गुणाणं णिस्सहावाणं गुणेहि फासाभावादो। पहाणभावेण दव्वत्तमुवगयाणं फासो जदि इच्छिज्जदि तो रूव-रस-गंधादीणं पि फासेण होदव्वं ; पहाणभावेण दव्वभावुवगमणं पडि भेदाभावादो। होदु चे-ण, सुत्ते तहाणुवलंभादो तेरफासे मोत्तूण बहुफासप्पसंगादो च। तम्हा कक्खडं कक्खडेण फुसिज्जदे* इच्चादिभंगा एत्थ ण वत्तव्वा, दवफासे देसफासे च तेसिमंतभावादो। एसो तत्थ ण पविसदि, विसय-विसइभावप्पणादो। अधवा सुत्तस्स देसामासियत्ते णिक्खेवसंखाणियमो त्थि त्ति सगंतोविखत्तासेसविसेसंतराणमटण्णं फासाणं संजोएण दुसद-पंचवंचास भंगा उप्पाएयव्वा । और उष्णस्पर्श । इस प्रकार स्पर्श के भेदसे स्पर्शस्पर्श भी आठ प्रकारका होता है, ऐसा यही जानना चाहिये । यहां कितने ही आचार्य प्रधानताको प्राप्त हुए कर्कश आदि स्पर्शोंके एक आदि संयोगों द्वारा स्पर्शभंग उत्पन्न कराते हैं. परन्तु वे बनते नहीं; क्योंकि, गुण निस्वभाव होते हैं, इसलिये उनका अन्य गुणोंके साथ स्पर्श नहीं बन सकता । प्रधानरूपसे द्रव्यत्वको प्राप्त हुए इन गुणोंका यदि स्पर्श स्वीकार किया जाता है तो रूप, रस और गन्ध आदिका भी स्पर्श होना चाहिये, क्योंकि, प्रधानरूपसे द्रव्यपने की प्राप्ति के प्रति इनमें कोई अन्तर नहीं है । यदि कहा जाय कि ऐसा भी हो जावे । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक तो सूत्र में ऐसा कहा नहीं हैं और दूसरे ऐसा माननेपर तेरह स्पर्श न रहकर बहुतसे स्पर्श प्राप्त हो जायेंगे । इसलिये कर्कश कर्कशके साथ स्पर्श करता है, इत्यादि भंग यहां नहीं कहने चाहिये ; क्योंकि उनका द्रव्यस्पर्श और देशस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है । परन्तु इसका वहां अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, इसमें विषय-विषयिभावकी मुख्यता है । अथवा सूत्र देशामर्शक होता है, इसलिये निक्षेपोंकी संख्याका नियम नहीं किया जा सकता। अतएव अपने भीतर जितने विशेष प्राप्त होते हैं उन सबके साथ आठ स्पर्शोके संयोगसे दो सौ पचवन भंग उत्पन्न कराने चाहिये । विशेषार्थ- आगममें कर्कश आदि आठ स्पर्श माने गये हैं। इनका स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा जो स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते हैं। यद्यपि स्पर्शस्पर्श शब्दका, स्पर्शोका जो परस्परमें स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते हैं, एक यह अर्थ भी किया जा सकता है; पर इस अर्थके करनेपर सबसे बडी आपत्ति यह आती है कि स्पर्श गुणोंका अन्य गुणों के साथ होनेवाले स्पर्शको भी स्पर्शस्पर्श मानना पडेगा । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि गुण निःस्वभाव होते हैं, इसलिये उनका परस्परमें स्पर्श नहीं बनता। परन्तु गुणको कथंचित् द्रव्य मान लेने पर इस आपत्तिका परिहार हो जाता है। इससे यद्यपि गुणका दूसरे गुणके साथ स्पर्श माननेपर जो आपत्ति प्राप्त होती है उसका परिहार हो जाता है, पर ऐसे स्पर्शको अन्ततः द्रव्यस्पर्शका *तापतौ 'पुसिज्जदि' इति पाठः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ३, २५. जो सो कम्मफासो ॥ २५ ॥ तस्स अत्थो वच्चदे-- सो अविहो-- णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामा-गोद-अंतराइयकम्मफासो । सो सव्वो कम्मफासो णाम ॥ २६ ॥ अट्टकम्माणं जीवेण विस्सासोवचएहि य णोकम्मेहि य जो फासो सो दव्वफासे पददि त्ति एत्थ ण वुच्चदे, कम्माणं कम्मेहि जो फासो सो कम्मफासो त्ति एत्थ घेत्तव्यो। संपहि फासभंगपरूवणा कीरदे। तं जहा-णाणावरणीयं णाणावरणीयण फुसिज्जदि।१। णाणावरणीयं सणावरणीयेण फुसिज्जदि।२। णाणावरणीयं वेयणीएण फुसिज्जदि ।३। णाणावरणीयं मोहणीएण फुसिज्जदि ।४। णाणावरणीयं आउएण फुसिज्जदि ।५।णणावरणीयं णामेण फुसिज्जदि। ६। णाणावरणीयं गोदेण फुसिज्जदि।७। णाणावरणीय एक भेद मानना पडता है । इसलिये स्पर्शस्पर्श शब्दको ध्यान में रखकर यहां अन्य गुणोंके साथ कर्कश आदिके होनेवाले स्पर्शको छोड कर केवल कर्कश आदि आठ स्पर्शोके परस्परमें होनेवाले स्पर्शको भी स्पर्शस्पर्श में गिन लिया है। इस प्रकार स्पर्शस्पर्श के दो अर्थ प्राप्त होते हैं। प्रथम यह कि कर्कश आदि स्पर्शों का स्पर्शन इन्द्रियके साथ जो स्पर्श होता हैं वह स्पर्शस्पर्श कहलाता है और दूसरा यह कि आठों स्पर्शों का परस्पर जो स्पर्श होता है वह भी स्पर्शस्पर्श कहलाता है। इस दूसरे अर्थ के अनुसार स्पर्शस्पर्शके एकसंयोगी ८, द्विसंयोगी २८, त्रिसंयगी ५६, चतु संयोगी ७०, पंचसंयोगी ५६, षट्संयोगी २८, सप्तसंयोगी ८ और अष्टसंयोगी १; कुल २५५ भंग होते हैं। अब कर्मस्पर्शका अधिकार है ॥ २५ ॥ इसका अर्थ कहते हैं वह आठ प्रकारका है-ज्ञानावरणीयकर्मस्पर्श, दर्शनावरणीयकर्मस्पर्श, वेदनीय. कर्मस्पर्श, मोहनीयकर्मस्पर्श, आयुकर्मस्पर्श, नामकर्मस्पर्श, गोत्रकर्मस्पर्श, और अन्तरायकर्मस्पर्श । वह सब कर्मस्पर्श है ॥ २६ ॥ आठ कर्मों का जीवके साथ, विनसोपचयों के साथ और नोकर्मोके साथ जो स्पर्श होता है वह द्रव्यस्पर्श में अन्तर्भूत होता है। इसलिये वह यहां नहीं कहा गया है । किन्तु कर्मोका कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह कर्मस्पर्श है, एसा यहां ग्रहण करना चाहिये। अब स्पर्शके भंगोंका कथन करते हैं। यथा-ज्ञानावरणीय ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है। १ । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है। २। ज्ञानावरणीय वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है। ३। ज्ञानावरणोय मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ४ । ज्ञानावरणीय आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है । ५ । ज्ञानावरणीय नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है । ६ । ज्ञानावरणीय गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है। ७ । ज्ञानावरणीय अन्त राय द्वारा स्पर्ग . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७ ५, ३, २६.) फासाणुओगद्दारे कम्मफासो अंतराइएण फुसिज्जदि।। एवं णाणावरणीयस्स अट्ट भंगा।दसणावरणीयं दसणावरणीएण फुसिज्जदि।१। दंसणावरणीयं णाणावरणीएण फुसिज्जदि । २। दंसणावरणीयं वेयणीएण फुसिज्जदि।३। दसणावरणीयं मोहणीएण फुसिज्जदि । ४। दंसणावरणीयं आउएण फुसिज्जदि ।५। दसणावरणीयं णामेण फुसिज्जदि। ६। दंसणावरणीयं गोदेण फुसिज्जदि।७। दसणावरणीयं अंतराइएण फुसिज्जदि ।८। एवं दसणावरणीयस्स अट्ठ भंगा। एदेसु पुग्विल्लेसु सह मेलाविदेसु सोलस भंगा होति ।१६। संपहि वेयणीयं वेयणीएण फुसिज्जदि ।। देयणीयं णाणावरणीएण फुसिज्जदि ।२। वेयणीयं सणावरणीएण फुसिज्जदि।३। वेयणीयं मोहणीएण फुसिज्जदि।४। वेयणीयं आउएण फुसिज्जदि । ५। वेयणीयं णामेण फुसिज्जदि ।६। वेयणीयं गोदेण फुसिज्जदि । ७ । वेयणीयं अंतराइएण फुसिज्जदि।८। एवं वेयणीयस्स अट्ठ भंगा। एदेसु पुव्वभंगेसु मेलाविदेसु चउवीस भंगा होति ।२४। मोहणीयं मोहणीएण फुसिज्जदि ।१। मोहणीयं णाणावरणीएण फुसिज्जदि ।२। मोहणीयं दसणावरणीएण फुसिज्जदि ।३। मोहणीयं वेयणीएण फुसिज्जदि । ४ । मोहणीयं आउएण फुसिज्जदि ।५। मोहणीयं णामेण फुसिज्जदि। ६ । मोहणीयं गोदेण फुसिज्जदि ।७। मोहणीयं अंतराइएण फुसिज्जदि।८ एवं मोहणीयस्स अट्ट भंगा । एदेसु किया जाता है । ८ । इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के आठ भंग होते हैं। दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।१। दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।२। दर्शनावरणीय वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।३। दर्शनावरणीय मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता हैं। ४ । दर्शनावरणीय आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है।। दर्शनावरणीय नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है । ६। दर्शनावरणीय गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है ।७। दर्शनावरणीय अन्त राय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ८। इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के आठ भंग होते हैं । इन्हें पूर्वोक्त आठ भंगोंमें मिलानेपर १६ भंग होते हैं। वेदनीय वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । १। वेदनीय ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । वेदनीय दशनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ३ । वेदनीय मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है 16। वेदनीय आयु द्वारा स्पश किया जाता है । ५। वेदनीय नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है।६। वेदनीय गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है ।७। वेदनीय अन्तराय द्वारा सर्श किया जाता है ।८। इस प्रकार वेदनीय कर्मके आठ भंग होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त १६ भंगोंमें मिलानेपर २४ भंग होते हैं। मोहनीय मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।१॥ मोहनीय ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।२। मोहनीय दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है।३। मोहनीय वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ४। मोहनीय आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है। ५ । मोहनीय नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है ।६ मोहनीय गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है,।७। मोहनीय अन्तराय द्वारा स्पर्श किया जाता है 1८। इस प्रकार मोहनीय कर्मके आठ भग होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त २४ भंगोंमें मिलानेपर ३२ भंग होते हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड पुविल्लभंगेसु पक्खित्तेसु बत्तीसभंगा होति । ३२ । आउअं आउएण फुसिज्जदि । १। आउअंणाणावरणीएण फुसिज्जदि ।२। आउअं दसणावरणीएण फुसिज्जदि।३।आउअं वेयणीएण फुसिज्जदि।४। आउअंमोहणीएण फुसिज्जदि ।५। आउअंणामेण फुसिज्जदि ।६। आउअं गोदेण फुसिज्जदि।७। आउअं अंतराइएण फुसिज्जदि ।८। एवमाउअस्स अट्ट भंगा। एदेसु पुग्विल्लभंगेहि सह मेलाविदेसु चत्तालीस भंगा होति । ४०। णामं णामेण फुसिज्जदि। १। ण म णाणावरणीएण फुसिज्जदि । २ । णामं सणावरणीएण फुसिज्जदि।३। णामं वेयणीएण फुसिज्जदि।४। णाम मोहणीएण फुसिज्जदि।५। णामं आउएण फुसिज्जदि ।६। णामं गोदेण फुसिज्जदि ।७। णामं अंतराइएण फुसिज्जदि ।८। एवं णामस्स अट्ट भंगा। एदेसु पुग्विल्लभंगेसु घेत्तूण पविखत्तेसु अडदाल भंगा होति।४८॥ गोदं गोदेण फुसिज्जदि ।१॥ गोदं णाणावरणीएण फुसिज्जदि ।२। गोदं दंसणावरणीएण फुसिज्जदि ।३। गोदं वेयणीएण फुसिज्जदि ।४। गोदं मोहणीएण फुसिज्जदि ।५। गोदं आउएण फुसिज्जदि ।६। गोदं णामेण फुसिज्जदि ।७। गोदं अंतराइएण फुसिज्जदि ।८ एवं गोदस्स अट्ठ भंगा होति। एदे घेत्तूण पुव्विल्लभंगेसु पक्खित्तेसु छप्पण्ण भंगा होति ॥५६॥ अंतराइयं अंतराइएण फुसिज्जदि ।१॥ अंतराइयं णाणावरणीएण फुसिज्जदि ।२। ................. आयु आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है। १ । आयु ज्ञानावरणीयद्वारा स्पर्श किया जाता है । २ । आयु दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ३। आयु वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ४। आयु मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ५ । आयु नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है । ६ । आयु गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है ।७। आयु अन्त राय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ८। इस प्रकार आय कर्म के आठ भंग होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त ३२ भंगोंमें मिलानेपर ४० भंग होते हैं। नाम नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है ।१। नाम ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।२। नाम दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।३। नाम वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है ।४। नाम मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ५। नाम आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है 1६। नाम गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है ।७। नाम अन्त राय द्वारा स्पर्श किया जाता है। इस प्रकार नाम कर्मके आठ भंग होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त ४० भंगोंमें मिलानेपर ४८ भंग होते हैं। गोत्र गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है।१। गोत्र ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । २ । गोत्र दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ३ । गोत्र वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ४ । गोत्र मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है। ५ । गोत्र आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है। ६। गोत्र नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है । ७ । गोत्र अन्तराय द्वारा स्पर्श किया जाता है 1८। इस प्रकार गोत्र कर्मके आठ भंग होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त ४८ भंगोंमें मिलानेपर ५६ भंग होते हैं। अन्तराय अन्तरायके द्वारा स्यर्श किया जाता है । १ । अन्तराय ज्ञानावरणीय द्वारा स्पर्श Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २६. ) फासाणुओगद्दारे कम्मफासो (२९ अंतराइयं दसणावरणीएण फुसिज्जदि ।३। अंतराइयं वेयणीएण फुसिज्जदि ।४। अंतराइयं मोहणीएण फुसिज्जदि।५। अंतराइयं आउएण फुसिज्जदि ।६। अंतराइयं णामेण फुसिज्जदि ।७। अंतराइयं गोदेण फुसिज्जदि ।८। एवं अंतराइयस्स अट्ठ भंगा । एदेसु पुव्विल्लभंगेसु पक्खित्तेसु चउसठ्ठी भंगा होति । ६४ । संपहि एत्थ एगादिएगुत्तरसत्तगच्छसंकलणमेत्तपुणरुत्तभंगसु अवणिदेसु अपुणरुत्तछत्तीसभंगा ।३६। किया जाता है ।२। अन्तराय दर्शनावरणीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ३ । अन्तराय वेदनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ४ । अन्तराय मोहनीय द्वारा स्पर्श किया जाता है । ५ । अन्तराय आयु द्वारा स्पर्श किया जाता है ।६। अन्तराय नाम द्वारा स्पर्श किया जाता है । ७ । अन्तराय गोत्र द्वारा स्पर्श किया जाता है । ८। इस प्रकार अन्तराय कर्मके आठ भंग होते हैं। उन्हें पूर्वोक्त ५६ भंगोंमें मिलानेपर ६४ भंग होते हैं । अब यहां एकसे लेकर एकोत्तर सात गच्छके संकलन प्रमाण पुनरुक्त भंगोंके घटा देनेपर अपुनरुक्त छत्तीस भंग होते हैं । ३६। विशेषार्थ- कर्मस्पर्श में न तो कर्मों का जीवके साथ होनेवाला स्पर्श लिया गया है, न कर्मोका उनके विस्रसोपचयोंके साथ होनेवाला स्पर्श लिया गया है, और न कर्मोका नोकर्मोक साथ होनेवाला स्पर्श लिया गया है। यहां केवल आठ कर्मोंका परस्परमें जो स्पर्श होता है उसीका ग्रहण किया गया है। कर्मस्पर्श का अर्थ है कर्मोंका परस्परमें होनेवाला स्पर्श । इस अर्थके अनुसार कर्मस्पर्शके कुल भंग ६४ होते हैं। उनमें से पुनरुक्त २८ भंग घटा देनेपर अपुनरुक्त भंग कुल ३६ रहते हैं । खुलासा इस प्रकार है क्र.सं. संयोग पुनरुक्त या अपुनरुक्त क्र.सं. संयोग पुनरुक्त या अपुनरुक्त अपुनरुक्त rr m3 ur 900०. ज्ञानावरण + ज्ञानावरण ज्ञानावरण + दर्शनावरण ज्ञानावरण + वेदनीय ज्ञानावरण + मोहनीय ज्ञानावरण + आय ज्ञानावरण + नाम ज्ञानावरण + गोत्र ज्ञानावरण + अन्तराय दर्शनावरण + दर्शनावरण दर्शनावरण + ज्ञानावरण दर्शनावरण + वेदनीय दर्शनावरण + मोहनीय दर्शनावरण + आयु दर्शनावरण + नाम दर्शनावरण + गोत्र दर्शनावरण + अन्तराय वेदनीय + वेदनीय वेदनीय + ज्ञानावरण वेदनीय + दर्शनावरण वेदनीय + मोहनीय वेदनीय + आयु वेदनीय + नाम वेदनीय + गोत्र वेदनीय + अन्तराय पु. (३ से) " (११से) २१ पु. । २३ २४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ३, २७. जो सो बंधफासो णाम ।। २७ ।। तस्स अत्थो वुच्चदे सो पंचविहो-ओरालियसरीरबंधफासो एवं वेउविय-आहारतेया-कम्मइयसरीरबंधफासो । सो सव्वो बंधफासो णाम ॥२८॥ क्र.सं. संयोग पुनरुक्त या अपुनरुक्त क्र.सं. संयोग पुनरुक्त या अपुनरुक्त २५ ४५ ४६ पु. (३०से) " (३८से) अ. पु. (४ से) " (१२से) " (२०से) ४८ २९ ३० ३१ पु. (७) " (१५) " (२३) मोहनीय + मोहनीय मोहनीय + ज्ञानावरण मोहनीय + दर्शनावरण मोहनीय + वेदनीय मोहनीय + आयु मोहनीय + नाम मोहनीय + गोत्र मोहनीय + अन्तराय आयु + आयु आयु + ज्ञानावरण आयु + दर्शनावरण आयु + वेदनीय आयु + मोहनीय आयु + नाम आयु + गोत्र आय + अन्तराय नाम + नाम नाम + ज्ञानावरण नाम + दर्शनावरण नाम + वेदनीय पु. (५ से) " (१३से) " (२१से) " (२९से) नाम + मोहनीय नाम + आयु नाम + गोत्र नाम + अन्तराय गोत्र + गोत्र गोत्र + ज्ञानावरण गोत्र + दर्शनावरण गोत्र + वेदनीय गोत्र + मोहनीय गोत्र + आयु गोत्र + नाम गोत्र + अन्तराय अन्तराय + अन्तराय अन्तराय + ज्ञानावरण अन्तराय + दर्शनावरण अन्तराय + वेदनीय अन्तराय + मोहनीय अन्तराय + आयु अन्तराय + नाम अन्तराय + गोत्र | पु. (८) " (२४) " (३२) " (४०) " (४८) पु. (६ से) " (१४से) " (२२से) अब बन्धस्पर्शका अधिकार है ॥ २७॥ उसका अर्थ कहते हैं वह पांच प्रकारका है- औदारिकशरीरबन्धस्पर्श । इसी प्रकार वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कामंण शरीरबन्धस्पर्श । वह सब बन्धस्पर्श है ॥२८॥ . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २८.) फासाणुओगद्दारे बंधफासो बन्धातीति बन्धः। औदारिकशरीरमेव बन्धः औदारिकशरीरबन्धः। तस्स बंधस्स फासो ओरालियसरीरबंधफासो णाम। एवं सव्वसरीरबंधफासाणं पि वत्तव्वं । कम्मणोकम्म-फासा दव्वफासे अंतभावं गच्छमाणा पुध कादूण किमट्ठ परूविदा? कम्माणं कम्मेहि णोकम्माणं णोकम्मेहि णोकम्माणं कम्मेहि सह फासो अस्थि त्ति जाणावणठें पुध परूवणा कदा। कम्मफासो बंधफासे अंतभावं गच्छमाणो किमळं पुध परूविदो? णोकम्मबंधफासस्स कम्मबंधफासो कारणमिदि जाणावणठें पुध परूविदो। संपहि एत्थ बंधफासभंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु ओरालियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।१। ओरालियणोकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु वेजस्वियणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति।२। ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा पमत्तसंजदहाणे आहारसरोरणोकम्मपदेसे हि फुसिज्जंति।। ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु तेजासरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।४। ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु कम्मइयसरीरपदेसेहि फुसिज्जति ।५। एवमोरालियसरीरस्स पंचभंगा। संपहि वेउब्वियसरीरणोकम्मपदेसा देव-णेरइएसु वेउव्वियसरीरणोकम्मपदेसेहि जो वांधता है वह बन्ध कहलाता है, औदारिकशरीर ही बन्ध औदारिकशरीरबन्ध है, उस बन्धका स्पर्श औदारिकशरीरबन्धस्पर्श है। इसी प्रकार सव शरीरबन्धस्पर्शीका भी कथन करना चाहिये। शंका- कर्मस्पर्श और नोकर्मस्पर्श द्रव्यस्पर्शमें अन्तर्भावको प्राप्त होते हैं। फिर इनका अलगसे कथन क्यों किया है ? समाधान- कर्मोंका कर्मों के साथ, नोकर्मोका नोकर्मों के साथ और नोकर्मों का कर्मों के साथ स्पर्श होता है, इस बात का ज्ञान करानेके लिये इनका अलगसे कथन किया गया है। शंका- कर्मस्पर्श बन्धस्पर्शमें अन्तर्भावको प्राप्त होता है, फिर उसका पृथक्से कथन क्यों किया है ? समाधान- कर्मबन्धस्पर्श नोकर्मवन्धस्पर्शका कारण है, यह जतलाने के लिये उसका अलगसे कथन किया है। ___ अब यहां बन्धस्पर्शके भंग बतलाते हैं । यथा-औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेश तिर्यंच और मनुष्योंमें औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेशों के द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।१। औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेश तिर्यंच और मनुष्योंमें वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये ज ते हैं । २। औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारक शरीर नोकर्म प्रदेशों के द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ३ । औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेश तिर्यंच और मनुष्यों में तेजस शरीर नोकर्म प्रदेशों के द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ४ । औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेश तिर्यच और मनुष्यों में कार्मण शरीरके प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ५ । इस प्रकार औदारिक शरीरके पांच भंग होते हैं। वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेश देव और नारकियोंमें वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ) छ खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ३, २८ फुसिज्जति ।१। वेउव्वियसरीरणोकम्मपदेसा तिरिवख-मणुस्सेसु ओरालियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।२। वेउव्वियसरीरणोकम्मपदेसाणं पमत्तसंजदढाणे आहारसरीरणोकम्मपदेसेहि सह फासो णस्थि । कुदो? पमत्तसंजदस्स अणिमादिलद्धिसंपण्णस्स विउव्विदसमए आहारसरीरुट्टावणसंभवाभावादो। वेउब्वियसरीरणोकम्मपदेसा चदुगदीसु तेयासरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।३। वेउव्वियसरीरणोकम्मपदेसा चदुगदीसु कम्मइयसरीरपदेसेहि फुसिज्जंति।४। एवं वे उब्वियसरीरस्स चत्तारि भंगा। पुणो एदेसु पुव्वभंगेसु पक्खित्तेसु णव भंगा होति ।९।। ___आहारसरीरणोकम्मपदेसा पमत्तसंजदट्ठाणे आहारसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।१। आहारसरीरणोकम्मपदेसा पमत्तसंजदेसु ओरालियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।२। आहार-वे उब्वियसरीराणमण्णोण्णेहि णत्थि फासो, आहारसरीरमाविदकाले विउवणाभावादो। आहारसरीरणो कम्मपदेसा पमत्तसंजदट्ठाणे तेयासरीरणकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति, अणिस्सरणप्पयस्स तेजइयसरीरस्त गोकम्माणं सव्वद्धं जीवे सत्तुवलंभादो।३। आहारसरोरणोकम्मपदेसा पमत्तसंजदेसु कम्मइयसरीरकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति, अढण्णं कम्माणं पमत्तसंजदेसु सव्वद्धं सत्तुवलंभादो।४। एवमाहारसरीरस्स चत्तारि भंगा। एदेसु पुव्वभंगेसु पक्खित्तेसु तेरस भंगा होति ।१३। स्पर्श किये जाते हैं। १। वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेश तिथंच और मनुष्योंमें औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं। २। वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंका प्रमत्तसयत गुणस्थानमें आहारक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके साथ स्पर्श नहीं है, क्योंकि, अणिमा आदि लब्धियोंसे सम्पन्न प्रमत्तसंयत जीवके विक्रिया करते समय आहारक शरीरको उत्पत्ति सम्भव नहीं है । बैंक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेश चारों गतियों में तेजस शरीर नोकर्म प्रदेशों के द्वारा स्पर्श किये जाते हैं। ३ । वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेश चारों गतियोंमें कार्मण शरीर प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं। ४ । इस प्रकार वैक्रियिक शरीरके चार भंग होते हैं। फिर इन्हें पूर्वोक्त पांच भंगोंमें मिला देनेपर नौ भंग होते हैं । ९। आहारक शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं। १। आहारक शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थान में औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । २। आहारक शरीर और वैक्रियिक शरीरका परस्परमें स्पर्श नहीं होता, क्योंकि, आहारक शरीरके उत्थानकालमें विक्रिया नहीं होती। आहारक शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेजस शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं, क्योंकि, अनिःसरणात्मक तेजस शरीरके नोकर्म प्रदेशोंका जीवके सदाकाल सत्त्व पाया जाता है। ३ । आहारक शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत जीवोंमें कार्मण शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं, क्योंकि आठों कर्मोंकी प्रमत्तसंयत जीवोंके सदाकाल सत्ता पाई जाती है । ४ । इस प्रकार आहारक शरीरके चार भंग होते हैं। इन्हें पहलेके नौ भंगों में मिलानेपर तेरह भंग होते हैं । १३ । ताप्रतौ ' -रारी रणोकम्म' इति पाठः । . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, २८. ) फासाणुओगद्दारे बंधफासो तेयासरीरणोकम्मपदेसा चउग्गईसु तेयासरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।। तेयासरीरणोकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु ओरालियतरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।२। तेयासरीरणोकम्मपदेसा देव-णेरइएसु वेउव्वियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति।३। तेयासरीरणोकम्मपदेसा पमत्तसंजदेसु आहारसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति । ४। तेयासरीरणोकम्मपदेसा चउग्गईसु कम्मइयसरीरकम्मपदेसेहि फुसिज्जति। ५। एवं तेयासरीरस्स पंच भंगा होति । एदेसु पुव्वभंगेसु पक्खि तेसु अट्ठारस भंगा होति । १८॥ ___ कम्मइयसरीरकम्मपदेसा चउग्गईसु कम्मइयसरीरकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।। कम्मइयसरीरकम्मपदेसा तिरिक्ख-मणुस्सेसु ओरालियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।२। कम्मइयसरीरकम्मपदेसा देव-णेरइएसु वे उव्वियसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जति ।३। कम्मइयसरीरकम्मपदेसा पमत्तसंजदट्ठाणे आहारसरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।४। कम्मइयसरीरकम्मपदेसा चउग्गईसु तेयासरीरणोकम्मपदेसेहि फुसिज्जंति ।५। एवं कम्मइयसरीस्स पंच भंगा। एदेसु पुव्वभंगेसु पक्खित्तेसु तेवीसभंगा होति ।२३। एदेसु अपुण,रुत्तभंगा चोद्दस हवंति ।१४। अवसेसा णव पुणरत्तभंगा ।९। एवं तैजस सरीर नोकर्म प्रदेश चारों गतियोंमें तैजस सरीर नोकर्म प्रदेशों के द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ११ तेजस शरीर नोकर्म प्रदेश तिर्यंच और मनुष्योंमें औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेशोंके द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । २। तैजस शरीर नोकर्म प्रदेश देव और नारकियों में वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ३ । तैजस शरीर नोकर्म प्रदेश प्रमत्तसंयत जीवोंमें आहारक शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।४। तैजस शरीर नोकर्म प्रदेश चारों गतियोंमें कार्मण शरीर कर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं । ५। इस प्रकार तैजस शरीरके पांच भंग होते हैं । इन्हें पहिलेके १३ भंगोंमें मिलानेपर अठारह भंग होते हैं । १८॥ कार्मण शरीर कर्म प्रदेश चारों गतियोंमें कार्मण करीर कर्मप्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते है ।१। कार्मण शरीर कर्मप्रदेश तिर्यच और मनुष्योंमें औदारिक शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।२। कार्मण शरीर कर्म प्रदेश देव और नारकियोंमें वैक्रियिक शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।३। कार्मण शरीर कर्म प्रदेश प्रमत्तसयत गुणस्थानमें आहारक शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।४। कार्मण शरीर कर्म प्रदेश चारों गतियोंमें तैजस शरीर नोकर्म प्रदेशों द्वारा स्पर्श किये जाते हैं ।५। इस प्रकार काम ग शरीरके पांच भंग होते हैं । इन्हें पहले के १८ भंगोंमें मिलानेपर तेबीस भंग होते है ।२३। इनमें अपुनरुक्त भंग चौदह होते हैं । १४ । अवशेष नौ भंग पुनरुक्त होते हैं।९। * तापतो 'सरीरे (पदेरो) हि' इति पाठः 8ताप्रती ' सरीरणोकम्म' इति पाठः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ खंडागमे वग्गणा - खंडं ( ५,३, २९ कम्म-णोकम्मसंणियासो परूविदो । कम्मसंणियासो पुण पुव्वं परूविदो त्ति पुणरुत्त भरण ण परुविदो । एवं बन्धफासो गदो । ३४ ) जो सो भवियफासो णाम ।। २९ ।। तस्स अत्थो वुच्चदे जहा विस- कूड-जंत-पंजर-कंदय वग्ग्रादीणि कत्तारो समोदिवारो य भवियो फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि सो सव्वो भवियफासो णाम ।। ३० ।। विसं सुपसिद्धं । कागुंदुरादिधरणट्टमोद्दिदं कूडं णाम। सीह-वग्धधरणदुमोद्दिदमभंतरकयच्छालियं जंतं णाम । तित्तिर-लावादिधरणट्ठ रइदकलिज कलावो पंजरो णाम । हत्थिधरणट्टमोद्दिदवारिबंधो कंदओ णाम । हरिण वराहादिमारणदुमोद्दिदकंदा वा कंदओ णाम । वग्गुरा सुप्पसिद्धा । इच्चादीणि दव्वाणि इच्छिदवत्थुफुसणमोदाणि भवियफासो णाम । एदेसि जंतादीणं कत्तारो करेंता ओद्दिदारो य एदेसि जंता दीणमिच्छदपदे से टुवेंता च भवियफासो णाम, कारणे कज्जुवयारादो । किंणिबंधनो इस प्रकार कर्म और नोकर्म संनिकर्षका कथन किया। कर्मसंनिकर्षका कथन तो पहले ही कर आये हैं, इसलिये पुनरुक्त दोषके भयसे उसका यहां पुनः कथन नहीं किया। इस प्रकार बन्धस्पर्शका कथन समाप्त हुआ । अब भव्य स्पर्शका अधिकार है ।। २९ ।। उसका अर्थ कहते हैं -- यथा - विष, कूट, यन्त्र, पिंजरा, कन्दक और पशुको फँसानेका जाल आदि तथा इनके करनेवाले और इन्हें इच्छित स्थान में रखनेवाले स्पर्शनके योग्य होंगे परन्तु अभी उन्हें स्पर्श नहीं करते; वह सब भव्य स्पर्श है ।। ३०॥ विष सुप्रसिद्ध है | कौआ और चूहा आदिके धरनेके लिये जो बनाया जाता है उसे कूट कहते हैं । जो सिंह और व्याघ्र आदिके धरने के लिये बनाया जाता है और जिसके भीतर बकरा रखा जाता है उसे यन्त्र कहते हैं । तीतर और लाव आदिके पकड़नेके लिये जो अनेक छोटी छोटी पंचे लेकर बनाया जाता है उसे पिंजरा कहते हैं। हाथीके पकडने के लिये जो वारिबन्ध बनाया जाता है उसे कन्दक कहते हैं । अथवा हरिण और सूअर आदिके मारनेके लिये जो फंदा तैयार किया जाता है उसे कन्दक कहते हैं । वग्गुरा प्रसिद्ध ही है । इच्छित वस्तुके स्पर्शन अर्थात् पकडने के लिये इत्यादि द्रव्योंका रखना भव्यस्पर्श कहलाता है । तथा इन यन्त्रादिके करनेवाले, और 'ओद्दिदारो' अर्थात् इन यन्त्रादिको इच्छित स्थानपर रखने वाले भी भव्यस्पर्श कहलाते हैं, क्योंकि, यहां कारणमें कार्य का उपचार किया गया है । यन्त्रादिकको स्पर्श संज्ञा किस निमित्तसे प्राप्त होती है, ऐसा पूछनेपर कारणका कथन अप्रतौ 'लावदि' इति पाठ: । ॐ प्रतिषु 'कलिच' इति पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, ३२. ) फासाणुओगद्दारे भावफासो ( ३५ जंतादीणं फासववएसो त्ति भणिदे कारणपरूवणट्टमाह - ' भवियो फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि' भवियो जोग्गो पुसणदाए पासस्स णो पुण ताव तं इच्छिददव्वं फुसदि तस्स भवियफासो त्ति सण्णा । एवं भवियफासो गदो । जो सो भावफासो णाम ॥ ३१ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो उवजुत्तो पाहुडजाणओ सो सव्वो भावफासों णाम ।। ३२ ॥ फासपाहुडं जादूण जो तत्थ उवजुत्तो सो भावफासो त्ति घेत्तव्वो । एदं सुत्तं देसामा सयं, तेज आगमेण विणा पासुवजोगजुत्तो जीव-पोग्गलादिदव्वाणं णाणादिभावेहि फासो य भावफासोत्ति घेत्तव्वो । एवं भावफासो गदो । करने के लिये कहा है कि 'भवियो फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि ' । अर्थात् जो स्पर्शन के योग्य तो है, परन्तु उस इच्छित वस्तुको स्पर्श नहीं करता उसकी 'भव्यस्पर्श' सज्ञा है । इस प्रकार भव्यस्पर्शका कथन समाप्त हुआ । विशेषार्थ - जो पर्याय भविष्य में होनेवाली होती है उसे भव्य या भावी कहते हैं। यहां स्पर्शका प्रकरण है, इसलिये भव्यस्पर्शका यह अर्थ होता है कि जो भविष्य में स्पर्श पर्याय से युक्त होगा वह भव्यस्पर्श है । इसके उदाहरण स्वरूप सूत्र में विष व यन्त्रादिक पदार्थ लिये गये हैं । इन पदार्थों का निर्माण मुख्यतया अन्य जीवोंको पकड़नेके लिये किया जाता है, इसलिये इनकी भव्यस्पर्श संज्ञा होती है । इसी प्रकार कारण में कार्यका उपचार करके इन विषादिकके निर्माता और इन्हें इच्छित स्थानपर रखनेवाले भी भव्य स्पर्श कहलाते हैं । द्रव्य निक्षेपमें आगे होने वाली पर्याय और उसके कारण दोनोंका ग्रहण होता है । उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिये 1 अब भावस्पर्शका अधिकार है ॥ ३१ ॥ इसका अर्थ कहते हैं जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता उसमें उपयुक्त है वह सब भावस्पर्श है ॥ ३२ ॥ स्पर्शप्राभृतको जानकर जो उसमें उपयुक्त है वह सब भावस्पर्श है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये जो आगमके विना स्पर्श के उपयोग से युक्त है और जो जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंका ज्ञानादि भावों द्वारा स्पर्श होता है वह भावस्पर्श है; ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - आगम और नोआगम के भेदसे भावनिक्षेप दो प्रकारका होता है। भावस्पर्श में ये दोनों भेद विवक्षित हैं। जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त है वह पहला भावस्पर्श है, और जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता नहीं भी है, किन्तु स्पर्शरूप उपयोग से युक्त है वह दूसरा भावस्पर्श है । तथा जीव-पुद्गलादि द्रव्योंका जो ज्ञान आदि अपने अपने भावोंके द्वारा स्पर्श होता है वह भी दूसरा भावस्पर्श है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यद्यपि सूत्र में प्रथम प्रकारके भावस्पर्शका ही ग्रहण किया है, पर सूत्रको देशामर्शक मानकर यहां भावस्पर्श के अन्य भेदों का भी विवेचन किया गया है । इस प्रकार भावस्पर्शका कथन समाप्त हुआ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ३, ३३. एदेसि फासाणं केण फासेण पयदं? कम्मफासेण पयदं ।। ३३ ।। एदं खंडगंथमज्झप्पविसयं पडुच्च कम्मफासे पयदमिदि भणिदं । महाकम्मपयडिपाहुडे पुण दवफासेण सव्वफासेण कम्मफासेण पयदं । कधमेदं णव्वदे? दिगंतरसुद्धीए दव्वफासपरूवणाए विणा तत्थ फासाणुयोगस्स महत्ताणुववत्तीदो। जदि कम्मफासे पयदं तो कम्मफासो सेसपण्णारसअणुओगद्दारेहि भूदवलिभयवदा सो एत्थ किण्ण परूविदो? ण एस दोसो, कम्मक्खंधस्स फाससण्णिदस्स सेसाणुओगद्दारेहि परूवणाए कीरमाणाए वेयणाए परविदत्थादो विसेसो पत्थि त्ति कादूण अकयतप्परूवणत्तादो। जदि एवं अपुणरुत्ताणं सव्व-दप्वफासाणं एत्थ परूवणा किण्ण कदा? ण, पयदाए अज्झप्पविज्जाए अपयदअणज्झप्पविज्जाए बहुणयगहण *णिलोणाए परूवणाणुववत्तीदो। एवं फासणिक्खेवे समत्ते फासे त्ति समत्तमणुयोगदारं। इन स्पोंमेंसे प्रकृतमें कौन स्पर्श लिया गया है? प्रकृतमें कर्मस्पर्श लिया गया अध्यात्मको विषय करनेवाले इस खण्ड ग्रन्थकी अपेक्षा कर्मस्पर्श प्रकरणप्राप्त है, ऐसा यहां कहा है। महाकर्मप्रकृतिप्राभूतमें तो द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श इन तीनोंका प्रकरण है। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- दिगन्त र शुद्धि में द्रव्यस्पर्शका कथन किये विना वहां स्पर्श अनुयोगका महत्त्व नहीं बन सकता, इससे मालूम पडता है कि वहां द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श इन तीनोंसे प्रयोजन है। शंका- यदि प्रकृतमें कर्मस्पर्शसे प्रयोजन हैं तो भूतबलि भगवान्ने शेष प्रन्द्रह अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर उसका यहां कथन क्यों नहीं किया ? ___ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्पर्श संज्ञावाले कर्मस्कन्धका शेष अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्रतिपादन करनेवाले वेदना अधिकार में कथन किया है। उसके सिवाय और कोई विशेष नहीं है, ऐसा समझकर यहां उसका कथन नहीं किया है। __ शंका- यदि ऐसा है तो सर्वस्पर्श और द्रव्यस्पर्श तो अपुनरुक्त थे, उनका यहां कथन क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां अध्यात्म विद्याका प्रकरण है, इसलिये अनेक नयोंकी विषयभूत अनध्यात्म विद्याका प्रकृतमें कथन करना नहीं बन सकता । विशेषार्थ- यहां स्पर्श निक्षेप तेरह प्रकार का कहा है। उनमें से प्रकृतमें कर्मस्पर्श लिया गया है। प्रश्न यह है कि यदि प्रकृतमें कर्मस्पर्श लिया गया है तो इसका नामकर्मके सिवा शेष कर्मनयविभाषणता व कर्मनामविधान आदि पन्द्रह अनुयोगद्वारोंके द्वारा अवश्य कथन करना था। समाधान यह है कि पहले वेदना अनुयोगद्वारमें वेदना शब्दसे कर्मका ही ग्रहण किया है । ®ताप्रतौ 'अकयत्तपरूवणत्तादो' इति पाठः । प्रतिषु 'गह गा-' इति पाठः । . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माणुओगद्वारं मुणिसुव्वयजिणवसहं सुव्वयमणिवसहसंथुअं णमिउं । कम्माणुयोयमिणमो बोच्छमणेयत्थ-गंथगयं ॥१॥ कम्मे त्ति ।। १।। कम्मे त्ति जं पुवुद्दिटुमणुयोगद्दारं तस्स परूवणं कस्सामो त्ति अहियारसंभालगमेदेण कदं। ................... इसलिये वहां इसका विवेचन हो चुका है, अतः पुनः इसका विवेचन करना उचित न जानकर यहां उसका कथन नहीं किया है। प्रसंगसे एक प्रश्न यह भी किया गया है कि जब इस अधिकारमें स्पर्शकी मुख्यता है तो सर्वस्पर्श और द्रव्यस्पर्श जो अपुनरुक्त है और जिनका अन्यत्र कथन नहीं किया गया है, उनका यहां अवश्य कथन करना था। इसका समाधान करते हुए वोरसेन स्वामीने जो कुछ भी कहा है वह मार्मिक है। उनका कहना है कि यह अध्यात्म शास्त्र है, इसलिये इसमें अन्य विषयोंके कथनको विशेष अवकाश नहीं है । अध्यात्म शास्त्रका अर्थ हैं आत्माकी विविध अवस्थाओं और उनके मुख्य निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र । यह उसका व्यापक अर्थ है। वैसे जोवकी विविध अवस्थाओं में मूल वस्तुका ज्ञान करानेवाला शास्त्र ही अध्यात्म शास्त्र कहलाता है, परन्तु कार्य-कारणभावकी दृष्टिसे विचार करनेपर उन विविध अवस्थाओं और उनके मूल निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है । इस दृष्टि से विचार करनेपर जा चौदह मार्गणाओंमेंसे प्रारम्भकी चार मार्गणाओंको द्रव्य मार्गणायें कहते हैं वे सिद्धान्त ग्रन्थोंके अभिप्राय और उनकी वर्णनशैलीसे अनभिज्ञ हैं, यही कहना पडता है। सिद्धान्त ग्रन्थोंमें भाव मार्गणाओंका ही विवेचन किया गया है, यह बात खुद्दाबंधके चौदह मार्गणाओंका विवेचन करनेवाले सूत्रोंसे भी स्पष्ट जानी जाती है। यही कारण है कि यहां तेरह प्रकारके स्पर्शों का स्वरूप कह करके उनका विशेष व्याख्यान नहीं किया है। इस प्रकार स्पर्शनिक्षेपका कथन समाप्त होनेपर स्पर्श अनुयोगद्वारका कथन समाप्त हुआ। उत्तम व्रतधारी श्रेष्ठ मुनियोंने जिनकी स्तुति की है ऐसे मुनिसुव्रत नामक जिनेन्द्र देवको नमस्कार करके जिसके विविध अर्थ हैं, और जिसका विशद विवेचन अनेक ग्रन्थोंमें किया गया है, ऐसे इस कर्म अनुयोगद्वारका मैं ( वीरसेन स्वामो ) व्याख्यान करता हूं ॥१॥ कर्मका अधिकार है ॥१॥ 'कर्म नामका जो अनुयोगद्वार पहले कह आये हैं उसका कथन करते हैं' इस प्रकार 'कम्मे त्ति' इस सूत्र द्वारा अधिकारकी सम्हाल की गई है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २. तत्थ इमाणि सोलस अणुयोगद्दाराणि णादवाणि भवंतिकम्मणिक्खेवे कम्मणयविभासणदाए कम्मणामविहाणे कम्मदव्वविहाणे कम्मक्खेत्तविहाणे कम्मकालविहाणे कम्मभावविहाणे कम्मपच्चयविहाणे कम्मसामित्तविहाणे कम्मकम्मविहाणे कम्मगइविहाणे कम्मअणंतरविहाणे कम्मसंणियासविहाणे कम्मपरिमाणविहाणे कम्मभागाभागविहाणे कम्मअप्पाबहुए त्ति ॥ २ ।। एदाणि सोलस चेव अणुयोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। कम्मणिक्खेवे त्ति ।। ३ ।। संशय-विपर्ययानध्यवसायस्थितं जीवं निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः, अप्रकृतापोहनमखन प्रकृतप्ररूपणाय अप्पितवाचकस्य वाच्यप्रमाणप्रतिपादनं वा निक्षेपः । तस्स णिक्खेवस्स अत्थो वुच्चदे दसविहे कम्मणिक्खेवे--णामकम्मे ठवणकम्मे दवकम्मे पओअकम्मे समदाणकम्मे आधाकम्मे इरियावहकम्मे तवोकम्मे किरियाकम्मे भावकम्मे चेदि ॥ ४ ॥ दसविहो कम्मणिक्खेवो। कम्मणयविभासणदाए को णओ के कम्मे इच्छदि ? ॥ ५ ॥ उसमें ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता, कर्मनामविधान, कर्मद्रव्यविधान, कर्मक्षेत्रविधान, कर्मकालविधान, कर्मभावविधान, कर्मप्रत्ययविधान, कर्मस्वामित्वविधान, कर्मकर्मविधान, कर्मगतिविधान, कर्मअनन्तरविधान कर्मसंनिकर्षविधान,कर्मपरिमाणविधान, कर्मभागाभागविधान औरकर्मअल्पबहत्व॥२॥ प्रकृतमें ये सालह ही अधिकार होते हैं, क्योंकि, इनके सिवा अन्य अधिकार यहां सम्भव नहीं हैं। अब कर्मनिक्षेपका अधिकार है ॥३॥ जो संशय, विपर्याय और अनध्यवसायमें स्थित जीवको किसी एक निर्णयपर पहुंचाता है उसे निक्षेप कहते हैं। या अप्रकृत अर्थके निराकरण द्वारा प्रकृत अर्थका कथन करनेके लिये मुख्य वाचकके वाच्यार्थको प्रमाणताका प्रतिपादन करता है उसे निक्षेप कहते हैं। अब उस निक्षेपका अर्थ कहते हैं कर्मनिक्षेप दस प्रकारका है-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ॥४॥ इस प्रकार कर्मनिक्षेपके ये दस प्रकार हैं। अब कर्मनयविभाषणताका अधिकार है-कौन नय किन कर्मोको स्वीकार करता है ? ॥५॥ ताप्रती 'इरियावथकम्मे' इति पाठः । ........... . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ७. ) कम्माणुओगद्दारे णयविभासणदा (३९ णिक्खेवत्थमभणिय णयविभासणा किमट्ठ कीरदे? ण, णयविभासणाए विणा मिक्खेवत्थस्स अवगमोवायाभावादो। उत्तं च उच्चारिदम्मि दु पदे णिक्खेवं वा कयं तु दळूण । अत्थं णयंति ते तच्चदो त्ति तम्हा णया भणिदा ।।१॥ तम्हा शिक्खेवत्थपरूवणादो पुव्वमेव णयविभासणा कीरदे। णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि ॥६॥ एत्थ इच्छंति ति अज्झाहारो कायवो। कधमेदेसु संगह-ववहारणएसु दव्वट्टिएसु भावणिक्खेवस्स संभवो? ण, दव्वादो भावस्स पुधाणुवलंभेण दव्वस्सेव भावत्तसिद्धीदो। उजसदो ट्रवणकम्मं णेच्छदि ॥ ७॥ कुदो? संकप्पवसेण अण्णस्स अण्णसरूवेण परिणामविरोहादो सव्वदव्वाणं सरिस शंका- निक्षेपार्थका कथन न करके पहले नयों द्वारा विशेष व्याख्यान किसलिये किया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नयों द्वारा विशेष व्याख्यान किये विना निक्षेपार्थका ज्ञान करानेका अन्य कोई उपाय नहीं है । कहा भी है उच्चारण किये गये पदमें जो निक्षेप होता है उसे देखकर वे अर्थका तत्त्वतः निर्णय करा देते हैं, इसलिये उन्हें नय कहा है ॥ १॥ इसलिये निक्षेपार्थका कथन करने के पहले ही नयोंका व्याख्यान किया जाता है। नैगम, व्यवहार और संग्रहनय सब कर्मोंको स्वीकार करते हैं ॥६॥ इस सूत्र में 'इच्छंति' पदका अध्याहार करना चाहिये। शंका- संग्रहनय और व्यवहार नय ये दोनों द्रव्याथिक नय हैं, इनमें भावनिक्षेप कसे सम्भव है ? ___समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यसे भाव पृथक् नहीं पाया जाता, इसलिये द्रव्यके ही भावपना सिद्ध होता है। _ विशेषार्थ- वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्यको ही भाव कहते हैं । द्रव्यसे स्वतन्त्र भाव नहीं पाया जाता। इसीसे भावनिक्षेपको सग्रहनय और व्यवहारनयका विषय कहा है। अन्यत्र जहां भावनिक्षेप केवल पर्यायार्थिक नयका विषय कहा गया है, वहां द्रव्यकी प्रधानता न हो कर मात्र पर्याय विवक्षित की गई है ऋजुसूत्र नय स्थापना कर्मको स्वीकार नहीं करता ।। ७ ।। क्योंकि, स्थापनामें केवल संकल्पके द्वारा एक वस्तुको दूसरे रूप मान लिया जाता है किन्तु अन्यका अन्यरूपसे परिणमन मानने में विरोध आता है। सादृश्यके आधारसे स्थापना करने पर भी यथार्थतः समस्त द्रव्योंमें कहीं समानता नहीं पाई जाती । ॐ अ-ताप्रत्योः ‘अद्धं' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'तच्नगो' इति पाठः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, ८. त्ताभावादो च । थंभादिसु सरिसत्तमुवलब्भदि त्ति चे-ण, भिण्णदेसट्टियाणं भिण्णारंभयदव्वाणं सरिसत्तविरोहादो। उजुसुदस्स पज्जवट्टियस्स कधं दव्वादिणिक्खेवा संभवंति? ण, असुद्धे वंजणपज्जवट्टियउजुसुदणए तेसिं संभवस्स विरोहाभावादो। सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि ॥ ८ ।। सद्दणए सुद्धपज्जवट्रिए कधं णामणिक्खेवो? ण, णामेण विणा ववाहरो ण घडदि त्ति तस्स अत्थित्तब्भुवगमादो। एवं णयविभासणा गदा । जं तं णामकम्म णाम ।। ९ ।। तस्स अत्थविवरणं कस्सामो-- तं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा जीवस्स च अजोवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च शंका- स्तम्भ आदिमें समानता देखी जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जो पदार्थ भिन्न देश में स्थित है और जिनके निर्माण सम्बन्धी मूल द्रव्य भिन्न है उनको सदृश मानने में विरोध आता है । शंका- जब कि ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, तब उसमे द्रव्यादि निक्षेप कैसे सम्भव हो सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अशुद्ध व्यञ्जनपर्यायार्थिक ऋजसूत्र नय में उनको विषयरूपमे सम्भव मानने में कोई विरोध नहीं आता। विशेषार्थ- स्थापना निक्षेपमें वह यह है' इस प्रकारके संकल्पकी मुख्यता रहती है। किन्तु ऋजसूत्र नय न तो दोको ही ग्रहण करता है, और न औपचारिक सादृश्यको ही। यही कारण है कि स्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रका विषय नहीं कहा है । द्रव्य निक्षेप व्यञ्जन पर्यायकी प्रधानतासे अशुद्ध ऋजुसूत्रका विषय कहा गया है। शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको स्वीकार करता है ॥८॥ शंका- शुद्ध पर्यायाथिक शब्दनयका नामनिक्षेप विषय कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि नामके विना किसी प्रकारका व्यवहार घटित नहीं होता, इसलिये शब्दनयके विषयरूपसे नामनिक्षेपका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस प्रकार नयविभाषणता अधिकार समाप्त हुआ। अब नामकर्मका अधिकार है ॥ ९ ॥ इसके अर्थका खुलासा करते हैं एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव,एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव तथा नाना जीव और नाना अजीव, . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, १२.) कम्माणुओगद्दारे ठवणकम्मपरूवणा ( ४१ अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि कम्मे त्ति तं सव्वं णामकम्मं णाम ॥ १० ॥ एदे जीवादी अट्ट वि णामस्स आधारभूदा परूविदा। एदेसु अट्ठसु वट्टमाणो कम्मसहो णामकम्मे त्ति भणिदे कधं सदस्स कम्मववएसो? ण, कुणइ कीरदि त्ति तस्स कम्मत्तसिद्धीदो। जं त ठवणकम्मं णाम ॥ ११ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो तं कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि कम्मे त्ति तं सव्वं ठवणकम्म णाम ॥ १२ ॥ इनमेंसे जिसका कर्म ऐसा नाम रखा जाता है वह सब नामकर्म है ॥१०॥ ये जीवादि आठों ही 'नाम'के आधारभूत पदार्थ कहे गये हैं। शंका- जब कि इन आठोंमें विद्यमान कर्म शब्द नामकर्म कहा जाता है, तब शब्दको कर्म संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, 'कुणइ' जो करता है और 'कीरइ' जो किया जाता है, इन दो प्रकार व्युत्पत्तियोंके अनुसार शब्दमें कर्म संज्ञाकी सिद्धि हो जाती है। विशेषार्थ- लोकमें मुख्य पदार्थ दो हैं जीव और अजीव । इनके एक और अनेकके विकल्पसे प्रत्येक और संयोगी कुल भंग आठ होते हैं जो नामके आधारभूत पदार्थ कहे गये हैं। प्रश्न यह है कि जब इन पदार्थों में कर्मका कर्ता जीव भी है और जीव द्वारा कर्मरूप किया जानेवाला अजीव भी है, तब इन दोनोंके वाचक पृथक् शब्दोंको कर्म कैसे कहा? इसका उत्तर यह है कि कर्मका अर्थ दोनों प्रकार किया जा सकता है, करनेवालेके अर्थमें भी 'कुणइ' जो करता है और किये जानेवाले के अर्थ में भी 'कीरइ' जो किया जाता है। इस प्रकार दोनों अर्थों में कर्मपना सिद्ध हो जाता है। अब स्थापनाकर्मका अधिकार है ॥ ११॥ इसके अर्थका कथन करते हैं काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म; इनमें तथा अक्ष और वराटक एवं इनको लेकर और जितने भी कर्मरूपसे एकत्वके संकल्प द्वारा स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकर्म है ॥ १२॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, १२. ___ कट्टकम्मप्पहुडि जाव भेंडकम्मे *त्ति ताव एदेहि सम्भावटवणा परूविदा। उवरिमेहि असब्भावट्ठवणा समुद्दिट्ठा। सब्भावासब्भावढवणाणं को विसेसो? बुद्धीए ठविज्जमाणं वण्णाकारादीहि जमणुहरइ दव्वं तस्स सम्भावसण्णा। दव्व-खेत-वेयणावेयणादिभेदेहि भिण्णाणं पडिणिभ-पडिणिभयाणं कधं सरिसत्तमिदि चे-ण, पाएण सरिसत्तवलंभादो। जमसरिसं दव्वं तमसम्भावढवणा । सव्वदव्वाणं सत्त-पमेयत्तादीहि सरिसत्तमुवलब्भदि त्ति चे-होदु णाम एदेहि सरिसतं, किंतु अप्पिदेहि वण्ण-कर-चरणादीहि सरिसत्ताभावं पेक्खिय असरिसत्तं उच्चदे । जहा फासणिक्खेवे कट्टकम्मादीणमत्थो उत्तो तहा एत्थ वि वत्तव्यो । एदेसु सब्भावासब्भावदव्वेसु ठवणाए बुद्धीए अमा एयत्तेण* जं ठविज्जदि तं ठवणकम्मं णाम । कधमेदस्स कम्मत्तं? ण, छक्कारयप्पयकम्मसद्दाहिहेयाए ठवणाए तदविरोहादो। कधं कम्मस्स अणियदसंठाणस्स सब्भावढवणा जुज्जदे ? काष्ठकर्मसे लेकर भेंडकर्म तक जितने कर्म निर्दिष्ट किये हैं उनके द्वारा सद्भावस्थापना कही गई है। और आगे जितने अक्ष-वराटक आदि कहे गये हैं उनके द्वारा असद्भावस्थापना निर्दिष्ट की गई है। शंका- सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनामें क्या भेद है ? समाधान- बुद्धि द्वारा स्थापित किया जानेवाला जो पदार्थ वर्ण और आकार आदिके द्वारा अन्य पदार्थका अनुकरण करता है उसकी सद्भावस्थापना संज्ञा है । शंका- द्रव्य, क्षेत्र, वेदना और अवेदना आदिके भेदसे भेदको प्राप्त हुए प्रति निभ और प्रतिनिभेय अर्थात् सदृश और सादृश्यके मूलभूत पदार्थों में सदृशता कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रायः कुछ बातोंमें इनमें सदृशता देखी जाती है । जो असदृश द्रव्य है वह असद्भावस्थापना है । शंका- सब द्रव्योंमें सत्त्व और प्रमेयत्व आदिके द्वारा समानता पाई जाती है ? समाधान- द्रव्योंमें इन धर्मों की अपेक्षा समानता भले ही रहे, किन्तु विवक्षित वर्ण, हाथ और पैर आदिकी अपेक्षा समानता न देखकर असमानता कही जाती है। जिस प्रकार स्पर्शनिक्षेपमें काष्ठकर्म आदिका अर्थ कहा है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । इन तदाकार और अतदाकार द्रव्योंमें स्थापना बुद्धि द्वारा एकत्वके संकल्परूपसे जो स्थापित किया जाता है वह स्थापना कर्म है। शंका- इसे कर्मपना कैसे प्राप्त है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, छह कारकरूप कर्म शब्दके वाच्यस्वरूप स्थापनामें कर्मपना मानने में कोई विरोध नहीं आता। शका- अनियत संस्थानवाले कर्मकी सद्भावस्थापना कैसे बन सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कर्म संज्ञावाले मनुष्यमें सद्भावस्थापना पाई जाती है। * अप्रतौ 'भिंडकम्मे ' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'पडिणिविपडिणिवेयाणं' इति पाठः । 7 तापतौ जमसरिसदव्वं' इति पाठः । -*- अप्रतौ 'अमा एत्तेण', आ-ताप्रत्योः 'अमायत्तेण' इति पाठः । . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ५, ४, १५.) . कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मपरूवणा ण, कम्मसण्णिदे मणुस्से सब्भावढवणाए उवलंभादो। एवं फासादिसु वि सम्भावट्ठवणाए संभवो वत्तव्वो। एवं ठवणकम्मपरूवणा गदा। जं तं दव्वकम्म णाम ।। १३ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो जाणि दव्वाणि सब्भावकिरियाणिप्फण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्म णाम ।। १४11 जीवदव्वस्स णाण-दसणेहि परिणामो सब्भावकिरिया, पोग्गलदव्वस्स वण्ण-गंधरस-फासविसेसेहि परिणामो सब्भावकिरिया, धम्मदव्वस्स जीव-पोग्गलदव्वाणं गमणागमणहे उभावेण परिणामो सम्भावकिरिया, अधम्मदव्वस्स जीव-पोग्गलाणमव*टाणस्स णिमित्तभावेण परिणामो सब्भावकिरिया, कालदव्वस्स जीवादिदव्वाणं परिणामस्स णिमित्तभावेण परिणामो सम्भावकिरिया, आयासदव्वस्स सेसदव्वाणमोगाहणदाणभावेण परिणामो सम्भावकिरिया। एवमादीहि किरियाहि जाणि णिप्फण्णाणि सहावदो चेव दव्वाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम । जं तं पओअकम्मं णाम ॥ १५ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो इसी प्रकार स्पर्शादिकोंमें भी सद्भावस्थापना घटित कर कहनी चाहिये । इस प्रकार स्थापनाकर्मप्ररूपणा समाप्त हुई। अब द्रव्यकर्मका अधिकार है ।।१३॥ उसके अर्थका कथन करते हैंजो द्रव्य सद्भावक्रियानिष्पन्न है वह सब द्रव्यकर्म है ॥१४॥ जीव द्रव्यका ज्ञान-दर्शन आदिरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भावक्रिया है। पुदगल द्रव्यका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श विशेष रूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भावक्रिया है। धर्मद्रव्यका जीव और पुद्गलोंके गमनागमनके हेतुरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भावक्रिया है। अधर्मद्रव्यका जोव और पुद्गलोंके अवस्थानके निमित्तरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी दभावक्रिया है। कालद्रव्यका जीवादि द्रव्यों के परिणामके निमित्तरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सदभावक्रिया है। और आकाशद्रव्यका शेष द्रव्योंको अवगाहनदान देने रूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भावक्रिया है । इत्यादि क्रियाओं द्वारा जो द्रव्य स्वभावसे ही निष्पन्न हैं वह सब द्रव्यकर्म है। विशेषार्थ- मल द्रव्य छह हैं, और वे स्वभावसे परिणमनशील हैं। अपने अपने स्वभावके अनुरूप उनमें प्रतिसमय परिणमन क्रिया होती रहती है और क्रिया कर्मका पर्यायवाची है। यही कारण है कि यहां द्रव्यकर्म शब्दसे मूलभूत छह द्रव्योंका ग्रहण किया है । अब प्रयोगकर्मका अधिकार है ॥ १५॥ उसके अर्थका कथन करते हैं@ प्रांतषु तत्थ ' इति पाठः । * अप्रतौ 'पोग्गलमव ' इति पाठः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४) छ खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, १६ तं तिविहं- मणपओअकम्मं वचिपओअकम्मं कायपओअकम्नं ॥ १६ ॥ जीवस्य मनसा सह प्रयोगः; वचसा सह प्रयोगः; कायेन सह प्रयोगश्चेति एवं पओओ तिविहो होदि। सो वि कमेण होदि, ण अक्कमेण); विरोहादो। तत्थ मणपओओ चउविहो सच्चासच्च-उहयाणुहयमणपओअभएण। तहाविह वचिपओओ वि चउविहो सच्चासच्च-उहयाणुहयवचिपओअभएण। कायपओओ सत्तविहो ओरालियादिकायपओअभएण। एदेसि पओआणं सामिभूदजीवपरूवगढ़मुत्तरसुतं भणदि तं संसारावत्थाणं वा जीवाणं सजोगिकेवलोणं वा ॥१७॥ तं तिविहं पओअकम्मं संसारावत्थाणं जीवाणं होदि त्ति उत्ते मिच्छाइट्रिप्पहडिखोणकसायंताणं सजोगत्तं सिद्धं, उवरिमाणं संसारावत्थत्ताभावादो। कुदो? संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिष्विति घातिकर्मकलापः संसारः। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्थाः छद्मस्थाः भवन्ति । एवं संते सजोगिकेवलीणं जोगाभावे पत्ते सजोगीणं च तिण्णि वि जोगा होति त्ति जाणावगळं पुध सजोगिगहणं कदं। तं सव्वं पओअकम्म णाम ।। १८ ॥ वह तीन प्रकारका है-मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म॥१६॥ जीवका मनके साथ प्रयोग, वचनके साथ प्रयोग और काय के साथ प्रयोग, इस प्रकार प्रयोग तीन प्रकारका है। उसमें भी वह क्रमसे ही होता है, अक्रमसे नहीं; क्योंकि, ऐसा माननेपर विरोध आता है। उसमें सत्य, असत्य, उभय और अनुभय मनःप्रयोगके भेदसे मनःप्रयोग चार प्रकारका है। उसी प्रकार सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेदसे वचनप्रयोग भी चार प्रकारका है। कायप्रयोग औदारिक आदि कायप्रयोगके भेदसे सात प्रकारका है । ___ अब इन प्रयोगोंके कौन जीव स्वामी हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं- . .. वह संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके और सयोगिकेवलियोंके होता है ।। १७॥ तीन प्रकारका प्रयोगकर्म संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके होता है, इस कथनसे मिथ्यादष्टि गणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके जीव सयोगी सिद्ध होते हैं; क्योंकि आगेके जीवोंके संसार अवस्था नहीं पाई जाती। कारण कि जिस घातिकर्मसमूहके कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं वह घातिकर्मसमूह संसार है । और इसमें रहनेवाले जीव संसारस्थ अर्थात् छद्मस्थ हैं। ऐसी अवस्था में सयोगिकेवलियोंके योगों का अभाव प्राप्त होता है । अतः सयोगियोंके भी तीनों ही योग हीते हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिये 'सयोगी' पदका अलगसे ग्रहण किया है। वह सब प्रयोग कर्म है ॥ १८॥ लताप्रतौ 'कमेण जो होदूण अक्कमेण' इति पाठ । *ताप्रतौ 'वा' इत्येतत्पदं नास्ति । . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २०. ) कम्माणुओगद्दारे समुदाणकम्मपरूवणा (४५ संसारत्थाणं बहूणं जीवाणं कधं तमिदि एयवयणणिद्देसो? ण, पओअकम्मसण्णिदजीवाणं जादिदुवारेण एयत्तं दठ्ठण एयवयणणिद्देसोववत्तीदो। कधं जीवाणं पओअकम्मववएसो? ण, पओअं करेदि त्ति पओअकम्मसद्दणिप्पत्तीए कत्तारकारए कोरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्तसिद्धीदो। जं तं समोदाणकम्मं णाम ।। १९॥ तस्स अत्थविवरणं कस्सामो तं अविहस्स वा सत्तविहस्स वा छविहस्स वा कम्मस्स समोदाणदाए गहणं पवत्तदि तं सव्वं समोदाणकम्मं णाम 1॥ २० ॥ समयाविरोधेन समवदीयते खंड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलाणं मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूवेण वा भेदो समोदाणद त्ति वुत्तं होदि । अढविहस्स सत्तविहस्स छव्विहस्स शंका- संसार में स्थित जीव बहत हैं। ऐसी अवस्थामें 'तं' इस प्रकार एक वचनका निर्देश कैसे किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रयोगकर्म संज्ञावाले जितने भी जीव हैं उन सबको जातिकी अपेक्षा एक मान कर एक वचनका निर्देश बन जाता है। शंका- जीवोंको प्रयोगकर्म संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, 'प्रयोगको करता है' इस व्युत्पत्तिके आधारसे प्रयोगकर्म शब्दकी सिद्धि कर्ता कारकमें करनेपर जीवोंके भी प्रयोगकर्म संज्ञा बन जाती है। विशेषार्थ- संसारी जीवोंके और सयोगिकेवलियोंके मन, वचन और कायके आलम्बनसे प्रति समय आत्मप्रदेशपरिस्पद होता रहता है । आगममें इस प्रकारके प्रदेशपरिस्पन्दको योग कहा जाता है। प्रकृतमें इसे ही प्रयोगकर्म शब्द द्वारा सम्बोधित किया गया है। किन्तु वीरसेन स्वामीके अभिप्रायानुसार इतना विशेषता है कि यहां जिन जीवोंके यह योग होता है वे प्रयोगकर्म शब्द द्वारा ग्रहण किये गये हैं। अब समवदानकर्मका अधिकार है ।। १९ ।। उसके अर्थका कथन करते हैं-- यतः सात प्रकारके, आठ प्रकारके और छह प्रकारके कर्मका भेदरूपसे ग्रहण होता है। अतः वह सब समवदानकर्म है ॥ २० ॥ ( समवदान शब्दमें सम् और अव उपसर्ग पूर्वक 'दाप् लवने' धातु है जिसका व्युत्पत्ति. लभ्य अर्थ है-)जो यथाविधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है । और समवदान हो समवदानता कहलाती है। कार्मण पुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायके निमित्तसे आठ कर्मरूप, सात कर्मरूप या छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आठ प्रकारके, सात प्रकारके और छह प्रकारके कर्मों का समवदान रूपसे अर्थात् Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २१. वा कम्मस्स समोदाणदाए भेदेण गहणं पवत्तदि, ण अण्णहा इदि भणंतेण सुत्तकारण णवमादिकम्माभावो परूविदो होदि। कम्मइयवग्गणखंधा अकम्मभावेण दिदा मिच्छत्तादिकारणेहि परिणामंतरेण अणंतरिदा तदणंतरसमए चेव अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूवेण वा होदूग गहणमागच्छंतीति जाणाविदं ति भावत्थो। एवं सव्वं पि कम्मं बंधोदयसंतभेदभिण्णं समोदाणकम्मं णाम । जं तमाधाकम्मं णाम ।। २१ ।। तस्स अत्थविवरणं कस्सामो तं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभकदणिप्फण्णं तं सव्वं आधाकम्म णाम ।। २२॥ कदं णाम कज्जतं,* कृतशब्दस्य कर्मवाचिनः अंतर्भावितभावस्य ग्रहणात्। कृत. शब्दो निमित्तार्थे वा वर्तनीयः । जीवस्य उपद्रवणं ओद्दावणं णाम। अंगच्छेदनादिव्यापारः विद्दावणं णाम । संतापजननं परिदावणं णाम।प्राणि-प्राणवियोजनं आरंभो णाम। ओहावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभकज्जभावेण णिप्फण्णमोरालियसरीरं तं सव्वमाधाकम्मं णाम। जम्हि सरीरे द्विदाणं जीवाणं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभा भेदरूपसे ग्रहण होता है, अन्य प्रकारसे नहीं; इस प्रकार प्रतिपादन करनेवाले सूत्रकारने नौवां आदि कर्म नहीं है, यह प्ररूपित कर दिया है। जो कार्मण वर्गणास्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित हैं वे मिथ्यात्व आदि कारणोंका निमित्त पाकर अन्य परिणामको न प्राप्त होकर अनन्त र समयमें ही आठ कर्मरूपसे, सात कर्मरूपसे या छह कर्मरूपसे परिणत होकर गृहीत होते हैं; यह यहां उक्त कथनका भावार्थ जताया है । यह सभी बन्ध, उदय और सत्ताके भेदसे अनेक प्रकारका कर्म समवदान कर्म है। अब अधःकर्मका अधिकार है ॥२१॥ .. उसके अर्थका खुलासा करते हैं वह उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है; वह सब अधःकर्म है ॥२२॥ कृत शब्द कार्यसामान्यका वाची है, क्योंकि, यहां भावगर्भ कर्मवाची कृत शब्दका ग्रहण किया है। अथवा कृत शब्द निमित्त रूप अर्थमें विद्यमान है। जीवका उपद्रव करना ओहावण कहलाता है। अंगछेदन आदि व्यापार करना विद्दावण कहलाता है । सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है। और प्राणियोंके प्राणोंका वियोग करना आरम्भ कहलाता है। उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ आदि कार्यरूपसे जो उत्पन्न हुआ औदारिक शरीर है यह सब अधःकर्म है। जिस शरीर में स्थित जीवोंके उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ अन्यके 0 अ-आप्रत्योः परिदावण' इति पाठः । आ-ताप्रत्योः 'अट्रमभावेण' इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः 'कज्जं तं' इति पाठः । . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ३, ३२. ) कम्माणिओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा ( ४७ अण्णेहितो होंति तं सरीरमाधाकम्मं ति भणिदं होदि । एवं घेप्पमाणे भोगभूमिगयमगुस्स-तिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्मंण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो? ण, ओरालियसरीरजादिदुवारेण सबाहसरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तसिद्धीदो।ओद्दावणादिदंस गादो रइयसरीरमाधाकम्मं ति किण्ण भण्णदे? (ण,) तत्थ ओद्दावणविद्दावण-परिदावणेहितो आरंभाभावादो। जम्हि सरीरे ठिदाणं केसि चि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहि मरणं संभवदि तं सरीरमाधाकम्म णाम। ण च एवं विसेसगं रइयसरीरे अस्थि, तत्तो तेसिमवमिच्चवज्जियाणं मरणाभावादो। अधवा चउण्णं समूहो जेणेगं विसेसणं, ण तेण पुवुत्तदोसो। जं तमीरियावहकम्पं णाम ॥ २३॥ __ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो- ईर्या योगः; सः पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झइ तमीरियावहकम्म ति भणिदं होदि। तं छदमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावहकम्म णाम ॥ २४॥ निमित्तसे होते हैं वह शरीर अधःकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका- इस तरहसे स्वीकार करनेपर भोगभूमिके मनुष्य और तिर्यंचोंका शरीर अधःकर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि, वहां उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते? ___समाधान- नहीं, क्योंकि, औदारिक शरीररूप जातिकी अपेक्षा यह बाधासहित शरीर और भोगभूमिजोंका शरीर एक है, अतः उसमें अधःकर्मपनेकी सिद्धि हो जाती है । शका- नारकियों के शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते हैं, इसलिये उसे अधःकर्म क्यों नहीं कहते? समाधान-नहीं, क्योंकि, वहांपर उपद्रावण, विद्रावण और परितापसे आरम्भ (प्राणि-प्राणवियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरीरमें स्थित किन्हीं जीवोंके किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सम्भव है वह शरीर अधःकर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियोंके शरीरमें नहीं पाया जाता, क्योंकि,इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती इसलिये उनका मरण नहीं होता। अथवा चंकि उपद्रावण आदि चारोंका समदायरूप एक विशेषण है, इसलिये पूर्वोक्त दोष नहीं आता । अब ईर्यापथकर्मका अधिकार है ॥ २३ ॥ उसका अर्थ कहते हैं-ईर्याका अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीरका पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है । योग मात्रके कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वह छद्मस्थवीतरागोंके और सयोगिकेवलियोंके होता है। वह सब ईर्यापथकर्म है ॥ २४॥ आ-ताप्रत्योः 'अंतब्भावादो' इति पाठः। ॐ अ-आप्रत्यो: 'तेसिमधवच्च' इति पाठः। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, २४. दुमत्थवीयरायाणं ति भणिदे उवसंत खीणकसायाणं गहणं, अण्णत्थ छदुमत्थेसु चीरायत्ताणुवलंभादो । सजोगिकेवलीणं वा त्ति वयणेण छदुमत्थणिद्देसेण वीयरागेहिंतो ओसारिकेवलीणं गहणं कदं । एत्थ ईरियावहकम्मस्स लक्खणं गाहाहि उच्चदे । तं जहाअप्पं बादर मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं पिय सादब्भहियं च तं कम्मं ॥ २ ॥ गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठपुट्ठं च । उदिदादिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ॥ ३ ॥ णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि गायव्वं । अणुदीरिदं ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ॥ ४ ॥ एत्थ ताव पढमगाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा - कसायाभावेण द्विदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयबिदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलकम्मक्खंधस्स द्विदिविरहिदएसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्तदंसणादो इरियावह कम्ममप्पमिदि भणिदं । कम्मभावेण एग समयमवद्विदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे ? ण, 'छदुमत्थवीयरायाणं' ऐसा कहनेपर उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंका ग्रहण होता है, क्योंकि, अन्य छद्मस्थ जीवोंमें वीतरागता नहीं पायी जाती । 'सजोगिकेवलीणं' इस वचनसे जो छद्मस्थ निर्देशके साथ वीतराग होते हैं उनसे पृथग्भूत केवलियोंका ग्रहण किया है । अब यहां ईर्यापथकर्मका लक्षण गाथाओं द्वारा कहते हैं । यथा वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रुक्ष है, शुक्ल है, मन्द अर्थात् मधुर है, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक सातरूप है ॥ २ ॥ उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित और वेदित होकर भी अवेदित जानना चाहिये ॥ ३ ॥ वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है || ३ | यहां सर्वप्रथम पहली गाथाका अर्थ कहते हैं। यथा- जो कषायका अभाव होनेसे स्थितिबन्धके अयोग्य है, कर्मरूपसे परिणत होनेके दूसरे समय में ही अकर्मभावको प्राप्त हो जाता है, और स्थितिबन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योगके निमित्तसे आये हुए पुद्गल कर्मस्कन्ध में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है । इसीलिये ईर्यापथकर्म अल्प है, ऐसा कहा है । शंका- जब कि ईयपथ कर्म कर्मरूपसे एक समय तक अवस्थित रहता है, तब उसके अवस्थानका अभाव क्यों बतलाया ? * ताप्रती ' महवयं' इति पाठः । ताप्रतौ ' ट्ठिदिबंधापोड ( ह ) स्स इति पाठः । 4 कम्माभावएग-' इति पाठः । अप्रतो 'द्विदिबंधापोदस्स', आप्रतो 'द्विदिबंधाषोडस', प्रतिषु ' अपत्त' इति पाठः । आ-ताप्रत्योः Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ५, ४, २४. ) कम्माणुओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा उप्पण्णबिदियादिसमयागमवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाणं होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो। ण च अणुप्पण्णस्स अवट्ठाणमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। ण च उप्पत्तिअवट्ठाणाणमेयत्तं, पुवुत्तरकालभावियाणमेयत्तविरोहादो। ___ अढण्णं कम्माणं समयपबद्धपदेसेहितो ईरियावहसमयपबद्धस्स पदेसा संख्खेज्जगुणा होंति, सादं मोत्तूण अण्णेसि बंधाभावो। तेण ढुक्कमाणकम्मक्खंधेहि थूलमिदि बादरं भणिदं। अणुभागेण बादरं ति किण्ण घेप्पदे? ण, कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादोला कम्मइयक्खंधाणं कम्मभावेण परिणमणकाले चेव सव्वजीवेहि अणंतगुणण अणुभागेण होदव्वं, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो त्ति? ण एस दोसो, जहण्णाणुभागट्ठाणस्स जहणफद्दयादो अणंतगुणहीणाणुभागेण कम्मक्खंधो बंधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णथि ति भण्णदे। तेग बंधो एगसमयटिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अस्थि चेवे त्ति घेत्तव्यो। तेणेव कारणेण दिदि-अणुभागोह इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिदं । इरियावहकम्मक्खंधा कक्खडादिगुणेण अवोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समय को ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि अनुत्पन्न वस्तुका अवस्थान बन जायगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि, अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थानको एक कहा जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी हैं, इसलिये इन्हें एक मानने में विरोध आता हैं । यही कारण है कि यहां ईर्यापथ कर्मके अवस्थानका अभाव कहा है। __ आठों कर्मोंके समयप्रबद्धप्रदेशोंसे ईर्यापथकर्म के समयप्रबद्धप्रदेश संख्यातगुण होते हैं, क्योंकि, यहां सातावेदनीयके सिवाय अन्य कर्मोका बन्ध नहीं होता। इसलिये ईयर्यापथरूपसे जो कर्मस्कन्ध आते हैं वे स्थूल हैं, अतः उन्हें बादर कहा है। शंका-ईयोपथकर्म अनुभागकी अपेक्षा बादर होते हैं, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां कषायका अभाव होनेसे अनुभागबन्ध नहीं पाया जाता। शंका- कार्मणस्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन करने के समयमें ही सब जीवोंसे अनन्तगुणा अनुभाग होना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा उनका कर्मरूपसे परिणमन करना नहीं बन सकता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहांपर जघन्य अनुभागस्थानके जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त कर्मस्कन्ध बन्धको प्राप्त होते हैं; ऐसा समझकर अनुभागबन्ध नहीं है, ऐसा कहा है । इसलिये एक समयकी स्थितिका निवर्तक ईर्यापथकर्मबन्ध अनुभागसहित है ही, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । और इसी कारणसे ईर्यापथ कर्म स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा 'अल्प' है ऐसा यहां कहा है। __ ईर्यापथ कर्मस्कन्ध कर्कश आदि गुणोंसे रहित हैं व मृदु स्पर्शगुणसे युक्त होकर ही बन्धको ताप्रतौ '-बंधभावदो' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'अवोढा' इति पाठः । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २४. बंधमागच्छंति त्ति इरियावहकम्मं मउअंति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादो पदेसेहि संखेज्जगुणत्तं दळूण बहुअमिदि भण्णदे। बादर-बहुआणं को विसेसो? बादरसद्दो कम्मक्खंधस्स थूलत्तं भणदि, बहुअ-सद्दो वि पदेसगयसंखाए बहुत्तं भणदि, तेण ण सद्दभेदो चेव ; किंतु अत्थभेदो वि। ण च थूलेण बहुसंखेण चेव होदव्वमिदि णियमो अत्थि? थूलेरंडरुक्खादो सह ,लोहगोलएगरूवत्तण्णहाणुववत्तिबलेण पदेसबहुत्तुवलंभादो । पोग्गलपदेसु चिरकालावट्ठाणणिबंधणणिद्धगुणपडिवक्खगुणेण पडिग्गहियत्तादो ल्हुक्खं । जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खंधो, ल्हुक्खेगगुणाणं परोप्परबंधाभावादो* ? ण, तत्थ वि दुरहियाणं बंधुवलंभादो। च-सद्द-णिद्देसो किंफलो? इरियावहकम्मस्स कम्मक्खंधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मक्खंधा पंचवण्णाण होंति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणट्टं सुक्किलणिद्देसो कदो।एत्थतण-चेव-सद्दो सव्वत्थ जोजयव्वोपडिवखणिराकरणÉ। इरियावहकम्मक्खंधा रसेण सक्करादो अहियमहुरत्तजुत्ता प्राप्त होते हैं, इसलिये ईयापथ कर्मको ‘मृदु' कहा है। ___ कषायसहित जीवके वेदनीय कर्म के समयप्रवद्धसे यहां बँधने वाला समयप्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा संख्यातगुणा होता है, ऐसा देखकर ईर्यापथ कर्मको 'बहुत' कहा है। शंका- बादर और बहुत में क्या अन्तर है ? समाधान-'बादर' शब्द कर्मस्कन्धकी स्थूलताको कहता है जब कि 'बहुत' शब्द प्रदेशगत संख्याके बहुत्वका प्रतिपादन करता है, इसलिये इन दोनोंमें केवल शब्दभेद ही नहीं है ; किन्तु अर्थभेद भी है। स्थूल बहुत संख्यावाला ही होना चाहिये, एसा कोई नियम नहीं है; क्योंकि, स्थूल एरण्ड वृक्षसे, सूक्ष्म लोहेके गोले में एकरूपता अन्यथा बन नही सकती, इस युक्तिके बलसे प्रदेशबहुत्व देखा जाता है। ईर्यापथ कर्मस्कन्ध रुक्ष है, क्योंकि, पुद्गलप्रदेशोंमें चिरकाल तक अवस्थानका कारण स्निग्ध गुणका प्रतिपक्षभूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है । शंका- यहांपर रुक्ष गुण यदि इस प्रकार है तो ईर्यापथकर्मका स्कन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि, एकमात्र रुक्ष गुणवालोंका परस्पर बन्ध नहीं होता । समाधान- नहीं, क्योंकि, वहां भी द्वयधिक गुणवालोंका बन्ध पाया जाता है। शंका- गाथा में जो 'च' शब्दका निर्देश किया है उसका क्या फल है ? समाधान- ईर्यापथ कर्मके कर्मस्कन्ध अच्छी गन्धवाले और अच्छी कान्तिवाले होते हैं, यह जताना 'च' शब्दका फल है। ईर्यापथ कर्मस्कन्ध पांच वर्णवाले नहीं होते, किन्तु हंसके समान धवल वर्णवाले ही होते हैं, इस बात का ज्ञान करानेके लिये गाथामें 'शुक्ल' पदका निर्देश किया है । यहां पर गाथामें आया हुआ 'चेव' शब्दका अन्वय प्रतिपक्ष गणका निराकरण करने के लिये सर्वत्र करना चाहिये। ईयापथ कर्मस्कन्ध रसकी अपेक्षा सक्करसे भी अधिक माधुर्य युक्त होते हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिये गाथाम 'मन्द' पदका निर्देश किया है। 3 प्रतिषु ‘सण्ण' इति पाठः। O आ-ताप्रत्योः 'ल्हुक्खगुणाणं' इति पाठः। * ताप्रती 'बंधाभावदो' इति पाठः । 1 अप्रतौ 'सुअधा', आ-ताप्रत्योः 'सुअद्धा' इति पाठः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१ ५, ४, २४. ) कम्माणुओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा त्ति जाणावणठें मंदणिहेसो कदो। कुदो एदमवलभदे? मन्दशब्दस्य मन्द्रशब्दपरिणामत्वेनोपलंभात् । बंधमागयपरमाणू बिदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्जरंति ति महव्वयं, असंखेज्जगुणसेडिणिज्जराविणाभावित्तादो वा महन्वयमिदि* णिहिस्सदे । अवि-सद्दो समुच्चयठे दटुवो। देव-मागुससुहेहितो बहुयरसुहुप्पायणत्तादो इरियावहकम्मं सादब्भहियं । किलक्खणमेत्थ सुहं? सयलबाहाविरहलक्खणं। एदेण भुक्खातिसादिसयल-आमयाणमभावो खीणकसाएपु जिणेसु परूविदो-त्ति घेत्तव्वं । उत्तं च जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वं महासुहं ।। वीयरायसुहस्सेदं णंतभागं ण अग्घदेश ॥५॥ संपहि बिदियगाहत्थो उच्चदे। तं जहा- जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ व्व इरियावहकम्मजलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे-इरियावहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिद। कुदो? सरागकम्मगहणस्सेव अणंतरसंसारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो । कोसियारो शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि, मन्द शब्दकी मन्द्र शब्दके परिणाम रूपसे उपलब्धि होती है। बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं. इसलिये ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं। अथवा, वे असंख्यात गुणश्रेणिनिर्जराके अविनाभावी हैं, इसलिये उन्हें 'महान् व्ययवाला' कहा है। यहां पर आया हुआ 'अपि' शब्द समुच्चयके अर्थमें जानना चाहिये। देव और मनुष्योंके सुखसे अधिक सुख का उत्पादक है, इसलिये ईर्यापथ कर्मको 'अत्यधिक सातारूप' कहा है। शंका- यहां सखका क्या लक्षण है? समाधान- सब प्रकारकी बाधाओंका दूर होना, यही प्रकृतमें उसका लक्षण है। इससे क्षीणकषाय और जिनोंमें भूख-प्यास आदि सब रोगोंका अभाव कहा गया है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । कहा भी है लोकमें जो कामसुख है और जो दिव्य महासुख है, वह वीतराग सुखके अनन्तवें भागके योग्य भी नहीं है ॥ ५॥ अब दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा-जलके बीच पडे हुए तप्त लोहपिण्डके समान ईर्यापथकर्म-जलको अपने सब जीवप्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्मके समान कैसे हो सकते हैं? ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिये यह कहा है कि ईर्यापथकर्म गृहीत हो कर भी वह गृहीत नहीं हैं, क्योंकि, वह सरागीके द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान पुनर्जन्मरूप संसार फलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। Bअ-आप्रत्योः 'मंदशब्द-' इति पाठः। ताप्रती 'महावयं' इति पाठः। -*- आताप्रत्यो: 'महारय मिदि' इति पाठः । ॐ ताप्रती ' कसायेसु परूविदो' इति पाठः । मूला. १२, १०३ Dताप्रतौ 'गाहाए अत्थो' इति पाठः। 9 ताप्रतौ 'अणंत (र) संसार' . ' विरोहादो' इति पाठः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२) छक्खंडागमे वगणा-चंड ( ५, ४, २४. व्व इरियावहकम्मेण अप्पाणं बंधमाणो जिणो ण देवो ति? ण, बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव, बिदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो पुणो पुव्वबद्धकम्माणं पि सगसहकारिकारणघादिकम्माभावेण अण्णसरीरसंठाणसंघडणादीणं णिवत्तणादिसत्तीए अमावादो। कम्मेहि पुटुस्स कधं देवत्तमिदि चे-ण, पुढें पि तंण पुढं चेव* ; इरियावहबंधस्स संतसहावेण जिणिदम्मि अवट्ठाणाभावादो। पुव्वसंतस्स पासो ण प्पासो, पदमाणत्तादो । जदि जिणसंतकम्म पदमाणं तो अक्कमेण किण्ण णिवददे? ण, दोत्तडीणं व बज्शकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदंताणमक्कमेण पदणविरोहादो । उदिण्ण-पंचिदिय-तस-बादर-पज्जत्तगोदाउकम्मो कधं जिणो देवो? ण, उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासि व्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो। इरियावहकम्मस्स लक्खणे भण्णमाणे सेसकम्माणं वावारो किमिदि परूविज्जदे? ण, इरियावहकम्मसहचरिदसेसकम्माणं पि इरियावहत्तसिद्धीए तल्लक्खणस्स वि इरियावहलक्खणत्तुववत्तीदो। असादवेदणीयं वेदयमाणो जिणो कधं णिरामओ रेशमके कीडे के समान ईर्यापथ कर्मसे अपने को बांधनेवाले जिन भगवान् देव नहीं हो सकते, ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं ही है, क्योंकि, दूसरे समयमें ही उसकी निर्जरा देखी जाती है, और पहलेके बांधे हुए कर्मों में भी उनके सहकारी कारण घातिया कर्मोंका अभाव हो जानेसे अन्य शरीर, संस्थान और संहनन आदिको उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं पाई जाती। जो कर्मोंसे स्पृष्ट है वह देव कैसे हो सकता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं ही है, कारण कि ईर्यापथबन्धका सत्त्वरूपसे जिनेन्द्र भगवान्के अवस्थान नहीं पाया जाता और पहलेके सत्कर्मके स्पर्शको स्पर्श मानना ठीक नहीं है. क्योंकि, उनका पतन हो रहा है।। शंका- यदि जिन भगवान्के सत्कर्मका पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता? समाधान- नहीं, क्योंकि, पुष्ट नदियोंके समान बँधे हुए कर्मस्कन्धोंके पतनको देखते हुए पतनको प्राप्त होनेवाले उनका अक्रमसे पतन मानने में विरोध आता है। जिनेन्द्र देवके पञ्चेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त, गोत्र और आयु कर्मकी उदय-उदीरणा पाई जाती है, इसलिये वे देव कैसे हो सकते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उनका कर्म उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि, वह दग्ध गेहूं के समान निर्बीजभावको प्राप्त हो गया है। शंका- यापथ कर्मका लक्षण कहते समय शेष कर्मोके व्यापारका कथन क्यों किया जा रहा है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, ईपिथके साथ रहनेवाले शेष कर्मों में भी यापथत्व सिद्ध हैं । ®ताप्रतौ 'पुणो' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । ति ( पुळं ति ) तण्ण घट्ट (पुट्ठ) चेव' इति पाठः। इति पाठः । ॐ आ-ताप्रत्योः 'दद्धणहम ' इति पाठः। *ताप्रतौ ‘कम्मेहि फुट्टस्स (पुटुस्स) चे ण, घट्टे *ताप्रतौ 'पुवसंतस्स पासो पदमाणत्तादो' ।। : Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २४. ) कम्माणुओगद्दारे इरियावहकम्मपरूवणा यहोवा ? ण, वेदिदं पि असादवेदणीयं ण वेदिदं; सगसहकारिकारणघादिकम्माभावेण दुक्खजण्णसत्तिविरोहादो । णिब्बीयपत्तेयसरीरस्सेव णिब्बीयअसादावेदणीयस्स उदओ किरण जायदे ? ण, भिण्णजादियाणं कम्माणं समाणसत्तिणियमाभावादो । जदि असादावेदणीयं णिष्फलं चैव, तो उदओ अस्थि त्ति किमिदि उच्चदे ? ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तदो । किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणि व्व पत्तणिबीभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागद उक्कस्साणुभाग दावेदणीय सहकारिकारणेण पडियउदयत्तादो वि । ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोच्छा थिउक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो । थिउक्कसंकमाभावे * सादासादागमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदित्ति भणिदेण, वोच्छिणसाद बंधम्म अजोगि म्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयइसलिये उनके लक्षण में भी ईयापथका लक्षण घटित हो जाता है | असातावेदनीयका वेदन करनेवाले जिनदेव आमय और तृष्णासे रहित कैसे हो सकते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, असातावेदनीय वेदित होकर भी वेदित नहीं है, क्योंकि, अपने सहकारी कारणरूप घातिकर्मोंका अभाव हो जानेसे उसमें दुःखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध आता है । शंका- निर्बीज हुए प्रत्येक शरीर के समान निर्बीज हुए असाता वेदनीयका उदय क्यों नहीं होता है ? ( ५३ समाधान- नहीं, क्योंकि, भिन्नजातीय कर्मोंकी समान शक्ति होने का कोई नियम नहीं है शंका- यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही हैं तो वहां उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? समाधान- - नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है । दूसरे सहकारी कारणरूप घाति कर्मों का अभाव होनेसे ही शेष कर्मों के समान असातावेदनीय कर्म न केवल निर्बीज भावको प्राप्त हुआ है, किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीयका बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभागयुक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होनेसे उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है । यदि कहा जाय कि बन्धके उदयस्वरूप रहते हुए सातावेदनीय कर्मकी गोपुच्छा स्तिवुक संक्रमणके द्वारा असातावेदनीयको प्राप्त होती होगी, सो यह भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है | शंका- यदि यहां स्तिवक संक्रमणका अभाव मानते हैं तो साता और असाताकी सत्त्वव्युच्छित्ति अयोगी अन्तिम समयमें होनेका प्रसंग आता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, साताके बन्धकी व्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगी गुणस्थान में साताके उदयका कोई नियम नहीं है । शंका- इस तरह तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्व* अ-आप्रत्योः ' गोच्छादी उक्कस्संक मेण ', ताप्रतौ ' गोकुच्छादी ( थी ) उक्कस्संकमेण ' इति पाठ: । प्रतिषु 'त्थी उस्सं कमाभावे ' इति पाठः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २५. कालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेलि मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुत्तणियमब्भुवगमादो।। संपहि तदियगाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा-णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिदं, सकसायकम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणंताणं कम्मक्खंधाणं बंधमकाऊण णिज्जिण्णतादो। सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे- ण, तस्स दिदि-अणुभागबंधाभावेण सुक्ककुडुपक्खित्तवालुवमुट्टि व्व जीवसंबंधबिदियसमए चेव णिवदंतस्स बंधववएसविरोहादो। उदीरिदं पि ण उदीरिदं, बंधाभावेण जम्मंतर पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो। एवमिरियावहलक्खणं तीहि गाहाहि परूविदं । जं तं तवोकम्मं णाम ॥ २५ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामोतं सब्भंतरबाहिरं बारसविहं तं सव्वं तवोकम्मं णाम ॥ २६ ॥ तं तवोकम्मं बाहिरमभंतरेण सह बारसविहं। को तवो णाम? तिणं रयणाण कोटि प्रमाण प्राप्त होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सयोगिकेवली गुणस्थानको छोडकर अन्यत्र उदयकालका अन्तमहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है। अब तीसरी गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- निर्जरित होकर भी वह (ईर्यापथ कर्म) निर्जरित नहीं है, क्योंकि, कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोकी निर्जरा होती है, वैसी अन्य अनन्त कर्मस्कन्धोंकी बन्धके बिना निर्जरा होती है। शंका- वहां सातावेदनीयका बन्ध है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के बिना शुष्क भीतपर फेकी गई मुट्ठीभर बालुकाके समान जीवसे सम्बन्ध होनेके दूसरे समयमें ही पतित हुए सातावेदनीय कर्मको बन्ध संज्ञा देने में विरोध आता है। उदीरित होकर भी वह उदीरित नहीं है, क्योंकि, बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव होनेसे उसमें निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता। इस प्रकार ईर्यापथका लक्षण तीन गाथाओं द्वारा कहा। अब तपःकर्मका अधिकार है ॥२५॥ उसके अर्थका खुलासा करते हैंवह आभ्यन्तर और बाह्यके भेदसे बारह प्रकारका है। वह सब तपःकर्म है ॥२६॥ वह तपःकर्म बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे बारह प्रकारका है। शंका- तप किसे कहते हैं ? प्रतिष ' सुक्ख' इति पाठः । ॐ अ-ताप्रत्योः 'जंमत', आप्रतौ 'जं अंत-' इति पाठः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा ( ५५ माविब्भावमिच्छाणिरोहो । तत्थ चउत्थ-छट्टम-दसम-दुवालस*-पक्ख-मास-उडुअयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ असणं णाम तवोल। किमेसणं? असण-पाणखादिय-सादियं । किमट्ठमेसो कोरदे ? पाणिदियसंजमठे, भुत्तीए उहयासंजमअविणाभावदसणादो। ण च चउविहआहारपरिच्चागो चैव असणं, रागादीहि सह तच्चागस्स असणभावब्भुवगमायो । अत्र श्लोकः अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणैः सह । उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।। ६ ॥ समाधान- तीन रत्नोंको प्रकट करने के लिये इच्छनिरोधको तप कहते हैं। उसमें चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋत, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग करना अनेषण नामका तप है। शंका- एषण किसे कहते हैं ? समाधान- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इनका नाम एषण है। शंका- यह किसलिये किया जाता है ? समाधान- यह प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयमकी सिद्धिके लिये किया जाता है, क्योंकि भोजनके साथ दोनों प्रकारके असंयमका अविनाभाव देखा जाता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकारके आहारका त्याग ही अनेषण कहलाता है। क्योंकि, रागादिकोंके त्यागके साथ ही उन चारोंके त्यागको अनेषण रूपसे स्वीकार किया है। इस विषयमें एक श्लोक है उपवासमें प्रवृत्ति नहीं करनेवाले जीवको अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करनेवालेको अनेक गुण, ऐसा यहां जानना चाहिये । शरीरके शोषण करनेको उपवास नहीं व.हते ॥ ६ ॥ __ विशेषार्थ- बारह प्रकारके तपोंमें पहला अनशन तप है। यहां इसका नाम अनेषण दिया है। एषणका अर्थ खोज करना है। साधु बुभुक्षाकी बाधा होनेपर चार प्रकारके निर्दोष आहारकी यथाविधि खोज करता है। इसलिये इसका एषण यह नाम सार्थक है। एषणा समितिसे भी यही अभिप्राय लिया गया है। अनशन यह नाम अशन नहीं करना, इस अर्थमें चरितार्थ है। इससे अनेषण इस नाममें मौलिक विशेषता है । एषणकी इच्छा न होनेपर साधु अनशनकी प्रतिज्ञा करता है, इसलिये अनेषण साधन है और अनशन उसका फल है । भोजनरूप क्रियाकी व्यावृत्ति अनशन है और भोजनकी इच्छा न होना अनेषण है। यहां 'अन् ' का अर्थ 'ईषत्' भी है। इससे यह अर्थ भी फलित होता है कि जो चार प्रकारके आहार में से एक, दो या तीन प्रकारके आहारका त्याग करते हैं उनके भी अनेषण तप माना जाता है। * रत्नत्रयाविर्भावार्थ मिच्छानिरोधस्तपः, अथवा कर्मक्षयार्थं मार्गाविरोधेन तप्यते इति तपः । चरित्रसार पृ. ५९. -*- आ-ताप्रत्यो: 'दुवादस' इति पाठः । ॐ मूला. ( पंचाचा.) १५१. असणं खुहप्पसमणं पाणाणमणुग्गहं तहा पाणं । खादंति खादियं पूण सादंति सादियं भगियं ।। मला (षडा) १४७. ताप्रतो' असणं' इति पाठः। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारो तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अवमोदरियमिदि भणिदं होदि । तत्थ ताव पयडिपुरिसित्थोणमाहार परूवणाए गाहा बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरणो भणिदो। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीस हवे कवला ॥७।। कि कवलपमाणं? सालितंदुलसहस्से डिदे जं* करपमाणं तं सव्वमेगो कवलो होदि । एसो पयडिपुरिसस्स कवलो परूविदो । एदेहि बत्तीसकवलेहि पयडिपुरिसस्स आहारो होदि, अट्ठावीसकवलेहि महिलियाए। इमं कवलमेदमाहारं च मोत्तूण जो जस्स पयडिकवलो पयडिआहारो सो च घेत्तत्वो। ण च सव्वेसि कवलो आहारो वा अवद्विदो अत्थि, एगकुडवतंडुलकूर जमाणपुरिसाणं एगगलत्थकूराहारपुरिसाणंच उवलंभादो। एवं कवलस्स वि अणवट्ठाणमुवलब्भदे । तम्हा अप्पप्पणो पयडिआहारादो ऊणाहारग्गहणणियमो ओमोदरिय तवो होदि त्ति सिद्धं। एसो तवो केहि कायन्वो? आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसमें प्रकृतिस्थ पुरुष और स्त्रियोंके आहारका कथन करते समय यह गाथा आती है उदरपूर्ति के निमित्त पुरुषका बत्तीस ग्रास और महिलाका अट्ठाईस ग्रास आहार कहा है ।७।। शंका- एक ग्रासका क्या प्रमाण है? समाधान- शाली धान्यके एक हजार चावलोंका जो भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुषका ग्रास कहा है। ऐसे बत्तीस ग्रासों द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुषका आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिलाका आहार होता है। प्रकृतमें इस ग्रास और इस आहारका ग्रहण न कर जो जिसका प्राकृतिक ग्रास और प्राकृतिक आहार है वह लेना चाहिये। कारण कि सबका ग्रास और आहार अवस्थित एक समान नहीं होता, क्योंकि, कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलोंके भातका और कितने ही पुरुष एक गलस्थ प्रमाण चावलोंके भातका आहार करते हुए पाये जाते हैं। इसी प्रकार ग्रास भी अनवस्थित पाया जाता है। इसलिये अपना अपना जो प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहारके ग्रहण करनेका नियम अवमौदर्य तप होता है, यह बात सिद्ध होती है। शंका- यह तप किन्हें करना चाहिये? समाधान- जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, जिन्हें आधे आहारकी * बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयडि आहारो। एगकवलादीहिं तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं ।। मूला. ( पंचा. ) १५३. अत्मीयप्रकृत्यौदनस्य चतुर्थभागेन अर्धन ग्रासेन बोनाहारनियमोऽवमोदर्यम् । चारित्रसार पृ ५९. *ताप्रतौ 'होदि' इति पाठः। Oभग. २११. * आप्रती 'सालितंदुलसहस्से कित्थे जं', ताप्रती 'सलिलतंदुलसहस्से जं' इति पाठः। ताप्रतौ 'चेव' इति पाठः। -ताप्रती 'कराहारपरिमाणं च' इति पाठः। आ-ताप्रत्यो: 'तहा' इति पाठः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (५७ पित्तप्पकोवेण उववासअक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजोवुवसमणवावदेहि वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगभीरुएहि वा । भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा वुत्ती णाम। तिस्से वुत्तीए परिसंखाणं गहणं वत्तिपरिसंखाणं णाम। एदम्मि वुत्तिपरिसंखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो वुत्तिपरिसंखाणं णाम तवो त्ति भगिदं होदि। एसा केहि कायव्वा ? सगतावोविसेसेण भव्वजणमुवसमेदूण सगरस -रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहूहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहरणचित्तेहि वा*। खीर-गुड-सप्पि-लवण-दधिआदओसरीरिदियरागादिवुड्ढिणिमित्ता रसा णाम। तेसि परिच्चाओ रसपरिच्चाओ। किमटमेसो कीरदे? पाणिदियसंजमठें। कुदो? अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोंको उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने उदरमें कृमिकी उत्पत्तिका निरोध करना चाहते हैं, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भंग होने का भय करते हैं; उन्हें यह अवमोदर्य तप करना चाहिये । ___ भोजन, भाजन, घर, वाट (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्तिका परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इस वृत्तिपरिसंख्यानमें प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण-नियंत्रण होता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका- यह किनको करना चाहिये ? समाधान- जो अपने तपविशेषके द्वारा भव्यजनोंको शान्त करके अपने रस, रुधिर और मांसके शोषण द्वारा इन्द्रियसंयमकी इच्छा करते हैं उन साधुओंको करना चाहिये। अथवा जो भाजन और भोजनादि विषयक रागादिको दूर करना चाहते हैं उन्हें करना चाहिये। शरीर और इन्द्रियोंमें रागादि वृद्धि के निमित्त भूत दूध, गुड, घी, नमक और दही आदि रस कहलाते हैं । इनका त्याग करना रसपरित्याग तप है। शंका- यह रस-परित्याग तप किसलिये किया जाता है ? । समाधान-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमकी प्राप्ति के लिये किया जाता है, क्योंकि, जिहवा अवमोदर्यमिति च किमर्थम् ? निद्राजयार्थं दोषप्रशमनार्थमतिमात्राहारजातविहितस्वाध्यायभयाथमुपवासश्रमसमुद्भुतवात-पित्तप्रकोपपरिहीयमानसंयमसंरक्षणार्थ च । आचारसार. पृ. ५९. 8 गोयरपमाणदायगभायणणाणाविधाण जं गहणं । सह एसणस्स गहणं विविधस्स य वृत्तिपरिसंखा ॥ मला( पचाचा ) १५७. * ताप्रतौ 'सगस्स-' इति पाठः। -* स्वकीयतपोविशेषेण रस-रुधिर-मांसशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयम परिपालयतो भिक्षार्थिनो मनेरेकागारसप्तवेश्मैकरथ्यार्धग्राम-दातजनवेष-गह-भाजन-भोजनादिविषयसंकल्पो वत्तिपरिसंख्यानमाशानिबत्त्यर्थमवगन्तव्यम् । चारित्रसार. प. ५९. खीर-दहि-सप्पि-तेल. गड-लवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्त-कड-कसायंबिलमधुर रसाणं च जं चयण ॥ मूला. (पंचा.) १५५. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. जिभिदिए णिरुद्ध सलिदियाणं णिरोहुवलंभादो, सलिदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिग्गहस्स णिरुद्ध राग-दोसस्स तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिमंडियस्स* वासी-चंदणसमाणस्स पाणासंजमणिरोहुवलंभादो । रुक्खमलब्भोकासादावणजोग-पलियंक-कुक्कुटासण-गोदोहद्धपलियंक-वीरासणमदय-सयण-मयरमुह-हत्थिसोंडादीहि जं जीव* दमणं सो कायकिलेसोल। किमट्ठमेसो कीरदे? सीद-वादादवेहि बहुदोववासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्झाणपरिचयळं, अभावियसीदबाधादिउववासादिबाहस्स मारणंतियअसादेण ओत्थअस्स ज्झाणाणुववत्तीदो। त्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाण-ज्झेयविग्घकारणेहि वज्जिय गिरिगुहा-कदर पब्भारसुसाण-सुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम । तत्थ सयणासणाभिग्गहो विवितसयणासणं णाम तवो होदि। किमट्टमेसो कीरदे ? असब्भजणदंसणेण इन्द्रियका निरोध हो जानेपर सब इन्द्रियों का निरोध देखा जाता है, और सब इन्द्रियोंका निरोध हो जाने पर जो परिग्रहका त्याग कर राग द्वेषका निरोध कर चुका है, जो त्रिगुप्तिगुप्त है, जो पांच समितियोंसे मण्डित है, और वसूला और चन्दन में समान बुद्धि रखता है उसके प्राणोंके असंयमका निरोध देखा जाता है । वृक्षके मलमें निवास, निरावरण प्रदेशमें आकाशके नीचे आतापन योग, पल्यंकासन, कुक्कुटासन, गोदोहासन, अर्धपल्यंकासन, वीरासन, मृतकवत् शयन अर्थात् मतकासन तथा मकरमख और हस्तिशुंडादि आसनों द्वारा जो जीवका दमन किया जाता है, वह कायक्लेश तप है। शंका- यह किसलिये किया जाता है ? समाधान- शीत, वात और आतपके द्वारा; बहुत उपवासों द्वारा; तृषा, क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यानका अभ्यास करनेके लिये किया जाता है। क्योंकि, जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदिको बाधाका अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असातासे खिन्न हुआ है उसके ध्यान नहीं बन सकता । ध्यान और ध्येयमें विघ्नके कारणभूत स्त्री, पशु और नपुंसक आदिसे रहित गिरिकी गफा, कन्दरा, पब्भार (गिरि-गुफा), स्मशान, शून्य घर, आराम और उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते हैं। वहां शयन और आसनका नियम करना विविक्तशयनासन नामका तप है। * अप्रतौ समिदिमंदियस्स', आप्रतौ 'समिदिदियस्स', ताप्रतौ । समिदियस्स' इति पाठः । शरीरेन्द्रियरागादिवृद्धिक रक्षीर-दधि-गुड-तैलादिरसत्यजनं रसपरित्याग इत्युच्यते। तत्किमर्थम् ? दुर्दान्तेन्द्रियतेजोहानि: संयमोपरोधनिवृत्तिरित्येवमाद्यर्थम् । चारित्रसार. पृ. ६०. *ताप्रतौ 'सोंडादीहि जीव ' इति पाठः । ॐ वृक्षामूलाभ्रावकाशातापनयोग-वीरासन-कुक्कुटासन-पर्यकार्धपर्यक-गोदोहन-मकरमखहस्तिशुण्डा -मृतयशयनैकपार्श्वदंडधनुशय्यादिभिः शरीरपरिखेदः कायक्लेश इत्युच्यते । आचारसार. पृ. ६०. 1 अप्रतौ बाधादब्बुव-', ताप्रतौ बाधादवुव-' इति पाठः । - प्रतिषु 'ओट्ठद्धस्स ' इति पाठः । Gध्यानाध्ययनविघ्नकरस्त्री-पश-षण्ढकादिपरिवजितगिरिगहा-कन्दर-पितवन-शन्यागारारामोद्यानादि-प्रदेशेष विविक्तेषु जन्तुपीडारहितेषु संवृत्तेषु संयतस्य शयनासनं विविक्तशय्यासनं नाम । आचारसार. पृ. ६०. . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा तस्सहवासेणय जणिदतिकालविसय राग-दोसपरिहरणट्ठं । अत्र श्लोक: बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने* ॥ ८ ॥ एवमेसो छव्विहो बाहिरतवो परुविदो । कथमेदस्स बज्झसण्णा ? अप्पणो पुधभूदेहि मिच्छ, इट्ठीहि वि णव्वदित्ति बज्झसण्णा । संपहि छव्विहअन्तरतवसरूवनिरूवणं कस्सामा । तं जहा- कयावराहेण ससंवेयणिव्वेण सगावराहणिरायरणट्ठे जमणुट्ठाणं कीरदि तं पायच्छित्तं णाम aatकम्मं । अत्र श्लोक: प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। ९ ।। अत्र ग्राहके ग्राह्योपचाराच्चित्तग्राहकस्य कर्मणश्चित्तव्यपदेशः । शंका- यह विविक्त शयनासन तप किसलिये किया जाता है ? समाधान- असभ्य जनोंके देखनेसे और उनके सहवाससे उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषों को दूर करनेके लिये किया जाता है । इस विषय में श्लोक है ( हे कुन्थु जिनेन्द्र ! ) आपने आध्यात्मिक तपको बढाने के लिये अत्यन्त दुश्चर बाह्य तपका आचरण किया और प्रारम्भके दो मलिन ध्यानोंको छोडकर अतिशयको प्राप्त उत्तरके दो ध्यानों में प्रवृत्ति की ॥ ८ ॥ इस प्रकार यह छह प्रकारका बाह्य तप कहा । शंका- इसकी ' बाह्य' संज्ञा किस कारणसे है ? ( ५९ समाधान- यह अपने से पृथग्भूत मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा भी जाना जाता है, इसलिये इसकी 'बाह्य' संज्ञा है | अब छह प्रकारके आभ्यन्तर तपके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा - संवेग और निर्वेदसे युक्त अपराध करनेवाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिये जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नामका तपःकर्म है । इस विषय में श्लोक है प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मनका है । इसलिये उस चित्तको ग्रहण करनेवाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ९ ॥ यहां ग्राहक में ग्राह्येका उपचार करके चित्त ग्राहक कर्मकी 'चित्त' संज्ञा दी है । * बृहत्स्व ८३. यतोऽन्यैस्तीर्थैरनभ्यस्तं ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम् । प्रायश्चित्तादितपो हि बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वादन्तःकरणव्यापाराच्चाभ्यन्तरम् । आचारसार. पृ. ६१. अ- आप्रत्यो ' भवे' इति पाठः । भग. ( मुलाराधना ) ५२९. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवन्त्यात्मविगर्हणेन । प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं * वदामि ॥ १० ॥ तं च पायच्छित्तमालोचणा-प्पडिक्कमण-उभय-विवेग-विउसग्ग-तव-च्छेदमूल-परिहार-स्सद्दहणभेदेण दसविहं। एत्थ गाहा अलोयण-पडिकमणे उभय-विवेगे तहा विउस्सग्गो। तवछेदो मूलं पि य परिहारी चेव सद्दहणा ॥ ११॥ गुरूणमपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरु व्व थिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्तं । गुरुणमालोचणाए विणा ससंवेग-णिव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि? अप्पावराहे गुरूहि विणा वट्टमाणम्हि होदि। सगावराहं गुरूणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छितं । एवं कत्थ होदि? दुस्सुमिणदंसणादिसु। गण-गच्छ-दव्व-खेत्तादीहितो ओसारणं विवेगो णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि? जम्हि ---------- अपनी गर्दा करनेसे, दोषोंका प्रकाशन करनेसे और उनका संवर करनेसे किये गय अतिदारुण कर्म कृश हो जाते हैं। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं ।।१०।। वह प्रायश्चित्त आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धानके भेदसे दस प्रकारका है । इस विषयमें गाथा आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान; य प्रायश्चित्तके दस भेद हैं ॥ ११॥ __अपरिस्रव अर्थात् आस्रवसे रहित, श्रुतके रहस्यको जानने वाले, वीतराग, और रत्नत्रयमें मेरुके समान स्थिर ऐसे गुरुओंके सामने अपने दोषोंका निवेदन करना आलोचना नामका प्रायश्चित्त है। गुरुओंके सामने आलोचना किये विना संवेग और निर्वेदसे युक्त साधुका 'फिरसे कभी ऐसा न करूंगा' यह कहकर अपराधसे निवृत होना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चि शंका- यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित कहांपर होता है ? समाधान- जब अपराध छोटासा हो और गुरु समीप न हों, तब यह प्रायश्चित होता है। अपने अपराधकी गुरुके सामने आलोचना करके गुरुकी साक्षिपूर्वक अपराधसे निवृत्त होना उभय नामका प्रायश्चित्त है। शंका-यह उभय प्रायश्चित्त कहांपर होता है? समाधान- यह दुःस्वप्न देखने आदि अवसरोंपर होता है। गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह विवेक प्रायश्चित्त कहांपर होता है ? * ताप्रतौ ' मृलाद्धरणं' इति पाठः। ताप्रतौ 'कथं' इति पाठः । ॐ मूला. (पंचाचा. ) १६५., आचारसार. पृ. ६१. - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि । उववासादीहि सह गच्छादिचागविहाणमेत्थेव णिवददि, उभयसद्दाणुवृत्तीदो। झाणेण सह कायमुज्झिदूण* मुहुत्त दिवस पक्ख-मासादिकालमच्छणं विउस्सग्गो नाम पायच्छित्तं । एत्थ वि दुसंजोगादीहि भंगुप्पत्ती वत्तव्वा; उभयसद्दस्स देसामासियत्तादो । सो कस्स होदि ? कयावराहस्स णाणेण दिट्ठणवटुस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहुस्स होदि । खवणायंबिलनिव्विsि - पुरिमंडलेयद्वाणाणि तवो णाम । एत्थ दुसंजोगा जोजेपव्वा । एदं कस्स होदि ? तिव्विदिस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि । दिवस - पक्ख मास - उदु-अयण-संवच्छ रादिपरियायं छेत्तूग इच्छिदपरियायादो हेमिभूमी ठवणं छेदो णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि ? उववासादिखमस्स समाधान- जिस दोषके होनेपर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह प्रायश्चित्त होता है । उभय शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे उपवास आदिकके साथ जो गच्छादिके त्यागका विधान किया जाता है उसका अन्तर्भाव इसी विवेक प्रायश्चित्तमें हो जाता है । कायका उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महिना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है । यहांपर भी द्विसंयोग आदिकी अपेक्षा भंगों की उत्पत्ति कहनी चाहिये, क्योंकि, उभय शब्द देशामर्शक है । शंका- यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसके होता है ? समाधान- जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अपने विमल ज्ञानसे नौ पदार्थों को समझता है, वज्रसंहननवाला है; शीतवात और आतपको सहन करनेमें समर्थ है; तथा सामान्य रूप से शूर है, ऐसे साधुके होता है । उपवास, आचाम्ल, निर्विकृति और दिवसके पूर्वार्ध में एकासन तप है। यहां द्विसंयोगी भंगों की योजना कर लेनी चाहिये । शंका- यह तप प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? ( ६१ समाधान- जिसकी इन्द्रियां तीव्र हैं, जो जवान है, बलवान् है और सशक्त है, ऐसे अपराधी साधुको दिया जाता है । एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तककी दीक्षा पर्यायका छेद कर इच्छित पर्यायसे नीचेकी भूमिका में स्थापित करना छेद नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह छेद प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? आ-ताप्रत्यो: ' उववादीहि ' इति पाठ: । प्रतिषु गच्छादि - भागविहाण' इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः सह मुज्झिदूण' इति पाठः । दुःस्वप्न-दुश्चिन्तन-मलौत्सर्जनागमातीचार नदी -महाटवीरणादिभिरन्यैश्चाप्यतीचारे सति ध्यानमवलम्ब्य कायमुत्सृज्यान्तर्मुहूर्त -दिवस- पक्ष- मासादिकालावस्थानं व्युत्सर्ग इत्युच्यते । आचारसार. पृ. ६३. अ-आप्रत्योः 'खवणायं बिलणिच्चिय दिपुरिमं देयद्वाणाणि ताप्रती णिश्वियडी पुरिमंडल आयंबिलमेयठाण खवणायल बिणिव्वियडिपुरिमंडेयद्वाणाणि ' इति पाठः । खममिदि । एसो तवोत्ति भणिओ तवोविहाण पहाणेहि ॥ छेदपिण्ड. २०३. " 1 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२) - छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि। सव्वं परियायमवहारिय पुणो दीक्खणं मल णाम पायच्छितं। एवं कस्स होदि? अवरिमियअवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसील-सच्छंदादिउव्वदुट्टियस्स होदि । परिहारो दुविहो अणवट्ठओ परंचिओ* चेदि। तत्थ अणवढओजहण्णेण छम्मासकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरंतो। कायभूमीदो परदो चेव कयविहारो पडिवंदणविरहिदो गरुवदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खवणायंबिलपुरिमड़ढेयवाणणिवियदीहि सोसिय-रस-रुहिर-मांसो होदि। जो सो पारंचिओ सो एवंविहो चेव होदि, किंतु समाधान- जिसने अपराध किया है तथा जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार बलवान् है, सब प्रकार शूर है और अभिमानी है, ऐसे साधुको दिया जाता है। समस्त पर्यायका विच्छेद कर पुनः दीक्षा देना मूल नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह मूल प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? समाधान- अपरिमित अपराध करनेवाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्गमें स्थित है, उसे दिया जाता है। परिहार दो प्रकारका है- अनवस्थाप्य और पारञ्चिक । उनमेंसे अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्तका जघन्य काल छह महीना और उत्कृष्ट काल वारह वर्ष है। वह कायमूमिसे दूर रह कर ही विहार करता हैं, प्रतिवन्दनासे रहित होता है, गुरुके सिवाय अन्य सब साधुओंके साथ मौनका नियम रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिन के पूर्वार्ध में एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीरके रस. रुधिर और मांसको शोषित करनेवाला होता है। पारञ्चिक तप भी इसी प्रकारका होता हैं । किन्तु इसे साधर्मी पुरुषोंसे रहित क्षेत्र में ताप्रतौ 'दिक्खणं' इति पाठः। ॐ पार्श्वस्थादीनां मूलं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा- पार्श्वस्थ: कुशीलः संसक्त. अवसन्न: मगचारित्र इति । तत्र यो वसतिष प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणानां पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । क्रोधादिकषायकलषितात्मा व्रत-गुण-शीलैः परिहीनः संघस्यानयकारी कुशील: । मंत्र: वैद्यक-ज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः । जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानाचरणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्नः। त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मगचारित्रः स्वच्छंद इति वा। एते पंचश्रमणा जिनधर्मबाह्याः । आचारसार. पृ. ६३. * अ-आप्रत्योः 'अणुवठ्ठवओ पारंभिओ', ताप्रतौ ‘अणुवट्टवओ पारंभि (चि ) ओ' इति पाठः। स प्रतिषु 'अणुवट्टओ' इति पाठः।-परिहारोऽनुपस्थान-पारचिकभेदेन द्विविधः। तत्रानुपस्थापनं निज-परगणभेदाद् द्विविधम् । प्रमादादन्यमुनि-संबंधिनमषि छात्रं गृहस्थं वा परपाखंडिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परास्त्रियं वा स्तेनयतो मनीन् प्रहरतो वा अन्यदपि एवमादिविरुद्धाचरितमाचरतो नव-दशपूर्वधरस्यादित्रिकसंहननस्य जितपरीषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति ।"दपादनन्तरोक्तान्दोषानाचरत परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवतीति । आचारसार पृ. ६४. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा साधम्मियवज्जियक्खेत्ते समाचरेयव्वो। एत्थ उक्कस्सेण छम्मासक्खवणं पि उवइठें। एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि रिदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहराणं होदि। __ मिच्छत्तं गंतूण ट्रियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसहहणा चेव सहहणं पायच्छित्तं*णाण-दसणचरित्त-तवोवयारभेएण विणओ पंचविहो। रत्नत्रयवत्सु नीचैवृत्तिविनयः। एदेसि विणयाणं लक्खणं सुगम ति ण भण्णदे। एदं विणओ णाम तवोकम्म। व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। तं च वेज्जावच्चं दसविहं-आइरिय-उवज्शायसाहु-तवस्सि-सिक्खुवगिलाण-कुल-गण-संघ-मणुण्णवेज्जावच्चं चेदितत्थ कुलं पंचविह-पंचथूहकुलं गुहावासीकुलं सालमूलकुलं असोगवाड कुलं खंडकेसरकुलं। तिपुरिसओ गणो। तदुवरि गच्छो। आइरियादिगणपेरंताणं महल्लावईए णिवदिदाणं समूहस्स जं बाहावणयणं तं संघवेज्जावच्चं णाम । आइरियहि सम्मदाणं गिहत्थाणं दिक्खाभिमुहाणं वा जं कीरदे तं मणुण्णवेज्जावच्चं णाम। एवमेदं सव्वं पि वेज्जावच्चं णाम तवोकम्म। आचरण करना चाहिये । इसमें उत्कृष्ट रूपसे छह मासके उपवासका भी उपदेश दिया गया है। ये दोनों ही प्रकारके प्रायश्चित्त राजाके विरुद्ध आचरण करनेपर नौ और दस पूर्वोको धार करनेवाले आचार्य करते हैं। मिथ्यात्वको प्राप्त होकर स्थित हुए जीवके महाव्रतोंको स्वीकार कर आप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान करनेपर श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त होता है। ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और उपचारके भेदसे विनय पांच प्रकारका है। रत्नत्रयको धारण करनेवाले पुरुषोंके प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है । इन विनयोंका लक्षण सुगम है, इसलिये यहां नहीं कहते हैं। यह विनय नामक तपःकर्म है । आपत्तिके समय उसके निवारणार्थ जो किया जाय वह वैयावृत्य नामका तप है। आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, शैक्ष, उपग्लान, कुल, गण, संघ और मनोज्ञोंकी वैयावृत्यके भेदसे वह वैयावृत्य तप दस प्रकारका है। उनमें कुल पांच प्रकारका है-पञ्चस्तूंप कुल, गुफावासी कुल, शालमूल कुल, अशोकवाट कुल और खण्डकेशर कुल । तीन पुरुषोंके समुदायको गण कहते हैं और इसके आगे गच्छ कहलाता है। महान् आपत्तिमें पडे हुए आचार्य से लेकर गण पर्यंत सर्व साधुओंके समूहकी बाधा दूर करना संघवैयावृत्य नामका तप है। जो आचार्यों द्वारा सम्मत हैं और जो दीक्षाभिमुख गृहस्थ हैं उनकी वैयावृत्य करना वह मनोज्ञवैयावृत्य नामका तप है। इस प्रकार यह सव वैयावृत्य नामका तप है। तीर्थंकर-गणधर-गणि-प्रवचन-संघाद्यासादनकारकस्य नरेन्द्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्तदीक्षस्य नपकुलवनितासेवितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदुषकस्य पारचिकं प्रायश्चित्तं भवति । आचारसार प. ६४.*मिथ्यात्वं गत्वा स्थितस्य पुनरपि गृहीतमहाव्रतस्य आप्तागम-पदार्थानां श्रद्धानमेव प्रायश्चित्तम् । आचारसार. प. ६४. ॐ तत्त्वा. ९-२४. ताप्रतौ' महल्लावए' इति पाठः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २६. अंगंगबाहिरआगमवायण-पुच्छणाणुपेहा-परियटुण-धग्मकहाओ सज्झायो णाम। उत्तमसंहननस्य एकाग्रचितानिरोधो ध्यानम् । एत्थ गाहा जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलंतयं * चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ।। १२॥ तत्थ झाणे चत्तारि अहियारा होंति-ध्याता व्ययं ध्यानं ध्यानफलमिति तत्थ उत्तमसंघडणो ओघबलो ओघसूरो चोद्दसपुव्वहरो वा दस-णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगयणवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। जदि णवपयत्थविसयणाणेणेव ज्झाणस्स संभवो होइ तो चोद्दस-दस-णवपुव्वधरे मोत्तूण अण्णेसि पि ज्झाणं किण्ण संपज्जदे, चोदस-दस-णवपुव्वेहि विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो? ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोतूण अण्णेसिमुवायाभावादो। जीवाजीवपुण्ण-पाव-आसव-संवर-णिज्जरा-बंध-मोक्खेहि णवहि पयत्थेहि वदिरित्तमण्णं ण कि पि अस्थि, अणुवलंभादो। तम्हा ण थोवेण सुदेण एदे अवगंतुं सक्किज्जते, विरोहादो। अंग और अंगबाह्य आगमकी वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्मकथा करना स्वाध्याय नामका तप है। उत्तम संहननवालेका एकाग्र होकर चिन्ताका निरोध करना ध्यान नामका तप है। इस विषयमें गाथा जो परिणामोंकी स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है और जो चित्तका एक पदार्थसे दुसरे पदार्थमें चलायमान होना है वह या तो भावना है या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है ।। १२ ।। ध्यानके विषय में चार अधिकार हैं-ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल। (१) जो उत्तम संहननवाला, निसर्गसे बलशाली, निसर्गसे शूर, चौदह पूर्वोको धारण करनेवाला या नौ दस पूर्वोको धारण करनेवाला होता है वह ध्याता है; क्योंकि, इतना ज्ञान हुए विना जिसने नौ पदार्थोंको भले प्रकार नहीं जाना है उसके ध्यानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। शंका- यदि नौ पदार्थ विषयक ज्ञानसे ही ध्यानकी प्राप्ति सम्भव है तो चौदह, दस और नौ पूर्वधारियोंके सिवा अन्यको भी वह ध्यान क्यों नहीं प्राप्त होता; क्योंकि, चौदह, दस और नौ पूर्वोके विना स्तोक ग्रन्थसे भी नौ पदार्थविषयक ज्ञान देखा जाता है। समाधान- नहीं, क्योंकि, स्तोक ग्रन्थसे बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियोंको जानने का अन्य कोई साधन नहीं है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ; इन नौ पदार्थोके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि, इनके सिवा अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। इसलिये स्तोक श्रुतसे इनका ज्ञान करना शक्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। और ॐ तत्त्वा. ९-२७. * आ-ताप्रत्योः 'चलत्तयं' इति पाठः। 6 प्रतिषु 'ध्याताध्येयध्यानध्यानफलमिति' इति पाठ: । आ-ताप्रत्यो: 'चोदसम्बहरो वा' इति पाठः। -अ-आप्रत्योः ‘मणण्ण इति पाठः । . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा ( ६५ ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोलिंग भदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेसणवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडि-उवसमसेडीणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस दस-णवपुव्वहरा पुण धम्म-सुक्कज्झाणाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसि चेव एत्थ णिद्देसो कदो। ___सम्माइट्ठी- ण च णवपयत्थविसयरुइ-पच्चय-सद्धाहि विणा झाणं संभवदि, तप्पत्तिकारणसंवेग-णिवेयाणं अण्णत्थ असंभवादो। चत्तासेसबझंतरंगगंथो- खेत्तवत्थु-धण-धण्ण-दुवय-चउप्पय-जाण-सयणासण-सिस्स-कुल-गण-संघेहि जणिदमिच्छत्त -कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय-दुगुंछा-त्थी-पुरिस-णवंसयवेदादिअंतरंगगंथकंखापरिवेढियस्स सुहज्झाणा*णुवधत्तीदो । एत्थ गाहा ज्झाणिस्स लक्खणं से अज्जव-लहुअत्त-वुड्ढवुवएसा*। उवएसाणासुत्त णिस्सग्गगदाओ रुचियो से ।। १३ ।। द्रव्यश्रुतका यहां अधिकार नहीं है, क्योंकि, ज्ञान के उपलिंगभूत पुद्गलके विकार स्वरूप जड वस्तुको श्रुत मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि स्तोक द्रव्यश्रुतसे नौ पदार्थों को पूरी तरह जान कर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियोंके ध्यान नहीं माननेसे मोक्षका अभाव प्राप्त होता है, तो इसपर यह कहना है कि स्तोक ज्ञानसे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिके अयोग्य धर्म ध्यान ही होता है। परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वोके धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानोंके स्वामी होते हैं, क्योंकि, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिये उन्हींका यहां निर्देश किया है। (२) वह (ध्याता) सम्यग्दृष्टि होता है। कारण कि नौ पदार्थ विषयक रुचि, प्रतीति और श्रद्धाके विना ध्यानको प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसकी प्रवृत्तिके मुख्य कारण संवेग और निर्वेद अन्यत्र नहीं हो सकते। (३) वह (ध्याता) समस्त बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्यागी होता है, क्योंकि, जो क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, शिष्य, कुल, गण और संघके कारण उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद आदि अन्तरंग परिग्रहकी कांक्षासे वेष्टित है उसके शुभ ध्यान नहीं बन सकता । इस विषयमें गाथा जिसकी उपदेश, जिनाज्ञा और जिनसूत्रके अनुसार आर्जव, लघुता और वृद्धत्व गुणसे युक्त स्वभावगत रुचि होती है वह ध्यान करनेवाले का लक्षण है ।। १३ ।। अ-अ.प्रत्योः 'जलस्स मामोलिंग',ताप्रती 'जलस्स माभोवलिंग' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो 'मिछति' इति पाठः । ॐ अप्रती गाथकथा-', आप्रतौ 'गत्थवि कंक्खा', ताप्रती · गंथाविकंधा' इति पाठः । * अ-आप्रत्यो: 'सुहजाणा-' इति पाठः । * आप्रतौ ' वुवएसो' इति पाठः 0 अप्रतौ .."रुनीयासे', आप्रतौ ‘णासुतणिस्ससगं जगदाओ रुच्चियो सेसो' इति पाठः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवखंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, २६. विवित्तपासु अगिरि- गुहा -कंदर- पब्भार- सुसाण- आरामुज्जाणादिदेसत्थो - अण्णत्थ मणो विक्खवहेदुवत्थु दंसणेण सुहज्झाणविणा सप्पसंगादो । जहासुहत्थो - असुहासणे द्वियस्स पीडियंगस्स ज्झाणवाघादसंभवादो । एत्थ गाहा ६६) जच्चिय देहावत्था जया ण ज्झाणावरोहिणी होइ । झज्जो तदवत्थोट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा ॥ १४ ॥ अणियदकालो - सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहा ( ४ ) वह ( ध्याता ) एकान्त और प्रासुक ऐसे पहाड, गुफा, कन्दरा, पब्भार (गिरिगुफा) स्मशान, आराम और उद्यान आदि देशमें स्थित होता है, क्योंकि, अन्यत्र मनके विक्षेपके हेतुभूत पदार्थ दिखाई देने से शुभ ध्यानके विनाशका प्रसंग आता है | सव्वा वट्टमाणामुणओ जं देस-काल- चेट्ठासु । वरकेवलादिलाहं पत्ता बहुसो खवियपावा ॥ १५ ॥ तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणो वयण- कायजोगाणं भूदोवधाय रहिओ सो देसो ज्झायमाणस्स ॥ १६ ॥ णिच्चं विय-जुवइ*-पसू णवुंसय-कुसीलवज्जियं जइणो । द्वाणं वियणं भणियं विसेसदो ज्झाणकालम्मि ।। १७ ।। ( ५ ) वह ( ध्याता ) अपनी सुखासन अर्थात् सहजसाध्य आसन से बैठता है, क्योंकि, असुखासन से बैठने पर उसके अंग दुखने लगते हैं जिससे ध्यानमें व्याघात होना सम्भव रहता है इस विषय में गाथा - जैसी भी देहकी अवस्था जिस समय ध्यानमें बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खडा होकर या बैठकर कायोत्सर्गपूर्वक ध्यान करे ॥ १४ ॥ ( ६ ) उस ( ध्याता ) के ध्यान करने का कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि, सर्वदा शुभ परिणामों का होना सम्भव है । इस विषय में गाथायें हैं सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं में विद्यमान मुनि अनेकविध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञान आदिको प्राप्त हुए ।। १५ ।। मनोयोग, वचनयोग और काययोगका जहां समवधान हो और जो प्राणियोंके उपघातसे ( अर्थात् एकाग्रता ) रहित हो वही देश ध्यान करनेवालेके लिये उचित है ।। १६ । [ जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनोंसे रहित हो और जो निर्जन हो; यति जनोंको विशेषरूपसे ध्यानके समय ऐसा ही स्थान उचित माना है ।। १७ ।। Q तातो 'हेडवत्थु ' इति पाठः । ॐ अ-आप्रत्योः 'ज्झाणोवरोहणी' इति पाठः । जोग्गाणं ' इति पाठः । तातो 'वि य जुवइ' इति पाठः । प्रतिषु Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणेसु णिच्चलमणाणं । गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रणे य ण विसेसो ॥ १८ ॥ कालो वि सो च्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । ण उ दिवस णिसावेलादिणियमणं ज्झाइणो समए ।।१९।। तो देसकालचेट्टाणियमो झाणस्स णत्थि समयम्मि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं ।। २० ।। सालंबणो- ण च आलंबणेण विणा ज्झाण-पासायारोहणं संभवइ, आलंबणभूदणिस्सेणिआदी हि विणा पासादादिमारोहमाणपुरिसाणमणुवलंभादो । एत्थ गाहा आलंबणाणि वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहाओ। सामाइयादियाइं सव्वं आवासयाइं च ।। २१ ।। विसमं हि समारोहइ दिढदव्वालंबणो* जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ ।। २२ ।। सुठ्ठ त्तिरयणेसु भावियप्पा । ण च भावणाए विणा ज्झाणं संपज्जइ, एगवारेणेव बुद्धीए थिरत्ताणुववत्तीदो । एत्थ गाहा परन्तु जिन्होंने अपने योगोंको स्थिर कर लिया है और जिसका मन ध्यानमें निश्चल हैं ऐसे मुनियोंके लिये मनुष्योंसे व्याप्त ग्राम और शून्य जंगलमें कोई अन्तर नहीं है ॥ १८॥ काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीतिसे योगका समाधान प्राप्त होता है। ध्यान करनेवालेके लिए दिन, रात्रि और वेला आदि रूपसे समयमें किसी प्रकारका नियमन नहीं किया जा सकता ॥ १९ ॥ ध्यानके समयमें देश, काल और चेष्टाका भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वतः जिस तरह योगोंका समाधान हो उस तरह प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥ २० ॥ (७) वह (ध्याता) आलम्बनसहित होता है। आलम्बनके विना ध्यानरूपी प्रासादपर आरोहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, आलम्बनभूत नसैनी अ.दिके विना पुरुषोंका प्रासाद आदिपर आरोहण करना नहीं देखा जाता । इस विषयमें गाथा है वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और सामायिक आदि सब आवश्यक कार्य; ये सब ध्यानके आलम्बन हैं ॥ २१ ॥ जिस प्रकार कोई पुरुष नसनी आदि दृढ द्रव्यके आलम्बनसे विषम भूमिपर भी आरोहण करता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदिके आलम्बनसे उत्तम ध्यानको प्राप्त होता है ।। २२।। (८) वह (ध्याता) भले प्रकार रत्नत्रयको भावना करनेवाला होता है। भावनाके विना ध्यानकी प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि, केवल एक वार में ही बुद्धि में स्थिरता नहीं आती। इस विषयमें गाथा है ताप्रती 'वेलाणियमणं' इति पाठ: *ताप्रती 'पि समारो 8 प्रतिषु 'जोग्गाण' इति पाठः। पाइददव्याल बणो' इति पाठः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड पुव्वकभासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ य णाण- दंसण चरित्त वे रग्गज णियाओ ।। २३ ।। णाणे णिच्च भासो कुणइ मणोवारणं विद्धि च । णाणगुणमुणियसारो तो ज्झायइ णिच्चलमईओ ॥ २४ ॥ संकाइसल्लरहियो पसमत्थेयादिगुणगणोवईयो । होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए ज्झाणम्मि ।। २५ ।। वकम् माणादाणं पोराणवि णिज्जरा सुहादाणं । चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ ।। २६ ।। सुविदियजयस्सहावो णिस्संगो णिब्भयो णिरासो य । वेरग्भावियमणो ज्झाणम्मि सुणिच्चलो होइ ॥ २७ ॥ विहितो दिट्ठ णिधिऊण ज्झेये णिरुद्ध चित्तो । कुदो? विसएसु पसरतदिद्विस् थिरत्ताणुववत्तीदो। एत्थ गाहाओ किंचिद्दिट्टिमुपावत्तत्तु ज्झेये णिरुद्धदिट्ठीओ । अप्पाणम्मि सदि संधित्तुं संसारमोक्ख ॥। २८ ।। ६८) जिसने पहले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यानकी योग्यताको प्राप्त होता है और वे भावनायें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं ॥ २३ ॥ जिसने ज्ञानका निरन्तर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह और विशुद्धिको प्राप्त होता है, क्योंकि, जिसने ज्ञानगुणके बलसे सारभूत वस्तुको जान लिया हैं वही निश्चलमति हो ध्यान करता है ।। २४ ।। ( ५, ४, २६. जो शंका आदि शल्योंसे रहित है, और जो प्रशम तथा स्थैर्य आदि गुणगणोंसे उपचित है, वही दर्शनविशुद्धि बलसे ध्यान में असंमूढ मनवाला होता है ।। २५ ।। कर्मोंका ग्रहण नहीं होता, ।। २६ । चारित्र भावनाके बलसे जो ध्यान में लीन है उसके नूतन पुराने कर्मोंकी निर्जरा होती है, और शुभ कर्मोंका आस्रव होता है जिसने जगत् के स्वभावको जान लिया है, जो निःसंग है, निर्भय है, सब प्रकारकी आशाओंसे रहित है और वैराग्य की भावनासे जिसका मन ओतप्रोत है वही ध्यानमें निश्चल होता है ।। २७ ।। ( ९ ) वह ( ध्याता) विषयोंसे दृष्टिको हटाकर ध्येय में चित्तको लगानेवाला होता है, क्योंकि, जिसकी दृष्टि विषयों में फैलती है उसके स्थिरता नहीं बन सकता । इस विषय में गाथायें - जिसकी दृष्टि ध्येय में रुकी हुई है वह बाह्य विषयसे अपनी दृष्टिको कुछ क्षणके लिए हटा कर संसारसे मुक्त होने के लिए अपनी स्मृतिको अपने आत्मा में लगावे ॥ २८ ॥ * तातो' णाणे च णिच्चभासो' इति पाठः । * तातो' णाणागुण' इति पाठः । प्रतिपु ' सल्लगहियो' इति पाठः । अप्रतौ 'सदिदित्तुं', आप्रती 'सदिस्संदित्तु', ताप्रतौ ' सदिस्सदित्तु इति पाठः । भग. १७०६. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाइं मणं च तेहितो।। अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि. ॥२९ ।। एवं ज्झायंतस्स लक्खणं परूविदं। मंपहि ज्झयपरूवणं कीरदे-को ज्झाइज्जइ? जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो* णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो अदज्झो अछेज्जो अवत्तो णिरंजणो णिरामओ अणवज्जो सयलकिलेसुम्मुक्को तोसवज्जियो वि सेवयजणकप्परुक्खो, रोसवज्जिओ वि सगसमयपरम्मुहजीवाणं कयंतोवमो, सिद्धसज्झो जियजेयो संसार-सायहतिण्णो सुहामियसायरणिबुड्ढासेस* करचरणो णिच्चओ णिरायुहभावेण जाणावियपडिवक्खाभावो सव्वलक्खणसंपुण्णदप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावृत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ। द्रव्यत: क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा । सिद्धाष्टगृणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः ॥ ३० ।। बारसगुणकलियो । एत्थ गाहा इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर और मन को भी विषयोंसे दूर कर समाधिपूर्वक उस मनको अपने आत्मामें लगावे ।। २९ ।। इस प्रकार ध्यान करनेवालेका लक्षग कहा । अब ध्येयका कथन करते हैंशंका- ध्यान करने योग्य कौन है ? समाधान- जो वीतराग है, केवलज्ञानके द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित छह द्रव्योंको जान लिया है, नौ केवल लब्धि आदि अनन्त गुणोंके साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देहको धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनिसम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य हैं, अव्यक्त है, निरंजन है, निरामय है, अनवद्य है, समस्त क्लेशोंसे रहित है, तोष गणसे रहित होकर भी सेवक जनोंके लिये कल्पवृक्षके समान हैं, रोषसे रहित होकर भी आत्मधर्मसे पराङमुख हुए जीवोंके लिये यमके समान है, जिसने साध्यकी सिद्धि कर ली है जो जितजेय है, संसार-सागरसे उत्तीर्ण है, जिसके हाथ-पैर सुखामृत-सागर में पूरी तरहसे डुबे हुए हैं, नित्य है, निरायध हानसे जिसने उसका कोई प्रतिपक्षा नहा है इस बातका जताया है,समस्त परिपूर्ण है अतएव दर्पण में संक्रान्त हुई मनुष्य की छायाके समान होकर भी समस्त मनुष्योंके प्रभावसे परे हैं, अव्यक्त है, अक्षय है। सिद्धोंके आठ गुण होते हैं। उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार गुण मिलानेपर बारह गुण माने गये हैं ।। ३०॥ इस प्रकार जो बारह गुणोंसे विभूषित है। इस विषय में गाथा ताप्रतौ पच्छाहरित ' इति पाठः। - भग. १७०७. *ताप्रती 'पज्जाओ, उवचियछदव्वो' इति पाठः । ॐ आ-ताप्रत्योः 'अजरो अजोणिसंभवो' इति पाठः। * अ-आप्रत्योः ‘णिव्वद्धासेस' ताप्रतौ ‘णिबुद्धा (ड्डा ) सेस' इति पाठः। 5 अप्रतौ ‘णि रावहभावेण', आ-ताप्रत्योः 'णिराभावेण ' इति पाठः । ताप्रती 'माणुस सहावृत्तिण्णो' इति पाठः। आ-काप्रत्योः 'अक्खओ' इत्यतः पश्चात् 'बारस' इत्येतदधिक पदम्पलभ्यते। आप्रती 'वारसरसगणकलियो', ताप्रतो 'गणरसकलियो' इति पाठः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड अकसायमवेदत्तं* अकारयत्तं विदेहदा चेव । अचलत्तमलेपत्तं च होंति अच्चंतियाइं से ॥ ३१ ॥ सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झयं होति। कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो? ण, तेसिं रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो। उत्तं च __ आलंबणेहि भरियो ले गो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स । जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ® 11 ३२ ।। बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडि-खवगसेडिचडणविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरियट्टाणि दिदि-अणुभाग-पयडि-पदेसादि सव्वं पि ज्झयं होदि त्ति दट्टव्वं । एवं ज्झेयपरूवणा गदा। झाणं दुविहं-धम्मज्झाणं सुक्कज्झाणमिदि । तत्थ धम्मज्झाणं ज्झेयभेदेण चउविहं होदि-आणाविचओ अपायविचओ विवागविचओ संठाणविचओ चेदि । तत्थ आणा णाम आगमो सिद्धंतो जिणवयणमिदि एयट्ठो। एत्थ गाहाओ अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व ; ये सिद्धोंके अत्यन्तिक गुण होते हैं ॥३१॥ जिन जीवोंने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापोंका नाश करनेवाला ऐसा जिन देव ध्यान करने योग्य है। अथवा जिन द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं। शंका- जब कि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं अर्थात् अतिशय रहित होते हैं ऐसी हालतमें वे कर्मक्षयके कर्ता कैसे हो सकते है? समाधान- नहीं, क्योंकि, वे रागादिकके निरोध करने में निमित्त कारण है इसलिये उन्हें कर्मक्षयका निमित्त मानने में कोई विरोध नहीं आता । कहा भी है यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे भरा हआ है। ध्यान में मन लगानेवाला क्षपक मनसे जिस जिस वस्तुको देखता है वह वह वस्तु ध्यानका आलम्बन होती है ।। ३२ ।। बारह अनुप्रेक्षायें, उपशमश्रेणि और क्षपक श्रेणिपर आरोहणविधि, तेईस वर्गणायें, पांच परिवर्तन, स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य अर्थात् ध्येय होते हैं। ऐसा यहां जानना चाहिये । इस प्रकार ध्येयका कथन समाप्त हुआ। ध्यान दो प्रकारका है- धर्मध्यान और शुक्लध्यान । उनमें से धर्मध्यान ध्येयके भेदसे चार प्रकारका है- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। यहांपर आज्ञासे आगम, सिद्धान्त और जिनवचन लिए गये हैं; क्योंकि, ये एकार्थवाची शब्द है । इस विषयमें गाथायें हैं *ताप्रती ' अकसायत्तमवेदत ' इति पाठः। 8 प्रतिषु · अचलत्तमलेयत्तं ' इति पाठः । भग. २१५७. ॐ भग. १८७६. . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा सुणिउणमणाइणिहणं भूदहिदं भूदभावणमणग्छ । अमिदमजिदं महत्थं महाणुभावं महाविसयं ।। ३३ ।। ज्झाएज्जो णिरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । अणि उणजणदुण्णेयं णयभंगपमाणगमगहणं ॥३४ ।। एसा आणा। एदीए-आणाए पच्चक्खाणुमाणादिपमाणाणमगोयरत्थाणं जं ज्झाणं सो आणाविचओ णामज्झाणं । एत्थ गाहाओ तत्थ मइदुब्बलेण य तन्विज्जाइरियविरहदो* वा वि। णेयगहणत्तणेण य णाणावरणादिएणं च ।। ३५ ।। हेद्दाहरणासंभवे य सरि-सुठ्ठज्जाणबुज्झज्जो। सव्वणुमयमवितत्थं तहाविहं चितए मदिमं ॥ ३६ ।। अणुवगयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा । जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण ।। ३७ ।। पंचस्थिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ।। ३८ ।। जो सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगत्के जीवोंका हित करनेवाली हैं, जगत्के जीवों द्वारा सेवित है, अमूल्य है, अमित है, अजित है, महान् अर्थवाली है, महानुभाव हैं, महान् विषयवाली है, निरवद्य है, अनिपुण जनोंके लिये दुर्जेय है और नयभंगों तथा प्रमाणागमसे गहन है; ऐसी जगके प्रदीपस्वरूप जिन भगवान्की आज्ञाका ध्यान करना चाहिये ॥ ३३-३४॥ __यह आज्ञा है। इस आज्ञाके बलसे प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणागमके विषयभूत पदार्थों का जो ध्यान किया जाता है वह आज्ञाविचय नामका ध्यान है । इस विषयमें गाथायें मतिकी दुर्बलता होनेसे, अध्यात्म 'विद्याके जानकार आचार्योंका विरह होनेसे, ज्ञेयकी गहनता होनेसे, ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मकी तीव्रता होनेसे, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होनेसे नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थानमें मतिमान् ध्याता 'सर्वज्ञप्रतिपादित मत सत्य है ' ऐसा चिन्तवन करे ॥ ३५-३६ ।। यतः जगमें श्रेष्ठ जिन भगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवोंका भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं और उन्होंने राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त कर ली है। इसलिये वे अन्यथावादी नहीं हो सकते ॥ ३७॥ पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय. काल द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं उनका यह आज्ञाविचय ध्यानके द्वारा चिन्तवन करता है ।। ३८।। ®आ-ताप्रत्योः ‘णयभंगसमाणगमगमणं' इति पाठः। ॐ ताप्रती 'ज्झायण' इति पाठः -*- आ-ताप्रत्योः 'विरहिदो' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो: 'सठ्ठजण्ण' इति पाठः। ताप्रती 'सव्वण्ण. मयवितत्थ' इति पाठ: ।-अप्रतौ 'छज्जीवणिकाइए' इति पाठः । मला. (पंचाचा.) २०२. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदकम्मसमुप्पण्णजाइ-जरा-मरणवेयणाणुसरणं तेहितो अवाचितणं च अवायविचयं णाम धम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ रागबोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी ।। ३९ ।। कल्लाणपावए जे उवाए विचिणादि जिणमयमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाणं जे सुहा असुहा* ।। ४० ।। कम्माणं सुहासुहाणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसभएण चउन्विहाणं विवागाणुसरणं विवागविचयं णाम तदियधम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ पयडिटिदिप्पदेसाणुभागभिण्णं सुहासुहविहत्तं । जोगाणुभागजणिय कम्मविवागं विचितेज्जो ।। ४१॥ एगाणेगभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदो रणसंकमबध मोक्खं च विचिणादी* ।। ४२ ॥ तिण्णं लोगाणं संठाण-पमाणाउयादिचितणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगोंके निमित्तसे कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्तसे जाति, जरा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं ; ऐसा चिन्तवन करना और उनसे अपायका चिन्तन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान हैं । इस विषयमें गाथायें पापका त्याग करनेवाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवोंके इहलोक और परलोकसे अपायका चिन्तवन करे ।। ३९ ।।। अथवा जिनमतको प्राप्त कर कल्याण करनेवाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है । अथवा जीवोंके जो शुभाशुभ भाव होते हैं उनसे अपायका चिन्तवन करता है ।। ४० ।। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके शुभाशुभ कर्मोके विपाकका चिन्तवन करना विपाकविचय नामका तीसरा धर्मध्यान है। इस विषयमें गाथायें ___ जो प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागोंमें विभक्त है, जो शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है तथा जो योग और अनुभाग अर्थात् कषायसे उत्पन्न हुआ है ऐसे कर्मके विपाकका चिन्तवन करे ।। ४१ ।। जीवोंको जो एक और अनेक भवमें पुण्य और पाप कर्मका फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्षका चिन्तवन करता है ।। ४२ ।। तीनों लोकोंके संस्थान, प्रमाण और आयु आदिका चिन्तवन करना संस्थानविचय नामका चौथा धर्म्यध्यान हैं । इस विषय में गाथायें * भग. १७११ मूला. ( पंचाचा ) २०३. ( तत्र चतुर्थचरणम् - जीवाण सुहे य असुहे ). @ मुद्रितप्रतौ 'एगाणेगमवगयं' इति पाठः । ॐ प्रतिषु 'बंध' इति पाठः । * भग. १७१३., मूला. (पंचाचा.) २०४. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) ( ७३ कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाई। उप्पाद-द्विदिभंगादिपज्जया जे य दव्वाणं ॥ ४३ ।। पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं । णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादि ।। ४४ ।। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाणभवणादिसंठाणं । वोमादिपडिट्ठाणं णिययं लोगट्ठिदिविहाणं ।। ४५ ।। उवजोगलक्षणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीदादो। जीवमरूवि कारि भोइं च सयस्स कम्मस्स ।। ४६ ॥ तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं । वसणसयसावमीणं * मोहावत्तं महाभीमं ।। ४७ ।। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचितेज्जो ॥ ४८।। कि बहसो सव्वं चि य जोवादिपयत्थवित्थरो वेयं । सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं ॥ ४९ ।। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादिचिंतणापरमो । होइ सुभावियचित्तो-*- धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं ।। ५० ॥ जिनदेवके द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहनेका स्थान, भद, प्रम तथा उनकी उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि रूप पर्यायोंका; पांच अस्तिकायमय, अनादिनिधन, मादि अनेक भेदरूप और अधोलोक आदि भागरूपसे तीन प्रकारके लोकका; तथा पृथिवीवलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदिके संस्थानका; एवं आकाशमें प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेदका चिन्तवन करे ।। ४३-४५ ।। जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीरसे भिन्न है, अरूपी है तथा अपने कर्मोका कर्ता और भोक्ता है। ऐसे उस जीवके कर्मसे उत्पन्न हुआ जन्म मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकडों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं, मोहरूपी आवर्त है और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है और उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत हैं। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त संसारका चिन्तवन करे ।। ४६-४८ ॥ ___ बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समयसद्भावका ध्यान करे ।। ४९ ॥ - ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्य आदि भावनाओंके चिन्तवनमें तत्पर होता है । जिससे वह पहलेके समान धर्म्य ध्यान में सुभावितचित्त होता है ॥ ५० ॥ @अप्रतो 'सायरसुरणरयविमाण' इति पाठः। -ताप्रतौ 'णिययण' इति पाठः। ॐ प्रतिष' । भोईच्च' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो: 'सयसावमीणं' इति पाठः। आप्रतौ महादोयं', ताप्रतौ 'महादो (पो) यं' इति पाठः । *ताप्रतौ 'हाएन भविय चित्तो' इति पाठः । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. __जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि? ण एस दोसो, दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडि भेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो ? दंसमसय-सीह-वय-वग्घ-तरच्छच्छहल्लेहि खज्जंतो वि वासीए तच्छिज्जतो वि करवत्तेहि फाडिज्जतो वि दावाणलसिहामुहेण कवलिज्जतो वि सीदवादादवेहि बाहिज्जंतो अच्छरसयकोडीहि लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम । एसो वित्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहा ज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति? एत्थ परिहारो वुच्चदेसच्चं, एदेहि दोहि वि सरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो। किंतु धम्मज्झाणमेयवत्थुम्हि थोवकालावट्ठाइ । कुदो? सकसायपरिणामस्स गब्भहरंतद्विदपईवस्सेव चिरकालमवढाणाभावादो। धम्मज्झाणं सकसाएसु चेव होदि त्ति कधं णव्वदे? असंजदसम्मादिदि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्ठिसंजद-सुहमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो। सुक्कज्झाणस्स पुण शंका- यदि समस्त समयसद्भाव धर्म्यध्यानका ही विषय है तो शुक्लध्यानका कोई विषय शेष नहीं रहता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दोनों ही ध्यानोंमें विषयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। शंका- यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में एकत्व अर्थात् अभद प्राप्त होता है. क्योंकि, दंशमशक, सिंह, भेडिया, व्याघ्र, श्वापद और भल्ल (रीछ) द्वारा भक्षण किया गया भी; वसूला द्वारा छीला गया भी, करोंतों द्वारा फाडा गया भी, दावानलके शिखा-मुख द्वारा ग्रसा गया भी; शीत वात और आतप द्वारा बाधा गया भी; और सैकडों करोड अप्सराओं द्वारा ललित किया गया भी जो जिस अवस्थामें ध्येयसे चलायमान नहीं होता वह जीवकी अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकारका यह स्थिरभाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणामकी उत्पत्ति नहीं हो सकती? समाधान- यहां इस शंकाके समाधानमें कहते हैं कि यह बात सत्य है कि इन दोनों प्रकारके स्वरूपोंकी अपेक्षा दोनों ही ध्यानोंमें कोई भेद नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि धर्म्यध्यान एक वस्तुमें स्तोक काल तक रहता है. क्योंकि, कषायसहित परिणामका गर्भगृहके भीतर स्थित दीपकके समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं बन सकता। शंका- धर्म्यध्यान कषायसहित जीवोंके ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान- असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत तथा क्षपक और उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके धर्म्यध्यानकी प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेवका उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्म्यध्यान कषायसहित जीवोंके होता है। आप्रतौ 'तरच्छद्दहल्लेहि', ताप्रतौ 'तरच्छहल्लेहि ' इति पाठः । आप्रतौ ' दवाणलज्झराहामहेण' ताप्रती 'दवाणलमहामुहेण' इति पाठः। Oआप्रतौ 'जस्सेयवस्थाए', ताप्रती 'जिस्सेयवत्थाए ' इति पाठः । . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्झाणावट्ठाणकालादो संखेज्जगुणकालमवढाणं होदि, वीयरायपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेण संचालाभावादो । उवसंतकसायज्झाणस्स पुधत्तविदक्कवीयारस्स अंतोमुहुत्तं चेव अवट्ठाणमुवलब्भदि त्ति चे-ण एस दोसो, वीयरायत्ताभावेण तविणासुववत्तीदो। अत्थदो अत्यंतरसंचालो उवसंतकसायज्झाणस्स उवलब्भदि त्ति चे-ण, अत्यंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण ज्झाणविणासाभावादो। वोयरायत्ते संते वि खीणकसायज्झाणस्स एयत्तवियक्कावीचारस्स विणासो दिस्सदि त्ति चे-ण, आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जाएसु उवजुत्तस्स केवलोवजोगस्स एगदम्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावं ठूण तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो। तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकाल-चिरकालावट्ठाणेण य दोणं ज्झाणाणं सिद्धो भेओ। सकसायतिण्णिगुणट्ठाणकालादो उवसंतकसायकालो संखेज्जगुणहीणो,तदो वीयरायज्झाणावट्ठाणकालो संखेज्जगुणो त्ति ण घडदे? ण, एगवत्थुम्हि अवट्ठाणं पडुच्च तदुत्तीए। एत्थ गाहाओ परन्तु शुक्ल ध्यानके एक पदार्थ में स्थित रहने का काल धर्मध्यानके अवस्थानकालसे संख्यातगुणा है, क्योंकि, वीतराग परिणाम मणिकी शिखाके समान बहुत कालके द्वारा भी चलायमान नहीं होता। शंका- उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका अवस्थान अन्तर्मुहूर्त काल ही पाया जाता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वीतरागताका अभाव होनेसे उसका विनाश बन जाता है। शंका- उपशान्त कषाय के ध्यानका अर्थसे अर्थान्तर में गमन देखा जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अर्थान्तरमें गमन होनेपर भी एक विचारसे दूसरे विचारमें गमन नहीं होनेसे ध्यानका विनाश नहीं होता । शंका- वीतरागताके रहते हुए भी क्षीणकषायमें होनेवाले एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानका विनाश देखा जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आवरणका अभाव होनेसे केवली जिनका उपयोग अशेष द्रव्यपर्यायों में उपयुक्त होने लगता है, इसलिये एक द्रव्यमें या एक पर्याय में अवस्थानका अभाव देखकर उस ध्यानका अभाव कहा है। इसलिये सकषाय और अकषाय रूप स्वामीके भेदसे तथा अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थित रहने के कारण इन दोनों ध्यानोंका भेद सिद्ध है। शंका- कषायसहित तीन गुणस्थानोंके कालसे चूंकि उपशान्तकषाय का काल संख्यातगुणा हीन है, इसलिये वीतरागध्यानका अवस्थान काल संख्यातगुणा है; यह बात नहीं बनती? समाधान- नहीं, क्योंकि, एक पदार्थ में कितने काल तक अवस्थान होता है, इस बात को देखकर उक्त बात कही है। इस विषय में गाथायें * आ-ताप्रत्योः ‘संचागाभावादो' इति पाठ। आप्रतौ ‘विणासो दि त्ति', ताप्रतौ 'विणासो (हो) दि' इति पाठः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. अंतोमुहुत्तमेत्तं चितावत्थाणमेगवत्थुम्हि । छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु ॥ ५१ ।। अंतोमुहुत्तपरदो चिता-ज्झाणंतरं व होज्जाहि। सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे ज्झाणसंताणो० ॥ ५२ ।। एदम्हि धम्मज्झाणे पोय-पउम-सुक्कलेस्साओ तिण्णि चेव होंति, मंद-मंदयरमंदतमकसाएसु एदस्स ज्झाणस्स संभवुवलंभादो। एत्थ गाहा* होंति कविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पउम-सुक्काओ । धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदादिभेयाओ ।। ५३ ।। एसो धम्मज्झाणे परिणमदि त्ति कधं णव्वदे ? जिण-साहुगुणपसंसण-विणयदाण-संपत्तीए । एत्थ गाहाओ आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तल्लिगं ।। ५४ ।। जिण-साहुगणुक्कित्तण-पसंसणा-विणय दाणसंपण्णा । सुद-सील-संजमरदा धम्मज्ज्ञाणे मुणयव्वा ।। ५५ ।। एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ताका अवस्थान होना छद्मस्थोंका ध्यान है और योगनिरोध जिन भगवान्का ध्यान है ।। ५१ ॥ अन्तर्मुहुर्तके बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होनेपर भी एक ही ध्यानसन्तान होती है ।। ५२ ।। इस धर्मध्यानमें पीत, पद्म और शुक्ल, ये तीन ही लेश्यायें होती हैं, क्योंकि, कषायोंके मन्द, मन्दतर और मन्दतम होनेपर धर्मध्यानकी प्राप्ति सम्भव है। इस विषयमें गाथा - धर्मध्यानको प्राप्त हुए जीवके ते व्र-मन्द आदि भेदोंको लिये हुए क्रमसे विशुद्धिको प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यायें होती हैं ।। ५३ ।। शंका- यह धर्मध्यानमें परिणमता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- जिन और साधुके गुणोंकी प्रशंसा करना, विनय करना और दानसम्पत्तिसे जाना जाता है। इस विषयमें गाथायें हैं आगम, उपदेश और जिनाज्ञाके अनुसार निसर्गसे जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये पदार्थोंका श्रद्धान होता है वह धर्मध्यानका लिंग है ।। ५४ ।। जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत शील और संयममें रत होना, ये सब बातें धर्मध्यानमें होती हैं; ऐसा जानना चाहिये ।। ५५ ॥ 8ताप्रती 'संताणे' इति पाठः । अ-आप्रत्यो: 'धम्मज्झाणस्स ' इति पाठः । * अ-आप्रत्यो: 'गाहाओ' इति पाठः। 8 अ-आप्रत्योः 'जिणप्पणेयाणं' इति पाठः। - अप्रतौ 'गणक्कित्तण' इति पाठः । . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा ( ७७ किफलमेदं धम्मज्झाणं? अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जराफलं च । खवएसु पुण असंखज्जगुणसेडीए कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च। अतएव धर्मादनपेतं धयं ध्यानमिति सिद्धम्। एत्थ गाहाओ होति सुहासव-संवर-णिज्जरामरसुहाइं विउलाई। . ज्झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ॥ ५६ ।। जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जति । ज्झाणप्पवणोवया तह कम्मघणा विलिज्जति ।। ५७ ।। एवं धम्मज्झाणस्स परूवणा गदा । संपहि सुक्कज्झाणस्स परूवणं कस्सामो। तं जहा-कुदो एदस्स सुक्कत्तं? कसायमलाभावादो। तं च चउन्विहं-पुधत्तविदक्कवीचारं एयत्तविदक्कअवीचारं सुहुमकिरिय. मप्पडिवादि समुच्छिण्णकिरियमप्पडिवादि चेदि। तत्थ पढमसुक्कज्झाणलक्खणं वच्चदे- पृथक्त्वं भेदः । वितर्कः श्रुतं द्वादशांगम्। वीचारः संक्रान्तिः अर्थ-व्यंजनयोगेषु । पृथक्त्वेन भेदेन वितर्कस्य श्रुतस्य वीचारः संक्रान्तिः यस्मिन् ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । एत्थ गाहाओ शंका- इस धर्मध्यानका क्या फल है ? समाधान- अक्षपक जीवोंको देवपर्याय सम्बन्धी विपुल सुख मिलना उसका फल है और गुणश्रेणिमें कर्मोंकी निर्जरा होना भी उसका फल है ; तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणिरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभ कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है। अतएव जो धर्मसे अनपेत हैं वह धर्मध्यान है, यह बात सिद्ध होती है। इस विषयमें गाथायें उत्कृष्ट धर्मध्यानके शुभ आस्रव, संवर, निर्जरा और देवोंका सुख; ये शुभानुबन्धी विपुल फल होते हैं ॥ ५६ ।। अथवा, जैसे मेघपटल पवनसे ताडित होकर क्षण मात्रमें विलीन हो जाते हैं वैसे ही ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्म-मेघ भी विलीन हो जाते हैं । ५७ ।। इस प्रकार धर्मध्यानका कथन समाप्त हुआ। अब शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथाशंका- इसे शुक्लपना किस कारणसे प्राप्त है ? । समाधान- कषाय-मलका अभाव होनेसे। वह चार प्रकारका है-पृथक्त्ववितर्क-वीचार, एकत्ववितर्क-अवीचार, सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती। उनमेंसे प्रथम शुक्लध्यानका लक्षण कहते हैं-पृथक्त्वका अर्थ भेद हैं, वितर्कका अर्थ द्वादशांग श्रुत है; और वीचारसे मतलब अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति है। पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क अर्थात् श्रुतका वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह पृथक्त्ववितर्क-वीचार नामका ध्यान है । इस विषय में गाथायें अ-आप्रत्योः 'सुहावि उद्धा वि ' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः 'वीचारः' इति पाठः । आ-ताप्रत्योः ‘पवणाहया' इति पाठः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. दवाइमणेगाई तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणिदं ।। ५८ । जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्य कुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सविदक्कं तेण तं ज्झाणं॥ ५९ ।। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स त भावेण तगं सुत्त उत्तं सवीचारं ।। ६० ।। एदस्स भावत्थो उच्चदे-उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थो चोद्दस-दस-गवपुवहरो पसत्थतिविहसंघडणो कसाय-कलंकुत्तिण्णो तिसु जोगेसु एगजोगम्हि वट्टमाणो एगदव्वं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहणणिलोणं सुद-रविकिरणुज्जोयबलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव अंतोमुत्तमेत्तकालं ज्झाएदि *। तदो परदो अत्यंतरस्स णियमा संकमदि। अधवा तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जायस्स वा संकमदि। पुग्विल्लजोगादो जोगंतरं पि सिया संकमदि। एगमत्थमत्थंतरं गुणगुणंतरं पज्जायपज्जायंतरं च हेट्ठोवरि टुविय पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए ठविय | द | गु प | म व का दुसंजोग-तिसंजोगेहि एत्थ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणभंगा | द गुप | बादालीस* ॥४२॥ उप्पाएदव्वा। एवमंतोमहत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्सिओ पुधत्तविदक्क वीचारज्झाणं छदव्व-णवपयत्थवि. यतः उपशान्तमोह जीव अनेक द्रव्योंका तीनों ही योगोंके आलम्बनसे ध्यान करते हैं इसलिये उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है ।। ५८ ।। यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है, और यतः पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु ही इस ध्यानको ध्याते है, इसलिये उस ध्यान को सवितर्क कहा है ।। ५९ ।। अर्थ, व्यंजन और योगोंका संक्रम वीचार है । जो ऐसे संक्रमसे युक्त होता है उसे सूत्र में सवीचार कहा है ।। ६० ॥ इसका भावार्थ कहते हैं-चौदह, दस और नौ पूर्वोका धारी, प्रशस्त तीन संहननवाला, कषाय-कलंकसे पारको प्राप्त हुआ और तीन योगों में से किसी एक योगमें विद्यमान ऐसा उपशान्तकषायवीतराग-छद्मस्थ जीव बहुत नयरूपी वनमें लीन हुए ऐसे एक द्रव्य या गुण-पर्यायको थतरूपी रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इस प्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। इसके बाद अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है। अथवा उसी अर्थके गुण या पर्यायपर संक्रमित होता है। और पूर्व योगले स्यात् योगान्तरपर संक्रमित होता है । इस तरह एक अर्थ, अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर और पर्याय, पर्यायान्तरको नीचे ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगोंको एक पंक्तिमे स्थापित करके द्विसंयोग और त्रिसंयोगको अपेक्षा यहां पथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानके ४२ भंग उत्पन्न करना चाहिये। इस प्रकार अन्तर्मुहुर्त काल तक शुक्ललेश्यावाला उपशान्तकषाय जीव छह द्रव्य और नौ पदार्थविषयक पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको अन्तर्मुहूर्त ताप्रतौ ‘भणदि' इति पाठः। ॐ भग. १८८१. 'ज्झायदि ' इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः 'वाएदालीस इति पाठः । भग. १८८२. * आ-ताप्रत्योः प्रतिषु ‘वितक्क' इति पाठः। . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (७९ सयमंतोमुत्तकालं ज्शायइ। अत्थदो अत्यंतरसंकमे संते विण ज्झाणविणासो, चित्तंतरगमणाभावादो। एवं संवर-णिज्जरामरसुहफलं, एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलंभादो। एवं पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणपरूवणा गदा । संपहि बिदियसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो-एकस्य भावः एकत्वम्, वितर्को द्वादशांगम्, असंक्रांतिरवीचारः; एकत्वेन वितर्कस्य अर्थ-व्यंजन-योगानामवीचारः असंक्रांतिः यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कवीचारं ध्यानम् । एत्थ गाहाओ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण । खीणकसाओ ज्झायइ तेणेयत्तं तगं भणिदं* ।। ६१ ।। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य । ज्झायदि झाणं एवं सविदक्कं तेण तज्झाणं*॥६२ ॥ अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स अभावेण तगं ज्झाणमवीचारमिदि वुत्तं ।। ६३ ।। एदस्स भावत्थो-खीणकसाओ सुक्कलेस्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोद्दसपुत्वहरो दसपुत्वहरो णवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी खविदासेसकसायवग्गो णवपयत्थेसु एगपयत्थं दव्व-गुण-पज्जयभेदेण काल तक ध्याता है। अर्थसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नहीं होता, क्योंकि, इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। इस प्रकार इस ध्यानके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि, इससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार पथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका कथन समाप्त हआ। अब द्वितीय शुक्लध्यानका कथन करते हैं- एकका भाव एकत्व है, वितर्क द्वादशांगको कहते हैं और अवीचारका अर्थ असंक्रान्ति है। अभेदरूपसे वितर्कसम्बन्धी अर्थ, व्यंजन और योगोंका अवीचार अर्थात् असंक्रान्ति जिस ध्यानमें होती है वह एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान है। इस विषयमें गाथायें यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है, इसलिये उस ध्यानको एकत्व कहा है ॥६१।। ___ यतः वितर्क का अर्थ श्रुत है और जिसलिये पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु इस ध्यानको ध्याता है, इसलिये इस ध्यानको सवितर्क कहा है ।। ६२ ।।। ___ अर्थ, व्यंजन और योगोंके संक्रमका नाम वीचार है। यतः उस वीचारके अभावसे यह ध्यान होता है इसलिये इसे अवीचार कहा है ।। ६३ ।। इसका यह आशय है-जिसके शुक्ल लेश्या है, जो निसर्गसे बलशाली है, निसर्गसे शूर है, वज्रवृषभवज्रनाराचसंहननका धारी है, किसी एक संस्थानवाला है, चौदह पूर्वधारी है, दस पूर्वधारी है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, और जिसने समस्त कषायवर्गका क्षय कर * भग. १८८३. * भग. १८८४. भग. १८८५. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २६. ज्झाएदि, अण्णदरजोगेण अण्णदराभिधाणेण य तत्थ एगम्हि दव्वे गुणे पज्जाए वा मेरुमहियरोव्व णिच्चलभावेण अवट्टियचित्तस्स असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे गालयंतस्स अणंतगुणहीणाए सेडीए कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माणं द्विदीयो एगजोग-एगाभिहाणज्झाणेण घादयंतस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालो गच्छदि। तदो सेसखीणकसायद्धमेत्तद्विदीयो मोत्तूण उवरिमसवद्विदीयो घेत्तूण उदयादिगुणसेडिसरूवेण रचिय पुणो टिदिखंडएण विणा अधदिदि गलणेण असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मक्खंधे घातो गच्छदि जाव खीण. कसायचरिमसमओ त्ति । तत्थ खीणकसायचरिमसमए णाणावरणीय-दसणावरणीयअंतराइयाणि विणासेदि* । एदेसु विणठेसु केवलगाणी केयलदसणी अणंतवीरियो दाण-लाह-भोगुवभोगेसुॐ विग्घवज्जियो होदि त्ति घेत्तव्वं । दोण्णं सुक्कज्झाणाणं किमालंबणं? खंति-महवादओ। एत्थ गाहा अह खंति-मद्दवज्जव-मुत्तीयो जिणमदप्पहाणाओ । आलंबणेहि जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ ।। ६४ ।। संपहि दोण्णं सुक्कज्झाणाणं फलपरूवणं कस्सामो-अट्ठावोसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं। मोहसव्वुवसमो पुण धम्मज्झादिया है ऐसा क्षीणकषाय जीव नौ पदार्थो में से किसी एक पदार्थका द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करता है। इस प्रकार किसी एक योग और एक शब्दके आलम्बनसे वहां एक द्रव्य, गुण या पर्याय में मेरुपर्वतके समान निश्चलभावसे अवस्थित चितवाले ; असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धोंको गलानेवाले, अनन्तगुणहीन श्रेणिक्रमसे कर्मों के अनुभागको शोषित करनेवाले और कर्मोकी स्थितियोंको एक योग तथा एक शब्दके आलम्बनसे प्राप्त हर ध्यानके बलसे घात करनेवाले उस जीवका अन्तर्मुहुर्त काल जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षोणकषायके काल प्रमाण स्थितियों को छोडकर उपरिम सब स्थितियोंकी उदयादि गुणत्रेणिरूपसे रचना करके पुनः स्थितिकाण्डकघातसे विना अधःस्थितिगलना द्वारा ही असंख्यातगुण श्रेणिक्रमसे कर्मस्कन्धोंका घात करता हुआ क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जाता है। और वहां क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का युगपत् नाश करता है । इस प्रकार इनका नाश हो जानेपर यह जोव तदनन्तर समय में केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और अनन्तवीर्यका धारी तथा दान-लाभ-भोग और उपभोगके विघ्नसे रहित होता है, ऐसा यहां समझना चाहिये । शंका- दोनों ही शुक्लध्यानोंका क्या आलम्बन है ? समाधान- क्षमा और मार्दव आदि आलम्बन है। इस विषयमें गाथा क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष ये जिनमत में ध्यान के प्रधान आलम्बन कहे गये हैं, जिन आलम्बनोंका सहारा लेकर साधु शुक्लध्यानपर आरोहण करते हैं ।। ६४ ।। अब दोनों प्रकारके शुक्ल ध्यानोंके फलका कथन करते हैं- अट्ठाईस प्रकारके मोहनीयकी सर्वोपशमना होनेपर उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानका फल है। @प्रतिषु 'अद्धढिदि' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः ‘विणासेडी' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो ' दाणलाहभोगेसु' इति पाठः । . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (८१ णफलं; सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहमसांपराइयस्स चरिमसमए मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो। तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीयविणासो पुण धम्मज्झाणफलं, सुहुमसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो। मोहणीयस्स उवसमो जदि धम्मज्झाणफलं तो ण क्खदी, एयादो दोण्णं कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो? ण, धम्मज्झाणादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकज्जाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एयत्तवियक्क-अवीयार-ज्झाणस्स अप्पडिवाइविसेसणं किण्ण कदं? ण, उवसंतकसायम्मि भवद्धा*खएहि कसाएसु णिवदिदम्मि पडिवादुव" लंभादो। उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्कावीचारे संते 'उवसंतो दु पुधत्तं' इच्चेदेण विरोहो होदि ति णासंकणिज्जं,तत्थ पुधत्तमेवे त्तिणियमाभावादो। ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव, जोगपरावत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स* वि संभवसिद्धीदो। एत्थ गाहाओपरन्तु मोहका सर्वोपशम करना धर्मध्यानका फल है, क्योकि, कषायसहित धर्मध्यानीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना देखी जाती है । तीन घाति कर्मोका निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानका फल है। परन्तु मोहनीयका विनाश करना धर्म्यध्यानका फल है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका विनाश देखा जाता है। शंका- मोहनीय कर्मका उपशम करना यदि धर्म्यध्यानका फल है तो इसीसे मोहनीयका क्षय नहीं हो सकता, क्योंकि, एक कारणसे दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ? . समाधान- नहीं, क्योंकि, धर्माध्यान अनेक प्रकारका है, इसलिये उससे अनेक प्रकारके कार्योकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। शंका- एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानके लिये 'अप्रतिपाता' विशेषण क्यों नहीं दिया? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशान्तकषाय जीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है । शंका- यदि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है तो • उवसंतो दु पुधत्तं' इत्यादि गाथावचनके साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें केवल पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है । और क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें सर्वत्र एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा भी कोई नियय नहीं है। क्योंकि, वहां योगपरावृत्तिका कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय कालके प्रारम्भ में पृथक्त्ववितकवीचार ध्यानका अस्तित्व भी सिद्ध होता है। इस विषयमें गाथायें ताप्रती 'मोहणीयणासो' इति पाठः। -अ-आप्रत्योः 'वियक्कोवीयार' इति पाठः * प्रतिषु भवत्था' इति पाठः। 6 अ-आप्रत्यो: 'विरोहादो होदि ' इति पाठः। अ-ताप्रत्यो ' -णववत्तीबलेण', अप्रतौ ' णुववत्तीदोबलेण' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः 'विदक्कावीचारस्स', ताप्रती विदक्का (क्क) वीचारस्स ' इति पाठः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २६. जह चिरसंचियमिंधणमणलो पवणुग्गदो धुवं दहइ । तह कम्मिधणममियं खणेण झाणाणलो दहइ । ६५ ।। जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणोसहविहीहि ।। तह कम्मासयसमणं ज्झाणाणसणादिजोगेहि ।। ६६ ।। संपहि सुक्कज्झाणस्स लिंगपरूवणा कीरदे-असंमोह विवेगविसग्गादओ सुक्कज्झालिंगाणि । एत्थ गाहाओ अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाई । लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ।। ६७ ।। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परिस्सहोवसग्गेहि । सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देव मायासु ।। ६८।। देहविचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्यसंजोए । देहोवहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि ।। ६९ ।। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुखेहि । ईसाविसायसोगादिएहि ज्झाणोवगयचित्तो॥७० ।। सीयायवादिएहि मि सारीरेहि बहुप्पयारेहिं । णो बाहिज्जइ साहू ज्झयम्मि सुणिच्चलो संतो ।। ७१ ।। जिस प्रकार चिरकालसे संचित हुए ईधनको वायुसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्नि अतिशीघ्र जला देती है, उसी प्रकार अपरिमित कर्मरूपी इंधनको ध्यानरूपी अग्नि क्षणमात्र में जला देती है।। ६५ ।। जिस प्रकार विशोषण, विरेचन और औषधके विधानसे रोगाशयका शमन होता है,उसी प्रकार ध्यान और अनशन आदि निमित्तसे कर्माशयका भी शमन होता है ।। ६६ ।। अब शुक्लध्यानकी पहिचानका निर्देश करते है-असंमोह, विवेक और विसर्ग अर्थात् त्याग आदि शुक्लध्यानके लिंग हैं। इस विषयमें गाथायें __ अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यानके लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यानको प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है ॥ ६७ ।। वह धीर परोषह और उपसर्गोंसे न तो चलायमान होता है और न डरता है । तथा वह सूक्ष्म भावोंमे और देवमायामें भी नहीं मुग्ध होता है । ६८ ।। वह देहको अपनेसे भिन्न अनुभव करता है। इसी प्रकार सब प्रकारके संयोगोंसे अपनी आत्माको भी भिन्न अनुभव करता है । तथा निःसंग हुआ वह सब प्रकारसे देह और उपधिका उत्सर्ग करता है ।। ६९॥ ध्यान में अपने चित्तको लीन करनेवाला वह कषायोंसे उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दुःखोंसे भी नहीं बाधा जाता है ॥ ७० ॥ ध्येयमें निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदिक बहुत प्रकारकी शारीरिक बाधाओंके द्वारा भी नहीं बाधा जाता है ।। ७१ ॥ ति. प. ९,१८. ॐ प्रतिषु — समुत्तेहि ' इति पाठः । . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (८३ एवं विदियसुक्कज्झाणपरूवणा गदा। संपहि तदियसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-क्रिया नाम योगः। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति । तत्प्रतिपक्षः अप्रतिपाति । सूक्ष्म क्रिया योगो यस्मिन् तत्सूक्ष्मक्रियम् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तदवितर्कम् । अर्थांतरसंक्रांत्यभावात्तदवीचारं व्यञ्जनयोगसंक्रांत्यभावाद्वा। कथं तत्संक्रांत्यभावः ? तदवष्टंभबलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचराशेषावगते: । एत्थ गाहाओ अविदक्कमवीचार सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्व भावगयं ।। ७२ ।। सुहमम्मि कायजोगे वटुंतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिरुंभिदुं जो सुहुमं तं कायजोगं पि॥ ७३ ॥ एदस्स भावत्थो-उप्पण्णकेवलणाणदंसणेहि सव्वदव्वपज्जाए तिकालविसए जाणतो पस्संतो करणक्कमववहाणवज्जियअणंतविरियो असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरं इस प्रकार दूसरे शुक्लध्यानका कथन समाप्त हुआ। ___ अब तीसरे शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथा - क्रियाका अर्थ योग है। वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसम क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्म क्रिय कहा जाता, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान कहलाता है । यहां केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है, इसलिये यह अवितर्क है; और अर्थान्तरकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। अथवा व्यंजन और योगको संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। शंका- इस ध्यान में इनकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ? समाधान- इनके आलम्बनके विना ही युगपत् त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है, इसलिये इस ध्यान में इनकी संक्रान्ति के अभावका ज्ञान होता है । इस विषयमें गाथायें तीसरा शुक्लध्यान अवितर्क, अवाचार और सूक्ष्म क्रियासे सम्बन्ध रखनेवाला होता है क्योंकि, काययोगके सूक्ष्म होने पर सर्वभावगत यह ध्यान कहा गया है ।। ७२ ।। जो केवली जिन सूक्ष्म काययोगमें विद्यमान होते हैं वे त सरे शुक्लध्यानका ध्यान करते हैं और उस सूक्ष्म काययोगका भी निरोध करने के लिये उसका ध्यान करते हैं ।। ७३ ।। अब इसका भावार्थ कहते हैं-केवलज्ञान और केवल दर्शनके उत्पन्न हो जाने के कारण जो त्रिकालविषयक सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंको जानते हैं और देखते हैं; करण, क्रम और व्यवधानसे रहित होकर जो अनन्त वीर्य के धारक हैं, तथा जो असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मोंकी निर्जरा कर रहे हैं, ऐसे सयोगी जिन कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार कर आयुके अन्तर्मुहुत Dआ-ताप्रत्योः ‘गोचराक्षावगतेः' इति पाठः । म भग. १८८६. ॐ भग. १८८७. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. कुणमाणो देसूणपुवकोडि विहरिय सजोगिजिणो अंतोमुत्तावसेसे आउए दंडकवाडपदरलोगपूरणाणि करेदि । तत्थ जं पढमसमए देसूणचोद्दसरज्जुउस्सेहं सगविक्खंभपमाणवट्टपरिवेदमप्पाणं कादण द्विदीए असंखेज्जे भागे अणुभागस्स अणते भागे घादेदूण चेदि तं दंडं णाम । विदियसमए पुवावरेण वादवलयवज्जियलोगागासं सव्वं पि सगदेहविक्खंभेण वाविय सेसद्विदिअणुभागाणं जहाकमेण असंखेज्ज-अणते भागे घादिदूण जमवट्ठाणं तं कवाडं गाम । तदियसमए वादवलयं वज्जिय सव्वलोगागासं सगजीवपदेसेहि विसप्पिदूम सेसटिदिअणुभागाणं कमेण असंखेज्जे भागे अणते भागे च घादेदूण जमवट्ठाणं तं पदरं णाम। च उत्थसमए सव्वलोगागासमावरिय सेसढिदिअणुभागागमसंखेज्जे भागे अणंते भागे च घादिय जमवढाणं तं लोगपूरणं णाम । संपहि एत्थ सेस द्विदिपमाणमंतोमुत्तो संखेज्जगुणमाउआदो। एत्तो प्पहुडि उरि सम्वद्विदिखंडयाणि अणुभागखंडयाणि च अंतोमुहुतेग घादेदि । द्विदिखंडयस्स आयामो अंतोमुत्तं अणुभागखंडयपमाणं पुण सेसअणुभागस्स अणंता भागा। एदेण कमेण अंतोमुहुत्तं गंतूण जोगणिरोहं करेदि । को जोगणिरोहो? जोगविणासो।तं जहा-एतो अंतोमुत्तं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमणजोगं गिरंभदि। तदो अंतोमहत्तण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुभदि । तदो अंतोमुहुत्तेग बादरकायजोगेग बादरउस्सासगिस्सासं गिरंभदि। तदो अंतोमुत्तेण काल शेष रहने पर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करते हैं। उसमें जो प्रथम समय में कुछ कम चौदह राजु उत्सेध रूप और अपने विष्कंभप्रमाण गोलपरिवेदरूप आत्म प्रदेश कर स्थितिके असंख्यात बहुभागका और अनुभागके अनन्त बहुभागका घात कर स्थित रहते हैं, उसका नाम दण्ड-समुद्धात है। दूसरे समय में पूर्व और पश्चिमकी ओरसे वातवलयके सिवाय पूरे लोकाकाशको अपने देहके विस्तारद्वारा व्याप्त कर शेष स्थिति और अनुभागका क्रमसे असंख्यात बहुभाग और अनन्त बहुभागका घात कर जो अवस्थान होता है वह कपाट समुद्धात है। तीसरे समय में वातवलयके सिवाय पूरे लोकाकाशको अपने जोवप्रदेशोंके द्वारा व्याप्त कर शेष स्थिति और अनुभागका क्रमसे असंख्यात बहुभाग और अनन्त बहुभागका घात कर जो अवस्थान होता है वह प्रतर-समुद्धात है। चौथे समय में सब लोकाकाशको व्याप्त कर शेष स्थिति और अनभागका क्रमसे असंख्यात बहुभाग और अनन्त बहुभागका घात कर जो अवस्थान होता है यह लोकपूरण समुद्धात है। अब यहां शेष स्थिति का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है जो कि आयु के प्रमाणसे संख्यातगुणा है। यहांसे लेकर आगे सब स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंको अन्तर्मुहूर्तके दारा घातता है। स्थिति काण्डकका आयाम अन्तर्महर्त है और अनभागकाण्डकका प्रमाण शेष अनुभागके अनन्त बहुभाग है । इस क्रमसे अन्तर्मुहुर्त काल जाने पर योगनिरोध करता है। शंका- योगनिरोध किसे कहते हैं ? समाधान- योगोंके विनाशकी योगनिरोध संज्ञा है । यथा यहां अन्तर्मुहुर्त काल बिताकर बादर काययोगके द्वारा बादर मनोयोगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूतमें बादर काययोगके द्वारा बादर वचनयोगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूर्तमें बादर काययोगके द्वारा बादर उच्छवास निश्वासका निरोध करता है। फिर अन्तर्महर्त में वादर . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरंभदि । तदो अंतोमुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगण सुहमवचिजोगं णिरुभदि। तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासणिस्सासं णिरुंभदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहमकायजोगं णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदिपढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेह्रदो। आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डदि जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिभागमोकड्डदि। एवमंतोमुहुत्तमपुवफद्दयाणि करेदि । असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए जीवपदेसाणं च असंखेज्जगुणाए सेडीए। अपुवफद्दयागि सेडीए असंखेज्जदिभागो सेडिवग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो पुवफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो अपुवफद्दयाणि सव्वाणि । एवमपुव्वफद्दयकरणविहाणं गदं। ___एत्तो अंतोमहत्तं किट्टीओ करेदि। अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डुदि । जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोकडुदि। एत्य अंतोमहत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए। जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेडीए ओकइदि। किट्टिगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। किट्टोओ सेडीए असंखज्जकाययोगके द्वारा उसी बादर काययोगका निरोध करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म मनोयोगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहुर्तमें सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म वचन योगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासनिश्वासका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूर्त काल जानेपर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है। प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकोंके नीचे अपूर्व स्पर्धक करता है। ऐसा करते हुए प्रथम वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है, और जीव प्रदेशोंके असंख्यात में भागका अपकषण करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धक करता है। ये अपूर्व स्पर्धक प्रति समय पहले समयमें जितने किय गये उनसे अगले द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणे हीन श्रेणिरूपसे किये जाते हैं, और पहले समय में जितने जीवप्रदेशोंका अपकर्षण कर किये उनसे अगले समयोंमें संख्यातगुणे श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण कर किये जाते हैं। इस प्रकार किये गये सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण जगणि के प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और पूर्व स्पर्धाकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण होते है। इस प्रकार अपूर्व स्पर्धक करने की विधिका कथन समाप्त हुआ। इसके बाद अन्तर्महर्त कालतक कृष्टियोंको करता है । और ऐसा करते हुए अपूर्व स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाके विभाग प्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है और जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है। इस प्रकार यहां 3 हर्त काल तक कृष्टियां करता है। ये कृष्टियां प्रति समय पहले समय में जितनी को गई उनसे आगे द्वितीयादि समयों में असंख्यातगुणीहीन श्रेणिरूपसे की जाती है, और पहले समय में जितने जीव प्रदेशोंका अपकर्षण कर की गई उनसे अगले समयोंमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीव प्रदेशोंका अपकर्षण कर की जाती हैं। कृष्टिगुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सब कृष्टियां Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. दिभागो। अपुव्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो। किट्टीकरणे णिट्ठिदे तदो से काले पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेइ। अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि। सुहुमकिरियं अप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि। किट्टीणं चरिमसमए असंखेज्जे भागे णासेइ । एदम्हि, जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जंभणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदत्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि; अण्णत्थ तहाणुवलंभादो त्ति? ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि। पुणो एत्थ कधं घेप्पदि त्ति भणिदे जोगो उवयारेण चिता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं; तेण ण पुन्वुत्तदोससंभवो त्ति । एत्थ गाहाओ तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा । परिहादि कमेण तहा जोगजलं ज्झाणजलणेण ।। ७४ ।। जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अपूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। कृष्टिकरणक्रियाके समाप्त हो जानेपर फिर उसके अनन्तर समयमें पूर्व स्पर्धकोंका और अपूर्व स्पर्धकोंका नाश करता है। अन्तर्मुहूर्त कालतक कृष्टिगत योगवाला होता है, तथा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यानको ध्याता है। अन्तिम समयमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है ! शंका- इस योगनिरोधके काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि, केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायोंको विषय करते हैं, अपने सब कालमें एकरूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञानसे रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तुमें मनका निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मनका निरोध किये विना ध्यानका होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रकृतमें एक वस्तुमें चिन्ताका निरोध करना ध्यान है, यदि ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहां ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं। शंका- तो यहां किस रूपमें ग्रहण करते हैं ? समाधान- यहां उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्ररूपसे निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यानमें किया जाता है वह ध्यान, ऐमा यहां ग्रहण करना चाहिये, इसलिये यहां पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है ।। इस विषयमें गाथायें जिस प्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है, या तपे हुए लोहके पात्र में स्थित जलका क्रमशः अभाव होता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है ।। ७४ ।। # अ-आप्रत्योः ‘णासेडी एवं हि', ताप्रती 'भागणासेडि । एवं हि' इति पाठ । .. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ........ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं णिरुभए डंके। तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणझर मंतजोएण ।। ७५ ॥ तह बादरतणुविसयं जोगविसं ज्झाणमंतबलजुत्तो। अणुभाव म्मि णिरुंभदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो ।। ७६ ।। एवं तदियसुक्कज्झाणपरूवणा गदा। संपहि चउत्थसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-समुच्छिन्ना क्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्नक्रियं च * अप्रतिपाति च समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात् अवितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पंदाभावादवीचारं अर्थव्यंजनयोगसंक्रांत्यभावाद्वा । एत्थ गाहा अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि। ज्झाणं णिरुद्धजोगं अपच्छिम उत्तमं सुकं ।। ७७ ।। एदस्स अत्थो-जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि होति अंतोमहत्तं। से काले सेलेसियं पडिवज्जदि समुच्छिण्णकिरियमणियट्टि सुक्कज्झाणं ज्झायदि। कधमत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिताए जीवस्स गिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम। किं जिस प्रकार मन्त्रके द्वारा सब शरीरमें भिदे हुए विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं, और प्रधान क्षरण करनेवाले मन्त्रके बलसे उसे पुनः निकालते हैं ।। ७५ ।। उसी प्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त हुआ यह सयोगिकेवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीरविषयक योगविषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है ।। ७६ ।। इस प्रकार तीसरे शुक्लध्यानका कथन समाप्त हुआ। अब चौथे शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथा- जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है। और समुच्छिन्नक्रिय होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती ध्यान है। यह श्रुतज्ञानसे रहित होनेके कारण अवितर्क है। जीवप्रदेशोंके परिस्सन्दका अभाव होनेसे अवीचार है; या अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्तिके अभाव होने से अवीचार है । इस विषयमें गाथा ___ अन्तिम उत्तम शुक्ल ध्यान वितर्करहित हैं, वीचाररहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है ।। ७७ ।।। इसका अर्थ-योगका निरोध होनेपर शेष कर्मों की स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्महर्त होती है । तदनन्तर समय में शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है, और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याता है। शंका- यहां ध्यान संज्ञा किस कारणसे दी गई है ? समाधान- एकाग्ररूपसे जोवके चिन्ताका निरोध अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना ही ध्यान, है, इस दृष्टिसे यहां ध्यान संज्ञा दी गई है। अ-ताप्रत्योः 'तणवीसप प्रतिषु ‘दके' इति पाठः । ताप्रतौ 'पहाणयर' इति पाठः । जोगविसं' इति पाठः । ॐ अप्रतौ 'यस्मिन् तत्समुच्छिन्न क्रियं च ' इति पाठः । | Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २७. फलमेदं ज्झाणं? अघाइचउक्कविणासफलां तदियसुक्कज्झाणं जोगणिरोहफलं। सेलेसियअद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि गच्छदि । एवं ज्झाणं णाम तवोकम्म गदं। द्वियस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउसग्गो णाम। णेदं ज्झाणस्संतोल णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचित्तस्स वि काओस्सग्गुववत्तीदो। एवं तवोकम्मं परूविदं। जं तं किरियाकम्म णाम ।। २७ ।। तस्स अत्थविवरणं कस्सामो तमादाहीण पदाहीणं* तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ॥ २८ ॥ तं किरियाकम्मं छव्विहं आदाहीणादिभेदेण। तत्थ किरियाकम्मे कीरमाणे अप्पायत्तत्तं ॐ अपरवसत्तं आदाहीणं णाम । पराहीणभावेण किरियाकम्म किण्ण कीरदे?ण; तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिदादिअच्चासणवारेण कम्म शंका- इस ध्यानका क्या फल है ? समाधान- अघाति चतुष्कका विनाश करना इस ध्यानका फल है। योगका निरोध करना तीसरे शुक्लध्यानका फल है । शैलेशी अवस्थाके कालके क्षीण होनेपर सब कर्मोंसे मुक्त हुआ यह जीव एक समयमें सिद्धिको प्राप्त होता है । इस प्रकार ध्यान नामक तपः कर्मका कथन समाप्त हुआ। स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करनेवाले साधु का कषायोंके साथ शरीरका त्याग करना कायोत्सर्ग नामका तप:कर्म है। इसका ध्यान में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, जिसका बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवन में चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्गकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तपःकर्मका कथन समाप्त हुआ। अब क्रियाकर्मका अधिकार है ॥२७॥ इसके अर्थका खुलासा करते हैं आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन वार करना, तीन वार अवनति, चार वार सिर नवाना और बारह आवर्त, यह सब क्रियाकर्म है ॥२८॥ आत्माधीन होना आदिके भेदसे वह क्रियाकर्म छह प्रकारका है। उनमें से क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीन होना कहलाता है । शंका- पराधीनभावसे क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मोंका क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदिकी आसादना होनेसे कर्मोंका बन्ध होता है। ताप्रती 'णिविण्णस्स' इति पाठः । * आ-क-ताप्रतिषुः ' झाणस्संते ' इति पाठः * अ-आप्रत्योः ' पदाहीणं' इति पाठः । ॐ मुद्रितप्रती ' अप्पायतत्तं ' इति पाठः । ----- . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, २८.) कम्माणुओगद्दारे किरियाकम्मपरूवणा ( ८९ च । वंदणकाले गुरुजिणजिणहराणं पदरिखणं काऊण णमंसणं पदाहीणंणाम । पदाहिणणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम । अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगरुरिसिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जति त्ति तिक्खत्तं णाम । तिसंज्झास चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण कीरदे? ण; अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो। तिसंज्झासु वंदणणियमपरूवण तिक्खुत्तमिदि भणिदं । ओणदं अवनमनं भूमावासनमित्यर्थः। तं च तिण्णिवारं कीरदे त्ति तियोणदमिदि भणिदंतं जहा-सुद्धमणो धोदपादो* जिणिददंसणजणिदहरिसेण पुलइदंगो संतो जंजिणस्स अग्गे बइसदि तमेगमोणदांजमुट्ठिऊण जिणिदादीणं वित्ति कादूण बइसणं तं बिदियमोणदं । पुणो उट्टिय सामाइयदंडएण अप्पसुद्धि काऊण सकसायदेहुस्सग्गं करिय जिणाणंतगुणे ज्झाइय चउवीसतित्थयरागं वंदणं काऊण पुणो जिणजिणालयगुरवाणं संथवं काऊण जं भूमीए बइसणं तं तदियमोणदं। एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे फीरमाणे तिण्णि चेव ओणमणाणि होति । सव्वकिरियाकम्म चदुसिरं होदि । तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिदं पडि सोसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं सोसणमणं तं विदियं सीसं । त्थोस्सामिदंडयस्स आदीए जंसीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं। एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनगृहकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओंका तीन वार करना त्रि:कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु और ऋषियोंकी वन्दना तीन वार की जाती है, इसलिये इसका नाम त्रिःकृत्वा है। शंका-तीनों ही संध्याकालोंमें वन्दना की जाती है, अन्य समयमें क्यों नहीं की जाती? समाधान- नहीं, क्योंकि, अन्य समयमें भी वन्दनाके प्रतिषेधका कोई नियम नहीं है। तीनों सन्ध्या कालोंमें वन्दनाके नियमका कथन करने के लिये 'त्रिःकृत्वा' ऐसा कहा है। 'ओणद' का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमिमें वैठना है। वह तीन बार किया जाता है इस लिये तीन बार अवनमन करना कहा है। यथा- शुद्धमन, धौतपाद और जिनेन्द्रके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुलकित वदन होकर जो जिनदेवके आगे बैठना, यह प्रथम अवनति है। तथा जो उठकर जिनेन्द्र आदिके सामने विज्ञप्ति कर बैठना, यह दूसरी अवनति है । फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा आत्मशुद्धि करके, कषायसहित देहका उत्सर्ग करके, जिनदेवके अनन्त गुणोंका ध्यान करके, चौवीस तोथंकरोंकी वन्दना करके फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके जो भूमिमें बैठना, वह तीसरी अवनति है । इस प्रकार एक एक क्रियाकर्म करते समय तीन ही अवनति होतो हं। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है । यथा- सामायिकके आदिमें जो जिनेन्द्र देवको सिर नवाना वह एकसिर है। उसीके अन्त में जो सिर नवाना वह दूसरा सिर है। 'त्थोस्सामि' दण्डकके आदिमें जो सिर नवाना वह तीसरा सिर है। तथा उसीके अन्त में जो नमस्कार करना वह चौथा सिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्य चतुःशिर होता है। इससे अन्यत्र नमनका प्रतिषेध अ-आप्रत्योः ' पदाहीणं ' इति पाठः । * ताप्रती 'बोध ( धोद ) पादो' इति पाठः । Yor ताप्रतो' एवं ' इत्यतत्पदं नास्ति । | Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २९. होदि । ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो एदेण कदो, अण्णत्थणवणणियमस्स पडिसेहाकरणादो। अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्व किरियाकम्माणं पउत्ति-दसणादो । सामाइयत्योस्सामिदंडयाणं आदीए अवसाणे च मणवयणकायाणं विसुद्धिपरावत्तणवारा बारम हवंति । तेण ए गं किरियाकम्मं बारसावत्तमिदि भणिदं । एदं सव्वं पि किरियाकम्मं णाम । जं तं भावकम्मं णाम ।। २९ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामोउवजुत्तो पाहुडजाणगो तं सव्वं भावकम्म णाम ॥ ३० ।। कम्मपाहुडजाणओ होदूण जो उवजुत्तो सो भावकम्मं णाम । एदेसि कम्णाणं केण कम्मेण पयदं ? समोदाणकम्मेण पयदं ॥ ३१॥ कुदो? कम्माणुयोगद्दारम्मि समोदाणकम्मस्सेव वित्थरेण परविदत्तादो। अधवा संगहं पडुच्च एवं भणिदं । मूलतंते पुण पयोगकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्झ-इरियावथकम्मतवोकम्म-किरियाकम्माणि पहाणं; तत्थ वित्थारेण परविदत्तादो। नहीं किया गया है, क्योंकि, शास्त्रमें अन्यत्र नमन करनेके नियमका कोई प्रतिषेध नहीं है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात् चतुःप्रधान होता है, क्योंकि, अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है । सामायिक और स्थोस्सामि दण्डकके आदि और अन्तमें मन, वचन और कायकी विशुद्धिके परावर्तनके वार बारह होते हैं, इस लिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्तसे युक्त कहा है । यह सब ही क्रियाकर्म है । अब भावकर्मका अधिकार है ॥ २९ ॥ इसके अर्थका प्ररूपण करते हैंजो उपयुक्त प्राभूतका ज्ञाता है वह सब भावकर्म है ॥ ३०॥ कर्मप्राभृतका ज्ञाता होकर जो उपयुक्त है वह भाव कर्म है । विशेषार्थ- सूत्रमें आगम भावकर्मका लक्षण कहा है। इसका दूसरा भेद नोआगम भावकर्म है । प्रकृतमें भावकर्मके प्रथम भेद आगम भावकर्मका ही सूत्र में निर्देश है । इन कर्मोंका किस कर्मसे प्रयोजन है ? समवदान कर्मसे प्रयोजन है ॥३१॥ क्योंकि कर्म अनुयोगद्वारमें समवदान कर्मका ही बिस्तारसे कथन किया है । अथवा संग्रह नयकी अपेक्षा ऐसा कहा है । मूल ग्रन्थ में तो प्रयोकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तप.कर्म और क्रियाकर्म प्रधान हैं, क्योंकि, वहां इनका विस्तारसे कथन किया है। ॐ ष. खं. पु. ९, पृ. १८९ . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे भावकम्मपरूवणा ____एत्थ एदाणि छ कम्माणि आधारभूदाणि कादूण संतदव्व-खेत्त-फोसण-कालंतरभावप्पाबहुआणुओगद्दाराणं परूवणं कस्सामो । तं जहा- संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण अस्थि पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्मइरियावथकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणिआदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगईए णेरइएसु अत्थि पओअकम्म-समोदाणकम्मकिरियाकम्माणि । आधाकम्म-इरियावथकम्मतवोकम्माणि णत्थिाणेरइएसु ओरालियसरीरस्सउदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो। एवं सत्तसु पुढवीसु । देव-वेउव्वियसरीर-वेउवियमिस्सेसु णारगभंगो। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु अत्थि पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधारकम्म-किरियाकम्माणि । इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; तिरिक्खेसु,महत्वयाभावादो। एवं पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणि-पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु वि वत्तव्वं । णवरि पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु किरियाकम्म णत्थि तत्थ सम्मादिट्ठीणमभावादो।मणुसअपज्जत्तचिदियअपज्जत्त- तसअपज्जत्त -सव्वएइंदियसव्वविलिदिय-पंचकाय-मदि-सुदविभंगणाण-मिच्छाइट्ठि-असण्णीणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ___यहां इन छह कर्मोको आधार मान कर सत्, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व, इन अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं। यथा सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, और क्रियाकर्म है । आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म होते हैं। ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते, क्यों क, नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पांच महाव्रत नहीं होते । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये । सब प्रकारके देव, वैक्रियिकशरीर काययोगी और वैक्रियिकमिश्र काययोगी मार्गणाओंमें नारकियोंके समान भंग हैं। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म और क्रियाकर्म होते हैं। ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि, तिर्यचोंके महाव्रत नहीं होते। इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यच योनिनी और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके क्रियाकर्म नहीं होता क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पांच स्थावर काय, मति अज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग हैं । अर्थात् इनके प्रयोगकर्म, समवदान कर्म और अधःकर्म होते हैं, शेष कर्म नहीं होते । * ताप्रतो ‘णेरइय' इति पाठः । - आप्रतौ 'तवोकम्माणि आधाए णेरइएसु ओरालिय' ताप्रती 'तवोकम्माणि रइएसु णत्थि ओरालिय' इति पाठः । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. सीएम से मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु ओघं । एवं पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ततस-तसपज्जत्त - पंचमण-पंचवचिकायजोगि-ओरालिय-ओरालिय मिस्स कायजोगि कम्मइयकायजोगि आभिणि-सुद-ओहि-म गपज्जवणाणि संजद चक्खु अचक्खु - ओहिदंसणि सुक्कलेस्सियभवसिद्धिय - सम्माइट्ठि - खइयसम्माइट्ठि उवसमसम्माइट्ठि सण्णि आहा सुवत्तव्वं, विसेसाभावादो। आहार - आहार मिस्साणमोघ । णवरि इरियावथ कम्मं णात्थ; तत्थ खोणुवसंतकसायाणमभावादो। एवं तिण्णिवेद - चत्तारिकसाय-सामाइय-छेदोवट्ठावण - परिहार सुद्धिसंजदते उपम्मले स्सिय- वेदगसम्मादिट्ठीणं वत्तव्वं, अविसेसादो । सुहुमसांपराइय- जहाक्खादविहार सुद्धिसंजदाणमोघं । णवरि किरियाकम्मं णत्थि ; ज्झाणेगग्गमणाणं तदसंभवादो। णवरि सुहुमसांपराइएस इरियावथकम्मं पि णत्थि सकसा सु तदसंभवादो। अवगदवेद - अक्साइ केवलणाणि केवल दंसणीणं जहाक्खादविहारसुद्धिसंज दभंगो | संजदासंजदेसु अस्थि पओअकम्म-समोदाजकम्म-आधा कम्म किरियाकस्माणि । एवमसंजद- किण्हणील- काउलेस्सियाणं पि वत्तव्वं । एवमभवसिद्धिय - सासणसम्माइट्ठिसम्मा-मिच्छाइट्ठीनं वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मं णत्थि । अणाहारेसु ओघं । एवं संतपरूवणा समत्ता । ९२ ) मनुष्यगति में मनुष्यों में तथा मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें ओघ के समान कर्म होते हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचन योगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगीं, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्यसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनमें कोई भेद नहीं है । आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगियोंके अधिक समान कर्म होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योंकि वहां पर क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय अवस्थाओंका अभाव है । इसी प्रकार तीन वेद, चार कषाय, सामायिकसयत छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, पीत लेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनमें कोई विशेषतः नहीं है । सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातविहार शुद्धिसंयत जीवोंके ओघके समान कर्म होते हैं । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता, क्योंकि इनका मन ध्यान में लगा रहता है, इसलिये वहां क्रियाकर्मका होना असंभव है । साथ ही इतनी और विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों के ईर्यापथ कर्म भी नहीं होता, क्योंकि, कषायसहित जीवोंका ईर्यापथ कर्म नहीं हो सकता । अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंके समान कर्म होते हैं । संयतासंयतजीवोंके प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म और क्रियाकर्म होते हैं । इसी प्रकार असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कापोत लेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये । तथा इसी प्रकार अभव्यसिद्धिक, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के भी कहना चायिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नही होता । अनाहारक जीवों के ओघ के समान कर्म होते हैं । इस प्रकार सत्प्ररूपणा समाप्त हुई । ताप्रतौ 'संजम' इति पाठ : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे भावकम्मपरूवणा ( ९३ दव्वपमाणाणुगमे भण्णमाणे ताव दव्वद पदेसटुदाणं अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पओअकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मेसु जीवाणं दव्वदा ति सण्णा। जीवपदेसाणं पदेसट्टदा त्ति ववएसो। समोदाणकम्म-इरियावथकम्मेसु जीवाणं दव्वट्ठदा त्ति ववएसो। तेसु चेव जीवेसु द्विवकम्मपरमाणूणं अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाणं सिद्धहितो अणंतगुणहीणाणं पदेसट्टदा त्ति सण्णा। आधाकम्मम्मि अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणाणं सिद्धहितो अणंतगुणहीणाणं ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधाणं दवढदा ति सण्णा। तेसु चेव ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधेसु टिदपरमाणूणमभवसिद्धिएहितो अणंतगुणाणं सिद्धहितो अणंतगुणहीणाणं पदेसट्टदा त्ति सण्णा। ___ संपहि एदेण अट्ठपरेण दव्वपमाणाणुगमे भण्णमाणे दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण पओगकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणं दव्वट्ठपदेसट्टदाओ इरियावथकम्मपदेसद्वदा च केवडिया? अणंतातं जहा-पओगकम्म-समोदाणकम्माणमणंतिमभागण सव्वजीवरासिस्स दव्वट्ठदाए गहणादो। एदेसि पदेसट्टदा वि अणंता; एदेसु जीसेसु घणलागेण गुणिदेसु पओगकम्मपदेसट्टदाए पमाणुप्पत्तोदो । तेसु चेव जीवेसु कम्मपदेसेहि गुणिदेसु समोदाणकम्मपदेसट्टदापमाणुप्पत्तीदो।इरियावथकम्मपदेसट्टदा वि अणंता चेव; सयलवीयरायकम्मपदेसग्गहणादो। आधाकम्मदग्दट्ठदा अणंता।कुदो? ओरालियसरीरणो द्रव्यप्रमाणानुगमका कथन करते समय सर्व प्रथम द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताके अर्थका कथन करते हैं । यथा- प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म में जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है , और जीवप्रदेशोंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। समवदानकर्म और ईर्यापथकर्ममें जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं जीवोंमें स्थित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन कर्म-परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। अधःकर्ममें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन ओदारिक शरीरके नोकर्म स्कन्धोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धोंमें स्थित अभव्योंसे अनन्त गुणे और सिद्धोंसे अनन्त गुणे हीन परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। अब इसी अर्थपदके अनुसार द्रव्यप्रमाणानगमका कथन करने पर निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्मोकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता, तथा ईर्यापथकर्म की प्रदेशार्थता कितनी है ? अनन्त है । यथाप्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थतारूपसे अनन्तवें भाग कम सब जीवराशि ग्रहण की गई है । इनकी प्रदेशार्थता भी अनन्त है, क्योंकि, इन जीवोंका घनलोकसे गुणित करने पर प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थताका प्रमाण उत्पन्न होता है, और इन्हीं जीवोंको उनके कर्मप्रदेशोंसे गणित करने पर समवदान कर्मकी प्रदेशार्थताका प्रमाण उत्पन्न होता है । ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता भी अनन्त ही है, क्योंकि, इसके द्वारा सकल वीतराग जीवोंके कर्मप्रदेशोंका ग्रहण किया गया है । अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्त है. क्योंकि, इसके द्वारा औदारिक शरीरके अनन्त नोकर्मस्कन्धोंका ग्रहण किया गया है। और इसकी प्रदेशार्थता भी अनन्त है, क्योंकि, एक एक ॐ ताप्रतो' दवद्विद ' - इति पाठः । - अ-आप्रत्यो ‘पदेसट्टदाए अणंता, इति पाठ. । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. कम्मक्खंधाणमणंताणं गहणादो । तस्स पदेसदृदा वि अणंता; एक्केक्कम्हि णोकम्मक्खंधे अनंताणं परमाणूणमुवलंभादो । इरियावथ तवोकम्मदव्वदृदा केवडिया ? संखेज्जा । कुदो? महव्वयधारीणं जीवाणं मणुस्सपज्जत्ते मोत्तूण अण्णत्थ अणुवलंभादो । तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जा; घणलोगेण संखेज्जमहव्वइजीवेसु गुणिदेसु संखेज्जघणलोवलंभादो । किरियाक म्मदव्वट्टदा असंखेज्जा । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसम्माइट्ठीसु चेव किरियाकम्मुवलंभादो । तस्स पदेसदा वि असंखेज्जा । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागसम्माइद्विरासिणा घणलोगे गुणिदे असंखेज्जलोगपमाणुपत्तदो । एवं कायजोगि ओरालियकायजोगि ओरालिय मिस्स कायजोगिकम्मइयकायजोगि अचक्खुदंसणिभवसिद्धिय आहारअणाहारयाणं वत्तत्वं । णवरि ओरालिय मिस्स कायजोगीसु किरियाकम्मदव्वद्वदा संखेज्जा । रियगदीए रइए पओअकम्म-समोदाणकम्म किरियाकम्माणं दव्वदा पदेसट्टदाच केवडिया? असंखेज्जा । णवरि समोदाणकम्मपदेसदा अगंता; पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तरासिणा अभवसिद्धिएहितो अनंतगुणे सिद्धानमणंतिमभागे कम्मपदेसे गुण अतरासिसमुप्पत्ती दो| एवं पढमाए पुढवीएव तव्वं । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । गवरि सेड.ए असंखेज्जदिभागेण घणलोगे गुणिदे पओअकम्मपदेसदा होदि; तत्थ नोकर्मस्कन्धमें अनन्त परमाणु पाये जाते हैं । । पथकर्म और तपः कर्म की द्रव्यार्थता कितनी है ? संख्यात है, क्योंकि, महाव्रतधारी जीव मनुष्यपर्यातकों को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते । तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात है, क्योंकि, संख्यात महाव्रतधारियोंको घनलोकके द्वारा गुणित करनेपर संख्यात घनलोक उपलब्ध होते हैं । क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता असंख्यात है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सम्यग्दृष्टियोंमें ही क्रियाकर्म पाया जाता है । और इसकी प्रदेशार्थता भी असंख्यात है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सम्यग्दृष्टि राशिद्वारा घनलोकके गुणित करने पर असंख्यात लोकोंकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षु दर्शनी भव्यसिद्धिक, आहारक और अनाहारक जीवोंका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगियों में क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता संख्यात है । नरकगति में नारकियोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, और क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता कितनी है ? असंख्यात है । इतनी विशेषता है कि समवदान कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्त है, क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण राशिद्वारा अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तवेंभागप्रमाण कर्मप्रदेशों को गुणित करनेपर अनन्तराशिकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में कथन करना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन पृथिवयोमे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे घनलोक के ९४ ) तातो 'अण्णस्स' इति पाठ: । 'पदेसदा संखेज्जा' इति पाठ: । 'असंखेज्जा' इति पाठः । तातो 'संखेज्जा' आ-प्रतौ 'पदेसदृदाए संखेज्जा' ताप्रती ताप्रतौ 'कायजोगिऔरालियमिस्स' इति पाठ: । ॐ अ-ताप्रत्योः . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माणुओगद्दारे भावकम्मपरूवणा ( ९५ पओअकम्म दव्वदाए सेडीए असंखेज्जदिभागत्तवलंभादो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण घणलोगे गुणिदे किरियाकम्मपदेसट्टदा होदि ; पलिदोवमअसंखज्जदिभागमेत्तदव्वदाए तत्त्थुवलंभादो। सेडीए असंखेज्जदिभागेण एगजीवकम्मपदेसेसु कयमज्झिमपमाणेसु गुणिदेसु समोदाणपदेसट्टदा होदि, सेडीए असंखेज्जदिभागमेतदव्वठ्ठदाए तत्थुवलंभादो। 'प्रक्षेपकासंक्षेपेण' एदेण सुत्तेण एत्थ समकरणं कायव्वं । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओघं। णवरि इरियावथ-तवोकम्माणि णत्थि; तत्थ महव्वयाणमसंभवादो। (एवमसंजद-किण्ह-णील-काउलेस्सियाणं पि क्त्तव्यं ।) पंचिदियतिरिक्खतिगेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि दव्वदाए पदरस्स असंखेज्जदिभागो। पओअकम्मपदेसट्टदा पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता घणलोगा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंता; पदरस्स असंखेज्जदि भागेण एगजीवसमकरणुप्पप्णकम्मपदेसेसु गुणिदेसु अणंतरासिसमुप्पत्तीदो। आधाकम्मदबढदा अणंता; एगजीवस्स एगसमयणिज्जिण्णतप्पाओग्गाणंतओरालियणोकम्मवग्गणाणं गहणादो। पदेसट्टदा वि अणंता, आधाकम्मदव्वदाएअभवसिद्धिएहि अणंतगुणेहि सिद्धाणमणंतिमभागेहि णोकम्मपदेसेहि गुणिदाए अणंतरासिसमुप्पत्तीदो । किरियाकम्मदव्वट्ठदा पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । पदेसट्टदा असंखेज्जा लोगा; पलिदोवमस्स असंखज्जदि भागेण गुणित करनेपर प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता होती है, क्योंकि, वहां पर प्रयोग कर्मकी द्रव्यार्थता जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र पाई जाती है । और पल्योपमके असंख्यातवें भागसे घनलोकके गुणित करनेपर क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता होतीहैं, क्योंकि, वहां पर क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र पाई जाती है । और जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे मध्यम प्रमाणरूपसे ग्रहण किये गये एक जीवके कर्मप्रदेशोंके गुणित करने पर समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता होती है, क्योंकि, वहां पर समवदान कर्मकी द्रव्यार्थता जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र पाई जाती है । 'प्रक्षेपक: संक्षेपण' इस सूत्रद्वारा यहां पर समीकरण कर लेना चाहिये। तिर्यंचगतिमें तियों में अघके समान द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता होती है। इतनी विशेषता है कि यहां पर ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि, इन जीवोंके महाव्रतका पाया जाना सम्भव नहीं है। (इसी प्रकार असंयत तथा कृष्ण नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंकेभी कहना चाहिए। ) पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्म द्रव्यार्थताकी अपेक्षा जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र घनलोक है । समवदानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्त है, क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यातवें भागसे एक जीवके समीकरणद्वारा उत्पन्न हुए कर्मप्रदेशोंके गुणित करने पर अनन्त राशिकी उत्पत्ति होती है । अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्त है, क्योंकि, एक जीवके एक समयमें निर्जीर्ण होनेवाले और निर्जराके योग्य अनन्त औदारिक नोकर्मवर्गणाओंका इसके द्वारा ग्रहण किया गया है। इसकी प्रदेशार्थता भी अनन्त होती है. क्योंकि, अधःकर्मको द्रव्यार्थता द्वारा अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र नोकर्मप्रदेशोंके गुणित करनेपर अनन्त राशिकी । है। इनक क्रियाकमका द्रव्याथता पल्योपमक असंख्यातवे भागमात्र है, आर प्रदेशार्थता असंख्यात - - - 8 ताता दवट्ठदाए' इति पाठः । * अ-आप्रत्यौ: 'पदेसटुदाए' इति पाठः। - ताप्रतौ 'दबढ़दा' इति पाठ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१ घणलोगे गुणिदे पदेसट्टदुप्पत्तीदो । एवं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं पि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मं णत्थि । एवं बीइंदिय-तीइंदिय-चरिदियाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पंचिदिय अपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पुढवो-आउ-तेउ-वाउ-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं पि वत्तव्वं । णवरि अप्पप्पणो पदेसट्टदागुणगारो जाणिदव्वो। मणुसगदीए मणुस्सेसुपओअकम्म-समोदाणकम्माणं दव्वट्ठदा सेडीए असंखेज्जदिभागो।पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जा लोगा। कुदो? घणलोगेण सेडीए असंखेज्जदि. भागेण गुणिदे पओअकम्मपदेसट्टदापमाणुप्पत्तीदो। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंता; सेडीए असंखज्जदिभागेण समयाविरोहिकम्मपदेसेसु गुणिदेसु समोदाणकम्मपदेसट्टदुप्पत्तीदो । सेसचत्तारि पदा ओघं। णवरि किरियाकम्मदव्वटदा संखज्जा। पदेसट्टदा असंखेज्जा; संखेज्जजीवेहि घणलोगे गुणिदे तप्पदेसट्टदुप्पत्तीदो। एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि पओअकम्मसमोदाणकम्मदव्वट्ठदा संखेज्जा। पओअकम्मपदेसट्टदा संखेज्जा लोगा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंता; संखेज्जपरूवेहि एगपक्खेवकम्मपदेसेसु गुणिदेसु समोदागकम्मपदेसट्टदुप्पत्तीदो। मणुसअपच्जताणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।पंचिदियदुगस्स मणुस्सोघं। णवरि किरियाकम्म लोकप्रमाण है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागसे घनलोकके गुणित करनेपर यहां क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता उत्पन्न होती है । इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, वसअपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भी कथन करना चाहिये।इतन। विशेषता है कि अपनी अपनी प्रदेशार्थताका गुणकार जानना चाहिये। मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थता जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। प्रयोगकर्मको प्रदेशार्थता असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि, घनलोकसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागको गुणित करने पर प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थताका प्रमाण उत्पन्न होता है। समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्त है, क्योंकि, जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे यथाशास्त्र कर्मप्रदेशोंके गुणित करने पर समवदान कर्मको प्रदेशार्थना उत्पन्न होती है। शेष चार पद ओघके समान हैं। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मको द्रव्यार्थता संख्यात है और प्रदेशार्थता असंख्यात है, क्योंकि संख्यात जीवोंसे घनलोकके गुणित करनेपर क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता उत्पन्न होती है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है। तथा प्रयोगकर्मको प्रदेशार्थता संख्यात लोकप्रमाण है, और समवदान कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्त है, क्योंकि, संख्यात अंकोंसे एक जीवके प्रति प्राप्त कर्मप्रदेशोंके गणित करने पर समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता उत्पन्न होती है । मनुष्य अपर्याप्तकोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान है। अ-प्रतीः 'असंखेज्जा' इति पाठः । 0 आ-'ताप्रत्योः समोदाणपदेसठ्ठदा' इति पाठः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं दव्वपमाणं दव्व-पदेस*ट्टदाणमोघभंगो। पओअकम्मादिपदाणं पदेसद्वदाए गुणगारो जाणिदूण भाणिदव्वो। एवं तसदोणि-पंचमण-पंचवचिजोगि-इत्थि-पुरिसवेद-आभिणि-सुदओहिणाण-चक्खुदंसण-ओहिदसण तेउ पम्म सुक्कलेस्सिय- सम्माइटि-खइयसम्माइट्टिवेदगससम्माइटिउवसमसम्माइट्टिसणि ति। णरि अप्पप्पणो पदाणि पदेसट्टदागुणगारं च जाणिदूण वत्तव्वं। देवगदीए देवेसु भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियप्पहुडि जाव सोधम्मीसाणे त्ति ताव णारगभंगो। सणक्कुमारप्पहुडि जाव अवराइदे त्ति ताव बिदियपुढविभंगो। वेउविय-वे उब्वियमिस्सकायजोगीणं देवभंगो। सवठे सव्वपदाणं मणुस्सपज्जत्तभंगो। इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सव्वपदा अणंता। एवं सव्वएइंदिय-सव्ववणफदिकाइय-मदिसुदअण्णाणि-अभवसिद्धि-मिच्छाइट्टि असण्णीणं वत्तव्वं । बादरवणप्फदिपत्तैयसरीराणं बादरपुढविकायभंगो। विभंगणाणीणं देवभंगो। णवरि किरियाकम्म णस्थि। आहारआहारमिस्सकायजोगीसु पओअकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणं दवढदा संखेज्जापदे. सट्टदा संखेज्जा लोगा। समोदाणकम्मदव्वदृदा संखेज्जा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंता, संखेज्जरूवेहि * एगजीवकम्मपदेसेसु गुणिदेसु तस्स पदेसद्वदुप्पत्तीदो। आधाकम्मदव्वट्ठ पंचेन्द्रिय द्विकका कथन सामान्य मनुष्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन ओघके समान है। यहां प्रयोगकर्म आदि पदोंकी प्रदेशार्थताका गुणकार जानकर कहना चाहिये । इसी प्रकार त्रसद्विक, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपने अपने पदों और प्रदेशार्थताके गुणकारका जानकर कथन करना चाहिये । देवगतिमें देवोंमें भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्प तकके देवोंमें वहां सम्भव पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन नारकियोंके समान है। सनत्कुमारसे लेकर अपराजित तकके देवों में वहां सम्भव पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन दूसरी पृथिवीके समान है । वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका कथन देवोंके समान है । सर्वार्थसिद्धि में सब पदोंका कथन मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें सब पद अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, मतिअज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके कहना चाहियोबादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका भंग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। विभंगज्ञानियोंका कथन देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जोवोंके प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है, और प्रदेशार्थता संख्यात लोक प्रमाण है । समवदानकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है और उसीकी प्रदेशार्थता अनंत है, क्योंकि, संख्यात रूपोंसे एक जीव के कर्म प्रदेशोंके गुणित करनेपर उसकी प्रदेशार्थता उत्पन्न होती है। तथा अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता अनन्त ४ ताप्रतो । किरियाकम्मपदेस- ' इति पाठा। * अप्रती ' संखेज्जारूवेहि ' इति पाठ: 1 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३२. पदेसट्टदा अणंता । एवं संजद-सामाइयछेदोवढावण-परिहारविसुद्धि-सुहुमसांपराइयसंजदासंजदेसु वत्तव्वं । णवरि अप्पप्पणो पदाणं पमाणं जाणिदूण वत्तन्वं । अवगदवेदेसु पओअ-समोदाग-इरियावह-तवोकम्माणं दवढदा संखेज्जा । पओअ-तवोकम्माणं पदेसट्टदा संखेज्जा लोगा । समोदाणइरियावहकम्माणं पदेसट्टना अणंता। आधाकम्मस्स दवट-पदेसट्रदा अणंता । एवमकसाइकेवलणाणि-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद-केवलदंसणीणं पि वतव्वं । णवंसयवेदाणमचक्ख० भंगो । णवरि इरियावहकम्म णस्थि । एवं कोधादिचत्तारिकसायाणं पि वत्तव्वं । मणपज्जवणाणोणं संजदभगो । एवं दव्वपमाणं समत्तं । खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण पओअकम्मसमोदाणकम्म-आधाकम्मदम्बट-पदेसटुदाओ केवडि खेते ? सव्वलोगे । इरियावहतवोकम्माणं दव्वट्ठ-पदेसट्टदाओ केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । किरियाकम्मदव्वटु-पदेसट्टदा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवं कायजोगि-भवसिद्धियाणं पि वत्तव्वं । एवमोरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-णवंसयवेद-चत्तारिकसायं---अचक्खुदंसणिआहारीणं पि वत्तव्वं । णवरि केवलिभंगो णत्थि। है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत. छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपयिकसंयत और संयतासंयत जीवोंका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपने अपने पदोंका प्रमाण जानकर कहना चाहिये । __अपगतवेदियोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है । प्रयोगकर्म और तपःकर्मको प्रदेशार्थता संख्यात लोक प्रमाण है। समवदानकर्म और ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्त है । तथा अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता अनन्त है । इसी प्रकार अकषायी, केवलज्ञानी यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत और केवलदर्शनियोंका भी कथन करना चाहिए । नपुंसकवेदियोंका कथन अचक्षुदर्शनवालोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां ईर्यापथकर्म नहीं होता । इसी प्रकार क्रोधादि चार कषायवालोंका कथन करना चाहिये ।मनःपयर्यज्ञानियोंका कथन संयतोंके समान है। इस प्रकर द्रव्यप्रमाणानुगमका कथन समाप्त हुआ। क्षेत्रानगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ।ओधसे प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कितना क्षेत्र है? सब लोक क्षेत्र है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कितना क्षेत्र है? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सब लोक क्षेत्र है। क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कितना क्षेत्र है? लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है । इसी प्रकार काययोगी और भव्योंके भी कथन करना चाहिये। इसी प्रकार औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगो, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले और आहारकोंके भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें केवलिजिनोंका भंग नहीं पाया जाता । कार्मण *ताप्रती एवं सामाइय ' इति पाठः। अप्रतौ ' तवकम्माणं पदेसटुदा ' इति पाठः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं खेत्तरूवणा कम्मइयकायजोगीसु एवं चेव। णवरि इरियावह तवोकम्माणं दबटु-पदेसट्टदाओ केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । एवमणाहारीणं। णवरि इरियावह-तवोकम्माणं दबटु-पदेसटुदाओ केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु सवलोगे वा । णवरि तवोकम्मस्स लोगस्स असंखेज्जदिभागे वि । कुदो ? अजोगिजिणं पडुच्च तदुवलंभादो*। __आदेसेण णिरयगदीए रइएसु सव्वपदाणं दवट्ठ-पदेसट्टदाओ केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। एवं सव्वणिरय-पंचिदियतिरिक्खतिग-पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्त-मणुसअपज्जत्त-सव्वदेव-सव्वविलिदिय-पंचिदियअपज्जत्त तसअपज्जत्तबादरपुढविपज्जत्त-बादरआउपज्जत्त-बादरतेउपज्जत्त-बादरवाउपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्त-बादरणिगोदपदिट्टिदपज्जत्त-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिवेउब्विय-वेउस्विमिस्स-आहार -आहारमिस्स- इत्थि-पुरिसवेद-विभंगणाणि-आभिणिबोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणि-सामाइय - छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारविसुद्धिसंजद-सुहमसांपराइयसंजद -संजदासंजद-चक्खुदंसणि-ओहिदंसणि-तेउ-- पम्मलेस्सा-वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइटि- सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्टि - सण्णीणं वत्तन्वं । णरि बादरवाउपज्जत्ता लोगस्स संखेज्जदिभागे। आधाकम्म सव्वमग्गणासु सव्वलोगे त्ति वत्तव्वं । काययोगवालोंके इसी प्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार अनाहारकोंके भी कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि ईपिथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक क्षेत्र है। उससे भी इतनी विशेषता है कि इनके तपःकर्मका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण भी क्षेत्र है, क्योंकि, अयोगी जिनकी अपेक्षा इतना क्षेत्र उपलब्ध होता है। आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें सब पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। इसी प्रकार सब नारकी, पंचेंद्रिय तिर्यंचत्रिक, पंचेंद्रिय तियं च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, सब विकलेंद्रिय, पंचेंद्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंपत,परिहारविशुध्दि संयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यक, पद्मलेश्यक, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी मागंणावाले जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें सब पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग है तथा अधःकर्मका क्षेत्र सब मार्गणाओंमें सब * ताप्रती, तत्थुवलंभादो' इति पाठः। ताप्रती ' असंखेज्जदिभागे' इति पाठ 1 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु अप्पप्पण्णो पदाणमोघभंगो। एवमसंजद-किण्णणील-काउलेस्सियाणं पि वत्तव्वं । मणुसगदीए मणस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-इरियावहकम्म-तवोकम्माणं दवट्ठ-पदेसट्टदा लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। आधाकम्मदव्वटु-पदेसट्टदा सव्वलोगे। किरियाकम्मदव्वट-पदेसटुदा लोगस्स असंखेजदिभागे। एवं पंचिदियदोणि-सव्वतसदोणि सुक्कलेस्सिया। एइंदिए सव्वपदा सवलोगे। एवं बादर. पुढविअपज्जत्त-बादरआउअपज्जत्त-बादरतेउअपज्जत - बादरशउअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय-सरीरअपज्जत्त-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जताणं । तेसिं चेव पंचण्णं कायाणं सुहमपज्जत्तापज्जत्ताणं दोण्णिअण्णणाणि-अभवसिद्धि-मिच्छाइटि-असण्णीणं च वत्तव्वं । अवगदवेदाणं सव्वपदा लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्व. लोगे वा। एवं (अकसाइ-) केवलणाणि-केवलसणि-जहाक्खादसंजदाणं* वत्तन्वं । एवं संजदाणं । णवरि किरियाकम्मं लोगस्स असंखेज्जदिभागे। एवं सम्माइट्ठिखइयसम्माइट्ठीणं वत्तव्वं । एवं खेत्तं समत्तं । पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपदाणमदीदलोकप्रमाण है , ऐसा कहना चाहिये । तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें अपने अपने पदोंका क्षेत्र ओघके समान हैं। इसी प्रकार असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कपोत लेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये। मनुष्य गतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, ईर्यापकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका क्षेत्र लोकका असख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग और सब लोक है। अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता क्षेत्र सब लोक है । तथा क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थताका र प्रदेशार्थताका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार पचेन्द्रिय द्विक त्रसद्विक और शक्ल लेश्यावाले जीवोंके सब पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका क्षेत्र जानना चाहिय । एकेन्द्रियोंमें सब पदोंका क्षेत्र सब लोक है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त बादर वायुकायिक अपप्ति, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपप्ति, वे ही पांचों स्थावर कायिक तथा उनके सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त, दोनों अज्ञानी, अभव्य सिद्धिक, मिथ्यादष्टि और असंज्ञियोंके कहना चाहिये। __ अपगतवेदवालोंमें सब पदोंका लोकका असंख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग, और सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार केवलज्ञानी अकषायी केवलदर्शनी और यथाख्यातविशुद्धिसयत जीवोंके कहना चाहिये। तथा इसी प्रकार संयतोंके कहना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके कहना चाहिये । इस प्रकार क्षेत्र अनुयोगद्वाराका कथन समाप्त हुआ। स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ओघसे सब पदोंका अतीत और वर्तमानकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। यहां इतनी विशेषता है ताप्रती ' दोण्णि- एइदि सव्वपदा ' इति पाठः ] *अ-काप्रत्योः । जहाक्खादसंजदासंजदाणं इति पाठः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं फोसणपरूवणा (१०१ वट्टमाणेण खत्तभंगो। गरि किरियाकम्मस्स अदीदेण अट्ट चोदसभागा देसूणा पोसणं । णिरयगदीए णेरइएसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणं वट्टमाणेण खेत्तभंगो। अदीदेण मारणंतिय उववादेण छ चोद्दसभागा वा देसणा। किरियाकम्मस्स वट्टमाणेण खेत्तभंगो। अदीदेण वि खेत्तभंगो चेव । एवं सत्तमाए पुढवीए। णवरि किरियाकम्मस्स मारणंतियउववादं णस्थि । पढमाए पुढवीए अदीद-वट्टमाणेण खेत्तभंगो। विदियादि जाव छट्टि त्ति वट्टमाणेण सव्वपदाणं खेत्तभंगो। अदीदेण पओगकम्म-समोदाणकम्माणं मारणंतिय. उववादेहि एक्क-बे तिण्णि-चत्तारि-पंचचोदस*भागा देसूणा । किरियाकम्मस्स अदीद-वट्टमाणेण खेत्तभंगो। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणमदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो। किरियाकम्मस्स वट्टमाणेण खेत्तभंगो। अदीदेण मारणंतियपदस्सचछ चोद्दसभागा देसूणापंचिदियतिरिक्खतिगस्स सवपदाणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जभागो। अदोदेण सव्वलोगोणवरि आधाकम्मस्स अदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो। किरियाकम्मस्स अदीदेण तिरिक्खोघोचिदियतिरिक्खअपज्जत्त०पओगकम्म-समोदाणकम्माणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जविभागो। अदीदेण सव्वलोगो। आधाकम्मस्स अदीदवट्टमाणेण सव्वलोगो। कि क्रियाकर्मका स्पर्शन अतीतकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है। ___ नरकगतिमें नारकियोंमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका स्पर्शन वर्तमानकी अपेक्षा क्षेत्रके समान है । अतीत काल का आश्रय कर मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है । क्रियाकर्मका वर्तमान स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अतीत स्पर्शन भी क्षेत्रके समान ही है । इसी प्रकार सातवी पृथिवी में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहां क्रियाकर्मका मारणान्तिक और उपपाद पद नहीं होता। पहली पृथिवीमें अतीत और वर्तमानको अपेक्षा क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर छटवीं पृथिवी तक वर्तमानकी अपेक्षा सब पदोंका क्षेत्रके समान स्पर्शन है। तथा अतीतकी अपेक्षा प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदकी दृष्टिसे क्रमश: कुछ कम एक बटे चौदह भाग, कुछ कम दो बटे चौदह भाग, कुछ कम तीन बटे चौदह भाग, कुछ कम चार बटे चौदह भाग और कुछ कम पांच बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्शन है । क्रियाकमका अतीत और वर्तमानकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तिर्यंच गति में तिर्यंचों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोक है। क्रियाकर्म वर्तमान स्पर्शन क्षेत्रके समान है ।मारणान्तिक पदकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण है । पंचेन्द्रिय त्रिर्यञ्चत्रिकके सब पदोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतीत स्पर्शनि सब लोक है । इतनी विशेषता है कि अधःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोक है । क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन सामान्य तिर्यचोंके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तके प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अतीत स्पर्शन सब लोक है। अधःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोक है। * अप्रतो 'पोसणं ३२ ' इति पाठ। *ताप्रती 'पंचछचोद्दस ' इति पाठ: 1 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड मणसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणु सिणीसु सव्वपदाणमदीद-वट्टमाणेण खेत्तभंगो। णवरि पओअकम्म समोदाणकम्माणमदीदेण सबलोगो। मणुस्सअपज्जत्ताण पंचिदियतिरिक्खअपज्जतभंगो। ___ देवगदीए देवेसु पओअकम्म समोदाणकम्म-किरियाकम्माण वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अदीदेण अट्ठ-णव चोद्दसभागा वा देसूगा। णवरि किरियाकम्मस्स अदीदेण अट्ट चोद्दसभागा वा देसूणा । एवं भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिथसोहम्मोसाणाणं वत्तव्वं । सणक्कुमारप्पहुडि जाव सहस्सारे ति सव्वपदाणमेसेव भंगो। णवरि णव चोद्दस भागा णत्थि । आणद-पाणद-आरण-अच्चुददेवाणं सव्वपदाणं पि छच्चोहसभागा देसूणा । अट्ट चोइस भागा णस्थि । हेट्ठिम-हेटिमगेवज्जप्पहुडि जाव सम्वसिद्धि ति ताव तिण्णं पि पदाणमदीद-वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो। इंदियाणुवादेण एइंदियाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणमदीदवट्टमाणेण सव्वलोगो। विलिदियाणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिदिय चिदियपज्जत्त० पओअकम्म -- - समोदाणकम्माणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेन्जदिभागो। अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । केवलिणो पडुच्च लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो श। आधाकम्मस्स अदीद वट्टमाणेण सव्वलोगो। इरियावह-तवोकम्माण मनुष्य गतिमें मनुष्य, मनुष्प पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब पदोंका अतीत और वर्तमान स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका अतीत स्पर्शन सब लोक है । तथा मनुष्य अपर्याप्तकोंका पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान स्पर्शन है। देवगतिमें देवोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह, भागप्रमाण व कुछ कम नौ बटे चौदह भाग प्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशान स्वर्गके देवोंके कहना चाहिये । सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें सब पदोंका यही स्पर्शन है । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन नहीं है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पके देवोंके सभी पदोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण है । यहां आठ बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्शन नहीं है । अधस्तन अधस्तन ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके तीनों ही पदोंका अतीत और वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों के प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अध:कर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोक है। विकलेन्द्रियोंके उक्त सब पदोंका स्पर्शन पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवदान कर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण और सब लोक प्रमाण है । केवलज्ञानियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोकके असंख्यान बहुभाग प्रमाण और सब लोक प्रमाण स्पर्शन है। अधःकर्मका अतीत और . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ४ ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं फोसणपरूवणा मदीद वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । किरियाकम्मस्सर वट्ट माणेण लोगस्त असंखेज्जदिभागो। अदीदेण अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । पचिदियअपज्जत्ताणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। कायाणुवादेण पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणप्फदीणं एदेसि बादराणं बादरअपज्जत्तार्ण बादरणिगोदरज्जत्तापज्जतागं पंचण्णं कायाणं सुहमपज्जतापज्जतागं च पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणमदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो। बादरपुढविबादरआउ-बादरतेउ-बादरवाउ-बादरवणप्फविपत्तेयसरीरपज्जत्ताणं तसअपज्जत्ताणं च पंचिदिय*पज्जत्तभंगो । णवरि बादरवाउपज्जत्ताणं वट्टमाणेण लोगस्स संखेज्जदिभागो। तसदोणि पंचिदियदुगभंगो। जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणं पंचिदियपज्जत्तभंगो। णवरि केवलिसमग्घादो पत्थि। कायजोगीणमोघ ओरालियकायजोगीण खेत्तभंगो। णवरि किरियाकम्मरस अदीदेण छ चोइस भागा देसूणा। ओरालियमिस्सजोगीणं खेत्तभंगो। वेउवियकायजोगीसु सव्वपदाणं वट्टमाणेण खेत्तभंगो। अदीदेण अट्ठ तेरह चोद्दसभागा वा देसूणा। वर्तमान सर्शन सब लोकप्रमाण है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है। क्रियाकर्मकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके वहां सम्भव पदोंका स्पर्शन पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान है। ___ कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त जीवोंके तथा बादर निगोद और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंके तथा पांचों स्थावरकायिक सूक्ष्म और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और अधःकर्मका अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शन सब लोकप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त तथा त्रस अपर्याप्त जीवोंके यहां सम्भव पदोंका स्पर्शन पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंके वर्तमान स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। त्रसद्विकके सब पदोंका स्पर्शन पंचेन्द्रियद्विकके समान है। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके सब पदोंका स्पर्शन पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इन योगोंके रहते हुए केवलिसमुद्वात नहीं होता। काययोगी जीवोंके सब पदोंका स्पर्शन ओघके समान है । औदारिककाययोगियोंके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकमका अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके वहां संभव सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सब पदोंका वर्तमानकालीन ४ अ-आ-प्रत्योः । किरियाकम्मं ' इति पाठ: 1 *ताप्रती । तसअपजतागं च पंचिदियअपज्जत्तागं च पंचिदिय ' इति पाठः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ४, ३१. णवरि किरियाकम्मस्स तेरह चोदसभागा णस्थि । वेउवियमिस्सकायजोगीणं खेत्तभंगो। आहारदुगकायजोगीणं खेत्तभंगो। कम्मइयकायजोगीसु खेत्तभंगो। णवरि किरियाकम्मस्स अदीदेण छ चोद्दसभागा देसूणा । वेदाणुवादेण इत्थि-पुरिसवेदाणं पओअकम्म.-समोवाणकम्माणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा वा सव्वलोगो वा । आधाकम्मस्स अदीदवट्टमाणेण सव्वलोगो। तवोकम्माणं खेत्तभंगो। एवं किरियाकम्मस्स वि । णवरि अदीदेण अट्ट चोद्दसभागा देसूणा। णवंसयवेदाणं खेत्तभंगो। वरि अदीदेण किरियाकम्म० मारणंतियपदस्स छ चोदसभागा देसूणा । अवगदवेदाणं खेत्तभंगो। कसायाणुवादेण चदुण्णं कसायाणं खेत्तभंगो । णवरि अदीदेण किरियाकम्मस्स अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा । अकसाईणं खेत्तभंगो। णाणाणुवावेण मदि-सुदअण्णाणीसु सव्वपदाणमदीद-वढमाणाणंखेत्तभंगो।विभंगणाणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणं वट्टमाणेण लोयस्स असंखेज्जदिभागो । अदीदेण अट्ट तेरह चोद्दसभागा देसूणा सव्वलोगो वा । आधाकम्मस्स ओघो। आििण-सुद-ओहिणाणीसु स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका स्पर्शन तेरह बटे चौदह भागप्रमाण नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। आहारद्विक काययोगी जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीतकालीन स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंके प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सब लोक है । अधःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोक है। तप:कर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका स्पर्शन भी जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है । नपुंसक वेदवाले जीवोंके वहां सम्भव पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण हैं। अपगतवेदवाले जीवोंके वहां सम्भव पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है । कषायरहित जीवोंके यथासम्भव पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मतिअज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सब पदोंका अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विभंगज्ञानियोंमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण, कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है। अध:कर्मका स्पर्शन . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं फोसणपरूवणा (१०५ सव्वपदाणं वट्टमाणेण लोयस्स असंखेज्जदिभागो। अदीदेण अटू चोदृसभागा देसूणा। इरियावह-तवोकम्माणं खेत्तभंगो। आधाकम्मस्स ओघो। मणपज्जव-केवलणाणीणं खेत्तभंगो। संजमाणुवादेण संजद-सामाइय-छेदोवट्ठावण-परिहारविसुद्धि-सुहुमसांपराइयजहाक्खाद-संजदाणमप्पप्पणो पदाणं खेत्तभंगो। संजदासंजद० सव्वपदाणं वट्टमाणेण लोयस्त असंखेज्जविभागो । अदीदेण छ चोदसभागा देसूणा । वरि अधाकम्मस्स ओधभंगो । असंजदाणं खेत्तभंगो । णवरि किरियाकम्मस्स अदीदेण अट्ट चोद्दसभागा देसूणा। दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो। गवरि केवलिभंगो पत्थि । अचक्खदंसणीसु सव्वपदाणं खेत्तभंगो; णवरि किरियाकम्मरस अदीदेण अट्ट चोद्दसभागा देसूणा । ओहिदसणीणमोहिणाणिभंगो । केवलदसणीणं केवलणाणिभंगो। लेस्साणुवादेण किण्ण-णील-काउलेस्सियाणं सव्वपदाणं सव्वपदाणं अदीदवट्टमाणेण सव्वलोगो। णवरि किरियाकम्मस्स अदीद-वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो । तेउलेस्साए पओअकम्मसमोदाण कम्माणं वट्टमाणेण लोयस्स ओघकेसमान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सब पदोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण हैं । ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अधःकर्मका स्पर्शन ओघके समान है । मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवोंमें सम्भव पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।। . संयममार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके अपने अपने पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सयतासंयत जीवोके सब पदोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अध:कर्मका स्पर्शन ओघके समान है । असंयत जीवोंके सम्भव पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण हैं । गंणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंके सम्भव सब पदोंका स्पर्शन त्रस पर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां केवलिसमुद्धातसे प्राप्त होनेवाला स्पर्शन नहीं होता। अचक्षुदर्शनवाले जीवोंके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण होता है । अवधिदर्शनवाले जीवोंका स्पर्शन अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनवाले जीवोंका स्पर्शन कवलिज्ञानियोंके समान है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके सब पदोंका अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शन सब लोकप्रमाण है । इतनो विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पीत लेश्या में प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण है। अधःकर्मका स्पर्शन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड असंखेज्जविभागो। अदीदेण अटु णव चोद्दसभागा देसूणा । आधाकम्मस्स ओधभंगो' तवोकम्मस्स खेत्तभंगो। किरियाकम्मरस अदीदेण अट्ट चोदृसभंगा देसूणा। पम्मलेस्साए पओअकम्म-समोदाणकम्म किरियाकम्माणं पट्टमाणेण तेउभंगो । अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा । तवोकम्मस्स खेत्तभंगो। आधाकम्मस्स ओघो। सुक्कलेस्साए पओअकम्म समोदाणकम्माणमदीद-वट्टमाणेण लोयस्स असंखेज्जदिभागो छ चोद्दसभागा देसूणा असंखज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । आधाकम्मस्स ओघभंगो। इरियावह-तवोकम्माणं खेत्तभंगो। किरियाकम्मस्स छ चोद्दसभागा देसूणा। भवियाणुवादेण भवसिद्धियाणमोघभंगो। अभवसिद्धिय० सव्वपदाणं खेत्तभंगो । सम्मताणुवादेण सम्माइट्टि-खइयसम्माइट्ठीसु पोअकम्म समोदाणकम्माणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जविभागो। अदीदेण अट्ट चोद्दसभागा देसूणा असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा। आधाकम्मस्स अदीदण-वट्टमाणेण सव्वलोगो कुदो ? सरीरादो ओसरिदूण ओदइयभावमछंडिय एगसमएण सव्वलोगमावूरिय द्विवाणं णोकम्मखंधाणमाधाकम्मभावनभुवगमादो। इरियावथ तवोकम्माणं खेत्तभंगोकिरिया० अदीदेण अट चोद्दसमागा देसूणा। वेदगसम्माइट्ठी० सव्वपदाणं वट्टमाणेण लोयस्स असंखेज्जविभागो।अदौदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा। आधाकम्मस्स ओघभंगो तवोकम्मस्स खेत्तभंगो। उवसमसम्माइट्ठी ओघके समान है । तपःकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है। लेश्या में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका वर्तमान स्पर्शन पीत लेश्याके समान है। अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बट चौदह भागप्रमाण है। त कर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं । अधःकर्मका स्पर्शन ओघके समान है। शुक्ल लेश्यामें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण, और सब लोकप्रमाण है। अध:कर्मका स्पर्शन ओघके समान है। ईर्यापथ और तपःकर्मका स्पर्शन क्षत्रके समान है । तथा क्रियाकर्मका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है । भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंके सब पदोंका स्पर्शन ओघके समान है। अभव्योंके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है। अधःकर्मका अतीत और वर्तमान स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, क्योंकि, शरीरसे पृथक होकर और औदयिक भावको न छोडकर एक समय द्वारा सब लोकको व्याप्त कर स्थित हुए नोकमस्कंधोंके अधःकर्मभाव स्वीकार किया गया है। ईपिथकर्म और तपःकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं । तथा क्रियाकर्मका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंके सब पदोंका वर्तमान स्पर्शन ओघके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है। अधःकर्मका स्पर्शन ओघके समान है। तथा तपःकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंके सव पदोंका वर्तमान स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अतीत Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १०७ सव्वपदाणं वट्टमाणेण खेत्तभंगो। अदीदेण अट्ठ चोहसभागा देसूणा । आधाकम्मस्स ओघो । तवोइरियाकथवम्माणं खेत्तभंगो । सासणसम्माइट्ठी० सव्वपदाणं वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अदीदेणं बारह चोहसभागा देसूणा । आधाकम्मस्स खेत्तभंगो । सम्मामिच्छाइट्ठी० दोष्णं पदाणं वट्टमाणेण लोयस्स असंखंज्जदिभागो । अदीदेण अट्ठ चोहसभागा देसूणा । आधाकम्मस्स ओघभंगो । मिच्छाइट्ठी ० सव्वपदाणमोघभंगो । सणियाणुवादेण सण्णीणं चक्खुदंसणीणं भंगो । असण्णीणं खेत्तभंगो । आहाराणुवादेण आहारएसु सव्वपदाणमोघभंगो। णवरि केवलिभंगो णत्थि । अणाहाराणं कम्मइयभंगो । णवरि तवोकम्मं लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । एवं पोसणं समत्तं । काला गमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । ओघेण पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो, अभवसिद्धिएसु कम्माणं पज्जवसाणाभावादो । अणादिओ सपज्जवसिदो भवसिद्धिएसु सिज्झमाणए कम्माणं पज्जवसाणुवलंभादो । आधाकम्म स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण है । अधःकर्मका स्पर्शन ओघ के समान है । तथा तपःकर्म और ईर्यापथकर्मका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । सासादनसम्यदृष्टियोंके सब पदोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अतीत स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण है । अधः कर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके दो पदोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण है। तथा अधःकर्मका स्पर्शन ओघ के समान है । मिथ्यादृष्टियोंके सब पदोंका स्पर्शन ओघ के समान है । विशेषार्थ -- यहां सासादनसम्यग्दृष्टियों के कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि इनका मेरुमूलसे नीचे पांच राजु और ऊपर सात राजु स्पर्श देखा जाता है । शेष कथन सुगम हैं । संज्ञि मार्गणा अनुवादसे संज्ञियोंके सम्भव सब पदोंका स्पर्शन चक्षुदर्शनी जीवों के समान है, तथा असंज्ञी जीवोंके सम्भव सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें सब पदोंका स्पर्शन ओघके समान हैं । इतनी विशेषता है कि यहा केवलिसमुद्धात सम्बन्धी स्पर्शन नहीं होता । अनाहारकों के सम्भव पदोंका स्पर्शन कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तपःकर्मका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोक प्रमाण हैं । इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ । कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ निर्देश और आदेश निर्देश | ओघ से प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा अनादि - अनन्त काल है, क्योंकि अभव्योंके इन कर्मोंका अन्त नहीं होता । अनादि सान्त काल है, क्योंकि सिद्धिको प्राप्त होनेवाले भव्योंमें इन कर्मोंका अन्त देखा जाता अ आ-काप्रतिषु ' सिज्झमाणासु' इति पाठः । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ४, ३१. केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा। एगजीवं पडच्च जहण्णेण एगसमओ। कुदो ? जीवादो णिज्जिण्णपढमसमए ओरालियभावेणच्छिय बिदियसमए छंडिदओरालियणोकम्मभावेसु खंधेसु एगसमयकालुवलंभादो। उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। कुदो? जीवादो णिज्जिण्णणोकम्मक्खंधाणमुक्कस्सेण ओदइयभावमछंडिय असंखेज्जलोगमेत्तकालमवट्ठाणुवलंभादो। इरियावथतवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ अंतोमुहत्तं च । कुदो* ? उवसंतकसायस्स इरियावथकम्मेण एगसमयमच्छिदूण बिदियसमए देवेसु उववण्णस्स एगसमयकालवलंभादो। तवोकम्मजहण्णकालो अंतोमहत्तं । कूदो? विट्रमग्गम्मि अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइटिम्मि• संजमं घेत्तण सव्वजहण्णेण कालेण असंजमं गदम्मि तदुवलंभादो। असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो वा संजमस्स यवो। उक्कस्सेण दोण्णं पि कालो देसूणपुवकोडी। कुदो ? देव-जेरइयखइयसम्माइद्विस्स पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववज्जिय गम्भादिअट्ठवरसाणं अंतोमुत्तम्भहियाणं उरि संजमं घेतूण तवोकम्मस्स आदि करिय पुणो अंतोमहुत्तेण खीणकसायगुणढाणं पडिवज्जिय इरियावथकम्मस्स आदि करिय सजोगी होदूण अंतोमुत्तब्भहियअटुवस्सेहि ऊणियं पुवकोडि सव्वमिरियावहं तवीकम्मं च अणुपालिदूण जिव्वुअस्स तदुवलंभादो। है। अधःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि, जो स्कंध जीवमे निर्जीण होने के प्रथम समयमें औदारिक रूपसे रहते हैं और दूसरे समयमें औदारिक नोकर्मभावका त्याग कर देते हैं उन स्कन्धोंम अधःकर्मका एक समय काल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, क्योंकि जो नोकर्मस्कन्ध जीवसे निर्जीर्ण हो जाते हैं उनका औदयिक भावको न छोडकर उत्कृष्ट अवस्थान असंख्यात लोकप्रमाण काल तक पाया जाता है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल ईर्यापथ कर्मका एक समय और तपःकर्मका अन्तर्मुहर्त है, क्योंकि, जो उपशान्तकषाय जीव ईपिथकर्म के साथ एक समय रहकर दूसरे समयमें देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके ईर्यापथकर्मका एक समय काल उपलब्ध होता है । तपःकर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि, दृष्टमार्ग अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्कर्मवाला जो मिथ्यादृष्टि जीव संयमको ग्रहणकर सबसे जघन्य काल द्वारा असंयमको प्राप्त होता है उसके तपःकर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त उपलब्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवको संयममें ले जाकर यह काल ले आना चाहिये। तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है, क्योंकि जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीव मरकर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अंतर्महर्त के बाद संयमको ग्रहण कर तपःकर्मको प्रारम्भ करके पुनः अन्तर्मुहुर्तके द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्त होकर ईर्यापथकर्मको प्रारम्भ करके सयोगी होते हैं और वहांपर अन्तर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटि काल तक पूरी तरहसे ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका पालन कर निर्वाणको प्राप्त * अ-आ-काप्रतिषु ' एगसमओ कुदो ' इति पाठः1 . अ-आ-काप्रतिषु 'मिच्छाइट्टि ' इति पाठः] ४ प्रतिषु 'संजदासजदा ' इति पाठः । 9 अप्रतो — ओणिय ' इति पाठः । . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १०९ किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । कुदो ? मिच्छाइटि-सम्मामिच्छाइट्ठीहितो सम्मत्तं पडिवज्जिय सवजहण्णमंतोमुत्तकालमच्छिय मिच्छतं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णस्स जहण्णकालसंभववलंभावो । कुदो ? तिरिवखमिच्छाइट्ठीहितो वा मणुसमिच्छाइट्ठीहितो वा पुवकोडिऊणचोद्दससागरोवमाउछिदिलांतव-काविट्ठदेवेसुववज्जिय तत्थ पढमसागरोवमे अंतोमहत्तावसेसे तिण्णि वि कारणाणि कादण पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय सव्वक्कस्समुवसमसम्मत्तकालमच्छिय बिदियसागरोवमस्स आदिसमए वेदगसम्मत्तं घेत्तण देसूणतेरससागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण मणुसेसु उवज्जिय संजमं घेत्तण पुणो आगामिमणुस्साउएणणणबावीससागरोवमट्टिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उवज्जिय पुणो पुवकोडाउअं बंधिय मणुस्सेसुववज्जिय तत्थ संजमं पडिवज्जिय पुणो आगामिमणुस्साउएणूणएक्कती ससागरोवमाउटिदिएसु उरिमगेवज्जदेवेसु उववण्णो । पुणो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उवज्जिय तत्थ संजममणुपालेमाणो अंतोमुत्तावसेसे आउए खइय सम्माइट्ठी होदूण तेत्तीससागरोवमाउटिदिएसु सम्वसिद्धिविमाणवासियदेवेसु उववज्जिय पुणो पुवकोडाउएसुमणुस्से सु उववण्णो सवजहण्णंतोमहुत्तेण सिज्झिदव्वमिदि अपुव्वखवगो होते हैं उन जीवोंके उक्त दोनों कर्मोंका यह उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अंतर्मुहर्त है,क्योंकि, जो मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और सबसे जघन्य अतमहत काल तक वहां रहकर पुनः मिथ्यात्व या सम्याग्मथ्यात्वको प्राप्त होता है उसक इस जघन्य कालकी संभावना देखी जाती है। उत्कृष्ट काल सादिक छयासठ सागर है, क्योंकि कोई एक तिर्यंच मिथ्यादृष्टि या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव एक पूर्वकोटि कम चौदह सागरोपम आयुवाले लांतव-कापिष्ठ देवोंमें उत्पन्न हआ। फिर वहां प्रथम सागरोपम में अंतर्महर्त काल शेष रहनेपर तीनों ही करणोंको करके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर उपशमसम्यक्त्वके सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त काल तक उसके साथ रहकर दूसरे सागरोपमके प्रथम समयमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर कुछ कम तेरह सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करते हुए मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ आर वहा सयमका ग्रहण कर पुनः आगामी मनुष्यायुके प्रमाणसे कम बाईस सागरोपमकी आयुवाले आरण-अच्युत देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयको बांधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहां संयमको प्राप्त होकर पुनः आगामी मनुष्यायुके प्रमाणसे न्यून इकतीस सागरोपम आयुवाले उपरिम ग्रेवेयकके देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां संयमका पालन करते हुए आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षायिकसम्यग्दृष्टि हुआ। फिर मरकर तेतीस सागरोपम आयुवाले सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहां जब सबसे जघन्य अंतर्मुहूर्त काल द्वारा सिद्ध हुआ तब अपूर्वकरण क्षपक हुआ। यहां इसका क्रियाकर्म नष्ट हो जाता है । अ-आ-काप्रतिषु 'लंतय ' इति पाठः। ४ ताप्रती । सागरोवमट्टिदिएसु' इति पाठः 1 * अ-आ-ताप्रतिषु ‘खविय' इति पाठ: 1 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. जादो ट्ठ किरियाकम्मं । पुणो आदिल्लउवसमसम्मत्त सव्वदोहकालमाणेण सव्वरहसअव्वअणियट्टि - सुहुम- खीण- सजोगिकालेणूणपुब्वकोडीए उवरि द्वविदे सादिरेgoaकोडी होदि । एवं सादिरेयपुव्वकोडीए तेत्तीस सागरोवमेहि य अहियछावट्ठसागरोवममेत्त किरियाकम्मुक्कस्तकालुवलंभादो । आदेसेण गदियाणुवादेण निरयगदीए णेरइएसु पओअकम्म-समोदाणकम्मानि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सब्बद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण दसवास सहस्साणि, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त । कुदो ? दिमग्गमिच्छाइठि - सम्मामिच्छाइट्ठीहितो आगंतून सम्मत्तं घेत्तूण सव्वजहण्ण - मंतोमुहुत्तं तत्थ अच्छिय गुणंतरं गयहस सव्वजहण्ण किरियाक मकालुवलंभादो । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । कुदो ? अट्ठावीससंतकम्मियतिरिक्खमस्सेहितो अधोसत्तमाए पुढवीए उववज्जिय छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो होण विस्समिय विसोहि गंतूण वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय किरियाकम्मस्स आदि करिय तो किरियाकमेण सह तेत्तीस सागरोवमाणि विहरमगो सव्वजहणअंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छत्तं गदो । गठ्ठे किरियाकम्मं । तदो आउअं बंधिदूण विस्संतो होण सिरिदो । आदिल्ला तिरिण, अंतिल्ला वि तिणि, एवमेदेहि छहि अंतोमहुत्तेहि फिर प्रारम्भ में हुए उपशमसम्यक्त्व के सबसे बड़े कालको लाकर उसे; अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानके सबसे जघन्य कालसे न्यून एक पूर्वकोटिप्रमाण काल में मिलानेपर साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण काल होता है । इस प्रकार क्रियाकर्मका साधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम अधिक छ्यासठ सागरोपम प्रमाण काल उपलब्ध होता है । आदेश से गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियों में प्रयोगकर्म और समवधान Saint कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । क्रियाकर्मका कितना काल है ? जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि दृष्टमार्ग जीव मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे आकार और सम्यक्त्वको ग्रहण कर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक वहां रहकर पुनः अन्य गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके क्रियाकर्मका सबसे जघन्य काल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावाला जो तिर्यंच या मनुष्य पर्यायसे आकर और नीचे सातवीं पृथिवी में उत्पन्न होकर पुनः छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर और विश्राम करके विशुद्धिको प्राप्त होनेके बाद वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके क्रियाकर्मको प्रारम्भ करता है । तदनन्तर क्रियाकर्म के साथ तेतीस सागर काल तक रहकर जब आयु में सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तब मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । उसके यहां क्रियाकर्म नष्ट हो जाता है । तदनन्तर आगामी आयुका बन्ध करके और विश्राम करके नरकसे निकलता है । इस प्रकार आदिके तीन और अन्त भी तीन, इस प्रकार इन छह अन्तर्मुहूर्तोंसे न्यून तेतीस सागर क्रियाकर्मका उत्कृष्ट . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १११ उणतेत्तीससागरोवममेत्तकिरियाकम्मुक्कस्सकालवलंभादो । एवं सत्तमाए पुढ-- वीए पओअकम्म--समोदाणकम्म-किरियाकम्माणं जहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कायग्वा। गरि पओअकम्म.-समोदाणकम्माणं जहण्हकालो समयाहियबावीससागरोवमाणि । पढमादि जाव छट्टि त्ति पओअकम्म--समोदाणकम्माणं समए जहण्णकालो जहाकमेण वसवस्ससहस्साणि एग--तिण्णि-सत्त-सत्तारससागरोवमाणि समयाहियाणि । उक्कस्सकालो एग-तिण्णि-सत्त-दस - सत्तारस-बावीससागरोवमाणि संपुण्णाणि । किरियाकम्म केवचिरं कालादो होवि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, सत्तसु पुढवीसु सस्वकालं सम्माइट्ठिविरहाभावादो । एग-- जीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । कुदो ? मिच्छाइट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीहितो आगंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थ सव्वजहण्णं कालमच्छिय गुणंतरं गयम्मि जीवे तदुवलंभादो । उक्कस्सेण सग- सगुक्कस्सद्विदीयो तीहि अंतोमहुत्तेहि ऊणाओ। के ते तिष्णिअंतोमहत्ता? छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदम्मि एक्को विस्समणे बिदियो, विसोहिआवरणे तदियो मुहुत्तो। किमटुमेदे अवणिज्जते? ण, एदेसु सम्मत्तग्गहणाभावादो। सत्तमीए च छ ण्णमंतोमुहुत्ताणं परिहाणी एग-तिण्णि-सत्त-दरा सत्तारस-बावीससागरोवमेसु किण्ण कदा ? ण, एस दोसो, एदेहितों सम्मत्तेण सह काल उपलब्ध होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मके जवन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करना चाहिय । इतनी विशेषता है कि यहां प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका जघन्य काल एक समय अधिक बाईस सागर है। पहली पृथिवीसे लेकर छठवीं पथिवी तक प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका जधन्य काल क्रमसे दस हजार वर्ष, एक समय अधिक एक सागर, एक समय अधिक तीन सागर, एक समय अधिक सात सागर, एक समय अधिक दस सागर और एक समय अधिक सत्रह सागर है । उत्कृष्ट काल क्रमसे सम्पूर्ण एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, और बाईस सागर है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है, क्योंकि, सातों पृथिवियोंमें सदा सम्यग्दृष्टि जीव पाये जाते हैं, उनका विरह नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमहर्त है, क्योंकि जो जीव मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर वहां सबसे जघन्य अन्तर्मुहर्त काल तक रहकर अन्य गुणस्थानको प्राप्त होते हैं उनके यह काल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट काल तीन अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। शंका - वे तीन अन्तर्मुहुर्त कौनसे हैं ? समाधान - छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेका प्रथम अन्तर्मुहूर्त है, विश्राम करनेका दूसर अन्तर्मुहूर्त है, और विशुद्धिको पूरा करनेका तीसरा अन्तर्मुहूर्त है। शका - ये अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे क्यों घटाये जाते हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि इन अन्तर्मुहूर्तोंके भीतर सभ्यक्त्वका ग्रहण नहीं होता। शंका - सातवीं पृथिवीमें अन्तर्मुहूर्तोंकी हानि होती है। वह हानि एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर और बाईस सागरमेंसे क्यों नहीं की ? Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ) छक्खंडागमे वम्गणा-खंड णिग्गमसंभवादो। सत्तमीए जादिविसेसेण* तदभावादो। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । आधाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणा. जीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। एवं सव्वमग्गणातु आधाकम्म यन्वं । किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि संपुण्णाणि । कुदो? मणुसम्मि दाणेण वा दाणाणमोदेण वा तिरिक्खाउअंबंधिय पुणो खइयसम्माइट्ठी होदूण देवकुरु-उत्तरकुरवेसु उपज्जिय तत्थ तिण्णि पलिदोवमाणि किरियाकम्ममणुपालेदूण देवेसु उवरणम्मि संपुण्णतिणिपलिदोवममेत्तकिरियाकम्मकालवलंभादो । (पचिदियतिरिक्ख-) पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-चिदियतिरिक्खजोणिणोसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुज्च जहण्गेण खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत, उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इन प्रथमादि छह पृथिवियोंमेंसे सम्यक्त्वके साथ निर्गमन सम्भव है; किन्तु सातवी पृथिवीमें जातिविशेष के कारण वहांसे सम्यक्त्वके साथ निर्गमन सम्भव नहीं है। यही कारण है कि एक आदि सागरमेंसे छह अन्तर्मुहूर्तोंकी हानि नहीं की। तिर्यंचगतिमें तिर्यचोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । अध:कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें अधःकर्मका काल जानना चाहिये । क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट काल पूरा तीन पल्य प्रमाण है, क्योंकि, मनुष्य पर्याय में रहते हुए दान देनेसे या दानकी अनुमोदना करनेसे तिर्यंचायु का बन्ध करके और इसके बाद क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर जो देवकुरु या उत्तरकुरुमें उत्पन्न होकर और वहां तीन पल्य काल तक क्रियाकर्मका पालन देवोंमें उत्पन्न होता है उस तिर्यचके क्रियाकर्मका पूरा तीन पल्य काल उपलब्ध होता है। ___पचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्म का कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहुर्त है तथा उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व * ताप्रतौ 'सत्तमीए च छण्णभंतोमुहत्ताण पि, जादिविसेसेण ' इति पाठः । 0 आ-का-ताप्रतिषु 'पंचिंदियतिरिक्ख-' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( ११३ किरियाकम्मस्स तिरिक्खभंगो। जवरि जोणिणीसु बेहि मासेहि महत्तपुधत्तेण य ऊणाणि तिणि पलिदोवमाणि किरियाकम्मुक्कस्सकालो होदि । कुदो ? सम्माइट्ठीणं जोणिणीसु उप्पत्तीए अभावादो । तत्थप्पण्णमिच्छाइट्ठीणं पि महत्तपुधत्ताहियबमासेसु अणदिक्कतेसु सम्मत्तगहणाभावादो। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडच्च सव्वद्धा। एगजीव पड़च्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । मणुस्सगदीए मणुस्सतिगस्स पंचिदियतिरिक्खतिगभंगो। णवरि किरियाकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। कुदो ? ओदारमाणअपुवकरण उवसामगस्स अप्पमत्तगणं परिवज्जिय किरियाकम्मेण परिणमिय बिदियसमए चेव मरणवलंभादो। उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडितिभागेणन्महियाणि । कुदो? मणुस्सम्मि अठ्ठावीससंतकम्मियम्मि* पुवकोडितिभागावसेसे भोगभूमिएसु मणुस्साउअंबंधिय अंतोमुत्तेण सम्मत्तं घेत्तण खइयं पविय अंतोमहत्तणपुव्वकोडितिभागं किरियाकम्ममणुपालेदूण देवकुरु-उत्तरकुरवेसु उप्पज्जिय तत्थ तिण्णि पलिदोवमाणि जीविदूण देवेसु उववण्णम्मि अंतोमहत्तणपुवकोडितिभागाहियतिणिपलिदोवममेत्तस्स किरियाकम्मुक्कस्सकालस्स उवलंभादो । एवं मणुसपज्जत्ताणं पि क्त्तव्वं । अधिक तीन पल्य है। क्रियाकर्मका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि योनिनियोंमें क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल दो माह और मुहर्तपृथक्त्व कम तीन पल्य है, क्योंकि सम्यग्दृष्टियोंकी योनिनियों में उत्पत्ति नहीं होती। और जो मिथ्यादृष्टि जीव उनमें उत्पन्न होते है उनके भी जब तक मुहूर्तपृथक्त्व अधिक दो माह काल नहीं निकल जाता तब तक सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं होता। पचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगतिमें मनुष्यत्रिकका भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचत्रिकके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि उतरनेवाले किसी अपूर्वकरण उपशामक जीवका अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होकर क्रियाकर्मरूपसे परिणमन करके दूसरे समयमें ही मरण देखा जाता है । उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि अट्ठाईस कर्मकी सत्तावाला जो मनुष्य आयुमें पूर्वकोटिका त्रिभाग शेष रहनेपर भोगभूमि सम्बन्धी मनुष्यायुका बन्ध करनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सम्यक्त्वको ग्रहण कर और तदनन्तर क्षायिक सम्यक्त्वको प्रारम्भ कर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिके त्रिभाग काल तक क्रियाकर्मका पालन करता है, पश्चात् मरकर देवकुरु या उत्तरकुरुमें उत्पन्न होकर और वहां तीन पल्यप्रमाण काल तक जीवित रहकर देवोंमें उत्पन्न होता है, उसके क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त न्यून पूवकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्यप्रमाण उपलब्ध होता है। इसी प्रकार है अ-आ-काप्रतिषु 'ऊणाणि पलिदो-' इति पाठः। * अ-आप्रत्योः 'संतकम्मयम्मि', काप्रती । संतकम्मम्मि ' इति पाठ: 1 अ-आप्रत्योः कालवलंभादो' इति पाठः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ११४ ) ( ५, ४, ३१. मणी किरियाम्ममेवं चेव । णवरि णवहि मासेहि एगूणवण्णअहोरतेहि य ऊणाणि तिष्णि पलिदोवमाणि किरियाकम्मुक्कस्सकालो होदि । इरियावथकम्म- तवोकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च ओघमंगो । मणुस्सअपज्जत्तेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवदीए देवेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एकजीवं पडुच्च जहणणेण दसवस्स सहस्रणि । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं किरियाकम्मं पि । णवरि जहणेण अतोमुहुत्तं । भवणवासिय वाणवेंतर जोदिसिय पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धि त्ति ताव पओअकम्मसमोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण जहाकमेण दसवस्ससहस्साणि ( दसवत्ससहस्साणि ) पलिदोवमस्स अट्ठमभागो पलिदोवमं सादिरेयं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण बे सत्त दस चोट्स सोलस अट्ठारस वीस बावीस तेवीस चउवीस पंचवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एक्कतीस बत्तीस सागरोवमाणि मनुष्य पर्याप्तकों के भी क्रियाकर्मका काल कहना चाहिये । मनुष्यिनियोंमें क्रियाकर्मका काल इसी प्रकार ही है । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल नौ माह और उनंचास दिन कम तीन पल्य है । ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका काल नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा ओघ के समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितता काल है ? नाना जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । देवगति में देवों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी काल है । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमसे दस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष, पल्योपमका आठवां भाग, पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक पल्य, एक समय अधिक दो सागर, एक समय अधिक सात सागर, एक समय अधिक दस सागर, एक समय अधिक चौदह सागर, एक समय अधिक सोलह सागर, एक समय अधिक अठारह सागर, एक समय अधिक बीस सागर, एक समय अधिक बाईस सागर, एक समय अधिक तेईस सागर, एक समय अधिक चौबीस सागर, एक समय अधिक पच्चीस सागर, एक समय अधिक छब्बीस सागर, एक समय अधिक सत्ताईस सागर, एक समय अधिक अट्ठाईस सागर, एक समय अधिक उनतीस सागर, एक समय अधिक तीस ताप्रती 'कम्ममेत्तं चेव' इति पाठ: 1 ताप्रती दसवसस्ससहस्साणि ( २ ) इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः 'एक्कत्तीस सागरोवमाणि' इति पाठ: 1 f . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( ११५ समयाहियागि। उक्कस्सेण दिवसागरोवमं पलिदोवम सादिरेयं पलिदोवमं सादिरेयं बे सत्त दस चोद्दस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि अंतोमहुत्तूणद्धसागरोवमेण सादिरेयाणि* । पुणो वीस बावीस तेवीस चउवीस पंचवीस छव्वीस सत्तावीस अट्टावीस एगणतीस तीस एक्कत्तीस बत्तीस तेत्तीस सागरोवमाणि संपुण्णाणि । भवणवासियप्पहुडि जाव उवरिमगंवज्जे ति किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पड़च्च सव्वद्धा। एगजीवं पड़च्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण दिवसागरोवमं, पलिदोवमं सादिरेयं, पलिदोवमं सादिरेयं । एदे तिणि वि काला छपज्जत्तिसमाणण-विस्समण-विसोहिआवरणअंतोमहुत्तेहि तीहि ऊणा । उवरिमेसु* किरियाकम्मुक्कस्सकालस्स पओगकम्मभंगो। अचिव-अच्चिमालिणिवइर-वइरोयण. सोम-सोमरुइ-अंक-फलिह आइच्चेसु किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एक्कत्तीससागरोवमाणि समयाहियाणि । उक्कस्सेण बतीस सागरोवमाणि । विजय-वैजयंत-जयंत-अवराइदेसु किरियाकम्म केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहणेण बत्तीस सागरोवमाणि समयाहियाणि । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । सागर, एक समय अधिक इकतीस सागर, और एक समय अधिक बत्तीस सागर है । उत्कृष्ट काल डेढ सागर, साधिक एय पल्य, साधिक एक पल्य, अन्तर्मुहुर्त कम अढाई सागर, अन्तर्मुहूत कम साढे सात सागर, अन्तर्महर्त कम साढे दस सागर, अन्तर्महतं कम साढे चौदह सागर, अन्तर्मुहूर्त कम साढे सोलह सागर, अन्तर्मुहूर्त कम साढे अठारह सागर, फिर सम्पूर्ण बीस सागर, बाईस सागर, तेईस सागर, चौबीस सागर, पच्चीस सागर, छब्बीस सागर, सत्ताईस सागर अट्ठाईस सागर, उनतीस सागर, तीस सागर, इकतीस सागर, बत्तीस सागर और तेतीस सागर हैं। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रेवेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है। और उत्कृष्ट काल भवनत्रिकमें क्रमसे डेढ सागर, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्य है। ये तीनों ही काल छह पर्याप्तियोंकी समाप्तिका एक अन्तर्मुहूर्त, विश्रामका दूसरा अन्तर्मुहुर्त और विशुद्धिकी पूर्तिका तीसरा अन्तर्मुहूर्त, इन तीत अन्तर्मुहुर्तोसे हीन है। अर्थात् ये तीन त घटा देनेपर अपना अपना उत्कृष्ट काल होता है। इसके आग नौ ग्रैवेयक तक पाकर्मका उत्कृष्ट काल प्रयोगकर्मके उत्कृष्ट कालके समान है। अचि अचिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सोम, सोमरुचि, अङ्क, स्फटिक और आदित्य, इन नौ अनुदिशोंमें क्रियाकर्मका कितना काल हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय अधिक इकतीस सागर है और उत्कृष्ट काल बत्तीस सागर है। विजय वैजयन्त जयन्त और अपजराजित इन चार अनुत्तरोंमें क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय अधिक बत्तीस सागर है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंके क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना * अप्रती 'सागरोवमसादिरेयाणि ', आप्रती सागरोवमाणि सादिरेयाणि ' इति पाठः । ४ आप्रती ' एक्कतीस तेतीस सागरोवमाणि' इति पाठः। का-ताप्रत्योः । उवरिसे 'इति पाठः। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. सव्वदसिद्धिविमाणवासियदेवाणं किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ।। इंदियाणुवादेण एइंदियाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अणंतकालं आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ता पोग्गलपरियट्टा । बादरेइंदियाणं पओ. अकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सपिणीओ। बादरेइंदियपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि। बादरेइंदियअपज्जत्ताणं पओअकम्मसमोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीव पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । सुहुमेइंदियाणं पओअकम्मसमोवाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सघद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण खुद्दाभवग्महणं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। सुहुमेइंदियपज्जताणं पओअकम्म समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वि अंतोमुहुत्तं चेव । सुहमेइंदियअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तेत्तीस सागर है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंके प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियोंके बराबर है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है । और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षद्रक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहुर्त ही है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( ११७ पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं तेसिं चेव पज्जताणं च पओ अकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि। बेइंदियतेइंदिय-चरिदिय--अपज्जताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं। उक्कस्सेण असोदि-सटि-ताल अंतोमहुतं । पंचिदिय-चिदियपज्जत्ताणं पओअकम्म-समो. दाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण. खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तेणउभहियं सागरोवमसदपुधत्तं । आधाकम्म-इरियावहकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणमोघभंगो। पंचिदियअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड़च्च जहण्णण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण चउवीस अंतोमुहुत्ता। कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-सुहमपुढविकाइय-सुहुम. आउकाइय-सुहुमतेउकाइय-सुहुमवाउकाइय-सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदाणं पओजीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके तथा उन्हीं के पर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण और अन्तर्महर्त है । उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अस्सी, साठ और चालीस अन्तर्महर्तप्रमाण है। पंचेन्द्रिय और पचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल तथा पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर और सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है । अध:कर्म, ईपिथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मका काल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है। और उत्कृष्ट काल चौबीस अन्तर्मुहुर्त है। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक. सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है। नाना जीवोंकी *ताप्रती · अतोमुहुत्ता ' इति पाठः । . आ-का-ताप्रतिष ‘णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण ' इति पाठः ॐ अ-आप्रत्यो: 'अंतोमुहुत्तो, काप्रती 'अंतोमुहुत्तं 'इति पाठः1 ताप्रती ' वाउकाइय-तेउकाइय'इति पाठः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड १०-बाद समोदा कम्पाणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । बादरपुढवि ० रआउ०- बादरतेउ० ० बादरवाउ०- बादरवणप्फ दिपत्तेयसरोर-- बादरणिगोदपदिट्टिदाणं पओअकस्म· समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण कम्पट्ठिदी । तेसि चेव पज्जताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सब्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्तसहसाणि । तेसि चेव अपज्जत्ताणं पओअकम्म समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्से अंतोमुहुत्तं । एवं सुहुमअपज्जत्ताणं । सुहुमपज्जत्ताणं पि एव चेव । गवरि एगजीवं पडुच्च जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं । वणव्कदिकाइयाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? जाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा , एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गणं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । निगोदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गल परियट्टा । बादरणिगोदाणं पओअकम्म-समोदाग कस्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीव अपेक्षा सबं काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल कमस्थितिप्रमाण है । उन्ही पर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकमका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । उन्हीं अपर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्म अपर्याप्तकों के जानना चाहिए। सूक्ष्म पर्याप्तकों के भी इसी प्रकार ही जानना चाहिए इतनी विशेषता है कि इनके एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है । वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । निगोदजीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अढाई पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। दादर निगोदजीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्म का कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहण I ( ५, ४, ३१. . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( ११९ पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड़च्च जहण्णेण खहाभवग्गहणं । उक्कस्सेण कम्मट्टिदी। तेसिं चेव पज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहणेण* अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण वि अंतोमहत्तं । तेसि चेव अपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । (तसकाइय.) तसकाइयपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति?णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा। एगजीवं पड़च्च जहण्णेण खुद्दाभवम्गहणं अंतोमुहुत्त। उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि बसागरोवमसहस्साणि । सेसपदाणमोघमंगो। तसकाइयअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं। उक्कस्सेण असीदि-सट्टि दाल-चदुवीसअंतोमहत्ताणं संखेज्जाणं समासमेत्ता । जोगाणवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगीणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिर कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ*। उक्कस्सेण अंतोमुत्तं । इरियावथ-तवो-किरियाकम्माणं पि एवं चेव वत्तन्वं । प्रमाण है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । उन्हींके पर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहर्त है। उन्हींके अपर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जधन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहुर्त है । तथा उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और पूरा दो हजार सागर है। शेष पदोंका काल ओघके समान है। त्रसकायिक अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस संख्यात अन्तर्मुहुर्तीका जितना जोड हो उतना है। ___ योगमार्गणाके अनुवादसे पांचो मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ईर्यापथकर्म तपःकर्म और क्रियाकर्मका प्रतिषु — कम्मट्ठिदी ' इत्येतस्यस्थाने ' अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओस प्पिणिउस्सप्पिणीओ ' इति पाठ । आप्रती ' अंतोमुहुत्तं इत्यत आरभ्य 'जहण्णेण पदपर्यन्तः पाठत्रुटितोऽस्ति । . प्रतिष - वि अंतोमहत्तं ' इत्येतस्य स्थाने संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ' इति पाठः। ताप्रती 'छमासमेत्ता' इति पाठ: 1 *ताप्रती जाणाजीवं० एगजीवं० एगसमओ ' इति पाठः ] अस्मिन् प्रकरणेऽन्यत्रापि च ताप्रती ' णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा , इत्येतस्य स्थाने 'णाणाजीवं० , इति पाठः 1 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. आधाकम्मस्स ओघभंगो। वेउव्वियकायजोगीसु पओअकम्म समोदाणकम्म-किरियाकम्माणि केचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पड़च्च सव्वद्धा। एमजीवं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति ? णाणजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहगणेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गल परियट्टा । सेसपदाणमोघभंगो। णवरि किरियाकम्मं जहण्णमंतोमुत्तं । एवमोरालयकायजोगीणं । णवरि जम्हि अणंतकालं तम्हि बावीसवस्ससहस्साणि अंतोमहत्तणाणि । ओरालियमिस्सकायजोगीस पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ। कुदो? कवाडग. दकेवलिम्हि तदुवलंभादो । उक्कस्सेण अंतोमहतं । तं कत्थवलब्भदे * ? सब्वटसिद्धीदो आगंतूण मणुस्सेसु उप्पण्णम्मि। इरियावह तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं० जहण्णण एगसमओ कुदो? कवाडगदकेरलिम्हि तदुबलभादो। उक्कस्सेण संखेज्जा समया। कुदो? ओदरण चडणवावाराणं कवाडं पडिवण्णेसु सजोगिजिणेसु भी काल इसी प्रकार कहना चाहिये। अधःकर्मका काल ओषके समान है। वैक्रियिककाययोगियोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नानाजीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। काययोगियों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल हैं जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंके बराबर है। शेष पदोंका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार औदारिककाय योगी जीवोंके सब पदोंका काल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां अनन्त काल है वहां अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष कहना चाहिये। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि कपाट - समुद्धातको प्राप्त केवली जिनके वह पाया जाता है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । शंका- यह कहां पाया जाता है ? समाधान- सर्वार्थसिद्धिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवके वह पाया जाता है । ईर्यापथकर्म और तप.कर्मका कितता काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि कपाटसमुद्धातको प्राप्त केवली जिनके वह पाया जाता है । उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि जो सयोगी जिन निरन्तर उतरने और चढनेके व्यापार द्वारा कपाट अ-आप्रत्यो। 'तं कुदो लब्भदे' इति पाठः । ताप्रती ' णाणाजीवं० एगजीवं० जहणणेण अ-आ-काप्रतिष ' णाणाजीवं पड़च्च सव्वद्धा एगजीवं पड़च्च जहण्णेण ' इति पाठः । . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२१ संखेज्जसमयाणमुवलंभादो। एगजीवं पडुच्ज जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। किरियाकम्म केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण वि अंतोमुहुत्तं चेव । णवरि जहण्णादो उक्कस्सं संखेज्जगणं, भूओकालवलंभादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । एदं कत्थुवलब्भदे*? छट्ठीदो पुढवीदो आगंतूण मणस्सेसु उववण्णम्मि । उक्कस्सेण वि अंतोमहत्तं चेव । सव्वसिद्धीदो आगंतूण मणुस्सेसु उववण्णम्मि एसो उक्कस्सकालो घेत्तत्वो। वेउविमिस्सकायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? जाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एमजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं तं कत्थुवलब्भदे ? सम्वसिद्धिम्हि उववण्णछम्मासखवणगिलाणसाहुम्मि । उक्कस्सकालो वि अंतोमुहुत्तं चेव । एसो कालो सत्तमाए पुढवीए उप्पण्णम्हि सवचिरेण कालेण पज्जत्ति गदचक्कहरम्मि उवलब्भदे । णवरि किरियाकम्मस्स पढमाए पुढवीए उप्पण्णसम्माइट्ठिम्हि उवकस्सकालो वत्तव्वो। ___ आहारकायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणि केवचिरं समुद्धातको प्राप्त हो रहे हैं उनके संख्यात समय पाये जाते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। क्रियाकमका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। इतनी विशेषता है कि जघन्यसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है, क्योंकि, यह बहुत काल पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है । शंका- यह कहां पाया जाता है? समाधान- यह छठी पथिवीसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवके पाया जाता है? उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । सर्वार्थसिद्धिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवके यह उत्कृष्ट काल ग्रहण करना चाहिए । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है। शंका- यह काल कहांपर उपलब्ध होता है ? समाधान- छह मास तक क्षपणा करनेवाला जो गिलान साधु सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें उत्पन्न होता है उसके यह काल उपलब्ध होता है ? उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । जो चक्रधर मरकर सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होकर अति दीर्घ काल द्वारा पर्याप्तियोंको समाप्त करता है उस नारकी जीवके यह काल उपलब्ध होता है । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल मरकर प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टि जीवके कहना चाहिये। आहारककाययोगियोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल २ काप्रती ' कत्थुवलंभादो ' इति पाठः। . प्रतिषु 'सव्वट्ठसिद्धीदो ' इति पाठः Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कालादो होंति ? णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । आहारमिस्सकायजोगीणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि चहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं, तत्थ मरण-जोगपरावत्तीणमभावादो। आहारदुगम्मि आधाकम्मस्स ओघभंगो। कम्मइयकायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण तिण्णि समया । इरियावह तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण तिणि समया । उक्कस्सेण संखेज्जा समया। एगजीवं पडुच्च जहण्णक्कस्सेण तिणि समया। किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण बे समया। वेवाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहणेज एगसमओ अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं। तवोकम्म केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवां पडुच्च सम्वद्धा। एगजीनं पडुच्च जहण्णेण* एगसमओ। उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीगं पडुच्च सव्वद्धा। है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा जधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त है। आहारमिश्रकाययोगी जीवोंके उक्त सब पदोंका काल इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहांपर जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अन्तर्महर्त है, क्योंकि इस योगके रहते हुए न तो मरण होता है और न योगका परिवर्तन भी होता है। आहारद्विकमें अध:कर्मका काल ओघके समान है। कार्मणकाययोगवाले जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदी जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल सौ पल्योपमपृथक्त्व प्रमाण और सौ सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है । तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है । क्रियाकर्मका ४ काप्रती 'णाणाजीवं पडुच्च जह• ', ताप्रती ‘णाणाजीव प० जह०' इति पाठः । ताप्रतावतोऽग्रे 'वा' इत्यधिक: पाठोऽस्ति। काप्रती एगजीवेण जह० ' इति पाठः । .. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२३ एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ* अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण आदिल्लेहि तीहि अंतोमहुत्तेहि ऊणाणि पणवण्णपलिदोवमाणि बेपुव्वकोडीहि तेत्तीससागरोवमेहि य सादिरेयाणि छावटिसागरोवमाणि। णवंसयवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं (पडुच्च सव्वद्धा।) एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेम अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। तवोकम्मस्स इथिवेदमंगो। किरियाकम्म केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं (पडुच्च सव्वद्धा।) एगजीवं पडुच्च जहणण एगसमओ। उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अवगदवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि इरियावहकम्म-तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं (पडुच्च सव्वद्धा।) एगजीनं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । कितता काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल आदिके तीन अन्तर्मुहर्त कम पचपन पल्य तथा दो पूर्वकोटि और तेतीस सागर अधिक छयासठ सागर है। नपुंसकवेदवाले जीवोंके प्रयोगकर्म औरसमवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तप:कर्मका भंग स्रीवेद जीवोंके समान है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अपगतवेदवाले जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तप:कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। विशेषार्थ- यहां वेदमागणाकी अपेक्षा सब कर्मोके कालका निर्देश किया गया है। स्त्रीवेद जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बतलानेका कारण यह है कि जो स्त्रीवेद जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करने के बाद उतरते समय एक समयके लिये स्त्रीवेद होकर मरणकर देव हो जाता है उसके यह जघन्य काल एक समय पाया जाता है। पुरुषवेदीके यह काल घटित नहीं होता, क्योंकि, पुरुषवेदी मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर पुरुषवेदी ही रहता है, इसलिये पुरुषवेदी जीवके उक्त दोनों पदोंका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त कहते समय उपशमश्रेणिसे उतारकर पुरुषवेदके उदयसे सम्पन्न करे और अन्तर्मुहुर्त कालके भीतर द्वितीय बार उपशमश्रेणिपर आरोहण कराके अपगतवेद अवस्थामें ले जाय । इस प्रकार पुरुषवेदी जीवके एक जीवको अपेक्षा उक्त दोनों पदोंका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त प्राप्त हो जाता है । एक जीवकी अपेक्षा तपःकर्मका जघन्य काल एक समय दोनों वेदवाले जीवोंको उपशमश्रेणिसे उतारकर और एक समयके लिये सवेदी बनाकर बादमें मरण कराके घटित करना चाहिये । जो स्त्रीवेद जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर और एक समयके लिये अप्रमत्त होकर मरणकर देव होता है उसके एक जीवकी अपेक्षा क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । इसी प्रकार जो पुरुषवेदी जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर और अन्तर्मुहुर्त कालके * काप्रती ‘णाणाजीवं० एगजीवं जह० एगजीवं० एगसमओ' इति पाठ: 1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कसायाणुवादेण चदुण्णं कसायाणं मणजोगीणं भंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो । णाणाणवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं (पडुच्च सव्वद्धा।) एगजीवं पडुच्च तिषिणभंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जहण्णण अंतोमुत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टो देसूणो । विभंगणाणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं (पडुच्च सव्वद्धा ।) एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । एसो कत्थुवलब्भदे ? देव-णेरइएसु सासणं गंतूण बिदियसमए मुदजीवम्मि । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सत्तमाए पुढवीए आदिल्लअंतोमुहुतेण ऊणाणि । आभिणिबोहिय०-सुद० ओहिणाणाणं पओअकम्म--समोदाणकम्म-किरियाकम्मागि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण लिय अप्रमत्त होकर पुनः उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है उसके क्रियाकर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा नपुंसकवेदवाले जीवोंके जघन्य काल एक समय यथासम्भव स्त्रीवेदवाले जीवोंके समान घटित कर लेना चाहिये । अपगतवेदवाले जीवोंके सम्भव' सब पदोंका एक जीवकी अपेक्षा एक समयप्रमाण जघन्य काल एक समय तक अपगतवेदी रखकर बादम मरण करानेसे प्राप्त होता है । इस प्रकार एक जीवको अपेक्षा सब पदोंका जघन्य काल एक समय कहां किस प्रकार घटित होता है, इसका विचार किया। शेष कथन सुगम है। कषायमार्गणाके अनवादसे चारों कषायवाले जीवोंके सब पदोंका काल मनोयोगी जीवोंके सब पदोंके कालके समान है। और कषायरहित जीवोंके सब पदोंका काल अपगतवेदवाले जीवोंके सब पदोंके कालके समान है। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवको अपेक्षा तीन भंग होते हैं। उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। विभंगज्ञानी जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। शंका - यह जघन्य काल कहांपर प्राप्त होता है ? समाधान - देव और नारकियोंसे जो जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिमें चला जाता है उसके यह जघन्य काल प्राप्त होता है। उत्कृष्ट काल प्रारम्भके अन्तर्मुहुर्तसे न्यून तेतीस सागर है जो सातवीं पृथिवीमें प्राप्त होता है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है । उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। ईर्यापथकर्मका कितना काल है ? नाना जीवों और एक * ताप्रती सागरोवमाणि ] सत्तमाए ' इति पाठः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२५ अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि। तवोकम्मं केवचिरं कालादो होवि? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । इरियावहकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं* पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। कुदो ? उवसंतकसायपढमसमए इरियावथकम्मेण परिणमिय बिदियसमए कालं काढूण देवेसु उववण्णम्हि एमसमयकालुवलंभादो। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । कुदो? उवसंत-खीणकसाएसु अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो। एवं मणपज्जवणाणीणं । णवरि जत्थ छावद्धिसागरोवमाणि भणिदाणि तत्थ देसूणपुवकोडी वत्तव्वा । किरियाकम्मस्स जहण्णण एगसमओ च. वत्तव्यो। केवलणाणीणं पओअकम्म-समो. दाणकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुत्वकोडी देसूणा । एवं केवलदसणीणं पि वत्तव्वं ।। संजमाणुवादेण संजदसव्वपदाणं मणपज्जवभंगो। णवरि इरियावथकम्मकालो उक्कस्सेण पुवकोडी देसूगा । सामाइय-छेदोवट्ठावण०जहाक्खाद---परिहार० संजदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म--इरियावथकम्मतवोकम्म---किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणा--- जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि, जो जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानके प्रथम समयमें ईर्यापथकर्मको प्राप्त होकर दसरे समयमें मरकर देव हो जाता है उसके एक समय काल प्राप्त होता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानोंम अन्तर्मुहुर्त मात्र काल प्राप्त होता है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके सब पदोंका काल कहना चाहिय। इतनी विशेषता है कि जहां छयासठ सागरोपम काल कहा है वहां कुछ कम एक पूर्वकोटि काल कहना चाहिये और क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय कहना चाहिये। केवलज्ञानी जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्महर्त है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसी प्रकार केवलदर्शनी जीवोंके भी कहना चाहिये । विशेषार्थ- मनःपर्ययज्ञानी जीवके क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय उपशमश्रेणिसे उतार कर और अप्रमत्त अवस्थामें एक समय तक क्रियाकर्मरूपसे परिणमा कर बादमें मरण कराकर देव पर्याय में ले जानेसे प्राप्त होता है। __संयममार्गणाके अनुवादसे संयत जीवोंके सब पदोंका काल मनःपर्ययज्ञानके सब पदोंके कालके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, यथाख्यातसंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? * अ-आ-काप्रतिष ‘णाणाजीवं ' इति पाठः । .आ-ताप्रत्योः 'कम्माणि ', काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः 1 8 ताप्रती 'च' इति नास्ति । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ / छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. जीव ( पडुच्च सव्वद्धा ।) एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । णवरि जहाक्खादसंजदेसु किरियाकम्मं णत्थि । सामाइय छेदोद्वावणपरिहार संजदाणमिरियावथकम्मं णत्थि । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणेगजीवं पडुच्च जहणंण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । संजदासंजदाणं मणपज्जवभंगो | णवरि किरियाकम्मरस पडुच्च जहण्णेण अंतोमहुत्तं । इरियावत्थकम्मं तवोकम्मं णत्थि । असंजदाणं मदिअण्णाणिभंगो। णवरि किरियाकम्मं एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमहूत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणपुण्वको डिसादिरेयाणि । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो। णवरि इरियावथकम्मस्स मणपज्जवभंगो। अचक्खुदंसणीणमोघो । णवरि इरियावत्थकम्मस्स जहणणे एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ओधिदंसणी मोहिणाणिभंगो । लेस्साणुवादेण किण्ह णील काउलेस्सियाणं पओअकम्म- समोदाणकंमाणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीव पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि दोहि अंतोमहुत्तेहि सादिरेयाणि । ' नाना जीवों की अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय ओर अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि हैं। इतनी विशेषता है कि यथाख्यातसंयत जीवोंके क्रियाकर्म नहीं होता । तथा सामायिकसंयत, छंदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धिसंयत tath पथकर्म नहीं होता । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सयतासंयत जीवोंके सम्भव पदोंका काल मन:पर्ययज्ञानके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां क्रियाकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । यहां ईर्यापथकर्म और तपः कर्म नहीं होते । असंयत जीवोंकी मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके क्रिया का एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त न्यून एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । दर्शन मार्गणा के अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंके सब पदोंका काल त्रस पर्याप्त जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथका काल मन:पर्ययज्ञानवाले जीवों के ईर्यापथकर्मके कालके समान है । अचक्षुदर्शनवाले जीवोंके सब पदोंका काल ओघके समान हैं । इतनी विशेषता है कि ईर्यापथकर्मका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवधिदर्शन वाले जीवोंके सब पदोंका काल अवधिज्ञानवाले जीवोंके सब पदोंके कालके समान है । लेश्यामार्गणाके अनुवाद से कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर, दो अन्तर्मुहूर्त XXX का ताप्रत्योः जहाक्खा द० सु' इति पाठः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२७ कम्मं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण छहि अंतोमहत्तेहि ऊणाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि तीहि अंतोमुत्तेहि ऊणाणि सत्तारस सत्त सागरोवमाणि । तेउ-पम्मलेस्साणं पओअकम्मसमोदाणकम्म-किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंत्तोमुहुत्तं । किरियाकम्मस्स एगसमओ। उक्कस्सेणादिल्लंतिमबेअंतोमहत्तेहि अंतोमहत्तणद्धसागरोवमेण च सादिरेयाणि बे-अट्ठारससागरोवमाणि । तवोकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । एवं सुक्कलेस्साए । णवरि किरियाकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुत्तं । उक्कस्सेणादिल्लंतिमदोहि अंतोमहुत्तेहि सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि । इरियावथ-तवोकम्माणि कंवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीगं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ अतोमुत्तं । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । कुदो ? इरियावथकम्मस्त एक्को देवो वा रइओ वा खइयसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। गम्भादिअट्टवस्साणमुवरि अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । तदो पमत्तो अप्पमत्तो अपुव्वखवगो अणियट्टिखवगो सुहुमखवगो होदण खीणकसाओ जादो। इरियावथकम्मस्स आदी विट्ठा। तदो सजोगिजिणो होदूण जाव पुव्वकोडि विहरदि ताव इरियावथकम्मं लब्भदि । एवं गब्भादिअटुवस्सेहि अधिक सत्रह सागर दो अन्तर्मुहूर्त अधिक सात सागर है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर, तीन अन्तर्मुहुर्त कम सत्रह सागर और तीन अन्तर्मुहूर्त कम सात सागर है । पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय है। उत्कृष्ट काल आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तथा अन्तर्मुहूर्त न्यून आधा सागर अधिक दो सागर और अठारह सागर है । तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सद काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार शुक्ल लेश्यामें जानना चाहिये। इतनी विशषता है कि क्रियाकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। ईपिथकर्म और तपःकर्म का कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहुर्त है । तथा उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, क्योंकि कोई देव या नारकी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ। तदनन्तर प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वक्षपक, अनिवृत्तिक्षपक और सूक्ष्मसाम्परायिकक्षपक होकर क्षीणकषाय हुआ। यहांसे ईर्यापथ कर्मका प्रारम्भ दिखाई देता हैं। तदनंतर सयोगकेवली होकर जब तक पूर्वकोटि काल है तब तक ईर्यापथकर्म उपलब्ध होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. अंतोमहत्तेहि य ऊणपुवकोडिमेत्तइरियावथकम्मउक्कस्सकालुवलभादो। तवोकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि गब्भादिअटुवस्सेहि ऊणिया पुत्वकोडी उक्कस्सकालो त्ति भाणिदव्वं । भवियाणुवादेण भवसिद्धियाणमोधभंगो। णवरि अणादि-अपज्जवसिदभंगो णस्थि । अभवसिद्धियाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणि णाणेगजीवं पडुच्च अणादि अपज्जवसिदाणि । सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीणमोहिणाणिभंगो। गवरि इरियावथकम्मरस णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा। एवं खइयसम्माइट्ठीणं पि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मस्स एगजीनं पडुच्च जहणणेण अतोमहत्तं । कुदो ? अणंताणुबंधि विसंजोइय अप्पमत्तट्ठाणे दंसणमोहणीयं खविय सव्वलहुअंतोमहत्तं किरियाकम्मेणच्छिय* अपुव्वखवगपज्जाएण परिणयपढमसमए चेव गदकिरियाकम्मम्मि जीवे जहण्णकालवलंभादो। उक्कस्सेण देसूणदोपुवकोडोहि सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि । कुदो ? एक्को देवो वा र इओ वा वेदगसम्माइट्ठी पुश्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। गब्भादिअट्ठवस्साणमवरि अधापवत्तकरणं अपुवकरणं अणियट्टिकरणं च करिय कदकरणिज्जो होदूण खइयसम्माइट्ठी जादो। तदो पुत्वकोडि जीविदूण तेत्तीससागरोवमट्टिदिएसु देवेसुइस प्रकार गर्भसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहुर्त न्यून एक पूर्वकोटि प्रमाण ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है। तपःकर्मका काल भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इसका गर्भसे लेकर आठ वर्ष कम पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट काल होता है, एसा कहना चाहिये ।। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवोंके सब पदोंका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके कालका अनादि-अनन्त भग नहीं होता । अभव्यसिद्धिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका काल नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनंत हैं। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंके सब पदोंका काल अवधिज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके ईपिथकर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके भी कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, अनन्तानुबन्धिचतुष्कको विसयोजना करके और अप्रमत्त गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके सबसे लघु अन्तर्मुहूर्त काल तक क्रियाकर्मके साथ रह कर जिस जीवने अपूर्वकरण क्षपक पर्या को प्राप्त होकर उसके प्रथम समयम ही क्रियाकर्म का अभाव कर दिया है उसके क्रियाकर्मका जघन्य काल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट काल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है, क्योंकि कोई देव या नारकी वेदकसभ्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोंको करके कृतकृत्य वेदकसम्यदृष्टि होकर क्षायिकसम्यदृष्टि हुआ। तदनन्तर एक पूर्वकोटि काल तक जीवित रह कर तेतीस ४ ताप्रती · सव्वलहुं अंतोमहत्तं ' इति पाठ: 1 * प्रतिषु । किरियाकम्मेणट्ठिय ' इति पाठ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२९ उववण्णो । तदो पुत्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। तदो पुव्वकोडि विहरिदूण सिद्धो जादो। एवं पढमपुत्वकोडीए अधापवत्तकरण-अपुवकरण-अणियट्टिकरण-कदकरणिज्जद्धाहिय-गम्भादिअटुवस्सेहि बिदियपुव्वकोडीए अपुव्वखवग-अणियट्टिखवगसुहमखवग-खीणकसाय सजोगि-अजोगिअद्धाहि य ऊणबेपुवकोडीहिर अन्भहिय-- तेत्तीससागरोवममेत्तकिरियाकम्मुक्कस्सकालुवलंभादो। एवं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं पि वत्तन्वं । वेदगसम्माइट्ठीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमतं । उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि देसूणाणि। देसूणाणि ति* भणिदे सवजहण्णखइयसम्माइटिकालेणणाणि ति घेत्तव्यं । णवरि चारित्तमोहक्खवणकालो छावट्ठीदो बाहिरो ति घेत्तव्यो । तवोकम्म केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा । एगजीवं पड़च्च जहण्णण अंतोमहत्तं। कुदो? वेदगसम्माइटिअसंजदम्मि परिणामपच्चएण पडिवण्णसंजमम्मि संजमे सव्वलहुअं कालमच्छिय असजममवगम्मि तवोकम्मस्स जहण्णकालुवलंभादो । उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । कुदो? एक्को वेदगसम्माइट्ठी देवो वा णेरइयो वा पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। गब्भादिअवस्साणमुवरि सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। तदनन्तर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हआ । तदनन्तर पूर्वकोटि काल तक विहार करके सिद्ध हो गया। इस प्रकार प्रथम पूर्वकोटिके अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और कृतकरणीय सम्बन्धी कालसे अधिक गर्भसे लेकर आठ वर्षप्रमाण कालसे न्यून तथा दूसरी पूर्वकोटिके अपूर्वक्षपक, अनिवृत्तिक्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, क्षीणकषाय, सगेगी और अयोगी सम्बन्धी कालसे न्यून दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर प्रमाण क्रियाकर्मका उत्कृष्ट काल पाया जाता है। इसी प्रकार प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका भी कथन करना चाहिये। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है । यहां देशोन कहनेसे सबसे जघन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि संबंधी कालसे न्यन काल लेना चाहिय। इतनी विशेषता है कि चारित्रमोहनीयकी क्षपणका काल छयासठ सागरसे बाहर है, ऐसा जानना चाहिये । तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि जो असंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव परिणामोंके निमित्तसे संयमको प्राप्त हो जाता है और संयममें सबसे थोडे काल रहकर असंयमको प्राप्त हो जाता है उसके तपःकर्मका जघन्य काल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, क्योंकि, कोई एक वेदकसम्यदृष्टि देव या नारकी जीव पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर संयमको ४ का-ताप्रत्योः । ऊणपुवकोडीहि ' इति पाठः । ताप्रती · देसूणा त्ति ' इति पाठः । * ताप्रती · कालेणूणा ' इति पाठः । * प्रतिषु 'पडिवण्णसंजदम्मि' इति पाठः ] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. संजमं पडिवण्णो । देसूणपुव्वकोडि तवोकम्मं कादूण देवो जादो। एवं गब्भादिअटूवस्सेहि ऊणपुवकोडिमेत्ततवोकम्मुक्कस्सकालुवलंभादो।। उवसमसम्माइट्ठीसु पओअकम्म--समोदाणकम्म- -किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं कुवो? एक्को चदुगदियो तिण्णि वि करणागि कादूण उवसमसम्माइट्ठी जादो । सवजहणियाए उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भंतरे छ आवलियाओ अस्थि ति सासणं गदो । एवं सव्वजहण्णंतोमहत्तमेत्तकालुवलंभादो उक्कस्सेण अंतोमुत्तं सवक्कस्सउवसमसम्माइटिकालो घेत्तव्यो । किरियाकम्मरस जहण्णकालो एगसमओ त्ति किण्ण परूविदो ? ण, उवसमसेडोदो ओदिण्णस्स उवतमसम्माइटिस्स मरण संते वि उवसमसम्मत्तेण अंतोमुत्तमच्छिदूण चेव वेदगसम्मत्तस्स गमणवलंभादो। तवोकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं । कुदो ? मणुस्सेसु उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जिय सवलहुमंतोमहत्तमच्छिय छआवलियावसेसे आसाणं गदेसु तदुवलभादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कुदो ? अण्णोण्णाणुसंधिदउवसमसम्मत्तद्धासु संखेज्जासु गहिदासु उक्कस्सकालुवलंभादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुत्तं । इरियाप्राप्त हुआ । यहां कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण काल तक तपःकर्म करके देव हुआ। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष कम पूर्वकोटिप्रमाण तपःकर्मका उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है । उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि, एक चारों गतिका जीव तीनों करणोंको करके उपशमसम्यग्दृष्टि हुआ। पुनः सबसे जघन्य उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर छह आवलि काल शेष रहनेपर सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त मात्र काल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। यहां उपशमसम्यग्दृष्टिका सबसे उत्कृष्ट काल लेना चाहिये। शंका- क्रियाकमका जघन्य काल एक समय है, एसा क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणिसे उतरे हुए उपशमसम्यग्दृष्टिका यद्यपि मरण होता है तो भी यह जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहर्त काल तक रहकर ही वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है । यही कारण है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय नहीं कहा। तपःकर्मका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्त महर्त है, क्योंकि, जो मनुष्य उपशमसम्यक्त्व' और संयमको युगपत् प्राप्त होकर और अतिलघु अन्तर्मुहुर्त काल तक वहां रह कर छह आवलि कालके शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होते है उनके यह काल पाया जाता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, परस्पर जुडे हुए उपशमसम्यक्त्वके संख्यात कालोंके ग्रहण करने पर उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १३१ वथकम्मं केवचिरं कालादो होदि? णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ।उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणि केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ अंतोमुहुतं। उक्कस्सेण दोणं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ अंतोमहत्तं। उक्कस्सेण सासणस्स छ आवलियाओ। सम्मामिच्छाइ द्विस्स अंतोमहत्तं । मिच्छाइटिस्स" मदिअण्णाणिभंगो। __ सण्णियाणुवादेण सण्णोणं पंचिदियभंगो। णवरि इरियावथकम्मं णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । असण्णीणमेइंदियभंगो। आहाराणुवादेण आहारीणमोधभंगो । णवरि सगट्टिदी वत्तव्वा । अणाहारएसु पओअकम्मं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिण्णि समया । समोदाणकम्म केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडच्च सम्वद्धा । एमजीवं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । तं पुण कत्थ लब्भदि ? अजोगिकेवलिम्हि । इरियावथकम्मं केवचिरं और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ईर्यापथकर्मका कितना काल है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टि जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल दोनोंका ही पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहुर्त है तथा उत्कृष्ट काल सासादनका छह आवलि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर्मुहूर्त है । मिथ्यादृष्टिके सम्भव पदोंका काल मत्यज्ञानियोंके समान है। ___ संज्ञिमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंके सब पदोंका काल पंचेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है । असंज्ञी जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। ___आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंके सब पदोंका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां अपनी स्थिति कहनी चाहिये । अनाहारक जीवोंके प्रयोगकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । समवधानकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शंका- वह काल कहां प्राप्त होता है ? समाधान- वह अयोगिकेवली गुणस्थानमें प्राप्त होता है । * ताप्रती · अंतोमुहुत्तं ] मिच्छाइटिस्स ' इत्येतावानवं पाठो नास्ति । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण तिण्णि समया। उक्कस्सेण संखेज्जा समया। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिणि समया । तवोकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं* पडुच्च जहण्णेण तिण्णि समया। उक्कस्सेण पंचहरस्सक्खरद्धाओ संखेज्जगुणाओ। * एगजीवं पडुच्च जहण्णण तिणि समया । उक्कस्सेण पंचहरस्सक्खरद्धाओ। किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एग. समओ। उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण बे समया। आधाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। अणाहारिअजोगीहिंतो जे णिज्जिण्णा ओरालियपरमाणू तेसिमेसो जहण्णुक्कस्सकालो वत्तव्वो। एवं कालाणुओगद्दार समत्तं । अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य। ओघेण पओअकम्मसमोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं आधाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीनं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीनं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । कुदो? ओरालियसरीरादो णिज्जिण्णणोकम्म ईर्यापथकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल पांच हृस्व' अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उससे संख्यातगुणा है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल पांच हस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतना है । क्रियाकर्मका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अधः काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सद काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समम है और उत्कृष्ट काल असख्यात लोकप्रमाण है। अनाहारक अयोगी जीवों के शरीरसे जो औदारिक परमाणु निर्जीर्ण होते है उनका यह जघन्य और उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ । अन्तरानगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । ओघकी अपेक्षा प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका कितना अन्तरकाल है? नाना जीवोंकी और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है, क्योंकि जो औदारिक नोकर्मस्कन्ध औदारिकशरीरसे निर्जीर्ण होकर औदारिक भावके विना एक * अ-आप्रत्योः ' एगजीवं, काप्रतो, णाणेगजीवं इति पाठः। “काप्रतावित्यत आरभ्य ‘पहचरस्सक्खरद्धाओ पर्यन्त: पाठस्त्रुटितोऽस्ति अ-काप्रत्योः 'जा' इति पाठः। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा (१३३ क्खंधाणं ओरालियभावेण विणा एगसमयमच्छिय बिदियसमए ओरालियसरीरसरूवेण परिणदाणमेगसमयअंतरुवलंभावो। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। कुदो ? देवेण रइएण वा तिरिक्खेसु उववण्णण तत्थ उववादजोगेण गहिदोरालियसरीरपरमाणणं बिदियसमए णिज्जिण्णाणमाधाकम्मस्स आदी होदि । पुणो तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि जाउक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं पोग्गलपरियट्टाणं चरिमसमओ ति। तदुवरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णओरालियणोकम्म. क्खंधेसु बंधमागदेसु लद्धमंतरं होदि । एवमाधाकम्मस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरुवलंभादो । णवरि तिणि समया ऊणाणि त्ति वत्तव्वं । किरियाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूणं । एवमिरियावथ तवोकम्माणं पि वत्तव्वं । समय रहकर दूसरे समयमें पुनः औदारिकरूपसे परिणत हो जाते हैं उनका एक समय अंतरकाल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनमें लगनेवाले कालके बराबर है, क्योंकि, जिस देव और नारकी जीवने तिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर और वहां उपपादयोग द्वारा औदारिकशरीरके परमाणुओंको ग्रहण करके दूसरे समयमें उनकी निर्जरा की है उसके उन परमाणुओंके अधःकर्मका प्रारम्भ होता है। पश्चात् तीसरे समयसे उसका अन्तर होता है जो कि उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवे भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनोंके अंतिम समय तक जाता है । इसके बाद अगले समयमें पहले निर्जीर्ण हए उन औदारिक नोकर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अधःकर्मका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनोंके जितने समय होते है उतना उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इतनी विशेषता है कि इस अन्तरकालमेंसे तीन समय न्यून करके उसका कथन करना चाहिये । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका भी अन्तरकाल कहना चाहिये । विशेषार्थ- यहां ओघसे छहों कर्मों के अन्तरकालका विचार किया गया है। प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीव और एक जीव दोनोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता, यह स्पष्ट ही है; क्योंकि संसारस्थ जीवके कोई न कोई योग और किसी न किसी कर्मका बंध उदय और सत्त्व निरंतर पाया जाता है । यद्यपि अयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका अभाव हो जाता है पर यह जीव पुनः सयोगी नहीं होता, इसलिये अंतरकालके प्रकरणमें इसका ग्रहण नहीं होता है। अध:कर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि, अनन्त एकेन्द्रिय जीव तथा असंख्यात व संख्यात दूसरे जीव औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धोंको निरन्तर ग्रहण कर उन्हें औदारिकशरीररूपसे परिणमाते रहते हैं। इस कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और आप्रतौ 'ओदरियभात्रेण ', का-ताप्रत्योः 'ओदइयभावेण , इति पाठः । का-ताप्रत्यो: ' मंतरतुवलंभादो, इति पाठ:1 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ) ( ५, ४, ३१. निरयगदीए रइए पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं* पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । कुदो ? तिरिक्खो वा मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो । विस्संतो विसुद्धो सम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स आदी दिट्ठा। पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतरिदो । तदो मिच्छत्तेणेव आउअं बंधिदृण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। लद्धमंतरं किरियाकम्मस्स । तदो मिच्छत्तं गंतूण मदो तिरिक्खो जादो । एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणतेत्तीस सागरोवममेत्त किरिया कम्मुक्कस्संतरुवलंभादो । एवं सत्तमाए उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना होता है, इसका सयुक्तिक मूलमें ही विचार किया है । उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाते समय वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण बतलाया है । मात्र इस कालमें से तीन समय कम किये हैं । ये तीन समय प्रारम्भके दो समय और अन्तका एक समय लेना चाहिये | अब रहे शेष तीन कर्म सो नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका भी अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता, क्योंकि, इन कर्मोंके धारक जीव निरन्तर पाये जाते हैं । इनका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय गुणस्थानका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता । इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि, किसी जीवके सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय कम अर्ध पुद्लगपरिवर्तत प्रमाण है, क्योंकि, किसी जीवके सम्यक्त्व, संयम और उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त होनेके बाद वह इन्हें यदि अधिक से अधिक काल तक न प्राप्त हो तो कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक नहीं प्राप्त होता । इसके बाद वह सम्यक्त्व और संयमको अवश्य ही प्राप्त होता है और यदि अनुकूलता हो तो उपशमश्रेणिपर भी तब आरोहण करता है । इस प्रकार यह सामान्यसे छह कर्मोंका अन्तरकाल होता है । नरकगति में नारकियोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि, अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावाला कोई एक तियंच या मनुष्य नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ । वहां छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । पश्चात् विश्राम करके और विशुद्ध होकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसने क्रियाकर्मका अन्तर किया। और अन्तमें मिथ्यात्वके साथ ही आयुका बन्धकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार क्रियाकर्मका अन्तरकाल प्राप्त होता है । तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मरकर तिर्यंच हो गया। इस प्रकार क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर उपलब्ध होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में अन्तरकाल होता है । तथा इसी प्रकार प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ताप्रती ' णाणाजीवं ' इति पाठः । का - ताप्रत्यो: ' तदो' इत्येतत् पदं नास्ति 1 . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ , ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १३५ पुढवीए । एवं छसु पुढवीसु । णवरि एक्क-तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-बावीससागरोवमाणि पंचहि अंतोमहत्तेहि ऊणाणि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थिअंतरं णिरंतरं आधाकम्म-किरियाकम्माणं ओधभंगो। पंचिदियतिरिक्खेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं (जिरंतरं)। आधाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पड़च्च णत्यि अंतरं गिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणपंचाणउदिपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिणि पलिदोवमाणि । कुदो ? एक्को देवो वा रइयो वा मणुस्सो वा सण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु पुव्वकोडाउअतिरिक्खेसु उववण्णो । तत्थ उववादजोगेण पुव्वकोडिपढमसमए जे ओरालियसरीरणिमित्तं गहिदा परमाणू तेसि बिदियसमए णिज्जिण्णाणं तदियसमए मुक्कोरालियभावाण मंतरस्स आदी जादा। तदो पहुडि पंचाणउदिपुव्वकोडीओ तिसमऊगतिणिपलिदोवमाणि च अंतरिदूण पुणो चरिमसमए तेसु चेव पुव्वणिज्जिण्णपरमाणसु ओरालियसरीरणिमित्तमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं। एवं तीहि समएहि ऊणसगढिदिमेत उक्कस्संतरुवलंभादो। किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि?णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि। कुदो ? एक्को एक जीवकी अपेक्षा क्रियाकमका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे पांच अन्तर्मुहुर्त कम एक सागर, पांच अन्तर्मुहूर्त कम तीन सागर, पांच अन्तर्मुहूर्त कम सात सागर, पांच अन्तर्मुहुर्त कम दस सागर, पांच अन्तर्मुहूर्त कम सत्रह सागर और पांच अन्तर्मुहूर्त कम बाईस सागर है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। अधःकर्म और क्रियाकर्मका अन्तरकाल ओघके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें प्रयोगकर्म और समवदान कर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम और पंचानबै पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण है, क्योंकि कोई एक देव, नारकी या मनुष्य पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। वहां उसने उपपाद योगके द्वारा पूर्वकोटिप्रमाण आयुके प्रथम समयमें औदारिकशरीरके निमित्त जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण किये उनकी दूसरे समयमें निर्जरा होकर तीसरे समयमें वे औदारिक भावसे रहित हो गये। इसलिये इनके अन्तरकी आदि हुई। फिर वहांसे लेकर पंचानबै पूर्वकोटिप्रमाण कालका और तीन समय कम तीन पल्यप्रमाण कालका अन्तर देकर अन्तिम समयमें पूर्वनिर्जीर्ण उन्हीं पुदगलपरमाणुओंके औदारिकशरीरके निमित्त प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल निकल आता है। इस प्रकार तीन समय कम अपनी सि प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट-अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, क्योंकि, अट्ठाईस प्रकृतियोंकी ४ ताप्रती ( अंतरं णिरंतरं ) इति पाठः । प्रतिषु ' मुक्कोदइयभावाण' इति पाठः । ताप्रती · विसमऊण-' इति पाठ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. मणुस्सो अट्ठावीससंतकम्मिओ सणिपंचिदियसम्मच्छिमपज्जत्तएसुववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स आदी दिट्ठा । सव्वलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो। तत्थ सण्णिपंचिदियपज्जत्तइत्थि-पुरिसणवंसयवेदेसु अट्टपुवकोडीओ जीविदूण पुणो असण्णिांचवियपज्जत्तइत्थि-पुरिस-णव॑सयवेदेसु अट्ठपुव्वकोडीओ जीविदूण पुणो सण्णि-असण्णिपंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु अटुट्ठअंतोमुत्ताणि जीविदूण* पुणो असण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु इत्थि-पुरिस-णवंसयवेदेहि सह अट्ठपुवकोडीओ जीविदूण पुणो सण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु पुरिस-णवंसय-इस्थिवेदेहि सह अटुट्ठ-सत्तपुवकोडीओ जीविदूण पुणो देवकुरु-उत्तरकुरवेसु उववण्णो । तत्थ तिसु पलिदोवमेसु सव्वजहण्णं अंतोमुहुत्ते अवसेसे उवसमसम्मत्तं पउिवण्णो । लद्धमंतरं किरियाकम्मस्त । तदो सासणं गंतूण मदो देवो जादो । एवं पंचहि अंतोमुहुतेहि ऊणपंचाण उदिपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिणिपलिदोवममेत्तकिरियाकम्मुक्कस्संतरुवलंभादो । एवं पचिदियतिरिक्खपज्जत्तचिदियतिरिक्खजोणिणीसु । णवरि तिसमऊणसगदाल-पण्णारसपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिणि पलिदोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । पहि सत्तावाला कोई एक मनुष्य संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। फिर विश्राम करके और विशुद्ध होकर वेदसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार क्रियाकर्मका आदि दिखाई दिया। फिर सबसे अल्प अन्तर्मुहुर्त काल तक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और क्रियाकर्मका अन्तर किया। फिर वहां संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त स्त्रीवेदी, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पुरुषवेदी और संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त नपुंसकवेदी अवस्थामें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहा । पुन: असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहा । फिर संज्ञी और असंज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें आठ आठ अन्तर्मुहर्त काल तक जीवित रहा । फिर असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके साथ आठ आठ पूर्वकोटिप्रमाण काल तक जीवित रहा । फिर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें पुरुषवेद नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके साथ क्रमसे आठ आठ और सात पूर्वकोटि काल तक जीवित रहा। फिर देवकुरु और उत्तरकुरुके तिर्यंचोंम उत्पन्न हुआ। वहां तीन पल्यमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । इस तरह क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । फिर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और देव हो गया । इस प्रकार क्रियाकर्मका पांच अन्तर्मुहुर्त कम पंचानबै पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी जीवोंमें भी अन्तरकाल इसी प्रकार कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे तीन समय कम सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण और तीन समय कम पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण * का-ताप्रत्योः · अंतोमुहुत्तं णिज्जरिदूण ' इति पाठः। - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १३७ अंतोमुत्तेहि महत्तपुधत्ताहियबेमासेहि ऊणसगदाल-पण्णारसपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिणि पलिदोवमाणि किरियाकम्मुक्कस्संतरं होदि । चिदियतिरिक्खअपज्जताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणेगजीवं* पडुच्च गस्थि अंतरं णिरंतरं । आधाकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणाणि अट्टलैंतोमुत्ताणि । कुदो? एक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा पंचिदियपज्जत्तो पाँचदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तत्थुप्पण्णपढमसमए उववादजोगेण जे गहिदा परमाण तेसि बिदियसमए णिज्जिण्णाणमाधाकम्मरस आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि, विणट्ठोदइयभावत्तादो । सोलसण्णमंतोमुहुत्ताणं चरिमसमए आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु आधाकम्मस्स तिसमऊणसोलसंतोमहत्तमेत्तउक्कस्संतरुवलंभादो। मणुसगदीए मणुस्सेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणेगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं णिरंतरं । आधाकम्मस्स केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पड़च्च गस्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण होता है । तथा क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे पांच अन्तर्मुहर्त कम सेंतालीम पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और मुहूर्तपृथक्त्व अधिक दो माह कम पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होता है । . पचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें प्रयोगकर्म और समवदानकर्मका अन्तरकाल कितना होता है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । अधकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम आठ आठ अन्तमुहुर्त है, क्योंकि, एक तिर्यंच या मनुष्य पंचेन्द्रिय पर्याप्त व पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। वहां उत्पन्न होकर उसने प्रथम समय में उपपादयोगके द्वारा जिन परमाणुओंका ग्रहण किया उनके दूसरे समयमें निर्जीण हो जानेपर अधःकर्मका प्रारम्भ होता है और तीसरे समयसे अन्तर होता है, क्योंकि, तीसरे समयमें उनके औदयिकभावका नाश हो जाता है । फिर सोलह अन्तमुहूर्तके अन्तिम समयमें उन निर्जीण परमाणुओंके ग्रहण होनेपर अधःकर्मका अन्तर प्राप्त होता है । इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम सोलह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है। ___ मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं। अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम सेंतालीस पूवकोटि *प्रतिषु णाणाजीवं ' इति पाठः18 अप्रतो 'पंचिदियपज्जत्तो', काप्रती 'पंचिदियपज्जत्ता . इति पाठः । * काप्रतौ नोपलभ्यते पदमेतत् ] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणसगदालोसपुवकोडीहि सादिरेयाणि तिणि पलिदोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । किरियाकम्मस्स वि एवं चेव । वरि तीहि अंतोमुत्तेहि अदुवस्सेहि य* ऊणसगदालोसपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । इरियावथकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पड़च्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं । कुदो ? एक्को देवो वा गैरइओ वा चउवीससंतकम्मियसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तदो अट्ठवस्साणमुवरि विसोहिं पूरेदूण संजमं पडि. वण्णो । तदो दसणमोहणीयमुवसामेदूण पमत्तो जादो । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्वउवसामगो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो होदूण उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थो जादो । इरियावहकम्मस्स आदी दिदा । पुणो सुहुमो अणियट्टी अपुवो होदूण अंतरिय इत्थि-पुरिस-णवंसयवेदेसु अट्ठपुवकोडीओ जीविदूण पुणो अपज्जत्तएसु अट्ट अंतोमुहुत्ताणि ममिय पुणो इत्थि-पुरिस-णवंसयवेवेसु अट्टपुव्वकोडीओ जीविदूण सवजहण्णंतोमहत्तावसेसे जीविदव्वए ति अपुव्व उवसामगो अणियट्टि उवसामगो सुहमउवसामगो होदूण उवसंतकसाओ जादो । तस्स पढमसमए लद्धमंतरं । बिदियसमए मदो देवो जादो । एवं समयाहियसत्तअंतोमुत्तब्भहियअट्ठरस्सेहि ऊणाओ अडदालीस--- अधिक तीन पल्यप्रमाण है । यह अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन अन्तर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण है । ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पर्वकोटिपथक्त्वप्रमाण है क्योंकि चौबीस कर्मकी सत्तावाला एक देव या नारकी सम्यग्दष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर आठ वर्षके बाद विशुद्धिको प्राप्त होकर संयमको प्राप्त हुआ। फिर दर्शनमोहनीयका उपशम करके प्रमत्त संयत हुआ । फिर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें हजारों परिवर्तन करके अपूर्व उपशामक, अनिवृत्तिउपशामक और सूक्ष्म उपशामक होकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ हुआ । इस प्रकार ईर्यापथकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया । फिर सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिबादरसाम्प राय और अपूर्व करण होकर तथा ईर्यापथकर्मका अन्तर करके स्रीवेदी, पुरुषवेदी और नसकवेदियोंमें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहकर फिर अपर्याप्तकोमें आठ अन्तर्मुहुर्त विताकर स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहकर जब जीवितमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब अपूर्व उपशामक, अनिवृत्तिउपशामक और सूक्ष्म उपशामक होकर उपशान्तकषाय हो गया । तो उसके प्रथम समयमें ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । फिर दूसरे समयमें मरा और देव हो गया। इस प्रकार समयाधिक ताप्रती 'य' इत्येतत्पद नास्ति 1 अ-आ-काप्रतिष पयत्तो ' इति पाठः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १३९ 1 goaकोडीओ इरियावहकम्मस्स उक्कस्तं अंतरं होदि । तवोकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि दो अंतोहि (अन्भहियअट्ठवस्सेहि) ऊणियाओ अडदालीस पुव्वकोडीओ उक्कसमंतरं होदि । एवं मणुस्सपज्जत्तमणुस्सिणीसु । णवरि आधाकम्मस्स तिसमऊणतेवीस-सत्तपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिष्णि पलिदोवमाणि उक्कस्समंतरं होदि । इरियावथकम्मस्स समयाहियसत्त अन्तोमुहुत्तब्भहियअट्ठवस्सेहि ऊणियाओ चउवीस-अट्टपु व्वकोडीओ उक्कस्समंतरं होदि । तवोकम्मस्स दोअंतोमुहुत्तेहि अम्भहिया अट्ठवस्से हि ऊनिया चवीस अट्ठपुव्वकोडीओ उक्कस्समंतरं होदि । किरियाकम्मरस बेहि अंतोमुहुत्तेहि अमहियअट्टवस्सेहि ऊणियाओ तेवीस सत्तपुथ्वकोडीओ तिष्णि पलिदोववमाणि च उक्कस्तरं होदि । मणुस अपज्जत्तएसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीगं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं निरंतरं । अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पड़च्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणअट्ठअंतो मुहुत्ताणि । आधाकम्मस्स देवदीए देवसु पओअकम्म- समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? सात अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम अडतालीस पूर्वकोटि कालप्रमाण ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । तपःकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम अडतालीस पूर्वकोटि कालप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रमसे अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम तेईस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण और तीन समय कम पूर्वकोटि अधिक तीन पत्यप्रमाण है । तथा इनमें ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे समयाधिक सात अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम चौबीस पूर्वकोटिप्रमाण और समयाधिक सात अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम आठ पूर्वकोटिप्रमाण हैं । तथा तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून चौबीस पूर्वकोटिप्रमाण और दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम आठ पूर्वकोटिप्रमाण है । तथा क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून तेईस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और दो अन्तमुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है । मनुष्य अपर्याप्तकों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं है, वह निरंतर है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम आठ अन्तर्मुहूर्त है । देवगति में देवों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों आप्रती उक्कस्सेण समऊणअं तो मुहुत्ताणि' इति पाठः । . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. णाणेगजीवं पड़च्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं पडच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण एक्कत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । कुदो? एक्को संजदो उवसमसेडि चडिदूण णियत्तो* असंजदसम्मादिटिट्ठाणे दव्वसंजमेण दीहमुवसमसम्मत्तद्धमणुपालेदूग कालं गदो । उवरिम उवरिमगेवज्जे उववण्णो । किरियाकम्मस्स आदी द्विदा । उवसमसम्मत्तद्धाए छआवलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो। अंतरिदो । तदो एक्कत्तीसण्हं सागरोवमाणं सव्वजहण्णंतोमहत्तावसेसे उसमसम्मत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं । सासणं गंतूण मदो मणुस्सो जादो । एवं बेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणएक्कत्तीससागरोवममेत्तउक्कस्संतरुवलंभादो। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवेसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणं गाणेगजीवं पडुच्च गस्थि अंतरं णिरंतरं । ए सव्वेदेवाणं वत्तां । किरियाकम्मस्संतर केचिर कालादो होदि? णाणाजीनं पडुच्च णथि अंतरं णिरतरं । एगजीनं पडुच्च जहण्णेण अतोमुहुत्तं । उवकस्सेण पंचहि अतोमुत्तेहि ऊणियं दिवडसागरोवमं पलिदोवमं सादिरेयं पलिदोवमं सादिरेयं । सोहम्मप्पहुडि जाव सदर-सहस्सारदेवे त्ति ताव किरियाकम्मरस अंतरं केर्वाचरे कालादो होदि ? जाणाजीनं पडुच्च देवभंगो । एगजीयं पड़च्च जहण्णण अतोमहत्तं । कुदो ? सम्माइटिस्स सव्वलहुं और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह तिरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है, क्योंकि, एक संयत जीव उपशमश्रेणिपर चढकर उतरते हुए असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें द्रव्य संयमके साथ उपशमसम्यक्त्वके दीर्घ काल तक उसका पालन कर मरा और उपरिमउपरिम अवेयकमें उत्पन्न होकर क्रियाकर्मका प्रारम्भ किया । फिर उपशमसम्यक्त्वको कालमें छह आवलि काल शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर उसका अन्तर किया । तदनन्तर इकतीस सागरमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वके प्राप्त हुआ । इस प्रकार क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । फिर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और मनुष्य हो गया । इस प्रकार क्रियाकर्मका दो अन्तर्मुहूर्त कम इकतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें प्रयोग कर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । इसी प्रकार सब देवोंके कहना चाहिये । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नही है, वह निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे पांच अन्तर्मुहुर्त कम डेढ़ सागर, पांच अन्तर्मुहूर्त कम साधिक एक पल्य और पांच अन्तर्मुहूर्त कम साधिक एक पल्य है। सौधर्म कल्पसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तकके देवोंमें क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार सामान्य देवोंके समाना है। * अ-आ-काप्रतिषु णेयंतो ' इति पाठः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १४१ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा गंतूण सम्मत्तं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण आदिल्ल--अंतिल्लअंतोमहुत्तेहि ऊणाणि अंतोमुत्तूणद्ध साग रोवमसहिदाणि बे सत्त दस चोद्दस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि। आणद-पाणद-प्पहुडि जाववरिम-उवरिमगेवज्ज देवे ति ताव किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि?णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण आदिल्लंतिल्लअंतोमुत्तेहि ऊणाणि वीसं बावीसं तेवीसं चदुवीस पंचवीसं छव्वीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगणतीसंतीसं एक्कत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि। णवरि उवसमसेडि चडिय पुणो ओदरिदूण असंजदसम्मादिटिट्ठाणे दवसंजदो होदूण कालं करिय अप्पप्पणो इच्छिदविमाणेसुप्पण्णस्स किरियाकम्मस्स आदी होदि। तदो उवसमसम्मतकाले छआवलियावसेसे आसादणं गंतूण अंतरिदो । अप्पप्पणो आउअम्मि सव्वजहण्णअंतोमहत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णे लद्धमतरं। पुणो सासणं गंतूणं मरिय मणुस्सेसु उप्पण्णो त्ति वत्तव्वं। एदेहि बेहि अंतोमहत्तेहि ऊणाणि अप्पप्पणो उत्तसागरोवमाणि अंतरं होदि। अच्चि-अच्चिमालिणि वइर-वइरोयण सोम-सोमरुइ अंक-फलोह-आइच्च-विजय-वइजयंत-जयंत-अवराइद एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व या सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके यह अन्तरकाल पायाजाता है। क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल सर्वत्र आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहुर्त कम तथा अन्त। र्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक क्रमसे दो, सात, दस, चौदह, सोलह और अठारह सागर प्रमाण हैं आणत-प्राणत कल्पसे लेकर उपरिमउपरिम ग्रेवेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सर्वत्र आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहर्त कम क्रमसे बोस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरप्रमाण है। यहां इतना विशष कहना चाहिये कि उपशमश्रेणिपर चढकर फिर उतरकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें द्रव्य संयत होकर और मरकर जो अपने अपने इच्छित विमान में उत्पन्न हआ है उसके क्रियाकर्मकी आदी होती है। फिर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि कालके शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर उसका अन्तर करता है। और अपनी अपनी आयुमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त कालके शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है और इस तरह अन्तरकाल निकल आता है । फिर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर और मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ. ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार ये दो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी कही गई सागरोंप्रमाण उत्कृष्ट आयु उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । अचि, अचिमालिनी, वन वैरोचन सोम, सोमरुचि, अंक, स्फटिक, आदित्य, विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और * आ-का-ताप्रतिषु · अंतोमुत्तद्ध ' इति पाठः | आ-का-ताप्रतिषु 'जावुवरिमगेवज्ज- ' इति पाठः। .ताप्रती - विमाणेसुप्पण्णस्स आदी , इति पाठः । काप्रती 'वइज्जयंतअवराइद, इति पाठ ] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. सव्व-सिद्धिविमाणवासियदेवेसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-किरियाकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणेगजीवं पड़च्च णत्थि अंतरं णिरंतरं।। इंदियाणवादेण एइंदियाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं अंतरं केचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणमणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । बादरेइंदियाण पओअकम्म-समोदाणकम्माणमतर केवचिरं कालादो होदि? णाणेगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीनं पडुच्च जहणेण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ । बादरेइंदियपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीनं पडुच्च णस्थि अंतरं। आधाकम्मस्स अंतरं केचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणाणि संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतर केवचिरं कालादो होदि? णाणाजी पडुच्च गस्थि अंतरं । एगजीनं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं। सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका अन्तराल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समम है। उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अनन्त काल है जो असंख्यात पुदगलपरिवर्तन प्रमाण है । बादर एकेन्द्रियों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके समयोंके बराबर है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नही है। अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम सख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? माना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके प्रयोगकर्म और Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ५, ४, ३१ ) कमाणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा सुहुमेइंदियाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजोगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीव पडुच्च जहण्णंण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणा असंखेज्जा लोगा । सुहुमेइंदियपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीनं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । एवं सुहुमेदिय अपज्जत्ताणं पि । इंदियतेइं दिय- चउरिदियाणं तेसि चेव पज्जत्ताणं च पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं4 । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणाणि संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बेइदिय- तेइ दिय- चउरिदिय-पंचिदियअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंत रं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहएसओ । उक्कस्सेण तिसमऊणाणि असीदि. सट्ठि -- दाल-चदुवीसअंतोमहत्ताणि । पंचिदियाणं पओअकम्म - सभोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम असंख्यात लोकप्रमाण है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकीं अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के भी जानना चाहिये । द्वन्द्रय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके तथा उन्हींके पर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम संख्यात हजार वर्ष है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम क्रमसे अस्सी, साठ, चालीस और चोबीस अन्तर्मुहूर्त हैं । पंचेन्द्रियोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी ताप्रतौ ' अंतरं..' इति पाठ: Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणं सागरोमवसहस्सं पुव्वकोउिपुधत्तंणभहियं । इरियावहकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणभहियं । कुदो ? एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ एइंदियो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । गम्भादि अवस्साणमुवरि वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो । तदो अणंताणुबंधि विसंजोइय: दसणमोहणीयमवसामेदूण पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं+ कादूण अपुव० अणियट्टि० सुहुम० उवसंतो जादो । तदो इरियावथकम्मस्स आदी दिट्टा । पुणो सुहमो होदूण अंतरिदो। सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियमंतरिदूण अपच्छिमाए पुवकोडीए अंतोमुत्तावसेसे खीणकसाओ जादो । इरियावहकम्मस्स लद्धमंतरं । एवमेदेहि गब्भादिअटुवस्सेहि णवहि अंतोमुत्तेहि य ऊणस. गुक्कस्सटिदिमत्तअंतरुवलंभादो । तवोकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि अट्टहि वस्सेहि बेहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणां सागरोवमसहस्सां पुन्वकोडिपुधत्तेणब्भ हियमुक्कस्सतरं होदि । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीनं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीनं पडुच्च जहण्णेण अन्तोमुहुत्तं । कुदो ? एक्को अप्पमत्तो होवूण अपुवो अपेक्षा अन्तर काल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है। ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर हैं, क्योंकि, अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक एकेन्द्रिय जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर वेदकसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। अनन्तर अनन्तानुबंधौकी विसंयोजना करके तथा दर्शनमोहनीयको उपशमा कर फिर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वउपशमक, अनिवृत्तिउपशमक, सूक्ष्मउपशमक और उपशान्तकषाय हुआ। यहां ईर्यापथकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया। फिर सूक्ष्मसापराय होकर उसका अन्तर किया। और पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर प्रमाण काल तक उसका अन्तर करके अन्तिम पूर्वकोटि के कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर क्षीणकषाय हुआ । इस प्रकार ईर्यापथकर्मका अन्तर प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और नौ अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होता है। तपःकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहुर्त कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरप्रमाण है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, कोई एक मनुष्य अप्रमत्त होकर अपूर्वसंयत हुआ और क्रियाकर्मका अन्तर ४ का-ताप्रत्योः । विसंजोएदूण ' इति पाठः। * का-ताप्रत्योः । -मुवसामिय' इति पाठः : ताप्रती 'पमत्तापमत्तसहस्सं ' इति पाठः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा (१४५ जादो। अंतरिदो। तदो णिहा-पयलाणं बंधवोच्छेदं कादण मदो देवो जादो। लद्धमंतरं। एवं किरियाकम्मस्स जहण्णंतरुवलंभादो। उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं . पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियं । कुदो? एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ विलिदियो सम्मुच्छिमसण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। किरियाकम्मस्स आदी दिट्ठा। तदो सव्वलहुमंतोमुहुत्तं किरियाकम्मेण अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो। तदो सागरोवमसहस्सं पुवकोडि. पुधत्तेणब्भहियं हिंडिदूण तदो अपच्छिमे भवग्गहणे पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। पुणो अंतोमहत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगनं परिवण्णो। किरियाकम्मस्स लद्धमंतरं। तदो सासणं गंतूण मदो एइंदियो जादो। एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सगुक्कस्सट्टिदी किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि ति । एवं पंचिदियपज्जतस्स वि वत्तन। गवरि जम्हि सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियमुक्कस्तरं भणिदं तम्हि सागरोवमसदपुधत्तं वत्तव्वं । ___ कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय तेउकाइय-वाउकाइयाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? गाणेगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणा असंखेज्जा लोगा। बादरपुढविकिया । फिर निद्रा और प्रचलाकी वन्धव्युच्छित्ति करके मरा और देव हो गया। अन्तरकाल प्राप्त हो गया। इस प्रकार कियाकर्मका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। उत्कृष्ट अंतरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर प्रमाण है, क्योंकि, अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक विकलेन्द्रिय जीव सम्मच्छिम संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हआ। छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो, विश्राम करके और विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। यहां क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। फिर सबसे अल्प अन्तर्मुहुर्त काल तक क्रियाकर्मके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उसका अन्तर किया। अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरप्रमाण काल तक भ्रमण करके अन्तिम भवको ग्रहण करते समय पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इस प्रकार क्रियाकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है । अनन्तर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और एकेन्द्रिय हो गया । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जहां पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है वहां सौ सागरपृथक्त्व कहना चाहिये । कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ) ( ५, ४, ३१. बादरआउ- बादरते उ- बादरवाऊणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसपिणि ऊस्सप्पणीओ । तेसि चैव बादरपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माण मंतरं केर्घाचरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिर कालादो होदि ? णाणाजीवं पड़च्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पड़च्च जहणेण एगसमओ । उवकस्सेण तिसमऊणाणि संखेज्जवस्ससहस्साणि । तेसि चेव बादरेइंदियअपज्जत्ताणं पओअकम्प- समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पड़च्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणमंतोमुहुतं । सुहुमपुढवि सुहुम आउ सुहुमते उ- सुहुमवाऊणं पुढविभंगो। तेसि चेव सुहुमपज्जतापज्जत्ताणं पओअकम्मसमोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणअंतोमृहुत्तं । archदिकाइयाणं पओअकस्म समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? छक्खंडागमे वग्गणा - खंड अन्तरकाल तीन समय कम असंख्यात लोकप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधान कर्मका कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। अधःकर्मका अन्तरकालकितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यअन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हे जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियोंके बराबर है । उन्ही बादर पर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अघः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम एक हजार वर्ष है। उन्हीं बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंके अन्तरकाल पृथिवीकायिकजीवों के समान है । उन्हीं सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंक प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जोवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ , ४ , ३१) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १४७ णाणेगजीवं पडुच्च णथि अंतरं । आधाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अणंतो कालो तिसमऊणा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । बादरवणप्फदिकाइयाणं बादरपुढविभंगो। बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरपुढविपज्जत्तापज्जत्तभंगो। ( सुहमवणप्फदि. ) सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्ताणं सुहमपुढवि सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्ताणं भंगो। तसकाइयाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहणण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणाणि बेसागरोवमसहस्साणि पुन्चकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । इरियावहकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि?णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । कुदो? इरियावहकम्मेणच्छिद उवसंतकसायादो हेट्ठा* ओदरिय अंतरिदूण सव्वजहण्णमतोमहुत्तमच्छिय पुणो उवसंतकसाए जादे संते इरियावहकम्मस्स जहण्णअंतरुवलंभादो। उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि किंचूणपुत्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। अध:कमका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो तीन समय कम असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनके बराबर है । बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके अन्तरकाल बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके अन्तरकाल बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके समान है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंके अन्तरकाल सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और उन्हीं के अपर्याप्त जीवोंके समान है। त्रसकायिक जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है। ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है, क्योंकि, जो उपशान्तकषाय जीव ईपिथकर्म के साथ रहकर और नीचे उतरकर अन्तर करके सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर पुनः उपशान्तकषाय हो जाता है उसके ईर्यापथकर्मका जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध होता है। उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है, क्योंकि, अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावाला कोई एक ४ आ-का-ताप्रतिषु सुहमवणप्फदि-इत्येतत्पदं नोपलभ्यते 1 आ-का-ताप्रतिषु 'सुहमपुढवि ' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । अतोऽग्रे ताप्रती (इरियावहकम्मस्स अंतरं केवचिरं०?णाणाजीवं पडुच्च णत्थि णत्थि अंतरं 1 एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । उक्क० तिसमऊणाणि वेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ) इत्यधिका पाठः कोष्ठकस्थोऽस्ति। * आ-का-ताप्रतिषु '-कसाए हेट्ठा ' इति पाठः ] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. कुदो? एक्को अट्ठावीससंतकम्मियएइंदियो मणुस्सेसु उववण्णो, गब्भाविअटुवस्साणमुवरि वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो, अणंताणुबंधि विसंजोइय दंसणमोहणीयमवसामिय पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादण अपुव-अणियट्टि*-सुहमउवसंतो जादो, इरियावहकम्मस्स आदी टिदा । पुणो सुहुमो होदणंतरिदो । तदो बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि अंतरिय सवजहण्णंतोमहत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति खीणकसाओ जादो। लद्धमंतरं इरियावहकम्मस्स । तदो जोगी अजोगी होदूण सिद्धो जादो। एवं गन्भादिअटुवस्सेहि एक्कारअंतोमहुत्तहिएहि ऊणउक्कस्सतसद्विदिमेत्तअंतरुवलंभादो। तवोकम्मस्स अंतर केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अतोमहत्तं । उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि किंचूणपुवकोडिपुधत्तेणहियाणि । तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मियएइंदियो मणुस्सेसु उववण्णो । गब्भादिअटुवस्साणमंतोमुत्तब्भहियाणमुवरि विसोहि पूरेदूण वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी द्विदा । तदो सव्वलहुमंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । तदो बेसागरोवमसहस्साणं पुवकोडिपुधत्तेणब्महियाणं सवजहण्णमंतोमहत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगनं पडिवण्णो । लद्धमंतरं तवोकम्मस्स । पुणो उवसमसम्मत्तद्धाए अब्भतरे आसाणं गंतूण मदो एइंदिययो जादो । एवं गम्भादिअट्ठवस्सेहि एकेन्द्रिय जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर वेदकसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ । अनन्तर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजन कर और दर्शनमोहनीयको उपशमा कर अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वउपशामक, अनिवृत्तिउपशामक, सूक्ष्म उपशामक और उपशान्तकषाय हुआ । इसके ईर्यापथकर्मकी आदि दिखाई दी। फिर सूक्ष्मसाम्पराय होकर इसका अन्तर किय । अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर कालका अन्तर देकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त कालके शेष रहनेपर सिद्ध होगा, इसलिये क्षीणकषाय हुआ। इस प्रकार ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है । अनन्तर योगी और अयोगी होकर सिद्ध हुआ। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट त्रसस्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। तपःकर्मका अस्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व आधक दो हजार सागर है । यथा-अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावालाकोई एक एकेन्द्रिय जीव मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तका होनेपरविशुद्धिको प्राप्त होकर वेदकसम्यक्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ । इसके तपःकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया । अनन्तर सबसे लघ अन्तर्मुहर्त काल तक उसके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उसका अन्तर किया। अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरप्रमाण कालमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्व और सयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इस प्रकार तपःकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर *प्रतिषु ' अणियट्ठी ' इति पाठ: 1. अ-आ-काप्रतिषु — विसेसोहिं ' इति पाठः 1 . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ , ४ , ३१) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १४९ दोअंतोमुहुत्तब्भहिएहि ऊणिया सगदिदी तवोकम्मुक्कस्संतरं । किरियाकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि किंचूणपुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि । कुदो? एक्को अट्ठावीससंतकम्मियएइंदियो सण्णिचिदियसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स आदी विट्ठा । सव्वजहण्णंतोमहत्तं किरियाकम्मेणच्छिय मिच्छत्तं गदो अंतरिदो। बेसागरोवमसहस्साणं पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणं सव्वजहणतोमहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स लद्धमंतरं। पुणो सासणं गंतूण मदो एइंदियो जादो। एवं पंचहि अंतोमुत्तेहि ऊणसगद्धत्तंतरुवलंभादो । एवं तसपज्जत्तयस्स वि । णवरि जम्हि बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि भणिदाणि तम्हि बेसागरोवमसहस्साणि त्ति वत्त । तसअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीनं पडुच्च त्थि अंतरं । आधाकम्मस्तरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीगं पडुच्च पत्थि अंतर । एगजीनं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण असीवि---सट्ठि---ताल---चवीसभवमेत्तअतोमुहुत्ताणं शंखेज्जा मरा और एकेन्द्रिय हुआ । इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और दो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी स्थिति तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है, क्योंकि, अट्ठाईस कर्मोकी सत्तावाला कोई एक एकेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्छन पर्याप्तकोंमे उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो, विश्राम करके और विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इसके क्रियाकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया। अनन्तर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक क्रियाकर्मके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उसका अन्तर किया । अनन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार क्रियाकर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है। पूनः सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और एकेन्द्रिय हो गया। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध हुआ। इसी प्रकार त्रस पर्याप्तकोंके भी जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जहां पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर अन्तरकाल कहां है वहांपर दो हजार सागरप्रमाण अन्तरकाल कहना चाहिए। त्रस अपर्याप्त जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अदेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस भवप्रमाण संख्यात अन्तर्मह?के समूहसे तीन समय कम Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. समूहो तिसमऊणो । तं जहा- एक्को एइंदियो तसअपज्जत्तएसु उववण्णो । तत्थ उप्पण्णपढमसमए उववादजोगेण ओरालियसरीरणिमित्तं जे गहिदा परमाण तेसि बिदियसमए णिज्जिण्णाणं आधाकम्मस्स आदी होदि । पुणो तदियसमयप्पहुडि ताव अंतरं होदूण गच्छदि जाव संखेज्जअसीदि-सट्टि-दाल-चदुवीसअपज्जत्तभवाणमंतोमुहुत्तकालाण* दुचरिमसमओ त्ति । पुणो चरिमसमए तेतु चेव पुणो णिज्जिण्णणोकम्मरक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं होदि।। जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगीणं सव्वपदाणं णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । णवरि आधाकम्मस्स एमजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं तिसमऊणं । एवं कायजोगिस्स । णवरि आधाकम्मस्स अंतरं एगजीवं पड़च्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेण अणंतो कालो तिसमऊणो असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियकायजोगीसु एवं चेव । णवरि आधाकम्मस्स अंतरं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण बावीसवस्ससहस्साणि तिसमयाहियअंतोमुत्तागि । तं जहा- एक्को तिरिक्खो वा मणस्सो वा बादरपुढविकाइयपज्जत्तएसु उववण्णो। चदुहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदपढमसमए जे गहिदा परमाणू तेसि बिदियसमए है । यथा- एक एकेन्द्रिय जीव त्रस अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। वहां उत्पन्न होनेके पहले समयमें उपपाद योगके द्वारा औदारिकशरीरके निमित्त जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण किये उनके दूसरे समयमें निर्जीर्ण हो जानेपर अधःकर्मका प्रारम्भ होता है । पुन: तीसरे समयसे लेकर अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस अपर्याप्त भवप्रमाण संख्यात अन्तर्मुहुर्तोंके द्विचरम समय तक उसका अन्तर रहता है । पुन: अन्तिम समयमें उन्हीं निर्जीर्ण हुए कर्मस्कन्धोंके पुनः बन्धको प्राप्त होनेपर अध:कर्मका अन्तरकाल लब्ध होता है। योगमार्गणाके अनुवादसे पांच मनोयोगी और पाच वचनयोगी जीवोंके सब पदोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि अधःकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार काययोगीके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके अध:कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनके बराबर है । औदारिककाययोगियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिय । इतनी विशेषता है कि इनके अधःकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय और अन्तर्मुहुर्त कम बाईस र वर्ष है । यथा- कोई एक तिर्यंच या मनुष्य बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न । चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेपर अनन्तर प्रथम समय में जो परमाण ग्रहण किये उनके दूसरे समयमें निर्जीर्ण होनेपर अधःकर्मकी आदि होती है । पुन: तीसरे समयसे लेकर *ताप्रती ' समूहो त्ति ससऊणो' इति पाठ.18 प्रतिष 'प्पहुडि जाव ताव ' * अ-आ-काप्रतिषु • मतोमहुत्त कालाणं', ताप्रती · मंतोमुहुतो (त्त) कालाणं ' इति पाठः।। अ-आ- काप्रतिषु 'णिजिण्णोकम्म ' इति पाठः । - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५१ णिज्जिण्णाणमाधाकम्मस्स आदी होदि। तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदूण ताव गच्छदि जाव बावीसवस्ससहस्साणं* दुचरिमसमओ त्ति। पुणो चरिमसमए पुग्विल्लक्खंधेसु बंधमागदेसु लद्धमंतरं होदि । एवं तिसमयाहिअंतोमुत्तेण ऊगाणि बावीसवस्ससहस्साणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । ओरालियमिस्सकायजोगिस्स पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीनं पड़च्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणमंतोमुहत्तं । तं जहा- एक्को सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवो उजुगदीए आगंतूण मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ उववादजोगेण जे पढ़मसमए गहिदा णोकम्मक्खंधा तेसि बिदियसमए णिज्जिण्णाणमादी होदि । तो तदियसमयप्पडि अंतरं होदूण पुणो दोहेण अंतोमुत्तेण पज्जत्तयदो होहदि त्ति तस्स चरिमसमए लद्धमतरं । एवं तिसमऊणंतोमहत्तं आधाकम्मक्कस्संतरं होदि । इरियावहतवोकम्माणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीनं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । जहा णिन्वुइमुवगमंताणं+ छम्मासमुक्कस्संतरं होदि तहा केवलिसमग्घादं करेंताणं पि छम्मासमेत्तमुक्कस्समंतरं किण्ण जायदे ? ण एस दोसो सव्वेसि णिन्वइमवगमंताणं0 केवलिसमुग्धादाभावादो । गदि अस्थि तो छम्मासमंतरं दि होज्ज । बाईस हजार वर्षके द्विचरम समय तक उनका अन्तर रहता है । पुनः अन्तिम समय में पूर्वोक्त कर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अन्तरकाल लब्ध होता है । इस प्रकार अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय और अन्तर्मुहुर्त कम बाईस हजार वर्ष होता है। औदारिकमिश्रकाययोगीके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं हैं । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्महर्त है। यथा-एक सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव ऋजगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां उपपाद योगसे प्रथम समयमें जो नोकर्मस्कन्ध ग्रहण किये उनके दूसरे समयमें निर्जीर्ण होनेपर अधःकर्मकी आदि होती है । अनन्तर तीसरे समयसे लेकर अनन्तर होकर पुनः दीर्घ अन्तर्मुहुर्तके द्वारा पर्याप्त होगा, इस प्रकार उसके अन्तिम समयमें अन्तर प्राप्त होता है । इस प्रकार अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त होता है । ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। शंका - जिस प्रकार मोक्षको जानेवाले जीवोंका छह महीना उत्कृष्ट अन्तर होता है उसी प्रकार केवलिसमुद्धात करनेवालोंका भी छह महीनाप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर क्यों नहीं होता? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मोक्ष जानेवाले सभी जीवोंके केवलिसमुद्धात नहीं होता । यदि मोक्ष जानेवाले सभी जीवोंके केवलिसमुद्धात होता तो छह मासप्रमाण *प्रतिषु 'सहस्साणि ' इति पाठः। - अ-आ-काप्रतिष ' मुवणमंताणं ' ताप्रती '-मुवगमणंताणं ति पाठ अ-आ-ताप्रतिषु 'णिन्वु इगमणुवमंताणं ' काप्रती 'णिव्व इगमणवगंताणं इति पाठः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. केवलसमुग्धादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्विदीए घादो जायदे ? ण, द्विदिखंडयधादेण तग्धादुववत्तीदो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एवं कम्मइयकायजोगिस्स । णवरि आधाकम्मस्स णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एसओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेउब्वियकायजोगीसु सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण बारसमुहुत्ताणि । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । किरियाकम्मस्स अंतरं bafचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण मास - पुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आहार - आहारमिस्सकायजोगीणं सव्वपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तं एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेदानुवादेण इत्थवेदाणं पओअकम्म- सभोदाणकम्माणं णाणेगजीव पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अन्तरकाल भी प्राप्त होता । शंका- जिन जीवोंके केवलिसमुद्धात नहीं होता उनके केवलिसमुद्धात हुए बिना पत्य के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिका घात कैसे होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितिकाण्डकघातके द्वारा उक्त स्थितिका घात बन जाता है । उक्त दोनों कर्मोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार कार्मण काययोगियोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अधःकर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । वैक्रियिककाययोगियोंके सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है । वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल मासपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंके सब पदोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । ? वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेदवालोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा (१५३ अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण तिसमऊणपलिदोवमसदपुधत्तं । तवोकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। एगजीनं पड़च्च जहण्णण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं देसूणं । तं जहा-एक्को पुरिसवेदो णवंसयवेदो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ इस्थिवेदमणुस्सेसु उववण्णो। गन्मादिअटुवस्साणमंतोमहत्तब्भहियाणमुवरि वेदगसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी दिट्ठा। सव्वलहुं तवोकम्मेण अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो। पलिदोवमसदपुधत्तस्स सव्वजहणंतोमुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं संजमं च जगनं पडिवण्णो। तवोकम्मस्स लद्धमंतरं। पुणो उवसमसम्मत्तद्धाए एगसमयावसेसाए आसाणं गंतूण मदो पुरिसवेदो देवो जादो । एवं गब्भादिअदुवस्से हि बेअंतोमुहुत्तन्महिएहि ऊणिया सगट्टिदी तवोकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीनं पड़च्च णत्थि अंतरं । एगजीनं पडच्च जहणेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण अंतोमहत्तणं पलिदोवमसदपुधत्तं । तं जहा-एक्कोतिरिक्खो वा मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ पुरिस-णवंसयवेदो देवेसु उववण्णो। छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। विस्तो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो किरियाकम्मस्स आदी दिट्ठा । तदो मिच्छत्तं गंतूण अंतरिदो। पुणो पलिदोवमसदपुधत्ते सव्वजहण्णअंतोमुहुत्तावसेसे उवगमसम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स लद्धमंतरं । तदो सासणं गंतूणं मदो जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम सौ पल्यपथक्त्व है। तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम सौ पल्यपृथक्त्व है यथा-अट्ठाईस कर्मोंकी सत्तावाला एक पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी जीव स्त्रीवेदवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षका होनेपर वेदकसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इसके तपःकर्मकी आदि दिखाई दी। अनन्तर सबसे लघु (अन्तर्मुहूर्त) काल तक तपःकर्म के साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और उसका अन्तर किया । अनन्तर सौ पल्यपृथक्त्वमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इसके तपःकर्मका अन्तरकाल लब्ध हो गया । पुन: उपशमसम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और पुरुषवेदवाला देव हुआ । इस प्रकार गर्भसे लेकर दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष अपनी स्थिति तप:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहुर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कम सौ पल्यपृथक्त्व है। यथा अट्ठाईस कर्मोकी सत्तावाला पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी एक तिर्यंच या मनुष्य देवोंमें उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। विश्राम किया, यिशुद्ध हुआ और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इसके क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। अनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसका अन्तर किया। अनन्तर सौ पल्यपृथक्त्वमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मका अन्तर लब्ध हो गया। अनन्तर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. पुरिस- बुंसयवेदो जादो । एवं पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया सर्गाद्वदी किरियाकम्मस्म उक्करसंतरं होदि । पुरिसवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणंण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणं सागरोवमसदपुधत्तं । तवोकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होवि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । तं जहा- एक्को इत्थि - वंसयवेदो अट्ठावीस संतकम्मिओ पुरिसवेदेण मणस्सेसु उववण्णो । गन्भादिअट्ठवस्साणमुवरि वेदगसम्मत्तं संजमं च समयं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी दिट्ठा। सव्वलहुं तवोकम्मेण अच्छिदूण मिच्छतं गदो अन्तरिदो । तदो सागरोवमसदधत्तेण सव्वजहणमंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं संजमं च पडवण्णो । तवोकम्मस्स लद्धमंतरं पुणो सासणं गंतूण मदो इत्थिवेदो णवुंसयवेदो वा जादो । एवं गभादिअट्ठवस्सेहि अंतोमृहुत्तन्भहिएहि ऊणिया सगट्टिदी तवोकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । किरियाकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीगं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण सागरोवससवपुधत्तं देसूणं । तं जहाएक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ इत्थिवेदो णवुंसयवेदो वा कालं काढूण देवेषु पुरिस - वेदी या नपुंसकवेदी हो गया । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूर्त कम अपनी स्थिति क्रियाकर्मका उकृष्ट अन्तरकाल होता है । पुरुषवेदवाले जीवों के प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम सौ सागरपृथक्त्व है । तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरपृथक्त्व है । यथा - अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक स्त्रीवेदी या नपुंसक वेदी जीव पुरुषवेदके साथ मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर वेदकसम्यक्त्व और संयमकी एक साथ प्राप्त हुआ । इसके तपः कर्मकी आदि दिखाई दी । अनन्तर सबसे थोडे काल तक तपःकर्मके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । तपःकर्मका अन्तर किया । तदनन्तर सौ सागरपृथक्त्व में सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्व और संयमको ( एक साथ ) प्राप्त हुआ तपःकर्मका अन्तर प्राप्त हो गया । अनन्तर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और स्त्रीवेद या नपुंसकवेदी हो गया । इस प्रकार गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालसे न्यून अपनी स्थिति तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तर होता है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व है । यथा - अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी एक जीव मरकर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५५ वेदेण उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवणो। किरियाकम्मस्स आदी दिदा । सव्वलहं किरियाकम्मेण अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । तदो सागरोवमसदपुधत्ते सव्वजहण्णअंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । किरियाकम्मस्स लद्धमंतरं । पुणो आसाणं गंतूण मदो इत्थिवेदो णबुंसयवेदो वा जादो । एवं पंचहि अंतोमहत्तेहि ऊणिया सगढिदी किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । णवंसयवेदाणं पओअकम्माण-समोदाणकम्माणं णाणेगजीवं पड़च्च णत्थि अंतरं। आधाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ। उक्कस्सेण अणंतो कालो तिसमऊणो असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एक्केण पोग्गलपरियट्टेण चेव होदव्वं, पोग्गलपरियट्टादो उरि अच्छणं पडि संभवाभावादो ? ण एस दोसो, अप्पिदजीवं मोत्तण अण्णजीवेहि सह आधाकम्मेण परिणदाणं-पि णोकम्मक्खंधाणं अंतराभावो ण होदि त्ति कादूण असंखेज्जाणं पोग्गलपरियट्टाणं संभवं पडि विरोहाभावादो। तवोकम्म-किरियाकम्माणमंतरं केचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। एगजीनं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुतं । उक्कस्सेग उबट्टपोग्गलपरियझें । तं जहा एक्को अगादियमिच्छाइट्ठी णवंसयवेदेण मणुस्सेसु उवण्वणो। दो अद्धपोग्गलपरियट्टस्स पुरुषवेदके साथ देवोंमें उत्पन्न हुआ । छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, विश्राम किया और विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। पुनः अति स्वल्प काल तक क्रियाकर्म के साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मका अन्तर किया । अनन्तर सौ सागरपृथक्त्वमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मका अन्तर प्राप्त हो गया । अनन्तर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर मरा और स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी हो गया। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहुर्त कम अपनी स्थिति क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। नपुंसकवेदवाले जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनके बराबर है । शंका - एक पुद्गलपरिवर्तन ही उत्कृष्ट अन्तरकाल होना चाहिए, क्योंकि, एक पुद्गलपरिवर्तनके बाद उस जीवका वहां रहना सम्भव नहीं है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विवक्षित जीबको छोडकर अन्य जोवोंके साथ अध:कर्मरूपसे परिणत हुए नोकर्मस्कन्धोंका भी अन्तराभाव नहीं होता है, ऐसा समझकर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं आता है। तपःकर्म और क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । यथा-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव नपुंसकवेदके साथ मनुष्योंमें B ताप्रती · अण्णजीवेण ' इति पाठः । प्रतिषु परिराणं इति पाठ: । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. वाहिं अट्ठवस्साणि अंतोमहत्तब्भहियाणि गमेदूण अद्धपोग्गलपरियडस्स पढमसमए उवसमसम्मत्तं संजमं च समयं पडिवण्णो । तवोकम्म-किरियाकम्माणमादी दिट्ठा। पुणो उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलिया अस्थि त्ति आसाणं गंतूणंतरिदो। पुणो अद्धपोग्गलपरियदृस्स सव्वजहण्णअंतोमहत्तावसेसे* तिण्णि वि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं संजमं च पडिवण्णो । तवोकम्म-किरियाकम्माणं लद्धमंतरं। तदो अणंताणुबंधि विसंजोएदूण वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । तदो अंतोमुहुत्तेण खइयसम्माइट्ठी जादो। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव० अणियट्टि० सुहुमसांपराइय० सजोगी अजोगी होदूण सिद्धो जादो । एवं गqसयवेदस्स तवोकम्म-किरियाकम्माणं बारसेहि अंतोमुत्तेहि ऊणयमद्धपोग्गलपरियट्टमुक्कस्संतरं होदि । अवगदवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म इरियावहकम्म-तवोकम्माणं णाणेगजीवं पडच्च गत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पड़च्च गत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेण पुन्वकोडी देसूणा । तं जहा- एक्को देवो वा रइओ वा खइयसम्माइट्ठी पुत्वकोडाउएसु मणस्सेस उववण्णो । तदो गब्भादिअवस्साणमंतोमहत्तब्भहियाणमवरि अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । पुणो पमत्तो जादो । तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्व:--अणिर्याट्टगुणट्ठाणम्मि संखेज्जे भागे उत्पन्न हुआ। अनन्तर अर्ध पुद्गलपरिवर्तनके बाहर अन्तर्मुहुर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। इसकेतपःकर्म और क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी। पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि कालशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर इन दोनोंका अन्तर किया । अनन्तर अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कलमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल शेष रहनेपर तीनों ही करणोंको करके उपशमसम्यक्त्व और संयमको प्राप्त हुआ। तपःकर्म और क्रियाकर्मका अन्तर प्राप्त हो गया । अनन्तर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । अनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया । अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंके हजारों परावर्तन करके अपूर्वक्षपक, अनिवृत्तिक्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी होता हुआ सिद्ध हो गया । इस प्रकार नपुंसकवेदवाले के तरःकर्म और क्रियाकर्मका बारह अन्तर्मुहुर्त कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। __अपगतवेदवाले जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है । यथा-एक देव या नारकी क्षायिकराम्यग्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहुर्त के बाद अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ। अनन्तर प्रमत्त हुआ । अनन्तर प्रमत्त - और अप्रमत्त गुणस्थानोंके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके * ताप्रती '-सेस इति पाठः । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५७ गंतूण अस्सकण्णकरणकारयस्स पढमसमए जेणिज्जिण्णा ओरालियसरीरपरमाणू तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदो तदियसमयप्पहुडि अकम्मभावेण गदाणं परमाणूणमंतरं होदूण गच्छदि जाव पुवकोडिम्मि अजोगिमेत्तद्धा सेसा ति। तदो सजोगिचरिमसमए तेसु चेव णोकम्मक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं होदि। एवं गम्भादिअटुवस्सेहि छअंतोमुत्तब्भहिएहि ऊणिया पुवकोडी आधाकम्मस्त उक्कस्संतरं होदि । कसायाणवादेण चदुण्णं कसायाणं मणजोगिभंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो। वरि खीणकसायपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियपरमाणू तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी कायस्वा । एवं केवलणाण-केवलदसणाणं पि वत्तव्वं । णवरि सजोगिपढमसमए णिज्जिण्णाणमोरालियपरमाणूणं बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी काया। णाणाणवादेण मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खोघभंगो। णवरि किरियाकम्म पत्थि। एवमभवसिद्धिय-मिच्छाइटिअसण्णीणं पि वत्तव्वं। एवं विभंगणाणीणं पि। गवरि आधाकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं। तंजहाएक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा उवसमसम्माइट्ठी उसमसम्मत्तद्धा छआवलियाओ अस्थि त्ति आसाणं विभंगणाणं च समयं पडिवण्णो । तत्थ विभंगणाणुप्पण्णपढमसमए जे सख्यात भाग जानेपर अश्वकर्ण करणका कर्ता होकर उसके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरके निर्जीर्ण हुए उनके दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती है। अनन्तर तीसरे समयसे लेकर अकर्मभावको प्राप्त हुए उन परमाणुओंका अन्तरकाल होता है जो पूर्वकोटि में अयोगीमात्र काल शेष रहने तक रहता है । अनन्तर सयोगीके अन्तिम उन्हीं समयमें नोकर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल प्राप्त होता है। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और छह अन्तर्मुहर्त कम एक पूर्वकोटि अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायोंका कथन मनोयोगियोंके समान है। अकषायवालोंका कथन अपगतवेदवालोंके समान है । इतनी विशेषता है कि क्षीणकषायके प्रथम समयम जो औदारिकशरीरके नोकर्मपरमाणु निर्जीर्ण हुए उनके दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि करना चाहिये । इसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शनवालोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सयोगीके प्रथम समयमें निर्जीर्ण हुए औदारिकशरीरके परमाणुओंके दूसरे समय में अध:कर्मकी आदि करना चाहिये । ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका कथन सामान्य तिर्यंचोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता। इसी प्रकार अभव्यसिद्ध, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके भी कहना चाहिये । इसी प्रकार विभंगज्ञानियोंके भी जानना चाहिये इतनी विशेषता है कि अध:कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । यथा-एक तिर्यंच या मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि काल शेष रहनेपर सासादन और विभंगज्ञानको एक * का-ताप्रत्योः ‘पि ' इत्येतत्पदं नास्ति । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड णिज्जिण्णा ओरालियसरीरपरमाण तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि ताव अंतरं जाव सासणकालो सव्वो मिच्छाइदिम्हि* घिभंगणाणसव्वुक्कस्सकालस्स दुचरिमसमओ त्ति । तदो विभंगणाणकालचरिमसमए तेसु चेव पुवणिज्जिण्णओरालियसरीरणोकम्मक्खधंसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । एवं तिसमऊणछ आवलियाओ मिच्छाइटिसबुक्कस्सविभंगणाणद्धा च आधाकम्मरस उक्कस्संतरं होदि। आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणेगजीनं पडुच्च गतथि अंतरं। आधाकम्मरस अंतरं केर्वाचर कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण णवणउदिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तं जहा- एकको मिच्छाइट्ठी पुवकोडाउएसु कुक्कुड-मक्कडेसु सणिपंचिदियपज्जत्तएसु उववण्णो। तत्थ बेमासाणं दिवसपुधत्तेणब्भहियाणमुवरि तिणि वि करणागि कादणुवसमसम्मत्तमोहिणाणं मदि-सुदणाणाविणाभाविणं पडिवण्णो तत्थ तिण्णाणपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियपरमाण तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदो तदियप्पहाडि देसूणपुव्वकोडी अंतरं होदूण पुणो ओहिणाणेण सह तिरिक्खाउएणणचोद्दससागरोसाथ प्राप्त हुआ। वहां विभंगज्ञानके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरके परमाण निर्जीण हुए उनके दूसरे समयभे अध:कर्मकी आदि होती है ! और तीसरे समयसे लेकर सासा दनका सब काल विताकर मिथ्यादृष्टिके विभंगज्ञानके सर्वोत्कृष्ट कालके द्विचरम समयके प्राप्त होने तक अन्तर होता है। अनन्तर विभंगज्ञानके कालके अन्तिम समय में उन्हीं पूर्वनिर्जीर्ण औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्धोके बन्धको प्राप्त होनेपर अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तर होता है। इस प्रकार तीन समय कम छह आवलि काल और मिथ्यादृष्टिके सर्वोत्कृष्ट विभगज्ञानका काल, य दोनों मिलकर अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। आभिनिबीधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक निन्यानब सागर है । यथा-- एक मिथ्यादृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त कुक्कुड पक्षी और मर्कटों में उत्पन्न हुआ । वहां दिवसपृथक्त्व अधिक दो माह होनेपर तीनों ही करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको और आभिनिबोधिकज्ञान एवं श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका प्राप्त हुआ। वहां तीन ज्ञानके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरसे परमाणु निर्जीण हुए उनके दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती हैं। अनन्तर तीसरे समयसे लेकर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण अन्तर होकर पुन: अवधिज्ञानके साथ तिर्यंचायुसे न्यून चौदह सागरकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः अवधिज्ञानके * अ-आ-काप्रतिषु · मिच्छा इट्ठीहि ', ताप्रती — मिच्छाइट्ठी (ट्ठि) ( हि ) ' इति पाठः 1 प्रतिषु — मक्कुडेसु ' इति पाठः : Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाणुओगद्दारे पओकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५९ , ५, ४ ३१ ) उट्टिदिएसु देवेसु उववण्णो । पुणो ओहिणाणेण सहिदपुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उबवण्णो । पुणो मणुस्सा उएणूण बावीस सामरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो समाणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । पुणो मणुस्साउएण अण्णेहि अंतोमुहुत्तब्भहियगन्भादिअट्ठवस्सेहि य ऊणतीससागरोवमट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो संतो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ गन्भादिअदुवस्साणमुवरि तिष्णि विकरणाणि कादूण खइयसम्माइट्ठी जादो । पुणो देसूणपुव्वकोडी ओहिणाणेण सह संजममणुपादूण तेत्तीस सागरोवमट्ठिदियो देवो जादो । तत्तो चुदो समाणो पुव्वको डाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ एदिस्से पुव्वकोडीए सव्वजहणंतोमुहुतावसेसे खीणकसाओ जादो । तस्स खीणकसायस्म चरिमसमए पुव्वं णिज्जिण्णपरमाणूसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं होदि । एवमाभिणि-सुद-ओहिणाणाणं जवणउदिसागरोवमाणि देसूणदोहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि आधाकम्मस्स उक्क - संतरं । एवमिरियावथकम्मस्स । णवरि णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । ओहिणाणस्स वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमहुतं । तवकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि तवोकम्मस्स अंतरं एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उस्कवसेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूण पुव्वकोडीए सादिरेयाणि अधवा, तवोकम्मस्स चोदालीसं सागरोवमाणि वेसूणतीहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि उक्कस्समंतरं । तं जहा एक्को देवो वा णेरइओ वा पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । पुनः मनुष्यायुसे न्युन बाईस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः मनुष्या से न्यून तथा अन्य गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षकी आयुसे न्यून तीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे लेकर आठ वर्ष होनेपर तीनों करणोंको करके क्षायिकसम्यदृष्टि हो गया । पुनः कुछ कम पूर्वकोटि काल तक अवधिज्ञानके साथ संयमका पालनकर तेतीस सागरकी स्थितिवाला देव हो गया । पुनः वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहां इस पूर्वकोटि में सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षीणकषाय हो गया। उस क्षीणकषाय के अन्तिम समय में पहले निर्जीण हुए परमाणुओं के बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्मका अन्तर प्राप्त होता है। इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों के कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक निन्यानबे सागर अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल होता है । इतनी विशेषता है कि इसका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । किन्तु अवधिज्ञानके उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तपःकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि तपःकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तीस सागर है । अथवा तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पूर्वकोटि अधिक चवालीस सागर है। यथा- एक देव या नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो। मम्भादिअटुवस्साणमुवरि अधापवत्तकरणं अपुव्वकरणं च कादूण संजमं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स आदी दिट्ठा। सव्वलहुमंतोमुहुत्तं संजमेण अच्छिदूण संजमासंजम पडिवज्जिय अंतरिदो । देसूणपुवकोडिं संजमासंजमेण गमिय कालं काढूण बावीससागरोवमटिदिएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो समाणो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ देसूणपुवकोडिं संजमासंजममणुपालेदूण पुणो वि बावीससागरोवमट्टिदियो देवो जादो। तत्थ कालं कादूण पुवकोडाउअमणुस्सो जादो । सव्वजहण्णंतोमुहुत्तावसेसे आउए संजमं पडिवण्णो । तवोकम्मस्स लद्धभंतरं । तदो कालं कादूण देवो जादो। एवं बेअंतोमुत्तब्भहियगम्भादिअटुवस्सेहि उणियाहि तीहि पुवकोडोहि सादिरेयाणि चोदालोसं सागरोवमाणितवोकम्मस्तंतरं किरियाकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणाजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं एगजीनं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । तं जहा. एक्को अप्पमत्तो किरियाकम्मेण अच्छिदो। पुणो अपुव्वो होदूण अंतरिदो। तदो णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदअणंतर समए चेव मदो देवो जादो*। किरियाकम्मस्स अंतोमुत्तमेत्तं जहण्णण लद्धमंतरं होदि । उक्कस्सं णि अंतरमंतोमुत्तमेत्तं चेव । तं जहा- एक्को अप्पमत्तो किरियाकम्मेण अच्छिदो । अपुवो होदूण अतरियो । तदो सव्वदीहेहि कालेहि अपुव्व-अणियट्टि-सुहुम-उवसंतगुणट्ठाणाणि गमिय पुणो ओदरमाणो हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण करके संयमको प्राप्त हुआ। तपःकर्मकी आदि दिखाई दी। अनन्तर सबसे लघु अन्तर्मुहुर्त काल तक संयमके साथ रहकर संयमासंयमको प्राप्त हो उसका अन्तर किया। फिर कुछ कम पूर्वकोटि काल संयमासंयमको साथ विताकर और मरकर बाईस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमासंयमके पालनकर फिर भी बाईस सागरको आयवाला देव हआ। वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयवाला मनष्य हआ और आयमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल शेष रहनेपर संयमको प्राप्त हआ । इस प्रकार तपःकर्मका अन्तर प्राप्त हो गया। अनन्तर मरकर देव हो गया। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्षमें दो अन्तर्मुहुर्त मिलानेपर जो काल हो उससे न्यून तीन पूर्वकोटि अधिक चवालीस सागर तपःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है। । यथाएक अप्रमत्त जीव क्रियाकर्मके साथ स्थित है। पूनः अपूर्वकरण होकर उसने उसका अन्तर किया। फिर निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्यच्छिति होनेके अनन्तर समयमें ही वह मरा और देव हो गया। इस तरह क्रियाकर्मका अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध होता है । उत्कृष्ट अन्तरकाल भी अन्तर्मुहुर्त ही होता है । यथा- एक अप्रमत्त जीव क्रियाकमके साथ स्थित है। पुनः अपूर्वकरण होकर उसने उसका अन्तर किया । अनन्तर सबसे दीर्घकाल द्वारा अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थानोंको विताकर पुनः उतरते हुए __ काप्रती अण्णंतर- ' इति पाठः : *अ-आ-काप्रतिषु — मदो जादो' इति पाठः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १६१ सुमो अणियट्टी अपुव्वो होटूण अप्पमत्तो जादो । लद्धं किरियाकम्स्स उक्कस्संतरं । वरि जहणणंतरादो एवमुक्कस्संतरं संखेज्जगुणं । मणपज्जवणाणीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म तबोकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण पुण्वकोडी देसूणा । तं जहा- एक्को देवो वा* णेरइयो वा वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मनुस्सेसु उववणी | गमादिअट्ठवस्साणमुवरि संजमं पडिवज्जिय मणपज्जवणाणी जादो । तस्स मणपज्जवणाणिस्स पढमसमए जे निज्जिण्णा ओरालियखंधा तेसि बिदियसमए आदी होदि । तदियसमय पहुडि अंतरं होण पुव्त्रकोडिचरिमसमए पुव्वणिज्जिण्ण ओरालियखंधे बंध मागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमुक्कस्संतरं । एवं तीहि समएहि अंतोमुत्तभय अदुवासेहि य ऊणा पुव्वकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । इरियावथकम्मस्स वि एवं चेव । णवरि कोइ वि विसेसो जाणिय वत्तध्वो । किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । संजमाणुवादेण संजदाणं मणपज्जवणाणिभंगो । सामाइय-छेदोवद्वावणसुद्धिसंजदार्ण सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण और अपूर्व करण होकर अप्रमत्तसंयत हो गया । इस तरह क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो गया । इतनी विशेषता है कि जघन्य अन्तरकालसे यह उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यातगुणा है । • मन:पर्ययज्ञानियों में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्नरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है । यथा- एक देव या नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर संयमको प्राप्त कर मन:पर्ययज्ञानी हो गया । उस मन:पर्ययज्ञानीके प्रथम समयमें जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्णं हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधः कर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे अन्तर होकर पूर्वकोटि अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिक स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस तरह तीन समय और अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम पूर्वकोटि अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। ईर्यापथकर्मका भी इसी प्रकार अन्तरकाल होता है । इतना विशेष है कि जो कुछ विशेषता है वह जानकर कहनी चाहिये । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । संयममार्गणा अनुवादसे संयतोंका कथन मन:पर्ययज्ञानियों के समान है । सामायिक और अ आ-काप्रतिषु 'देवो जादो वा इति पाठः । का तात्योः 'देसूणा पुत्रकोडी ' इति पाठ [ 4 पुन्व कोडीणिज्जिण्ण-' इति पाठ: 1 XXX अ आ-काप्रति Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. १६२ ) अष्पष्पणो पदाणमेवं चेव । णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । किरियाकम्मस्स वि णत्थि अंतरं । एवं परिहार० । णवरि आधाकम्मस्स एगजीवं पड़च्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तब्भहियतीसवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी । तं जहा एक्को देवो वा णेरइयो वा वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्लेसु उववण्णो । तदो सव्वसोक्खसंजुत्तेण तीसवस्साणि पुरे गमेदूण तदो सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजमाणगदरं पडिवण्णो । पुणो वासपुधत्तेण पच्चक्खाणणामधेय पुव्वं पढिवण केवलिपादमूले परिहारसुद्धिसंजमं पडिवण्णो । तस्स परिहार सुद्धिसंजदस्स पढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियखंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमय पहुडि ताव अंतरं जाव परिहारसुद्धिसंजददुचरिमसमओ त्ति । तदो परिहारसुद्धिसंजदचरिमसमए पुग्वणिज्जिण्णोरालियसंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं वासyधत्तब्भहियतीसवरसेहि ऊणिया पुव्यकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्समंतरं । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं पओअकस्म समोदाणकम्म तवोकम्माणं अंतरं केवfचरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं haचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । 1 छेदोपस्थापनाशुद्धि संयतोंका अपने अपने पदों का कथन इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है तथा क्रियाकर्मका भी अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संतोंके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अधः कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक सयय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व अधिक तीस वर्ष न्यून पूर्वकोटि है यथा- एक देव या नारकी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । अनन्तर सब प्रकारके सुखसे संयुक्त होकर तीस वर्ष पहले बिताकर अनन्तर सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धि संयमोंमेंसे किसी एकको प्राप्त हुआ । पुनः वर्षपृथक्त्व काल द्वारा प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढकर केवली जिनके पादमूलमें परिहारशुद्धिसंयमको प्राप्त हुआ । उस परिहारशुद्धिसंयत के प्रथम समय में जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे अन्तर चालू होकर वह परिहारशुद्धिसंयत के द्विचरम समय तक होता है । अनन्तर परिहारशुद्धिसंयत के अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिक स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार वर्षपृथक्त्व अधिक तीस वर्ष न्यून पूर्वकोटि अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपः कर्मका अन्तरकाल कितना है । नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महिना है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । आ-काप्रत्योः ' पुव्वे ' ताप्रती पुव्वं इति पाठः ।। अ आ-कातिषु' पडिदूण' इति पाठ: । अप्रत जाव अंतरं ताव ' इति पाठ: Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ५, ४, ३१ ) कमाणुओगद्दारे अकम्मादीणं अंतरपरूवणा जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म- इरियावहकम्म- तवोकम्माणं जाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णानाजीवं पच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उवकस्सेण अंतोमुहुस्तन्भहियअट्ठवस्से हि ऊणा पुव्वकोडी । तं जहा एक्को खइयसम्माइट्ठी पुण्वकोडाउसु मणुस्सेसु उववण्णो । गब्भादिअट्ठवस्साणमुवरि अधापवत्तकरणमपुव्वकरणं चकादूण अप्पमत्तभावेण सामाइय-छेदोवद्वावणसंजमाणमेगदरं पडिवण्णो । तदो पमत्तो जादो। पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्वो अणियट्टी सुहुमो होदूण खोणकसाओ जहाक्खादसुद्धिसंजदो जादो । तस्स खीणकसायरस पढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालिक्खधा तेसि बिदिय समए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहूडि अंतरं होण तदो सजोगिचरिमसमए ओरालियखंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं तिसमयाहियअंतो मुहुत्तम्भ हियगब्भादिअट्ठवस्सेहि ऊणिया पुव्वकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्तरं । संजदासंजदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म किरियाकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण देसूणपुव्वकोडी । तं जहाएक्को मिच्छाइट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ पुव्वकोडाउएसु सम्मुच्छिम सण्णिपचदिय यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्वकोटि है । यथा - एक क्षायिकसम्यदृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर अधःप्रवृतकरण और अपूर्वकरणको करके अप्रमत्तभाव के साथ सामायिक और छेदोपस्थापना संयमों में से किसी एक को प्राप्त हुआ । अनन्तर प्रमत्त हो गया । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय होकर क्षीणकषाय यथाख्यातशुद्धिसंयत हो गया । उस क्षीणकषाय जीवके प्रथम समय में जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधः कर्म की आदी होती है और तीसरे समय से अन्तर होकर फिर सयोगी के अन्तिम समय में औदारिक स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार तीन समय और अन्तर्मुहूर्त अधिक गर्भसे लेकर आठ वर्ष न्यून पूर्वकोटि अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । संयतासंयत जीवों के प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । यथा - अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले सम्मूच्छिम संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ । छह Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. तिरिक्खपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं च कादूण सम्मत्तं संजमासंजमं च समयं पडिवण्णो । तत्थ संजदासंजदपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियखंधा तेसि बिदियसमए अधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि । तदो संजदासंजदचरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णओरालियसरीरखंधेसु बंधमागदेसु लद्धमाधाकम्मस्स उक्कस्संमंतरं। एवं तिसमयाहिएहि तीहि अंतोमहत्तेहि ऊणिया पुवकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्संमंतरं । असंजदाणं तिरिक्खोधो। दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो। णवरि इरियावथकम्मस्स गाणाजीवं पडच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण चक्खुदंसगिट्टिदी देसूणा। एवमचक्खुदंसणीणं । णवरि सगट्टिदी भणिदव्वं । ओहिदसणीणमोहिणाणिभंगो। लेस्साणवादेण किण्णलेस्साए पओअकम्प्र-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। आघाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीनं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेग तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तं जहा- एक्को तिरिक्खो पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। विश्राम किया । विशुद्ध हुआ। फिर अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके लम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ। वहां संतासंयत होनेके प्रथम समयमें जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे लेकर अन्तर होता है। अनन्तर सयतासंयतके अन्तिम समयसे पहले निर्जीर्ण हुए औदारिकशरीर स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकमका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार तीन समय अधिक तीन अन्तर्मुहुर्त कम एक पूर्वकोटि अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । असंयतोंका कथन सामान्य तिर्यंचोंके समान है। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंका कथन त्रस' पर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि ईर्यापथकर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । तथा एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम चक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवालोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिये। अवधिदर्शनवालोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है ' एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर है । यथा- एक तिर्यंच या मनुष्य X अ-आ-का-ताप्रतिषु त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थ: पाठो मप्रतितोतऽत्र योजित ! Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १६५ वा मणुस्सो वा अधो सत्तमाए पुढवीए गिरयाउअंबंधिय पुणो सव्वदीहमंतोमुहत्तं किण्णलेस्साए परिणमिय तिस्से किण्णलेस्साए परिणदपढमसमए णिज्जिण्णओरालियपरमाणणं बिदियसमए आधाकम्मस्स आदि करिय तदियसमयप्पहुडि अंतराविय एत्थेव किण्णलेस्साए अंतोमुत्तमच्छिय अधो सत्तमाए पुढवीए उप्पज्जिय पुणो तत्थ तेत्तीससागरोवमाणि जीविदूण णिक्खंतो । तदो णिक्खंतस्स वि अंतोमत्तकालं सा चेव किण्णलेस्सा उवलब्भदे । पुणो तिस्से किण्णलेस्साए चरिमसमए पुव्वं णिज्जिग्णपरमाणसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं तिसमऊगबेअंतोमहत्तब्भहियतेत्तीससागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । किरियाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पड़च्च जहण्णेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण छहि अंतोमहुत्तेहि ऊणिया तेत्तीससागरोवमाणि । तं जहाएक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ अधो सत्तमाए पुढवीए उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। किरियाकम्मस्स आदी विट्ठा । तदो सव्वजहण्णमंतोमहत्तं किरियाकम्मेण अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । सव्वजहण्णंतोमुत्तावसेसे जीवियव्वे तिणि वि करणाणि काऊणवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं किरियाकम्मस्स । तदो मिच्छत्तं गंतूण णिक्खंतो। तिरिक्खो जादो । एवं छहि अन्तोमहुत्तेहि ऊणाणि तेत्तोससागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्तरं । एवं गीलाए वि नीचे सातवीं पृथिवीकी नारकायुका बन्ध करके पुनः सबसे दीर्घ अन्तर्मुहर्त काल तक कृष्णलेश्यारूपसे परिणम कर उस कृष्णलेश्यारूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें निर्जीर्ण हुए औदारिकशरीरके परमाणुओंकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि कर और तीसरे समयसे अन्तर कराकर तथा कृष्णलेश्याके साथ अन्तर्मुहुर्त काल तक यहीं रहकर नीचे सातवी पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। पुनः वहां तेतीस सागर जीवित रहकर निकला। वहांसे निकलने के बाद भी अन्तर्मुहूर्त काल तक वही कृष्णलेश्या होती है। पुनः उस कृष्णलेश्याके अन्तिम समयमें पहले निर्जीर्ण हुए औदारिक परमाणुओंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इस प्रकार अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहुर्त अधिक तेतीस सागर होता है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर है। यथा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक तिर्यंच या मनुष्य नीचे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। विश्राम किया। विशुद्ध हुआ और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इसके क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी । अनन्तर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक क्रियाकर्मके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसका अन्तर किया। पुनः जीवितमें सबसे जघन्य अन्तमुहर्त काल शेष रहनेपर तीनों ही करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध हो गया। अनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर निकला और तिर्यंच हो गया। इस प्रकार क्रियांकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह अन्तर्मुहुर्त कम तेतीस सागर कप्रतिषु 'आधाकम्मेसु ' इति पाठः 1 | Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. लेस्साए वत्तव्वं । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तम्भहियाणि सत्तारस सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणागि सत्तारस सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं । एवं काउए वि लेस्साए । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तभहियाणि सत्त सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि सत्त सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं । तेउलेस्साए पओअकम्म-समोदाणकम्म तवोकम्माणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण बेअंतोमहुत्तम्भ हिय देसूणअड्डा इज्जसागरोवमाणि । तं जहा- एक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा सम्माइट्ठी सोधम्मीसाने अंतोमुहुत्तूणअड्डाइज्जसागरोवमाणि देवाअं बंधिण पुणो भुंजमाणाउए सव्वदीहअंतोमृहुत्तावसेसे तेउलेस्सिओ जादो । तिस्से तेउलेस्साए परिणदपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियसरी रक्खधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि । एत्थेव अंतोमहुत्त मंतरिण पुणो सोधम्मीसाणे उप्पज्जिय कालं काढूण तेउलेस्साए सह मस्सो जादो । तत्थ वि सव्बुक्कस्समंतोमुहुत्तं तेउलेस्साए अच्छिवस्स तेउलेस्सढाए चरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णोरालियक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्ध होता है । इस प्रकार नीललेश्या में भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहूर्त अधिक सत्रह सागर है । और क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम सत्रह सागर है इसी प्रकार कापोतलेश्या में भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसमें अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त अधिक सात सागर है । तथा क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम सात सागर है । - पीतलेश्या में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक कुछ कम अढ़ाई सागर है । यथा - एक तिर्यंच या मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म और ऐशान स्वर्ग सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त कम अढ़ाई सागरप्रमा णदेवायुकाबन्ध करके पुनः भुज्यमान आयुमें सबसे दीर्घ अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर पीतलेश्यावाला होगया । उस पीतलेश्या के परिणत होनेके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीर स्कन्ध निर्जीर्ण हुएउनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समय से अन्तर होता है । इस प्रकार यहां ही अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तर करके पुनः सौधर्म व ऐशान कल्प में उत्पन्न होकर मरा और पीतलेश्या के साथ मनुष्य हुआ । यहां भी सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक पीतलेश्या के साथ रहनेवाले उस जीवके पीतलेश्या के कालके अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिकशरीर स्कन्धों के बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्म का अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १६७ मंतरं। एवं तिसमऊणबेअंतोमहत्तभहियाणि देसूणअड्राइज्जसागरोवमाणि आधा-- कम्मरस उक्कस्संतरं होदि । एवं किरियाकम्मस्स वि वत्तव्यं । णवरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि अड्डाइज्जसागरोवमाणि उक्कस्संतरं।। पम्माए लेस्साए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तभहियदेसूणद्धसागरोवमसहिदाणि अट्ठारस सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । एवं किरियाकम्मस्स वि वत्तव्वं । णवरि पंचहि अंतोमहुत्तेहि ऊणाणि (देसूण-) अद्धसागरोवमसहिदअट्ठारससागरोवमाणि उक्कस्संतरं। सुक्कलेस्साए पीअकम्म-समोदाणकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि बहि अंतोमहत्तेहि सादिरेयाणि । तं जहा- एक्को विसुज्झमाणो पमत्तसंजदो पम्मलेस्साए अच्छिदो । तदो उवसमसेडिपाओग्गविसोहि पूरेमाणो सुक्कलेस्सिओ जादो । तदो सुक्कलेस्सियपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियणोकम्मक्खंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहडि अंतरं होदि । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुवो अणियट्टी सुहुमो उवसंतकसाओ पुणो सुहुमो अणियट्टी अपुवो अप्पमत्तो होदूण पमत्तसंजट्ठाणे सवुक्कस्सलेस्सकालमच्छिदूण मदो तेतीससागरोवमट्टिदियो देवो जादो । तत्तो चुदो अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहर्त अधिक कुछ कम अढाई सागर होता है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागर है ।। पद्मलेश्यामें भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहुर्त अधिक कुछ कम साढे अठारह सागर है। इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके क्रियाकमका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्महतं कुछ कम साढे अठारह सागर है । शुक्ललेश्यामे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागर है। यथा-विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ एक प्रमत्तसंयत जीव पद्मलेश्याके साथ रहा । अनन्तर उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिको बढ़ाता हुआ शुक्ललेश्यावाला हो गया । अनन्तर शुक्ललेश्यावाला होनेके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीर स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे अन्तर होता है ।पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, पुन सुक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सर्वोत्कृष्ट उक्त लेश्याके काल तक रहकर मरा और तेतीस सागरकी स्थितिवाला देव हो गया । पुनः वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. समाणो मणुस्सेसु उववण्णो। तदो सव्वदीहंतोमुहुत्तसुक्कलेस्साकालचरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णणोकम्मक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं। एवं तिसमऊणबेअंतोमहत्तब्भहियतेत्तीससागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । किरियाकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? गाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण एक्कत्तीस सागरोवमाणि पंचहि अंतोमुत्तेहि ऊणाणि । तं जहा-एक्को अट्ठावीससंतकम्मियो दवलिंगी उवरिम-उवरिमगेवज्जदेवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। किरियाकम्मस्स आदी विट्ठा । तदो सम्वत्थोवकालं किरियाकम्मेण अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो अंतरिदो । तदो सव्वत्थोवावसेसे जीविदव्वए* उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो। किरियाकम्मस्स लद्धमंतरं। एवं पंचहि अंतोमुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्सं अंतरं। अलेस्सियाणं तवोकम्मरस अंतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पड़च्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण छम्मासा। एगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं। .. भवियाणुवादेण भवसिद्धियाणमोघभंगो। सम्मत्ताणवादेण सम्माइट्ठीण ओहिणाणिभंगो। गवरि इरियावहकम्मस्स णाणाजीगं पडुच्च पत्थि अंतरं। खइयसम्माइट्ठीणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-इरियावहकम्माणं गाणेगजीनं पडुच्च पत्थि अंतरं। अनन्तर शुक्ललेश्याके सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तिम समयमें पूर्व में निर्जीर्ण हुए नोकर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहुर्त अधिक तेतीस सागर होता है । क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना होता हे ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहुर्त कम इकतीस सागर है । यथा-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक द्रव्यलिंगी जीव उपरिम-उपरिम ग्रेवेयकके देवोंमें उत्पन्न हुआ। छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। विश्राम किया और विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । क्रियाकर्मकी आदि दिखाई दी । अनन्तर सबसे स्तोक काल तक क्रियाकर्मके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो अन्तर किया । अनन्तर सबसे स्तोक जीवितके शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। क्रियाकर्मका । अन्तरकाल उपलब्ध हो गया । इस प्रकार क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहुर्त कम इकतीस सागर होता है । लेश्यारहित जीवोंके तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एकसमय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्य जीवोंका भंग ओघके समान है ।सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि ईर्यापथकर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और ईर्यापथकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है प्रतिषु । तेत्तीस ' इति पाठ::* प्रतिषु ' जीविदव्वे इति पाठः 1 , Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १६९ णवरि इरिथावहकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि देसूणबेपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि । तं जहा- एक्को देवो वा रइओ वा चउवीससंतकम्मियो सम्माइट्ठीसु पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । गब्भादिअट्ठवस्साणमुवरि दंसणमोहणीयं खविय अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । पुणो पमत्तो जादो। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुटवो अणिपट्टी सुहुमो होदूण उवसंतकसाओ जादो। इरियावहकम्मस्स आदी विट्ठा । तदो सुहुमो होदूण अंतरिय तेत्तीसाउटिदिएसु देवेसुववज्जिय पुत्वकोडाउएसु मणुस्सेसववण्णो । पुणो पुवकोडीए सव्वत्थोवअंतोमहुत्तावसेसे खीणकसाओ जादो । लद्धमंतरं । एवमेक्कारसतोमुहुत्तम्भहियअटुवस्सेहि ऊणबेपुव्दकोडीहि सादिरेयाणि तेत्तीससागरोवमाणि इरियावहकम्मस्स उक्कस्संतरं। आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं* केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि देसूण (दो) पुव्वकोडीहि साबिरेयाणि । तं जहा- एक्को देवो (वा) रहयो वा च उवीससंतकम्मियो पुस्यकोडाउएस मणुस्सेस उववण्णो । गम्भादिअदुवस्साणमुवरि तिणि वि करणाणि कादूण खइयसम्माइट्ठी जादी। तस्स खइयसम्माइटिस्स पढमसमए (जे) णिज्जिण्णा ओरालियपरमाण तेसि बिदियसमए आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि देसूणपुवकोडिमेतंतरं काऊण तेत्तीससागरोवमाउ कि ईपिथकर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । यथा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक देव या नारकी जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले सम्यग्दृष्टि मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर दर्शनमोहनीयका क्षय करके अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। अनन्तर प्रमत्त हुआं। अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपराय होकर उपशांतकषाय हो गया । इसके ईर्यापथकर्मकी आदि दिखाई दी । अनन्तर सूक्ष्मसांपराय होकर और अन्तर करके तेत्तीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ और वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । पुनः पूर्वकोटिमें सबसे स्तोक अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर क्षीणकषाय हो गया । अन्तरकाल उपलब्ध हो गया। इस प्रकार ग्यारह अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष न्यून दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। यथा-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव या नारकी जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । गर्भसे लेकर आठ वर्षका होने पर तीनों ही करणोंको करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया। उस क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रथम समयमें जो औदारिक परमाणु निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे लेकर कुछ कम पूर्वकोटि काल मात्र अन्तर करके तेतीस सागरकी *ताप्रती — उक्कस्संतरं ( अंतरं ) ' इति पाठः 1 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. १७० ) द्विदिसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो समाणो पुणरवि पुन्त्रकोडाउएस मणस्से सु उववण्णो । तदो सव्वजहणंतो महत्तावसेसे खीणकसाओ जादो । तदो सजोगिचरिमसमए पुव्वणिज्जिण ओरालियकम्मेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं गन्भादिअट्ठवस्सेहि बेअंतो महुत्तब्भहिएहि उणियाहि दोपुव्वकं डीहि सादिरेयाणि तेत्तीससागरोवमाणि आधाकम्मस्पुक्कस्संतरं । तवोकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेत्त सं सागरोवमाणि अंतोमुहुतूणपुव्वकोडीए सादिरेयाणि । किरियाकम्मस्स उक्कसंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वेदगसम्माइट्ठीणं पओअकम्म-समोदाणकम्प - किरियाकस्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सूनानि तवोकमस्स सम्माई द्विभंगो । उवसमसम्माइट्ठीणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एवं किरियाकम्मस्स । णवरि एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्से अंतमत्तं। आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालावो होदि ? णाणाजीवं पड़च्च णत्थि आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ और वहांसे च्युत होकर भी पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । और वहां सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षीणकषाय हो गया । अनन्तर सयोगी के अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिक कर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल गर्भ से लेकर आठ वर्ष दो अन्तर्मुहूर्त न्यून दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । 1 वेदसम्यग्दृष्टियों के प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छ्यासठ सागर है । तपःकर्मके अन्तरकालका विचार सम्यग्दृष्टियोंके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टियों के प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अधः कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य ताव्रती ' उक्कस्संतरं ( अंतरं ), इति पाठ: । अ-आ-काप्रति 'णिज्जिण्गा' इति पाठ: । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ ३१ ) कमाणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १७१ अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । तवोकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण पण्णारस रादिदियाणि । एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमहुत्तं । इरियावथकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण णत्थि अंतरं । सम्मामिच्छाइट्ठीणं पओअकम्म-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ | उक्कस्सेण अंतोमृहुत्तं तिसमऊणं । सासणसम्माइट्ठीणं एवं चेव । णवरि आधाकम्मस्स अंतरमेगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणाओ छआवलियाओ । सणियाणुवादेण सण्णीणं चक्खुदंसणी० भंगो । असण्णीणं मिच्छाइट्ठी ० भंगो। णेव सण्णी णेव असण्णीणं सव्वपदाणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वरि आधाकम्मस्स अंतरमेगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसुणा । तं जहा एक्को देवो वा णेरइयो वा खइयसम्माइट्ठी पुण्वकोडाउएसु अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पन्द्रह रात्रि-दिन है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है । पथकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त । सासादनसम्यग्दृष्टियों के इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अध: कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम छह आवलि है । संज्ञी मार्गणा अनुवादसे संज्ञियोंका भंग चक्षुदर्शनवालोंके समान है । असंज्ञियोंका भंग मिथ्यादृष्टियों के समान है । न संज्ञी न असंज्ञी जीवोंके सब पदोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि अधः कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है । यथा - एक देव या नारी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । गर्भसे लेकर आठ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड मणुस्सेसु उववण्णो । गम्भादिअट्टवस्साणमवरि अधापवत्तकरणं अपुवकरणं च कादण अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । पुणो पमत्तो जादो। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्वो अणियट्टी सुहमो खीणकसाओ च होदूण सजोगी जादो। तदो सजोगिपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदूण सदो सजोगिचरिमसमए पुव्वणिज्जिष्णक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं गम्भादिअटुवस्सेहि (ति) समयाहियअट्टअंतोमहत्तब्भहिएहि ऊणियपुत्वकोडीहि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । आहाराणुवादेण आहारीणमोघभंगो । अणाहाराणं कम्मइयभंगो । एवमंतरं समत्तं ।। भावाणुवादेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पओअकम्मरस को भावो? खओवसमिओ भावो । समोदाणकम्म आधाकम्माणं को भावो ? ओदइयो भावो । इरियावथ कम्मस्स को भावो? उवसमियो वा खइयो वा भावो । तवोकम्म-किरियाकम्माणं को भावो ? उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमियो वा भावो। एवं मणसतिण्णि-पंचिदिय पंचिदियपज्जत-तस-तसपज्जत्त-पंचमण पंचवचिजोगि-ओरालियकायजोगि-आभिणिसुद-ओहि-मणपज्जवणाणि संजद-चक्खु-अचक्खुओहिदंसणि-सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धि-(सम्माइट्ठि) सणि-आहारीणं वत्तव्वं । वर्षका होनेपर अघःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण करके अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ, पुनः प्रमत्त हो गया। अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणकषाय होकर सयोगी हो गया । तदनन्तर सयोगीके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्ध निर्जीणं हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती हैं । और तीसरे समयसे अन्तर होकर सयोगीके अन्तिम समयमें पूर्व निजीर्ण स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अध:कर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल गर्भसे आठ वर्ष और तीन समय आठ अन्तर्मुहर्त कम एक पूर्वकोटि होता है । आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंका भंग ओघके समान है । अनाहारकोंका भंग कार्मणकाययोगियोंके समान है। इस प्रकार अनन्त रानुयोगद्वार समाप्त हुआ। भावानुयोगकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे प्रयोगकर्मका कौन भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है। समवधानकर्म और अध:कर्मका कौन भाव है? औदयिक भाव है। ईर्यापथकर्मका कौन भाव है? औपशमिक भाव है या क्षायिक भाव है। तपःकर्म और क्रियाकर्मका कौन भाव है। औपशमिक भाव है या क्षायिकभाव है या क्षायोपशमिक भाव है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, वस, त्रसपर्याप्त, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी । औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधि दर्शनी, शुक्ललेश्यावाले भव्य सिद्ध, ( सम्यग्दृष्टि ) संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिए । काप्रती · अंतोमुहुत्तव्वहियोहि ' इति पाठः । . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीनं अप्पाबहुअं ( १७३ रिगईए रइएस अप्पप्पणो पदाणमोघभंगो | एवं पढमाए पुढवीए । बिदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि किरियाकम्मस्स खइओ भावो णत्थि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु तिरिक्खाणं पचिदियतिरिक्खतिगस्स य अष्पष्पणो पदाणमोघमंगो । वरि जोणिणोसु किरियाकम्मस्स खइयो भावो णत्थि । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधा कम्माणमोघभंगो। एवं तसअपज्जत्त - सव्व एइंदिय सव्वविगलदिय पचिदियअपज्जत पंचकाय तिष्णिअण्णाणी - मणुसअ - पज्जत्त - अभवसिद्धिय- सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठि - मिच्छाइट्ठि - x असण त्ति वत्तव्वं । देवगदीए देवेसु अध्यप्पणी पदाणमोघभंगो । सोधम्मीसाणप्पहूडि जाव सव्वट्टसिद्धि विमाणवासियदेवेत्ति ताव पढनपुढ विभंगो। भवणवासिय वाणवेंतर- जो दि सिदेवाणं बिदिय पुढविभंगो । - विशेषार्थ-प्रयोगकर्म में तीनों योग लिये गये हैं जो क्षायोपशमिक होते हैं। इससे यहां प्रयोगकर्मका क्षायोपशमिक भाव कहा है । यद्यपि सयोगकेवली के ज्ञानावरणादि कर्मोका क्षयोपशम नहीं होता, परन्तु पूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा योगको क्षायोपशमिक मानकर उसका एक क्षायोपशमिक भाव ही लिया गया है । समवधानकर्ममें ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वके भेद विवक्षित हैं । यतः इनमें उदयकी प्रधानता है, इसलिये समवधानकर्मका औदयिक भाव कहा है । अधः कर्म औदारिक नामकर्मके उदयमें होता है, अतः इसका औदयिकपना स्पष्ट ही है । ईर्यापथकर्मका उपशमश्रेणिकी अपेक्षा औपशमिक भाव और क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा क्षायिक भाव कहा है । तपःकर्म में क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकारका चारित्र सम्भव होनेसे तथा क्रियाकर्ममें तीनों प्रकारका सम्यक्त्व सम्भव होने से इन दोनों का औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक यह तीनों प्रकारका भाव कहा है । यहां और जितनी मार्गण यें गिनाई हैं उनमें सब कर्मोंके उक्त भाव संभव होनेसे इनका कयत ओघ के समान कहा है । नरकगति में नारकियों में अपने अपने पदोंका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवी में जानना चाहिये । दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका क्षायिक भाव नहीं होता । तिर्यंचगति में तिर्यंचों में तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिकके अपने अपने पदोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यंचों में क्रियाकर्मका क्षायिक भाव नहीं होता । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार त्रस अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांच स्थावरकाय, तीन अज्ञानी, मनुष्य अपर्याप्त, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि सब मिथ्यादृष्टि और अमंज्ञी जीवोंके - कहना चाहिये । देवगति में देवोंमें अपने अपने पदोंका भंग ओघके समान है। सौधर्म - ऐशानस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक रहनेवाले देवोंमें पहली पृथिवीके समान कथन है । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके दूसरी पृथिवी के समान भंग है । अ आ-काप्रतिषु ' खओ' इति पाठ 1 प्रतिषु ' सासणसम्माइट्ठि सव्वमिच्छाइट्टि ' इति पाठ: 1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. जोगाणुवादेण ओरालियमिस्सकायजोगीसु पओअकम्प- समोदाणकन्त-आधाकम्माणमोघभंगो । इरियावथकम्म तवोकम्माणं खइयो भावो । किरियाकम्मस्स खइयो वा खओवसमियो वा भावो । वेउब्विय-वेउब्वियमिस्साणं सहस्सारभंगो । आहार - आहारमिस्सकायजोगीणं पओअकस्म तवोकम्माणं खओवसमियो भावो । समोदाणकम्म-आधाकम्माणं ओदइओ भावो । किरियाकम्मस्स खइओ वा खओवसमियो वा भावो । कम्मइयकायजोगीणमोघभंगो | णवरि इरियावथ तवोकम्माणं खइयो चेव भावो । १७४ ) वेदानुवादेण तिणिवेद- चत्तारिकसाय-सामाइय-छेदोवद्वावण सुद्धिसंजमाणमोघभंगो। णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । अवगदवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणमोघभंगो । इरियावथ तवोकम्माणं उवसमिओ वा खइयो वा भावो । योगमागंणाके अनुवादसे औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका विचार ओघके समान है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका क्षायिक भाव है । क्रियाकर्मका क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका विचार सहस्रारकल्प के समान है । आहारकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रयोगकर्म और तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव है । समवधानकर्म और अधः कर्मका औदयिक भाव है । क्रियाकर्मका क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है । कार्मणकाययोगी जीवोंका विचार ओघके समान है । इतनी विशेषता हैं कि इनके ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका एक मात्र क्षायिक भाव है। विशेषार्थ - औदारिकमिश्रकाययोग में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा घटित होता है, इसलिये इस योग में इन दोनों कर्मोंका क्षायिक भाव कहा है । क्रियाकर्म चतुर्थ गुणस्थान से होता है, इसलिये इस योग में इस कर्मके क्षायिक और क्षायोपशमिक दोनों भाव बन जाते हैं । मात्र औपशमिक भाव नहीं घटित होता, क्योंकि, द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके साथ मरा हुआ जीव मनुष्यों और तिर्यचों में नहीं उत्पन्न होता । वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रका - ययोग में क्रियाकर्मके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों भाव बन जाते हैं । कारण यह है कि देवोंमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तो उत्पन्न होते हैं साथ ही इनमें द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर उत्पन्न होते हैं । आहारककाययोग और आहारकमि - काययोग छठे गुणस्थान में होता है । इसीसे यहां तपःकर्मका एक मात्र क्षायोपशमिक भाव कहा है । उपशमसम्यक्त्व और आहारककाययोग एक साथ नहीं होते । इसीसे इनके क्रियाकर्मके क्षायिक और क्षायोपशमिक दो भाव कहे हैं । कामंग काययोग में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म केवलसमुद्घातकी अपेक्षा घटित होता है । इसीसे इस योग में उक्त दोनों कर्मोंका एक मात्र क्षायिक भाव कहा है। शेष कथन सुगम है । वेदमार्गणाके अनुवादसे तीन वेदवालोंका तथा चार कषाय, सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमका कथन ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं मे ईर्यापथकर्म नहीं है । अपगतवेदवालोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका कथन ओघ के समान है पथकर्म ओर तपःकर्मका औपशमिक और क्षायिक भाव है । इसी प्रकार अ पग्यवाले . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १७५ एवमकसाय-जहाक्खाद-केवलणाणि-केवलदंसणि त्ति वत्तव्वं । णवरि केवलणाणिकेवलदसणीसु इरियावथकम्म-तवोकम्माणं उवसमियो भावो पत्थि । परिहारसुद्धिसंजदाणं सामाइयभंगो। णवरि किरियाकम्मरस उवसमियो भावो णथि । तवोकम्मस्स खओवसमियो भावो । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं अकसाइभंगो। गरि इरियावथकम्म णस्थि । संजदासंजद-असंजद-तिम्णिलेस्साणं तिरिक्खोघभंगो । तेउपम्मलेस्साणं परिहारसुद्धिसंजदभंगो । णवरि किरियाकम्मस्स उवसमिओ भावो अस्थि । खइयसम्माइट्ठीणमोघभंगो । णवरि किरियाकम्मरस खइओ चेव भावो . वत्तवो। वेदगसम्माइट्ठीसु पओअकम्म तवोकम्नाणं को भावो ? खओवसमिओ भावो । समोदाणकम्म-आधाकम्माणं ओदइओ भावो। उवसमसम्माइट्ठीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म आधाकम्माणमोघभंगो। इरियावथकम्मस्स उवसमिओ भावो, तवोकम्मकिरियाकम्माणं उवसमिओ भावो? णवरि तवोकम्मरस खओवसमियो वि । अणाहाराणं कम्मइयभंगो । एवं भावो समत्तो। अप्पाबहुअंतिविहं-दन्वटदा पदेसटुदा दव्व-पदेसटुदा चेदि । दम्वटुदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सम्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । तवोकम्मदवट्टदा संखेज्जगणा। को गुणगारो? संखेज्जा समया। किरियाकम्मदवढदा असंखेज्ज यथाख्यातसंयमवाले, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका औपशमिक भाव नहीं है । परिहारशुद्धिसंयत जीवोंके सामायिकसंपत जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका औपशमिक भाव नहीं है । तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव है । सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंपत जीवोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है । संयतासंयत, असंयत और तीन लेश्यावालोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है । पीत और पद्म लेश्यावालोंके परिहारशुद्धिसंयत जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका औपशमिक भाव है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके ओधके समान भंग है ।इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म का एक मात्र क्षायिक भाव कहना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टियोंके प्रयोगकर्म और तपःकर्मका कौन भाव है? क्षायोपशमिक भाव है। समवधानकर्म और अध:कर्मका ओदयिक भाव है । उपशमसम्यग्दृष्टियों के प्रयोगकर्म, सममवधानकर्म और अधःकर्मका कथन ओधके समान है । ईर्यापथकर्मका औपशमिक भाव है। तपःकर्म और क्रियाकर्मका औपशमिक भाव है । इतनी विशेषता है कि इनके तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव भी है। अनाहारकोंका कथन कार्मणकाययोगियों के समान है । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है-द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, और द्रव्य-प्रदेशार्थता। द्रव्यार्थताकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा ईपिथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. गुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो । आधाकम्मदव्वदा अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंत गुण सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाणमसंखेज्जदिभागो । पओअकम्मदव्वट्टदा अनंतगुणा । को गुणगारो ? संसारत्थसव्वजीवरासीए अनंतिमभागो । समोदाणकस्मदव्वदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अजोगीजीवमेत्तेण । एवं भवसिद्धियाणं वत्तव्वं । कायजोगि. ओरालियकायजोगि अचक्खुदंसणीणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि आधाकम्मस्सुवरि पओअकम्मसमोदानकम्माणि दो वि सरिसाणि अनंतगुणाणि । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वgar | पओअकम्म- समोदाणकम्माणं दव्वट्ठदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगुणाओ । एवं सत्तसु पुढवी । पंचिदिर्यात रिक्खतिगस्स एवं चेव । णवरि पओअकम्म-समोदाकम्माण दव्वदाए उवरि आधाकम्मस्स दव्वदा अनंतगुणा । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा किरिया कम्मदव्वद्वदा । आधाकम्मदव्वअनंतगुणा । ओअकम्म समोदाणकम्माणं दव्वट्टदाओ अनंतगुणाओ । एवमसंजद- तिण्णिलेस्साणं वत्तव्वं पंचिदियतिरिक्खअपज्जतएसु सव्त्रत्थोवाओ पओअकम्मसमोदाणकम्मदव्वदाओ । आघाकम्मदव्वटुदा अनंतगुणा । एवं मणुस अपज्जतपल्योंपमके असख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । अधः कर्म की द्रव्यायता अनन्तगुणी है | गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । प्रयोगकर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? संसारमें स्थित सब जीवराशिके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । समवधानकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितना अधिक है? अयोगी जीवोंका जितना प्रमाण है उतनी अधिक है । इसी प्रकार भव्य जीवोंके कहना चाहिये । काययोगी, औदारिककाययोगी और अचक्षुदर्शनवाले जीवोंके भी इस प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अधःकर्म की द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे है । आदेश से गतिमार्गणात्रे अनुवादसे नरकगति में नारकियों में क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक हैं | इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म की द्रव्यार्थता दोनों ही समान होकर असंख्यात - गुणी है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिये । पचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकके भी इस प्रकार जानना चाहिये | इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्म और समवधानकर्म की द्रव्यार्थता से अधः कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुगी है । तिर्यंचगतिमें तिर्यंचों में क्रियाकर्मकी द्रव्यार्था सबसे स्तोक है । इससे अधःकमंकी द्रव्याता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म की द्रव्यार्थतायें अनन्तगुणी है । इसी प्रकार असंयत और तीन अशुभ लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें सबसे स्तोक हैं। इससे अधःकर्मंकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त सब विकलेन्द्रिय अ-आ-का-प्रतिषु 'अनंतगुणा' ताप्रतौ ' अनंतगुणो ' इति पाठः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १७७ सव्वविलिदिय-पंचिदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त--पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय बादरणिगोदपदिट्टिदबादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणं तेसि पज्जत्तापज्जत्ताणं सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं च वत्तव्वं । मणुसगदीए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । तवोकम्मदव्वट्टदा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदव्वदा संखेज्जगणा । पओअकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? सेढीए असं-- खेज्जदिभागस्त संखेज्जदिभागो। समोदाणकम्मदव्वट्ठदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? अजोगिरासिमेत्तेण । आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा । एवं पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ताणं तस-तसपज्जत्ताणं वत्तव्वं । णवरि तवोकम्मदव्वटदाए उवरि किरियाकम्मदव्वठ्ठदा असंखेज्जगुणा । एवं पंचमण-पंचवचिजोगीणं पि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मदव्वद्वदाए उवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदब्वटुवाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगुणाओ। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मणुस्सोघो । णवरि किरियाकम्मदव्वट्ठदाए उवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ संखेज्जगणाओला देवगदीए देवेसु सवपदाणं णारगभंगो। एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सहस्सारे ति वत्तव्वं । आणदप्पहुडि जाव उवरिम-उवरिमगेवज्जे ति ताव सम्वत्थोवा पचेद्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त जीवोंके तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर निगोदप्रतिष्ठित और बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंके, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके तथा सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी कहना चाहिये । . मनुष्यगतिमें मनुष्यों में ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । इससे समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी राशिमात्रसे अधिक है? इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके तपःकर्मकी द्रव्यार्थतासे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता हैं कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी है। मनुष्य पर्याप्त और मनष्यिनी जीवोंके सामान्य मनुष्योंके समान जानना चाहिये । 'इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर संख्यातगुणी है। देवगति में देवोंमें सब पदोंका कथन नारकियोंके समान है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंके कहना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर उपरिम-उपरिम |वेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी ताप्रती · सेढीए ' इत्येतत्पदं नास्ति 1 0 आप्रतो ' पओअकम्मसमोदाणदव्वट्ठदा संखे० का-ताप्रत्योः 'पओभकम्मदव्वटूदा संखेज्जगणा ' इति पाठः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खं (५, ४, ३१. किरियाकम्मदव्वदा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? मिच्छाइटि-सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छाइट्टिमेत्तो विसेसो । उवरि पत्थि अप्पाबहुगं । कुदो ? तिण्णं पि पदाणं तत्थ सरिस*तुवलंभादो। इंदियाणुवादेण एदंदिएसु सव्वत्थोवा आधाकम्मदव्वदा । पओअकम्म समोदाणकम्मदवट्ठदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगुणाओ। एवं सव्वएईदिय-सव्ववणप्फदिदोअण्णाणि-मिच्छाइटि-असणि ति वत्तव्वं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्म-तवोकम्माणं दव्वट्ठदाओ। किरियाकम्मदवढदा संखेज्जगुणा । सेसं कायजोगिभंगो। वेउब्वियकायजोगीसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वटदा। पओअकम्मसमोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ। एवं वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु । (आहार-आहारमिस्सकायजोगीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्म द्रव्यार्थता में दोनों ही समान होकर विशेषाधिक हैं। कितनी अधिक है। यहां मिथ्यादृष्टि, सासादनसस्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका जितना प्रमाण है उतनी अधिक हैं। इससे आगे वहां अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, तीनों ही पदोंकी संख्या वहां समान पाई जाती है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें अधःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर अनन्त गुणी हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, दो अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, और असज्ञी जीवोंके कहना चाहिये। औदारिमिककाययोगियोंमें ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतायें सबसे स्तोक हैं। इनसे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है । शेष कथन काययोगियों के समान है। __विशेषार्थ-जब सयोगकेवली केवलिसमुद्धात करते समय औदारिकमिश्रकाययोगको प्राप्त होते हैं तभी औदारिकमिश्रकायमें ईर्यापथकर्म और तपःकर्म सम्भव हैं, किन्तु क्रियाकर्म अविरतसम्यग्दृष्टियोंके औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए ही होता है। यही कारण है कि यहां ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतासे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी कही है। वैक्रियिककाययोगियोंमें क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके कहना चाहिये। (आहारक और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म समवदानकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतायें चारों ही समान होकर स्तोक हैं। तथा अधःकर्मकी द्रव्यार्थता उनसे अनन्तगुणी है । ) कार्मणकाययोगियोंके औदारिकमिश्रकाययोगियोंके * आ-काप्रत्योः · परिसमत्तुव-' , ताप्रती 'परिसत्तुव-', इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. किरियाकम्मदवव्वदाओ चत्तारि वि तुल्लाओ थोवाओ। आधाकम्मदव्वटदा अणंतगुणा ।) कम्मइयकायजोगीणमोरालियामरसभंगो। णवरि इरियावथ-तवोकम्मदव्वटुदाए उरि किरियाकम्मदव्वटुदा असंखेज्जगुणा । एवं अणाहारोणं पि वत्तव्वं । णवरि पओअकम्मदव्वटदाए उरि समोदाणकम्मदवट्टदा विसेसाहिया अजोगिरासिमेत्तेण। समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म और तपःकर्म की द्रव्यार्थतासे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके भी कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थतासे समवदानकर्मकी द्रव्यार्थता अयोगी जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोग चौदहवें गुणस्थानमें नहीं होता, किन्तु अनाहारक अवस्था होती है । इसी से अनाहारकोंके प्रयोगकर्मवालों की संख्यासे समकदानकर्मवालोकी सख्या विशेष Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कमाणुओगद्दारे पओअकम्मादीनं अप्पाबहुअं ( १७९ वेदानुवादेण इत्थि पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मदव्वद्वदा । किरियाकम्मददा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वद्वदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगुणाओ ! आधाकम्मदव्वट्ठदा अनंतगुणा । एवं णवंसयवेदेसु विवत्तव्वं । वरि आधाकम्मस्सुवरि पओअकम्म-समोदाणकम्माणं दव्वद्वदाओ दो वि सरिसाओ अनंतगुणाओ । अवगदवेदेसु सव्वत्योवाइरियावय कम्मदव्वदट्ठा | पओअकस्मदव्वदा विसेसाहिया । समोदाणकम्मतवो कम्मदव्वट्टदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तेण ? अजोगिरासिमेत्तेण । आधाकम्मदव्वट्टदा अनंतगुणा । कसायानुवादेण चदुष्णं कसायाणं सव्वपदाणं णवंसयवेदभंगो । अकसाएसु सव्वत्थोवा इरिया हम्म पओअकम्मदव्वदाओ । समोदाणकम्म- तवोकम्माणं दाओ दो विसरिसाओ विसेसाहिओ । आधाकम्मदव्वदृदा अनंतगुणा । एवं केवलणाणि केवलवंसणि-जहावखाद बिहारसुद्धिसंजदे त्ति वत्तव्वं । णाणाणुवादेण विभंगणाणीणं पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो । आभिणि-सुद-ओहिणाणीसु सव्वत्योवा अधिक कही है। शेष कथन सुगम है । वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले जीवों में तपःकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक हैं । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी हैं। इससे प्रयोगकर्म और समवधान कर्म की द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी हैं । इनसे अधः कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार नपुंसकवेदवालोंके भी कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके अध:ककी द्रव्यार्थतासे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म की द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर अनन्तगुणी हैं । अपगतवेदवालों में ईर्यापथकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है | ( कितनी अधिक है? अपगतवेदी अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है ।) इससे समवधानकर्म और तपःकर्म की द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर विशेष अधिक है ? कितनी अधिक है ? अयोगकेवलियोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे अधः कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवालोंके सब पदोंका कथन नपुंसक वेदवालोंके समान है । कषायरहित जीवोंमें ईर्यापथकर्म और प्रयोगकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे समवधानकर्म और तपःकर्म की द्रव्यार्थताये दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और यथाख्यातविहारशुद्विसंयतोंके कहना चाहिये। ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से विभंगज्ञानियोंके पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के समान भंग है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें ईर्यापथकर्म की द्रव्यार्थता • अ आ-का-प्रतिषु अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा विसेसाहिया समोदाणकम्म- ' तातो' अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्म (पओअकम्म ) दव्वदाओ 1 ( दो वि सरिसाओ अणतगुणाओ 1 अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा इस्यिावथकम्मदव्वद्वदा विसेसाहिया ) समोदाणकम्म-' इति पाठ: : अ आ-काप्रतिषु कम्माणं ताप्रती ' कम्माणं ( कसायाणं ) ' इति पाठ | 1 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. इरियावकम्मदव्वदा । तवोकम्मदवढदा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदव्वटुवा असंखेज्जगुणा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण? इरियावथकम्मदव्वट्ठदामेत्तेण अपुव्वं-अणियट्टि-सुहुमजीवमेत्तेण च । आधाकम्मदव्वट्टदा अणंतगुणा । एवमोहिदंसणीणं पि वत्तव्वं । सम्माइटि-खहय - सम्माइट्ठीणं च एवं चेव वत्तव्वं । वरि पओअकम्मदव्वट्ठदाए उवरि समोदाणकस्मदव्वटदा विसेसाहिया । मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वट्ठदा। किरियाकम्मदवढदा संखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मतवोकम्मदवढदाओ तिणि वि सरिसाओ विसेसाहियाओ। आधाकम्मदव्वटदा अणंतगुणा। संजमाणुवादेण संजदेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वद्वदा । किरियाकम्मदवढदा संखेज्जगुणा । पओअकम्मदवट्टदा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण? इरियावथकम्मदव्वदामेत्तेण अपुव्व-अणियट्टि-सुहुमेहि य । समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वटुवाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तेण? अजोगिजीवमेत्तेण । आधाकम्मदव्वदा अणंतगुणा । सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्व. टुवा । पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वट्ठदाओ तिणि विसरिसाओ विसेसासबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं । कितनी अधिक है ? जितनी ईर्यापथ कर्मकी द्रव्यार्थता है और जितनी करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय जीवोंकी संख्या है उतनी अधिक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्त गुणी है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले जीवोंके भी कहना चाहिये । सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थतासे समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगणी है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतायें तीनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। __ संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रव्यार्थता विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? जितनी ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता है और जितनी अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायकी संख्या है उतनी अधिक है। इससे समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। कितनी अधिक है ? अयोगिकेवलियोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। सामायिकसयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंमें क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतायें तीनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। कितनी * अप्रतौ घेत्तव्वं ' इति पाठः ] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १८१ हियाओ। केत्तियमेत्तेण? अपुव-अणियट्टिमेत्तेण । आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा । सुहुमसांपरायसुद्धिसंजदेसु पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वदृदाओ तिणि वि सरिसाओ थोवाओ । आधाकम्मदबढदा अणंतगुणा । एवं परिहारसुद्धिसंजदाणं । णवरि किरियाकम्म पि अस्थि । संजदासंजदेसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म समोदाणकम्म-किरि याकम्मदव्वदाओ। आधाकम्मदव्वटुदाओ आधाकम्मदव्वदा अणंतगुणा। दसणाणुवावेण चक्खुदंसणीसु सम्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वटुवा । तवोकम्मदव्वट्ठदा संखेज्जगणा । किरियाकम्मदव्वटदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाण. कम्मदव्वदाओ असंखेज्जगुणाओ। आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा । लेस्साणुवावेण तेउ-पम्मलेस्सिएसु सम्वत्थोवा तवोकम्मदवढदा । किरियाकम्मदव्वटवा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वटदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगुणाओ। आधाकम्मदव्वटदा अणंतगुणा । सुक्कलेस्साए सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदवट्ठदा । तवोकम्मदव्वट्टदा संखेज्जगुणा। किरियाकम्मदव्वदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मसमोदाणकम्मदव्वटदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । आधाकम्मदव्वट्ठदा अणंतगुणा । भवियाणुवादेण अभवसिद्धिएसु सव्वत्थोवा पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ। आधाकम्मदव्वट्ठदा अणंतगुणा ।। . सम्मत्ताणुवादेण वेदगसम्माइट्ठीसु सव्वत्थोवा तवोकम्मददट्टदा । पओअकम्मअधिक हैं ? जितनी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी संख्या है उतनी अधिक हैं। इनसे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थतायें तीनों ही समान होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयतोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म भी है। संयतासंयतोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतायें सबसे स्तोक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अतन्तगुणी है ।। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंके ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । लेश्यामार्गणाके अनुवादसे पीत और पद्म लेश्यावाले जीवोंमें तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी है। इनसे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । शुक्ललेश्यामें ईर्यास्थकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । भव्यमार्गणाके अनुवादसे अभव्यसिद्धिक जीवोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें सबसे स्तोक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादस वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. समोदाणकम्म-किरियाकम्मदव्वदाओ तिणि वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ। आघाकम्मदव्वट्ठवा अणंतगणा। उसमसम्माइट्ठीसु सम्वत्थोवा । इरियावहकम्मदव्वदा । तवोकम्मदवढदा संखेज्जगुणा किरियाकम्मदवढदा असंखेज्जगुगार। पओअकम्म-समोदाण कम्मदव्वटुवाओ दो विसरिसाओ विसेसाहियाओ। आधाकम्म च्वट्ठदा अणंतगणा । सणियाणुवादेण सण्णीणं मणजोगिभंगो*। णेव सण्णी व असण्णीसु सम्वत्थोवा पओअकम्मइरियावहकम्मदव्वटुदाओ। तवोकम्मरसमोदाणकम्मदवट्ठदाओ विसेसाहियाओ । आधाकम्मदव्वठ्दा अणंतगुणा । आहाराणुवादेण आहारएसु सव्वत्थोवा इरियावहकम्मदग्वट्ठदा । तवोकम्मदवट्ठवा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदवढदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वट्ठदा अणंतगुणा । पओअकम्मसमोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगुणाओ । एवं दवटुदप्पाबहुअं समत्तं। पदेसट्टदप्पाबहुगाणगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण ध । ओघेण सव्वत्थोवा तओकम्मपदेसट्टदा । किरियाकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो। आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। को गणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिभागो। इरियावहकम्महै। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थतायें तीनों ही समान होकर असंख्यातगुणी हैं । इनसे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं । इनसे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंका कथन मनोयोगियों के समान है । नैव संज्ञी नैव असंज्ञी जीवोंमें प्रयोगकर्म और ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें विशेष अधिक हैं । इनसे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर अनन्तगुणी है। इस प्रकार द्रव्यार्थताअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। प्रदेशार्थताअल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। गुणकरा क्या है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भगा गुणकार है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्वोंका अनन्तवां भाग गुणकार है । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी मा-का-ताप्रतिषु 'संखेज्जगुणा इति पाठ:1 * आ-का-ताप्रतिषु ' सण्णीणमजोगिभंगो' इति पाठ:18काप्रती ' -इरियावहकम्मदघट्दा संखेज्जगणा तवोकम्म-' इति पाठः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १८३ पदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं कायजोगिओरालिय-कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगि--अचक्खुदंसणिभवसिद्धिय-आहारिअणाहारीसु वत्तव्वं । णवरि ओरालियमिस्सकायजोगीसु किरियाकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगुणा। ___ आदेसेण गदियाणवादेण णिरयगदीए णेरइएसु सम्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसद्वदा । पओअकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जविभागो। समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुण सिद्धाणमणंतिमभागो । एवं सत्तसु पुढवीसु वत्तव्वं । देवा जाव सहस्सारे ति, वेउविय वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु एवं चेव वत्तव्वं । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति ताव सम्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मपदेसटुदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइद्वि-सम्मामिच्छाइटिजीवपदेसमेत्तेणासमोदाणकम्मपदेसटुवा अणंतगणा । को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। अणुद्दिसादि जाव सम्वट्टसिद्धि ति सव्वत्थोवा किरियाकम्म-पओअकम्मपदेसटुवाओ। समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा ।। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसटुवा । आधाकम्मपदेसट्टवा प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारी और अनाहारी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है । .... विशेषार्थ-यहां प्रदेशार्थताअल्पबहुत्वमें तपःकर्म, क्रियाकर्म और प्रयोगकर्ममें जीवों के प्रदेश परिगणित किये गये हैं; अध:कर्म में औदारिक वर्गणाओंके प्रदेश परिगणित किये गये हैं, और ईर्यापथकर्म तथा समवधानकर्ममें कर्मपरमाणु परिगणित किये गये हैं। ____ आदेशसे गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें कहना चाहिये । सहस्रार कल्प तकके देवोंमें तया वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इसी प्रकार कहना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर उपरिम-उपरिम वेयक तकके देवोंमें क्रियाकमकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी जितनी प्रदेशसंख्पा है उतनी अधिक है। इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगणी है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें क्रियाकर्म और प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। • तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें क्रियाकर्म की प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अधःकर्मकी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. अणंतगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा अणंतगणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । असंजदतिणिलेस्सा त्ति एवं चेव वत्तव्वं । पंचिदियतिरिक्खतिगम्मि सव्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखंज्जगुणा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसटुदा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं मणुसअपज्जत्तसवविलिदिय-चिदियअपज्जत-तसअपज्जत्तपुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-बादरणिगोदपदिदिद-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-विभंगणाण-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्टि त्ति वत्तव्वं । ___मणुसगदीए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसट्टदा । किरियाकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगणा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्यं । इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सम्वत्थोवा आधाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मपदे - सट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा एवं सब्वएइंदिय-सव्ववणप्फदि-दोअण्णाणिमिच्छाइट्ठि-असणि ति वत्तव्वं पंचिदियदुअस्स मणुस्सोघो। गवरि प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकमकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। असंयत और तीन अशुभलेश्यावाले जीवोंके इसी प्रकार कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी । है। इससे समवधान कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक बादर निगोद प्रतिष्ठित, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणा है । इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणा है इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा कहां है वहां संख्यातगुणा करना चाहिये इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों मे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, दो अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के कहना चाहिये । पंचेन्द्रियद्विकके सामान्य मनुष्यों के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मको प्रदेशार्थताअसंख्यातगुणी है । इसी प्रकार त्रसद्विक, पांच मनोयोगी पांच - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ५, ४, ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीनं अप्पाबहुअं fafरयाकम्मपदेसदा असंखेज्जगुणा । एवं तसदोण्णि- पंचमणजोगि- पंचवचिजोगिचक्खुद सिणित्ति वत्तव्वं । आहार - आहार मिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा पओअकम्म- तवोकम्मकिरियाकम्मपदे सट्टदाओ 1 आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा । वेदावादेण इत्थि पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसदृदा किरियाकम्मपदेसट्ठदा असंखंज्जगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसवा अनंतगुणा । णवंसयवेदे मूलोघो । वरि इरियावह कम्मपदेसदा णत्थि । अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसदा । तवोकम्मपदा विसेसाहिया केत्तियमेत्तेन ? अजोगिपदेसदृदामेत्तेण । आधाकम्मपदेसदा अनंतगुणा । इरियावथ कम्मपदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदृदा विसेसाहिया । कसायाणुवादेण चदुष्णं कसायाणं णवंसयवेदभंगो | अकसाईणमवगदवेदभंगो । एवं केवलणाणि - जहावखाद केवलदंसणि त्ति वत्तव्वं । णाणाणुवादेण आभिणिसुद-ओहिणाणीसु सव्त्रत्थोवा तवोकम्मपदेसदृदा किरियाकम्मपदेसदृदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसदा विसेलाहिया । केत्तियमेत्तेन ? अपुव्व-अणियट्टि सुहुम-उवसंतखोकसायाणं जीवपदेसमेतेण । आधाकम्मपदेसट्टदा अनंतगुणा । इरियावथकम्मवचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे अधः कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक हैं । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात - गुणी है । इससे अधः कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । नपुंसकवेद में मूलोघ के समान है । इतनी विशेषता है कि यहां ईर्यापथकर्म की प्रदेशार्थता नहीं है । अपगतवेदवालों में प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है इससे तपःकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोके जितने प्रदेश हैं उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे ईर्ष्यापथकर्म की प्रदेशार्थता अनन्त गुणी है। इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । । कषायमार्गणा अनुवादसे चारों कषायवालों का कथन नपुंसकवेदके समान है । अकषायवालोंका कथन अपगतवेदवालोंके समान है । इसी प्रकार केवलज्ञानी, यथासंख्यात और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । ज्ञानमार्गंणाके अनुवादसे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म की प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय जीवोंके प्रदेशोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी हैं । इससे ईर्ष्यापथकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । अ आ-काप्रतिषु 'जहाक्खाद० एवं केवलदंसणि ' इति पाठ: ] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. पदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । एवमोहिदंसणि-सम्माइट्ठि-खइयसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठि-सुक्कलेस्सिएसु वि वत्तव्वं । मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मपदेसट्टदा । पओअकम्मतवोकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्ठदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगुणा । ___ संजमाणुवादेण संजदाणं मणपज्जवभंगो। सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदागमेवं चेव । णवरि इरियावथकम्मपदेसट्टदा त्थि। सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-तवोकम्मपदेसट्टदाओ । आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं परिहारसुद्धिसंजदेसु वि वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मपदेसट्टदा अस्थि । संजदासंजदेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्म-पओअकम्मपदेस?दाओ। आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। लेस्साणवादेण तेउ-पम्मलेस्सिएसु पुरिसवेदभंगो । अलेस्सिएसु सव्वत्थोवा तवोकम्मपदेसट्टदा । आधाकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । समोदागकम्मपदेसट्टदा अणंतगणा । भवियाणवादेण अभवसिद्धिएसु सव्वत्थोवा पओअकम्मपदेसट्टदा । आधाकम्मपदेसठ्ठदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समत्ताणुवादेण वेदगसम्माइट्ठीसु सम्वत्थोवा इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और शुक्ललेश्यावाले जीवोंके भी कहना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है। इससे अधःकर्म प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंके मनःपर्य यज्ञानियोंके समान जानना चाहिये । सामायिक और छेदोपस्थपनाशुद्धिसंयत जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकमकी प्रदेशार्थता नहीं है । सूक्ष्मसाम्रायिकशुद्धिसंयतोंमें प्रयोगकर्म और तपःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहां क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता होती है । संयतासंयतोंमें क्रियाकर्म और प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । लेश्यामार्गणाके अनुवादसे पीत और पद्मलेश्यावालोंके पुरुषवेदके समान जानना चाहिये । लेश्यारहित जीवोंमें तपःकर्मको प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अध:कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । भव्यमार्गणाके अनुवादसे अभव्य जीवोंके प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है। इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें तपःकर्मकी प्रदेशार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता और प्रयोगकर्मकी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं (१८७ तवोकम्मपदेसद्वदा । किरियाकम्मपदेसट्टदा पओअकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं पदेस?दप्पाबहुअं समत्तं । दवट्ठ-पडेसटुद पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो अघेण आदेसेण य । ओघेण सम्वत्थोवा इरियावहकम्मदबटुदा । तवोकम्मदबटुदा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदव्वदा असंखेज्जगणा । तवोकम्मपदेसद्वदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? लोगस्स असंखेज्जदिभागो*। किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स संखेदिभागो । आधाकम्मदबट्टदा अणंतगुणा । को गणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगणोर-सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तवग्गणाणमसंखेज्जदिभागो। तस्सेव पदेसवा अणंतगणा । को गणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। कुदो? एक्के किस्से वग्गणाए अणंतेहि परमाणूहि विणा उप्पत्तीए अभावादो। इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगणा । कुदो? 'अनन्तगुणे परे' इति तत्त्वार्थसूत्र निर्देशात् । पओअकम्मदव्वटदा अणंतगुणा । को गुणगारो। संसारिजीवाणमणंतिमभागो। समोदाणकम्मदवढदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? अजोगिमेत्तेण । पओअकम्मपदेसटुता असंखेज्जगुणा। को गुणगारो? किचूणो घणलोगो। कुदो ? एक्केक्कस्स जीवस्स घणलोगमेत्तजीवपदेसाणमुवलंभादो। समोदाणप्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इस प्रकार प्रदेशार्थता अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। द्रव्य-प्रदेशार्थता-अल्पबहुत्व अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओध और आदेश । ओघसे ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी द्रमार्थता असंख्यातगुणी है । इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? लोकका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है । इससे अधःकर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे इसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार हैं, क्योंकि, एक एक वर्गणाकी अनन्त परमाणुओंके विना उत्पत्ति नहीं हो सकती । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है, क्योंकि, तैजस और कार्मण शरीर उत्तरोत्तर अनन्तगुणे होते हैं ' एसा तत्त्वार्थसूत्र में निर्देश किया है । इससे प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? संसारी जीवोंका अनन्तवां भागप्रमाण गुणकार है। इससे समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगियोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? कुछ कम घनलोकप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, एक एक जीवके घनलोक प्रमाण जीवप्रदेश पाये जाते का-ताप्रत्यो किरियाकम्मप० पओअकम्मप.' इति पाठः । ताप्रती । दन्वपदेसदइति पाठः। * काप्रती ' असंखेगुणा ' इति पाठः 14 काप्रती ' -कम्मदव्वदा'. ताप्रती · कम्मदव. ( पदे० ) ' इति पाठः 10 प्रतिषु ' अणंतगुणो' इति पाठः ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ) छक्खंडागमे बग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो। कुदो? एक्केक्कम्हि जीवे अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तकम्मपरमाणणमुवलंभादो। एवं भवसिद्धियाणं वत्तव्वं । एवं कायजोगि-ओरालियकायजोगि-अचक्खुदंसणि-आहारीणं पि वत्तव्वं । णवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगणाओ । णिरयगदीए णेरइएसु सम्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा । पओअकम्म-समोदाण कम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ।को गणगारो? जगपदरासंखेज्ज. दिभागस्स असंखेज्जदिभागो । किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगणा । को गुणगारो? संखेज्जाओ सेडीओ। पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जेरइयाणमसंखेज्जदिभागो। समोणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । एवं सतसु पुढवीसु, देवा जाव सहस्सारया, वेउब्वियकायजोगि-वेउवियमिस्सकायजोगि त्ति वत्तव्वं । आणदादि जाव णवगेवज्ज त्ति देवेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ। किरियाकम्मपदे. सट्टदा असंखेज्जगुणा। को गुणगारो? लोगोकिंचूणो। पओअकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया हैं । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्वोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, एक एक जीवमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण कर्मपरपाणु उपलब्ध होते हैं । इसी प्रकार भव्य जीवोंके कहना चाहिये । काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी और आहारक जीवोंके भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर अनन्तगुणी हैं। नरकगतिमें नारकियोंमें क्रियकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और समवदानकर्म दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरके असख्यातवें भागका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? संख्यात जगश्रेणियां गुणकार है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? नारकियोंका असंख्यातवां माग गुणकार है । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें तथा सहस्रार कल्प तकके देवों में, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कहना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर विशेष अधिक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? कुछ कम लोक गुणकार है । प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? पल्योपमके असंख्यातवें अ-आ-प्रत्यो. ' असंखेज्जाओ ' इति पाठ: 1 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १८९ अ म्मदव्वट्टदा ति भाणिदव्वं । किरियाकम्मं णस्थि )पंचिदियतिरिक्खतियम्मि सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वटुवाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ। को गणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो । किरियाकम्मपदेसठ्ठदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जविभागो । पओअकम्मपदेसठ्ठदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो। आधाकम्मवव्वट्ठदा अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धि समवदानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है ? गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असख्यातवां भाग गुणकार है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां माग गुणकार है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४, ३१.) पर्या अणुओगद्दारे णयविभासणदा ( १८९ केत्तियमेत्तण? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तघणलोगेहि । समोदाणकम्मपदेसदा गुना | अणुद्दिादि जात्र सव्वट्टसिद्धि त्ति सव्वत्थोवाओ किरियाकम्प-पओअकम्मसमोदाणकम्म* दव्वटुदाओ तिणि वि सरिसाओ। किरियाकम्म - पओअकस्मपदेसओसिरिसाओ असंखेज्जगुणाओ को गुणगारो ? घणलोगो । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वद्वदा । तस्सेव पदेसदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वद्वदा अनंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अनंतगुणा । पओ अकम्म समोदाणकम्मदव्वद्वदाओ दो वि सरिसाओ अनंतगुणाओ । पओअकस्मपदेसट्ठा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? घणलोगो । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागस्स असंखेज्जदिभागो एवमसंजद किण्ण-णील- काउलेस्सियाणं पि वत्तव्वं । ( सव्वएइंदिय-वणप्फदिकाइयदो-अण्णाणि मिच्छाइट्टि असण्ण त्ति एवं चेव वत्तन्वं । णवरि सव्वत्थोवा आधाक भागप्रमाण घनलोकोंकी जितनी प्रदेशसंख्या है उतनी अधिक प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के और समवदानकर्म इन तीनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर और प्रयोगकर्म इन दोनोंकी प्रदेशार्थता समान होकर घनलोक गुणकार है । इससे समवदानकर्म की प्रदेशार्थता है । इससे समवधानकर्म की देवोंमें क्रियाकर्म, प्रयोगकर्म, सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्म असंख्यातगुणी है गुणकार क्या है ? अनन्तगुणी हैं । तियंचगति में तिर्यंचों में क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधः कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवदानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर अनन्तहै। इससे प्रयोगकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है? घनलोक गुणकार है । इससे समवदानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी हैं। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों अनन्तवें भागका असंख्यातवा भाग गुणकार है । इसी प्रकार असंयत, कृष्ण नील और कापोत लेश्यावालोंके भी कहना चाहिये । ( तथा इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक. दो अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेता है कि इनके अधः कर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है, ऐसा कहना चाहिये । इनके क्रियाकर्म नहीं है पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक में क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म और काप्रत्थो इति पाठ: 1 ताप्रतौ सरिसाओ किरियाकम्मसभोदाणकम्म- ' 1 ताप्रती 1 किरिया इति पाठः । किरियाकम्म ( पओअकम्म- ) समोदाणकम्म-' Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. एहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। तस्सेव पदेसटुदा अणंतगुणा । को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । सिद्धाणमणंतिमभागो । समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वटूदाओ। पओअकम्मपदेसवा असंखेज्जगणा । आधाकम्मदवट्टदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । एवं मणुसअपज्जत्तसम्वविलिदिय-चिदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय -- वाउकाइथ-बादरणिगोदपदिद्विद- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्त-- विहंगणाणि सासणसम्माइट्रि-सम्मामिच्छाइट्रि त्ति वत्तव्वं । ___मणुसगदीए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा इरियावहकम्मदवढदा । तवोकम्मदव्वदा संखेज्जगुणा । किरियाकम्मदम्वटदा संखेज्जगुणा। पओअकम्मदवढदा असंखेज्जगुणा। समोदाणकम्मदव्वट्ठदा विसेसाहिया । तवोकम्मपदेसटुदा असंखेज्ज गुणा। किरियाकम्मपदेसट्टदा संखेज्जगणा । पओअकम्मपदेसट्टना असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदा अणंतगणा । तस्सेव पदेसटुदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसटुदा अणंतगणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । एवं पंचिदिय-चिदियपज्जत्त-तस-तसपज्जताणं वत्तव्वं । णवरि किरियाकम्मदव्वटु-पदेसट्टदाओ असंखेज्जगुणाओ कायव्वाओ। अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्वोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगणी है। इससे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणो है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियअपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर निगोदप्रतिष्ठित और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, विभंगज्ञानी, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगणी है। इससे प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे समवधानकर्मको द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार पचेन्द्रिय, पचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी करनी चाहिये । इसी प्रकर मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें कहना Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१.) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १९१ एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु वत्तव्वं । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं भणिदं तम्हि संखेज्जगुणं भाणिदव्वं । णवरि तवोकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा चेव ।। ___ जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचिजोगीसु पंचिदियभंगो। णवरि पओअकम्म-समो. दाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ। ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवाओ इरियावहकम्म तवोकम्मदव्वदाओ। किरियाकम्मदव्वटदा संखेज्जगुणा। तवोकम्मपदेसद्वदा असंखेज्जगणा। किरियाकम्मपदेसटुदा संखेज्जगुणा । आधाकम्मदवट्टदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगुणाओ। पओअकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । एवं कम्मइयकायजोगीसु। णवरि किरियाकम्मदव्वट्ठपदेसट्टदाओ असंखंज्जगुणाओ। एवमणाहारीसु। गवरि समोदाणकम्मदव्वट्ठदा विसेसाहिया। आहार-आहारमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मदव्वदाओ। पओअ. कम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मपदेसट्टदाओ असंखेज्जगुणाओ। आधाकम्मदवढदा अणंतगुणा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। एवं परिहा. रसुद्धिसंजदेसु वत्तव्वं । सहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु एवं चेव होदि । वरि किरियाचाहिये। इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा कहा है वहां संख्यातगुणा कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असख्यातगुणी ही है। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें पंचेन्द्रियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर असंख्यातगुणी है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें ईर्यापथकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे तप:कर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता संख्यातगुणी है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईपिथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर अनन्तगुणी है। इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। आहारक और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी हैं। इससे उसीको प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंके कहना चाहिये । सूक्ष्मसोपरायिक संयतोंके इसी प्रकार अल्पबहुत्व होता है। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं है । * अ-आ-ताप्रतिष 'होदूण ' इति पाठः । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. कम्मं णत्थि । संजदासंजदेसु आहारकायजोगिभंगो । णवरि तवोकम्मं णत्थि । वेदानुवादेण इस्थि- पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा तवोकम्मदव्वदा | किरियाम्मदव्वदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ दो विसरिसाओ असंखेज्जगुणाओ । तवोकम्मपदेसट्ठदा असंखेज्जगुणा । किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदा अनंतगुणा । तस्सेव पदेसदा अनंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसदा अनंतगुणा | 1 सय वेदे मूलोघो । णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । पओअकम्म-समोदाणकम्म - दव्वदाओ दो विसरिसाओ । अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । पओअकम्मदव्वदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अवगदवेद-अणियट्टोहि सुहुमसांपराइएहि य । समोदाणकम्म तवोकम्मदव्वद्वदाओ विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? अजोगिदव्वदामेत्तेण । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । तवोकम्मपदेसदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अजोगिपदेस ट्ठदामेत्तेण । आधाकम्मदव्वट्टदा अनंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अनंतगुणा । इरियावथकम्मपदेसदृदा अनंतगुणा । समोदाकम्मपदेसदा विसेसाहिया । एवं केवलणाणि जहावखादविहारसुद्धि संजद- केवलदंसणीणं पिवत्तव्वं । वरि पओअकम्म इरियावथकम्मदव्वट्टदाओ दो वि सरिसाओ संयतासंयतोंके आहारककाययोगियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके तपः कर्म नहीं है। वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदी जीवोंमें तपःकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनों की द्रव्यार्थता समान होंकर असंख्यातगुणी हैं। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात - गुणीं है | इससे अध:कर्म की द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । नपुंसकवेदवालोंमें मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है । तथा प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान है । अपगतवेदवालों में ईर्यापथकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अपगतवेद अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे समवधानकर्म और तपकर्म की द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी जितनी संख्या है उतनी अधिक है । इससे प्रयोगकमंकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? अयोगी जीवोंकी जितनी प्रदेशसंख्या हैं उतनी अधिक है । इससे अधः कर्मी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे कर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । इसी प्रकार केवलज्ञानी ( यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत - ) और केवलदर्शनी जीवों के भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्म और ईर्यापथकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १९३ कसायाणुवादेण चदुण्णं कसायाणं णवंसयवेदभंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो। णवरि इरियावथ-पओअकम्मदव्वदाओ सरिसाओ। णाणाणुवादेण आभिणि-सुदओहिणाणीसु सव्वत्थोरा इरियावहकम्मदव्वदा। तवोकम्मदवढदा संखेज्जगणा । किरियाकम्मदव्वदा असंखेज्जगणा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्टदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ। तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा। किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण? असंखेज्जलोगेहि । आधाकम्मदव्वदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसटुदा अणंतगुणा। इरियावथकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । एवमोहिदंसणि-सुक्कलेस्सियसम्माइटि-खइयसम्माइट्ठि-उवसमसम्मादिट्ठीसु । णवरि सम्माइट्ठि-खइयसम्माइट्ठीसु पओअकम्मदव्वट्टाए उवरि समोदाणकम्मदव्वदा विसेसाहिया। मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा इरियावहकम्मदव्वद्वदा । किरियाकम्मदव्वदा संखेज्जगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वदृदाओ विसेसाहियाओ। किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म-तवोकम्मपदेसट्टदाओ विसेसाहियाओ। आधाकम्मदवटुदा अणंतगणा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा। इरियावथकम्मपदेसट्टदा कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों ही कषायवालोंका कथन नसकवेदके समान है। कषायरहित जीवोंका कथन अपगतवेदके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म और प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थता समान है। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म इन दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर विशेष अधिक है। इसके तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे क्रियाकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? असंख्यात लोककी जितनी प्रदेशसंख्या हो उतनी अधिक है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी हैं । इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दष्टि जीवोंमें प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थतासे समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें ईर्यापथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगणी है। इससे प्रयोगकर्म और तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईर्यापथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधान Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. • अणंतगणा। समोदाणकम्मपदेसटुदा संखेज्जगुणा। एवं संजदेसु णवरि पओअकम्मदवट्ट.. दाए उवरि समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वदुदाओ विसेसाहियाओ। । सामाइय- छेदोवढावणसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा । पओअ कम्म-समोदाणकम्म तवोकम्मदवढदाओ विसेसाहियाओ । किरियाकम्मपदेसट्टदा ' असंखेज्जखुणा। पओअकम्म-तवोकम्म-पदेसटुदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । आधाकम्मदव्वट्टदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अगंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । चक्खुदंसणीणं मणजोगिभंगो। एवं सण्णीणं पि वत्तव्वं । लेस्साणुवादेण तेउ-पम्मलेस्सिएसु सम्वत्थोवा तवोकम्मदवटदा। किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ असंखेज्जगुणाओ । तवोकम्मपदेसटुवा असंखज्जगुणा । किरियाकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । पओअ-- कम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधा कम्मदव्वदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसद्वदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। अलेस्सिएसु सव्वत्थोवाओ तवोकम्म. समोदाणकम्मदव्वदाओ। तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदृदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । कर्मकी प्रदेशार्थता सख्यातगुणी है । इसी प्रकार संयतोंके भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थतासे समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक होती है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंके क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और तपःकर्म इन दोनोंकी प्रदेशार्थता समान होकर विशेष अधिक है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। चक्षुदर्शनवालोंका कथन मनो. योगवालोंके समान है। इसी प्रकार संज्ञी जीवोंके भी कहना चाहिये। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे पीत और पद्मलेश्यावालों में तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाककर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। लेश्यारहित जीवोंके तपःकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससेसमवधानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । ४ अ-आ-ताप्रतिष ' पओअकम्मप०-आधा' , काप्रती ' पओअकम्मपदेसट्टदा आधा-' इति पाठः ] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं ( १९५ भवियाणुवादेण अभवसिद्धिएसु सव्वत्थोवाओ पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वटुदाओ पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदा अणंतगुणा । तस्सेव. पदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । समत्ताणुवादेण वेदगसम्माइट्ठीसु सम्वत्थोवा तवोकम्मदवट्टदा। पओअकम्म-समोदाणकम्म-किरियाकम्मदव्वटुदाओ असंखेज्जगुणाओ। तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । पओअकम्म किरियाकम्मपदेसट्टदाओ असंखेज्जगुणाओ। आधाकम्मदव्वट्ठदा अणंतगुणा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। व सण्णी व असणीसु सम्वत्थोवाओ इरियावथकम्म-पओअकम्मदव्वदाओ। समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वट्ठदाओ विसेसाहियाओ । पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । तवोकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया। आधाकम्मदव्वटदा अणंतगणा । तस्सेव पदेसट्ठदा अणंतगुणा । इरियावहकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया । एवं दव्वटु-पदेसटुप्पाबहुअं समत्तं । असंबद्धमिदमप्पाबहुअं, सुत्तामावादो? ण एस दोसो, देसामासियसुत्तेण पुव्वपरूविदेण सूचिदत्तादो । एवं कम्मणिक्खेवे ति समत्तमणुयोगद्दारं । ___ भव्यमार्गणाके अनुवादसे अभव्योंमें प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इनसे प्रयोगकर्मको प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । न संज्ञी न असंज्ञी जीवोंमें ईर्यापथकर्म और प्रयोगकर्म द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है इससे अध:कर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे ईपिथकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक हैं। इस प्रकार द्रव्य-प्रदेशार्थता अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। शंका-यह अल्पबहुत्व असम्बद्ध है, क्योंकि, इसका प्रतिपादक सूत्र नहीं उपलब्ध होता ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पहले कहे गये देशामार्शक सूत्रसे इसकी सूचना मिलती है। इस प्रकार कर्मनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। | Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खं ( ५, ४, ३१. सेसचोद्दसअणुयोगद्दाराणि एत्थ परूवेदव्वाणि । उवसंहारकारएण किमळं तेसि परूवणा ण कदा? | एस दोसो, कम्मस्स सेसाणयोगद्दारेहि परूवणाए कोरमाणाए पुणरुत्तदोसो पसज्जदि ति तदपरूवणादो । महाकम्मपयडिपाहुडे किमळं तेहि अणुयोगद्दारेहि तस्स परूवणा कदा? ण, मंदमेहाविजणाणग्गहढें पयदपरूवणाए पुणरुत्तदोसाभावादो। ण च अपुणरुत्तस्सेव कत्थ वि परूवणा अस्थि, सव्वत्थ. पुणरुत्तापुणरुत्तपरूवणाए चेव उवलंभादो। एवं कम्मे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । शंका-शेष चौदह अनुयोगद्वार यहां कहने चाहिये। उपसंहार करनेवालेने उनका कथन किसलिये नहीं किया है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कर्मका शेष अनुयोगद्वारों के द्वारा कथन करनेपर पुनरुक्त दोष आता है, इसलिये उनका कथन नहीं किया है। शंका-महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमें उन अनुयोगोंके द्वारा उसका कथन किसलिये किया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मन्दबुद्धि जनोंका उपकार करनेके लिये प्रकृत प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोष नहीं प्राप्त होता । अपुनरुक्त अर्थकी ही कहींपर प्ररुपणा होती है, ऐसा नहीं है; क्योंकि, सर्वत्र पुनरुक्त और अपुनरुक्त प्ररूपणा ही उपलब्ध होती है । इस प्रकार कर्म अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। काप्रती 'सेस' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । 4 अप्रती सव्वत्थ सव्वत्थं', काप्रती 'सम्वत्थ सव्वत्थ ' ताप्रती 'सव्वत्थ ( सव्वत्यं-)' इति पाठः। . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुयोगदारं अरविंदगभग उरं ससुरहिगंधेण वासियदियंतं पयडिअणुयोयमेय वोच्छं पउमप्पहं णमिउं । १ । पयडि त्ति तत्थ इमाणि पयडीए सोलस अणुओगद्दाराणि णावव्वाणि भवंति ॥१॥ प्रकृतिः स्वभावः शीलमित्यनर्थान्तरम्, तं परूवेदि ति अणुयोगद्दारं पि पयडी णाम उवयारेण । तत्थ पयडीए सोलस अणयोगद्दाराणि होति । अणुयोगद्दारेहि विणा पउिपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण, अणुयोगद्दारेहि विणा सुहेण तदत्थावगमोवायाभा. वादो। तेसिमणुयोगद्दाराणं णामणिद्देसटुमुत्तरसुत्तं भणदि पयडिणिक्खेवे पयडिणयविभासणदाए पयडिणामविहाणे पयडिबव्वविहाणे पयडिखेत्तविहाणे पयडिकालविहाणे पयडिभावविहाणे पयडिपच्चयविहाणे पयडिसामित्तविहाणे पयडि-पयडिविहाणे पयडिगदिविहाणे पयडिअंतर विहाणे पयडिसण्णियासविहाणे पयडिपरिमाण-- विहाणे पयडिभागाभागविहाणे पयडिअप्पाबहुए त्ति ॥ २॥ अरविन्दके गर्भके समान गौर अर्थात् लाल रंगवाले और अपनी सुरभि गन्धसे दसों दिशाओंको वासित करनेवाले पद्मप्रभ जिनको नमस्कार करके इस प्रकृतिअनुयोगद्वारका कथन करते हैं। १। प्रकृतिका अधिकार है। उसमें ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ॥१॥ प्रकृति. स्वभाव और शील ये एकार्थवाची शब्द हैं। चूंकि यह उसका प्ररूपण करता है इसलिये इस अनुयोगद्वारका भी नाम उपचारसे प्रकृति है । उस प्रकृतिके सोलह अनुयोगद्वार हैं। शका- अनुयोगद्वारोंके विना प्रकृतिका कथन क्यों नहीं करते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनुयोगद्वारोंके विना सुखपूर्वक उसके ज्ञान होने का कोई उपाय नहीं है। ___अब उन अनुयोगद्वारोंके नामोंका निर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंप्रतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभाषणता, प्रकृतिनामविधान, प्रकृतिद्रव्यविधान, प्रकृति. क्षेत्रविधान, प्रकृतिकालविधान, प्रकृतिभावविधान, प्रकृतिप्रत्ययविधान, प्रकृतिस्वामित्वविधान, प्रकृति-प्रकृतिविधान, प्रकृतिगतिविधान, प्रकृतिअन्तरविधान, प्रकृतिसंनिकर्षविधान, प्रकृतिपरिमाणविधान, प्रकृतिभागामागविधान और प्रकृतिअल्पबहुत्व ।२। ताप्रती पियडि ( अणं ) तर-' इति पाठः 1 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ३. एदेसि सोलसणं पि अणयोगद्दाराणमुत्थाणत्थपरूवणा* जाणिदूण कायन्वा । पयडिणिक्खेवे ति ॥ ३॥ ___ तत्थ जो सो पडिणिक्खेवो तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो। को णिक्खेवो गाम? संशय विपर्ययानध्यवसायेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः बाह्यार्थविकल्पप्ररूपको वा। चउन्विहो पयडिणिक्खेवो- णामपयडी ट्ठवणपयडी वव्वपयडी भावपयडी चेदि ॥ ४ ॥ एवं पयडिणिक्खेवो चउविहो होदि। ण च णिक्खेवो चउविहो चेव होदि त्ति णियमो अत्थि ति, चउविहवयणस्स देसामासियस्स गहणादो । एत्थ ताव णयविभासणदाए विणा णिक्खेवो ण णवदि ति कट्ट ताव णयविहासणं कहामो ति उत्तरसुत्तमागदं पयडिणयविभासणवाए को गओ काओ पयडीओ इच्छदि? ॥५॥ एदं पुच्छासुत्तं सुगमं ।। णेगम-ववहार-संगहा सव्वओ ॥ ६ ॥ इन सोलह ही अनुयोगद्वारोंके उत्थानकी अर्थप्ररूपणा जानकर करनी चाहिये । प्रकृति निक्षेपका अधिकार है॥ ३ ॥ उनमें जो प्रकृतिनिक्षेप अनुयोगद्वार है उसके अर्थका कथन करते हैं । शंका-निक्षेप किसे कहते है ? समाधान- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप विकल्पसे हटाकर जो निश्चयमें स्थापित करता है उसे निक्षेप कहते हैं । अथवा बाह्य अर्थके सम्बन्धमें जितने विकल्प होते है उनका जो कथन करता है उसे निक्षेप कहते हैं । प्रकृतिनिक्षेप चार प्रकारका है- नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ॥ ४॥ इस प्रकार प्रकृतिनिक्षेप चार प्रकारका होता है । निक्षेप चार प्रकारका ही होता है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि 'चार प्रकारका है ' यह वचन देशामर्शक है और इसी रूपसे यहां इसका ग्रहण किया गया है। यहां नयविभाषणताके विना निक्षेपका ज्ञान नहीं हो सकता, ऐसा समझकर पहले नयविभाषणता अधिकारका कथन करते हैं। इसके लिये आगेका सूत्र आया हैप्रकृतिनयविभाषणताको अपेक्षा कौन नय किन प्रकृतियोंको स्वीकार करताहै ? ।५। यह पृच्छासूत्र सुगम है। नेगम, व्यवहार और संग्रह नय सब प्रकृतियोंको स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥ * अ-आप्रत्यो ' -मुद्धागत्थपरूवणा', का-ताप्रत्योः ' -मद्धाणत्थपरूषणा ' इति पाठः । . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ५, ७.) पयडिअणुओगद्दारे णयविभासणदा ( १९९ नैकगमो नैगमः, द्रव्य-पर्यायद्वयं मिथो विभिन्न मिच्छन् नैगम इति यावत् । लोकव्यवहारनिबन्धनं द्रव्यमिच्छन् पुरुषो व्यवहारनयः । व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहकः संग्रहनयः। एदे तिणि वि णया सव्वाओ पयडीओ इच्छंति, तिकाल गोयरत्तादो। उजुसुदो ट्ठवणपडि णेच्छवि ॥ ७ ॥ तस्स विसए सारिच्छलक्खणसामण्णाभावादो तं पिकुदो? एयत्तं मोत्तूण सारिच्छाणुवलंभादो। ण च कप्पणाए अण्णदव्वस्स सह एयत्तं होदि, तहाणुवलंभादो। तम्हा टवणप. यडि मोत्तूण उजसुदो णाम-दव-भावपयडीओ इच्छदि त्ति सिद्धं । कधं उजुसुदे पज्ज. वट्टिए दव्वणिक्खेवसंभवो ? ण, असुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपज्जायपरतंते सुहमपज्जाय जो एकको नहीं प्राप्त होता वह नैगम है । जो द्रव्य और पर्याय इन दोनोंको आपसम अलग अलग स्वीकार करता है वह नैगम है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । लोकव्यवहारके कारणभूत द्रव्यको स्वीकार करनेवाला पुरुष व्यवहारनय है । व्यवहारकी अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूपसे सकल पदार्थोंका संग्रह करता है वह संग्रहनय है। ये तीनों ही नय सब प्रकृतियोंको स्वीकार करते है, क्योंकि, त्रिकालगोचर पदार्थ इनका विषय है । विशेषार्थ-इन तीनों नयोंमें पर्यायकी प्रधानता न होनेसे नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप इनके विषय बन जाते हैं । और पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यका नाम भाव है, इसलिये भावनिक्षेप भी इनका विषय बन जाता है । इस प्रकार नामादि चारों प्रकारकी प्रकृतियोंको नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों नय विषय करते हैं यह सिद्ध होता है। ऋजुसत्र नय स्थापनाप्रकृतिको नहीं स्वीकार करता ॥ ७ ॥ क्योंकि, सादृश्यलक्षण सामान्य ऋजुसूत्र नयका विषय नहीं है। शंका-यह इसका विषय क्यों नहीं है ? समाधान-क्योंकि, एकत्वके विना सादृश्य नहीं उपलब्ध होता। यदि कहा जाय कि क्ल्पनाके द्वारा अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ एकत्व बन जायगा, सो भी बात नहीं है। क्योंकि इस तरहका एकत्व' उपलब्ध नहीं होता ।इसलिये स्थापनाप्रकृतिके सिवा ऋजसूत्र नय नाम, द्रव्य और भाव प्रकृतियोंको स्वीकार करता है। यह सिद्ध होता है । विशेषार्थ-दोमें सादृश्यलक्षण एकत्वका आरोप किये विना स्थापना बन नहीं सकती, परन्तु ऋजुसूत्रनय सादृश्यलक्षण सामान्यको विषय नहीं करता । यही कारण है कि स्थापनानिक्षेपको ऋजुसूत्र नयका विषय नहीं माना है । शंका-ऋजुसूत्र नय पर्यायाथिक है। उसका विषय द्रव्यनिक्षेप कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जो व्यंजनपर्यायके आधीन है और जो सूक्ष्म पर्यायोंके भेदोंके आलम्बनसे नानात्वको प्राप्त है ऐसे अशुद्ध पर्यायाथिक नयका विषय द्रव्यनिक्षेप है, ऐसा * अ-आ-काप्रतिषु ' इच्छंति त्तिकाल-', ताप्रती · इच्छंति त्ति, काल-' इति पाठः 1 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ८१. भेदेहि जाणत्तमुवगए तदविरोहादो। सद्दणओ णामपर्याडं भावपर्याडं च इच्छदि ॥ ८॥ दव्वाविणाभाविस्स णामणिक्खेवस्स कधं सद्दणए संभवो? ण, णामे दवाविणाभावे संते वि तत्थ दवम्हि तस्स सद्दणयस्स अत्थिताभावादो । सहवारेण पज्जायदुवारेण च अत्थभेदमिच्छंतए सद्दणए दो चेव णिक्खेवा संभवंति त्ति भणि होदि। जा सा णामपयडो णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा जीवाणं वा, अजीवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, जीवाणं च अजीवस्स च, जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि पयडि त्ति सा सव्वा जामपयडी णाम ॥ ९॥ जं किंचि णामं तस्स एदे अट्ठ चेव भंगा आधारा होंति, एदेहितो पुधभूदस्स अण्णस्स णामाहारस्त अणवलंभादो । एदेसु अट्ठसु आधारेसु वट्टमाणो पयडिसहो णामपयडी णाम। कधमप्पाणम्हि पयडिसहो वट्टदे? न, अर्थाभिधान प्रत्ययास्तुत्यनामधेया इति शाब्दिकजनप्रसिद्धत्वाताएयस्स पयडिसहस्स अणेगेसु अत्थेसु वत्तिविरोहादो ण दुसंजोगादिमानने में कोई विरोध नहीं आता। शब्द नय नामप्रकृति और भावप्रकृतिको स्वीकार करता है ॥ ८ ॥ शंका-नामनिक्षेप द्रव्यका अविनाभावी है । वह शब्दनयका विषय कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यद्यपि नाम द्रव्यका अविनाभावी है तो भी द्रव्यमें शब्दनयका अस्तित्व अर्थात् व्यवहार नहीं स्वीकार किया गया है । अतः शब्द द्वारा और पर्याय द्वारा अर्थभेदको स्वीकार करनेवाले शब्दनयमें दो ही निक्षेप सम्भव हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। नामप्रकृति यथा-एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एव जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव, नाना जीव और नाना अजीव; इस प्रकार जिसका प्रकृति' ऐसा नाम करते हैं वह सब नामप्रकृति है ॥९॥ जो कुछ भी नाम है उसके ये आठ भंग ही आधार होते हैं, क्योंकि इनसे भिन्न अन्य कोई पदार्थ नामका आधार नहीं उपलब्ध होता । इन आठ आधारोंमें विद्यमान प्रकृति शब्द नामप्रकृति कहा जाता है । शंका-प्रकृति शब्दकी अपने में ही प्रवृत्ति कैसे होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अर्थ, अभिधान और प्रत्यय ये तुल्य नामवाले होते हैं, ऐसा शाब्दिक जनोंमें प्रसिद्ध है । शंका-एक प्रकृति शब्दकी अनेक अर्थों में प्रवृत्ति मानने में चूंकि विरोध आता है, इसलिये द्विसंयोगी आदि भंग नहीं बन सकते ? ताप्रतौ ' णाणत्तमुवगएहि ' इति पाठः । . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १०. ) पडिअणुओगद्दारे ठवणपयडिपरूवणा (२०१ भंगा संभवंति? ण एस दोसो, एयस्स गोसदस्स सग्गादिअणेगेसु अत्थेसु उत्तिदसणादो अनोपयोगी श्लोकः- वाग्दिाभ्या०* ॥१॥ होदु एक्कस्स सद्दस्स बहुसु अत्थेसु कमेण वुत्ती, ण अक्कमेण; वृत्तिविरोहादो। ण एस दोसो, पासादसहस्स अक्कमेण अणेगेसु वट्टमाणस्स उवलंभादो।। जा सा ट्ठवणपयडी णाम सा कट्टकम्मेस वा चित्तकम्मसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे ट्ठवणाए विज्जति पगवि त्ति सा सव्वा ट्ठवणपयडी णाम ॥ १० ॥ जा सा ढवणपयडी णाम तिस्से अस्थपरूवणं कस्सामो-का दुवणा णाम? सोऽयमित्यभेदेन स्थाप्यतेऽन्योऽस्यां स्थापनयेति प्रतिनिधिः स्थापना। सा दुविहा सन्भावासभावट्ठवणाभेदेण। तत्थ सन्मावटवणाए आहारपरूवणा कीरदे-कट्ठेसु जावोघडिवपडि. समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक गो शब्दकी स्वर्ग आदि अनेक अर्थों में प्रवृत्ति देखी जाती है । यहां उपयोगी श्लोक वचन, दिशा . . . . . ये गो शब्दके एकार्थवाची नाम है ॥ १॥ शंका- एक शब्दकी क्रमसे अनेक अर्थों में वृत्ति भले ही हो, किन्तु वह अक्रमसे नहीं हो सकती; क्योंकि अक्रमसे वृत्ति मानने में विरोध आता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अक्रमसे अनेक अर्थों में विद्यमान प्रासाद शब्द उपलब्ध होता है। स्थापनाप्रकृति यथा- काष्ठकोंमें, चित्रकर्मों में, पोत्तकर्मोमें, लेप्यकर्मोंमें लयनकर्मोंमें, शैलकर्मोमें, गृहकर्मोमें भित्तिकर्मोमें, दन्तकर्मोंमें, भेंडकर्मोंमें तथा अक्ष या वराटक और इनको लेकर अन्य जो भी 'प्रकति ' इस प्रकार अभेदरूपसे स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाप्रकृति है ॥ १०॥ जो स्थापनाप्रकृति है उसके अर्थका विवरण करते हैं। शंका- स्थापना किसे कहते हैं ? समाधान- 'वह यह है ' इस प्रकार अभेदरूपसे जो अन्य पदार्थ विवक्षित वस्तुमें प्रतिनिधिरूपसे स्थापित किया जाता है वह स्थापना है । वह दो प्रकारकी है- सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । उनमेंसे पहले सद्भावस्थापनाके आधारका कथन करते हैं- काष्ठोंमें जो द्विपद, चतुष्पद, पादरहित या बहुत पादवाले *काप्रतौ वाग्दिग्भ्यां ' इति पाठ: 1 वाचि वारि पशी भूमौ दिशि लोम्नि पवौ दिवि 1 विशिखे दीघितो दृष्टावेकादशसु गोर्मत. ।। अने. नाम. २६. गौरुदके दृशि 1 स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ बजे भूमाविषो गिरि 1 अनेकार्थसंग्रह १-६. स्वर्गेषु-पशु-वाग्वज-दिड्नेत्र-वृणि-भू-जले 1 लक्ष्यदृष्टया स्त्रियां पुंसि , .. ll अमर. ( नानार्थवर्ग ) ३०.४ षट्खं. पु. ९, पृ. २४८. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १०. माओ दुवय-चदुप्पय-अपाद पादसंकुलाणं जीवाणं ताओ कटकम्माणि णाम । कुड्डकट्ठसिला-थंभादिसु विविहवण्णविसेसेहि लिहिदपडिमाओ चित्तकम्माणि णाम । विविहवत्थेसु कयपडिमाओ पोत्तकम्माणि णाम । मट्टिय छहादीहि कदपडिमाओ लेप्पकम्माणि णाम । पव्वदेसु सुक्खदजिणादिपडिमाओ लेणकम्माणि णाम । सिलासु पुधभूदासु उक्क*च्छिण्णासु वा कदअरहंतादिपंचलोगपालपडिमाओ सेलकम्माणि गाम । जिणहरादीणं चंदसालादिसु अभेदेण घडिदपडिमाओ गिहकम्माणि णाम । कुड्डेसु अभेदेण घडिदपंचलोगपालपडिमाओ भित्तिकम्माणि णाम । दंतिदंतुक्किण्णजिणिवपडिमाओ दंतकम्माणि णाम । भेंडेसु घडिदपडिमाओ भेंडकम्माणि णाम । एदेहि सुत्तेहि सम्भावटुवणा परूविदा । कधं पयडीए सम्भाव?वणा जुज्जदे ? ण एस दोसो, अरहंत-सिद्धाइरिय-साहवज्झायादीणं वणगार-गयरागादि-सहावेण घडिदपडिमाणं पयडीए सम्भावढवणत्तदंसणादो। ' अक्खो वा राडओ वा' एदेहि वयणेहि असम्भावढवणा परूविदा । जे च अण्णे एवमादिया अमा: अभेदेण ढवणाए बुद्धीए टुवज्जंति सा सव्वा द्रवणपयडी णाम । जीवोंकी प्रतिमायें घडी जाती हैं वे काष्ठकर्म हैं । भीत, काष्ठ, शिला और स्तम्भ आदिकोंमें जो नाना प्रकारके रंगविशेषोंके द्वारा प्रतिमायें लिखी जाती हैं वे चित्रकर्म हैं। नाना प्रकारके वस्त्रोंमें जो प्रतिमायें बनाई जाती हैं वे पोतकर्म हैं मिट्टी और चूना आदिके द्वारा जो प्रतिमायें बनाई जाती हैं वे लेप्यकर्म हैं पर्वतोंमें जो अच्छी तरह छीलकर जिन भगवान् आदिकी प्रतिमायें बनाई जाती हैं वे लयनकर्म हैं । अलग रखी हुई शिलाओंमें या उखाड कर तोडी गई शिलाओंमें जो अरहन्त आदि पांच लोकपालोंकी प्रतिमायें बनाई जाती हैं वे शैलकर्म हैं। जिनगह आदिकी चन्द्रशाला आदिकोंमें अभिन्नरूपसे घडी गई प्रतिमायें गहकर्म है । भीतोंम उनसे अभिन्न बनाई गई पांच लोकपालोंकी प्रतिमायें भित्तिकर्म हैं। हाथीके दांतोंमें उकीरी गई जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमायें दन्तकर्म है । भेंड अर्थात् कांसे आदिमें बनाई गई प्रतिमायें भेंडकर्म है । इन सूत्रोंके द्वारा सद्भावस्थापना कही गई है। शंका- प्रकृति में सद्भावस्थापना कैसे बन सकती है? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, साधु और उपाध्याय आदिकी वर्ण, आकार और वीतराग आदि स्वभावके द्वारा घडी गई प्रतिमाओंकी प्रकृतिमें सद्भावस्थापनापना देखी जाती है। 'अक्खो वा वराडओ' इन वचनोंके द्वारा असद्भावस्थापना कही गई है । इसी प्रकार इनको लेकर और जो दूसरे अमा अर्थात् अभेदसे स्थापना अर्थात् बुद्धि में स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाप्रकृति है। ताप्रतौ ' कुट्टकद ' इति पाठः[ ले अ-आपत्योः उदयपडिमाओ ', काप्रती ' वुदमपडिमाओ '. ताप्रतो'उदम (कद) पडिमाओ' इति पाठः। अ-आ-प्रत्यौ: 'टंक' इति पाठ: 1 ताप्रती अमी' इति पाठ:] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १३. ) पडिअणुओगद्दारे दव्वपयडिपरूवणा (२०३ जा सा वव्वपयडी णाम सा दुविहा- आगमदो दवपयडी चेव पोआगमदो बव्वपयडी चेव ।। ११ ॥ __ आगमो गंथो सुदणाणं दुवालसंगमिदि एयट्ठो । आगमस्स दव्वं जीवो आगमदव्वं, सा चेव पयडी आगमवव्वपयडी। आगमदवपयडीदो अण्णा पयडी णोआगमदत्वपयडी णाम। जा सा आगमदो दवपयडी णाम तिस्से इमे अत्याधियाराठ्ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं ॥ १२ ॥ एवं णवविहो आगमो । एदेसि णवण्णं पिआगमाणं जहा वेयणाए सरूवपरूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। एदेसिमागमाणमुयजोगवियप्पपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि - ___जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहगा वा थय-थुइ-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया ।१३। एदेसिमट्टण्णं पि उवजोगाणं जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा । 'जे च अमी अण्णे एवमादिया ' एदेण संखाणियमो पडिसिद्धो त्ति बटुव्वो । . द्रव्यप्रकृति दो प्रकारको है- आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति ।१॥ ___आगम, ग्रन्थ, श्रुतज्ञान और द्वादशांग ये एकार्थवाची शब्द हैं। आगमका द्रव्य अर्थात् जीव आगमद्रव्य है, वही प्रकृति आगमद्रव्यप्रकृति है । तथा आगमद्रव्यप्रकृतिसे भिन्न प्रकृति नोआगमद्रव्यप्रकृति है। ___ जो आगमद्रव्यप्रकृति है उसके ये अर्थाधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ॥ १२॥ इस तरह नौ प्रकारका आगम है । इन नौ ही आगमोंके स्वरूपकी वेदनाखण्ड (कृतिअनुयोगद्वार सूत्र ५४ में जिस प्रकार प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ___ अब इन आगमोंके उपयोगरूप विकल्पका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं उनकी वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा होती है । तथा इनसे लेकर और भी उपयोग होते हैं । १३ ।। इन आठों ही उपयोगोंका कथन जिस प्रकार वेदनाखण्ड (कृतिअनुयोगद्वार सूत्र ५५) में किया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । 'इनसे लेकर और जितने हैं ' इस वचनके द्वारा संख्याके नियमका प्रतिषेध किया है, ऐसा जानना चाहिये । षट्वं. पु. ९, पृ. २५१.५ षटन पु, ९, पृ. २६२. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १४. अणुवजोगा वव्वे त्ति कटु जावदिया अणुवजुत्ता बन्वा सा सव्वा आगमदो दव्वपयडी णाम ॥ १४ ।।। __ जाणिदूण अणुवजोगा उवजोगवज्जिया परिसा दव्वमिदि काऊण जावदिया अणुवजुत्ता दवा सयला वि आगमदो दव्वपयडी णाम। जा सा णोआगमदो दवपयडी नाम सा दुविहा- कम्मपयडी चेव णोकम्मपयडी चेव ॥ १५ ॥ ___ एवं दुविहा चेव णोआगमदवपयडी होदि, ण तिविहा; कम्म-गोकम्मवदिरित्तस्स गोआगमदव्वस्स अणवलंभादो। जा सा कम्मपयडी णाम सा थप्पा ॥ १६ ॥ स्थाप्या । कुदो? बहुवण्णणिज्जतादो। जा सा णोकम्मपयडी णाम सा अणेयविहा ॥ १७ ॥ कुदो ? अणेयाणं णोकम्मपयडीणं उवलंभादो । तं जहा - .. घड-पिढर-सरावारंजणोलंचणादीणं विविहभायणविसेसाणं ___ अनुपयुक्त द्रव्य ऐसा समझकर जितने अनुपयुक्त द्रव्य है यह सब आगमद्रव्यप्रकृति है। जानकर अनुपयुक्त अर्थात् उपयोगरहित पुरुष द्रव्य है, ऐसा समझकर जितने अनुपयुक्त द्रव्य हैं वह सब आगमद्रव्यप्रकृति कहलाती है । विशेषार्थ - पहले आगमका अर्थ श्रुतज्ञान और उसका आधारभूत द्रव्य जीव बतला आर्य हैं । यह विवक्षित विषयको जानकर जब तक उसके उपयोगसे रहित होता है तब तक उस विषयकी अपेक्षा इसकी आगमद्रव्य संज्ञा होती है। द्रव्यमें पर्याय अविवक्षित रहती है, इसलिये इसे प्रकृत विषयके उपयोगसे रहित बतलाया है । यहां आगमद्रव्यप्रकृतिका प्रकरण है । इसलिये प्रकृतिविषयक शास्त्रका जानकार किन्तु उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यप्रकृति है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । नोआगमद्रव्यप्रकृति दो प्रकारको है- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति ॥ १५ ॥ इस प्रकार नोआगमद्रव्यप्रकृति दो प्रकारकी ही होती है, तीन प्रकारकी नहीं होती; क्योंकि, कर्म और नोकर्मके सिवा अन्य नोआगमद्रव्य नहीं उपलब्ध होता । जो नोआगमकर्मद्रव्यप्रकृति है उसे स्थगित करते हैं ॥ १६॥ वह स्थाप्य अर्थात् स्थगित करने योग्य है, क्योंकि उसके विषयमें बहुत वर्णन करना है। जो नोआगमद्रव्यप्रकृति है वह अनेक प्रकारको है ॥ १७ ॥ क्योंकि, अनेक नोकर्मप्रकृतियां उपलब्ध होती हैं । यथाघट, थाली, सकोरा या पुरवा, अरंजण और उलुंचण आदि विविध भाजन प्रतिषु ' पिडर' इति पाठ [ पिठर: स्थाल्यां ना क्लीबं मुस्ता-मन्थानदण्डयोः । मेदिनी. पिठरं मथि मुस्तके । उखायां च "l अनेकार्थसंग्रह ३-६१३. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १९. ) पर्या अणुओगद्दारे ठवणपय डिपरूवणा ( २०५ मट्टिया पयडी, धान तपणादीनं च जव-गोधूमा पयडी, सा सव्वा णोकम्मपवडी णाम ॥ १८ ॥ णोकम्मपग्रडीए अणेयविधत्तपटुप्पायणट्ठ सुत्तमिदमागयं । घडओ कलसो, पिढरो डेरओ सरावो, मल्लओ, अरंजणो अलिंजरो, उलुंचणो गडुवओ, एवमादीणं विविहमायण विसाण मट्टिया पयडी । कुदो ? मट्टियाए विणा सरावादीणमभावोवभादो । धाणालाया, तप्पणी सत्तुओ, एदेसि पयडी जव- गोधूमा च; जवधूमेह विणा धातपणाणुवलंभादो । एवं सामासियं काऊण अण्णेसि पि णोकम्मदव्वाणं पयडी परूवेदब्वा । जा सा थप्पा कम्मपयडी णाम सा अट्ठविहा-णाणावरणीयविशेषोंकी मिट्टी प्रकृति है । धान और तर्पण आदिको जौ और गेहूं प्रकृति है । यह सब नोकर्मप्रकृति है ॥ १८ ॥ 1 कर्म प्रकृति के अनेक भेदोंका कथन करनेके लिये यह सूत्र आया है । घट कलशको कहते हैं । पिढरका अर्थ डेरअ अर्थात् थाली है । सरावका दूसरा नाम मल्लक है । अरंजण कहो या अलिंजर एक ही अर्थ है । उलुंचण गडुवअको कहते हैं । इत्यादि विविध भाजनविशेषोंकी मिट्टी प्रकृति है, क्योंकि, मिट्टीके विना सराव आदिका अभाव देखा जाता है। धाणका अर्थ लाव है और तर्पण सक्तुको कहते हैं । इनकी प्रकृति जो और गेहूं है, क्योंकि, जौ और गेहूंके विना धाण और तर्पण ( सत्तु ) का अभाव देखा जाता है। इसे देशामर्शक समझकर अन्य भी नोकर्मद्रव्योंकी प्रकृति कहनी चाहिये । विशेषार्थ - यहां द्रव्यनिक्षेपके आगम और नोआगम ये दो भेद मुख्यतः श्रुतज्ञानकी प्रधानतासे किये गये हैं । इसलिये प्रकृतिआगमद्रव्यनिक्षेपका अर्थ प्रकृतिविषयक शास्त्रको जाननेवाला उपयोगरहित आत्मा होता है और नोआगमका अर्थ आगमद्रव्य अर्थात् पूर्वोक्त आत्मासे भिन्न अन्य पदार्थ क्या है और उसका यहां किस दृष्टिसे संग्रह करना इष्ट है, इस प्रश्नका यही उत्तर हैं कि आगमद्रव्यको भावरूप परिणत होनेमें जो साधन सामग्री लगती है वह सब आगमद्रव्य शब्दसे ली गई है। ऐसी साधन सामग्री क्या हो सकती हैं, जब इसका विचार करते हैं तो वह कर्म और कर्मसे अतिरिक्त अर्थात् नोकर्म यही दो तरह की सामग्री प्राप्त होती है । इस तरह इस दृष्टिसे द्रव्यनिक्षेपके ये भेद किये गये हैं । वैसे प्रत्येक द्रव्यकीं वर्तमान पर्याय अर्थात् भावकी अपेक्षा यदि द्रव्यनिक्षेपका विचार करते हैं तो विवक्षित पर्यायसे पूर्ववर्ती पर्यायविशिष्ट द्रव्य ही द्रव्यनिक्षेपका विषय ठहरता है । अन्यत्र नोआगमके तीन भेद करके एक भावी भेद भी परिगणित किया जाता है । वह भावी भेद इसी दृष्टिकोणको सूचित करता है और तत्तत् भावकी दृष्टिसे उसका द्रव्य यही ठहरता है । इस तरह द्रव्यनिक्षेप क्या है और उसके यहां किस दृष्टिसे भेद किये गये हैं इसका खुलासा किया | पहले जो नोआगमकर्मद्रव्यप्रकृति स्थगित कर आये थे वह आठ प्रकारकी है+ अ आ-काप्रतिषु ' दाण' इति पाठ: । अ-ताप्रत्यो गट्टुवओ', आप्रती ' गदुवओ' इति पाठः । आ-का-ताप्रतिषु ' आया' इति पाठ: 14 ताप्रती ' पयडी ( णं) ' इति पाठ: Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड कम्मपयडी एवं दंसणावरणीय-धेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामागोद-अंतराइयकम्मपयडी चेदि ॥ १९ ॥ ___ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं । बाह्यार्थपरिच्छेदिका जीवशक्तिमा॑नम् । तच्च जीवस्य यावद् व्यभावी गणः, तेन विना जीरस्य अभावप्रसंगात् । जाणविरहियाणं पोग्गलागासदव्वाणं व जाणविरहियजीवदव्वस्स अत्थित्तं किण्ण होज्ज ? ण, जीवदव्वस्स अजीवदव्वेहितो वइसेसियगणाभावेण पुधत्तविरोहादो. ण ताव ओगाहणलक्खणं जीवदव्वं, तस्सागासेण सह एयत्तप्पसंगादो। ण अण्णदव्वाणं गमणागमणहउअं, तस्स धम्मदवे अंतब्भावादो। णावट्ठाणहेउअं, अधम्मदवे तस्स अंतब्भावप्पसंगादो। ण अण्णदव्वाणं परियट्टणकारणं, कालदव्वत्तप्पसंगादो। ण रूव-रस-गंधफासवंतत्तकओ विसेसो, तस्स पोग्गलदम्वत्तप्पसंगादो । तम्हा जीवेण उवजोगलक्खणेण होदव्वमिदि । उवजोगमंतो जीवो, उवजोगवज्जिओ अजीवो त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण उवजोगेण विणा आगासादिसु ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति, इसी प्रकार दर्शनाबरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मप्रकृति ॥ १९ ॥ जो ज्ञानको आवृत करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है। बाह्य अर्थका परिच्छेद करनेवाली जीवकी शक्ति ज्ञान है । वह जीवका याबद्रव्य भावी गुण है, क्योंकि, उसके विना जीवके अभावका प्रसंग आता है । शंका - ज्ञानरहित पुद्गल और आकाश द्रव्योंके समान ज्ञानरहित जीवका अस्तित्व क्यों नहीं होता? ____समाधान- नहीं, क्योंकि, विशेष गुणोंके विना जीव द्रव्यको अजीव द्रव्योंसे पृथक मानने में विरोध आता हैं । जीवका लक्षण अवगाहना मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर आकाश द्रव्यसे जीव द्रव्यका अभेद प्राप्त होता है । जो अन्य द्रव्योंके गमनागमनमें हेतु है वह जीव द्रव्य है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेपर उसका धर्म द्रव्यमें समावेश हो जाता है । जो अवस्थानका कारण है वह जीव द्रव्य है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उसका अधर्म द्रव्य में अन्तर्भाव प्राप्त होता है जो अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें कारण है वह जीव द्रव्य है, यह वचन भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके कालद्रव्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाला होनेसे इनकी अपेक्षा जीवमें विशेषता आती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके पुद्गलद्रव्यपनेका प्रसंग आता है । इसलिये जीवको उपयोग लक्षणवाला होना चाहिये ।। शंका- उपयोगवाला जीव है और उपयोगसे रहित अजीव है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर उपयोगके विना आकाश आदिमें अन्तर्भावको . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरूवणा (२०७ अंतब्भदेण जीवेण सह उवजोगस्स संबंधाणववत्तीदो। वा जीवेणेव अरादीहि वि उवजोगस्स संबंधो होज्ज, दिसेसाभावादो। जीवोवजोगाणमस्थि संबंधो, संबंधणिबंधणमधुपच्चयंत-उवजोगवंत-सद्दाभिधेयत्तण्णहाणुववत्तीवो? ण, रूविणो पोग्गला इच्चेवमाईसु णिच्चजोगे वि मधुपच्चयस्स उप्पत्तिदसणादो। सो च उवजोगो सायारो अणायारो ति दुविहो । तत्थ सायारो णाणं, तदावारयं कम्मं णोणावरणीयमिदि सिद्धं। ___अणायारुवजोगो दसणं । को अणागारुवजोगो णाम ? सागारुवजोगादो अण्णो। कम्म-कत्तारभावो आगारो, तेण आगारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागारो त्ति । सागारुवजोगेण सव्वो विसईकओ, तदो विसयाभावादो अणागारुवजोगो णत्थि त्ति सणिच्छयं णाणं सायारो, अणिच्छयमणागारो त्ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, संसय-विवज्जय अणज्झवसायाणमणायारत्तप्पसंगादो। एदं पिणत्थि, केवलिम्हि दसणाभावप्पसंगादो ? ण एस दोसो, अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स अणायारत्तब्भवगमादो। प्राप्त हुए जीवके साथ उपयोगका सम्बन्ध नहीं बन सकता है । फिर भी यदि सम्बन्ध माना जाता है तो जीवके समान आकाश आदिके साथ भी उपयोगका सम्बन्ध हो जायगा, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। शंका - जीव और उपयोगका सम्बन्ध है, अन्यथा सम्बन्धका कारण मतुप्-प्रत्ययान्त 'उपयोगवान्' शब्दका वह वाच्य नहीं बन सकता ? समाधान - नहीं, क्योंकि 'रूपिण. पुद्गला: ' इत्यादिमें नित्ययोगके अर्थमें भी मतुप प्रत्ययकी उत्पत्ति देखो जाती है ।। वह उपयोग दो प्रकारका है- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । उनमेंसे साकार उपयोगका नाम ज्ञान है और उसको आवरण करनेवाला कर्म ज्ञानावरणीय है, यह सिद्ध होता है। तथा अनाकार उपयोगका नाम दर्शन है। शंका - अनाकार उपयोग क्या है ? समाधान - साकार उपयोगसे अन्य अनाकार उपयोग है। कर्म-कर्तृभावका नाम आकार है । उस आकारके साथ जो उपयोग रहता है उसका नाम साकार है । शंका - साकार उपयोगके द्वारा सब पदार्थ विषय किये जाते हैं, अतः विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता, इसलिए निश्चयसहित ज्ञानका नाम साकार उपयोग है और निश्चयरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है। यदि ऐसा कोई कहे तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायको अनाकारता प्राप्त होती है । यदि कोई कहे कि ऐसा ही हो जाओ, सों भी बात नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दशनका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तरङगको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोग रूपसे स्वीकार किया है । अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है, यह बात भी *ताप्रती 'अण्ण ' इति पाठः 1 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, १९. ण अंतरंगउवजोगो वि सायारो, कत्तारादो दव्वादो पुह कम्माणुवलंभादो । ण च दोण्णं पि उवजोगाणमेयत्तं, बहिरंगंतरंगत्थविसयाणमेयत्तविरोहादो। ण च एदम्हि अत्थे अवलंबिज्जमाणे सायारअणायार उवजोगाणमसमाणत्तं, अण्णोणभेदेहि पुहाणमसमाणत्तरविरोहादो। सामण्णग्गहणं सणं, विसेसग्गहणं णाणमिवि किण्ण घप्पदे ? ण, सम्वत्थ सम्वद्धमभयणयविसयावट्ठभेण विणा सव्वोवजोगाणमुप्पत्तिविरोहादो। ण च कमेण तपवट्ठभणं जुज्जदे, संकराभावप्पसंगादो । किं च-ण च एवं लक्खणं जज्जदे, केवलिम्हि व छदुमत्थेसु वि णाणा-दसणाणमक्कमवृत्तिप्पसंगादो। एदस्स सणस्स आवारयं कम्मं सणावरणीयं । जीवस्स सुह-दुक्खुप्पाययं कम्मं वेयणीयं णाम । किमेत्थ सुहमिदि घेप्पदे ? दुक्खुवसमो सुहं णाम । दुक्खक्खओ सुहुमिदि किण्ण घेप्पदे ? ण, तस्स कम्मक्खएणुप्पज्जमाणस्स जीवसहावस्त कम्मणिदत्तविरोहादो । विमोहसहावं जीवं मोहेदि ति मोहणीयं । नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए इन दोनोंका एक मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि इस अर्थके स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उययोगमें समानता नहीं रहेगी, सो भी बात नहीं है; क्योंकि परस्परके भेदसे ये अलग हैं इसलिये इनमें सर्वथा असमानता मानने में विरोध आता है। शंका - यहां सामान्य ग्रहणका नाम दर्शन है और विशेष ग्रहणका नाम ज्ञान है, ऐसा अर्थ क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान - नहीं, क्योंकि सब क्षेत्र और सब कालमें उभय नयके विषयके आलम्बनके विना सब उपयोगोंकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । यदि कहा जाय कि क्रमसे सामान्य और विशेषका अवलम्बन बन जावेगा, सो भी बात नहीं है, क्योंकि एसा माननेपर संकरका अभाव प्राप्त होता है। दूसरे यह लक्षण बनता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर केवलीके समान छद्मस्थोंके भी ज्ञान और दर्शनकी अक्रम वृत्तिका प्रसंग आता है । इस दर्शनका आवारक कर्म दर्शनावरणीय है। जीवके सुख और दुःखका उत्पादक कर्म वेदनीय है। शंका - प्रकृतमें सुख शब्दका क्या अर्थ लिया गया है ? समाधान - प्रकृतमें दुःखके उपशम रूप सुख लिया गया है। शंका - दुःखका क्षय सुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान - नहीं, क्योंकि वह कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है । तथा वह जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है । __मोहरहित स्वभाववाले जीवको जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है । जो भव धारण *प्रतिषु ' दन्वेण फट्ट कम्माणव- ' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'फट्टाणमसमागत्त-' इति पाठः । ॐ का-ताप्रत्योः 'दुक्खुप्पाइयं ' इति पाठः। .. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५,२१. ) अणुओगद्दारे कम्मदव्वपय डिपरूवणा ( २०९ भवधारणमेदि कुणदि त्ति आउअं । णाणा मिणोदि त्ति णामं । गमयत्युच्च - नीचमिति गोत्रम् | अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायम् । एवमेदाओ कम्मस्स अट्ठेव य पयडीओ । ण अण्णाओ, अणुवलंभादो । णाणावरणीयस्स उत्तरपयडिपमाणपरूवणट्टमुत्तरमुत्तं भणदि -- गाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ।। २० । एवं पुच्छासुतं सुगमं । णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ - आभिणिबोहियनाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥ २१ ॥ जीवम्मि आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणमिदि पंच णाणाणि । तत्थ अहिमुह - नियमिदत्थस्स बोहणमाभिणिबोहियं णाम गाणं । को अभिमुत्थो ? इंदिय गोइंदियाणं गहणपाओग्गो । कुदो तस्स नियमो ? अण्णत्थ अप्पबुसीदो। अत्थि दियालोगुवजोगेहिंतो चेव माणुसेसु रूवणाणुप्पत्ती । करता है वह आयु कर्म है । जो नानारूप बनाता है वह नामकर्म है । जो उच्च-नीचका ज्ञान कराता है वह गोत्रकर्म है। जो बीचमें आता है वह अन्तराय कर्म है । इस प्रकार कर्मकी ये आठ हीं प्रकृतियां हैं, अन्य नहीं हैं; क्योंकि अन्य प्रकृतियां उपलब्ध नहीं होती । ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ २० ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है । ज्ञानावरणीय कर्मको पांच प्रकृतियां हैं- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । २१ । आभिनिबोधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच ज्ञान हैं । उनमें अभिमुख और नियमित अर्थका ज्ञान होना आभिनिबोधिक ज्ञान है । शंका - अभिमुख अर्थ क्या है ? समाधान - इन्द्रिय और नोइन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थका नाम अभिमुख अर्थ है । शंका • उसका नियम कैसे होता है ? समाधान - अन्यत्र उनकी प्रवृत्ति न होनेसे । अर्थ, इन्द्रिय, आलोक और उपयोगके द्वारा ही मनुष्यों के रूपज्ञानकी उत्पत्ति होती है । अर्थ, इन्द्रिय और उपयोगके द्वारा ही रस, * अप्रतौ ' अ पडीओ तो 'अट्ठ पडीओ ', काप्रती ' अट्ठेय पयडीओ, इति पाठः । अभिमुहणियमियबोहण आभिणिबोहियमणिदिइंदियजं 1 बहुयाहि उग्गहाहि य कयछत्तीसा तिसद भेदा 11 जप. १३-५६. ॐ आ-काप्रत्योः ' अप्पत्तीदो' ताप्रती 'अवु ( ण ) प्पत्तीदो' इति पाठ 1अप्रती झावाणुप्पत्ती', काप्रतो ' रूवेणाणुप्पत्ती' इति पाठः । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड अस्थिदिय-उवजोगेहितो-चेव रस-गंध-सद्द-फासणाणुप्पत्ती। विट्ठ-सुवाणभवट्ठ-मणेहितो णोइंदियणाणुप्पत्ती एसो एत्थ णियमो । एदेण णियमेण अभिमुहत्थेसु जमुप्पज्जदिणाणं तमाभिणिबोहियणाणं णाम । तस्स आवरणमाभिणिबोहियणाणावरणीयं। ___ मदिणाणेण गहिदत्थादो जमुप्पज्जदि अण्णेसु अत्थेसु णाणं तं सुदणाणं णाम । धूमादो उपज्जमाणअग्गिणाणं, णदीपूरजणिदउवरिविट्ठिविण्णाणं, देसंतरसंपत्तीए जणिददियरगमणविसयविण्णाणं, सद्दादो सहत्थप्पण्णणाणं च सुदणाणमिति भणिदं होदि। सुदणाणादो जमुप्पज्जदि णाणं तं पि सुदणाणं चेव। ण च मदिपुव्वं सुदमिच्चेदेण सुत्तँण, सह विरोहो अत्थि, तस्स आदिष्पत्ति पडुच्च परविदत्तादो । कधं सहस्स सुदववएसो? कारणे कज्जुवयारादो। एइंदिएसु सोदणोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती ? ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिगिविसयणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एक्स्स सुदस्स आवारयं कम्मं सुदणाणावरणीयं णाम । अवाग्धानादवधिः । अथवा अधो गौरवधर्मत्वात् पुद्गलः अवाङ नाम, तं दधाति मन्ध, शब्द और स्पर्श ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थ तथा मनके द्वारा नोइन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति होती है; यह यहां नियम है । इस नियमके अनुसार अभिमुख अर्थोंका जो ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है और उसका आवारक कर्म आझिनिबोधक ज्ञानावरणीय है । ___ मतिज्ञानके द्वारा ग्रहण किये गये अर्थके निमित्तसे जो अन्य अर्थोका ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । धूमके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अम्निका ज्ञान, नदीपूरके निमित्तसे उत्पन्न हुआ ऊपरी भागमें वृष्टिका ज्ञान, देशान्तरकी प्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ सूर्यका गमनविषयक विज्ञान और शब्दके निमित्तसे उत्पन्न हुआ शब्दार्थका ज्ञान श्रुतज्ञान है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। श्रुतज्ञानके निमित्तसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी श्रुतज्ञान ही है। फिर भी ‘मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है ' इस सूत्रके साथ विरोध नहीं आता, क्योंकि उक्त सूत्र श्रुतज्ञानको प्रारम्भिक प्रवृत्तिकी अपेक्षासे कहा गया है। शंका - शब्दको श्रुत संज्ञा कैसे मिल सकती है ? समाधान - कारणमें कार्यके उपचारसे । शंका - एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और नोइन्द्रियसे रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो सकती ? समाधान - नहीं, क्योंकि वहां मनके विना भी जातिविशेषके कारण लिंगी विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। इस श्रुतका आवारक कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कर्म नीचे के विषयको धारण करनेवाला होनेसे अवधि कहलाता हैं। अथवा नीचे गौरवधर्मवाला होनेसे पुद्गलकी अवाग संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात जानता है वह अवधि है। xताप्रती '-मणेहितो ' इति पाठः । .त. सू. १-२०. . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २१.) पयडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरूवणा (२११ परिच्छिनत्तीति* अवधिः। अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम् । अथवा अवधिमर्यादा, अव. धिना सह वर्तमानं ज्ञानमवधिज्ञानम् । इदमवधिज्ञानं मर्तस्यैव वस्तुनः परिच्छेदकम्, 'रूपिष्ववधेः ' इति वचनात् । अमूर्तत्वावतीतानागत-वर्तमानपुद्गलपर्यायाणां परिच्छेदकं न भवेदिति चेत् न मर्तपुदगलपर्यायाणामपि मर्तत्वाविरोधात् । अवध्यामिनिबोधिकज्ञानयोरेकतनम, ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषादिति चेत्-न, प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोरनिन्द्रियजेन्द्रियजयोरेकत्वविरोधात् । ईहादिमति ज्ञानस्याप्यनिन्द्रियजत्वमुपलभ्यत इति चेत-न, द्रव्याथिकनये अवलम्ब्यमाने ईहाद्यभावस्तेषामनिन्द्रियजत्वाभावात् नंगमनये अवलम्ब्यमानेऽपि पारम्पर्येणेन्द्रियजत्वोपलम्भाच्च । प्रत्यक्षमाभिनिबोधिकरज्ञानम्, तत्र वैशद्योपलम्माववधिज्ञानवदिति चेत्- न, ईहादिषु मानसेषु च वैशद्याभावात् । न चेदं प्रत्यक्षलक्षणम्, पंचेन्द्रियविषयावग्रहस्यापि विशदस्या. वधिज्ञानस्येव प्रत्यक्षतापत्तः । अवग्रहे वस्त्वेकदेशो विशवश्चेत्-न, अवधिज्ञानेऽपि और अवधिरूप ही ज्ञान अवधिज्ञान है। अथवा अवधिका अर्थ मर्यादा है, अवधिके साथ विद्यमान ज्ञान अवधिज्ञान है । यह अवधिज्ञान मूर्त पदार्थको हीं जानता है, क्योंकि 'रूपिष्ववधेः' ऐसा सूत्रवचन है। ___ शंका - अतीत, अनागत और वर्तमान पुद्गलपर्यायें अमूर्त हैं, इसलिये यह उन्हें नहीं जान सकेगा? समाधान - नहीं, क्योंकि मूर्त पुद्गलोंकी पर्यायोंको भी मूर्त मानने में कोई विरोध नहीं आता। शंका - अवधिज्ञान और आभिनिबोधिक ज्ञान ये दोनों एक हैं, क्योंकि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा इन में कोई भेद नहीं है ? समाधान- नहीं, क्योंकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है और आभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष है तथा अवधिज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है और आभिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रियजन्य हैं, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध आता है। शंका - ईहादि मतिज्ञान भी अनिन्द्रियज उपलब्ध होते है ? । समाधान - नहीं, क्योंकि द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लेनेपर ईहादिक स्वतन्त्र ज्ञान नहीं है, इसलिए वे अनिन्द्रियज नहीं ठहरते । तथा नैगमनयका अवलम्बन लेनेपर भी वे परम्परासे इन्द्रियजन्य ही उपलब्ध होते हैं। शंका - आभिनिबोधिक ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योंकि उसमें अवधिज्ञानके समान विशदता उपलब्ध होती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि ईहादिकों में और मानसिक ज्ञानोंमें विशदताका अभाव है। दूसरे यह विशदता प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर पंचेन्द्रिय विषयक अवग्रह भी विशद होता है, इसलिये उसे भी अवधिज्ञानकी तरय प्रत्यक्षता प्राप्त हो जायगी। *ताप्रती ' परिछित्रत्तीति । इति पाठ: 1 त सू. १-२७. ४ ताप्रती — ईहामति-' इति पाठः1 ताप्रती '-मभिनिबोधिक-' इति पाठः । | Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, २१ तदविशेषात् । ततः पराणीन्द्रियाणि आलोकादिश्च, परेषामायत्तं ज्ञानं परोक्षम् । तदन्यत् प्रत्यक्षमित्यंगीकर्तव्यम् । एदस्स ओहिणाणस्स वियप्पा जहा वेयणाए* परूविदा तहा परूवेयव्वा । एदमावारेदि त्ति ओहिणाणावरणीयं ।। परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, मनसः पर्ययाः विशेषाः मनःपर्ययाः, तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम्।सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न सम्भवति, निविषयत्वात् । तस्मात् सामान्य विशेषात्मकवस्तुग्राहि मनःपर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्-नैष दोषः, इगत्वात् । तहि सामान्यग्रहणमपि कर्तव्यम्? न, सामर्थ्यलभ्यत्वात् । एदं वयणं देसामासियं । कुवो? अचितियाणमद्धचितियाणं च अत्थाणमवगमादो । अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चितिए वि अचितिए वि अत्थे वट्टमाणणाणबिसया त्ति घेतवा। ओहिणाणं व एवं पि पच्चक्खं, अणिदियजत्तादो । महाविसयादो ओहिणाणादो अप्पविसयं शंका - अवग्रहमें वस्तुका एकदेश विशद होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञान में भी उक्त विशदतासे कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् इसमें भी वस्तुको एकदेश विशदता पाई जाती है। इसलिये परका अर्थ इन्द्रिया और आलोक आदि है, और पर अर्थात् इनके आधीन जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान है । तथा इससे अन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है, एसा यहां स्वीकार करना चाहिये। इस अवधिज्ञानके भेद जिस प्रकार वेदनामें ( पु. ९ पृ. १२-५३ ) कहे हैं उसी प्रकार यहां कहने चाहिये। इस अवधिज्ञानको जो आवरण करता है वह अवधिज्ञानावरणोय कर्म है । परकीय मनको प्राप्त हुए अर्थका नाम मन है और मनकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंका नाम मनःपर्याय है। उन्हें जो जानता है वह मनःपर्ययज्ञान हैं । शंका - सामान्यको छोडकर केवल विशेषका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ज्ञानका विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिये सामान्य-विशेषात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला मनःपर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिये ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह बात हमें इष्ट है। शंका - तो मनःपर्ययज्ञानके विषयरूपसे सामान्यका भी ग्रहण करना चाहिये ? समाधान - नहीं, क्योंकि, सामर्थ्य से उसका ग्रहण हो जाता है । यह वचन देशामर्शक है, क्योंकि इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थोका भी ज्ञान होता है । अथवा मन:पर्याय यह संज्ञा रूढिजन्य है. इसलिये चिन्तित और अचिन्तित दोनों प्रकारके अर्थमें विद्यमान ज्ञानको विषय करनेवाली यह संज्ञा है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । अवधिज्ञानके समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि यह इन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न होता। शंका - महाविषयकाले अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला मनःपर्ययज्ञान उसके बाद क्यों कहा? * षट्वं. पु. ९, पृ. १२-५३. . ताप्रतावतोऽग्रे ( मन पर्यायाः, विशेषा ) इत्यादिक पाठोऽस्ति कोष्ठकान्तर्गत:1 . अ-आ-काप्रतिषु ' इष्टत्वात्तत्तहि', ताप्रती 'इष्टत्वात् । ततहि ' इति पाठः [ , Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ५, ५, २१. ) पडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरू वणा मणपज्जयणाणं पच्छा किनिदि वुच्चदे? सच्चं अप्पमेवेदं मणपज्जयणाणमोहिणाणादो। किंतु संजमणिबंधणं चेव जेण मणपज्जयणाणं तेण कारणदुवारेण ओहिणणादो मण. पज्जयणाणं महल्लमिदि जाणावणठें पच्छा णिहिस्सदे। एक्स्स गाणस्स कम्मं तं मणपज्जयणाणावरणीयं । अप्पटुसणिहाणमेत्तेणुप्पज्जमाणं तिकालगोयरासेसदव्व-पज्जयविसयं करणक्कम व्ववहाणादीदं सयलपमेएण अलद्धत्थाहं पच्चक्खं विणासविवज्जियं केवलणाणं णाम । एक्स्स आवारयं जं कम्मं तं केवलणाणावरणीयं णाम । जीवो कि पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहाओ ति ? ण ताव पंचणाणसहावो सहावट्ठाणलक्खण विरोहा पडिगहियाणं एक्कम्मि जीवदव्वे पंचण्णं जाणाणमक्कमेणल उत्तविरोहादो। ण च केवलणाणसहावो, आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो वच्चदे- जीवो केवलणाण-- समाझान- यह कहना सही है कि अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान नियमसे अल्प है, किन्तु यह मन:पर्ययज्ञान यत: संयमके निमित्तसे ही उत्पन्न होता है इसलिये कारण द्वारा अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान महान है, यह बतलाने के लिये इसका अवधिज्ञानके बाद निर्देश किया है। इस ज्ञानका जो आवरण कर्म है वह मनःपर्ययज्ञानावरणीय है । विशेषार्थ- इस कथनसे मनःपर्ययज्ञान के विषयपर स्पष्ट प्रकाश पडता है। मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञानके समान सीधे तौरसे पदार्थोंको नहीं जानता, किन्तु वह मनकी पर्यायों द्वारा ही रूपी पदार्थों को जानता है । यह ठीक है कि जो पदार्थ मनके विषय हो गये हैं उन्हे तो वह अपनी मर्यादाके अनुसार जानता ही है । किन्तु जो अभी विषय नहीं हुए हैं या जो अर्धचिन्तित हैं वे आगे चलकर चूंकि मनके विषय होंगे, इसलिये उन्हें भी यह ज्ञान जानता है । मनःपर्ययका लक्षण कहते समय मनकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंको मनःपर्ययज्ञान जानता है, ऐसा लक्षण कहा है। इसलिये यह शंका उठाई गई है कि ज्ञान केवल विशेषोकों नहीं जानता, किन्तु सामान्य विशेषात्मक पदार्थों को ही जानता है । फिर यहां मनःपर्ययज्ञान मनके विशेषोंको जानता है। ऐसा क्यों कहा । इसका समाधान मूलमें किया ही है। जो आत्मा और अर्थक संनिधान मात्रसे उत्पन्न होता है, जो त्रिकाल गोचर समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय करता है; जो करण, क्रम और व्यवधानसे रहित हैं; सकल प्रमेयोंके द्वारा जिसकी थाह नहीं पाई जा सकगी, जो प्रत्यक्ष है और विनाशरहित है वह केवलज्ञान है । इसका आवारक जो कर्म हैं वह केवलज्ञानावरणीय कर्म है । शंका- जीव क्या पांच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है? पांच ज्ञान स्वभाववाला तो हो नहीं सकता, क्योंकि ऐसा माननेपर सहावस्थान लक्षण विरोध होनेसे एक जीव द्रव्यमें स्वीकार किये पांच ज्ञानोंका युगपत् अस्तित्व मानने में विरोध आता है । वह केवलज्ञान स्वभाववाला भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर शेष आवरणीय ज्ञानोंका अभाव हो जानेसे उनको आवरण करनेवाले शेष आवरण कर्मोंका अभाव प्राप्त होता हैं ? काप्रती - मकम्मेण -' इति पाठ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २१. सहावो चव । ण च सेसावरणाणमावरणिज्जाभावेण अभावो, केवलणाणावरणीएण आवरिदस्स वि केवलणाणस्स रूविदव्वाणं पच्चक्खग्गहणक्खमाणमवयवाणं संभव-- दसणादो। ते च जीवादो णिप्फिडिदणाणकिरणा पच्चक्ख-परोक्खभेएण दुविधा होति । तत्थ जो पच्चक्खो भागो सो दुविहो. संजमपच्चओ सम्मत्त-संजम भवपच्चओ चेदि । तत्थ संजमपच्चओ मगपज्जयणाणं णाम । अवरो वि ओहिणाणं । तत्थ जो सो परोक्खो सो दुविहो- इंदियणिबंधणो इवियजणिदणाणणिबंधणो चेदि । तत्थ इंदियजो भागो मदिणाणं णाम । अवरो वि सुदणाणं एदेसि चदुष्णं गाणाणं जमावारयं कम्मं तं मदिणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जयणाणावरणीयं च भण्णदे । तदो केवलणाणसहावे जीवे संते वि णाणावरणीयपंचयभावो त्ति सिद्धं ।। केवलणाणावरणीयं कि सव्वघादी आहो देसधादी। ताव तव्वघादी, केवलणाणस्स णिस्सेसाभावे संते जीवाभावप्पसंगादो आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो वा ण च देसघादी* केवलणाण केवलदसणावरणीयपयडीओ सव्वघावियाओ त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। एस्थ परिहारोण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादी, किंतु समाधान- यहां उक्त शंकाका समाधान करते हैं। जीव केवलज्ञान स्वभाववाला ही है। फिर भी एसा माननेपर आवरणीय शेष ज्ञानोंका अभाव होनेसे उनके आवरण कर्मोंका अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानावरणीयके द्वारा आवृत हुए भी केवलज्ञातके रूपी द्रव्योंको प्रत्यक्ष ग्रहण करने में समर्थ कुछ अवयवोंकी सम्भावना देखी जाती है और वे जीवसे निकले हुए ज्ञानकिरण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमें जो प्रत्यक्ष भाग है वह दो प्रकारका है- संयमप्रत्यय और सम्यक्त्व, संयम तथा भवप्रत्यय । उनमें संयमप्रत्यय मन:पर्ययज्ञान है और दूसरा अवधिज्ञान है । तथा उसमें जो परोक्ष भाग है वह भी दो प्रकारका हैइन्द्रियनिबन्धन और इन्द्रियजन्य-ज्ञान- निबन्धन । उनमें इन्द्रियजन्य भाग मतिज्ञान है और दूसरा श्रुतज्ञान है। इन चार ज्ञानोंके जो आवारक कर्म हैं वे मतिज्ञानावरणीय. श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म कहे जाते हैं। इसलिये केवलज्ञानस्वभाव जीवके रहनेपर भी ज्ञानावरणीयके पांच भेद हैं, यह सिद्ध होता है । शंका- केवलज्ञानावरणीय कर्म क्या सर्वघाति है या देशघाति है ? सर्वघाति तो हो नहीं सकता, क्योंकि केवलज्ञानका निःशेष अभाव मान लेनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है । अथवा आवरणीय ज्ञानोंका अभाव होनेपर शेष आवरणोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म देशधाति भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म सर्वघाति हैं' इस सूत्रके साथ विरोध आता है ? समाधान- यहां समाधान करते हैं । केवलज्ञानावरणीय देशधाति तो नहीं है, किन्तु 8 अप्रतो' णिप्पिडिद-, आ.का-ताप्रतिष ' णिप्पिडिद- ' इति पाठः 18का-ताप्रत्यो — विसुद्धणाणं. इति पाठ: 1 काप्रती ' आधादेसधादी', ताप्रती 'आधा (हो) देसघादी' इति पाठः । ताप्रती 'ण देसघादी ' इति पाठः। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २१. ) पयडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरूवणा ( २१५ सव्वघादी चेव; णिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाण आवरिदे वि चदुण्णं णाणाणं सतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं । कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो ? ण, छारच्छण्णगीदो बप्फुरप्पत्तीए इव सव्वधादिणा आवरणेग आवरिदकेवलगाणादो चदुण्णं णाणागमुप्पतीए विरोहाभावादो । एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति, विगलाणं परोक्खाणं सक्खयाणं सवड्ढीण* सगल-पच्चक्ख क्खय-वडिहाणिविवज्जिदकेवलणाणस्स अवयरत्तविरोहादो । पुव्वं केवलणाणस्स चत्तारि वि णाणाणि अवयवा इदि उत्तं, तं कधं घउदे ? ण, णाणसामण्णमवेक्खिय तदवयवत्तं पडि विरोहामावादो। संपहि णाणावरणीयउत्तरपयडिपरूवणं काऊग उत्तरोत्तरपयडिपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि सर्वघाति ही है; क्योंकि, वह केवलज्ञानका निःशेष आवरण करता है । फिर भी जीवका अभाव नहीं होता, क्योंकि, केवलज्ञानके आवृत्त होनेपर भी चार ज्ञानोंका अस्तित्व उपलब्ध होता है । __ शंका- जीवमें एक केवलज्ञान है । उसे जब पूर्णतया आवृत्त कहते हो, तब फिर चार ज्ञानोंका सद्भाव कैसे सम्भव हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार सर्वघाति आवरणके द्वारा केवलज्ञानके आवृत्त होनेपर भी उससे चार ज्ञानोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका- ये चारों ही ज्ञान केवलज्ञानके अवयव नहीं हैं, क्योंकि ये विकल हैं परोक्ष हैं, क्षयसहित है, और वृद्धि-हानियुक्त हैं । अतएव इन्हें सकल, प्रत्यक्ष तथा क्षय और वृद्धि-हानिसे रहित केवलज्ञानके अवयव मानने में विरोध आता है। इसलिए जो पहले केवलज्ञानके चारों ही ज्ञान अवयव कहे हैं, वह कहना कैसे बन सकता है ? ___ समाधान- नहीं, क्योंकि, ज्ञानसामान्यको देखते हुए चार ज्ञानोंको उसके अवयव मानने में कोई विरोध नहीं आता। विशेषार्थ- ज्ञानके पांच भेद और उनके पांच आवरण कर्म कैसे प्राप्त होते हैं इस प्रश्नका वीरसेन स्वामीने बडी ही युक्तिपूर्वक समर्थन किया है । वास्तवमें ज्ञान एक हैं, इसलिये उसकी एक ही पर्याय प्रकट हो सकती है; उपकी एक साथ पांच अवस्थायें मानना युक्तियुक्त नहीं । यह प्रश्न है जिसका समाधान यहां वीरसेन स्वामीने किया है । उ कथनसे स्पष्ट है कि एक काल में ज्ञानकी एक ही पर्याय प्रकट होतो है। उसके पांच भेद निमित्तभेदसे किये गये है । अन्तमें एक ही ज्ञानपर्याय शेष रहती है, इससे भी यही द्योतित होता है। ज्ञानावरणीयकी उत्तर प्रकृतियोंका कथन करके अब उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं काप्रती ' तं भ णिस्सेस-', ताप्रती ' तं णिस्सेस-' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु ' वप्पु' इति पाठ:*का-ताप्रत्योः 'सम्वड्ढीणं' इति पाठ: अप्रती 'पच्चक्खय', काप्रती 'पच्चक्खवक्खय'इति पाठः। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, २२ जं तमाभिणिबोहियणाणावरणीयं णाम कम्मं तं चउन्विहं वा चउवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसविविधं वा णादवाणि भवंति ॥ २२ ॥ 'जं तं आभिणिबोहियणाणावरणीयं कम्मं तं चउव्विहं वा' इच्चेवमादिसु सुत्तावयवेसु पुत्वमेगवयणणिद्देसं काऊण पुणो0 पच्छा ‘णादव्वाणि भवंति' त्ति बहुवयणणिद्देसो ण घडदे, समाणाहियरणाभावादो? ण, दम्वट्टियणयमरलंबिय एयत्तमुवगयस्स कम्मस्स पज्जवट्टियणयावलंबणेण चउविहादिभेदमुवगयस्स बहुत्तं पडि विरोहाभावादो । चउविहादिभेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि - चउन्विहं ताव ओग्गहावरणीयं ईहावरणीयं अवायावरणीयं धारणावरणीयं चेदि ॥ २३ ।। ___ तत्थ जं तं चउव्विहमाभिणिबोहियणाणावरणीयं तस्स ताव अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा- विषय-विषयिसंपातसमनन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । रसादयोऽर्थाः विषयः, षडपोन्द्रियाणि विषयिणः, ज्ञानोत्पत्तः, पूर्वावस्था विषय-विषयिसंपातः ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्युपलक्षितः अन्तर्मुहर्तकालः दर्शनव्यप - आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म चार प्रकारका, चौबीस प्रकारका, अट्ठाईस प्रकारका और बत्तीस प्रकारका जानना चाहिये ॥ २२ ॥ __ शंका- 'जं तं आभिणिबोहियणाणावरणीयं कम्मं तं चउविहं वा' इत्यादि सूत्रके अवयवोंमें पहले एकवचनका निर्देश करके पश्चात् ‘णादव्वाणि भवति ' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश करना घटित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों वचनोंमें समान अधिकरणका अभाव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुआ कर्म पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा चार भेद आदि अनेक भेदोंको प्राप्त है । इसलिये उसे बहुत माननेमें कोई विरोध नहीं आता। ____ अब चतुर्विध आदि भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं चार भेद यथा- अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय ।। २३ ॥ पहले जो चार प्रकारका आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म कहा है उसके अर्थका कथन करते हैं । यथा - विषय और विषयीका सम्पात होनेके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। रस आदिक अर्थ विषय हैं, छहों इन्द्रियां विषयी हैं, ज्ञानोत्पत्तिकी पूर्वावस्था विषय व विषयीका संपात (संबन्ध) है जो दर्शन नामसे कहा जाता है । यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके करणभूत परिणामविशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहुर्त काल स्थायी है। इसके बाद जो वस्तुका प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा-चक्षुके द्वारा 8 प्रतिषु ‘मणो ' इति पाठः । षट्ख. पु. १, पृ ३५४. पु. ९, पृ. १४४. - Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २३. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणावरणपरूवणा (२१७ दवभाक् तदनन्तरमाद्यं वस्तुग्रहणमवग्रहः, यथा चक्षुषा घटोऽयं पटोऽयमिति । यत्र घटादिना विना रूपदिशाकारादिविशिष्टं वस्तुमात्रं परिच्छिद्यते ज्ञानेन अनध्यवसायरूपेण तत्राप्यवग्रह एव, अनवगृहीतेऽर्थे ईहाद्यनुत्पत्तः। एवं शेषेन्द्रियाणामप्यवग्रहो वक्तव्यः । एतस्य अवग्रहस्य यदावारकं कर्म तदवग्रहावरणीयम् । अवगृहीते अर्थे तद्विशेषाकांक्षणमीहा । एषा अनध्यवसायस्वरूपावग्रहजनितसंशयपृ. ष्ठभविनी, शक्लरूप कि बलाका पताकेति संशयानस्न ईहात्पत्तः । न चाविशदावनहपृष्ठभाविन्येव ईहेति नियमः, विशदावग्रहेण पुरुषोऽयमिति अवगृहीतेऽपि वस्तुनि किमयं दाक्षिणात्यः किमुदीच्य इति संशयानस्य ईहाप्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् । संशयप्रत्ययः क्वान्तःपतेत् ? ईहायाम् । कुतः? ईहाहेतुत्वात् । तदपि कुतः? कारणे कार्योपचारात् । वस्तुतः पुनरवग्रह एव । का ईहा नाम? संशयाध्वैमवायावधस्तात्. मध्यावस्थायां वर्तमानः विमर्शात्मकः प्रत्ययः हेत्ववष्टम्भबलेन समुत्पद्यमानः ईहेति भण्यते। नानुमानमोहा, तस्य अनवगृहीतार्थविषयत्वात् । न च अवगृहीतानवगृहीतार्थविषययोः 'यह घट है, यह पट है ' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहां घटादिके विना रूप, दिशा और आकार आदि विशिष्ट वस्तुमात्र ज्ञानके द्वारा अनवध्यवसाय रूपसे जानी जाती है वहां भी अवग्रह ही है, क्योंकि अनवगृहीत अर्थ में ईहादि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसी तरह शेष इन्द्रियोंका भी अवग्रह करना चाहिये। इस अवग्रहका जो आवारक कर्म है वह अवग्रहावरणीय कर्म है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषके जाननेकी इच्छा होना ईहा है । यह अनध्यवसायस्वरूप अवग्रहसे उत्पन्न हुए संशयके पीछे होती है, क्योंकि शुक्ल रूप क्या बलाका है या पताका है. इस प्रकार संशयको प्राप्त हर जीवके ईहाकी उत्पत्ति होती है। अविशद अवग्रहके पीछे होनेवाली ही ईहा है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है; क्योंकि, विशद अवग्रहके द्वारा ' यह पुरुष है' इस प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी ' क्या यह दक्षिणात्य हैं याउदीच्य हैं', इस प्रकारके संशयको प्राप्त हुए मनुप्यके भी ईहाज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है । शंका - संशय प्रत्ययका अन्तर्भाव किस ज्ञानमें होता है ? समाधान - ईहामें, क्योंकि वह ईहाका कारण है। शंका - यह भी क्यों ? समाधान - क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार होनेसे। वस्तुतः वह संशय प्रत्यय अवग्रह ही है। शंका - ईहाका क्या स्वरूप है ? समाधान - संशयके बाद और अवायके पहले बीचकी अवस्थामें विद्यमान तथा हेतुके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्ययको ईहा कहते हैं। ईहा अनुमानज्ञान नहीं है, क्योंकि अनुमानज्ञान अनवगृहीत अर्थको विषय करता है। और अवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले ईहाज्ञान तथा अनवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले अनुमानको 4 अ-आप्रत्योः '-मवायाधारात्,' काप्रती '-मवायाधारात् ', तांप्रतो '- मवायाधा (दा) रात् इति पाठः। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २३. स्तद्विरोधात् । किं च-नानयोरेकत्वम, स्वविषयादभिन्न-भिन्नलिंगजनितयोरेकत्वविरोधात्। न च संशयज्ञानवत् वस्त्वपरिच्छेदकत्वादीहाज्ञानमप्रमाणम् गृहीतवस्तुन ईहाज्ञानस्य दाक्षिणात्योदीच्यविषलिंगावगन्तुस्तदसम्भवतोऽप्रमाणत्वविरोधात्। न चावि. शदावग्रहपृष्ठभाविनी ईहा अप्रमाणम्, वस्तु विशेष परिच्छित्तिनिमित्तभूतायाः परिच्छिन्नतदेकदेशायाः संशयविपर्ययज्ञानाभ्यां व्यतिरिक्तायाः अप्रमाणत्वविरोधात्। अनध्यवसायरूपत्वादप्रमाणमिति* चेत-न, संशयच्छेदनस्वभावायाः अध्यवसितशुक्लादिविशिष्टवस्तुसामान्याया त्रिभुवनगतवस्तुभ्यः शौकल्यमाकृष्य एकस्विन् वस्तुति प्रतिष्ठापयिषोरप्रमाणत्वविरोधात् । एतस्याः आवारकं कर्म ईहावरणीयम् । स्वगतलिंगविज्ञानात् संशयनिराकरणद्वारेणोत्पन्ननिर्णयोऽवायः। यथा उत्पतन पक्षविक्षेपादिभिर्बलाकापंक्तिरेवेयं न पताकेति, वचनश्रवणतो दाक्षिणात्य एवाय नोदोच्य इति रा । एतस्य आवारकं यत् कर्म तदवायावरणीयम् । अवेतस्य कालान्तरे अविस्मरणएक मानना ठीक नहीं हैं, क्योंकि, भिन्न अधिकरणवाले होनेसे इन्हें एक मानने में विरोध आता है । इनके एक होने का यह भी एक कारण है कि ईहाज्ञान अपने विषयसे अभिन्नरूपलिंगसे उत्पन्न होता है और अनुमानज्ञान अपने विषयसे भिन्नरूप लिंगसे उत्पन्न होता है, इसलिये एक मानने में विरोध आता है । संशयज्ञानके समान वस्तुका परिच्छेदक नहीं होनेसे ईहाज्ञान अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ईहाज्ञान वस्तुको ग्रहण करके प्रवृत्त होता है और दाक्षिणात्य व उदीच्य विषयक लिंगका उसमें ज्ञान रहता है; इसलिये उसमें अप्रमाणता सम्भव न होने के कारण उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है । अविशद अवग्रहके बाद होनेवाली ईहा अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि वह वस्तुविशेषकी परिच्छित्तिका कारण है और वह वस्तुके एकदेशको जान चुकी है तथा वह संशय और विपर्यय ज्ञानसे भिन्न है । अतः उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है । वह अनध्यवसायरूप होनेसे अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि संशयका छेदन करना उसका स्वभाव है, शुक्लादि विशिष्ट वस्तुको सामान्यरूपसे वह जान लेती तथा त्रिभुवनगत वस्तुओंमेंसे शुक्लताको ग्रहण कर एक वस्तुमें प्रतिष्ठित करनेकी वह इच्छुक है; इसलिये उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। इसका आवारक क ईहावरणीय कर्म है। स्वगत लिंगका ठीक तरहसे ज्ञान हो जानेके कारण संशय ज्ञानके निराकरण द्वारा उत्पन्न हुआ निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है । यथा- ऊपर उडना व पंखोंको हिलाना-डुलाना आदि चिन्होंके द्वारा यह जान लेना कि यह बलाकापंक्ति ही है, पताका नहीं है । या वचनोंके सुननेसे ऐसा जान लेना कि यह पुरुष दाक्षिणात्य ही है, उदीच्य नहीं है : यह अवायज्ञान है । इसका आवारक जो कर्म हैं वह अवायावरणीय कर्म है। अवायके द्वारा जाने हुए पदार्थके कालान्तरमें विस्मरण नहीं होनेका कारणभूत ज्ञान धारणा है। * प्रतिषु — गंतु तदसंभवतो ' इति पाठः । ॐ ताप्रती 'ईहा, अप्रमाणवस्तु' इति पाठः[ * प्रतिषु 'रूपत्वात्प्रमाणमिति इति पाठः अ-आ-काप्रतिष ' प्रतितिष्ठापयिषो- ' इति पाठः। ताप्रती 'वचनश्रवणत:, दाक्षिणात्य ' इति पाठः । . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २४. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिवोहियणाणावरणपरूवणा ( २१९ कारणं ज्ञानं धारणा, यथा सैवेयं बलाका पूर्वाण्हे यामहमद्राक्षं इति । एतस्यावारकं* कर्म धारणावरणीयम् । न च फलज्ञानत्वादीहादीनामप्रामाण्यम्, दर्शनफलस्य अवग्रहस्याप्यप्रामाण्यप्रसंगात् सर्वस्य विज्ञानस्य कार्यरूपस्यैवोपलम्भात् । न गृहीतग्राहिस्वादप्रामाण्यम्, सर्वात्मना अगृहीतग्राहिणो बोधस्यानुपलम्मात् । न च गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम्, संशय-विपर्ययानध्यवसायजातेरेव अप्रमाणत्वोपलम्भात् । जं तं ओग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं वविहं अत्थोग्गहावरणीयं चेव वंजणोग्गहावरणीयं चेव ॥ २४ ॥ यथा- यह ज्ञान होना कि वही यह बलाका है जिसे प्रातःकाल हमने देखा था, धारणा है। इसका आवारक कर्म धारणावरणीय कर्म है । फलज्ञान होनेसे ईहादिक ज्ञान अप्रमाण हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अवग्रहज्ञानके भी दर्शनका फल होनेसे अप्रमाणताका प्रसंग आता है। दूसरे सभी ज्ञान कार्यरूप ही उपलब्ध होते हैं, इसलिये भी ईहादिक ज्ञान अप्रमाण नही हैं । ईहादिक ज्ञान गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वात्मना अगृहीत अर्थको ग्रहण करनेवाला कोई भी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। दूसरे गृहीत अर्थको ग्रहण करना यह अप्रमाणका कारण भी नहीं है; क्योंकि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूपसे जायमान ज्ञानोंमें ही अप्रमाणता देखी जाती है । विशेषार्थ - यहां दर्शन, अवग्रह और ईहाके स्वरूपपर विशद प्रकाश डाला गया है । इससे कई प्रश्नोंका समाधान हो जाता है । पहले दर्शन होता है । दर्शन क्या है, इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि पदार्थको जाननेकी भीतर जो अन्तर्मुखी प्रवृत्ति होती है और जिसम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है वह दर्शन है । दर्शन और ज्ञानकी कार्यमर्यादाके विषयमें विवाद है। पदार्थके आकार आदिको न ग्रहण कर 'है' इस रूपसे जो सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शन है और आकार आदिके साथ जो ग्रहण होता है वह ज्ञान है । दर्शन और ज्ञानकी एक ऐसी व्याख्या की जाती है. किन्तु वीरसेन स्वामी इस व्याख्यासे सहमत नहीं है। वीरसेन स्वामी आत्मप्रत्ययको दर्शन और परप्रत्ययको ज्ञान कहते हैं । इसी आधारसे उन्होंने दर्शनकी उक्त व्याख्या की है । अनन्तर विषय-विषयीका सम्पात होनेपर अवग्रहज्ञान होता है । पदार्थका चाहें विशद ग्रहण हो चाहे अविशद ग्रहण हो, जो प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यह कहीं कहीं अनध्यवसायरूप होता है और कहीं कहीं रूप आदि विशेषके परिज्ञानके साथ होता है । इसके बाद संशय हो सकता है, पर इस संशय ज्ञानका अवग्रहज्ञान में ही अन्तर्भाव होता है। यहां वीरसेन स्वामी अनध्यवसाय और संशय दोनोंको अवग्रह रूप मानते है । ____ अवग्रहावरणीय कर्म दो प्रकारका है- अर्थावग्रहावरणीय और व्यन्जनावग्रहा. वरणीय ॥२४॥ * ताप्रतो ' एतस्या आवारकं ' इति पाठः । ॐ अ-आ-काप्रतिषु · कार्य रूपस्यैवोप-' ताप्रती 'कार्य, रूपस्यैवीप-' इति पाठः। से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते 1 तं जहा- अत्थुग्गहे अ वंजणुग्गहे अ 1 नं. सू. २८. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५,५, २४. कोsर्थावग्रहः ? अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः । को व्यंजनावग्रहः ? प्राप्तार्थग्रहण व्यंजनावग्रहः । न स्पष्टग्रहणमर्थावग्रहः, अस्पष्टग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । भवतु चेत्-न, चक्षुष्यप्य स्पष्टग्रहणदर्शनतो व्यंजनावग्रहस्य सत्यप्रसंगात् । न चैवम्, 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ' इति तत्र तस्य प्रतिषेधात् । नाशुग्रहणमर्थावग्रहः, शनैर्ग्रहणस्य व्यंजनावग्रहत्वप्रसंगात् । न चैवम्, शनैर्ग्राहिणश्चक्षुषोऽपि व्यंजनावग्रहप्रसंगात्, क्षिप्राक्षिप्रविशेषणाभ्यां विना षट्त्रिंशत् - त्रिशतभंगानुत्पत्तेश्च । मनश्चक्षुर्भ्यां व्यतिरिक्तेविद्रियेष्वप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति चेत्-न, धवस्य अप्राप्तनिधिग्राहिण उपलम्भात्' अलाबूवल्यादीनामप्राप्तवृत्तिवृक्षादिग्रहणोपलम्भात् । अर्थावग्रहस्य यदावारकं कर्म तदर्थावग्रहावरणीयम् । व्यंजनावग्रहस्य यदावारकं तद् व्यंजनावग्रहावरणीयम् । जं तं अत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं थप्पं ॥ २५ ॥ शंका- अर्थावग्रह क्या है ? समाधान- अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है । शंका- व्यंजनावग्रह क्या है ? समाधान- प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह है । स्पष्ट ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर अस्पष्ट ग्रहण के व्यंजनावग्रह होनेका प्रसंग आता है । शंका- ऐसा हो जाओ ? समाधान- नहीं, क्योंकि, चक्षुसे भी अस्पष्ट ग्रहण देखा जाता है, इसलिये उसे व्यंजनावग्रह होने का प्रसंग आता है । पर एसा है नहीं, क्योंकि, ' चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता' इस सूत्र में उसका निषेध किया है । आशु ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेपर धीरे धीरे ग्रहण होनेको व्यंजनावग्रहत्वका प्रसंग आता है । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेवर धीरे धीरे ग्रहण करनेवाला चाक्षुष अवग्रह भी व्यंजनावग्रह हो जायगा । तथा क्षिप्र और अक्षिप्र ये विशेषण यदि दोनों अवग्रहों को नहा दिये जाते हैं तो मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद नहीं बन सकते हैं । शंका- मन और चक्षुके सिवा शेष चार इन्द्रियोंके द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना नहीं उपलब्ध होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधिको ग्रहण करता हुआ देखा जाता है और तूंबडीकी लता आदि अप्राप्त बाडी व वृक्ष आदिको ग्रहण करती हुई देखी जाती हैं ! इससे शेष चार इन्द्रियां भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध होता है । अर्थावग्रहका जो आवारक कर्म है वह अर्थावग्रहावरणीय कर्म है और व्यंजनावग्रहका जो आवारक कर्म है वह व्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है । जो अर्थावग्रहावरणीय कर्म है उसे स्थगित करते हैं ।। २५ । अ आ-काप्रतिषु 'भंगानुत्पत्तेश्चक्षुर्भ्यां ' इति पाठ: । तसू १-१९ 'आलावू ' इति पाठः । ताप्रतौ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २६.) पयडिअणुओगद्दारे अभिणिबोहियणाणावरणपरूवणा ( २२१ कुतः ? तस्य पश्चाद् वर्ण्यमानत्वात् । जं तं वंजणोग्गहावरणीयं जाम कम्मं तं चउन्विहं- सोदिदियवंजणोग्गहावरणीयं घाणिवियवंजणोग्गहावरणीयं जिभिदियवंजगोग्गहावरणीयं फासिदियवंजणोग्गहावरणीयं चेव ॥ २६ ॥ __एत्थ सोदिदियस्स विसओ सहो। सो छविहो तद-विदद-घणसुसिर-घोस-भास भेएण। तत्थ तदो जाम वीणा-तिसरि-आलावणि-वव्वीसखुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरी-मुदिंग-पटहाविसमुन्भदो। घणो णाम जयघंटादिघणदव्वाणं संघादुट्ठाविदो। सुसिरो नाम वंस-संख-काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाणदव्वजणिदो। भासा दुविहा-अक्खरगया अणक्खरगया चेदि । तत्थ अणक्खरगया बोइंदियपहडि जाव असण्णिपंचिदियाणं मुहसमुभूदा बालमअसण्णिचिदियभासा च*। तत्थ अक्खरगया अणुवघादिदिय---- क्योंकि, उसका आगे वर्णन करेंगे। जो व्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है वह चार प्रकारका है- श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय, जिह वेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय और स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय ।। २५ ।। यहां श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है । वह छह प्रकारका है- तत, वितत, धन, सुषिर, घोष और भाषा। वीणा, त्रिसरिक, आलापिनी वव्वीसक और खुक्खुण आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द तत है। भेरी, मृदङ्ग और पटह आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द वितत हैं। जयघण्टा आदि ठोस द्रव्योंके अभिघातसे उत्पन्न हुआ शब्द घन है। वंश, शंख और काहल आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द सुषिर है। घर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यसे उत्पन्न हुआ शब्द घोष है। भाषा दो प्रकारकी है- अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके मुखसे उत्पन्न हुई भाषा तथा बालक और मूक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी भाषा भी अनक्षरात्मक भाषा है। उपघातसे रहित से कि त वंजणुग्गहे ? वंजणग्गहे चउविहे पण्णत्ते ] तं जहा- सोइंदियवंजणुग्गहे घाणिदियवंजणग्गहे जिभिदियवजणग्गहे फासिदिअवंजणग्गहे 1 से तं वंजणग्गहे 1 नं. सू. २९. अ-आ-ताप्रतिषु 'आलावणिव्वविस', काप्रती आलावणिवव्विस-' इति पाठ: 1 वव्वीस-वंस-तिसरिय-वीणा ...11 पउम तत्र चर्मतनननिमित्तः पूष्कर-भेरी-दर्द रादिप्रभवस्ततः 1 स. सि. ५-२४ तत्र चर्मतननासत: पुष्कर-भेरी-दर्दुरादिप्रभवः । त. रा. ५. २४, ६. ततं तंत्रीगतं तेषामनबद्धं हि पौष्करम् 1 धनं तालस्ततो वंशस्तथैव सुषिराख्यया | ह. पु. १९-१४३. ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । धन तु कंसतालादि सुषिर वंशादिकं विदुः ॥ पंचा. ( तात्पर्यवृत्तावद्धतम् ) ७९. ततं वीणादिकं वाद्यमानद्ध मुरजादिकम् । वंशादिकं तु शुषिरं कांस्यतालादिकं घनम् ।। चतुर्विधमिदं वाद्यवादित्रातोद्यनामकम् । अमर (नाटयवर्ग: ) ४-५. ४ तंत्रीकृतवीणा-सूघोषादिसमद्भवो विततः 1 स. सि ५-२४. त. रा. ५, २४, ६. * तालघंटालालनाद्यभिघातजो घन: 1 स. सि. ५-२४. त. रा. ५, २४, ६. * वंश-शंखादिनिमित्तः सौषिरः। स. सि. ५-२४ त. रा. ५, २४, ६. . अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनामतिशयज्ञानस्वरूपप्रतिपादनहेतुः । स. सि. ५, २४. त. रा. ५, २४, ३. अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च | पंचा. ( ता. व. ) ७९. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २६. सण्णिचिदियपज्जत्तभासा*। सा विहा-भासा कुभासा चेदि । तत्थ कुभासाओ कीर पारसिय-सिंधल-ववरियादीणं विणिग्गयाओ सत्तसयभेदभिण्णाओ। भासाओ पुण अट्ठारस हवंति तिकुरुक-तिलाढ-तिमरहट्ठ-तिमालव-तिगउड-तिमागधभासभेदेण । एत्थ उवउज्जंतीगाहा तद विददो घण सुसिरो घोसो भासा त्ति छविहो सहो ।। ____सो पुण सद्दो तिविहो संतो घोरो य मोघो य* ॥१॥ एदेसि सोदिदियविसयाणं सहाणं सोदिदियस्स य संजोगादो जं पढममुप्पण्णं णाणपुट्ठ-पविट्ठोगाढअंगांगिभावगदसविसयं सो सोदिदियवंजणोग्गहो णाम । अण्णत्थुप्पण्णाणं छव्विहाणं पि सहाणं कण्णछिद्देसु पविसिय सोदिदियभावेण खओवसमं गवजीवपदेसेसु संबद्धाणं जं गहणं सो सोदिदियवंजणोग्गहो ति भणिदं होदि । सद्द-पोग्गला सगुप्पत्तिपदेसादो उच्छलिय दसदिसासु गच्छमाणा उक्कस्सेण जाव लोगंतं ताव गच्छति । कुदो एदं जव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । ते कि सव्वे सद्द-पोग्गला लोगंतं गच्छंति आहो ण सवे इदि पुच्छिदे सव्वे ण गच्छंति, थोवा चेव इन्द्रियोंवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी भाषा अक्षरात्मक भाषा है । वह दो प्रकारकी हैंभाषा और कुभाषा। उनमें कुभाषायें काश्मीर देशवासी, पारसीक, सिंहल और वर्वरिक आदि जनोंके (मुखसे) निकली हुई सात सौ भेदोंमें विभक्त हैं। परन्तु भाषायें तीन कुरुक भाषाओं, तीन लाढ भाषाओं, तीन मरहठा भाषाओं, तीन मालव भाषाओं, तीन गौड भाषाओं, और तीन मागध भाषाओंके भेदसे अठारह होती है । यहां उपयुक्त गाथा शब्द छह प्रकारका है- तत, वितत, धन, सुषिर, घोष और भाषा । पुनः वह शब्द तीन प्रकारका है- प्रशस्त, घोर और मोघ ।। १ ।। श्रोत्र इन्द्रियके विषयभत इन शब्दों और श्रोत्र इन्द्रियके संयोगसे स्पृष्ट, प्रविष्ट और अवगाढ रूप अंगांगिभावको प्राप्त हुए शब्दको विषय करनेवाला जो सर्वप्रथम ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह है । जो छहों प्रकारके शब्द अन्यत्र उत्पन्न हुए हैं और जो कर्णप्रदेशोंमें प्रवेश करके श्रोत्रेन्द्रियभावरूपसे क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशोंसे सम्बद्ध हैं उनका जो ग्रहण होता है वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शब्दपुद्गल अपने उत्पत्तिप्रदेशसे उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते हैं। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह सूत्रके अविरुद्ध व्याख्यान करनेवाले आचार्यों के वचनसे जाना जाता है । शंका- क्या वे सब शब्द-पुद्गल लोकके अन्त तक जाते हैं या सब नहीं जाते ? समाधान- सब नहीं जाते हैं, थोडे ही जाते हैं । यथा - शब्द पर्यायसे परिणत हुए * अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यंजकः संस्कृत-प्राकृतविपरीतभेदादार्य-म्लेच्छव्यवहारहेतुः . स. सि. ५-२४. त. रा. ५, २४, ३. अक्षरात्मकः संस्कृत-प्राकृतादिरूपेणार्थ-म्लेच्छभाषाहेतु 1 पंचा. ( ता. व. ) ७९. ताप्रती 'किर ' इति पाठ:1 प्रतिष' तिकूदुकतिलाद' इति पाठः । ४ प्रतिष घणसहो 'इति पाठः। काप्रती ' धोरो य मोघो य', तांप्रतो घोरो य मूढो य ' इति पाठः। ॐ काप्रती 'घड ' ताप्रती 'घट्ट ' इति पाठः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २६. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणावरणपरूवणा ( २२३ गच्छति । तं जहा-सद्दपज्जएण परिणदपदेसे अणंता पोग्गला अवट्ठाणं कुणंति । बिदियागासपदेसे तत्तो अणंतगणहीणा । तदियागासपदेसे अणंतगणहीणा । चउत्थागासपदेसे अणंतगुणहीणा । एवमणंतरोवणिधाए अणंतगुणहीणा होदूण गच्छंति जाव सव्वदिसासु वादवलयपेरंतं पत्ता ति। परदो किण्ण गच्छति ? धम्मात्थिकायाभावादोळा ण च सव्वे सद्द-पोग्गला एगसमएण चेव लोगत्तं गच्छंति ति णियमो, केसि पि दोसमए आदि कादूण जहणेण अंतोमुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि त्ति उवदेसादो। एवं समयं पडि सद्दपज्जाएण परिणदपोग्गलाणं गमणावडाणाणं परूवणा कायव्वा । उत्तं च पभवच्चुदस्स भागा वाणं णियमसा अणंता*दु। पढमागासपदेसे बिदियम्मि अणतगुणहीणा*।२। एत्थ गाहाए अत्थो वच्चदे-पभवच्चुदस्स भागा अणंता पढमागासपदेसे अवढाणं कुणंति ति संबंधो कायव्वो। एवमुप्पत्तिपदेसादो आगच्छमाणा पोग्गला जदि समसेडीए आगच्छंति तो मिस्सयं सुणदि। मिस्सयमिदि कि उत्तं होदि? परधादो अपरघादोच दुसंजोगेण प्रदेश में अनन्त पुद्गल अवस्थित रहते हैं। ( उससे लगे हुए) दूसरे आकाशप्रदेशमें उनसे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाशप्रदेशमें उनसे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाशप्रदेशमें उनसे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा वातवलय पर्यन्त सब दिशाओंमें उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशके प्रति अनन्तगुणे हीन होते हुए जाते हैं । शंका - आगे क्यों नहीं जाते ? समाधान - धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे वे वातवलयके आगे नहीं जाते हैं । ये सब शब्द-पुद्गल एक समयमें ही लोकके अन्त तक जाते है, ऐसा कोई नियम नहीं है । किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द-पुद्गल कमसे कम दो समयसे लेकर अन्तर्मुहर्त कालके द्वारा लोकके अन्तको प्राप्त होते हैं । इस तरह प्रत्येक समयमें शब्द पर्यायसे परिणत हुए पुद्गलोंके गमन और अवस्थानका कथन करना चाहिये । कहा भी है उत्पत्तिस्थानमें च्युत हुए पुद्गलोके अनन्त बहुभाग प्रमाण पुद्गल नियमसे प्रथम आकाशप्रदेश में अवस्थान करते हैं । तथा दूसरे आकाशप्रदेश में अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थान करते हैं । २। यहां गाथाका अर्थ कहते है- इस गाथाके पदोंका ‘पभवच्चुदस्स भागा अर्णता पढमागासपदेसे अवट्ठाणं कुणति ' ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये। इस प्रकार उत्पत्तिप्रदेशसे आते हुए पुद्गल यदि समश्रेणि द्वारा आते हैं तो मिश्रको सुनता है । शंका - ‘मिश्र' ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ? वाक्यमिदं नोपलभ्यते तातो. त. सू. १०-८ ताप्रतौ 'णियमसा (दो) अणंता' इति पाठ 10 अ-आ-काप्रतिषु ' अणंतगुणवाणा', ताप्रती 'अणंतगुणवा (ही) णा' इति पाठः 1 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड विवक्खियो मिस्सयं णाम । समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परघादेण अपराधादेण च सुणदि । तं जहा- जदि पराघादो पत्थि तो कंडुज्जुवाए गईए कण्णछिद्द पविट्ठे सह-पोग्गले सुणदि । पराघादे संते वि सुणेदि। कुदो? समसेडोदो परघादेण उस्सेडि गंतूण पुणो पराघादेण समसेडीए कण्णछिद्दे पविट्ठाणं सद्द-पोग्गलाणं सवणुवलंभादो। उस्सेडि गदसह-पोग्गले पुण परघादेणेव सुणेदि, अण्णहा तेसि सवणाणववत्तीदोए । एत्थ अण्णे आइरिया असद्द-पोग्गलेहि सह सुणेदि त्ति मिस्सपदस्सर अत्थं परूवेति । तण्ण घडदे, असह-पोग्गलाणं सोदिदियस्स अविसयाणं सवणाणुववत्तीदो* । असह-पोग्गले ण सुणेदि, सद्द-पोग्गले चेव सुणेदि, किंतु (असद्द पोग्गलसद्दे सुणेदि ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, तस्स अणुत्तसिद्धीदो कुदो? सव्वपोग्गलेहि) सव्वजीवरासीदो अणंतगुणेहि सव्वलोगो आउण्णो त्ति तंतजुत्तिसिद्धीए । उत्तं च भासागदसमसेडि सदं जदि सुणदि मिस्सयं सुणदि । ___ उस्से डिं पुण सदं सुणेदि णियमा पराघादे*।। ३ । एदस्स सोदिदियवंजणोग्गहस्स जमावारयं कम्मं तं सोदिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम। __ समाधान- परघात और अपरघात इस प्रकार द्विसंयोगरूपसे विवक्षित पुद्गलमिश्र कहलाता है। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द-पुद्गलोंको परघात और अपरघात रूपसे सुनता है । यथा- यदि परघात नहीं है तो बाणके समान ऋजु गतिसे कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलोंको सुनता है । परघातके होनेपर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणिसे परघात द्वारा उच्छेणिको प्राप्त होकर पुनः परघात द्वारा समश्रेणिसे कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलोंका श्रवण उपलब्ध होता है । उच्छेणिको प्राप्त हुए शब्द-पुद्गल पुनः परघातके द्वारा ही सुने जाते हैं। अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। यहांपर दूसरे आचार्य अशब्द-पुद्गलोंके साथ सुनता है, ऐसा मिश्रपदका अर्थ कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि अशब्द-पुद्गल श्रोत्रेन्द्रियके विषय नहीं होते; अतः उनका सुनना नहीं बन सकता है । अशब्द-पुद्गलोंको नहीं सुनता है, किन्तु शब्द-पुद्गलोंको ही सुनता है। इसलिये अशब्द शब्दपर्यायसे सहित पुद्गलोंके साथ शब्दपुद्गलोंको सुनता है, ऐसा बोलना ठीक नहीं है; क्योंकि यह विना कहे सिद्ध है । कारण कि सब पुद्गलोंसे जो कि सब जीवराशिसे अनन्तगुणे हैं, सब लोक आपूर्ण है, इस प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध है । कहा भी है - भाषागत समश्रेणिरूप शब्दको यदि सुनता है तो मिश्रको ही सुनता है । और उच्छेणिको प्राप्त हुए शब्दको यदि सुनता है तो नियमसे परघातके द्वारा सुनता है ।। ३ ।। इस श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रहका जो आवारक कम हैं वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय अ-आ-काप्रतिषु ‘सरणाणुववत्तीदो', सुणेदिदो इति पाठ: ताप्रती · सर (व) गाणुववत्तीदो ' इति पाठःकाप्रती 'आइरिया असहपोग्गले ण सुणेदि सहपोग्गले मिस्सपदस्स ' इति पाठः* का-ताप्रत्योः 'समाणाणववत्तीदो ' इति पाठ:1* भासासमसेढीओ सई जं सुणइ मीसियं सुणइ 1 वीसेढी पूण सई सुणेइ णयमा पराघाए 11 नं. सू. गाथा ५. वि. भा. ३५१. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, २७. ) पडिअणुओगद्दारे अत्थोग्गहावरणीयपरूवणा ( २२५ सुगंधो दुग्गंधो च बहुभेयभिण्णो घाणिदियविसओ । तेसु सुगंध दुग्गंध पोग्गलेसु आगंतूण अदिमुत्तय पप्फसंठाणद्विदघाणिदियम्मि पविठेसु जं पढममुप्पज्जदि सुगंधदुग्गंध दम्वविसयविण्णाणं सो घाणिदियवंजणोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मत घाणिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । तित्त-कडुव कसायंविल-महुरदव्वाणि जिभिदियविसओ। तेसु दम्वेसु बउलपत्तसंठाणद्विदजिभिदिएण बद्ध-पुट्ठ-पविट्ठअंगांगिभावगदसंबंधमुवगदेसु जं रसविण्णाणमुप्पज्जदि सो जिभिदियवंजणोग्गहो णाम तस्स जमावारयं कम्मं तं जिभिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । कक्खड-मउअ-गरुअ-लहुअ-णिद्धल्हुक्ख-सीदुण्हदवाणि फासिदियस्स विसओ । एदेसु दम्वेसु संपत्तफस्सिदिएसु जं णाणमुप्पज्जवि तं फासिदियवंजणोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मं तं फासिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । चक्खिदियणोइंदिएसु वंजणोग्गहो पत्थि, पत्तत्थग्गहणे तेसि सत्तीए अभावादो। एवं वंजण्णोग्गहपरूवणा कदा तदावरणपरूवणा च । जं तं थप्पमत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं छविहं ॥ २७॥ ,, कुदो ? सव्वेसु इंदिएसु अपत्तत्थग्गहणसतिसंभवादो। होदु णाम अपत्तत्थगहणं चक्खिदिय-णोइंदियाणं, ण सेसिदियाणं; तहोवलंभाभावादो ति? ण, एइंदिएसु फासिकर्म है। अनेक प्रकारका सुगन्ध और दुर्गन्ध घ्राणेन्द्रियका विषय हैं । उन सुगन्ध और दुर्गन्धवाले पुद्गलोंके अतिमुक्तक फूलके आकारवाली घ्राणेन्द्रियमें प्रविष्ट होनेपर जो सुगन्ध और दुर्गन्ध द्रव्यविषयक प्रथम ज्ञान उत्पत्र होता है वह घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका आवारक जो कर्म है वह घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है । तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर द्रव्य जिव्हा इन्द्रियके विषय है। उन द्रव्योंके बकुलपत्रके आकारवाली जिव्हा इन्द्रियके साथ बद्ध, स्पृष्ट और प्रविष्ट होकर अंगांगिभावरूपसे सम्बन्धको प्राप्त होनेपर जो रसका विज्ञान उत्पन्न होता है वह जिह वेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका जो आवारक कर्म है वह जिह वेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है। कर्कश, मृदु, गुरु, लघु स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण द्रव्य स्पर्शन इन्द्रियके विषय हैं। इन द्रव्योंके स्पर्शन इन्द्रियके साथ सम्बन्धको प्राप्त होनेपर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका आवारक जो कर्म है वह स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है। चक्षु इन्द्रिय और नोइन्द्रिय इन दोनोंमें व्यंजनावग्रह नहीं होता, क्योंकि, प्राप्त अर्थको ग्रहणकरनेकी उनकी शक्ति नहीं पाई जाती। इस प्रकार व्यंजनावग्रह और उसके आवरण कर्मकी प्ररूपणा की। जो अवग्रहावरणीय कर्म स्थगित कर आये थे वह छह प्रकारका है । २७ । क्योंकि, सभी इन्द्रियोंमें अप्राप्त अर्थके ग्रहण करने की शक्तिका पाया जाना सम्भव है। शंका - चक्षुइन्द्रिय और नोइन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना रहा आवे, किन्तु काप्रती ' आदीमुत्तय ' इति पाठ 1 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, २७ दियस्स अपत्तणिहिग्गहणुवलंभादो। तदुवलंभो च तत्थ पारोहमोच्छणादुवलब्भदे। सेसिदियाणमपत्तत्थगहणं कुदोवगम्मदे? जुत्तोदो। तं जहा. धाणिदिय-जिब्भिदिय-फासिदियाणमुक्कस्सविसओ णव जोयणाणि । जवि एदेसिमिदियाणमुक्कस्सखओवसमगदजीवो णवसु जोयणेसु द्विववव्वेहितो विप्पडिय आगदपोग्गलाणं जिब्भाघाण-फासिदिएसु लग्गाणं रसगंध-फासे जाणदि तो समंतदो णवजोयणभंतरटिदमह भक्खणं तगंधजणिदअसादं च तस्स पसज्जेज्ज । ण च एवं, तिविदियक्खओवसमगदचक्कवट्टीणं पि असायसायरंतोपवेसप्पसंगादो । किंच-तिव्वखओवसमगदजीवाणं मरणं पि होज्ज, णवजोयणभंतरट्टियविसेण जिन्भाए संबंधेण घादियाणं णवजोयणब्भंतरदिदअग्गिणा दज्झमाणाणं च जीवणाणुववत्तीदो। किं च ण तेति महुरभोयणं पि संभवदि, सगक्खेत्तंतोट्ठियतियदुअ-पिचु मंदकडुइरसेण मिलिददुद्धस्स महुरत्ताभावादो । तम्हा सेसिदियाणं पि अप्पत्तग्गहणमत्थि ति इच्छिदव्वं । छण्णं पि अत्थोग्गहावरणीयाणं णामणिद्देसट्टमुत्तरसुतं भणदिशेष इन्द्रियोंके वह नहीं बन सकता; क्योंकि, वे अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हुई नहीं उपलब्ध होती हैं ? __समाधान - नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें स्पर्शन इन्द्रिय अप्राप्त निधिको ग्रहण करती हुई उपलब्ध होती है, और यह बात उस ओर प्रारोहको छोडनेसे जानी जाती है। शंका - शेष इन्द्रियां अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान – युक्तिसे जाना जाता है । यथा- घ्राणेन्द्रिय जिह वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियका उत्कृष्ट विषय नौ योजन है । यदि इन इन्द्रियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमको प्राप्त हुआ जीव नौ योजनके भीतर स्थित द्रव्योंमेंसे निकलकर आये हुए तथा जिह वा, घ्राण और स्पर्शन इन्द्रियसे लगे हुए पुद्गलोंके रस, गन्ध और स्पर्शको जानता है तो उसके चारों ओरसे नौ योजनके भीतर स्थित विष्ठाके भक्षण करने का और उसकी गन्धके संघनसे उत्पन्न हुए दुःखका प्रसग प्राप्त होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर इन्द्रियोंके तीव्र क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवोंका मरण भी हो जायगा, क्योंकि, नौ योजनके भीतर स्थित विषका जिह वाके साथ सम्बन्ध होनेसे घातको प्राप्त हुए और नौ योजनके भीतर स्थित अग्निसे जलते हुए जोवोंका जीना नहीं बन सकता है। तीसरे ऐसे जीवोंके मधुर भोजनका करना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित तीखे रसवाले वृक्ष और नीमके कटुक रससे मिले हुए दूधमें मधुर रसका अभाव हो जायगा इसलिये शेष इन्द्रियां भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। ___अब छहों अर्थावग्रहावरणीयोंका नामनिर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं काप्रतौ ' सोदिदियस्स, ताप्रती ' सोदि ( पासिं ) दियस्स ' इति पाठ। * काप्रती 'सोदि-- दियाण-ताप्रती 'सोदि (पासि) दियाण-' इति पाठः 10 अ-आ-ताप्रतिष ' विप्पद्दिय' काप्रती विप्पदिय ' इति पाठः । अप्रतो 'गह', आ-काप्रत्योः 'गड' इति पाठः। . काप्रती तियदुअंच-' इति पाठः। ॐका ताप्रत्यो ' कडडुइ ' इति पाठः। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,२८. ) tfsअणुओगद्दारे अत्थोग्गहावरणीयपरूवणा ( २२७ चक्खि दियत्थोग्गहावरणीयं सोबिंदियअत्योग्गहावरणीयं घाणिदियअत्थोग्गहावरणीयं जिर्भावय अत्योग्गहावरणीयं फासिंदियअत्थोंगहावरणीयं णोइंदियअत्थोग्गहावरणीयं । तं सव्वं अत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं ॥ २८ ॥ तत्थ सणिपंचिदियपज्जत्तएसु चक्खि दिय उक्कस्सअत्थोग्गहो सत्तेतालसहस्सबेसदसद्विजोयणाणि साहियाणि ओसरिय द्विदअत्थे समुपज्जदि ४७२६३ । ७ । २० । असणिपचदियपज्जत्तए चक्खि दियस्स अत्थोग्गहविसओ उक्कस्सो ऊपसट्टिजोयणसदाणि अट्ठत्तराणि ५९०८ । चउरिदियपज्जत्तएसु चक्खिदियअत्थोग्गहविसओ खेत्तालंबणो उक्कस्सओ ऊणती सजोयणसदाणि चडवण्णजोयणब्भहियाणि २९५४ । चक्खि दिया दो एत्तियाणि जोयणाणि अंतरिय द्विददव्वे जं णाणमुपज्जदि सो चक्खिदियअत्थोग्गहो । तस्स जमावरणं तं चक्खिदियअत्थोग्गहावरणीयं नाम कम्मं । सष्णिपंचिदियपज्जत्तएसु जवणालियसंठाणसंठिदसोविदियअत्थोमहविसओ खेत्तालवणो उक्कस्सओ बारहजोयणाणि १२ । असणिपंचिदियपज्जतसु अट्ठधणुसहस्साणि ८००० । एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विदसद्दग्गहणं सोदिदियअत्थोग्गहो णाम । एदस्त जमावारयं कम्मं तं सोदिदियअत्थोग्गहावरणीयं । सणिचदियपज्जत्तसु घाणिदियस्स विसओ उक्कस्सओ खेत्तगओ णव जोयणाणि ९ । चक्षुइन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय, श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, जिह, वेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय, स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय और इन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय; यह सब अर्थावग्रहावरणीय कर्म है ॥ २८ ॥ उनमें से संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें चक्षु इन्द्रियका उत्कृष्ट अर्थावग्रह साधिक सेंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ ( ४७२६३.) योजन हटकर स्थित हुए पदार्थ में उत्पन्न होता है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में चक्षुइन्द्रिय सम्बन्धी अर्थावग्रहका उत्कृष्ट विषय पांच हजार नौ सौ आठ ( ५९०८ ) योजन है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों में क्षेत्रके आलम्बनसे चक्षुइन्द्रिय सम्बन्धी उत्कृष्ट अर्थावग्रहका विषय दो हजार नौ सो चौवन ( २९५४ ) योजन है । चक्षु इन्द्रियसे इतने योजना अन्तर देकर स्थित हुए द्रव्योंका जो ज्ञान होता है वह चक्षुइन्द्रियअर्थावग्रह है । उसका जो आवारककर्म है वह चक्षुइन्द्रिय-अर्थावग्रहावरणीय कर्म है । संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तकों में जौकी नालीके आकारसे स्थित श्रोत्रेंद्रिय सम्बन्धी क्षेत्रके आश्रित उत्कृष्ट अर्थावग्रहका विषय बारह (१२) योजन है । असंज्ञो पंचेद्रिय पर्याप्तकों में वह आठ हजार (८०००) धनुष है । इतने क्षेत्रका अन्तर देकर स्थित हुए शब्दका ग्रहण करना श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह और इसका जो आवारक कर्म है वह श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रहावरणीय कर्म है । संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तकों में घ्राणेन्द्रिय सम्बन्धी उत्कृष्ट क्षेत्रगत विषय नौ (९) योजन है । + से कि तं अत्थुग्गहे ? अत्युग्गहे छव्विहे पण्णत्ते । तं जहा- सोइंदिअअत्युग्गहे चक्खि दिअअत्युग्गहे घाणिदिअअत्युग्गहे जिभि दिअअत्युग्गहे फासिंदिअअत्युग्गहे नोइंदिअकत्थुग्गहे 1 नं. सू. ३०. अ- आप्रत्योः २० । २७ का ताप्रत्योः २७1२० इति पाठः । ताप्रती 'पज्जत्तेसु' इति पाठः । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, २८. असण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु चत्तारि धणुस्सुवाणि ४०० । चरिदियपज्जत्तएसु बेधणुस्सदाणि २०० । तेइंदियपज्जत्तएसु एवं धणस्सदं १०० । घाणिदियादो उक्कस्सखओवसमं गदादो एत्तियमद्धाणमंतरिय दिददवम्मि जं गंधणाणमुष्पज्जदि सो धाणिदियअत्थोग्गहो। तस्स जमावारयं कम्मं तं घाणिदियअत्थोग्गहावरणीयं णाम । सण्णिचिदियपज्जत्तएसु जिभिदियअत्थोग्गहस्स विसओ उक्कस्सओ खेत्तणिबंधणो णव जोयणाणि ९ । असण्णिचिदियपज्जत्तएसु पंचधणुस्सदाणि बारसुत्तराणि ५१२ । चरिदियपज्जत्तएसु बेधणस्सदाणि छप्पण्णाणि २५६ । तेइंदियपज्जत्तएसु धणुस्सद मट्ठावीसं १२८ । बेइंदियपज्जतएसु चदुसट्टिधणणि ६४ । उक्कस्सखओवसमगजिभिदियादो एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विददव्वस्त रसविसयं जणाणमुप्पज्जदि सो जिभिदियअत्थोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मं तं जिभिदियअत्थोग्गहावरणीयं णाम । सण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु फासिदियअत्थोग्गहस्स उक्कस्सविसओ णव जोयणाणि ९ । असणिपचिदिएसु चउसटिधणुस्सदाणि ६४०० । चरिदियपज्जत्तएसु बत्तीसधणुस्स. दाणि ३२००। तेइंदियपज्जत्तएसु सोलसधणुस्सदाणि १६०० । बेइंदियपज्जत्तएसु अट्टधणुस्सवाणि ८०० । एइंदियपज्जत्तएसु चत्तारि धणुस्सदाणि ४०० । फासिदियदो एत्तियमद्धाणमंतरिय टिददव्वम्हि जंणाणमुप्पज्जदि फासविसयं तं फासिदियअत्थोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मं तं फासिदियअत्थोग्गहावरणीयं णाम । णोइंदियादो दिट्ठ. सुदाणुभदेसु अत्थेसु णोइंदियादो पुधभूदेसु जं जाणमुप्पज्जदि सो णोइंदियअत्थोअसंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें वह चार सौ(४००) धनष है। चतुरिंद्रिय पर्याप्तकोंमें दो सो (२००) धनुष है । तीन इंद्रिय पर्याप्तकों में एक सौ (१००) धनुष है। उत्कृष्ट क्षयोपशमको प्राप्त हुई घ्राणेनियसे इतने क्षेत्रका अन्तर देकर स्थित हुए द्रव्यमें जो गन्ध सम्बधी ज्ञान होता है वह घ्राणेद्रियअर्थावग्रह है और इसका जो आवारक कर्म है वह घ्राणेंद्रिय-अर्थावग्रहावरणीय कर्म है । संज्ञो पचेद्रिय पर्याप्तकों में जिह वा इंद्रिय संबंधी क्षेत्रनिबंधन अर्थावग्रहका उत्कृष्ट विषय नौ (९) योजन है । असज्ञा पचेद्रिय पर्याप्तकोंमें वह पांच सौ बारह ( ५.२ ) धनुष है । चौइंद्रिय पर्याप्तकोंमें दो सौ छप्पन (२५६) धनुष है। तीन इंद्रिय पर्याप्तकोंमें एक सौ अट्ठाईस (१२८) धनुष है। द्वींद्रिय पर्याप्तकोंमें चौंसठ (६४) धनुष है। उत्कृष्ट क्षयोपशमको प्राप्त हुई जिव्हा इंद्रियसे इतने क्षेत्रका अन्तर देकर स्थित हुए द्रव्य का जो रसविषयक ज्ञान उत्पन्न होता हैं वह विग्रह है और उसका जो आवारक कर्म है वह जिव्हेदिय-अर्थावग्रहावरणीय कर्म है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रहका उत्कृष्ट विषय नौ (९) योजन है। असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें छह हजार चार सौ ( ६४०० ) धनुष है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंमें तीन हजार दो सौ ( ३२०० ) धनुष है। तीन इन्द्रिय पर्याप्तकोंमें एक हजार छह सौ ( १६०० ) धनुष है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंमें आठ सौ ( ८०० ) धनुष है । एकेंद्रिय पर्याप्तकोंमें चार सौ ( ४०० ) धनुष है । स्पर्शन इन्द्रियसे इतने क्षेत्रका अन्तर देकर स्थित हुए द्रव्यका जो स्पर्शनविषयक ज्ञान होता है वह स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रह है और उसका जो आवारक कर्म हैं वह स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रहावरणीय कर्म है। नोइंद्रियके द्वारा उससे पृथग्भूत दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थोंका जो ज्ञान उत्पन्न होता है Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे अत्थोग्गहावरणीयपरूवणा ( २२९ गहो णाम एत्थ अद्धाण परूवणा किमलृ ण कदा ? ण, सुदाणुभूदेसु दम्वेसु लोगंतरट्रिदेसु वि अत्थोग्गहो ति कारणेण अद्धाणणियमाभावादो। एदस्स जमावारयं कम्मं तं णोइंदियअत्थोग्गहावरणीयं णाम । उत्तं च -- चत्तारि धणुसयाइं चउस ट्ठि सयं च तह य धणुहाणं । फासे रसे य गंधे दुगुणा दुगुणा असण्णि त्ति ।। ४ ।। उणतीसजोयणसया चउवण्णा तह य होंति णायव्वा । चउरिदियस्स णियमा चक्खुप्फासो सुणियमेण* ।। ५ ।। उणसट्ठिजोहणसया अठ्ठ य तह जोयणा मुणेयव्वा । पंचिदियसण्णीणं चक्खुप्फासो सुणियमेण ।। ६ ।। अद्वैव धणुसहस्सा विसओ सोदस्स तह असण्णिस्स । इय एदे णायव्वा पोग्गलपरिणामजोएण ।। ७ ।। पासे रसे य गधे विसओ णव जोयणा मणेयव्वा । बारह जोयण सोदे चक्खुस्संद्धः पवक्खामि ।। ८ ।। सत्तेतालसहस्सा ब चेव सया हवंति तेवट्ठी । चक्खिदियस्स विसओ उक्कस्सो होइ अदिरित्तो ॥ ९॥ वह नोइन्द्रियअर्थावग्रह है। शंका- यहां क्षेत्रकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान नहीं, क्योंकि लोकके भीतर स्थित हुए श्रुत और अनुभूत विषयोंका भी नोइन्द्रियके द्वारा अर्थावग्रह होता है । इस कारणसे यहां क्षेत्रका नियम नहीं है। इसका जो आवारक कर्म है वह नोइन्द्रियअर्थावग्रहावरणीय कर्म है । कहा भी है स्पर्शन, रसन और घ्राण इन्द्रियां क्रमसे चार सौ धनुष, चौंसठ धनुष और सौ धनुषके स्पर्श, रस और गन्धको जानती हैं। आगे असंज्ञी तक इन इन्द्रियोंका विषय दूना दूना है। चतुरिन्द्रिय जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय नियमसे उनतीस सौ चौवन योजन है । पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय उनसठ सौ आठ योजन जानना चाहिये । असंज्ञी जीवके श्रोत्र इन्द्रियका विषय आठ हजार धनुष है। यह सब विषय पुद्गलोंकी विविध पर्यायोंके निमित्तसे जानना चाहिये ।। ४-७॥ ____ संज्ञी पचेन्द्रिय जीवके स्पर्शन, रसन और घ्राणका विषय नौ योजन तथा श्रोत्र इन्द्रियका विषय बारह योजन जानना चाहिये । चक्षु इनद्रियका विषय आगे कहते हैं। चक्ष इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय संतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजनसे कुछ अधिक है ॥ ८-९॥ विशेषार्थ- यहां व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहके स्वरूप, भेद और उनके आवरण कर्मोका * अ-आ-काप्रतिष ' अत्थाण ', ताप्रती · अत्था (द्धा) ण ' इति पाठः। 8 अ आप्रत्योः ' सुदाणभूदेसु दव्वेसु लोगंतरि ', ताप्रती · सुदाणभूदेसु लोगंतरि (रे) ' इति पाठः 1 * प्रतिषु ' मुणियणेण' इति पाठ:1* अ-आप्रत्योः चक्खुस्सुई . काप्रती 'चक्खुस्सुदं इति पाठः। . अ-आ-काप्रतिषु · तेवढा ' इति पाठः1 अप्रतो । उकस्सा होइ अओरित्ता', आ-काप्रत्योः । उक्कस्सा होइ अदिरित्तो' इति पाठः। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २९. जं तं ईहावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं ॥ २९ ॥ कुदो ? छहि इंदिएहि अवगहिदअत्थविसयत्तादो। अणवगहिदे अत्थे ईहा किण्ण उप्पज्जदे ? ण, अवगहिदअत्थविसेसाकखणमोहे त्ति वयणेण सह विरोहावत्तीदो। छविहेहाणिमित्तपदुप्पायणटुमुत्तरसुत्तं भणदि-- चक्खिवियईहावरणीयं सोदिवियईहावरणीयं घाणिदियईहानिर्देश करके एकेन्द्रिय आदि किस जीवके किस इन्द्रियका कितना विषय है, इसका विस्तारके साथ निर्देश किया है । उनमें अन्य इन्द्रियोंका विषय तो सुगम है, मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय जो ४७२६३१. योजन बतलाया है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- सूर्यको मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करने में ६० मुहर्त लगते हैं । तथा जब वह अभ्यंतर वीथी में होता है तब भरत क्षेत्रमें १८ मुहूर्तका दिन होता है । यतः उदयस्थानसे मध्यस्थान तक आने में सूर्यको नौ महूर्त लगते हैं, अतः सूर्यके चार क्षेत्र सम्बन्धी अभ्यन्तर वीथीकी परिधिमें ६० का भाग देकर ९ से गणा करनेपर चक्षु इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय पूर्वोक्तप्रमाण लब्ध होता है, क्योंकि, प्रातःकाल इतने दूर स्थित उदय होनेवाले सूर्यके दर्शन होते हैं। यहां अभ्यन्तर वीथीका व्यास ९९६४० योजन और इसकी परिधि १५०८९ योजन है, इतना विशेष जानना चाहिए ( देखिये जीवकाण्ड गाथा १६९ ) । अब यहां एकेन्द्रिय आदि जीवोंके किस इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय कितना है, यह कोष्टक देकर बतलाते हैं-- | रसना | घ्राण घ्राण । चक्षु । श्रोत्र ___ स्पर्शन | ४०० धनुष एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय ८०० । ६४ धनुष त्रीन्द्रिय १२८ , १०० धनुष x चतुरिन्द्रिय २५६ , २०० " | २९५४ योजन असंज्ञी पं. |६४०० , ५१२ । । ४०० , ५९०८ , ८००० धनुष - संज्ञी पं. । ९ योजन | ९ योजन | ९ योजन |४७२६३३. यो. १२ योजन जो ईहावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है ॥ २९ ।। क्योंकि, यह छह इन्द्रियोंके द्वारा अवगृहीत अर्थको विषय करता है। शंका-- अनवगृहीत अर्थमें ईहाज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर ' अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषको जाननेकी इच्छा होना ईहा है' इस वचनके साथ विरोध प्राप्त होता है । अब छह प्रकारकी ईहाके निमित्तका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं-- चक्षुइंद्रिय ईहावरणीय कर्म, श्रोत्रंद्रिय-ईहावरणीय कर्म, घ्राणेंद्रिय-ईहावरणीय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ३०. ) पयडिअणुओगद्दारे ईहावरणीयपरूवणा ( २३१ वरणीयं जिभिदियईहावरणीयं फासिदियईहावरणीयं णोइंदियईहावरणीयं । तं सव्वमीहावरणीयं णाम कम्म* ॥ ३० ॥ चक्खिदियेण अवगहिदत्थविसेसाकखणं विसेसुवलंभणिमित्तविचारो ईहे त्ति घेत्तव्वा । तिस्से आवारयं कम्म चक्खिदियईहावरणीयं णाम | सोदिदिएण गहिदसद्दो कि गिच्चो अणिच्चो दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ ति चदुण्णं वियप्पाणं मज्झे एगवियप्पस्स लिंगगवेसणं सोदिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्मं सोदिदियईहावरणीयं । घाणिदियेण गंधमवग्गहिदूण एसो गंधो कि गुणरूवो किमगणरूवो कि दुस्सहावी किमदुस्सहाओ किं जच्चतरमावण्णो ति पंचण्णं वियप्पाणमण्णदवियप्पलिंगण्णेसणं एदेण होदव्वमिदि पच्चयपज्जवसाणं घाणिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्मं धाणिदियईहावरणीयं । जिभिदिएण रसमादाय कि मत्तो किममत्तो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ कि जच्चतरमावण्णो ति विचारपच्चओ जिभिदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्म जिभिदियईहावरणीयं । फासिदिएण णिद्धादिफासमादाय किमेसो मयणफासो किं वज्जलेवफासो कि कुमारिगिरफासो कि पिसिदमासफासो त्ति एदेसु अण्णदमस्स लिंगण्णेसणं फासिदियमदईहा। तिस्से कर्म, जिह वेन्द्रिय ईहावरणीय कर्म, स्पर्शनेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म और नोइन्द्रियईहावरणीय कर्म; यह सब ईहावरणीय कर्म है ॥ ३० ॥ __ चक्षु इन्द्रियके द्वारा अवगृहीत अर्थके विशेषोंको जाननेकी इच्छा अर्थात् विशेषोंके जानने के निमित्त होने वाला विचार ईहा है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । इसका आधारक कर्म चक्षुइन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। श्रोत्रन्द्रियके द्वारा ग्रहण किया गया शब्द क्या नित्य है, क्या अनित्य है, क्या द्विस्वभाव है, या क्या अद्विस्वभाव है। इस प्रकार इन चार विकल्पों में से एक विकल्पके लिंगकी गवेषणा करना श्रोत्रेन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म श्रोत्रेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है । ध्राण इन्द्रियके द्वारा गन्धका अवग्रह करके यह गन्ध क्या गुणस्वरूप है, क्या अगुणस्वरूप है, क्या द्विस्वभाव है, क्या अद्विस्वभाव है, या क्या जात्यन्तरको प्राप्त है। इस प्रकार पांच विकल्पोंमेंसे अन्यतम विकल्पके लिंगकी गवेषणा करना कि 'यह होना चाहिए' इस प्रकारका प्रत्यय-पर्यवसितज्ञान घ्राणेन्द्रियगत ईहा है। इसका आवारक कर्म घ्राणेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। जिह वा इन्द्रियके द्वारा रसको ग्रहण करके वह क्या मूर्त है, क्या अमूर्त है, क्या द्विस्वभाव | अद्विस्वभाव है, या क्या जात्यन्तर अवस्थाको प्राप्त है। इस प्रकारका विचाररूप ज्ञान जिह वेन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म जिह वेन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्निग्ध आदि स्पर्शको ग्रहण कर क्या यह मदनस्पर्श है. क्या वज्रलेपस्पश है, क्या कूमारिगिरस्पर्श है, या क्या पिशित-मांसस्पर्श है। इस प्रकार इनमेंसे किसी एकके लिंगकी गवेषणा करना स्पर्शनइन्द्रियगत ईहा है । इसका आवारक कर्म स्पर्शन इन्द्रिय * से किं तं ईहा ? ईहा छविहा पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदिअईहा चक्खिदिअईहा घाणिदिअईहा जन्भिदिअईहा फासिदिअईहा नोइंदिअईहा 1 नं. सू. ३२.४ आप्रती लिंगण्णेसण्णं ' इति पाठः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ३१ आवारयं कम्मं फासिदियईहावरणीयं । दिद-सुदाणभदत्थं मणेण अवगहिदूण एसो कि सम्वगओ असव्वगओ दुस्सहाओ अदुस्सहाओ ति परिक्खा णोइंदियगदईहा । तिस्से आवारयं कम्मं णोइंदियईहावरणीयं । एवमीहा छविवहा परूविदा। जं तं अवायावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं ॥ ३१ ॥ छण्णामिदियाणं छविहईहापच्चरहितो समप्पज्जमाणत्तादो । ण च छ-ईहाहिंतो एगं कज्जमुप्पज्जदि, विरोहादो। तेसि छण्णं पि णामणिद्देसटुमुत्तरसुत्तं भणदि चक्खिदियअवायावरणीयं सोदिदियअवायावरणीयं घाणिदियअवायावरणीयं, जिभिदियअवायावरणीयं फासिदियअवायावरणीयं णोइंदियअवायावरणीय । तं सव्वं अवायावरणीयं णाम कम्म ।३२) चक्खिदियईहाणाणेण अवगलिंगावटुंभबलेण एगवियप्पम्मि उप्पण्णणिच्छओ चक्खिदियआवाओ णाम । तस्स आवारयं कम्मं चक्खि दियअवायावरणीयं । एवं सव्वेसिमवाया वरणीयाणं पुध पुध परूवणा जाणिदूण कायव्वा । जं तं धारणावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं ॥ ३३ ॥ ईहावरणीय कर्म है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थको मनसे अवग्रहण कर यह क्या सर्वगत है, क्या असर्वगत है, क्या द्विस्वभाव है, या क्या अद्विस्वभाव है; इस प्रकारकी परीक्षा करना नोइंद्रियगत ईहा है। इसका आवारक कर्म नोइन्द्रिय-ईहावरणीय कर्म है । इस प्रकार छह प्रकारकी ईहाका कथन किया । जो अवायावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है । ३१ ॥ क्योंकि, छह इन्द्रियोंकी छह प्रकारकी ईहाके निमित्तसे इस ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। छह प्रकारकी ईहाओंसे एक प्रकारके कार्यकी उत्पत्ति मानी नहीं जा सकती है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है । अब उन छहोंका नामनिर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं चक्षुइन्द्रियावायावरणीय कर्म, श्रोत्रेन्द्रियावायावरणीय कर्म, घ्राणेन्द्रियावायावरणीय कर्म; जिव्हेन्द्रियावायावरणीय कर्म, स्पर्शनेन्द्रियावायावरणीय कर्म और नोइन्द्रियावायावरणीय कर्म; यह सब आवायावरणीय कर्म है ॥ ३२॥ चक्षुइन्द्रियईहाज्ञानसे अवगत लिंगके बलसे एक विकल्प में उत्पन्न हुआ निश्चय चक्षुइन्द्रियअवाय और उसका आवारक कर्म चक्षुइन्द्रियअवायावरणीय कर्म है । इसी प्रकार सब अवायावरणीय कर्मोका जानकर अलग अलग कथन करना चाहिये। जो धारणावरणीय कर्भ है वह छह प्रकारका है ।। ३३ ॥ Oसे कि त अवाए? अवाए छविहे पण्णत्ते 1 तं जहा-सोइंदिअअवाए चविखंदिअअवाए घाणिदिअअवाए जिभिदिअअवाए फासिदिअअवाए नोइंदिअअवाए 1 नं. सू. ३३. प्रतिषु ' मवाया ' इति पाठः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५,३४. ) अणुओगद्दारे धारणावरणीयपरूवणा ( २३३ कुदो ? छविवहअवायपच्चयसमुपज्जमाणतादो । धारणापच्चओ कि ववसायसरूवो कि णिच्छयसरूवोत्ति ? पढमपक्खे धारणेहापच्चयाणमेयत्तं, भेदाभावादो । बिदिए* धारणावायपच्चयाणमेयत्तं, णिच्छयभावेण दोण्णं भेदाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, अवेदवत्थु लिंगग्गणदुवारेण कालंतरे अविस्सरण हेदुसंसकारजणणं विष्णाणं धारणेत्ति अवगमादो | ण चेदं गहिदग्गाहि त्ति अप्पमाणं, अविस्सरणहेदुलि गग्गा हिस्स गहिदगहणत्ताभावादो । छष्णं धारणाणं णामणिद्दं सपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि चक्खि दियधारणावरणीयं सोदिदियधारणावरणीयं घाणिवियधारणावरणीयं जिभिदियधारणावरणीयं फासिंदियधारणावरणीयं णोईदियधारणावरणीयं । तं सव्यं धारणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ३४ ॥ एस सुत्तस्स अत्थो सुगमो । एत्थ ओग्गह ईहावाय धारणाभेदेण चव्विहमाभिनिबोहियणाणं । तस्स आवरणं पि चउव्विहमेव, आवरणिज्जभेदेण आवरणस्स वि भेदुववत्तदो ४ । एक्कस्स इंदियस्स जदि अवग्गहादिचत्तारिणाणाणि लब्भंति तो क्योंकि, यह छह प्रकारके अवायके निमित्तसे उत्पन्न होता है । शंका धारणाज्ञान क्या व्यवसायस्वरूप है या क्या निश्चयस्वरूप है ? प्रथम पक्षके स्वीकार करनेपर धारणा और ईहाज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि, उनमें कोई भेद नहीं दूसरे पक्ष के स्वीकार करनेपर धारणा और अवाय ये दोनों ज्ञान एक हो जाते हैं, निश्चय भावकी अपेक्षा दोनों ज्ञानों में कोई भेद नहीं है । - समाधान - • यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवायके द्वारा गृहीत वस्तुके लिंगको ग्रहण करके उसके द्वारा कालान्तर में अविस्मरणके कारणभूत संस्कारको उत्पन्न करनेवाला विज्ञान धारणा है, ऐसा स्वीकार किया है। यह गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण हैं, ऐसा नही माना जा सकता है; क्योंकि, अविस्मरण के हेतुभूत लिंगको ग्रहण करनेवाला होनेसे यह गृहीतग्राही नहीं हो सकता । अब छहों प्रकारकी धारणा के नामनिर्देशका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं रहता । क्योंकि चक्षुइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, श्रोत्रइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, घ्राणइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, जिह वाइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, स्पर्शनइन्द्रियधारणावरणीय कर्म और नोइन्द्रियधारणावरणीय कर्म; यह सब धारणावरणीय कर्म है ॥ ३४ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम है। यहां अवग्रह, ईहा अवाय और धारणाके भेदसे आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकारका है, इसलिये उसका आवरण भी चार प्रकारका ही है; क्योंकि, आवरणीय के भेदसे आवरण के भी भेद ( ४ ) बन जाते हैं। एक इन्द्रियके यदि अवग्रह आदि चार ज्ञान प्राप्त अ-आ-काप्रतिषु विदिय, ताप्रती ' विदिय ( ये ) ' इति पाठ: 1 8 आ-का-ताप्रतिषु 'अब्भुव - गमादोत्ति' इति पाठः । से किं तं धारणा ? धारणा छव्विहा पण्णत्ता 1 तं जहा- सोइंदियधारणा चक्खिदिअधारणा घाणिदिअधारणा जिब्भिदिअधारणा फासिंविअधारणा नोइदिअधारणा 1 नं.सू. ३४. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५,. ३५ मिदियाणं कि लभामो ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चउवीसआभिणिबोहियणाणाणि लब्भंति । तेसिमावरणाणि वि तत्तियाणि चेव २४ । एत्थ जिब्भाफास-घाण-सोदिदियाणं वंजणोगहेसु पक्खित्तेसु अट्ठावीसआभिणिबोहियणाणवियप्पा तत्तिया चेव आवरणवियप्पा च लब्मति २८ । एत्थ चदुमूलभंगेसु पक्खित्तेसु बत्तीसआभिणिबोहियणाणवियप्पा तेत्तिया चेव आवरणवियप्पा च लभंति । ण मूलभंगाणं पुणरत्तत्तमस्थि, विसेसादो सामण्णस्स कथंचि प्रधभदस्स उवलंभादो । तं जहा-सामणमेयसंखं विसेसो अणेयसंखो, वदिरेयलक्खणो विसेसो अण्णयलक्खणं सामण्णं, आहारो विसेसो आहेयो सामण्णं, णिच्चं सामण्णं अणिच्चो विसे तो। तम्हा सामण्ण-विसेसाणं णत्थि एयत्तमिदि ३२ । एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चउन्विहं वा चवीसविविधं वा अटठावीसविविधं वा बत्तीसविविध वा अडवालीसविधं वा चोद्दाल-सदविधं वा अठ्ठसठि-सवविधं वा बाणउदि-सदविधं वा बेसद-अट्ठासीदिविधं वा तिसद-छत्तीसविविधं वा तिसव-चुलसीदिविधं वा णादव्वाणि भवंति ॥ ३५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे परूविज्जमाणे ताव इमा अण्णा पावणा कायव्या, एदीए विणा एदस्स सुत्तस्स अत्थावगमणुववत्तीदो । “बहु बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम् + " होते हैं तो छह इन्द्रियोंके कितने ज्ञान प्राप्त होंगे, इस प्रकार त्रैराशिक प्रक्रिया द्वारा फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर चौबीस आभिनिबोधिक ज्ञान उपलब्ध होते हैं और उनके आवरण भी उतने (२४) ही प्राप्त होते हैं। इन चौबीस भेदोंमें जिह वा, स्पर्शन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय सम्बन्धी चार व्यंजनावग्रहोंके मिलानेपर अट्ठाईस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने (२८) ही उनके आवरणोंके भेद भी प्राप्त होते हैं । इनमें चार मूल भंगोंके मिलानेपर बत्तीस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने ही उनके आवरणोंके भद भी प्राप्त होते हैं। इस तरह मल भंगोंके मिलानेपर पुनरुक्त दोष भी नहीं आता, क्योंकि विशेषसे सामान्यमें कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्यावाला होता है और विशेष अनेक संख्यावाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षणवाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है । इसलिये सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मके चार भेद, चौबीस भेद, अट्ठाईस भेद, बत्तीस भेद, अडतालीस भेद, एक सौ चवालीस भेद, एक सौ अडसठ भेद, एकसौ बानबै भेद, दो सौ अठासी भेद, तीन सौ छत्तीस भेद और तीन सौ चौरासी भेद ज्ञातव्य हैं। ३५। इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय यह अन्य प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, इसके विना इस सूत्रके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है । ' बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त त. सू. १-१६. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५,३५. ) पर्याडअणुओगद्दारे आभिणि बोहियणाणपरूवणा ( २३५ संख्या-वैपुल्यवाचिनो बहुशब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । बहुशब्दो हि संख्यावाची वैपुल्यवाची च, तस्योभयस्यापि ग्रहणम् । कस्मात्? अविशेषात् । संख्यायामेकः द्वौ बहवः इति वैपुल्ये बहुरोदनो बहुः सूप इति ।बह वग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेत्। न, सर्वदेकप्रत्ययोत्पत्तिप्रसंगात् । अस्तु चेत्-न, नगर-वन स्कंधावारेष्त्रप्येकप्रत्ययोत्प. तिप्रसंगात् । नगरवन-स्कन्धावाराणां नगरं वनं स्कन्धावर इति एकवचन निर्देशान्यथानुपपत्तितो न बहुत्वमिति चेत्-न, बहुत्वेन विना तत्प्रत्ययत्रितयोत्पत्तिविरोधात्। न च एकवचननिर्देशः एकवलिंगम्, वनगतेषु धवादिष्वेकत्वानुपलम्भात्। न सादृश्यमेकत्वस्य कारणम् , तत्र तद्विरोधात् । किं च- यस्यैकार्थमेव विज्ञानं तस्य पूर्वविज्ञाननिवृत्तावृत्तरविज्ञानोत्पत्तिर्भवेत् अनिवतौ वा? अनिवृतौ नोत्तरविज्ञानोत्पत्तिः, ' एकार्थमेकमनस्त्वात् ' इत्यनेन विरोधात्* । तथा च इदमस्मादन्यदित्यस्य और ध्रुव तथा इनके प्रतिपक्षभूत पदार्थोंका आभिनिबोधिक ज्ञान होता है" इस सूत्रमें बहु शब्दको संख्यावाची और वैपुल्यवाची ग्रहण किया है, क्योंकि, दोनों प्रकारका अर्थ करने में कोई विशेषता नहीं है । बहु शब्द संख्यावाची है और वैपुल्यवाची भी हैं । उन दोनोंका ही यहां ग्रहण है, क्योंकि, इन दोनों ही अर्थों में समान रूपसे उसका प्रयोग होता है। संख्यामें यथा- एक, दो, बहुत । वैपुल्यमें यथा- बहुत भात बहुत दाल ।। ___ शका -बहु अवग्रह आदि ज्ञानोंका अभाव है, क्योंकि, ज्ञान एक एक पदार्थके प्रति अलग अलग होता है। ___समाधान - नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर सर्वदा एक पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। शंका - ऐसा रहा आवे ? ___ समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर नगर, वन और छावनीमें भी एक पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आ जायगा । शंका - नगर, वन और स्कन्धावारमें चंकि एक नगर, एक वन और एक छावनी इस प्रकार एकवचनका प्रयोग अन्यथा बन नहीं सकता, इससे विदित होता है कि ये बहुत नहीं हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, बहुत्वके विना उन तीन प्रत्ययोंकी उत्पत्ति में विरोध आता है। दूसरे, एक वचनका निर्देश एकत्वका साधक है ऐसी भी कोई बात नहीं है। क्योंकि, वनमें अवस्थित धवादिकोंमें एकत्व नहीं देखा जाता । सादृश्य एकत्वका कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वहां उसका विरोध है। दूसरे, जिसके मतमें विज्ञान एक अर्थको ही ग्रहण करता है उसके मतमें पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति होनेपर उत्तर विज्ञानकी उत्पत्ति होती है या पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति हुए विना ही उत्तर विज्ञानकी उत्पत्ति होती है ? पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति हुए विना तो उत्तर विज्ञानको उत्पत्ति हो नहीं सकती, क्योंकि “ विज्ञान एक मन होनेसे एक अर्थको जानता है" इस वचनके साथ विरोध Oस. सि. १-१६. *त रा. १, १६, १. *त. रा. १, १६, २. * त. रा. १, १६, ३. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड व्यवहारस्योच्छित्तिर्भवेत् । कि च- यस्यैकं विज्ञान नानेकार्थविषयं तस्य मध्यमा-प्रदेशिन्योर्युगपदुपलम्भाभावात्तद्विषयदीर्घ हस्वव्यवहारः आपेक्षिको विनिवर्तेत । कि चैकार्थविषय तिनि विज्ञाने स्थाणौ पुरुषे वा तदिति उभयसंस्पशित्वाभावात्तन्निबन्धनः संशयो वितिवर्तेत। कि च- पूर्णकलशमालिखतश्चित्रकर्मणि निष्णातस्य चैत्रस्य क्रियाकलशविषयविज्ञानाभावात्तदनिष्पत्तिर्जायत । नासौ योगपद्येन द्वि - ज्यादिविज्ञानाभावे उत्पद्यते, विरोधात् । किं च-योगपद्येन बह ववग्रहाभावात् योग्यदेशस्थितमंगुलिपंचकं न प्रतिभासेत् । न परिच्छिद्यमानार्थभेदाद्विज्ञानभेदः, नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरिणन्तुविज्ञानस्योपलम्भात् । न शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम्, पृथक्-पृथगर्थक्रियाकर्तृत्वाभावातेषां वस्तुत्वानुपपत्तेः । एकार्थविषयः प्रत्यय एकः । ऊर्ध्वाधो मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगतैकत्वोपलम्भानकः प्रत्ययोऽस्तीति चेत्-न, एवंविधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात् । आता है । और ऐसा होनेपर यह इससे भिन्न है ' इस प्रकारके व्यवहारका लोप होता है । तीसरे, जिसके मतमें एक विज्ञान अनेक पदार्थोंको विषय नहीं करता है उसके मतमें मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियोंका एक साथ ग्रहण नहीं होनेके कारण तद्विषयक दोघं और हृस्वका आपेक्षिक व्यवहार नहीं बनेगा। चौथे, प्रत्येक विज्ञान के एक एक अर्थ के प्रति नियत माननेपर स्थाणु और पुरुषमें 'वह' इस प्रकार उभयसंस्पर्शी ज्ञान न हो सकनेके कारण तन्निमित्तिक संशय ज्ञानका अभाव होता है। पांचवें पूर्ण कलशको चित्रित करनेवाले और चित्रकर्ममें निष्णात चैत्रके क्रिया व कलश विषयक विज्ञान नहीं हो सकनेके कारण उसकी निष्पत्ति नहीं हो सकती है। कारण कि एक साथ दो तीन ज्ञानों के अभावमें उसकी उत्पत्ति सम्भव नही है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। छठे, एक साथ बहुतका ज्ञान नहीं हो सकनेके कारण योग्य देशमें स्थित अंगुलिपचकका ज्ञान नहीं हो सकता। जाने गये अर्थमें भेद होनेसे विज्ञानमें भी भेद है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नाना स्वभाववाला एक ही त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है । शक्तिभेद वस्तुभेदका कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि अलग अलग अर्थक्रियाकारी न होनेसे उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता | एक अर्थको विषय करनेवाला विज्ञान एक प्रत्यय है । शंका - चूंकि ऊर्श्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवोंमें रहनेवाली अनेकतासे अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नहीं है ? समाधान – नहीं, क्योंकि, यहां इस प्रकारकी ही जात्यन्तरभूत एकताता ग्रहण किया है। ॐ त रा. १, १६, ४. ४ आप्रती 'किं च अर्थविषय-' काप्रती ' किंचार्थविषय-' ताप्रती किं च अर्थ ( एकार्थ-) विषय ' इति पाठः 1 त . रा. १, १६, ५. *त. रा. १,१६, ६ . Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ३५. ) पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणपरूवणा ( २३७ प्रकारार्थे विधशब्दः, बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । जातिगतभूयःसंख्या विशिष्ट वस्तु प्रत्ययो बहुविधः । तद्यथा- चक्षुर्जः गो-मनुष्य-हय-हस्त्यादिजातिविशिष्टगवादिविषयोऽक्रमः प्रत्ययः । श्रोत्रजस्तत-वितत- घन--सुषिरादिशब्देष्वक्रमवृत्तिप्रत्ययः । कर्पूरागरु तरुष्क* चन्दनादिगन्धेष्वक्रमवृत्तिः घ्राणजो बहुविधप्रत्ययः । तिक्त कटुकषायाम्ल-मधुर-लवणद्रव्यविषयः अक्रमवृत्तिः रसनजो बहुविधप्रत्ययः स्निग्ध मृदुकठिनोष्ण गुरु-लघु-शीतादिद्रव्यविषयः अक्रमवृत्तिर्बहुविधः प्रत्ययः स्पर्शनेन्द्रियजः। न चायमसिद्धः, उपलभ्यमानत्वात् न चोपलम्भः अपह नोतुं पार्यते, अव्यवस्थापत्तेः। एकजातिविषयः प्रत्ययः एकविधः । न चैकविधैकप्रत्ययोरेकत्वम्, जातिव्यक्त्योरेकत्वाभावतस्तद्विषयप्रत्ययोरेकत्वाभावात आश्वर्थग्राही क्षिप्रप्रत्ययः । अभिनवशरावगतोदकवत् शनैः परिच्छिन्दानः अक्षिप्रप्रत्ययः ।। वस्यकदेशत्वे आलम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एक वस्तुप्रतिपत्तिः वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाल एव वा दृष्टांतमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बित - वस्तुप्रतिपत्तिः अनुसंधानप्रत्ययः प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनिःसृतप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, चक्षुषा घटस्यालम्बनीभूतार्वाग्भागदर्शन काल एव ___विध शब्द प्रकारवाची है, बहुविध अर्थात् बहुप्रकार । जातिगत बहुत संख्या विशिष्ट पदार्थोंका ज्ञान बहुविधज्ञान है। यथा- गाय, मनुष्य, घोडा और हाथी आदि जाति विशिष्ट गाय आदि पदार्थोको विषय करनेवाला क्रमरहित प्रत्यय चाक्षुष बहुविधप्रत्यय है । तत, वितत,घ न व सुषिर आदि शब्दोंका युगपत् होनेवाला प्रत्यय श्रोत्रज बहुविधप्रत्यय है | कपूर, अगरु, तुरुष्क और चन्दन आदिकी गन्धोंका युगपत् होनेवाला प्रत्यय घ्राणज बहुविधप्रत्यय है । तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर और लवण द्रव्यविषयक: युगपत् होनेवाला प्रत्यय रसनज बहुविधप्रत्यय है। स्निग्ध, मदु, कठिन, उष्ण, गुरु, लघु और शीत आदि द्रव्यविषयक युगपत् होनेवाला प्रत्यय स्पर्शनेन्द्रियज बहुविधप्रत्यय है । ऐसा प्रत्यय होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, उसकी उपलब्धि होती है । और उपलब्धिका अपलाप किया नहीं जा सकता, क्योंकि, ऐसा करनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। ___ एक जातिविषयक प्रत्यय एकविधप्रत्यय है । एकविधप्रत्यय और एकप्रत्ययको एक नहीं मान सकते, क्योंकि, जाति और व्यक्ति एक नही होनेसे उनको विषय करनेवाले प्रत्यय भी एक नहीं हो सकते । शीघ्र अर्थको ग्रहण करनेवाला क्षिप्रप्रत्यय है। जिस प्रकार नतन सकोरेको प्राप्त हुआ जल उसे धीरे धीरे गीला करता है उसी प्रकार पदार्थको धीरे धीरे जाननेवाला प्रत्यय अक्षिप्र प्रत्यय है । अवलम्बनीभूत वस्तुके एकदेश ग्रहणके समयमें ही एक वस्तुका ज्ञान होना, या वस्तुके एकदेशके ज्ञानके समयमें ही दृष्टांतमुखेन या अन्य प्रकारसे अनवलम्बित वस्तुका ज्ञान होना तथा अनुसंधानप्रत्यय और प्रत्यभिज्ञानप्रत्यय'; यह सब अनिःसृतप्रत्यय है । यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, चक्षुके द्वारा घटके अवलम्बनीभूत *ताप्रती 'विशिष्टं वस्तु' इति पाठ:1:ताप्रतो । तरुष्क ' इति पाठः । ४ ताप्रती । विषय: कविधः' इति पाठः। काप्रती एकजातिविषयः प्रत्ययोरेकत्वाभावात 'इति पाठ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ३५ २३८ ) क्वचिद् घटप्रयत्योत्पत्युपलम्भात् क्वचिद् गौरिव गवय इति उपमया सह उपमेयप्रत्ययोपलम्भात् कदाचित् स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययदर्शनात् कदाचिद् बहूनर्थान् जातिद्वारेणान संदधानस्यानुसंधानप्रत्ययस्य दर्शनात् । अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बित पर भागादिषूत्पद्यमानः प्रत्ययः अनुमानं किन्न स्यादिति चेत्- न, तस्य लिंगादभिन्नार्थविषयत्वात् । न तावदवग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम् तस्य अवग्रहरूपत्वात् । न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्, तस्य ईहापृष्टभाविनः अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात् । क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एवाभिधास्यमानवर्णविषय प्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् क्वचित्स्वभ्यस्तवस्तुनि द्वित्र्यादिस्पर्शात्मके एकस्पर्शोपलम्भकाल एव स्पर्शान्त र विशिष्टतद्वस्तुपलम्भात् क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासन्निहितरसान्तर विशिष्ट वस्तू पलम्भात् । निःसृतमित्यपरे पठन्ति । तन्न घटते, उपमाप्रत्ययस्य एकस्यैव तत्रोपलम्भात् । एतत्प्रतिपक्षो निःसृतप्रत्ययः, क्वचित्कदाचिद्वस्त्वेकदेश एव प्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् । प्रतिनियत गुणविशिष्टवस्तुपलम्भकाल एव तदिन्द्रियानियत गुणविशिष्टस्य तस्योपलब्धिरनुक्तप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, चक्षुषा लवण-शर्करा- खण्डोपलम्भकाल एव अर्वाग्भागके देखने के समयमें ही कहीं पर पूरे घटके ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । कहींपर वय गायके समान होता है ' इस प्रकार उपमाके साथ ही उपमेयज्ञानकी उपलब्धि होती है । कदाचित् ' वही यह है ' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय देखा जाता है । कदाचित् बहुत अर्थोंका जातिद्वारा अनुसंधान करनेवालेके अनुसंधान प्रत्यय देखा जाता हैं । शंका- अर्वाग्भाग के आलम्बनबलसे अनालम्बित परभागादिकोंका होनेवाला ज्ञान अनुमान ज्ञान क्यों नही होगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि अनुमानज्ञान लिंगसे भिन्न अर्थको विषय करता है । अर्वाग्भाग के ज्ञानके समान कालमें होनेवाला परभागका ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि, वह अवग्रहस्वरूप ज्ञान है । भिन्न कालमें होनेवाला भी उक्त ज्ञान अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, ईहाके बादमें उत्पन्न होनेसे उसका अवायज्ञानमें अन्तर्भाव होता है । कहींपर एक वर्णके सुनने के समय में ही कहे आगे जानेवाले वर्णविषयक ज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है, कहींपर दो तीन आदि स्पर्शवाली अतिशय अभ्यस्त वस्तुमें एक स्पर्शका ग्रहण होते समय ही दूसरे स्पर्शसे युक्त उस वस्तुका ग्रहण होता है; तथा कहींपर एक रसके ग्रहण समयमें ही उस प्रदेशमें असन्निहित दूसरे रससे युक्त वस्तुका ग्रहण होता है; इसलिये भी अनिःसृतप्रत्यय असिद्ध नहीं है । दूसरे आचार्य अनिःसृतके स्थानमें निःसृत पाठ पढते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर एकमात्र उपमा प्रत्यय हीं वहां उपलब्ध होता है। इसका प्रतिपक्षभूत निःसृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी कालमें वस्तुके एकदेश के ज्ञानकी ही उत्पत्ति देखी जाती है । प्रतिनियत गुण विशिष्ट वस्तुके ग्रहण के समय ही जो गुण उस इन्द्रियका विषय नहीं है ऐसे गुणसे युक्त उस वस्तुका ग्रहण होना अनुक्तप्रत्यय है । यह प्रत्यय असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, चक्षुके द्वारा लवण, शर्करा और खांडके ग्रहण के समय ही तातो प्रतिनियम इति पाठ: 1 " . Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुओगद्दारे आभिणिबोहियणाणपरूवणा (२३९ कदाचित्तद्रसावगतेः, प्रदीपस्वरूपग्रहणकाल एव कदाचित्तत्स्पर्शोपलम्भात्, आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोपलम्भाच्च। एतत्प्रतिपक्षः उक्तप्रत्ययः । निःसतोक्तयोः को भेदश्चेत- न, उक्तस्य निःसतानिःसृतोभयरूपस्य निःसतेनैकत्वविरोधात् । नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्ययः स्थिरः । न च स्थिरप्रत्ययः एकान्त इति प्रत्यवस्थातुं युक्तम्, विधि-निषेधाविद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात् । विद्युत्प्रदीपज्वालादौ उत्पाद-विनाशविशिष्टवस्तुप्रत्ययः अध्रुवः । उत्पादव्यय-ध्रौव्य विशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुवः, ध्रुवात्पृथग्भूतत्वात् । मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेत्-अदृष्टमश्रुतमननुभूतं च । न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, अन्यथा उपदेशमन्तरेण द्वादशांगश्रुतावगमनानुपपत्तेः । इदानीमुच्चार्य द्वादश प्रत्यया अवबोध्यन्ते । तद्यथा- चक्षुषा बहुमवगृह णाति १। चक्षुषा एकमवगृह णाति २ । चक्षुषा बहुविधमवगृह णाति ३। चक्षुषा एकविधमवगृह णाति ४ । चक्षुषा क्षिप्रमवगृह णाति ५ । चक्षुषा अक्षिप्रमवगृह णाति ६ । चक्षुषा अनिःसृतमवगृह णाति ७ । चक्षुषा निःसृतमवगृह णाति ८ । चक्षुषा अनुक्तमवगृह णाति ९ । चक्षुषा उक्तमवगृह णाति १०। कदाचित् उसके रसका ज्ञान हो जाता हैं, प्रदीपके स्वरूपका ग्रहण होते समय ही कदाचित् उसके स्पर्शका ज्ञान हो जाता है, और संस्कारसंपन्न किसीके शब्दश्रवणके समय ही उस वस्तुके रसादिका ज्ञान भी देखा जाता है । इसका प्रतिपक्षभूत उक्तप्रत्यय है । शंका- निःसृत और उक्त में क्या भेद है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्तप्रत्यय निःसत और अनिःसृत उभयरूप होता है, इसलिये उसे निःसृतसे अभिन्न मानने में विरोध आता है। नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदिका ज्ञान स्थिर अर्थात् ध्रुवप्रत्यय है । और स्थिरज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है; क्योंकि, विधि-निषेधके द्वारा यहांपर भी अनेकान्तकी विषयता देखी जाती है। बिजली और दीपककी लौ आदिमें उत्पाद-विनाशयुक्त वस्तुका ज्ञान अध्रुवप्रत्यय है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तुका ज्ञान भी अध्रुवप्रत्यय हैं; क्योंकि, यह ज्ञान ध्रुवज्ञानसे भिन्न है। शंका- मनसे अनुक्तका विषय क्या है ? समाधान- अदृष्ट, अश्रुत और अननुभूत पदार्थ । इन पदार्योंमें मनकी प्रवृत्ति असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा नही माननेपर उपदेशके विना द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता है। अब बारह प्रकारके प्रत्ययोंका उच्चारण करके ज्ञान कराते हैं । यथा- चक्षुके द्वारा बहुतका अवग्रहज्ञान होता है १ । चक्षुके द्वारा एकका अवग्रहज्ञान होता है २ । चक्षुके द्वारा बहुविधका अवग्रहज्ञान होता है ३ । चक्षुके द्वारा एकविधका अवग्रहज्ञान होता है ४। चक्षुके द्वारा क्षिप्रका अवग्रहज्ञान होता है ५ । चक्षुके द्वारा अक्षिप्रका अवग्रहज्ञान होता है ६ । चक्षुके द्वारा अनिःसृतका अवग्रहज्ञान होता है ७ । चक्षुके द्वारा निःसृतका अवग्रहज्ञान होता है ८ । चक्षुके द्वारा अनुक्तका अवग्रहज्ञान होता है ९ । चक्षुके द्वारा उक्तका अवग्रहज्ञान होता Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, ३५. चक्षुषा ध्रुवमवगृह णाति ११ । चक्षषा अध्रुवमवगृह णाति १२ । एवंचक्षुरिन्द्रियावग्रहो द्वादशविधः । एवमीहावाय-धारणानामपि प्रत्येकं द्वादश भंगाः । प्रतिपाद्याः । तद्यथा- चक्षुषा बहुमीहते १, एकमीहते २, बहुविधमोहते ३, एकविधमीहते ४, क्षिप्रमीहते ५, अक्षिप्रमीहते ६, अनि सतमीहते ७, निःसृतमीहते ८, अनुक्तमीहते ९, उक्तमीहते १०, ध्रुवमीहते ११, अध्रवमीहते १२ । एवमीहायाः द्वादश भेदाः । बहुमवैति १, एकमवैति २, बहुविधमवैति ३, एकविधमवैति ४, क्षिप्रमवैति ५, अक्षिप्रमवैति ६, अनिःसतमवैति ७, निःसतमवैति ८, अनुक्तमवैति ९, उक्तमवैति १०, ध्रुवमवैति ११, अध्रुवमवैति १२। एवं द्वादश अवाय भेदाः । बहुं धारयति २ एकं धारयति २, बहुविधं धारयति ३, एकविधं धारयति ४, क्षिप्र धारयति ५, अक्षिप्रं धारयति ६, अनिःसतं धारयति ७, निःसृतं धारयति ८, अनुक्तं धारयति ९, उक्तं धारयति १०, ध्रुवं धारयति ११, अध्रवं धारयति १२ । एवं धारणायाः द्वादश भेदाः । संपहि एदेण बीजपदेण सव्वभंगा उच्चारेदव्वा । एवमुच्चारिय सिद्धभंगाणं पमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा- ४, २४, २८, ३२ एदे पुवुप्पाइदे भंगे दोसु है १० । चक्षुके द्वारा ध्रुवका अवग्रहज्ञान होता है ११ । चक्षुके द्वारा अध्रुवका अवग्रहज्ञान होता है १२ । इस प्रकार चक्षुइन्द्रियअवग्रह बारह प्रकारका हैं । इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणाके भी अलग अलग बारह बारह भेद जानने चाहिये । यथा- चक्षुके द्वारा बहुतका ईहाज्ञान होता है १ एकका ईहाज्ञान होता है २ । बहुविधका ईहाज्ञान होता है ३ । एकविधका ईहाज्ञान होता है ४ । क्षिप्रका ईहाज्ञान होता है ५ । अक्षिप्रका ईहाज्ञान होता है ६ । अनिःसृतका ईहाज्ञान होता है ७ । निःसृतका ईहाज्ञान होता है ८ । अनुक्तका ईहाज्ञान होता है ९ । उक्तका ईहाज्ञान होता है १० । ध्रुवका ईहाज्ञान होता है ११ । अध्रुवका ईहाज्ञान होता है १२ । इस प्रकार ईहाके बारह भेद हैं। बहुतका अवायज्ञान होता है १ । एकका अवायज्ञान होता है २ । बहुविधका अवायज्ञान होता है ३ । एकविधका अवायज्ञान होता है ४ । क्षिप्रका अवायज्ञान होता है ५ । अक्षिप्रका अवायज्ञान होता है ६ । अनिःसृतका अवायज्ञान होता है ७ । निःसृतका अवायज्ञान होता है ८ । अनुक्तका अवायज्ञान होता है ९ । उक्तका अवायज्ञान होता है १० । ध्रुवका अवारज्ञान होता है ११ । अध्रुवका अवायज्ञान होता है १२ । इस प्रकार अवायज्ञान बारह प्रकारका है । बहुतका धारणाज्ञान होता है १ । एकका धारणाज्ञान होता है २ । बहुविधका धारणाज्ञान होता है ३ । एकविधका धारणाज्ञान होता है ४ । क्षिप्रका धारणाज्ञान होता है ५ । अक्षिप्रका धारणाज्ञान होता है ६ । अनिःसृतका धारणाज्ञान होता है ७ । निःसृतका धारणाज्ञान होता है ८ । अनुक्तका धारणाज्ञान होता है ९ । उक्तका धारणाज्ञान होता है १० । ध्रुवका धारणाज्ञान होता है ११ । अध्रुवका धारणाज्ञान होता है १२ । इस प्रकार धारणाज्ञानके बारह भेद हैं। अब इस बीजपदके द्वारा सब भंगोंका उच्चारण करना चाहिये । इस प्रकार उच्चारण करके सिद्ध हुए भंगोंके प्रमाणका कथन करते हैं । यथा -पहले उत्पन्न किये गये ४, २४, २८ और ३२ . भेदोंको दो स्थानों में रखकर छह और बारहसे गुणा करके और पुनरुक्त भंगोंको कम करके Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५,३६. ) पर्या अणुओगद्दारे ओग्गहादीण पज्जायसद्दा ( २४१ वि छह बारसेहि य गुणिय पुणरुत्तभवणिय परिवाडीए टुइदे सुत्तपरूविदभंगपमाणं होदि । तं च एदं - ४, २४, २८, ३२, ४८, १४४, १६८, १९२, २८८, ३३६, ३८४ । जत्तिया मदिणाणवियप्पा तत्तिया चेव आभिणिबोहियणाणावरणीयस्स पर्याडवियप्पा त्ति वत्तव्यं । तस्सेव आभिणिबोहियणाणावरणीयकम्मस्स अण्णा परूवणा कायव्वा भवदि ।। ३६ ।। का अण्णा अत्थपरूवणा ? चदुष्णमोग्गहादीणमाभिणिबोहियणाणस्स च पज्जायसद्दपरूवणा पुव्वपरूवणादो पुधभूदा त्ति अण्णा वत्तव्वा । किमटुमेसा बुच्चदे ? सुहावगमणट्ठ । क्रमसे स्थापित करनेपर सूत्रमें कहे गये भेदों का प्रमाण होता है वह इस प्रकार है- ४, २४, २८, ३२, ४८, १४४, १६८, १९२, २८८. ३३६, ३८४. जितने मतिज्ञानके भेद हैं उतने ही आभिनिबोधि कज्ञानावरणीय के प्रकृतिविकल्प है, ऐसा कहना चाहिये | विशेषार्थ - यहां मतिज्ञानके अवान्तर भेदोंका विस्तारके साथ विवेचन किया गया है । मूल में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ४ भेद हैं । इन्हें पांच इन्द्रिय और मनसे गुणित करनेपर २४ भेद होते हैं । इनमें व्यंजनावग्रहके ४ भेद मिलानेपर २८ भेद होते हैं । ये २८ उत्तर भेद हैं, इसलिए इनमें अवग्रह आदि ४ मूल भंग मिलानेपर ३२ भेद होते हैं । ये तो इन्द्रियों और अवग्रह आदिकी अलग अलग विवक्षासे भेद हुए । अब जो बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव ऐसे छह प्रकार के पदार्थ तथा इनके प्रतिपक्षभूत छह इतर पदार्थों को मिलाकर बारह प्रकारके पदार्थ बतलाये हैं उनसे अलग अलग उक्त विकल्पोंको गुणित किया जाता है तो सूत्रोक्त मतिज्ञानके सभी विकल्प उत्पन्न होते हैं । यथा- ४×६ = २४, २४×६ = १४४, २८४६ = १६८, ३२x६ = १९२; ४×१२ = ४८, २४४१२ = २८८, २८×१२ = ३३६, ३२x१२ = ३८४. मतिज्ञानके २४ भेद पहले कहे ही है और यहां भी ४ को ६ से गुणित करनेपर २४ विकल्प आते हैं, इसलिए इस २४ संख्याको पुनरुक्त मानकर अलग कर देनेपर ४, २४, २८, ३२ ४८, १४४, १६८, १९२, २८८, ३३६, और ३८४ मतिज्ञानके विकल्प होते हैं। यद्यपि पहले जो २४ विकल्प कहे हैं वे अन्य प्रकारसे कहे गये हैं और यहां अन्य प्रकारसे उत्पन्न किये गये हैं, पर संख्या की दृष्टि से एक चौवीसीको पुनरुक्त मानकर अलग कर दिया है । उसी आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा की जाती है । ३६ । शंका- अन्य अर्थप्ररूपणा कौनसी है ? समाधान- चार अवग्रह आदिके और आभिनिबोधिक ज्ञानके पर्यायवाची शब्दों की प्ररूपणा चूंकि पूर्वोक्त प्ररूपणासे भिन्न है, इसलिये इसे अन्य कहनी चाहिये । शंका- इसका कथन किसलिये करते हैं ? समाधान- सुखपूर्वक ज्ञान होनेके लिये । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ३७ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा* ॥ ३७॥ एदे पंच वि ओग्गहस्स पज्जायसहा । अवग्रह्मते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः । अपनीयते खण्ड्यते परिच्छिद्यते अन्येभ्य अर्थः अनेनेति अवदानम् । स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति अनध्यवसायमित्यवग्रहः सानम । अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोत्पत्तये इत्यवग्रहः अवलम्बना । मेध्यति परिछिनत्ति. अर्थमनया इति मेधा । संपहि ईहाए एय?परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि ईहा ऊहा अपोहा. मग्गणा गवसणा मोमासा ॥ ३८ ॥ उत्पन्नसंशयविनाशाय ईहते चेष्टते अनया बुद्धया इति ईहा । अवगृहीतार्थस्य अनधिगतविशेषः उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा। अपोह्यते संशयनिबन्धनविकल्पः अनया इति अपोहा। अवगहीतार्थविशेषो मग्यते अन्विष्यते अनया इति मार्गणा। गवेष्यते अनया इति गवेषणा। मीमांस्यते विचार्यते अवगृहीतो अर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा। अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रहके पर्यायवाची नाम है ।३७। __ये पांचो ही अवग्रहके पर्याय शब्द हैं। जिसके द्वारा घटादि पदार्थ · अवगृह्यते' अर्थात जाने जाते हैं वह अवग्रह है। जिसके द्वारा ' अवदीयते खण्डयते ' अर्थात् अन्य पदार्थोस अलग करके विवक्षित अर्थ जाना जाता है वह अवग्रहका अन्य नाम अवदान है । जो अनध्यवसायको 'स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति' अर्थात् छेदता है नष्ट करता है वह अवग्रहका तीसरा नाम सान है । जो अपनी उत्पत्ति के लिये इन्द्रियादिकका अवलम्बन लेता है वह अवग्रहका चौथा नाम अवलम्बना है। जिसके द्वारा पदार्थ · मेध्यति' अर्थात् जाना जाता है वह अवग्रहका पांचवां नाम मेधा है । अब ईहाके एकार्थों का कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये ईहाके पर्याय नाम है ।३८। जिस बुद्धिके द्वारा उत्पन्न हुए संशयका नाश करने के लियं 'ईहते ' अर्थात् चेष्टा करते हैं वह ईहा है । जिसके द्वारा अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गय अर्थके नहीं जाने गये विशेष की 'ऊह्मते ' अर्थात् तर्कणा करते हैं वह ऊहा है। जिसके द्वारा संशयके कारणभूत विकल्पका 'अपोह्मते' अर्थात् निराकरण किया जाता है वह अपोहा है। अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये अर्थके विशेषके जिसके द्वारा मार्गण अर्थात् अन्वेषण किया जाता है वह मार्गणा है। जिसके द्वारा गवेषणा की जाती है वह गवेषणा है । अवग्रहके द्वारा ग्रहण किया गया अर्थ विशेषरूपसे जिसके *तस्स णं इमे एगदिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति । तं जहा- ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंवणया मेहा [ से त्तं उग्गहे । न. सू. २९. काप्रती 'अवधानं ' इति पाठः 1 ४ताप्रती परिच्छिन्नत्ति ' इति पाठः । . अ-आ-काप्रतिषु । पूहा' इति पाठः । ... तीसे णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंचनामधिज्जा भवंति । तं जहा- आभोगणया मग्गणया गवेसणया चिता विमंसा । से तं ईहा 1 नं. सू ३२. ईहा अपोह वीमसा मग्गणा य गवेसणा। सन्ना सई मई पन्ना सव्व आभिणिबोहियंा नं. सु. गाथा ६. वि. भा. ३९६. ताप्रती ' अनधिगतिविशेषः 'इति पाठ: 1 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tfsअणुओगद्दारे ओग्गहादीण पज्जायसद्दा ५,५,४०. ) संपहि अवायस्स एयट्ठपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि अवायो ववसायों बुद्धी विष्णाणी आउंडी पच्चाउंडी* ॥३९॥ अवेयते निश्चीयते मीमांसितोऽर्थोऽनेनेत्यवायः । व्यवसीयते निश्चीयते अन्वेषितोऽर्थोऽनेनेसि व्यवसायः । ऊहितोऽर्थो बुद्धयते अवगम्यते अनया इति बुद्धिः । विशेरूपेण ज्ञायते तक्कितोऽर्थोनया इति विज्ञप्तिः । आमुंडयते संकोच्यते विर्ताकतोऽर्थः अनति आमुंडा । प्राकृते ' एदे छच्च समाणा ' इत्यनेन ईत्वम् । प्रत्यर्थ मामुंडयते संकोच्यते मीमांसितोऽर्थः अनयेति प्रत्यामुंडा । संपहि धारणाए एयट्ठपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि - ( २४३ धरणी धारणा* ट्ठवणा कोट्ठा पविट्ठा ।। ४० ।। धरणीव बुद्धिर्धरणी । यथा धरणी गिरि-सरित् सागर- वृक्ष- क्षपाइमादीन् धारयति तथा निर्णीतमर्थं या बुद्धिर्धारयति सा धरणी णाम । धार्य्यते निर्णीतोऽर्थः अनया इति धारणा । स्थाप्यते अनया निर्णीतरूपेण अर्थ इति स्थापना | कोष्ठा इव कोष्ठा । कोष्ठा नाम कुस्थली, तद्वन्निर्णीतार्थं धारयतीति कोष्ठेति भण्यते । द्वारा मीमांसित किया जाता है अर्थात् विचारा जाता है वह मीमांसा है । अब अवायके एकाका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुंडा और प्रत्यामुंडा ये पर्याय नाम हैं । ३९ । जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ 'अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है । जिसके द्वारा अन्वेषित अर्थ ' व्यवसीयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह व्यवसाय हैं । जिसके द्वारा ऊहित अर्थ 'बुद्धयते' अर्थात् जाना जाता है वह बुद्धि हैं । जिसके द्वारा तर्कसंगत अर्थ विशेषरूप से जाना जाता है वह विज्ञप्ति है । जिसके द्वारा वितर्कित अर्थ 'आमुंडयते' अर्थात् संकोचित किया जाता है वह आमुंडा है । प्राकृत में 'एदे छच्च समाणा इस नियम के अनुसार यहां ईत्व हो गया है । जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ अलग अलग 'आमुंडयते ' अर्थात् संकोचित किया जाता है वह प्रत्यामुंडा है । अब धारणा ज्ञानके एकार्थोंका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । ' धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम हैं । ४० । धरणी समान बुद्धिका नाम धरणी है । जिस प्रकार धरणी ( पृथिवी ) गिरि, नदी, सागर, वृक्ष, झाडी और पत्थर आदिको धारण करती है उसी प्रकार जो बुद्धि निर्णीत अर्थको धारण करती है वह धरणी है। जिसके द्वारा निर्णीत अर्थ धारण किया जाता है वह धारणा जिसके द्वारा निर्णीत रूपसे अर्थ स्थापित किया जाता है वह स्थापना है । कोष्ठाके समान बुद्धिका नाम कोष्ठा है । कोष्ठा कुस्थलीको कहते हैं । उसके समान जो निर्णीत अर्थको धारण करती है वह बुद्धि कोष्ठा कही जाती है । जिसमें विनाशके विना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि प्रतिष्ठा है । 1 तस्स णं इमे एगट्टिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच णामधिज्जा भवंति 1 तं जहा- आउट्टणया पच्चाउट्टणया अवाए बुद्धी विष्णाणे । से तं अवाए । नं सू. ३३. ॐ अ-आ-ताप्रतिषु ' धारणी इति पाठः । X तीसे णं इमे एगट्ठआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवति । तं जहा - धरणा धारणा ठवणा पट्टा कोट्ठे से त्तं धारणा । नं सू. ३४ ताप्रतावतः पाकू ( स्थाप्यते अनया इति धारणा ) इत्येतावानयं 1 कोष्ठकान्तर्गतोऽधिकः पाठोऽस्ति 1 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड प्रतितिष्ठिन्ति विनाशेन विना अस्यामा इति प्रतिष्ठा । संपहि आभिणिबोहियणाणाणस्स एय?परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि सण्णा सदी मवी चिता चेदि ॥ ४१ ॥ सम्यग्ज्ञायते अनया इति संज्ञा । स्मरणं स्मतिः । मननं मतिः। चिन्तनं चिन्ता। एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि ॥ ४२ ॥ आभिणिबोहियणाणपरूवणाए कदाए कधं तदावरणीयस्स परूवणा होदि ? ण एस दोसो, आभिणिबोहियणाणावगमस्स तदावरणावगमाविणाभावित्तादो । संपहि सुहमेइंदियलद्धिअक्खरप्पहडि छवड्ढीए द्विदअसंखेज्जलोगमेतमदिणाणवियप्पा अस्थि, ते एत्थ किण्ण परूविदा? ण एस दोसो, तेसि सव्वेसि पि णाणाणं तदावरणाणं च एत्थेव अंतभावादो। अधवा, देसामासियमिदं सुत्तं, तेण ते वि एत्थ परूवेदव्वा। अम्हे अब आभिनिबोधिक ज्ञानके एकार्थों का कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंसंज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये एकार्थवाची नाम हैं । ४१ ।। जिसके द्वारा भले प्रकार जानते हैं वह संज्ञा है । स्मरण करना स्मृति है। मनन करना मति है। चिन्तन करना चिन्ता है । इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मको अन्य प्ररूपणा की गई है । ४२ । शंका - आभिनिबोधिक ज्ञानका कथन करनेपर आभिनिबोधिकज्ञानावरणका कथन कैसे होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आभिनिबोधिक ज्ञानका अवगम आभिनिबोधिकज्ञानावरणके अवगमका अविनाभावी है। शंका - सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके लब्ध्यक्षरज्ञानसे लेकर छह वृद्धियोंके साथ स्थित असंख्यात लोकप्रमाण मतिज्ञानविकल्प होते हैं, वे यहां क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उन सब ज्ञानोंका और उनके आवरण कर्मोंका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। अथवा यह सूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये वे भी यहांपर कहने चाहिय _ विशेषार्थ - जिस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य श्रुतज्ञान होता है और आगे उत्तरोत्तर उस ज्ञान में असंख्यात लोकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी वृद्धि देखी जाती है उसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य मतिज्ञान होता है और आगे उस ज्ञानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी वृद्धि देखी जाती है। इतना ही नहीं आगे चलकर अक्षरज्ञानके उत्पन्न होनेपर फिर दुगुणी तिगुणी आदि वृद्धि होकर जिस प्रकार पूर्ण श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है उसी प्रकार मतिज्ञानकी भी उत्तरोत्तर वृद्धि होनी चाहिये । इसलिए प्रश्न है कि यहांपर इस विवक्षासे मतिज्ञानका विवेचन क्यों नहीं किया । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यहां मतिज्ञानके जातिकी अपेक्षा ४मति स्मति संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् । त. सू.१-१३. सण्णा सई मई पण्णा सव्व आभिणिबोहियं ll नं. सू. गाथा ६, वि. मा. ३९६ ( नि. १२).0 ताप्रती 'स्मृतिः स्मरणं । मति: मनन । चिंता चितनं 1' इति पाठ:14 ताप्रती धवलान्तर्गतमिदं न सूत्रत्वेनोपलभ्यते । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४३. ) पर्या अणुओगद्दारे ईहावरणीयपरूवणा ( २४५ दु 'मदिव्वं सुदं' इदि जाणावणट्ठ सुदणाणावरणपरूवणाए तप्परूवणं कस्सामो । सुदाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? । ४३ । किं संखेज्जाओ किमसंखेज्जाओ किमणंताओ त्ति पुच्छा कदा होदि । कि सुदणाणं णाम ? अवग्गहादिधारणापेरंतमदिणाणेण अवगयत्थादो अण्णत्थावगमो सुदणाणं | तं च दुविहं - सद्दलिंगजं असद्दलिंगजं चेदि । धूर्मालगादो जलगावगमो असलंगजी । अवरो सलगजो । क्लिक्खणं लिंगं ? अण्णहाणुववत्तिलक्खणं । पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वं विपक्षे च असत्त्वमिति एतैस्त्रिभिर्लक्षणैरुपलक्षितं वस्तु किं न लिंगमिति चेत्- न, व्यभिचारात् । तद्यथा - पक्वान्याम्र फलान्येकशाखाप्रभवत्वादुपयुक्तास्रफलवत्, श्यामः त्वत्पुत्रत्वादितरपुत्रवत् सा भूमिः भूमित्वात्, वादि-प्रतिवादिप्रसिद्ध भूभाग स समस्थला समस्थलत्वेन भेद गिनाये हैं, उत्तरोत्तर वृद्धिगत क्षयोपशमकी अपेक्षा भेद नहीं गिनाये हैं; इसलिए क्षयोपशमकी मुख्यतासे जो भेद सम्भव हों उनका इन्हीं भेदों में अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि यहांपर आभिनिबोधिक ज्ञानके जो मति आदिक पर्याय नाम बनलाये हैं वे अलग अलग ज्ञानविशेषको सूचित नहीं करते हैं। यहां जितने पर्यायवाची नाम दिये गये है वे इसी भावको सूचित करते हैं । अब हम मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये श्रुतज्ञानावरण कर्मकी प्ररूपणा के प्रसंगसे उसकी प्ररूपणा करते हैं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। ४३ ।। क्या संख्यात है, क्या असंख्यात हैं, या क्या अनन्त हैं इस प्रकार यहां पृच्छा की गई है । शंका- श्रुतज्ञान का है ? समाधान - अवग्रहसे लेकर धारणा पर्यंत मतिज्ञानके द्वारा जाने गये अर्थके निमित्त से अन्य अर्थका ज्ञान होना श्रुतज्ञान है । वह दो प्रकारका है- शब्दलिंगज और अशब्दलिंगज । धूमके निमित्तसे अग्निका ज्ञान होना अशब्दलिंगज श्रुतज्ञान है। दूसरा शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । शंका- लिंगका क्या लक्षण है ? समाधान - लिंगका लक्षण अन्यथानुपपत्ति है । शंका - पक्षधर्मत्व, सपक्षमें सत्त्व और विपक्ष में असत्त्व इस प्रकार इन तीन लक्षणोंसे उपलक्षित पदार्थ लिंग क्यों नहीं माना जाता ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसे पदार्थको लिंग माननेपर व्यभिचार दोष आता है । यथा - आमके फल पक्व हैं, क्योंकि, वे एक शाखासे उत्पन्न हुए हैं, यथा उपयुक्त आमके फल । वह श्याम होगा, क्योंकि, वह तुम्हारा बालक है, यथा तुम्हारे दूसरे बालक । वह भूमि समस्थवाली है, क्योंकि भूमि है, यथा समस्थलरूपसे वादी और प्रतिवादी दोनोंके लिये प्रसिद्ध भूभाग । त. सू. १-२० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ४३. वत्, लोहलेख्यं वज्रं पार्थिवत्वात घटवत इत्यादीनि साधनानि* विलक्षणान्यपि न साध्यसिद्धये भवन्ति । विश्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात, वर्द्धते समुद्रश्चन्द्रवृद्धयन्यथानुपपत्तः, चन्द्रकान्तोपलास्रवत्युदकं चन्द्रोदयान्यथानुपपत्तः, उदेष्यति रोहिणी कृतिको दयान्यथानुपपत्तेः, म्रियते राजा रात्राविन्द्रचापोत्पत्यन्यथानुपपत्तेः, राष्ट्रभंगः राष्ट्राधिपतेर्मरणं वा प्रतिमारोदनान्यथानुपपत्तेः, इत्यादीनि साधनानि अविलक्षणान्यपि साध्यसिद्धये प्रभवन्ति । ततः इदमन्तरेण इदमनुपपन्नमितीदमेकमेव लक्षणं लिंगस्येति प्रत्येतव्यम् । अत्र श्लोकः अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १० ॥ नात्र तादात्म्य तदुत्पत्त्यन्यतरनियमोऽपि, व्यभिचारात्। स च सुगम इति नेह प्रपंच्यते। शेषं हेतुवादेषु दृष्टव्यम् । एत्थ सलिगजसुदणाणपरूवणा कीरदे । एदेण लोहलेख्य वज्रमय है, क्योंकि वह पार्थिव है, यथा घट। इत्यादिक साधन तीन लक्षणवाले होकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं होते । इसके अतिरिक्त विश्व अनेकान्तात्मक है, क्योंकि, वह सत्स्वरूप है । समद्र बढता है, अन्यथा चन्द्रकी वृद्धि नहीं बन सकती । चन्द्रकान्त मणिसे जल झरता है, अन्यथा चन्द्रोदयकी उपपत्ति नहीं बन सकती। रोहिणी उदित होगी, अन्यथा कृत्तिकाका उदय नहीं बन सकता। राजा मरनेवाला है, अन्यथा रात्रिमें इन्द्रधनुष्यकी उत्पत्ति नहीं बन सकती । राष्ट्रका भंग या राष्ट्र के अधिपतिका मरण होगा, अन्यथा प्रतिमाका रुदन करना नहीं बन सकता । इत्यादिक साधन तीन लक्षणोंसे रहित होकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ हैं । इसलिये ' इसके विना यह नहीं हो सकता' यही एक लक्षण लिंगका जानना चाहिए। इस विषयमें एक श्लोक है जहां अन्यथानुपपत्ति है वहां पक्षसत्वादि उन तीनके होनेसे क्या मतलब अर्थात् कुछ भी नहीं, और अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां उन तीनके होनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा अर्थात कुछ भी नहीं । १०।। __ यहां तादात्म्य और तदुत्पत्ति इनमें से किसी एक का नियम मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर व्यभिचार दोष आता है। वह सुगम है, इसलिये यहां उसका कथन नहीं करते । शेष कथन हेतुवादके प्रतिपादक ग्रन्थों में देखना चाहिये। यहां शब्दलिंगज श्रुतज्ञानका कथन करते हैं *प्रतिषु 'साधनादीनि इति पाठः। 8 अ-आ-काप्रतिषु 'इदमनतरेण', ताप्रती ' इदम तरेण ( मंतरेण ) ' इति पाठ . दृष्टव्यास्त्यत्र पण्डितमहेन्द्रकुमारन्यायाचार्येण लिखिता न्यायकुमुदचन्द्रप्रस्तावना ( प ७३-७६. ) पण्डितदरबारीलालन्यायाचार्येण सम्पादिता न्यायदीपिका च (पृ. ९४, टि. ७) 3 तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धेऽप्यविनाभावादेव गमकत्वम् । तदभावे वात्व-सत्पुत्रत्वादेस्तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धे सत्यप्यसर्वज्ञत्वे श्यायत्वे च साध्ये गमकत्वाप्रतीते । तदभावेऽपि चाविनाभावप्रसादात्कृत्तिकोदय- चन्द्रोदयोगहीताण्डकपिपीलिकोत्सर्पणकाम्रफलोपलभ्यमानमधररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रम शकटोदय-समानसययसमुद्रवृद्धि-भाविवृष्टि-समसमयसिन्दूरारूणरुपस्वभावेसु साध्येषु गमकत्वप्रतीतेश्च । प्र. क. मा. पृ. ११०. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४५. पर्याअणुओगद्दारे सुदणाणवरणीयपरूवणा ( २४७ देसामासियभावमावण्णेण सूचिदस्स असद्दलिंगजसुदणाणस्स परूवणा किष्ण कीरदे ? बहुत्तभेण दमेहाविजणाणुग्गहट्ठे च ण कीरदे । सुवणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ ॥ ४४ ॥ कुदो ? सज्झिमसंखेवसमासयणादो । तासि पयडीणं संखेज्जत्तपटुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा ।। ४५ ।। जादियाणि अक्खराणि तावदियाणि चैव सुदणाणाणि, एगेगक्खरादो एगेगसुदणाणुत्पत्तीए । एत्थ ताव अक्खरपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा- वग्गक्खरा पंचवीस, अंतस्था चत्तारि, चत्तारि उम्हाक्खरा, एवं तेत्तीसा होंति वंजणाणि ३३ । अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स- दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्तावीस होंति । एचां हृस्वा न सन्तीति चेत्- न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । अजगवाहा अं अः प इति चत्तारि चेव होंति । एवं सव्वक्खराणि चउसट्ठी ६४ । एत्थ गाहा क शंका- देशामर्शकभावको प्राप्त हुए इस सूत्र द्वारा अशब्दलिंगज श्रुतज्ञानका भी सूचन होता है, इसलिये यहां उसका कथन क्यों नहीं करते ? समाधान- ग्रन्थके बढ जानेके भयसे और मन्दबुद्धि जनोंका उपकार करने के अभि-प्राय से यहां अशब्दलिंगज श्रुतज्ञानका कथन नहीं करते । श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी संख्यात प्रकृतियां हैं ॥ ४४ ॥ क्योंकि यहां मध्यम संक्षेपका आश्रय लिया गया है । अब उन प्रकृतियोंकी निश्चित संख्याका ज्ञान कराने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं जितने अक्षर हैं और जितने अक्षरसंयोग हैं उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियां हैं ।। ४५ ।। जितने अक्षर है उतने ही श्रुतज्ञान हैं, क्योंकि एक एक अक्षरसे एक एक श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है । अब यहां अक्षरोंके प्रमाणका कथन करते हैं । यथा वर्गाक्षर पच्चीस, अन्तस्थ चार और उष्माक्षर चार इस प्रकार तेतीस व्यंजन होते हैं । अ, इ, उ, ऋ, लृ ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग अलग -हस्व, दीर्घ और प्लुत के भेदसे सत्ताईस होते हैं । शंका- एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ और औ इनके हस्व भेद नहीं होते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नही आता । अयोगवाह अं, अः, क और प ये चार ही होते हैं । इस प्रकार सब अक्षर चौंसठ ६४ होते हैं । इस विषय में गाथा * पत्तेयमक्खराई अक्खरसंजोगा जत्तिया लोए | एवइया सुयनाणे पयडीओ होंति नायव्वा । 1 वि भा. ४४४ ( नि. १७) ताप्रती ' + क' इति पाठः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तेत्तीसवंजणाई सत्तावीसं हवंति सव्वसरा। चत्तारि अजोगवहा एवं चउसट्ठि वण्णाओ।११। एकमात्रो हृस्वः, द्विमात्रो दीर्घः, त्रिमात्रः प्लतः, मात्रार्द्ध व्यंजनम् । अत्र श्लोकः __एकमात्रो भवेद्धस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।। त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं त्वर्द्धमात्रकम् । १२ । एदेहि चउसद्विअक्सरेहितो चउसट्रिसुदणाणवियप्पा होति । तेसिमावरणाणं पि चउसट्रिपमाणं होदि । जावदियाणि अक्खराणि त्ति एदस्स अत्थो परूविदो। जावदिया अक्खरसंजोगा त्ति एक्स्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा- एदेसि चउसट्ठिअक्खराणं जत्तिया संजोगा तत्तियमेत्ता वा सुदणाणवियप्पा होति । एत्थ वासद्दो वियप्पत्थे वटुव्वो । तेण जत्तियाणि अक्खराणि तत्तियमेत्ता सुदणाणवियप्पा होति, चउसद्विअवखरेहितो पूधभूदअक्खरसंजोगाभावादो। अक्खरसंजोगमेत्ता वा सुदणाणवियप्पा होति, अक्खरसंजोहितो पुधभूदच उसट्ठिअक्खराणमभावादो। एदेसि चउसटुिअक्खराणं संजोगक्खरपमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं तेसिं गणिदगाधा भवदिसंजोगावरणढें चउछि थावए दुवे रासि । अण्णोण्णसमन्मासो रूवणं णिहिसे गणिवं ॥ ४६ ॥ तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर और चार अयोगवाह इस प्रकार कुल वर्ण चौंसठ होते हैं । ११॥ एक मात्रावाला वर्ण हृस्व होता है, दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तीन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है, और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यंजन होता है । इस विषयमें एक श्लोक है एक मात्रावाला हस्व कहलाता है, दो मात्रावाला दीर्घ कहलाता है, तीन मात्रावाला प्लुत जानना चाहिये और व्यंजन अर्ध मात्रावाला होता है । १२ ।। इन चौंसठ अक्षरोंसे चौंसठ श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं और उनके आवरणोंका प्रमाण भी चौंसठ होता है। इस प्रकार 'जितने अक्षर होते हैं, ' इसके अर्थकी प्ररूपणा की है। अब जितने अक्षरसंयोग होते हैं ' इस वचनका अर्थ कहते हैं । यथा- इन चौंसठ अक्षरोंके जितने संयोग होते हैं उतने' मात्र श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं। यहां 'वा' शब्द विकल्परूप अर्थमें जानना चाहिये । इसलिए जितने अक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं, क्योंकि चौंसठ अथरोंसे पृथग्भत अक्षरसंयोग नहीं पाये जाते। अथवा अक्षरोंके संयोगमात्र श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं, क्योंकि, अक्षरसंयोगोंसे पृथग्भत चौंसठ अक्षर नहीं पाये जाते। इन चौंसठ सयोगाक्षरोंका प्रसाण बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है उनकी गणित गाथा है- संयोगावरणोंको लानेके लिए चौंसठ संख्याप्रमाण दो राशि स्थापित करे। पश्चात् उनका परस्पर गुणा करके जो लन्ध आवे उसमेसे एक कम करनेपर कुल संयोगाक्षर होते हैं । ४६ । गो. जी. ३५२. 8 अप्रती 'णिद्देसणे', आ-काप्रत्योः ‘णिद्देसेण' इति पाठ.16 चउसट्रिपद विरलिय दुगं च दाऊण संगणं किच्चा। रूऊणं च कुए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ।। गो. जी. ३५३. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,४६. ) ( २४९ पडअणुओगद्दारे अक्ख रपमाणपरूवणा तेसि मक्खर संजोगाणं गणिदे गगणाए एसा गाहा होदि । ' संजोगावरणट्ठ, अक्खरसंजोगावरणपमाणाणयणदृमिदि वृत्तं होदि । ' चउट्ठ थावए' अक्खराणं चखिं तेहितो धभावेण कव्विय विरलेदूण कम्मभूमीए बुद्धीए वा ठावए * । एत्थ चउसद्विअक्खरट्ठवना एसा अ आ आ३ । इ ई ई ३ । उ ऊ ऊ३ । ऋ ऋ ऋ३ । लृ ऌ ॡ३ । ए ए ए३ । ऐ ऐ ऐ३ । ओ ओ ओ३ । औ औ औ३ । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व । शषसह । क पअं अ: । एदेसि अक्खराणं मज्झे कँ खँ गँ घ ङ एदाओ पंच वि धारणाओ कि गहिदाओ ? ण, सरविरहिय - कवग्गाणुसारिसंजोग म्हि समुप्पण्णाणं धारणाणं * संजोगक्खरेसु पवेसादो । दुवे रासि ' एदेसिमक्खराणं संखं रास दुवे विरलिय दुर्गाणिदमण्णोष्णेण संगुणे अण्णोष्णसमभासो एत्तियो होदि१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ । एदम्मि संखाणे रूवणे कदे संजोगक्खराणं गणिदं होदिति णिद्दिसे । संपहि चउसट्ठिअक्खरसंखं विरलिय विगुणिदं वग्गिय + " 1 उन अक्षरसंयोगों की गणना करनेके लिये यह गाथा आई है ।' संयोगावरणों के लिये ' इस पदका तात्पर्य है- अक्षरसंयोगावरणोंका प्रमाण लानेके लिये । 'चउसट्ठि थावए इसका तात्पर्य है कि अक्षरोंकी चौंसठ संख्याकी उनसे पृथक् रूपसे कल्पना कर और उसका विरलन कर कर्मभूमि ( क्रियास्थल ) में या बुद्धि में स्थापित करे । ऋ यहां चौंसठ अक्षरों की स्थापना इस प्रकार है- अ आ आ३, इ ई ई३, उ ऊ ऊ३, ऋ ऋ३, लृ ऌ ॡ३, ए ए२ ए३, ऐ ऐ२ ऐ३, ओ ओर ओ३, ओ और औ३, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह, क प अं अः । शंका- इन अक्षरों में कँ खँ गँ घूँ ङ इन पांच धारणाओंका क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान नहीं, क्योंकि, स्वररहित कवर्गका अनुसरण करनेवाले संयोगमें उत्पन्न हुई धारणाओं का संयोगाक्षरों में अन्तर्भाव हो जाता हैं । - ' दुवे रासि' इस पदका अभिप्राय है कि इन अक्षरोंकी संख्याकी राशि प्रमाण २ का विरलन कर परस्पर गुणा करनेपर परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त हुई राशि इतनी होती है- १८४४६७४४०७३०९५५१६१६ | इस संख्या में से एक कम करनेपर संयोगाक्षरोंका प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश करना चाहिये । अब चौंसठ अक्षरोंकी संख्याका विरलनकर और उसे द्विगुणित कर वर्गित संवर्गित करनेपर पाठ । प्रतिषु दीरणाणं ' इति पाठ: 16 एक च च य छस्सत्तयं सुण णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च 1 गो. जी, ३५४ * आ-काप्रत्योः ' रावए, ताप्रती ' रा ( था ) वए इति पाठः । अ-ताप्रत्यो: ' धीरणाओ' इति च च य सुण्णऽसत्त-तिय- सत्ता 1 प्रतिषु ' वग्गियं ' इति पाठः । . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खर ( ५, ४, ३२. संवग्गिदे एगसंजोग-दुसंजोगादिसुदणाणवियप्या कधमुप्पज्जंति, किमळं वा उप्पण्णरासो रूवणा कीरदि ति उत्ते उच्चदे-पढमक्खरे एक्को चेव भंगो ( १ ), सेसक्खरेहि संजोगाभावादो। संपहि बिदियक्खरे णिरुद्ध बे भंगा* होंति, सत्थाणेण एक्को भंगो१, पढम बिदिधक्खराणं संजोगेण बिदियो भंगो१, एवं दोग्णं चेव भंगाणमवलंभादो। २ । संजोगो णाम कि दोण्णमक्खराणमेयत्तं कि सह उच्चारणं एयत्थीभावो वा? ण ताव एयतं, एयतभावेग णट्ठदुब्भावाणं संजोगविरोहादो। ण च सहोच्चारणं, च उस ट्ठिअक्खराणं एगवारेण उच्चारणाणुववत्तीदो। तदो एगत्थीभावो संजगो त्ति घेत्तव्यो । कधमेवकम्हि अत्थे वट्टमाणाणं बहूणमक्खराणमेगक्खरसण्णा ? ण एस दोसो, अत्यदुवारेण तेसि सन्वेसि पि एयत्तुवलंभादो । वट्टमाणकाले बहूणमक्खराण. मेयक्खरत्तं ण उवलब्भदि त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं, वट्टमाणकाले वि ' त्वम्य' इच्चाईणं बहूणमक्ख राणमेयत्थे वट्टमाणाणमेयक्खरत्तुवलंभादो। ण च सरेहि अणं. तरियवंजणाणमेयत्थे वट्टमाणाण चेव एयक्खरतं, सरेहि अंतरियाणं बहूणं वंजणाणं पि एयत्तं ण विरुज्झदे, अच्चंतभेयाणमेयत्थे वृत्ति पडि भेदाभावादो । अणलोम-विलोमएकसयोगी और द्विसंयोगी आदि श्रुतज्ञान के विकल्प कैसे उत्पन्न होते हैं और उस उत्पन्न हुई राशिमेंसे एक कम किसलिये किया जाता है, ऐसा पूछनेमर कहते हैं--प्रथम अक्षरका एक ही भग होता है, क्योंकि, उसका शष अक्षरोंके साथ संयोग नहीं है। आगे दूसरे अक्षरकी विवक्षा करनेपर दो भग होते हैं, क्योंकि, स्वस्थानकी अपेक्षा एक भंग और पहले व दूसरे अक्षरोंके संयोगसे दूसरा भग इस प्रकार दो ही भंग उपलब्ध होते हैं । संयोग क्या है ? क्या दो अक्षरोंकी एकता संयोग है, क्या उनका एक साथ उच्चारण करना संयोग है, या क्या उनकी एकाथिता (एकार्थबोधकता) का नाम संयोग है? दो अक्षरोंकी एकता तो संयोग हो नहीं सकती, क्योंकि, एकत्वभाव माननेपर द्वित्वका नाश हो जानेके कारण उनका संयोग होने में विरोध आता है । सहोच्चारणका नाम भी सयोग नहीं है, क्योंकि, चौंसठ अक्षरोंका एक साथ उच्चारण करना बनता नहीं है । इसलिये एकार्थता नाम संयोग है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । शंका-एक अर्थमें विद्यमान बहुत अक्षरोंकी एक अक्षर संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अर्थके द्वारा उन सभीके एकत्व' पाया जाता है। वर्तमान कालमें बहत अक्षरोंका एक अक्षरपना नहीं उपलब्ध होता हैं, ऐसा निश्चय करना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, वर्तमान काल में भी 'व्वम्य' इत्यादिक बहुत अक्षरोंके एक अर्थमें विद्यमान होते हुए एकाक्षरता उपलब्ध होती है । स्वरोंसे अन्तरित न होकर एक अर्थमें विद्यमान व्यंजनोंके ही एक अक्षरपना नहीं है, किन्तु स्वरोंके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए बहुत व्यंजनोंके भी एकाक्षरपना अविरुद्व है; क्योंकि, अत्यन्त भिन्न अक्षरोंकी एक अर्थमें वृत्ति होने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है। *का-ताप्रत्यौः । विभंगा ' इति पाठः । - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५,४६. ) पडिअणुओगद्दारे अक्खरपमाणपरूवणा ( २५१ भावेण अणेगत्थे वट्टमाणाणं चण्णमक्खरागं कधयक्खरतं जुज्जदे ? ण, अणेगेसु अत्थेसु वट्टमाणगोसहस्स एयक्खरत्तुवलंभादो । ण खणभंगुरत्तणेण बहित्थवण्णेसु समुदाओ अस्थि ति णासंकणिज्ज, बज्झत्थवण्णजणिदअंतरंगवणेसु एगजीवदवम्मि देसभेदेण विणा वट्टमाणेसु वंजणपज्जायभावेण अंतोमुत्तमट्टिदेसु बज्झस्थविसयविण्णाणजणणक्खमेसु तदुवलंभादो । ण बज्झत्थवण्णेसु तदसंभवो चेव, कारणे कज्जवयारेण तत्थ वि तदुवलंभादो । पहि पढम-बिदियअक्खरभंगाणमेगवारेण आगमणे इच्छिज्जमाणे पढम-बिदियअक्खरसंखं विलिय विग करिय अण्णोण्णगुणे कदे चत्तारि होति । पुणो एत्थ एगरूवे अवणिदे पढम-बिदियअक्खराणमेगसंजोग-दुसंजोगेहि तिणि अक्खराणि होति । सुदणाणवियप्पा वि तत्तिया चेव ३, कारणभेदस्स कज्जभेदाविणाभावित्तादो । एदेण कारणेण विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं काऊण रूवणं. कीरदे । संपहि तदियक्खरे णिरूद्ध एगसंजोगेण एक्को भंगो १। पढम-तदिय*अक्खराणं दुसंजोगेण बिदियो भंगो२ । बिदियतदियअक्ख राणं दुसंजोगेण तदियो भंगो ३। पढम-बिदियतदियअक्खराणं तिसंजोगेण च उत्थमंगो एवं तदियअक्ख रस्स एग-दु:विसंजोगेहि शंका - अनुलोम और विलोम भावसे अनेक अर्थों में विद्यमान चार अक्षरोंके एक अक्षरपना कैसे बन सकता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अनेक अर्थो में विद्यमान गो शब्दके एक अक्षरपना उपलब्ध होता है। क्षणभंगर होनेके कारण बाह्यार्थ वर्गों का समुदाय नहीं हो सकता, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, बाह्यार्थ वर्णों से उत्पन्न उन अन्तरंग वर्गों में-- जो एक जीव द्रव्यमें देशभेदके विना विद्यमान हैं, जो व्यंजन पर्यायरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित रहते हैं, और जो बाह्यार्थ विषयक विज्ञानके उत्पन्न कराने में समर्थ हैं- समुदाय पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यह तो अन्तरंग वर्गों में समुदाय हुआ, बाह्यार्थ वर्गों में वह तो असंभव ही है; सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कारण में कार्यका उपचार करनेसे उनमें भी वह पाया जाता है। अब प्रथम और द्वितीय अक्षरोंके भंगोंको एक साथ लानेकी इच्छा होनेपर प्रथम और द्वितीय अक्षरोंकी संख्याका विरलनकर और उसे दूना कर परस्पर गुणा करनेपर चार होते है। फिर इसमेंसे एक अकके घटा देनेपर प्रथम और द्वितीय अक्षरोंके एकसंयोग और द्विसंयोग रूपसे तीन अक्षर होते हैं और श्रुतज्ञानके विकल्प भी उतने ही होते हैं ३, क्योंकि कारणका भेद कार्यभेदका अविनाभावी होता है । इसी कारगसे विरलन कर और विरलित राशिप्रमाण दो अंकको स्थापित कर परस्पर गुणा करके एक कम करते हैं। अब तीसरे अक्षरके विवक्षित होनेपर एक संयोगसे एक भंग होता है १ । प्रथम और तृतीय अक्षरोंके द्विसंयोगसे दूसरा भंग होता है २ । द्वितीय और तृतीय अक्षरोंके द्विसंयोगसे तीसरा भंग होता है ३ । प्रथम, द्वितीय और तृतीय अक्षरोंके त्रिसंयोगसे चौथा भंग होता है ४ । इस प्रकार तृतीयके अक्षरके एक, दो और तीन सयोगोंसे भंग लब्ध होते हैं ४ । अब प्रथम ० ताप्रतो अणुलोमभावेण ' इति पाठ:1* काप्रती 'बहित्थमण्णेसु ण समृदाओ', ताप्रती बहित्थवण्णेसु (ण) समुदाओ , इति पाठः[ * का-ताप्रत्योः - भाविता ' इति पाठ। 1. ताप्रती रूवणं' इति पाठ 1* अ-ताप्रत्यो 'पढमविदिय' इति पाठ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड चत्तारिभंगा लद्धा ४ । संपहि पढम बिदियअक्खरभंगेहि सह तदियक्खरभंगे इच्छामो त्ति तिण्णि अक्खराणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे अट्ठ भंगा उप्पज्जंति। पुणो एत्थ एगे भंगे अवणिदे पढमबिदिय-तदियक्खराणं सत्त भंगा होंति ७ । तेसिमच्चारणक्कमो वुच्चदे- अयारस्स एगसंजोगेण एगमक्खरं लब्भदि १ । आयारस्स वि एगसंजोगेण एगो अक्खरवियप्पो लब्भदि १। आ३यारस्स वि एगसंजोगेण एयो अक्खरवियप्पो। एवमेगसंजोगक्खराणि तिण्णि होंति ३ । पुणो अयार. आयाराणं दुसंजोगेण चउत्थो अक्खरवियप्पो ४ । प्रणो अयार-आयाराणं दुसंजोगेण पंचमो अक्खरवियप्पो ५ । पुणो आयार-आयाराणं दुसंजोगेण छट्ठो अक्खरवियप्पो ६ । पुणो अयार आयार आ३याराणं तिसजोगेण सत्तमो अक्खरवियप्पो ७ । जत्तियाणि अक्खराणि तत्तियाणि चेव सुदणाणाणि, सव्वत्थ कारणमणुवट्टमाणकज्जाणमवलंभादो। तेण अण्णोण्णभत्थरासी रूवणा कीरदे । संपहि चउत्थअक्खरे णिरुद्ध एगसंजोगेण एक्को भंगो ११ पढम-चउत्थअक्खराणं दुसंजोगेण बिदियक्खरं २ । बिदिय-चउत्थअक्खराणं दुसंजोगेण तदियमक्खर ३ । तविय-चउत्थअक्खराणं दुसंजोगेण चउत्थमक्खरं ४। पुणो पढम-बिदिय-चउत्थअक्खराणं और द्वितीय अक्षरोंके भंगोंके साथ ततीय अक्षरके भंग लाना इष्ट है. इसलिये तीन अक्षरोंका विरलन कर और तत्प्रमाण दो स्थापित कर परस्पर गुणा करनेपर आठ भंग उत्पन्न होते हैं । फिर इनमेंसे एक भंगके कम करनेपर प्रथम, द्वितीय और तृतीय अक्षरोंके सब मिलाकर सात भंग होते हैं ७ । अब इनके उच्चारणका क्रम कहते हैं- अकारके एकसंयोगसे एक अक्षर उपलब्ध होता है १ । आकारके भी एकसंयोगसे एक अक्षरविकल्प उपलब्ध होता है १ । आकार; के भी एकसंयोगसे एक अक्षरविकल्प उपलब्ध होता है । इस प्रकार एकसंयोगी अक्षर तीन होते है ३ । पुनः अकार और आकारके द्विसंयोगसे चौथा अक्षरविकल्प होता है ४। पुनः अकार और आ३कारके द्विसंयोगसे पांचवां अक्षरविकल्प होता है ५ । पुनः आकार और आ३कारके द्विसंयोगसे छठा अक्षरविकल्प होता है ६ । पुन: अकार, आकार और आ३कारके त्रिसंयोगसे सांतवां अक्षरविकल्प होता है ७ । जितने अक्षर होते हैं उतने ही श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं, क्योंकि, सर्वत्र कारणका अनुकरण करनेवाले कार्य उपलब्ध होते है। इसलिये अन्योन्यगुणित राशिमेंसे एक कम करते हैं। ___अब चतुर्थ अक्षरके विवक्षित होनेपर एकसंयोगसे एक भंग होता है १ । प्रथम और चतुर्थ अक्षरोंके द्विसंयोगसे दूसरा अक्षर होता है २ । द्वितीय और चतुर्थ अक्षरोंके द्विसंयोगर्स तीसरा अक्षर होता है ३ । तृतीय और चतुर्थ अक्षरोंके द्विसंयोगसे चौथा अक्षर होता है ४। फिर प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ अक्षरोंके त्रिसंयोगसे पांचवां अक्षर होता है ५ । पुनः प्रथम, तृतीय अ-आ-काप्रतिषु ' अयार-आयाराणं ', ताप्रती · अयार- (आयार) 'आयाराणं' इति पाठ । Oताप्रती ' अक्खाराणं ' इति पाठः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४६. । पडिअणुओगद्दारे अक्खरपमाणपरूवणा ( २५३ तिसंजोगेण पंचममक्खरं ५ । पुणो पढम-तदिय-चउत्थअक्खराणं तिसंजोगेण छट्ठमक्खरं ६ । पुणो बिदिय-तदिय-चउत्थअक्ख राणं तिसंजोगेण सत्तमक्खरं ७। पुणो पढम. बिदिय-तदिय-चउत्थअक्खराणं चदुसंजोगेण अट्ठमक्खरं ८ । एवं चउत्थअक्खरस्स अट्ठ भंगा। संपहि पुग्विल्लभंगेहि सह चउत्थअक्खरस्स भंगेसु आणिज्जमाणेसु चत्तारि रूवाणि विरलिय दुगुणिय अण्णोण्णभत्थे कदे भंगा सोलस हवंति । पुणो रूवर्ण कदे चदुण्णमक्खराणमेमसंजोग-दुसंजोग-तिसंजोग-चदुसंजोगअक्खरभंगा पण्णारस होति १५ । एत्थ एदेसिमुच्चारणक्कमो वुच्चदे। तं जहा- अयारस्स एगसंजोगेण एगमक्खरं १ । आयारस्स वि एगसंजोगेण बिदियमक्खरं २ । आ३यारस्स वि एगसंजोगेण तदियमक्खरं ३ । इगारस्स एगसंजोगेण चउस्थलमक्खरं ४ । पुणो अयार-आयाराण दुसंजोगेण पंचममक्खरं ५ । पुणो अयार-आयाराणं दुसंजोगेण छट्ठमक्खरं ६ । पुणो अयार-इयारणं दुसंजोगेण सत्तममक्खरं ७ । पुणो आयार-आयाराणं दुसंजोगेण अट्ठममक्खरं ८ । पुणो आयार इयाराणं दुसंजोगेण णवममक्खरं उप्पज्जदि ९ । पुणो आ३यार-इयाराणं दुसंजोगेण दसममक्खरं १० । पुणो अयार- आयारआ३याराणं तिसंजोगेण एक्कारसमक्खरं ११ । पुणो अयार आयार-इयाराण और चतुर्थ अक्षरोंके त्रिसंयोगसे छठा अक्षर होता है ६ । पुनः द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अक्षरोंके त्रिसयोगसे सातवां अक्षर होता है ७ । पुनः प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अक्षरोंके चतु:संयोगसे आठवां अक्षर होता है ८ । इस प्रकार चौथे अक्षरके आठ भंग होते हैं ८। अब पूर्वोक्त भंगोंके साथ चतुर्थ अक्षरके भंगोंके लानेपर चार अंकोंका विरलन कर और विरलित राशिके प्रत्येक एकको द्विगुणित कर परस्पर गणित करनेपर सोलह भंग होते हैं १६ । पुनः एक कम करनेपर चार अक्षरोंके एकसंयोग, द्विसयोग, त्रिसंयोग और चतुःसंयोग रूप अक्षरोंके भग पन्द्रह होते है। यहां इनके उच्चारणका क्रम कहते हैं । यथा- अकारका एकसंयोगसे एक अथर होता हैं १ । आकारका भी एकसंयोगसे दूसरा अक्षर होता है २। आकार३का भी एकसंयोगसे तीसरा अक्षर होता है ३ । इकारका एक संयोगसे चौथा अक्षर होता है ४। पुनः अकार और आकारके द्विसंयोगसे पांचवां अक्षर होता है ५ । पुनः अकार और आकारके द्विसंयोगसे छठा अक्षर होता है ६ । पुनः अकार और इकारके द्विसंयोगसे सातवां अक्षर होता है ७ । पुन: आकार और आ३कारके द्विसंयोगसे आठवां अक्षर होता है ८ । पुनः आकार और इकारके द्विसंयोगसे नौवां अक्षर उत्पन्न होता है ९। पुनः आकार और इकारके द्विसंयोगसे दसवां अक्षर होता है । पुनः अकार, आकार और आ३कारके त्रिसंयोग ग्यारहवां अक्षर होता है ११ । पुनः अकार, आकार और इकारके त्रिसंयोगसे बारहवां अक्षर होता है १२ । काप्रती · आयारस्स एग-' इति पाठः | 0 काप्रती — इगारस्स वि एगसंजोगेण वि चउत्थ-' ति पाठ। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४) छखंडागमे बग्गणा-खंड तिसंजोगेण बारसमक्खरं १२ । पुणो अयार आ३यार-इयाराणं तिसंजोगेण तेरसमक्खरं १३ । पुणो आयार-आ३यार-इयाराणं तिसंजोगेण चोद्दसमक्खरं १४ । पुणो अयार-आयार-आ३यार-इयाराणं चदुसंजोगेण पण्णारसमक्खरं १५ । एवं चदुण्णमक्खराणं एग-दु-ति-चदुसंजोगेण पण्णारस अक्खराणि उप्पण्णाणि । एत्थ पण्णारस चेव सुदणाणवियप्पा होति । तदावरणवियप्पा तत्तिया चेव । जेणेवमक्खराणि उप्पज्जति तेण अण्णोष्णब्भत्थरासी सम्वत्थ रूवणा कायव्वा । अणेण विहाणेण सेसक्खरपरूवणं पि काऊण अंतेवासीणं अवगमो उपाएदव्वो। एवं कदे एय? च च य छ सत्तयं च च य सुण्ण सत्त तिय सत्तं । सुण्णं णव पण पंच य एग छक्केक्कगो य पणगं च ॥ १३ ॥ एत्तियमेत्ताणि संजोगक्खराणि उप्पज्जति । तेहितो तत्तियमेत्ताणि चेव सुदणाणाणि उप्पज्जति । तदावरणवियप्पा वि तत्तिया चेव । अधवा एकोत्तरपदवृद्धो रूपाद्यैर्भाजितश्च पदवृद्धैः । गच्छ: संपातफलं समाहतः सन्निपातफलम. म ॥ १४ ॥ एवीए कारणगाथाए सगलसंजोगक्खराणं सुदणाणाणं तदावरणाणं च वियप्पा पुनः अकार, आकार और इकारके त्रिसंयोगसे तेरहवां अक्षर होता है १३ । पुनः आकार, आ३कार और इकार त्रिसंयोगसे चौदहवां अक्षर होता है १४ । पुनः अकार, आकार, आ३कार और इकारके चार संयोगसे पन्द्रहवां अक्षर होता है १५ । इस प्रकार चार अक्षरोंके एक, दो, तीन और चार संयोगसे पन्द्रह अक्षर उत्पन्न होते हैं। यहां पन्द्रह ही श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं और तदावरणके विकल्प भी उतने ही होते हैं । यतः इस विधिसे अक्षर उत्पन्न होते हैं. अत: अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्वत्र एक अंकसे कम करनी चाहिय । इसी विधिसे शेष अक्षरोंका भी कथन करके शिष्योंको उनका ज्ञान कराना चाहिये । ऐसा करनेपर- . एक आठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नौ पांच पांच एक छह एक और पांच अर्थात् १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ॥ १३ ।। __ इतने मात्र संयोग अक्षर उत्पन्न होते हैं । तथा उनसे इतने ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं, और श्रुतज्ञानावरणके विकल्प भी उतने ही होते हैं। अथवा एकसे लेकर एक एक बढाते हुए पदप्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्तमें स्थापित एकसे लेकर पदप्रमाण बढी हुई संख्याका भाग दो । इस क्रियाके करनेसे सख्यातफल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है । उस सम्पातफलको त्रेसठ बटे दो आदिसे गुणा कर देनेपर सनिपातफल प्राप्त होता है ।। १४ ॥ इस करणगाथाके द्वारा सब संयोगाक्षरों, श्रुतज्ञानों और श्रुतज्ञानावरणोंके भी विकल्प उत्पन्न @ ताप्रती ‘य पणयं।1' इति पाठः 1 गो. जी. ३५२. * षट्वं. पु. ५, पृ. १९३., पु. १२, पृ. १६२ जयध. २, पृ. ३००. : Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५, ४६.) उप्पादेव्त्रा । तं जहा -- १ २ ३ ४ ५ ६४ ६३ ६२ ६१ ६० १५ १६ १७ १८ १९ ५० ४९ ४८ ४७ ४६ करने चाहिये । यथा १ ها ** ** ** ** १९ १८ * ** ** ** २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ३६ ३५ ३४ ३३ ३२ ३१ ३० २९ २८ २७ २६ २५ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ २२ २१ २० १९ १५ १४ १८ १७ १६ ५७ ५८ ६९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १ ** २ १ ४ ५ ६० लब्ध होता है ६४ । अणुओगद्दारे अक्खमाणपरूवणा अप्रतौ ताप्रती एदं ठविय अतिमचउसट्ठीए एगरूवेण भाजिदाए चउसट्ठी संपात फलं लब्भदि ६४ । कि संपातफलं णाम ? संपादो एगसंजोगो, तस्स फलं संपादफल णाम । पुणो तिसद्विदुभागेण संपादफले गुणिदे चउसट्ठिअक्खराणं दुसंजोगभंगा एत्तिया होंति २०१६ | तं जहा -- अगारे * जिरुद्धे जाव सेसतिस ट्ठिअक्खरेसु परिवाडीए अक्खो संचरदि ताव तेसट्टिभंगा लब्भंति ६३ । पुणो आयारे निरुद्धे आ३कारादिबावट्ठअक्ख रेसु परिवाडीए जाव २० ૮ ९ १० ५८ ६४ ६३ ६२ ६१ १६ १७ १९ २२ ४९ ३१ ५७ ५६ ५५ २३ २४ २५ ४६ ४५ ४४ ४३ ४२ ४१ ४० ३९ ३८ ३७ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ २९ २८ २७ २६ २५ २४ २३ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५५ ५६ ५७ १७ १६ १५ १४ १३ १२ १० ९ ८ ३४ ३५ ४३ ३४ ३२ ३१ ३० २२ ४६ ५४ ५८ ११ ६ ७ ८ ५९ ५८ २० ४५ ६ ५९ २१ १० ११ ५७ ५६ ५५ ५४ २१ ४४ ९ 2 w ** २२ २३ २४ २५ ४३ ४२ ४१ ४० १२ ५३ २६ ३९ ५२ ५३ ५४ १३ १२ ११ ** ( २५५ १३ १४ ५२ ५१ २७ २८ ३८ ३७ ४१ ४२ २४ २३ ५५ ५६ १०९ ११ १२ १३ १४ ६१ ६२ ६३ ६० इसे स्थापित कर अन्तिम चौंसठमे एकका भाग देनेपर चौंसठ संपातफल ४ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० २६ २७ २८ २९ ३० ३६ ३५ ४४ ४५ २१ २० ५९ ६० ६ ५ शंका-सपातफल किसे कहते हैं ? समाधान- एक संयोगका नाम संपात है और उसके फलको संपातफल कहते हैं ? पुनः त्रेसठ बटे दोसे संपातफलको गुणित करनेपर चौंसठ अक्षरोके द्विसंयोग भंग इतने होते हैं - ६४ x = २०१६ | यथा-अकारके विवक्षित होनेपर जब तक शेष सठ अक्षरोंपर क्रमसे अक्षका संचार होता है तब तक त्रेसठ भंग प्राप्त होते हैं ६३ । पुनः आकारके विवक्षित होनेपर आकार आदि बासठ अक्षरोंपर क्रमसे जब तक अक्षका संचार होता है तब तक बासठ अकारेण ' आ-कप्रत्यो: ' आगासे ' ताप्रती सपरिवाडीए' इति पाठ: 1 आगासे ( अगारे ) ' इति पाठ 1 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४६. अक्खो संचरदि ताव बासट्रिभंगा लब्भंति ६२ । पुणो आ३यारे णिरुद्ध इकारादिएगसट्ठिअक्खरेसु परिवाडीए अक्खे संचरमाणे एगसट्ठी दुसंजोगभंगा लब्भंति ६१ । पुणो इकारे णिरुद्ध ईकारादिसद्विअक्खरेसु परिवाडीए जाव अक्खो संचरदि ताव इकारस्स दुसंजोगेण सटिभंगा लभंति ६० । पुणो ईकारादिएणसटिअक्खराणं दुसजोगमंगा परिवाडीए उप्पादेदव्वा । एवमुप्पण्णदुसंजोगभंगेसु एक्कदो मेलाविदेसु सोलसुत्तरबेसहस्समेत्तभंगा उप्पज्जंति । अधवा संकलणरासिमिच्छे दोरासिं थावयाहि रूवहियं । तत्तो एगदरद्धं एंगदरगुणं हवे गणिद* । १५ । एदीए गाहाए एगादिएगुत्तरतेवद्धिगच्छसंकलणाए आणिदाए चउसटिअक्खराण दुसंजोगभंगा सोलसुत्तरबेहस्स होंति २०१६ । संपहि चउसद्धिअक्ख राणं तिसंजोगभंगे भण्णमाणे दुसंजोगभंगे उप्पण्णसोलसुत्तरबेसहस्सेसु बावट्ठीए तिभागेण गुणिदेसु तिसंजोगभंगा एत्तिया होंति ४१६६४ । अधवा गच्छ कदी मूलजुदा उत्तरगच्छादिएहि संगुणिदा। छहि भजिदे जं लद्धं संकलणाए हवे कलणा । १६ । भंग प्राप्त होते हैं ६२। पुनः आ३कारके विवक्षित होनेपर इकार आदि इकसठ अक्षरोंपर क्रमसे अक्षका संचार होनेपर इकसठ द्विसंयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६१ । पुनः इकारके विवक्षित होनेपर ईकार आदि साठ अक्षरोंपर क्रमसे जब तक अक्षका संचार होता है तब तक ईकारके द्विसंयोगसे साठ भंग प्राप्त होते हैं ६० । पुनः ईकार आदि उनसठ अक्षरोंके द्विसंयोगी भंग क्रमसे उत्पन्न कराने चाहिये । इस प्रकार उत्पन्न हुए द्विसंयोगी भंगोंके एक साथ मिलानेपर दो हजार सोलह मात्र भंग उत्पन्न होते हैं । अथवा ___ यदि संकलन राशिका लाना अभीष्ट हो तो एक राशि वह जिसकी कि संकलन राशि अभीष्ट है तथा दूसरी राशि उससे एक अंक अधिक, इस प्रकार दो राशियोंको स्थापित करे । पश्चात् उनमेंसे किसी एक राशिके अर्ध भागको दूसरी राशिसे गुणित करनेपर गणित अर्थात् विवक्षित राशिके संकलनका प्रमाण होता है। १५ । इस गाथाके द्वारा एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक तिरेसठ गच्छकी संकलनाके ले आनेपर चोंसठ अक्षरोंके द्विसंयोग भग दो हजार सोलह होते हैं-४६४ = २०१६] अब चौंसठ अक्षरोंके त्रिसंयोग भंगोंका कथन करनेपर पूर्व में उत्पन्न हुए २०१६ द्विसंयोंगी भगोंको बासठ बटे तीनसे गुणित करनेपर त्रिसयोगी भंग इतने होते है। २०१६४३ - ४१६६४ 1 अथवा गच्छका वर्ग करके उसमें मूलको जोड दे, पुनः आदि-उत्तर सहित गच्छसे गुणित करके उसमें छहका भाग दे । इससे जो लब्ध आवे वह संकलनाकी कलना होती है ।। १६ ।। ४ प्रतिष 'रूवाहियं ' इति पाठः। * सैकपदघ्नपदार्धमर्थकाद्यङ्कयुतिः किल संङ्कलिताख्या । लीला बती ( श्रेढीव्यवहार ) १. ताप्रती ' चउसट्ठिअक्ख राण तिसंजोगभंगे उप्पण्ण-' इति पाठः । : Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुओगद्दारे अक्खपमाणपरूवणा ( २५७ इमाए गाहाए पुग्विल्लतिसंजोगभंगा आणेदव्वा । एत्थ गच्छो बावट्ठी ६२ । तन्वग्गो एत्तियो होदि ३८४४ । पुणो एत्थ मले बावट्ठीए पक्खित्ताए एत्तियं होदि ३९०६ । पुणो एदम्मि गच्छेण आदि-उत्तरसहिदेण गुणिदे एत्तियं होदि २४९९८४ । पुणो एत्थ छहि भागे हिदे पुव्वलद्धा निसंजोगभंगा एत्तिया होंति ४१६६४ । कि कारणं? जेण च उसद्विअक्खराणि परिवाडीए दृविय पुणो अकारे णिरुद्धे पढमबिदियअक्खे धुवे कादूण तदियक्खो आकारादिवाव द्विअक्खरेसु जाव संचरदि ताव बावट्ठी तिसंजोगभंगा लब्भंति ६२ । पुणो पढमक्खमयारे चेव टुविय सेसदोअक्खे आ३यार-इकारेसु टुवेदूण पुणो तत्थ आदिमदोअक्खे धुवे कादूण तदियक्ख परिवाडीए संचारमाणे एयट्ठी तिसंजोगभंगा लब्भंति ६१ । पुणो अयाक्खं धुवं कादूण सेसदोअक्खे इकार-ईकारेसुट्टविय तदियक्खे परिवाडीए संचारमाणे सट्ठी तिसंजोगभंगा लभंति ६० । एवमयारक्खं धुवं कादूण सेलदोअक्खा परिवाडीए संचारमाणा जाव सम्वक्खराणमंतं गच्छंति ताव बासटिसंकलणमेत्ता अयारस्स* तिसंजोगभंगा लभंति। पुणो आयारे णिरुद्ध सेसदोअक्खा परिवाडीए संचारमाणा जाव सव्वक्खराणमंतं गच्छंति ताव एयट्टिसंकलणमेत्ता आयारस्स तिसंजोगभंगा उप्पज्जति। ___ इस गाथा द्वारा पूर्वोक्त त्रिसंयोगी भंगोंको लाना चाहिये । यहां गच्छ बासठ है । उसका वर्ग इतना होता है-६२४६२ = ३८४४ । पुन: इसमें मूल बासठके मिला देनेपर इतना होता है-३८४४+६२ = ३९०६ । पुनः इसे आदि उत्तर सहित गच्छसे गुणित करनेपर इतना होता है-३९०५४ (१+१+६२) = २४९९८४ । पुनः इसमें छहका भाग देनेपर पूर्व लब्ध त्रिसंयोगी भंग इतने होते हैं-२४९९८४६ : ४१६६४ । इसका कारण यह है कि )सठ अक्षरोंको क्रमसे स्थापित कर पुन: अकारके विवक्षित होने पर प्रथम और द्वितीय अक्षको ध्रुव करके तीसरा अक्ष आ३कार आदि बासठ अक्षरोंपर जब तक संचार करता है तब तक बासठ विसयोगी भंग प्राप्त होते हैं ६२ । पुनः प्रथम अक्षको अकारपर ही स्थापित कर शेष दो अक्षोंको आ३कार और इकारपर स्थापित कर पुनः इनमेसे प्रारम्भके दो अक्षोंको ध्रुव' करके तृतीय अक्षके क्रमसे सचार करनेपर इकसठ त्रिसंयोगो भंग प्राप्त होते हैं ६१ । पुनः अकार अक्षको ध्रुव करके शष दो अक्षोको इकार और ईकारपर स्थापित कर ततीय अक्षके क्रमसे संचार करनेपर साठ त्रिसयोगी भग प्राप्त होते हैं ६० । इस प्रकार अकार अक्षको ध्रुव करके शेष दो अक्ष क्रमसे संचार करते हुए जब तक सब अक्षरोंके अन्तको प्राप्त होते हैं तब तक अकारके बासठ संख्याके संकलन मात्र (३४६३= १९५३) त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं ।पुनः आकारके विवक्षित होनेपर शेष दो अक्ष क्रमसे संचार करते हुए जब तक सब अक्षरोंके अन्तको प्राप्त होते हैं तब तक इकसठ संख्याके संकलनमात्र (३४६२= १८९१ ) आकारके त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न ४ प्रतिषु ' आकारे ' इति पाठ 1 3 अ-आ-का-ताप्रतिष न दीर्घ-प्लतआकारादिभेदकः कश्चित संकेतोऽस्ति 1 मप्रतितः कृतसंशोधने प्लुत-आकारस्य । आ३ ' इत्येवंविधः संकेतः कृतः, स तु यत्र-क्वचिन्न सर्वत्र 1*ताप्रती 'आयारक्खं 'इति पाठः। *प्रतिषु ' आयारस्स ' इति पाठः । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ५, ४६. २५८ ) पुणो आ३यारे निरुद्धे सद्विसंकलमेत्ता आइयारस्स तिसंजोगभंगा उप्पज्जंति । पुणो इकारे निरुद्धे एगूणसट्ठिसंकलणमेत्ता इकारस्स तिसंजोगभंगा उष्पज्जंति । एवमीकारादिअक्खराणं पत्तेयं पत्तेयं अट्ठावण्ण-सत्तावण्ण- छप्पण्णादीर्ण संकलणमेत्ता भंगा उप्पज्जेति । एवं उप्पण्ण सव्वसंकलणासु मेलाविदासु चउपद्विअक्खराणं तिसंजोगभंगा सव्वे उप्पज्जंति तेसि पमाणमेदं ४१६६४ । अधवा 1 एकोत्तरपदवृद्धो रूपोनस्त्ववहृतश्च रूपाद्यैः । प्रचयहतः प्रभवयुतो गच्छोद्धान्योन्य सगुणितः । १७ ।। एदेण सुत्ते इच्छिद - इच्छिदसंजोगभंगा आणदव्वा । संपहि चउसट्ठिअक्खराणं चदुसंजोग भंगपमाणे उप्पाइज्जमाणे एक्कसट्टिचदुब्मागेण ४१६६४ एदेसु तिसंजोग भंगेसु गुणिदेसु चउसट्ठिअक्खराणं सव्वे चदुसंजोगभंगा उप्पज्जति । तेसि पमाणमेदं ६३५३७६० । एवं पंचसंजोग छसंजोगादिभगे उप्पादिय सव्त्रेसु एकट्ठकदेसु पुव्वपाइदरूवणेयद्विमेत्ताणि संजोगक्खराणि, तेत्तियमेत्ताणि चेव तेहितो उप्पण्णसुबणाणाणि तदावरणाणि च उप्पज्जति । दुपहुडी मक्खराणमेयट्ठे वट्टमानाणं संजोगो होदु णाम । ण च एगसंजोगो घडदे, दुस्स संजोगस्स एक्aम्मि संभवविरोहादो ण एस दोसो, दोष्णमयाणमेयट्ठे वट्टमाणाणहोते हैं । पुनः आ३कारके विवक्षित होनेपर साठके सकलनमात्र ( ३x६१ – १८३०) आश्कारके त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । पुनः इकारके विवक्षित होनेपर उनसठ के संकलन मात्र ( ३x६० = १७७०) इकारके त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार ईकार आदि अक्ष में प्रत्येक प्रत्येकके यथाक्रमसे अट्ठावन सत्तावन और छप्पन आदि संख्याओंके संकलनमात्र भंग उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार उत्पन्न हुई सब संकलनाओंके मिलानेपर चौंसठ अक्षरोंके सब त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं। उनका प्रमाण यह है- ४१६६४ | अथवा वृद्धिगत एकोत्तर पदको एक आदिसे भाजित करके प्रचयसे गुणित करे और प्रभवको जोड दे । पुनः गच्छ प्रमाण स्थानोंको परस्पर गुणित करें। एसा करने से इच्छित संयोगी भंग प्राप्त होते हैं ( ? ) ।। १७ ।। इस सूत्र द्वारा इच्छित इच्छित संयोगी भंग ले आने चाहिय । अब चौंसठ अक्षरोंके चार संयोगी भंगोंका प्रमाण उत्पन्न करानेपर इकसठ बटे चारसे ४१६६४ इन त्रिसंयोगी भंगोंके गुणित करनेपर चौंसठ अक्षरोंके सब चार सयोगी भग उत्पन्न होते हैं । उनका प्रमाण यह है - ६३५३७६ । इसी प्रकार पांचसंयोगी और छह सयोगी आदि भंग उत्पन्न करा कर सब भंगोंको एकत्रित करनेपर पहले उत्पन्न कराये गये एक कम एकट्टीमात्र संयोगाक्षर और उनके निमित्त से उत्पन्न हुए उतने मात्र ही श्रुतज्ञान तथा उतने ही श्रुतज्ञानावरण कर्म उत्पन्न होते हैं । शंका- एक अर्थ में विद्यमान दो आदि अक्षरोंका संयोग भले ही होवे, परन्तु एक अक्षर का संयोग नहीं बन सकता; क्योंकि संयोग द्विस्थ होता है, अतः उसे एकमें मानने में विरोध आता है ? ताप्रती ' अथ इति पाठ: । इति पाठ: 1 ताप्रती ६३५३ आप्रतो 'विसंजोग' ताप्रती ' वि ( ति ) संजोग ) ७६ इति पाठ: ] . Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४६. ) पयडिअणुओगद्दारे अक्ख रपमाणपरूवणा ( २५९ मेयक्खरसरूवेण परिणामवलंभादो। 'या श्रीः सा गौः ' एदमसंजोगेयक्खरस्स उदाहरणं ण होदि; संजुत्ताणेगक्खरेहि णिफण्णत्तादो । ण च एगसंजोगक्खरस्स वि उदाहरणं, भिण्णजादिअक्ख रसजोगस्स एयक्खरसंजोगत्तविरोहादो । तहा 'वीरं देवं नित्यं वंदे, वृषभं वरदं सततं प्रणमे, वीरजिनं वीतभयं लोकगरुं नौमि सदा, कनकनिभं शशिवदनं अजितजिनं शरणमिये' इच्चेवमादिवियहिचारो दरिसावेयव्वो। पुणो कधं होदि त्ति भणिदे अक्खराणं संजोगमसंजोगेदूण जदा अक्खराणि चेव पादेक्कं विवक्खियाणि होति तदा सुदणाणक्खराणं पमाणं चउसट्ठी होदि, एदेहितो पुघभदसंजोगक्खराणमभावादो । सुदणाणं पि चउसट्टिमेत्तं चेव होदि, संजुत्तासंजुत्तभावेण दिदसुदणाणकारणअक्खराणं चउसद्विभावदसणादो। तदावरणं पि तत्तियं चेव, आवरणिज्जभेदेण आवरणभेदुवलंभादो । अक्खरसमुदायादो समुप्पज्जमाणसुदणाणं कधमेगक्खरादो समुप्पज्जदि? पादेक्कमक्खराणं तदुप्पायणसत्तिअभावे समुदायादो वि* तदुप्पत्तिविरोहादो। बज्झेगेगत्थविसयविण्णाणुप्पत्तिक्खमो अक्खरकलाओ संजोगक्खरं णाम, जहा 'या श्रीः सा गौः' इच्चेवमादि । एदाणि संजोगक्खराणि समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक अर्थमें विद्यमान दो अकारोंका एक अक्षररूपसे परिणमन देखा जाता है। या श्री: सा गो:' यह असंयोगी एक अक्षरका उदाहरण नहीं हैं, क्योंकि, यह संयुक्त अनेक अक्षरोंसे निष्पन्न हुआ है । तथा यह एक संयोगाक्षरका भी उदाहरण नहीं है, क्योंकि, भिन्न जातिके अक्षरोंके संयोगको एक अक्षरसंयोग मानने में विरोध आता है । तथा ' वीरं देवं दे, वृषभं वरदं सततं प्रणमे, वीरजिनं वीतभय लोकगरुं नौमि सदा, कनकनिभं शशिवदनं अजितजिनं शरण मिये' इत्यादिके साथ व्यभिचार भी दिखाना चाहिये। फिर एकसयोगी भंग कैसे प्राप्त होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि अक्षरोंके संयोगकी विवक्षा न करके जब अक्षर ही केवल पृथक् पृथक् विवक्षित होते हैं तब श्रुतज्ञानके अक्षरोंका प्रमाण चौंसठ होता है, क्योंकि, इनसे पृथग्भूत अक्षरोंके संयोगरूप अक्षर नहीं पाये जाते । श्रुतज्ञान भी चौंसठ प्रमाण ही होता है क्योंकि, संयुक्त और असंयुक्त रूपसे स्थित श्रुतज्ञानके कारणभूत अक्षर चौंसठ ही देखे जाते हैं । तदावरण कर्म भी उतने ही होते है, क्योंकि आवरणीयके भेदसे आवरण में भद देखा जाता हैं। शंका- अक्षरोंसे समुदायसे उत्पन्न होनेवाला श्रुतज्ञान एक अक्षरसे कैसे उत्पन्न होता है? ___समाधान-- कारण कि प्रत्येक अक्षरोंमें श्रुतज्ञानके उत्पादनकी शक्तिका अभाव होने पर उनके समुदायसे भी उसके उत्पन्न होनेका विरोध है। बाह्य एक एक अर्थको विषय करनेवाले विज्ञानकी उत्पत्तिमें समर्थ अक्षरोंके समुदायको सयोगाक्षर कहते हैं । यथा- 'या श्रीः सा गौः' इत्यादि , ये संयोगाक्षर इनसे उत्पन्न हुए ४ अ-आ-काप्रतिषु ' भाग ' इति पाठः । * आप्रती · समुदायो वि , ताप्रती समुदायो ( यादो) वि ' इति पाठ: 1 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०) छक्खंडागमे वग्गणा खंड तज्जणिद सुदणाणाणि तावरणाणि च रूवणेयट्टिमेताणि । जदि वि एगसंजोगक्ख. रमणेगेसु अत्थेसु अक्खरवच्चासावच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्खरमेक्कं चेव, अण्णोणमवेक्खिय जाणकज्जजणयाणं भेदाणुववत्तीदो। __ तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि ।। ४७ ॥ पुव्वं संजोगक्खरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परूविदाणि। संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि वीस दिविधाणि ति भण्णमाणे एक्स्स सुत्तस्स पुद सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे ? ण एस दोसो, भिण्णाहिप्पायत्तादो। पुग्विल्लसुत्तमक्खरणिबंधणभेदपरूवयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिदूण आवरणभेदपरूवयं तम्हा दोसो पत्थि त्ति घेत्तव्वो। वीसदिविधसुदणाणावरणाणमपरूवणमुत्तरगाहासुत्तं भणदि पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगवाराई। पाहुडपाहुड-वत्थू पुत्व समासा य बोद्धव्वा* ॥ १॥ श्रुतज्ञान और तदावरण कर्म ये एक कम एकट्ठी प्रमाण होते हैं। यद्यपि एक संयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरोंके उलट-फेरके बलसे रहता है तो भी अक्षर एक ही है, क्योंकि, एक दूसरेको देखते हुए ज्ञानरूप कार्यको उत्पन्न कराने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। उसी श्रतज्ञानावरणीय कर्मकी वीस प्रकारको प्ररूपणा करनी चाहिये ।।४७॥ शंका- पहले जितने सयोगक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कह आये हैं। अब वे ही श्रुतज्ञानावरण कर्म बीस प्रकारके होते हैं, ऐसा कथन करनेपर इस सूत्रका पूर्व सूत्रसे विरोध क्यों नहीं होता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भिन्न अभिप्रायसे यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षरनिमित्तक भेदोंका कथन करता है, परन्तु यह सूत्र क्षयोपशमके भेदोंका आलम्बन लेकर आवरणके भेदोंका कथन करता है। इसलिये कोई दोष नहीं है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। अब बीस प्रकारके श्रुतज्ञानावरणके नामोंका कथन करनेके लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभूतप्राभूत, प्राभूतप्राभूतसमास, प्राभूत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास; ये श्रुतज्ञानके बीस भेद जानने चाहिये ।। १॥ *ताप्रती 'संजोगक्खराणि । तज्जणिद- ' इति पाठः । अ-आ-काप्रतिष 'सुदणाणाण ' ताप्रती ' सुदणाणं ' इति पाठः । * पज्जायक्खरपदसंघादं पडित्तियाणिओगं च । दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थ पूव्वं च || तेसिं च समासेहि य वीसविहं वाह होदि सूदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति ति ll गो. जी. ३१६-३१७. - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणावरणीयभेदपरूवणा ( २६१ पज्जयावरणीय * पज्जयसमासावरणीयं अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संघावावरणीयं संघादसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणुयोगद्दारावरणीयं अणुयोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडा-- वरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासा-- वरणीयं वत्थुआवरणीय वत्थुसमासावरणीयं पुवावरणीयं पुव्वसमामावरणीय चेदि ।। ४८॥ गाहासुत्तेण भणिदअत्थो चेव पुणो किमळं परूविदो ? गाहासुत्तत्थ -- विवरणा जेण पच्छिमसुत्तेण कदा तेणेसो ण दोसो । जोगद्दारमिदिर वृत्ते कधमणयोगद्दारस्स गहणं होदि ? ण एस दोसो, णामेगदेसादो वि णामिल्ले बुद्धिसमुप्पत्तिदसणादो । ण च एसो ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, सच्चभामाए भामा, बलदेवे देवो, भीमसेणे, सेणो त्ति संववहारदसणादो । पाहुडावरणस्स गाहासत्ते असंतस्स कधमुवलद्धी जायदे ? ण एस दोसो, पाहुड-पाहुडसहस्स पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीया पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संधातावरणीय, संघातसमासाबरणीय, प्रतिपत्तिआवरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनयोगद्वारावरणीय, अनयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभूतप्राभृतावरणीय, प्राभूतप्राभतसमासावरणीय, प्राभतावरणीय, प्राभूतसमासावरणीय, वस्तुआवरणीय, वस्तुससासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासासावरणीय ये श्रुतज्ञानावरणके बीस भेद हैं । ४८ । शंका- गाथा सूत्रके द्वारा कहे हुए अर्थका ही पुनः किसलिये कथन किया है ? समाधान- यत: अगले सूत्र द्वारा गाथासूत्रके अर्थका ही विवरण किया गया है। इसलिये यह कोई दोष नहीं है । शंका- गाथासूत्रमें जोगद्दारं ' ऐसा जो कहा है उससे ' अनुयोगद्वार' अर्थका ग्रहण कैसे होता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नामके एकदेशसे भी नामवालेमें बुद्धि उत्पन्न होती हुई देखी जाती है । और यह व्यवहार लोकमें कुछ अप्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि, सत्यभामाके ' भामा' पदका, बलदेवके लिये 'देव' पदका और भीमसेनके लिये 'सेन' पदका व्यवहार होता हुआ देखा जाता हैं ! शंका- प्राभृतावरणका गाथासूत्रमें निर्देश नहीं किया गया है, ऐसी अवस्थामें उसका ग्रहण कैसे होता है ? प्रतिषु ' पज्जायावरणीयं ' इति पाठः 1 काप्रती · ओगद्दारम्मिदि, ताप्रती · जोगहारम्मिदि पाठः। 8 अ-आ-काप्रतिष वलदेवो देवो भीमसेणो ' इति पाठ: 1 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( १, ५, ४८. अंतिमपाहुडसद्दस्त दुरावित्तीए कदाए तदुवलंमादो । समाससद्दी पादेवकं संबंधजो अण्णा सुदणाणावरणस्स वीसदिविधत्ताणुववत्तदो । संपहिएदेसि वीसदिविधावरणाणं सरूवपरूवणठ्ठे ताव वीसदिविधसुदणाणस्स परूवणं कस्सामो । तं जहा सुहुमणिगोदल द्विअपज्जत्तयस्स जं जहण्णयं णाणं तं लद्धिअक्खरं णाम । कथं तस्स अक्खरसण्णा ? खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्टाणादो । केवलणाणमक्खरं, तत्थ वड्डि-हाणीणमभावादो | दव्वट्टियणए सुहुमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति वा अक्खरं । किमेदस्स पमाणं ? केवलणाणस्स अनंतिमभागो । एदं णिरावरणं, ' अक्खरस्साणंतिम भागो णिच्चुग्धाडिययो 'त्ति वयणादो एदम्मि आवरिदे जीवाभावप्यसंगादो वा । एदम्हि लद्धिअक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे सव्वजीवरासीदो अनंतगुणणाणाविभागपडिच्छेदा आगच्छति । सव्वजीवरासीदो लद्धिमक्ख रमतगुणमिदि कुदो णव्वदे? परियम्मादो । तं जहा- सव्वजीवरासी वग्गिज्जमाणा - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्राभृतप्राभृत शब्दके अन्तिम प्राभृत शब्दकी समाधान - दो वार आवृत्ति की गई है। इसलिये उसका ग्रहण हो जाता है । 'समास' शब्दका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये क्योंकि, अन्यथा श्रुतज्ञानावरणके बीस भेद नहीं बन सकते । २६२) अब इन बीस प्रकारके आवरणोंके स्वरूपका कथन करनेके लिए बीस प्रकारके श्रुतज्ञानका कथन करते हैं । यथा - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है । शंका- इसकी अक्षर संज्ञा किस कारणसे है ? समाधान - क्योंकि, यह ज्ञान नाशके विना एक स्वरूपसे अवस्थित रहता है। अथवा केवलज्ञान अक्षर है. क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती । द्रव्वार्थिक नयकी अपेक्षा चूंकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान भी वही है, इसलिये भी इस ज्ञानको अक्षर कहते हैं । इसका प्रमाण क्या है ? शंका समाधान - इसका प्रमाण केवलज्ञानका अनन्तवां भाग है । -- इस यह ज्ञान निरावरण है, क्योंकि, अक्षरका अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित ( प्रगट ) रहता है, ऐसा आगमवचन है, अथवा इसके आवृत्त होनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है । लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीव राशिका भाग देनेपर सब जीवनराशिसे अनन्तगुणे ज्ञानविभागप्रतिच्छेद आते हैं । शंका - सब जीवराशिसे लब्ध्यक्षरज्ञान अनन्तगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह परिकर्मसे जाना जाता है । यथा 'सब जीवराशिका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयहि | प्रतिष' दुरावित्तीकदाए ' इति पाठ: । हवदि हु सव्वजण णिच्चुग्धाडं णिरावरणं ॥ गो जी. ३१९. Xxx सव्वजीवाणं पि य णं अक्खस्स्स अनंतभागो णिच्चुग्घाडिओ ( चिट्ठइ ) जइ पुण सो वि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा 1 नं. सू. ४२. काप्रती ' लद्धमक्खर ' इति पाठः । . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे लद्धिअक्खरादिसुदणाणपरूवणा ( २६३ वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणट्टाणाणि उवरि गंतूण सव्वपोग्गलदव्वं पावदि । पुणो सव्वपोग्गलदव्वं वग्गिज्जमाणं वग्गिज्जमाणं अणंतलोगमेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गंतुण सव्वकालं पावदि । पुणो सव्वकाला वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण सव्वागाससेढि पावदि। पुणो सव्वागाससेढी वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण धम्मत्थिय-अधम्मत्थियदव्वाणमगुरुअलहुअगणं पावदि । पुणो धम्मस्थिय अधम्मत्थिय-अगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणतलोगमेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गंतूण एगजीवस्स अगरुअलहुअगणं पावदि । पुणो एगजीवस्स अगरुअलहअगणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतूण सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स लद्धिअक्खरं पावदि त्ति परियम्मे भणिलं । त पुण लद्धिअबखरं अक्खरसण्णिदस्स केवलणाणस्स अणंतिमभागो। तेणेदम्हि लद्धिअ. क्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं सव्वजीवरासीदो अणंतगणं णाणा विभागपडिच्छेदेहि होदि। एदम्मि पक्खेवे लद्धिअक्खरम्हि पडिरासिदम्मि पक्खित्ते पज्जयणाणप. माणमुप्पज्जदि।पुणो पज्जयमाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे भागलद्धं तम्मि तत्थेव पज्जयमाणे पडिरासिदे पक्खित्ते पज्जयसमासणाणमप्पज्जदिला पुणो एदस्सुवरि भाव. विहाणकमेण अणंतभागवडि-असंखेज्जभागवङ्गि-संखेज्जभागवटि संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगणवडि अणंतगणवडि कमेण पज्जयसमासणाणट्राणाणि णिरंतरं गच्छति जाव असंखज्जलोगमेत्तपज्जयसमासणाणदाणाणं दुचरिमाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे चरिमं पज्जयसमासणाणट्ठाणं होदि । अनन्त लोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सब पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है । पुन: सब पुद्गल द्रव्यका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब काल प्राप्त होता है। पुन: सब कालोंका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सब आकाशश्रणि प्राप्त होती हैं। पुनः सब आकाशश्रेणिका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यका अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है। पुन: धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके अगरुलघु गुणका उत्तरोत्तर वग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर एक जीवका अगुरुलघु गुण प्राप्त होता है । पुनः एक जीवके अगुरुलघु गुणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपव अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपप्तिका लब्ध्यक्षरज्ञान प्राप्त होता है।" ऐसा परिकर्ममें कहा है। वह लब्ध्यक्षरज्ञान अक्षरसंज्ञक केवलज्ञानका अनन्तवा भाग है, इसलिये इस लब्ध्यक्षरज्ञान में सब जीवराशिका भाग देनेपर ज्ञानविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवराशिसे अनन्तगुणा लब्ध होता है । इस प्रक्षपको प्रति राशिभूत लब्ध्यक्षरज्ञान में मिलानेपर पर्यायज्ञानका प्रमाण उत्पन्न होता है । पुनः पर्ययज्ञानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो भागलब्ध आवे उसे प्रतिराशिभूत उसी पर्यायज्ञान में मिला देनेपर पर्यायसमासज्ञान उत्पन्न होता है । पुनः इसके आगे भावविधानोक्त विधानके अनुसार अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे असंख्यात लोकमात्र पर्यायसमास *प्रतिषु ' अणंतगुणणाणा-' इति पाठः 1 ताप्रती · भागं लद्धं ' इति पाठः । 8 ताप्रती ' पज्जयणाणसमासमुप्पज्जदि इति पाठः। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५,.४८ एवं पज्जयसमासणाणढाणाणि असंखेज्जलोगमेतछदाणपमाणाणि । पज्जयणाणं पुण एगवियप्पं चेव । कुदो? बहूणं पज्जयाणमभावादो । को पज्जओ णाम ? जाणाविभागपडिच्छेदपक्खेवो पज्जओ णाम । तस्स समासो जेसु णाणटाणेसु अस्थि तेसि णाणटाणाणं पज्जयसमासो त्ति सण्णा । जत्थ पुण एक्को चेव पक्खेवो तस्स गाणस्स पज्जओ* त्ति सण्णा, एक्कम्मि पज्जए समासाणववत्तीदो। एत्थ भावविहाणक्कमो चेव होदि त्ति कधं णव्वदे ? कम्म-जीवभावाणं भावतं पडि भेदाभावादो। रूव रसगंधफासादीणं पि भेदाभावेण भावविहाणक्कमो पसज्जदे ? ण एस दोसो, तत्थ वि छण्णं वड्ढीणं संभवब्भुवगमादो। पुणो चरिमपज्जयसमासणाणट्ठाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते अक्खरणाणमप्पज्जदि। एदं पुण अक्खरणाणं अणंताणंताणि सुहमणिगोदअपज्जत्तलद्धिअक्खराणि घेत्तूण होदि। लद्धिअक्खरं णिव्वत्तिअक्खरं संठाणक्खरं चेदि तिविहमक्खरं तत्थ जं तं लद्धिअक्खरं तं* सुहमणिगोदअप्पज्जत्तप्पहुडि जाव ज्ञानस्थानोंके द्विचरमस्थानके प्राप्त होने तक पर्यायसमासज्ञानस्थान निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं । पुन: इसके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि होनेपर अन्तिम पर्यायसमासज्ञानस्थान होता है। इस प्रकार पोयसमापज्ञानस्थान असंख्यात लोकमात्र छह स्थान प्रमाण प्राप्त होते हैं। परन्तु पर्यायज्ञान एक प्रकारका ही होता है, क्योंकि, बहुत, पर्यायोंका वहां अभाव है। शंका - पर्याय किस का नाम है? समाधान - ज्ञानाविभागप्रतिच्छेदोंके प्रक्षेपका नाम पर्याय है। उनका समास जिन ज्ञानस्थानोंमें होता है उन ज्ञानस्थानोंकी पर्यायसमास संज्ञा है। परन्तु जहां एक ही प्रक्षेप होता है उस ज्ञानकी पर्याय संज्ञा है, क्योंकि, एक पर्याय में उनका समास नहीं बन सकता। शंका - यहां भावविधानका ही क्रम है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - क्योंकि, कर्म और जीवके भावोंका भावसामान्यके प्रति कोई भेद नहीं है। इससे जाना जाता है कि यहां भावविधानका ही क्रम है। शंका - इस प्रकारसे तो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिकोंके भी उससे कुछ भेद न होनेके कारण भावविधानक्रमका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहां भी छहों वृद्धियोंका सद्भाव स्वीकार किया गया हैं । पुनः अन्तिम पर्यायसमासज्ञानस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिलानेपर अक्षरज्ञान उत्पन्न होता है । यह अक्षरज्ञान सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरोंके बराबर होता है। अक्षरके तीन भेद हैं- लब्ध्यक्षर, निर्वत्यक्षर और संस्थानाक्षर । सूक्ष्म निगोद लब्ध्य 8 आ-का-ताप्रतिषु । पडिच्छेदो पक्खेवो ' इति पाठः। * आप्रती ' तंपसज्जओ, काप्रती । तंसपज्जओ ' इति पाठः। शताप्रती तं' इत्येतत्पदं नास्ति । . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पर्या अणुओगद्दारे सुदणाणभेदणाणपरूवण ( २६५ " खओवसमा तेसि लद्धिअक्खरमिदि सण्णा । जीवाणं मुहादो णिगयस्स सद्दस्स निव्वतिअक्खरमिदि सण्णा । तं च णिव्वत्तिअक्खरं वत्तमवत्तं चेदि दुविहं । तत्थ वत्तं सणिपचिदियपज्जत्तएसु होदि । अवत्तं बेइंदियप्पहुडि जाव सष्णिपंचिदियपज्जत्तएसु होदि । जं तं संठाणक्खरं नाम तं ट्ठवणक्खरमिदि घेत्तव्वं । का टूवगा जाम ? एदमिदमक्खरमिदि अभेदेण बुद्धीए जा दुविदा लोहादव्वं वा तं ट्ठवणक्खरं नाम । एदेसु ति अक्खरे सुकेणेत्थ अक्खरेण पयदं ? लद्धिअक्खरेण ण सेसेहि; जडत्तादो । संपहि लद्धिअक्खरं जहण्णं सुहुमणिगोदलद्धिअवज्जत्तयस्स होदि, उक्करसं चोद्दसपुव्विस | निव्वत्तिअक्खरं जहण्णयं बेइंदियपज्जतादिसु, उक्कस्सयं चोद्दस पुव्विस्स । एवं संठाणक्खरस्स वि वत्तव्वं । एगादो अक्खरादो जहणणेण उप्पज्जदि णाणं तं अक्खरसुदणाणमिदि घंतव्वं । इमस्स अक्खरस्स उवरि बिदिए अक्खरे वडिदे अक्खरसमासो नाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरवडकमेण अक्खरसमासं सुदणाणं वडमाणं गच्छदि जाव संखेज्जक्खराणि वडिदाणि त्ति । पुणो संखेज्जक्खराणि घेत्तूण एवं पदसुदणाणं होदि । अत्थपदं पमाणपदं मज्झिमपदमिति तिविहं पदं होदि । तत्थ जेत्तिएहि अत्थोवलद्धी पर्याप्त से लेकर श्रुतकेवली तक जीवोंके जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है । जीवोंके मुखसे निकले हुए शब्दको निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। निर्वृत्त्यक्षरके व्यक्त ओंर अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं । उनमें से व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर द्वीन्द्रियसे लेकर संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त तक जीवोंके होता है । संस्थानाक्षरका दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, एसा यहां ग्रहण करना चाहिये । शंका स्थापना क्या है ? - समाधान – — यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेदरूपसे बुद्धिमें जो स्थापना होती है। या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है । शंका इन तीन अक्षरोंमेंसे प्रकृतमें कौनसे अक्षरसे प्रयोजन है ? - समाधान - लब्ध्यक्षर से प्रयोजन है, शेष अक्षरोंसे नहीं है; क्योंकि वे जड स्वरूप हैं । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता हैं और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है । जघन्य निर्वृत्त्यज्ञर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक आदिकोंके होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधा - रीके होता है । इसी प्रकार संस्थानाक्षरका भी कथन करना चाहिये। एक अक्षरके जो जघन्य ज्ञान उत्पन्न होता है वह अक्षरश्रुतज्ञान है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । इस अक्षरके ऊपर दूसरे अक्षरकी वृद्धि होनेपर अक्षरसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए संख्यात अक्षरोंकी वृद्धि होने तक अक्षरसमास श्रुतज्ञान होता है । पुन: संख्यात अक्षरों को मिलाकर एक पद नामका श्रुतज्ञान होता है । अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद इस प्रकार पद तीन प्रकारका है । उनमें से 6 ताप्रतो' तीसु इति पाठ: । ॐ प्रतिषु 'जदत्तावो' इति पाठ 1 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ४८. होदि तमत्थपदं णाम । एदं च अणवद्विदं, अणियदअक्खरेहितो अत्थुवलद्धिदसणादो। ण चेदमसिद्धं, अः विष्णुः, इ. कामः कः ब्रम्हा इच्चेवमादिसु एगेगक्खरादो चेव अत्युवलंभावो । अट्टक्खरणिप्फणं पमाणपदं । एदं च अवद्विदं, णियदट्ठसंखादो। सोलससदचोत्तीसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा*। १८ । एत्तियाणि अक्खराणि घेतण एगं मज्झिमपदं होदि । एदं पि संजोगक्खरसंखाए अवट्टिदं, वृत्तपमाणादो अक्खरेहि वडि-हाणीणभावादो। एदेसु केण पदेण पयदं ? मज्झिमपदेण । वृत्तं च तिविहं पदमुद्दिठं पमाणपदमत्थमज्झिमपदं च । मज्झिमपदेण वुत्ता पुव्वंगाणं पदविभागा । १९ । बारससदकोडीओ तेसीदि हवंति तह य लक्खाइं । अट्ठावण्णसहस्सं पंचेव पदाणि सुदणाणे । २० । जितनोंके द्वारा अर्थका ज्ञान होता है वह अर्थपद है। यह अनवस्थित है, क्योंकि, अनियत अक्षरोंके द्वारा अर्थका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, 'अ' का अर्थ विष्णु है, 'इ' का अर्थ काम है, और 'क' का अर्थ ब्रम्हा है। इस प्रकार इत्यादि स्थलोंपर एक एक अक्षरसे ही अर्थकी उपलब्धि होती है । आठ अक्षरसे निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है । यह अवस्थित है, क्योंकि इसकी आठ संख्या नियत है। सोलह सौ चौंतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) इतने मध्यम पदके वर्णन होते हैं। १८ । इतने अक्षरोंको ग्रहण कर एक मध्यम पद होता है। यह भी संयोगी अक्षरोंकी संख्याकी अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि, उसमें उक्त प्रमाणसे अक्षरोंकी अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। शंका - इन पदोंमेंसे प्रकृतमें किस पदसे प्रयोजन है ? समाधान - मध्यम पदसे प्रयोजन है। कहा भी है पद तीन प्रकारका कहा गया है- प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद। इनमेंसे मध्यम - पदके द्वारा पूर्व और अंगोंका पदविभाग कहा गया है । १९ । । श्रुतज्ञानके एक सौ बारह करोड तिरासी लाख अट्ठावन हजार और पांच (११२८३५८००५) ही पद होते हैं । २० । Bअ स्यादभावे स्वल्पार्थे विष्णावेष त्वनव्ययम् । अने. सं. ( प. कां ) १Xइ स्यात्खेदे प्रकोपोत्को 1. का ) ३ . को ब्रम्हण्यात्मनि रवी मयूरेऽयो यमेऽनिले 1 क शीर्षेऽप्सु सुखे xxx 1 अने, स. १-५ गो. जी ३३५ ४ षट्खं प ९ प १९६. तिविहं पदं तु भणिदं अत्थपद-पमाण-मज्झिमपद ति मज्झिमपदेण भणिदा पुळांगाणं पदविभागा। क पा १, पृ ९२ * काप्रती ' वासपदकोडीओ, ताप्रती ' बारसप (स) दकोडीओ ' इति पाठः। अट्ठावण्णसहस्सा णि य छप्पण्णमेत्तकोडीओ तेसीदिसदसहस्स पदसंखा पंच सुदणाणे। क. पा, १, पृ. ९३ .. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४६. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा ( २६७ एत्तियाणि पदाणि घेत्तूण सगलसुदणाणं होदि । एदेसु पदेसु संजोगक्खराणि चेव सरिसाणि, ण संजोगक्खरावयवक्खराणि; तत्थ संखाणियमाभावादो। एवस्स मज्झिमपदसुदणाणस्सुवरि एगे अक्खरे वड्ढिदे पदसमासो णाम सुदणाणं होदि । पदस्स उवरि अण्णेगे* पदे वड्ढिदे पदसमाससुदणाणं होदि ति वोतुं जुत्तं । पदस्सुवरि एगेगक्खरे वड्ढिदे ण पदसमाससुदणाणं होदि, अक्खरस्स पदत्ताभावादो त्ति ? ण एस दोसो, पदावयवस्स अक्खरस्स वि पदव्ववएसे संते विरोहाभावादो । न च अवयवे अवयविसण्णा अप्पसिद्धा, पडो दो गामो बद्धो इच्चेवमादिसु अव' यवस्स वि अवयविसण्णुवलंभादो । एवमेगेगक्खरवड्ढीए पदसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जावेगक्खरेणणसंघादसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे संघावणामसुदणाणं होदि । होंति पि संखेज्जाणि पदाणि घेत्तूण एगसंघादसुदणाणं होदि । मग्गणावयवो संघादसुदणाणं णाम, जहा गदिमग्गणाए गिरयगइविसओ अवगमो तदुप्पत्तिहेदुपदाणि वा। अक्ख रसुदणाणादो उवरि छम्विहाए वड्ढीए सुदणाणं किण्ण वड्ढदे? ण अक्खरणाणं इतने पदोंका आश्रय कर सकल श्रुतज्ञान होता है । इन पदोंमें संयोगी अक्षर ही समान हैं, संयोगी अक्षरोंके अवयव अक्षर नहीं; क्योंकि, उनकी संख्याका कोई नियम नहीं है। इस मध्यमपद, श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरके बढनेपर पदसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । शंका - पदके ऊपर अन्य एक पदके बढनेपर पदसमास श्रुतज्ञान होता है, ऐसा कहना उचित है । किन्तु पदके ऊपर एक अक्षरके बढनेपर पदसमास श्रुतज्ञान नहीं होता, क्योंकि, अक्षर पद नहीं हो सकता ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पदके अवयवभूत अक्षरकी भी पद संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता । अवयवमे अवयवीका व्यवहार अप्रसिद्ध है, यह बात नहीं है; क्योंकि, 'वस्त्र जल गया , गांव जल गया' इत्यादि उदाहरणोंमें वस्त्र या गांवके एक अवयवम ही अवयवीका व्यवहार होता हुआ देखा जाता है । ___इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धिसे बढता हुआ पदसमास श्रुतज्ञान एक अक्षरसे न्यून संघात श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक जाता है पुनः इसके ऊपर एक एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर सघात नामका श्रुतज्ञान होता है । ऐसा होते हुए भी संख्यात पदोंको मिलाकर एक संघात श्रुतज्ञान होता है । मार्गणज्ञानका अवयवभूत ज्ञान संघात श्रुतज्ञान है। यथा गति मार्गणामें नरकगतिविषयक ज्ञान । अथवा इस संघात श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिके हेतुभूत पदोंका नाम सघात हैं। शंका - अक्षर श्रुतज्ञानके ऊपर छह प्रकारकी वृद्धि द्वारा श्रुतज्ञानकी वृद्धि क्यों नहीं होती? *ताप्रती ' अणेगे ' इति पाठ 1x आ-का-ताप्रतिषु 'पदो उद्धो ' इति पाठ: आ-का-ताप्रतिष 'अवयवस्स विसण्णुवलंभादो ' इति पाठः1 ताप्रती ' ए (गे) गक्खरे 'इति पाठः। 8 एयपदादो उरि एगेगेणक्खरेण वडढतो [संखेज्जसहस्सपदे उड़ढे संघादणाम सुदं 1 गो. जी. ३३६. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८ णाम सगलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो । तम्हि मप्पण्णे संखेज्जभागवड्डि· संखेज्जगुणवड्ढीओ चेव होंति, ण छव्विहवड्ढीओ; एगक्खरणाणेण संजादबलस्स छव्विहafsढविरोहादो । अक्खरणाणादो उवरि छव्विहवड्ढि परूविदवेयणा वक्खाणेण सह किष्ण विरोहो ? ण, भिण्णाहिष्वायत्तादो । एयक्खरक्खओवसमादो* जेसिमाइरियामहिपाएग उवरिमक्खओवसमा छव्विहवड्ढीए वड्ढिदा अत्थि तमस्सिय तं वक्खाणं तत्थ परूविदं । एगक्खरसुदणाणं जेसिमाइरियाणमहिप्पाएण सयलसुदणाणस्स संखेज्जदिभागो चेव ते सिम हिप्पाएणेदं वक्खाणं । तेण ण दोष्णं विरोहो । समाधान नहीं, क्योंकि, अक्षरज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भाग प्रमाण होता है । उसके उत्पन्न होनेपर संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि हीं होती हैं। छह प्रकारकी वृद्धियां नहीं होती, क्योंकि, एक अक्षररूप ज्ञानके द्वारा जिसे बलकी प्राप्ति हुई है उसकी छह प्रकारकी वृद्धि मानने में विरोध आता है । शंका - अक्षरज्ञानके ऊपर छह प्रकारकी वृद्धिका कथन करनेवाले वेदना अनुयोगद्वार व्याख्यानके साथ इस व्याख्यानका विरोध क्यों नहीं होता है ? - समाधान - नहीं, क्योंकि, उसका इससे भिन्न अभिप्राय है । जिन आचार्योंके अभिप्रायानुसार एक अक्षर के क्षयोपशम से आगे के क्षयोपशम छह वृद्धियों द्वारा वृद्धिको लिए हुए होते हैं उन आचार्यों के अभिप्रायको ध्यान में रख कर वेदना अनुयोगद्वार में वह व्याख्यान किया है। किंतु जिन आचार्य अभिप्रायानुसार एक अक्षर श्रुतज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भागप्रमाण ही होता है उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार यह व्याख्यान किया है । इसलिये इन दोनों व्याख्यानों में कोई विरोध नहीं है । विशेषार्थ - यहां अक्षरज्ञानके ऊपर ज्ञानके विकल्प किस क्रमसे उत्पन्न होते हैं, इस बातका विचार किया गया है । एक मत यह है कि अक्षरज्ञानके आगे भी षड्गुणी वृद्धि होती है । इस मतको मानने पर दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति युगपत् न होकर अनन्तभागवृद्धि, असं - या भागवृद्धि आदि के क्रमसे ही होगी । और दूसरा मत है कि एक अक्षरज्ञानके आगे दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति युगपत् होती है । इस मतके माननेपर एक अक्षरज्ञानके आगे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात भागवृद्धि ये दो वृद्धियां ही सम्भव हैं । उदाहरणार्थ- प्रथम अक्षरज्ञान के बाद दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होनेपर संख्यातगुणवृद्धि होती है और दो अक्षरज्ञानोंके ऊपर तीसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होनेपर संख्यात भागवृद्धि होती है। इस प्रकार ये दो मत हैं । सूत्रकारने अक्षरश्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां है' ऐसा प्रश्न करनेपर ' संख्यात प्रकृतियां हैं ' ऐसा समाधान किया है, इसलिए यहांपर वीरसेन स्वामीने इसके अनुरूप मतका संकलन किया है । पर इसके सिवा इस विषय में एक दूसरा भी मत उपलब्ध होता हैं, यह दिखलानेके लिए उसका सकलन वेदना अनुयोगद्वारमें किया है । " अतो ' खओवसमाणदो, काप्रती 'खओवसमासो, ताप्रतौ' क्खओवसमासो (दो) ' इति पाठ: . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा ( २६९ पुणो संधादसुदणाणस्सुवरि एगवखरे वढिदे संघादसमाससुदणाणं होदि । एत्थ वि संघादे गदे सो वि संघादो ति कादूण संघादसमासो जुज्जदि ति वत्तव्वं । एवमेगेगक्खररड्ढिकमेण संघादसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि ताव एगक्खरेणूण गदिमग्गणे ति । पुणो एत्थ एगवखरे वढिदे पडिवतिसुदणाणं होदि । होतं पि संखेज्जाणि संघादसुदणाणि घेतण एवं पडिवत्तिसुदणाणं होदि । अणुयोगद्दारस्स जे अहियारा तत्थ एक्कस्स अहियारस्स पडिवत्ति ति सण्णा । एगवखरेणणसव्वाहियाराणं पडिवत्तिसमासो ति सण्णा । पडिवत्तीए जै अहियारा तत्थ एक्केक्कहियारस्स संघाने ति सण्णा । एगक्खरेणणसव्वाहियाराणं संघादसमासो त्ति सण्णा । एदमत्थपदं सव्वत्थ पउंजिदव्वं । पुणो पडिवत्तिसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वढिदे पडिवत्तिसमाससुदणाण होदि । एवमेगेगक्खरवढिकमेण पडिवत्तिसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणअणुयोगद्दारसुदणाणे त्ति । पुणो एत्थ एगक्खरे वढिदे अणुयोगद्दारसुदणाणं होदि किमणुयोगद्दारं णाम ? पाहुडस्स जे अहियारा तत्थ एक्केक्कस्स पाहुडपाहुडे ति सण्णा । पाहुड पुनः संघात श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर संघातसमास श्रुतज्ञान होता है । यहांपर भी संघातके अतीत होनेपर वह भी संघात है, ऐसा समझकर संघातसमास बन जाता है। ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे बढता हुआ एक अक्षरसे न्यून गतिमार्गणाविषयक ज्ञानके प्राप्त होने तक संघातसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इस ज्ञानपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है। ऐसा होता हुआ भी संख्यात संधात श्रुतज्ञानोंका आश्रय कर एक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है। अनुयोगद्वारके जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक अधिकारकी प्रतिपत्ति संज्ञा है और एक अक्षरसे न्यून सब अधिकारोंकी प्रतिपत्तिसमास संज्ञा है । प्रतिपत्तिके जितने अधिकार होते हैं उनमेंसे एक एक अधिकारकी संघात संज्ञा है और एक अक्षर न्यून सब अधिकारोंकी संघातसमास संज्ञा है । इस अर्थपदका सब जगह क्थन करना चाहिय । विशेषार्थ- आशय यह है कि एक अक्षरज्ञान और पदज्ञानके मध्यका जितता ज्ञान हैं वह अक्षरसमास कहलाता है। इसी प्रकार पदज्ञान और संघातज्ञानके मध्यका जितना ज्ञान है वह पदसमास कहलाता है। तथा संघातज्ञान और प्रतिपत्तिज्ञानके मध्यका जितना ज्ञान है वह संघातसमास ज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार आगे भी अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभूतसमास, वस्तुसमास और पूर्वसमासका कथन करना चाहिये। पुनः प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षरकी वद्धिके क्रमसे बढता हुआ एक अक्षरसे न्यन अनयोगद्वार श्रुतज्ञानके प्राप्त होनेतक प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान जाता है । पुन: इसमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है। शंका- अनुयोगद्वार किसको संज्ञा हैं ? समाधान- प्राभृतके जितने अधिकार होते हैं उनमेंसे एक एक अधिकारकी प्राभृत Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८. पाहुडस्स जे अहियारा तत्थ एक्केक्कस्स अणयोगद्दारमिदि सण्णा । पुणो अणुयोगहारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे अणयोगद्दारसमासो णाम सुदणाणं होदि । एवमेगेगुत्तरक्खरवड्ढीए अणयोगद्दारसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छवि जाव एगक्खरेणूणपाहुडपाहुडे त्ति । पुणो एक्स्सवरि एगक्खरे वडिवे पाहुडपाहुडसुदणाणं होदि। किं पाहुडपाहुडं णाम ? संखेज्जाणि अणुयोगद्दाराणि घेत्तूण एगं पाहुडपाहुडसुदणाणं होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं होवि । एवमेगेगक्खरउत्तरवड्ढीए पाहुडपाहुडसमाससदणाणं वडमाणं गच्छदि जाव एगवखरेणणपाहुडसुदणाणे ति। पुणो एवस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पाहुडसुदणाणं होदि । तं पुण संखेज्जाणि पाहुडपाहुडाणि घेत्तण एगं पाहुडसुदणाणं होदि । एवस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडसमाससुदणाणं होवि । एबमेगेगत्तरक्खरवड्डीए पाहुडसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणवत्थसुदणाणे ति । पुणो एत्थ एगक्खरे वड्ढिदे वत्थुसुदणाणं होदि । वत्थु त्ति किं वृत्तं होदि ? पुव्वसदणाणस्स जे अहियारा तेसि पुघ पुध वत्थु इदि सण्णा । अग्गेणियस्स पुवस्स चयणलद्धिआदिचोद्दसअहियारा । एदस्सुवरि एगवखरे वढिदे वत्थुसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढीए प्राभृत संज्ञा है । और प्राभृतप्राभृतके जितने अधिकार होते हैं उनमेंसे एक एक अधिकारकी अनुयोगद्वार संज्ञा है। पुनः अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वारसमास नामका श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यूनप्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान होता है। पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभूत श्रुतज्ञान होता है। शका- प्राभृतप्राभृत यह क्या है ? समाधान- संख्यात अनुयोगद्वारोंको ग्रहण कर एक प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान होता हैं। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून प्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने त तक प्राभतप्राभतसमास श्रतज्ञान होता है। पूनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वद्धि होनेपर प्राभत श्रुतज्ञान होता है। संख्यात प्राभूतप्राभतोंको ग्रहण कर एक प्राभृत श्रुतज्ञान होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रामृतसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून वस्तु श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभूतसमास श्रुतज्ञान होता है । पुन: इसमें एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है। शंका- वस्तु इस पदसे क्या कहा गया है? समाधान- पूर्व श्रुतज्ञानके जितने अधिकार हैं उनकी अलग अलग वस्तु संज्ञा है । यथा- अग्रायणीय पूर्वके चयनलब्धि आदि चौदह अधिकार। इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा ( २७१ वड्डमाणं मच्छदि जाव एगक्खरेणणपुग्वसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पुव्वसुदणाणं होदि । किं पुत्वं णाम? पुव्वगयस्स जे उप्पादपुव्वदिचोद्दसअहियारा तेसि पुध पुध पुव्वसुदणाणमिदि सण्णा। पुणो एक्स्स उपायपुग्वसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वडिने पुख्वसमाससुदणाणं होवि । एवमेगेगक्खरुत्तवड्ढीए पुढबसमाससुदणाणं वड्डमाणं गच्छदि जाव अंगपविलैंगबाहिरसगलसुदणाणक्खराणि सव्वाणि वडिदाणि ति। एवं पुव्वाणपुवीए सुदणाणस्स वीसदिविधा परूवणा कदा। एवमणुसारिबुद्धिविसिट्टजीवस्स सुदणाणेण सह परिणमणविहाणं* समुद्दिळं। संपहि पडिसारिबुद्धिविसिट्ठजीवाणं सुदणाणपज्जाएण परिगमणविहाणं भणिस्सामो। तं जहा-लोगबिंदुसारपुवस्स जं चरिमभावक्खरं तमणंताणतखंडाणि कादूण तत्थ एगखंडं सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स जहणयं लद्धिअक्खरं होदि। पुणो तस्सुवरि अणंतभागे वड्डिदे पज्जयसुदणाणं होदि। पुणो एदस्सुवरि अगंतभागुतरं वडिदे पज्जयसमाससुदणाणं होदि । पुगो एवमणंतभागवडि- असंखेज्जमागवडि- -संखेज्जभागवडिसंखेज्जगुणवड्डि--असंखेज्जगणवडि- अणंतगुणवडिकमेण असंखेज्जलोगमेत्त-- छट्ठाणाणि पज्जयसमाससुदणाणसरूवेण गच्छत्ति जाव एगपेक्खेवेणूणएगवखरे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगपक्खेवे वढिदे लोगबिंदुसारपुव्वस्त एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून पूर्वश्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्व श्रुतज्ञान होता है। शंका - पूर्व यह किसकी संज्ञा है ? समाधान- पूर्वगतके जो उत्पादपूर्व आदि चौदह अधिकार है उनकी अलग अलग पूर्व श्रुतज्ञान संज्ञा है। पुन: इस उत्पादपूर्वक श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरको वृद्धि होते हुए अंगप्रविष्ठ और अंगबाह्य रूप सकल श्रुतज्ञानके सब अक्षरोंकी वृद्धि होने तक पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार निपूर्वी के अनुसार श्रुतज्ञानकी वीस प्रकारकी प्ररूपणा की। इस प्रकार अनसारी बुद्धि विशिष्ट जीवके श्रुतज्ञानके साथ परिणमन करने की विधि कही। ___ अब प्रतिसारी बुद्धि विशिष्ट जीवोंके श्रुतज्ञान पर्यायके साथ परिणमन करनेकी विधी कहते हैं यथा- लोकबिन्दुसारपूर्वका जो अन्तिम भावाक्षर है उसके अनन्तानन्त खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डप्रमाण सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य लब्ध्यक्षर नामका श्रुतज्ञान होता है। पुनः उसके ऊपर अनन्तभाग वृद्धिके होनेपर पर्याय श्रुतज्ञान होता है। पुनः इसके ऊपर उत्तरोत्तर अनन्तभाग वृद्धिके होनेपर पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है। पुन: इस प्रकार अनन्तभागबृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे एक प्रक्षेपसे न्यून एक अक्षर श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक असंख्यात लोकमात्र छह वृद्धि स्थानरूप पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि होनेपर लोकबिन्दुसार पूर्वका * अ-आ-काप्रतिषु — विहीणं ' इति पाठः। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२) . छत्रखंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८ एगचरिमक्खरं होदि । पुणो एदस्सुवरि एगवखरे वडिदे अक्खरसमाससुदणाणं होदि। एवमेगेगक्खरुत्तरवडिकमेण अक्खरसमाससुदणाणं वडमाणं गच्छदि जाव एगवखरेणूणपदसुदणाणे त्ति । पुणो एवस्सुवरि एगक्खरे वडिदे एग मज्झिमपदसुदणाणं हीदि। पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पदसमाससुदणाणं होदि । एबमेगेगक्खरुत्तरवाड्ढिकमेण पदसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणसंघादसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगवखरे वडिदे संघादसुदणाणं होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे संघादसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तवडिकमेण संधावसमाससुदणाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणपडिवत्तिसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पडिवत्तिसुदणाणं होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे पडिवत्तिसमाससुदणाणं होदि । एवं पडिवत्तिसमाससुदणाणं होदूण ताव गच्छदि जाव एगक्खरेणूणअणुओगहारसुदणाणं होदि । पुणो एदस्सवरि एगक्खरे वढिदे अणुओगद्दारसमाससदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवढि कमेण अणुयोगद्दारसमाससुदणाणं ताव गच्छदि जाव एगक्खरेणूणपाहुडपाहुडे त्ति । पुणो एदस्सवरि एगक्खरे वड्ढिदे पाहुडपाहुडसुदणाण होदि । पुणो एदस्सुवरि एगवखरे वढि दे पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवढिकमेण पाहडपाहडसमाससुदणाणं होदूण गच्छदि जाव एक अन्तिम अक्षर होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अक्षरसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि के क्रमसे एक अक्षरसे न्यून पद श्रुतज्ञानके होने तक अक्षरसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है ।पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर एक मध्यमपद श्रुतज्ञान होता है। पुनः इसके ऊपरएक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पदसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे एक अक्षरसे न्यून संघात श्रुतज्ञानके प्राप्त होनेतक पदसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर संघात श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर संघातसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे एक अक्षरसे न्यून प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक संघातसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार एक अक्षरके न्यून अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान बढता रहता हैं। पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे एक अक्षरसे न्यून प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान बढता रहता हैं । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि के एक अक्षरसे न्यून प्राभूत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभूतप्राभूतसमास श्रुतज्ञान बढता रहता . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा (२७३ एगक्खरेणूणपाहुडसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे लोगबिंदुसारचरिमपाहुडसुदणाणं- होदि । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पाहुडसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवडिकमेण पाहुडसमाससुदणाणं वड्डमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारदसमवत्थुसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगवखरे वडिदे वत्थुसुदणाणं होदि । पुणो एवस्सुवरि एगक्खरे वडिदे वत्थुसमाससुदणाणं होदि । एबमेगेगक्खरुत्तरवडिकमेण वत्थुसमाससुदणाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणूणलोगबिंदुसारसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे लोगविदुसारसुदणाणं होदि । पुणो लोगबिंदुसारसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वड्डिदे पुव्वसमाससुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरुत्तरवड्डिकमेण पुव्वसमाससुदणाणं होदूण गच्छदि जाव सयलसुदणाणपढमक्खरे ति । एवं पडिसारिबुद्धिजीवाणं सुदणाणेण परिणमणविहाणं परूविदं । संपहि सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तसव्वजहण्णलद्धि अक्खरस्सुवरि एगे पक्खेवे वडिदे है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर लोकबिंदुसारका अन्तिम प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर प्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होनेके क्रमसे एक अक्षरसे न्यून लोकबिंदुसारके दसवें वस्तु श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभूतसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होने के क्रमसे एक अक्षरसे न्यून लोकबिंदुसार श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तुसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । पुन: इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर लोकबिन्दुसार श्रुतज्ञान होता है । पुनः लोकबिन्दुसार श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर वृद्धि होने के क्रमसे सकल श्रुतज्ञानके प्रथम अक्षरके प्राप्त होने तक पूर्वसमास श्रुतज्ञान बढता रहता है । इस प्रकार प्रतिसारी बुद्धिवाले जीवोंके श्रुतज्ञानरूपसे परिणमन करनेकी विधि कही। विशेषार्थ- यहांपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य ज्ञानसे आगे श्रुतज्ञानकी वृद्धि किस क्रमसे होती है, इसका विवेचन दो प्रकारसे किया है। कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके पहले उत्पादपूर्वका ज्ञान होता है और आगे वह आनुपूर्वीको लिए हुए बढता रहता है । और कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके पहले अन्तिप पूर्व लोकबिन्दुसारका ज्ञान होता है और आगे वह प्रथम उत्पादपूर्वके ज्ञानके प्राप्त होने तक बढता रहता है । इनमेंसे पहले प्रकारके जीव' अनुसारी बुद्धिवाले कहे गये हैं और दूसरे प्रकारके जीव' प्रतिसारी बुद्धिवाले कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञानके क्षयोपशमकी अपेक्षा जो बीस भेद किये हैं उनका विस्तारसे विचार किया गया है। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके सबसे जघन्य लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञानके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि ताप्रती ' वड्डिदे पाहुडसुदणाणं हीदि ' इति पाठः । (काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः) |* ताप्रतो लोगबिंदुसारसुदणाणे ति ' इति पाठः[अ-का-ताप्रतिष 'एगेगपक्खेवे 'इति पाठ। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ४८. पज्जयसुदणाणं होदि । तं च एयवियप्पं । पज्जयस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे पज्जयस. माससुदणाणं होदि । तं च असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणपमाणं होदि । पज्जयसमासचरिमवियप्पस्सुवरि एगपखेवे वडिदे अक्खरसुदणाणं होदि । तं पि एयवियप्पं । अक्ख. रसमाससुदणाणं संखेज्जवियप। कुदो? दुरूवण मज्झिमपदक्ख रपमाणत्तादो। पदसु. दणाणमेयवियप्पं, चरिमक्खरसमासणाणस्सुवरि एगखरे पविठे* तदुप्पतीदो । पदसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं, सरूवपदक्खरूणसंघादक्खरपमाणत्तादो । संघादसुदणाणमेयवियप्पं संघादसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं । कुदो? एगक्खराहियसंघादक्खरपरिहीणपडिवत्तिअक्खरपमाणत्तादो। पडित्तिसुदणाणमेवियप्प, अंतिमसंधादसमाससुदणाणस्सुवरि एक्कम्हि चेव अक्खरे पविठे तदुप्पत्तीदो। पडिवत्तिसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं एगक्खराहियपडिवत्तिअक्खरेहि परिहीणअणयोगद्दारसुदणाणक्खरपमापत्तादो। अणुयोगद्दारसुदणाणमेयवियप्पं, अतिमपडिवत्तिसमाससुदणाणम्मि एक्कम्हि चेव अक्खरे पविढे तदुप्पत्तीदो। अणयोगद्दारसमाससुदणाणं सखेज्जवियप्पं रूवाहिय* अणुयोगद्दारक्खरेहि परिहीणपाहडपाहुडसुदणाणक्खरपमाणत्तादो । पाहुडपाहुडसुदणाणमेयवियप्पं, उक्कस्सअणुयोगद्दारसमाससुदणाणम्मि एगक्खरे पविठे तदुहोनेपर पर्याय श्रुतज्ञान होता है । वह एक प्रकारका है । पर्याय श्रुतज्ञानके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि होनेपर पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है। वह असंख्यात लोकमात्र छह स्थानप्रमाण है । पर्यायसमासके अन्तिम विकल्पके ऊपर एक प्रक्षेपको वृद्धि होनेपर अक्षर श्रुतज्ञान होता है। वह भी एक प्रकारका है। अक्षरसमास श्रुतज्ञान सख्यान प्रकारका है, क्योंकि, वह दो अक्षर कम मध्यम पदके अक्षरप्रमाण है । पद श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, अतिम अक्षरसमास श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर इस ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । पदसमास श्रुतज्ञान सख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह संघात श्रुतज्ञानके अक्षरों से एक अधिक पद श्रुतज्ञानके अक्षरोंको कम करनेपर जितना प्रमाण शेष रहे उतना है। संघात श्रुतज्ञान एक प्रकारका है। सघातसमास श्रुतज्ञान संख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानके अक्षरोंमेंसे एक अक्षर अधिक संघात श्रुतज्ञानके अक्षरोंको कम करनेपर जितना प्रमाण शेष रहे उतना है। प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, अंतिम संघातसमास श्रुतज्ञानके ऊपर एक ही अक्षरके प्रविष्ट होनेपर प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है। प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान संख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह अनुयोगद्वार श्रुतज्ञानके अक्षरोंमेंसे एक अक्षर अधिक प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानके अक्षरोंको कम करनेपर जो शेष रहे तत्प्रमाण है। अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, अंतिम प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान में एक ही अक्षरके प्रविष्ट होनेपर इस ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान संख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह प्राभृतप्राभूत श्रुतज्ञानके अक्षरोंमेंसे एक अक्षरसे अधिक अनुयोगद्वारके अक्षरोंको कम करनेपर जितने अक्षर शेष रहें तत्प्रमाण है। प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनुयोगद्वारसमास श्रुतज्ञान में एक अक्षरके प्रविष्ट होनेपर इस O अप्रतौ ' कुदो रूवेण ' इति पाठः। * ताप्रती · अक्ख रपविठे ' इति पाठ । * अ-काप्रत्योः 'परूवाहिय-,, ताप्रती (प) रूवाहिय- इति पाठ: 1 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा ( २७५ प्पत्तोदो । पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं, एगक्खराहियपाहुडपाहुडक्खरेहि परिहीणपाहुडक्खरपमाणत्तादो। पाहुडसुदणाणमेयवियप्पं, उक्कस्सपाहुडसमाससुदणाणम्मि एगक्खरे पक्खित्ते तदुप्पत्तीदो । पाहुडसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं, एगक्खराहियपाहुडक्खरपरिहीणवत्थअक्खरपमाणत्तादो। वत्थुसुदणाणमेयवियप्पं, उक्क स्सपाहुडसमाससुदणाणम्मि एगवखरे पक्खित्ते तदुप्पत्तीदो। वत्थुसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं एगक्खराहियवत्थु अक्खरेहि परिहीणपुव्वक्खरपमाणत्तादो । पुवसुदणाणमेयवियप्पं उक्कस्सवत्थुसमाससुदणाणम्मि एगक्खरे पविढे तदुप्पत्तीदो। पुदवसमाससुदणाणं संखेज्जवियप्पं, एगक्खराहियपुव्वक्खरेहि परिहीणपुव्वगदक्खरपमाणतादो । अधवा, सव्वे समासा असंखेज्जवियप्पा । ज्ञानकी उत्पत्ति होती है प्राभूतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान संख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह प्राभृतमे जितने अक्षर होते हैं उनमें से एक अक्षरसे अधिक प्राभूतप्राभत श्रुतज्ञानके अक्षरोंको कम करनेपर जितने अक्षर शेष रहें तत्प्रमाण है। प्राभृत श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, उत्कृष्ट प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान में एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर इसकी उत्पत्ति होती है। प्राभृतसमास श्रुतज्ञान सख्यात प्रकारका है, क्योंकि, यह वस्तु श्रुतज्ञानके अक्षरोंमेंसे एक अक्षरसे अधिक प्राभृत श्रुतज्ञानके अक्षरोंको कम करनेपर जितने अक्षर शेष रहें तत्प्रमाण होता है। वस्तु श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि उत्कृष्ट प्राभृतसमास श्रुतज्ञान में एक अक्षरके मिलानेपर इस ज्ञानकी उत्पत्ति होती ती है। वस्तसमास श्रतज्ञान संख्यात प्रकारका है. क्योंकि यह पर्व श्रतज्ञानके जितने अक्षर होते हैं उनमें से एक अक्षर अधिक वस्तुके अक्षरोंको कम करनेपर जितने अक्षर शेष रहते हैं तत्प्रमाण होता है । पूर्व श्रुतज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, उत्कृष्ट वस्तुमान श्रुतज्ञान में एक अक्षरके मिलानेपर इस ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। पूर्वसमास श्रुतज्ञान संख्यात प्रकारका है क्योंकि, यह पूर्वगतके जितने अक्षर होते हैं उनमेंसे एक अधिक पूर्वके अक्षरोंके कम करनेपर जितने अक्षर शेष रहें तत्प्रमाण होता है । अथवा सब समासज्ञान असंख्यात प्रकारके होते हैं। विशेषार्थ - यहां श्रुतज्ञानके वीस भेदोंमें से कौन श्रुतज्ञान कितने प्रकारका है, यह बतलाया है । पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोगद्वार, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत, वस्तु और पूर्व ये श्रुतज्ञान एक एक प्रकारके हैं; यह स्पष्ट ही है। अब रहे इनके समास श्रुतज्ञान सो पर्यायसमास श्रुतज्ञान असंख्यात प्रकारका है, इसमें कोई मतभेद नहीं हैं । शेष अक्षरसमास आदि श्रुतज्ञानोंमें यह अवश्य ही विचार उठता है कि उनमेंसे प्रत्येकके कितने विकल्प होते हैं। यहां प्रत्येकके संख्यात विकल्प बतलाये हैं। यह कथन अक्षरज्ञानके ऊपर अक्षरज्ञानकी ही वृद्धि होती है, इस अभिप्रायको ध्यानमें रख कर किया गया हैं । किन्तु जिनके मतसे अक्षरज्ञानके बाद भी छह वृद्धियां स्वीकार की गई हैं उनके मतसे सब समासज्ञान असंख्यात प्रकारके प्राप्त होते हैं । यही कारण है कि यहां पहले अक्षरसमास आदि सब समास ज्ञानोंके संख्यात भेद बतला कर बादमें उनके असंख्यात प्रकारके होनेकी सूचना की है । 8 आ-का-ताप्रतिषु ' एगवखरे पक्वित्ते पविठे ' इति पाठः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ४८. अंगबाहिरचोदसपइण्णयज्झाया* आयारादिएक्कारसंगाइं परियम्म-सुत्तपढमाणुयोगचुलियाओ च कत्थंतब्भावं गच्छंति? ण अणुयोगद्दारे तस्स समासे वा, तस्स पाहुडपाहुडपडिबद्धत्तादो। ण पाहुडपाहुडे तस्समासे वा, तस्स पुव्वगयअवयव. त्तादो। ण च परियम्म-सुत्त-पढमाणुयोग लियाओ एक्कारस अंगाई वा पुन्वगयावयवा । तदो ण ते कत्थ विलयं गच्छति? ण एस दोसो, अणुयोगद्दार-तस्स - मासाणं च अंतब्भावादो। ण च अणुयोगद्दार-तसमासेहि पाहुडपाहुडावयवेहि चेव होदव्वमिदि णियमो अस्थि, विप्पडिसेहाभावादो। अधवा, पडिवत्तिसमासे एदेसिमतब्भावो वत्सम्वो। पच्छाणुपुवीए पुण विवक्खियाए पुवसमासे अंतब्भावं गच्छंति त्ति वत्तन्वं । शका- अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकाध्याय, आचार आदि ग्यारह अंग, परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग और चूलिका; इनका किस श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है। अनुयोगद्वार या अनुयोगद्वारसमासमें तो इनका अन्तर्भाव हो नहीं सकता, क्योंकि, ये दोनों प्राभूतप्राभृत श्रुतज्ञानसे प्रतिबद्ध हैं । प्राभूतप्राभत या प्राभतप्राभूतसमासमें भी इनका अन्तर्भाव नह हो सकता, क्योंकि, ये पूर्वगतके अवयव है । परन्तु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और ग्यारह अंग ये पूर्वगतके अवयव नहीं हैं। इसलिये इनका किसी भी श्रुतज्ञानक भेदमें अन्तर्भाव नहीं होता? समाधानयह कोई दोष नहीं है क्योंकि, अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमासमें इनका अन्तर्भाव होता है । अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास प्रातिप्राभूतके अवयव ही होने चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि, इसका कोई निषेध नहीं किया है । अथवा प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञानमें इनका अन्तर्भाव कहना चाहिये । परन्तु पश्चादानुपूर्वीकी विवक्षा करनेपर इनका पूर्वसमास श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव होता है, यह कहना चाहिये ।। विशेषार्थ- एक ओर समस्त श्रुतज्ञानके ग्यारह अंग, चौदह पूर्व, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और अंगबाह्य इतने भेद किय हैं और दूसरी ओर यहां श्रुतज्ञानके जो बीस भद बतलाये हैं वे सब पूर्वगतज्ञानसे प्रतिबद्ध ज्ञात होते हैं, क्योंकि, पूर्वके अधिकारोंको वस्तु, वस्तुके अवान्तर अधिकारोंको प्राभृत, प्राभूतके अवान्तर अधिकारोंको प्राभूतप्राभूत, प्राभृतप्राभूतके अवान्तर अधिकारोंको अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारके अवान्तर अधिकारोंको प्रतिपत्ति कहते हैं। संघात प्रतिपत्तिके और पद संघातके अवान्तर भेद हैं । इसलिये चौदह पूर्वोके सिवा शेष श्रुतज्ञानका किस भेदमें अन्तर्भाव होता है, यह एक प्रश्न है। प्रकृतमें इसी प्रश्न का उत्तर दो प्रकारसे दिया गया है। पूर्वानुपूर्वीकी अपेक्षा शेष ज्ञान भेदोंका अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास ज्ञानमें या प्रतिपत्तिसमास ज्ञानमें अन्तर्भाव किया है और पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा इन भेदोंका पूर्वगतमें ही अन्तर्भाव किया है । जहां तक प्रश्नके समाधानकी बात है, इस उत्तरसे समाधान तो हो जाता है पर यह जिज्ञासा बनी रहती है कि यदि ऐसी बात थी तो पूर्व पूर्व ज्ञानभेदको उत्तर उत्तर ज्ञानभेदका अवान्तर अधिकार नहीं मानना था । किंतु यहां इस प्रकारकी व्यवस्था न कर सब अनुयोगद्वारोंकी परिसमाप्ति पूर्वसमासमें की गई है । व्याख्यामें तो *काप्रती ' पइण्णवज्झाया ' इति पाठ:1४ आ-काप्रत्यो: ' कथंतब्भाव ', ताप्रती ' कथं (त्थं) तब्भावं ' ति पाठ:10 अ-काप्रत्योः 'एयं ' इति पाठः) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ४८. ) पडिअणुओगद्दारे सुदणाण वरणीयभेदपरूवणा (२७७ तत्थ सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स जं जहणं लद्धिअक्खरं तस्स णस्थि आवरणं । तदुवरिमस्स पज्जयसण्णिदस्स णाणस्स जमावरणं तं पज्जयणाणावरणीयं । एवम्हादो पक्खेवुतरस्स णाणस्त पज्जयसमाससण्णिदस्त जमावरणं तं पज्जयसमासणाणावरणीयं। एवमणंतभागवडि-असंखज्जभागवड-संखेज्जभागवडि- संखेज्जगुणवडि-असंखज्जगुणवड्डि-अणंतगुणवडिकमेण असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणपमाणाणि पज्जयसमासावरणीयाणि होति । एदाणि सव्वाणि जादीए एयत्तमवणमंति ति पज्जयसमासावरणीयमेक्कं चेव होदि १ । एवं पुविल्लेण सह दोणि सुदणाणावरणीयाणि होति २। अक्ख रसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तमक्खरावरणीयं । एवं तिणि आवरणाणि ३ । पुणो एदस्सुवरिमस्स अक्खरस्स जमावरणीयकम्मं तमक्खरसमासावरणीयं णाम चउत्थमावरणं ४ । अक्खरसमासावरणाणि वत्तिदुवारेण जदि वि संखेज्जाणि तो वि एक्कं चेव आवरणमिदि ताणि गहिदाणि, जादिदुवारेण अगबाह्यके अक्षरोंको भी पूर्वसमासके भीतर परिगणित कर लिया गया है । इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि यहां एसा क्यों किया गया है ? साधारणतया ग्यारह अंग स्वतंत्र माने जाते हैं और बारहवें दृष्टिवाद अंगके पूर्वगत, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका ये पांच भेद किये जाते हैं। स्वयं वीरसेन स्वामीने अन्यत्र श्रुतका इसी प्रकारसे विभाग किया है । इस लिये यदि क्षयोपशमकी अपेक्षा किये गये श्रुतज्ञानके भेदोंको पूर्वसमास ज्ञानके भीतर लिया जाता है तो ग्यारह अंग व दृष्टिवादके शेष भेद सब संयोगी अक्षरोंके बाहर पड जाते हैं। अंगबाह्यके सम्बन्धमें दो मत मिलते हैं । वीरसेन स्वामीके अभिप्रायानुसार तो इनकी रचना गणधरोंने ही की थी। किन्तु पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीकामें अंगबाह्यकी रचना अन्य आचार्योंके द्वारा की गई बतलाई है। थोडी देरके लिय हमें इस मतभेदको भुलाकर मूल प्रश्नपर आना है, क्योंकि, अगबाह्यके विषयमें तो यह समाधान हो सकता है कि सामायिक आदि मूल अंगबाह्योंकी रचना गणधरोंने की होगी । प्रश्न यहां श्रुतज्ञानके सब भेदोंके विचारका है। इस व्यवस्थाको देखते हुए हमारा तो ऐसा ख्याल है कि श्रुतज्ञानके सब भेदोंमें पूर्वगतको मुख्य मानकर यह प्ररूपणा की गई है । परन्तु पूर्वगतको ही मुख्यता क्यों दी गई है, यह फिर भी ध्यान देने योग्य है। उनमेंसे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका जो जघन्य लब्ध्यक्षर ज्ञान है उसका आवरण नहीं है। उससे आगेके पर्याय संज्ञावाले ज्ञान का जो आवरण है वह पर्यायज्ञानावरणीय है। इससे एक प्रक्षेप अधिक आगेके पर्यायसमास ज्ञानका जो आवरण है वह पर्यायसमासज्ञानावरणीय है । इस प्रकार अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र छह स्थान प्रमाण पर्यायसमासज्ञानावरणीय होते हैं । ये सब जातिकी अपेक्षा एक हैं, इसलिये पर्यायसमासज्ञानावरणीय कर्म एक ही है १ । इस प्रकार पूर्वोक्त आवरणके साथ दो श्रुतज्ञानावरण होते हैं २ । अक्षर श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह अक्षरावरणीय है । इस प्रकार तीन आवरण कर्म होते हैं ३ । पुनः इससे आगेके अक्षरका जो आवरणीय कर्म है वह अक्षरसमासावरणीय नामका चौथा आवरण कर्म है ४। अक्षरसमासावरणीय यद्यपि व्यक्तिकी अपेक्षा संख्यात हैं तो भी एक ही आवरणकर्म है, ऐसा समझकर वे ग्रहण ताप्रतो ' ताणि (ण) गहिदाणि ' इति पाठ: 1 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,५.४८. सिमेय तुवलंभादो पदसुदणाणस्स जमावरणं तं पदसुदणाणावरणीयं नाम पंचममावरणं ५ । पदसमासणाणस्स जमावारयं कम्मं तं पदसमासणाणावरणीयं छट्ठ ६ । जदि वि एदं वत्तिदुवारेण संखेज्जवियप्पं तो वि तण्ण गहिदं, पज्जएहि अत्थित्ताभावादो । एक्कं चेवे त्ति गहिदं, दव्वट्टियत्तादो । संघादणाणस्स जमावरयं कम्मं तं संघादणाणावरणीयं सत्तमं ७ | संघादसमासणाणस्स जमावारयं कम्मं तं संघादसमासावरणीयट्टमं ८ । जदि वि एवं संखेज्जवियप्पं तो वि जादिदुवारेण एवकं चेवेत्ति गहिदं । पडिवत्तिसुदणाणस्स जमावारयं कम्भं तं पडिवत्तिआवरणीयं जवमं ९ । पडिवत्तिसमास सुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं पडिवत्तिसमासावरणीयं दसमं १० । अणुयोगसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं मतणियोगावरणीयमेक्कारसमं ११ । अणुयोगसमाससुदणाणस्स संखेज्जवियप्पस्स जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावरणं तमणुयोगसमासावरणीयं बारसमं १२ । पाहुडपाहुडसुदणाणस्स जमावरणं तं पाहुडपाहुडणाणावरणीयं तेरसमं १३ । पाहुडपाहुडसमाससुदणाणस्स वत्तिदुवारेण संखेज्जवियप्पेसु संतेसु वि जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावरयं कम्मं तं पाहुडपाहुउसमासावरणीयं चोदसमं १४ । पाहुडसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं पाहुडावरणीय किये गये हैं; क्योंकि, जातिकी अपेक्षा उनमें एकत्व उपलब्ध होता है । पद श्रुतज्ञानका जो आवरण कर्म है वह पदश्रुतज्ञानावरणीय नामका पांचवां आवरण ५ । पदसमास ज्ञानका जो आवारक कर्म है वह पदसमासज्ञानावरणीय नामका छठा कर्म है ६ । यद्यपि यह व्यतिकीं अपेक्षा संख्यात प्रकारका है तो भी उन भेदोंका ग्रहण नहीं किया है; क्योंकि, यहां पर्यायों के ग्रहणकी विवक्षा नहीं है। एक ही है, ऐसा मानकर उसका ग्रहण किया है. क्योंकि, यहां द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता है । संघातज्ञानका जो आवारक कर्म है वह संघात ज्ञानावरणीय नामका सातवां आवरण है ७ । संघातसमास ज्ञानका जो आवारक कर्म है वह संघातसमासज्ञानावरणीय नामका आठवां आवरण है ८ । यद्यपि यह संख्यात प्रकारका है तो भी जातिकी अपेक्षा एक ही है, ऐसा यहां ग्रहण किया है । प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्रतिपत्तिआवरणीय नामका नौंवा आवरण है ९ । प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म हैं वह प्रतिपत्तिसमासावरणीय नामका दसवां आवरण है १० । अनुयोग श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह अनुयोगावरणीय नामका ग्यारहवां आवरण है ११ । जो व्यक्तिशः संख्यात प्रकारका है, किन्तु जातिकी अपेक्षा एक प्रकारका है, ऐसे अनुयोगसमास श्रुतज्ञानका जो आवरण कर्म है वह अनुयोगसमासावरणीय नामका बारहवां आवरण है १२ । प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्राभृतप्राभूतावरणीय नामका तेरहवां आवरण है १३ । व्यतिकी अपेक्षा संख्यात भेदोंके होनेपर भी जो जातिकी अपेक्षा एक प्रकारका है ऐसे प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय नामका चौदहवां आवरण कर्म है १४ । प्राभृत श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्राभृतावरणीय नामका पन्द्रहवां कर्म है १५ । अ आ-काप्रतिषु ' जमावारयं इति पाठ: 1 तातो' आवरणं इति पाठ: [ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,४९. ) पर्या अणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा ( २७९ पणारसं १५ । पाहुडसमाससुदणाणस्स वत्तिदुवारेण संखेज्जते संते वि जादिदुवारेण एयतमावण्णस्स जमावारयं कम्मं तं पाहुडसमासाबरणीयं सोलसमं १६ । वत्थुसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं वत्थुआवरणीयं सत्तारसमं १७ । वत्थुसमाससुदणाणस्स वत्तदुवारेण संखेज्जवियप्पे संते वि जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावारयं कम्म तं वत्थुसमासावरणीयमद्वारसमं १८ । पुव्वसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं त पुव्वावरणीयमेत्रको गवी सदिमं १९ । पुश्वसमास सुदणाणस्स वत्तिदुवारेण संखेज्ज - विप्पे संते विजादीए एयत्तमावण्णस्स जमावारयं कम्मं तं वीसदिमं पुव्वसमासावरणीयं २० । एवमणुलोमेण सुदणाणस्स वीसदिविधा आवरणपरूवणा परूविदा | एवं विलोमेण वीसदिविधा सुदणाणावरणीयपरूवणा परूवेदव्वा, विसेसाभावादो । जेत्तिया सुदणाणवियप्पा, मदिणाणवियप्पा वि तत्तिया चेव, सुदणाणस्स मदिणाण पुव्वत्तादो । तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स अण्णं परूवणं कस्सामों । ४९ । सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा भणिस्समाणा कधं सुदणाणावरणीयस्स परूवणा होज्ज ? ण एस दोसो, आवरणिज्जसरूवपरूवणाए तदावरणसरूवावगमाविणाभावित्तादी कम्मकारए आवरणिज्जसद्दनिष्पत्तीदो वा । होते हुए भी जो जातिकी अपेक्षा एक प्रकारका है ऐसे प्राभृतसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्राभृतसमःसावरणीय नामका सोलहवां आवरण कर्म है | १६ | वस्तु श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह वस्तुश्रुतावरणीय नामका सत्रहवां आवरण कर्म है १७ । व्यक्तिको अपेक्षा संख्यात प्रकारका होनेपर भी जातिकी अपेक्षा जो एक प्रकारका है ऐसे वस्तुसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह वस्तुसमासावरणीय नामका अठारहवां आवरण कर्म है १८ । पूर्व श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह पूर्वश्रुतावरणीय नामका उन्नीसवां आवरण कर्म है १९ । व्यक्तिकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका होते हुए भी जातिकी अपेक्षा जो एक प्रकारका है ऐसे पूर्वसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह पूर्वसमासावरणीय नामका वीसवां आवरण कर्म २० । इस प्रकार अनुलोमक्रमसे श्रुतज्ञान के बीस प्रकारके आवरणका कथन किया। इसी विलोमक्रमसे बीस प्रकारके श्रुतज्ञानावरणका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । जिलने श्रुतज्ञानके भेद हैं मतिज्ञानके भेद भी उतने ही हैं, क्योंकि, श्रुतज्ञान ज्ञानपूर्वक होता है । उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा करते हैं ।। ४९ ।। शंका- - श्रुतज्ञानके पर्याय नामोंकी प्ररूपणा जो आगे की जानेवाली है वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्ररूपणा कैसे हो सकती हैं ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आवरणीयके स्वरूपका कथन तावरण के स्वरूपके ज्ञानका अविनाभावी होता है । अथवा कर्म कारकमें आवरणीय शब्दकी निष्पत्ति हुई है, इसलिये कोई दोष नहीं है । अ-आप्रत्योः ' भविस्समाणा ' इति पाठ: 1 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५०. पावयणं पवयणीयं पवयणी गदीस यग्गणवा आदा परंपरलद्धी अणुत्तरं पवयणं पवयणी पवयणद्धा पवयणसणियासो णयविधी णयंतरविधी भंगविधी भंगविधिविसेसो पुच्छाविधी पुच्छाविधिविसेसों तच्चं भूदं भव्वं भवियं अवितथं अविहवं वेदं गाय सुद्धं सम्माइट्ठी हेदुवादो णयवादो पवरवादो मग्गवादो सुदवादो परवादो लोइयवादो लोगुत्तरीयवादो अग्गं मग्गं जहाणुमग्गं पुव्वं जहाणुपुव्वं पुन्वादिपुव्वं चेदि ॥ ५० ॥ _एदे सुदणाणस्स इगिदालीसं परियायसहा । संपहि एदेसि पुध पुध परूवणं कस्सासो। तं जहा- उच्यते भण्यते कथ्यते इति वचनं शब्दकलापः, प्रकृष्टं वचनं प्रवचनम् । कुतः प्रकृष्टता ? पूर्वापरविरोधादिदोषाभावात् निरविद्यार्थप्रतिपादनात अविसंवादात प्रकृष्टत्वम् । प्रवचने प्रकृष्टशब्दकलापे भवं ज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा प्रावचन* नाम । कथं द्रव्य श्रुतस्य वचनात्मकस्य वचनादुत्पत्तिः ? न एष दोषः वचनर प्रावचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियोंमें मार्गणता, आत्मा, परम्परा लब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचनसंनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि. भंगविधि, भंगविधिविशेष, पृच्छाविधि, पच्छाविधिविशेष, तत्व, भूत, भव्य, भविप्यत्, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय्य, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाव, लौकिकवाद, लोकोतरीयवाद, अग्रय, मार्ग, यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व, ये श्रुतज्ञानके पर्याय नाम हैं। ५० । ये श्रुतज्ञानके इकतालीस पर्याय शब्द हैं। अब इनका पृथक् पृथक् कथन करते हैं। यथा- 'वच्' धातुसे वचन शब्द बना है । ' उच्यते भण्यते कथ्यते इति वचनम् ' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो कहा जाता है वह वचन है । इस प्रकार वचन पदसे शब्दोंका समुदाय लिया जाता है। प्रकृष्ट वचनको प्रवचन कहते है। शंका - प्रकृष्टता कैसे है ? समाधान - पूर्वापरविरोधादि दोषसे रहित होनेके कारण, निरवद्य अर्थका कथन करनेके कारण, और विसंवादरहित होने के कारण प्रकृष्टता है। प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट शब्दकलापमें होनेवाला ज्ञान या द्रव्यश्रुत प्रावचन कहलाता है । शंका - जब कि द्रव्यश्रुत वचनात्मक है तब उसकी वचनसे ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि श्रुत संज्ञाको प्राप्त हुई वचनरचना चूंकि वचनोंसे कथंचित् भिन्न है, अतएव उनसे उसको उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। काप्रतौ ‘पवणीय ' इति पाठः 10 तातो 'भूद भवियं भव्वं ' इति पाठः। . अ-आ-काप्रतिषु ‘णामं ' इति पाठः 1 * अ-आ-काप्रतिषु ' ज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा प्रवचन, ताप्रती ज्ञानं । द्रव्यश्रुत्तं वा प्रवचनं इति पाठ। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ५, ५०. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एय?परूवणा (२८१ चनायास्तेभ्यः कथंचिद् व्यतिरिक्तायाः श्रुतव्यपदेशभाजस्तत उत्पत्यविरोधात्; प्रवचनमेव प्रावचन मिति व्युत्पत्तिसमाश्रयणाद्धा। एवं पावयणपरूवणा गदा । प्रबन्धेन वचनीयं व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम्। किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते ? श्रोतुयाख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्म निर्जरणहेतुत्वात्। उत्तं च सज्झायं कुन्वंतो पचिदियसंवुडो तिगुत्तो य। होदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू। २१ । जह जह सुदमोगाहिदि अदिसयरसपसरमसुदधुव्वं तु । तह तह पल्हादिज्जदि णव-णवसंवेगसद्धाए०।२२ । जं अण्णाणी कम्मं खवेइ भवसयसहस्पकोडीहिं । त णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अतोमुहुत्तेण+। २३ । एवं पवयणीयपरूवणा गदा । द्वादशांगवर्णकलापो वचनम्, अर्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति अर्थो नव पदार्थाः । अथवा, प्रवचनमेव प्रावचनम् ' ऐसी व्युत्पत्तिका आश्रय करनेसे उक्त दोष नहीं होता। इस प्रकार प्रावचनप्ररूपणा समाप्त हुई। प्रबन्धपूर्वक जो वचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है वह प्रवचनीय कहलाता है। शका - इसका सर्व काल किसलिए व्याख्यान करते हैं ? समाधान - क्योंकि, वह व्याख्याता और श्रोताके असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है । कहा भी है. स्वाध्यायको करनेवाला भिक्षु पांचों इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित और तीन गुप्तियोंसे सहित होकर एकाग्रमन होता हुआ विनयसे संयुक्त होता है । २१ । जिसमें अतिशय रसका प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुतका वह जैसे जैसे अवगाहन करता है वह वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धासे संयुक्त होता हुआ परम आनन्दका अनुभव करता है । २२ । अज्ञानी जीव जिस कर्मका लाखों करोडों भवोंके द्वारा क्षय करता है उसका ज्ञानी जीव तीन गुप्तियोंसे गुप्त होकर अन्तर्मुहुर्तसे क्षय कर देता है । २३ । इस प्रकार प्रवचनीयप्ररूपणा समाप्त हुई। द्वादशांग रूप वर्गों का समुदाय वचन है, जो ' अर्यते गम्यते परिच्छद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह अर्थ है । यहां अर्थ पदसे नौ पदार्थ लिये गये हैं। वचन और अर्थ ये दोनों मिलकर अ-आ-काप्रतिष ' भिक्खो ' इति पाठ:1 भ. आ. १०४. मला. ५-२१३. भ. आ. १०५. तत्र 'सुदमोगाहिदि ' इत्येतस्य स्थाने 'सुदमोग्गाहदि , णवणवसवेगसद्धाए इत्येतस्य च स्थाने ' नवनवसंवेगसड्ढाए इति पाठः । नवनवसंवेगसड्डाए प्रत्यग्रतरधर्मश्रद्धया। नन च संसाराभीरुता संवेगः, ततोयमर्थ स्यादसंबंधं ! न दोष संसारभीरताहेतुको धर्मपरिणाम: आयधनिपातभीरताहेतुककवचग्रहणवत । तेन संवेगशब्द: कार्ये धर्म वर्तते । विजयोदया. * प्र. सा. ३-३८ भ. आ. १०८. . अ- कापत्यो ' कदा · इति पाठः 1 - For Private &Personal use only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५०. वचनं च अर्थश्च वचनार्थो, प्रकृष्टौ निरवद्यौ वचनार्थो यस्मिन्नागमे स प्रवचनार्थः । प्रत्यक्षानुमानानुमताविरोधिसप्तभंग्यात्मकसुनयस्वरूपतया निरवद्यं वचनम् । ततो वचननिरवद्यत्वेनैव अर्थस्य निरवद्यत्वं गम्यते इति नार्थोऽर्थग्रहणेन? न एष दोषः। शब्दानुसारिजनानुग्रहार्थं तत्प्रतिपादनात् । अथवा, प्रकृष्टवचनरर्थ्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति प्रवचनार्थो द्वादशांगभावश्रुतम् । सकलसंयोगाक्षरविशिष्टवचनारचितबह विशिष्टोपादानकारणविशिष्टाचार्यसहायः द्वादशांगमुत्पाद्यत इति यावत् । एवं पवयणट्रपरूवणा गदा। गतिशब्दो येन देशामर्शकस्तेन गतिग्रहणेन मार्गणास्थानानां चतुर्दशानामपि ग्रहणम् । गतिषु मार्गणस्थानेषु चतुदर्शगुणस्थानोपलक्षिता जीवाः मग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुतिः एवं गदीसु मग्गणदा त्ति गदा । आत्मा द्वादशांगम्, आत्मपरिणामत्वात् । न च परिणामः परिणामिनो भिन्नः, मृद्रव्यात् पृथग्भूतघटादिपर्यायानुपलम्भात् । आगमत्वं प्रत्यविशेषतो द्रव्यश्रुतस्याप्यात्मत्वं प्राप्नोतीति चेत् - न, तस्यानात्मवचनार्थ कहलाते है । जिस आगममें वचन और अर्थ ये दोनों प्रकृष्ट अर्थात् निर्दोष हैं उस आगमकी प्रवचनार्थ संज्ञा है। शंका- प्रत्यक्ष व अनुमानसे अनुमत और परस्पर विरोधसे रहित सप्तभंगी रूप वचन सुनयस्वरूप होनेसे निर्दोष है । अतएव जब वचनकी निर्दोषतासे ही अर्थकी निर्दोषता जानी जाती है तब फिर अर्थके ग्रहणका कोई प्रयोजन नहीं रहता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शब्दानुसारी जनोंका अनुग्रह करने के लिये 'अर्थ' पदका कथन किया है। - अथवा, प्रकृष्ट वचनोंके द्वारा जो अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते ' अर्थात् जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात द्वादशांग भावश्रुत है। जो विशिष्ट रचनासे आरचित हैं, बहुत अर्थवाले हैं, विशिष्ट उपादान कारणोंसे सहित हैं और जिनको हृहयंगम करने में विशिष्ट आचार्योकी सहायता लगती है ऐसे सकल संयोगी अक्षरोंसे द्वादशांग उत्पन्न किया जाता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रवचनार्थका कथन किया। यतः गति शब्द देशामर्शक है, अतः गति शब्दका ग्रहण करनेसे चौदहों मार्गणास्थानोंका ग्रहण होता है । गतियोंमें अर्थात् मार्गणास्थानोंसे चौदह गुणस्थानोंसे उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं वह गतियोंमें मार्गणता नामक श्रुति है । इस प्रकार गतियोंमें मार्गणताका कथन किया । द्वादशांगका नाम आत्मा है, क्योंकि वह आत्मका परिणाम है । और परिणाम परिणामीसे भिन्न होता नहीं है, क्योंकि, मिट्टी द्रव्यसे पृथग्भूत घटादि पर्यायें पाई नहीं जाती।। शंका - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दोनों ही आगमसामान्यकी अपेक्षा समान हैं । अतएव जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशांगको 'आत्मा' माना है उसी प्रकार द्रव्यश्रुतके भी आत्मस्वताका प्रसंग प्राप्त होता है ? Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,५०. ) पडअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्टपरूवणा ( २८३ धर्मस्योपचारेण प्राप्तागमसंज्ञस्य परमार्थतः आगमत्वाभावात् । एवमादा त्ति गदं । विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यंता इष्टवस्तूपलम्भा लब्धयः लब्धीनां परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् तत्प्राप्त्युपायो निरूप्यते वा स परम्परालब्धिरागमः । परंपरलद्धि त्ति गदं । उत्तरं प्रतिवचनम्, न विद्यते उत्तरं यस्य श्रुतस्य तदनुत्तरं श्रुतम् । अथवाअधिकमुत्तरम्, न विद्यते उत्तरोऽन्यसिद्धान्तः अस्मादित्यनुत्तरं श्रुतम् । एवमणुत्तरं त्ति गदं । प्रकर्षेण कुतीर्थ्याना लढतया उच्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनेनेति प्रवचनं वर्णपंक्त्यात्मकं द्वादशांगम् । अथवा, प्रमाणाद्यविरोधेन उच्यतेऽर्थोऽनेन ज्ञानेन करणभूतेनेति प्रवचनं द्वायशांगं भावश्रुतम् । कथं ज्ञानस्य करणत्वम्? न, अवबोधमन्तरेणार्थाविसंवादिवचनाप्रवृत्तेः । न च सुप्त मत्तवचनैर्व्यभिचारः, तत्र अविसंवादनियमाभावात् । पवयणं त्ति गदं । प्रकृष्टानि वचनान्यस्मिन् सन्तीति समाधान- नहीं. क्योंकि वह द्रव्यश्रुत आत्माका धर्म नहीं है । उसे जो आगम संज्ञा प्राप्त है वह उपचारसे प्राप्त है, वास्तवमें वह आगम नहीं है । इस प्रकार आत्माका कथन किया । मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तुको प्राप्त करनेवाली अणिमा आदि विक्रियायें लब्धि कही जाती है । इन लब्धियोंकी परम्परा जिस आगमसे प्राप्त होती है या जिसमें उनकी प्राप्तिका उपाय कहा जाता है वह परम्परालब्धि अर्थात् आगम है । इस प्रकार परम्परलब्धिका कथन किया । उत्तर प्रतिवचनका दूसरा नाम है, जिस श्रुतका उत्तर नहीं है वह श्रुत अनुत्तर कहलाता है । अथवा उत्तर शब्दका अर्थ अधिक है, इससे अधिक चूंकि अन्य कोई भी सिद्धान्त नहीं पाया जाता, इसीलिये इस श्रुतका नाम अनुत्तर है । इस प्रकार अनुत्तर पदका कथन किया । यह प्रकर्ष अर्थात् कुतीयके द्वारा नहीं स्पर्श किये जाने स्वरूपसे जीवादि पदार्थोंका निरूपण करता है, इसलिये वर्ण-पकत्यात्मक द्वादशांगको प्रवचन कहते है । अथवा करणभूत इस ज्ञानके द्वारा प्रमाण आदिके अविरोधरूपसे जीवादि अर्थ कहे जाते हैं, इसलिये द्वादशांग भावश्रुतको प्रवचन कहते हैं । शंका- ज्ञानको करणपना कैसे प्राप्त है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ज्ञानके विना अर्थमें अविसंवादी वचनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इस हेतुका सुप्त और मत्तके वचनोंके साथ व्यभिचार होगा, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उनके अविसंवादी होने का कोई नियम नहीं है । इस प्रकार प्रवचनका कथन किया । जिसमें प्रकृष्ट वचन होते हैं वह प्रवचनी है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भावगमका नाम प्रवचनी हैं । अथवा जो कहा जाता है वह प्रवचन है इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रवचन अर्थको कहते हैं । वह इसमें है इसलिये वर्णोपादानकारणक द्वादशांग ग्रन्थका नाम प्रवचनी है । इस काप्रती 'कुतीनालीढतया ' इति पाठः । * ताप्रतो' कारणभूनेनेति' इति पाठ: का-ता प्रत्योः ' प्रवचनं द्वादशांग, द्वादशांगभावश्रुत्तं ' इति पाठ: 1 काप्रती वचनप्रवृत्तेः ' ताप्रतो 'वचन (ना) प्रवृत्ते ' इति पाठः । I Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५,५०. प्रवचनी भावागमः। अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थः, सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशांमग्रन्थः वर्णोपादानकारणः। एवं पवणि त्ति गदं । अद्धा कालः, प्रकृष्टानां शोभनानां वचनानामद्धा कालः यस्यां श्रुतौ सा पवयगद्धा श्रुतज्ञानम् । किमर्थं श्रुतज्ञानेन परिणतावस्थायां शोभनवचनानामेव प्रवृत्तिः ? नैष दोषः, अशोभनवचनहेतुरागादित्रितयस्य तत्रासत्त्वात् । एवं पवयणद्धा ति गदा । उच्यन्ते इति वचनानि जीवाद्यर्थाः, प्रकर्षेण वचनानि सन्निकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवचनसन्निकर्षों द्वादशांगश्रुतज्ञानम् । कः सन्निकर्षः ? एकस्मिन वस्तुन्यकस्मिन धर्मे निरुद्ध शेषधर्माणां तत्र सत्यासत्त्वविचारः सत्स्वप्यकस्मिन्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्क. विचारश्च सन्निकर्षः। अथवा, प्रकर्षेण वचनानि जीवाद्याः संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्तात्मतया अनेनेति प्रवचनसंन्यासः । एवं पवयणणियासो त्ति गदं । नयाः नैगमादयः, ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते सदसदादिरूपेणास्मिन्निति नयविधिः । अथवा, नैगमादिनयः विधीयन्ते जीवदयः पदार्था अस्मिन्निति नयविधिः । णयविधि त्ति गदं । नयान्तराणि नैगमादिसप्तशतनयभेदाः, ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते विषयसांकर्यनिराकरणद्वारेण अस्मिन्निति नयान्तरविधिः श्रुतज्ञानम् । एवं जयंतरविधि त्ति गदं । प्रकार प्रवचनीका कथन किया। अद्धा कालको कहते हैं, प्रकृष्ट अर्थात् शोभन वचनोंका काल जिस श्रुतिमें होता है वह प्रवचनाद्धा अर्थात् श्रुतज्ञान है। शंका- श्रुतज्ञानरूपसे परिणत हुई अवस्थामें शोभन वचनोंकी ही प्रवृत्ति किसलिय होती है ? ___ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अशोभन वचनोंके हेतुभूत रागादित्रिक ( राग, द्वेष और मोह ) का वहां अभाव है। इस प्रकार प्रवचनाद्धाका कथन किया । 'जो कहे जाते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वचन शब्दका अर्थ जीवादि पदार्थ है । प्रकर्षरूपसे जिसमें वचन सन्निकृष्ट होते हैं वह प्रवचनसन्निकर्ष रूपसे प्रसिद्ध द्वादशांग श्रुतज्ञात है। शंका- सन्निकर्ष समाधान- एक वस्तुमें एक धर्म के विवक्षित होनेपर उसमें शेष धर्मोके सत्त्वासत्त्वका विचार तथा उसमें रहनेवाले उक्त धर्मों से किसी एक धर्मके उत्कर्षको प्राप्त होनेपर शेष धर्मोके उत्कर्षानत्कर्षका विचार करना सन्नित्कर्ष कहलाता है। अथवाप्रकर्षरूपसे वचन अर्थात् जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूपसे जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात् प्ररूपित किये जाते हैं वह प्रवचनसंन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग श्रुतज्ञान ही है। इस प्रकार प्रवचनसन्निकर्ष या प्रवचनसंन्यासका कथन किया। नय नैगम आदिक हैं। वे सत् व असत् आदि स्वरूपसे जिसमें 'विधीयन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं वह नयविधि आगम है । अथवा नैगमादि नयोंके द्वारा जीवादि पदार्थोंका जिसमें विधान किया जाता है वह नयविधि-आगम है। इस प्रकार नयविधिका कथन किया। नयान्तर अर्थात् नयोंके नैगमादिक सात सौ भेद विषयासांकर्यके निराकरण द्वारा जिसमें विहित अर्थात् निरूपित किये जाते हैं वह नयान्तरविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है । इस प्रकार नयान्तरविधिका कथन किया। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,५०. ) पर्याअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा ( २८५ अहिंसा सत्यास्तेय शील-गुण-नय-वचन द्रव्यादिविकल्पाः भंगाः । ते विधीयन्तेऽनेनेति भंगविधिः श्रुतज्ञानम् । अथवा, भंगो वस्तुविनाशः स्थित्युत्पत्त्यविनाभावी, सोऽनेन विधीयते निरूप्यत इति भंगविधिः श्रुतम् । एवं भंगविधि ति गदं । विधानं विधिः, गानां विधिर्भेदो+विशिष्यते . पृथग्भावेन निरूप्यते अनेनेति भंग विधिविशेषः श्रुतज्ञानम् । एवं भंगविधिविसेसो त्ति गदं । द्रव्य गुण पर्यय - विधिनिषेधविषयप्रश्नः पृच्छा, तस्याः क्रमः अक्रमश्च अक्रमप्रायश्चितं च विधीयते अस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् अथवा पृष्टोऽर्थः पृच्छा, सा विधीयते निरूप्यतेऽस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् । एवं पुच्छाविधि त्ति गदं । विधानं विधिः पृच्छायाः विधिः पृच्छाविधिः स विशिष्यतेऽनेनेति पृच्छा विधिविशेषः । अर्हदाचार्योपाध्याय-साधवोऽनेन प्रकारेण पृष्टव्याः प्रश्नभंगाश्च इयन्त एवेत्ति यतः सिद्धान्ते निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञेत्युक्तं भवति । पुच्छाविधिविसेसो त्ति गदं । तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्त्वम् । कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यादिकके भेद भंग कहलाते हैं । उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है । अथवा, भंगका अर्थ स्थिति और उत्पत्तिका अविनाभावी वस्तुविनाश है । वह जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है । इस प्रकार भंगविधिका कथन किया । विधिका अर्थ विधान है । भगोंकी विधि अर्थात् भेद ' विशेष्यते ' अर्थात् पृथक् रूपसे जिसके द्वारा निरूपित किया जाता है वह भंगविधि विशेष अर्थात् श्रुतज्ञान है। इस प्रकार भंगविधिविशेषका कथन किया । द्रव्य, गुण और पर्यायके विधि-निषेधविषयक प्रश्नका नाम पृच्छा है । उसके क्रम और अक्रमका तथा प्रायश्चित्तका जिसमें विधान किया जाता है वह पृच्छाविधि अर्थात् श्रुत है । अथवा पूछा गया अर्थ पृच्छा है, वह जिसमें विहित की जाती है अर्थात् कही जाती है वह पृच्छाविधि श्रुत है । इस प्रकार पृच्छाविधिका कथन किया। विधान करना विधि है । पृच्छाकी विधि पृच्छाविधि है । वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है वह पृच्छाविधिविशेष है । अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकारसे पूछे जाने योग्य हैं तथा प्रश्नोंके भेद इतने ही हैं; ये सब चूंकि सिद्धान्त में निरूपित किये जाते हैं अतः उसकी पृच्छाविधिविशेष यह संज्ञा हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार पृच्छाविधिविशेषका कथन किया । ' तत् ' इस सर्वनामसे विधिकी विवक्षा है, 'तत्' का भाव तत्त्व है । शंका- श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है ? समाधान - चूंकि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है । प्रतिषु ' विधेर्भेदो' इति पाठः । अ-आ-काप्रतिषु निरूप्यते इति पाठ: 1 इति पाठ । ताप्रती ' विधिर्व्यपदेश:, इति पाठः । " अ आ-काप्रतिषु ' विशेष्यंते ' इति पाठ: 1 * प्रतिषु ' अक्रमश्च अक्रमप्रश्नप्रायश्चितं Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५०. सर्वनयविषयाणामस्तित्वविधायकत्वात्। तत्त्वं श्रत्तं ज्ञानम् । एवं तच्चं ति पदं ।। अभूत् इति भूतम्, भवतीति भव्यम् भविष्यतीति भविष्यत्, अतीतानागत-वर्तमा. नकालेष्वस्तीत्यर्थः । एवं सत्यागमस्य नित्यत्वम् । सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत्-न, वाच्य-वाचकभावेन वर्ण-पद-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात् । एतेन हरि-हर-हिरण्यगर्भादिप्रणीतवचनानामागमत्वमप्राकृतं द्रष्टव्यम् । भूद भव्वं भविस्सं त्ति गदं । वितथमसत्यम्, न विद्यते वितथं यस्मिन् श्रुतज्ञाने तदवितथम्' तथ्यमित्यर्थः । अवितथं त्ति गदं। दुईष्टिवचनैर्न हन्यते न हनिष्यते नाबधीति अविहतं श्रुतज्ञानम्। अविहदं ति गदं । अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्तः । एतेन सूत्रकंठग्रन्थकथाया वितथरूपायाः वेदत्वपास्तम् । वेदं ति गदं । न्यायादनपेत्तं न्याय्यं श्रुतज्ञानम् । अथवा, ज्ञेयानतारिवान्न्यायरूपत्वाद्वा न्यायः सिद्धान्तः । णायं ति गदं । वचनार्थगतदोषातीतत्वादच्छुद्धः सिद्धान्तः । एवं सुद्धं ति गदं । सम्यग्दृश्यन्ते परितत्त्व श्रुतज्ञान है । इस प्रकार तत्त्वका विचार किय । आगम अतीत कालमें था इसलिए उसकी भूत संज्ञा है, वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है, और वह भविष्य कालमें रहेगा इसलिए उसकी भविष्यत् संज्ञा है। आगम अतीत अनागत और वर्तमान कालमें है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार वह आगम नित्य है। शंका- ऐसा होनेपर आगमको अपौरुषेयताका प्रसंग आता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, वाच्य-वाचकभावसे तथा वर्ण, पद व पंक्तियोंके द्वारा प्रवाह रूपसे चला आनेके कारण आगमको अपौरुषेय स्वीकार किया है। ___इस कथनसे हरि, हर और हिरण्यगर्भ आदिके द्वारा रचे गये वचन आगम है; इसका निराकरण जान लेना चाहिये। इस प्रकार भृत, भव्य और भविष्यत्का कथन किया। वितथ और असत्य ये समानार्थक शब्द हैं। जिस श्रुतज्ञान में वितथपना नहीं पाया जाता वह अवितथ अर्थात् तथ्य है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अवितथका कथन किया। मिथ्यादृष्टियोंके वचनों द्वारा जो न वर्तमानमें हता जाता है, न भविष्यमें हता जा सकेगा, और न भूतकालमें हता गया है वह अविहत -श्रुतज्ञान है। इस प्रकार अवितथका कथन किया । अशेष पदाओंको जो वेदता है वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है। इससे सूत्रकण्ठों अर्थात् ब्राह्मणोंकी मिथ्यारूप ग्रन्थ कथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है। इस प्रकार वेदका कथन किया। न्यायसे युक्त है, इसलिये श्रुतज्ञान न्याय्य कहलाता है। अथवा ज्ञेयका अनुसरण करनेवाला होनेसे या न्यायरूप होनेसे सिद्धान्तको न्याय्य कहते हैं। इस प्रकार न्यायका कथन किया। __ वचन और अर्थगत दोषोंसे रहित होनेके कारण सिद्धान्तका नाम शुद्ध है। इस प्रकार * अप्रतौ ' नावधीयति ' इति पाठः 8 अप्रतो . ज्ञायानुसारि-, आप्रती । ज्ञयासारिः, काप्रती 'ज्ञयाऽसारि-, ताप्रती ' ज्ञयासा ( ज्ञेयानुसा ) रि-' इति पाठः । ४ प्रतिषु ' णेयं ' इति पाठः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५०. ) पडिअणुओगद्दारे सुदणाणास्स एय?परूवणा ( २८७ च्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनया इति सम्यग्दृष्टिः श्रुतिः, सम्यग्दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते अनया जीवदयः पदार्थाः इति सम्यग्दष्टिः, सम्यग्दष्टयविना*भावित्वाद्वा सम्यग्दृष्टिः। सम्माइट्टि त्ति गदं । हेतुः साध्यविनाभावि लिंगं अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणोपलक्षितः । स हेतुद्विविधः साधन-दूषण हेतुभेदेन । तत्र स्वपक्षसिद्धये प्रयुक्तः साधनहेतुः। प्रतिपक्षनिर्लोट्टनाय प्रयक्तो दूषणहेतुः । हिनोति गमयति परिच्छिनत्त्यर्थमात्मानं चेति प्रमाणपंचकं वा हेतुः । स उच्यते कथ्यते अनेनेति हेतुवादः श्रुतज्ञानम् । एवं हेतुवादो त्ति गदं। आत्रिकामुत्रिकाफलप्राप्युपायो नयः । स उच्यते कथ्यते अनेनेति नयवादः सिद्धान्तः । णयवादो त्ति गदं । स्वर्गापवर्गमार्गत्वाद्रत्नत्रयं प्रवरः । स उद्यतेक निरूप्यते अनेनेति प्रवरवादः । एवं पवरवादो ति गदं । मग्यते अनेनेति मार्गः पंथाः। स पंचविधः-नरकगतिमार्गः तिर्यग्गतिमार्गः मनुष्यगतिमार्गः देवगतिमार्गः मोक्षगतिमार्गश्चेति । तत्र एकैको मार्गोऽनेकविधः, कृमि-कीटादिभेदभिन्नत्वात् । एते मार्गाः एतेषामाभासाश्च अनेन कथ्यंत इति मार्गवादः सिद्धांतः । मग्गवादो त्ति गदं। श्रुतं द्विविधं- अंगप्रविष्टमंगबाह्यमिति । तदुच्यते कथ्यते शुद्ध पदका कथन किया। इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक प्रकारसे देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिये इसका नाम सम्यग्दृष्टि-श्रुति है; इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकारसे देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं, इसलिये इसका नाम सम्यग्दृष्टि है; अथवा सम्यदृष्टिके साथ श्रुतिका अविनाभाव होनेसे उसका नाम सम्यदृष्टि है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि पदका कथन किय।। जो लिंग अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षणसे उपलक्षित होकर साध्यका अविनाभावी होता है उसे हेतु कहा जाता है। वह हेतु दो प्रकारका है- साधनहेतु और दूषणहेतु । इनमें स्वपक्षकी सिद्धि के लिये प्रयुक्त हुआ हेतु साधनहेतु और प्रतिपक्षका खण्डन करनेके लिये प्रयुक्त हुआ दूषणहेतु है । अथवा जो अर्थ और आत्माका ‘हिनोति' अर्थात् ज्ञान कराता है उस प्रमाणपंचकको हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके द्वारा 'उच्यते' अर्थात् कहा जाता है वह श्रुतज्ञान हेतुवाद कहलाता है । इस प्रकार हेतुवाद पदका कथन किया । ऐहिक और परलौकिक फलकी प्राप्तिका उपाय नय है। उसका वाद अर्थात् कथन इस सिद्धान्तके द्वारा किया जाता है, इसलिये यह नयवाद कहलाता है। इस प्रकार नयवाद पदका कथन किया। स्वर्ग और अपवर्गका मार्ग होनेसे रत्नत्रयका नाम प्रवर है। उसका वाद अर्थात् कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिये इस आगमका नाम प्रवरवाद है । इस प्रकार प्रवरवाद पदका कथन किया। जिसके द्वारा मार्गण किया जाता है वह मार्ग अर्थात् पथ कहलाता है । वह पांच प्रकारका है- नरकगतिमार्ग, तिर्यग्गतिमार्ग, मनुष्यगतिमार्ग, देवगतिमार्ग और मोक्षगतिमार्ग । उनमेंसे एक एक मार्ग कृमि व कीट आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है। ये मार्ग और मार्गाभास सके द्वारा कहे जाते हैं वह सिद्धान्त मार्गवाद कहलाता है। इस प्रकार मार्गवादका कथन किया । श्रुत दो प्रकारका है- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इसका कथन जिस वचनकलापके द्वारा * प्रतिष ' सम्यग्दृष्ट्याविना- ' इति पाठः 1 ४ अ-आप्रत्यो: ' निलोटनाय "ताप्रती निर्लोटनाय' ति पाठ:1 0 अप्रती ' अत्रिका- 'इति पाठः1 . अ-आप्रत्यो ' उच्यते ' इति पाठः । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५०. अनेन वचनकलापेनेति श्रुतवादो द्रव्यश्रुतम् । सुदवादो ति गदं । मस्करी-कणभक्षाक्षपादकपिल सौद्धोदनि-चार्वाक-जैमिनिप्रभतयस्तद्दर्शनानि च परोद्यन्ते दृष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । परवादो त्ति गर्द। लोक एव लौकिकः । को लोकः ? लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थाः स लोकः । स त्रिविधः ऊधिोमध्यमलोकभेदेन । स लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकबादः सिद्धान्तः। लोइयवादो त्ति गदं । लोकोत्तरः अलोकः, स उच्यते कथ्यते अनेनेति लोकोत्तरवादः। लोकोतरीयवादो त्ति गदं । चारित्राच्छ तं प्रधानमिति अग्रयम् । कथं ततः श्रुतस्य प्रधानता? श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः । अथवा, अग्रयं मोक्ष, तत्साहचर्याच्छ तमप्यग्रयम् । अग्गं ति गदं । मार्गः पंथा श्रुतम् । कस्य ? मोक्षस्य । न ' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यनेन विरोधः, द्वादशांगस्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राविनाभाविनो मोक्षमार्गत्वेनाभ्युपगमात् । मग्गं ति गदं । किया जाता है वह द्रव्यश्रुत श्रुतवाद कहलाता है । इस प्रकार श्रुतवादका कथन किया। मस्करी, कगभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि आदि तथा उनके दर्शन जिसके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात् दूषित किये जाते हैं वह राद्धान्त ( सिद्धान्त परवाद कहलाता है। इस प्रकार परवादका कथन किया । लौकिक शब्दका अर्थ लोक ही है । शंका- लोक किसे कहते हैं? समाधान- जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं। वह लोक तीन प्रकारका है- ऊर्ध्वलोक, मध्यमलोक और अधोलोक । जिसके द्वारा इस लोकका कथन किया जाता है वह सिद्धान्त लौकिकवाद कहलाता है । इस प्रकार लौकिकवाद पदका कथन किया। लोकोत्तर पदका अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है इस प्रकार लोकोत्तरवादका कथन किया। चारित्रसे श्रुत प्रधान है इसलिये उसकी अग्रय संज्ञा है। शंका- चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है ? ___समाधान- क्योंकि, श्रुतज्ञानके विना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये चारित्रकी अपेक्षा श्रतकी प्रधानता है। ___ अथवा अग्रय शब्दका अर्थ मोक्ष है । उसके सहचर्यसे श्रुत भी अग्रय कहलाता है। इस प्रकार अग्रय पदका कथन किया । मार्ग, पथ और श्रुत ये एकार्थक नाम है । किसका मार्ग ? मोक्षका। ऐसा माननेपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षके मार्ग हैं' इस कथनके साथ विरोध होगा, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके अविनाभावि द्वादशांगको मोक्षमार्गरूपसे स्वीकार किया है। इस प्रकार मार्ग पदका व्याख्यान किया। ताप्रती ' अनेनेति वा लौकिकवादः ' इति पाठः। 8त. सू. १, १. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,५२. ) अणुओगद्दारे ओहिणाणावरणीयपयडिपरूवणा ( २८९ यथा स्थिताः जीवादयः पदार्थाः तथा अनुमृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनेनेति यथानुमार्गः श्रुतज्ञानम् । जहाणमग्गं ति गदं । लोकवदनादित्वात्पूर्वम् । पुण्यं ति गदं । यथानुपूर्वी यथानुपरिपाटी इत्यनर्थान्तरम् । तत्र भवं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा यथानुपूर्वम् । सर्वासु पुरुषव्यक्तिषु स्थितं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं च यथानुपरिपाट्या सर्वकालमवस्थिमित्यर्थः । एवं जहाणुपुत्रि त्ति गदं बहुषु पूर्वेषु वस्तुषु इदं श्रुतज्ञानं* अतीव पूर्वमिति पूर्वातिपूर्वं श्रुतज्ञानम् कुतोऽतिपूर्वत्वम् ? प्रमाणमन्तरेण शेषवस्तु पूर्वत्वावगम नुपपत्तेः । एवं सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि । ओहिणानावरणीयस्स क्रम्मस्स केवडियाओ पयडोओ ? । ५१ । एवं पुच्छासुत्तं कि संखेज्जाओ किमसंखेज्जाओ किमअनंताओ त्ति एवं तिदयमुवेक्खदे । सेसं सुगम । ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जाओ पयडीओ | ५२ | असंखेज्जाओति कुदोवगम्मदे ? आवरणिज्जस्स ओहिणाणस्स असंखेज्जवियप्पत्तादो। यथावस्थित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा ' अनुमृग्यन्ते ' अर्थात् अन्वेषित किये जाते हैं वह श्रुतज्ञान यथानुमार्ग कहलाता है। इस प्रकार यथानुमार्ग पदका व्याख्यान किया । लोकके समान अनादि होने से श्रुत पूर्व कहलाता है । इस प्रकार पूर्व पदका व्याख्यान किया । यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये एकार्थवाची शब्द हैं । इसमें होनेवाला श्रुतज्ञान या द्रव्यश्रुत यथानुपूर्व कहलाता है । सब पुरुषव्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान और द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यथानुपूर्वी पदका कथन किया । बहुत पूर्व वस्तुओं में यह श्रुतज्ञान अतीव पूर्व है, इसलिये श्रुतज्ञान पूर्वातिपूर्व कहलाता है । शंका इसे अतिपुवता किस कारणसे प्राप्त है ? समाधान - क्योंकि प्रमाणके विना शेष वस्तु पूर्वोका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिय इसे अपूर्व कहा है । इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा की । अवधिज्ञानावरण कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ।। ५१ ।। यह पृच्छासूत्र वे क्या संख्यात है, क्या असंख्यात हैं और क्या अनन्त हैं; इन तीनकी अपेक्षा करता है । शेष कथन सुगम है । अवधिज्ञानावरण कर्मको असंख्यात प्रकृतियां हैं ।। ५२ ।। शंका – असंख्यात हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान क्योंकि आवरणीय अवधिज्ञानके असंख्यात विकल्प है। उन विकल्पोंका - प्रतिषु श्रुतं ज्ञानं ' इति पाठ 1 प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । प्रतिषु सर्वत्रैव ' अपेक्षते । इत्येतस्मिन्नर्थे ' उवेक्खदे ' इत्ययमेव पाठ उपलभ्यते। 6 संखाइओ खलु ओहीणाणस्स सव्वपयडीओ 1 काई भवपच्चइया खओवसमियाओ काओ वि । वि. भा. ५७१ (नि. २४ ). Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०) छक्खंडागमे बग्गणा-खंड ( ५, ५, ५३. तेसि वियप्पाणं परूवणा जहा वेयणाए कदा तहा एत्थ वि कायव्वा। ण च आवरणिज्जेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु संतेसु तदावरणीयाणं संखंज्जत्तमणंतत्तं वा जुज्जदे, विरोहादो। संपहि आवरणिज्जवियप्पदुष्पायणदुवारेण आवरणवियप्पपदुप्पायणटुमुत्तरसुत्तं भणदितं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं चेव गुणपच्चइयं चेव* ॥५३॥ भव उत्पत्तिः प्रादुर्भावः, स प्रत्ययः कारणं यस्य अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययकम् । जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु रइएसु वा उप्पण्णपढमसमए ओहिणाणं किण्ण उप्पज्जदे ? —ण एस दोसो, ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो। ण च मिच्छाइट्ठीसु ओहिणाणं त्थि ति वोत्तुं जुत्तं, मिच्छत्तसहचरिदओहिणाणस्सेव विहंगणाणववएसादो । देवरइयसम्माइट्ठीसु समुप्पण्णोहिणाणं ण भवपच्चइयं, सम्मत्तेण विणा भवादो. चेव ओहिणाणस्साविज्भावाणुवलभादो ? ण एस दोसो, सम्मत्तेण विणा कथन जिस प्रकार वेदना खण्डमें किया गया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । आवरणी. योंके असंख्यात लोकप्रमाण होनेपर तदावरणीयके संख्यात या अनन्त विकल्प नहीं माने जा सकते. क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। अब आवरणीयभेदोंके कथन द्वारा आवरणके भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वह अवधिज्ञान दो प्रकारका है- भवप्रत्यय अवधिज्ञान और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान ॥ ५३ ॥ ___ भव, उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्याय नाम हैं। जिस अवधिज्ञानका प्रत्यय अर्थात कारण भव है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। - शंका- यदि भवमात्र ही अवधिज्ञानका कारण है तो देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त भवको ही यहां अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका कारण माना गया है । मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्वसहचरित अवधिज्ञानकी ही विभंगज्ञान संज्ञा है । शंका- देव और नारकी सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं है, क्योंकि, उनमें सम्यक्त्वके विना एक मात्र भवके निमित्तसे ही अवधिज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध नहीं होती? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्वके विना भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके *से कि तं ओहिणाणपच्चक्खं ? ओहिनाणपच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं। तं जहा भवपच्चइयं च खओवसमियं च 1 नं. सू ६. ओही भवपच्चइओ गुणपच्चइओ य वण्णिओ दुविहो 1 तस्स य बहू विगप्पा दध्वे खेत्ते य काले य || नं. सू. गा. ६३. प्रतिष विणाभावादो ' इति पाठः ] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५३. ) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा ( २९१ वि मिच्छाइट्ठीसु पज्जत्तयदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदसणादो । तम्हा तत्थतणमोहिणाणं भवपच्चइयं चेव । सामण्णणिद्देसे संते सम्माइट्रि-मिच्छाइट्ठीणमोहिणाणं पज्जत्तभवपच्चइयं* चेवे त्ति कुदो जव्वदे ? अपज्जत्तदेव-णेरइएस विहंगणाणपडिसेहण्णहाणववत्तीदो । विहंगणाणस्सेव अपज्जत्तकाले ओहिणाणस्स पडिसेहो किण्ण कीरदे? ण उप्पति पडि तस्स वि तत्थ विहंगणाणस्व पडिसेहदसणादो । न च सम्माइट्ठी णमुप्पण्णपढमसमए चेव होदि, विहंगणाणस्स वि तहाभावप्पसंगादो। ण च सम्मत्तेण विसेसो कीरदे, भवपच्चइयत्तं फिट्टिदूण तस्स गुणपच्चइयत्तप्पसंगादो । ण च तत्थ ओहिणाणस्सच्चंताभावो, तिरिक्ख-मणस्सेसु सम्मत्तगुणेषुप्पण्णस्स तत्थावट्ठाणुवलंभादो । ण विहंगणाणस्स एस कमो, तक्कारणाणुकंपादीणं तत्थाभावेणी तदश्टाणाभावादो। अणुव्रत-महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद गुणअवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये वहां उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय शंका- देवों और नारकियोंका अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका अवधिज्ञान पर्याप्त भवके निमित्तसे ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? ___ समाधान - क्योंकि, अपर्याप्त देवों और नारकियोंके विभंगज्ञानका जो प्रतिषेध किया है वह अन्यथा बन नहीं सकता। इससे जाना जाता है कि देवों और नारकियोंके सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही अवस्थाओंमें अवधिज्ञान पर्याप्त भवके निमित्तसे ही होता है। शका- विभंगज्ञानके समान अपर्याप्त कालमें अवधिज्ञानका निषेध क्यों नहीं करते? समाधान- नहीं, क्योंकि उत्पत्तिकी अपेक्षा उसका भी वहां विभंगज्ञानके समान ही निषेध देखा जाता है। सम्यग्दृष्टियोंके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि, ऐसा माननेपर विभंगज्ञानके भी उसी प्रकार उत्पत्तिका प्रसंग आता है सम्यक्त्वसे इतनी विशेषता हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर भवप्रत्ययपना नष्ट होकर उसके गुणप्रत्ययपनेका प्रसंग आता है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानका अत्यन्त अभाव है, क्योंकि, तिर्यंचों और मनुष्योंमे सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है। विभंगज्ञानमें भी यह क्रम लागू हो जायगा, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, अवधिज्ञानके कारणभूत अनुकम्पा आदिका अभाव होनेसे अपर्याप्त अवस्था में वहां उसका अवस्थान नहीं रहता। सम्यक्त्वसे अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण हैं वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। *आ-का-ताप्रतिष ‘पच्जत्तं मवपच्चइयं इति पाठ:1 ताप्रती ' तत्थ भावेण' इति पाठः [ | Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५४. प्रत्ययकम् । जदि सम्मत्त अणुव्वद महव्वदेहितो ओहिणाणमुप्पज्जदि तो सव्वेसु असंजदसम्माइट्टिसंजवासंजद संजदेसु ओहिणाणं किण्ण उवलब्भदे ? ण एस दोसो, असंखेज्जलोगमेत्तसम्मत्त संजम-संजमासंजमपरिणामेसु ओहिणाणावरणक्खओवसमणिमित्ताणं परिणामाणमइथोवत्तादो । ण च ते सव्वेसु संभवंति, तप्पडिवक्खपरिणामाणं बहुत्तेण तदुवलद्धीए थोवत्तादो । जं तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं- ।। ५४ ॥ भवपच्चइयं जमोहिणाणं तं देव रइयाणं चेव होदि ति किमळं वच्चने ? ण, देव-णेरइयभवे मोत्तूण अण्णेसि भवाणं तक्कारणत्ताभावादो । जं तं गुणपच्चइयं तं तिरिक्ख-मणुस्साणं* ॥ ५५ ॥ कुदो ? तिरिक्ख-मणुस्सभवे मोत्तूण अण्णत्थ अणुव्वय-महव्वयाणमभावादो। तं च अणेयविहं देसोही परमोही सव्वोही हायमाणयं वड्ढमाणयं अवट्ठिदं अणवठ्ठिदं अणुगामी अणणुगामी सप्पडिवादी अप्पडिवादी एयक्खेत्तमणेयक्खेत्तं ।। ५६ ॥ शका- यदि सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतोंके अवधिज्ञान क्यों नहीं पाया जाता? ___ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम रूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनमेंसे अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक हैं । वे सबके सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं। इसलिये उनकी उपलब्धि क्वचित् ही होती है। जो भवप्रत्यय अवधिज्ञान है वह देवों और नारकियोंके होता है ।। ६४ ।। शंका - जो अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है वह देवों और नारकियोंके ही होता है, यह किसलिये कहते हो ? समाधान- नहीं, क्योंकि देवों और नारकियोंके भवोंको छोडकर अन्य भव उसके कारण नहीं हैं । जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है वह तिर्यचों और मनुष्योंके होता है ॥ ५५ ॥ क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य भवोंको छोडकर अन्यत्र अणुव्रत और महावत नहीं पाये जाते । वह अनेक प्रकारका है- देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हायमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र ।। ५६ ॥ भवप्रत्ययोऽवधिव-नारकाणाम् । त. सू १-२१. से कि तं भवपच्चइयं ? भवपच्चइयं दुण्ह । तं जहा-देवाण य रइआण य न सू. ७. क्षयोपशमनिमित्तः षड़विकल्पः शेषाणाम 1 त. सू. १-२२. से कि तं खओवसमियं ? खाओवसमियं दुण्हं । तं जहा- मणुस्साण य पचिदियतिरिक्खजोणियाण यxxx नं. सू. ८. ३ त. रा. १, २२, ४. अहवा गुणपडिवनस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पज्जइ। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५६. ) पडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा ( २९३ तमोहिणाणमणेयविहं ति वृत्ते सामण्णेणोहिणाणमणेयविहं त्ति घेत्तव्वं । अणंतरत्तावो गुणपच्चइयमोहिणाणमणेयविहं ति किण्ण वुच्चदे ? ण, भवपच्चइयओहिणाणे वि अवटिव-अणवट्टिद-अणुगामि-अणणुगामिरियप्पुवलंभादो। सोहिपरमोहि-सव्वोहीणं दव्व-खेत्त-काल-भाववियप्पपरूवणा जहा वेयणाए कवा तहा कायब्वा, विसेसाभावादो। किण्हपक्खचंदमंडलं व जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं वडिअवदाणेहि विणा हायमाणं चेव होदूण गच्छदि जाव णिस्सेसं विणलृ ति तं हायमाणं णाम* । एदं देसोहीए अंतो णिवददि, ण परमोहिसव्वोहीसु; तत्थ हाणीए अभावावो । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं पडि अबढाणेण विणा वड्डमाणं गच्छदि जाव अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे समुप्पण्णे विणळं ति तं वड्डमाणं णाम । एदं देसोहि-परमोहिसव्वोहीणमंतो वह अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा कथन करनेपर सामान्यसे अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। शंका-- अनन्तर निर्दिष्ट होनेसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि, भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी भेद उपलब्ध होते हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके विकल्प जिस प्रकार वेदनाखण्डमें कहे हैं उसी प्रकार यहां भी कहने चाहिये, क्योंकि उनसे इनमें कोई भेद नहीं हैं । कृष्ण पक्षके चद्रमंडलके समान जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थानके विना नि:शेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह हायमान अवधिज्ञान है । इसका देशावधिमें अंतर्भाव होता है, परमावधि और सर्वावधिमें नहीं: क्योंकि परमावधि और सर्वावधिमें हानि नहीं होती। जो अवधिजान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्षके चद्रमडल समान प्रतिसमय अवस्थानके विना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्पको प्राप्त होकर अगले समयमें केवलज्ञानको उत्पन्न कर विनष्ट हो जाता तब तक बढता ही रहता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधिमें अंतर्भाव तं समासओ छविहं पन्नत्तं 1 तं जहा- आणगामिअं १, अणाणगामि २, वड्डमाणयं ३, हीयमाणयं ४, पडिवाइयं ५, अप्पडिवाइयं ६। नं. सू. ९ * अपरोऽवधिः परिच्छिन्नोपादानसन्तत्यग्निशिखावत् सम्यग्दर्शनादिगुणहानि-संक्लेशपरिणामदिवृद्धियोगात् यत्प्रमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अग़लस्याऽसंख्येयभागादिति ] त. रा. १, २२, ४ से किं तं हीयमाणथं ओहिनाणं? हीयमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणदाणेहिं वट्टमाणस्स बद्रमाणचरित्तस्स संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि परिहायड से त्तं हीयमाणयं ओहिनाणं ? नं. सू. १३. अपरोऽवधि अरणिनिर्मथनोत्पन्नशष्कपत्रोपचीयमानेन्धननिचयसमिद्धपावकवत् सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसन्निधानाद्यत्परिणाम उत्पन्नस्ततो वर्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः 1 त. रा. १, २२, ४. से कि सं वड्डमाणगं ओहिनाणं? पसत्थेसु अज्झवसाणदाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि वड्डइ । xxx से तं वडमाणयं ओहिनाणं । नं. सू. १२. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड णिवददि, तिणि वि णाणाणि अवगाहिय अवदितादो। जमोहिणाणमुप्पज्जिप वड्डि. हाणीहि विणा दिगयरमंडलं व अवटिवं होदूग अच्छदि जाव केवलणाणमुप्पण्णं ति तमवट्टिदं णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं कयावि वड्ढदि कयावि हायदि कयावि अवट्ठाणभावमुवणमदि तमणवदिदं णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जोवेण सह मच्छदि तमणुगामी णामतं च तिधिहं खेताणुगामो भवाणुगामी खेत-भवाणुगामी चेदि। तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पण्ण संतं सग परपयोगेहि सग-परक्खेत्तेसु हिंडंतस्स जीवस्स ण विणस्सदि तं खेताणगामी णाम। जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणगामी णाम जं भरहेरावद-विदेहादिखेत्ताणि देव-णेरइय माणस-तिरिक्खभवं पि गच्छदि त खेत-भवाणुगामि त्ति भगिदं होदि । जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं तं तिविहं खेत्तागणुगामी भवाणुगामी खेत्त भवाणणुगामी चेदि। जं खेतंतरं ण गच्छदि, भवतरं चेव गच्छदि त खेत्ताणणुगमि त्ति भण्णदि । जं भवंतरं ण गच्छदि, खेतंतरं चेव गच्छदि तं भवाणणुगामी णाम । ज होता है, क्योंकि, यह तीनों ही ज्ञानोंका सहारा लेकर अवस्थित है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि व हानिके विना दिवकरमण्डल के समान केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक अवस्थित रहता है वह अवस्थित अवधिज्ञान हैं । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कदाचित् बढता है कदाचित् घटता है, और कदाचित् अवस्थित रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है । वह तीन प्रकारका है- क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षत्र-भवानुगामी । उनमेंसे जो अवधिज्ञान एक क्षत्र में उत्पन्न होकर स्वतः या परप्रयोगसे जीवके स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें विहार करनेपर विनष्ट नहीं होता है वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीव के साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी अवधिज्ञान है। जो भरत, ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक मनुष्य और तिर्यंच भव में भी साथ जाता है वह क्षेत्र-भवानुगामी अवधिज्ञान है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो अननुगामी अवधिज्ञान है वह तीन प्रकारका है- क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्र-भवाननुगामी । जो क्षेत्रान्तरमें साथ नहीं जाता है; भवान्तरमें ही साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है जो भवान्तरमें साथ नहीं जाता है, क्षेत्रान्त-- रमें ही साथ जाता है; वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनोंम अपरोऽवधि. सम्यग्दर्शनादिगणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा 1 त. रा. १. २२, ४. * अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगणवृद्धि-हानियोगाद्यत्वरिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वधिव्यम्, हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत् 1 त. रा. १, ४, २२. कश्चिदवधि भाष्करप्रकाशकद्गच्छन्तमनगच्छति । त. रा.१, २२,४ अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंत लोअणं जहा पुरिसं| इयरो उ नाणुगच्छइ ठियप्पइवो व्व गच्छत्तं । नं. सू. गा. ९ (उदधृतास्तीयं गाथा मलयगिरिणास्य टीकायाम ).४ आ-काप्रत्योः , भरदरावत 'ताप्रती भरदेरावद : इति पाठ । कश्चिन्नानगच्छति ततेवाातिपतति उन्मुखप्रश्नदेशिकपुरुषवचनवत त. रा १, २२, ४ . Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५६. ) पडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा खेतंतर-भवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धं तं खेत्त-भवाणणु गामि त्ति भण्णदि। जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं णिम्मलदो विणस्सदि तं सप्पडिवादी णाम । ण च एदं पुन्विल्लओहिणाणेसु पविसदि*, एदस्स हायमाण-वड्डमाणअर्वादद-अणवद्विद अणुगामि-अणणुगामिओहिणाणाणं छण्णं भावमणावण्णस्स+ तत्थेवकम्हि पवेसविरोहादो। जमोहिणाणमुप्पण्णं संत केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणस्सदि ,अण्णहा विणस्सदि; तमप्पडिवादी णाम। एवं पि पुबिल्लोहिणाणेसु विसेससरूवेसु ण पविसदि, सामण्णसरूवत्तादो । जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसम्वावयवे सु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम । तित्थयर-देव-णेरइयाणं ओहिमाणमणेयखेत्तं चेव, सरौरसव्वावयवेहि सगविसयभूदत्थग्गहणादो। वुत्तं च रइय-देव-तित्थयरोहिक्खेत्तस्सबाहिरं एदे। जाणति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥ २४ ॥ सेसा देसेणेव जाणंति ति एत्थ णियमो ण कायव्वो, परमोहि-सव्वोहिणाणगणसाथ नहीं जाता, किन्तु एक हो क्षत्र और भवके साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्र-भवाननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। इसका पूर्वोक्त अवधिज्ञानोंमें प्रवेश नहीं होता है, क्योंकि, हायमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी इन छहों ही अवधिज्ञानोंसे भिन्नस्वरूप होने के कारण उनमेंसे किसी एकमें उसका प्रवेश माननें में विरोध आता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही विनष्ट होता है, अन्यथा विनष्ट नहीं होता; वह अप्रतिपाती अवधिज्ञ'न है। यह भी उन विशेषस्वरूप पहलेके अवधिज्ञानमें अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि, यह सामान्यस्वरूप है। जिस अवधिज्ञानका करण जीवशरीरका एकदेश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्रके शरीरके सब अवयवोंमें रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है । तीर्थंकर, देवों और नारकियोंके अनेकक्षेत्र ही अवधिज्ञान होता है, क्योंकि, ये शरीरके सब अवयवों द्वारा अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हैं। कहा भी है नारकी, देव और तीर्थंकर इनका जो अवधिक्षेत्र है उसके भीतर ये सर्वांगसे जानते हैं और शेष जीव शरीरके एकदेशसे जानते है ।। २४ ।। __ शेष जीव शरीरके एक्देशसे ही जानते हैं, इस प्रकारका यहां नियम नहीं करना चाहिये; ० प्रतिपातीति विनाशी विद्युत्प्रकाशवत् । त. रा. १, २२, ४ से किं तं पडिवाइ ओहिणाणं ? पडिवाइ ओहिणाणं जहण्णण अंगलस्स असखिज्जइभागं पा संखिज्जइभागं वा बालग्ग वा बालग्गपुहत्तं वा लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा xxx उक्कोसेण लोगं वा पासित्ता णं पडिवइज्जा से तं पडिवाइओहिणाण 1 नं. सू. १४. * अ-आ-काप्रतिष पविस्सदि ' इति पाठः। * प्रतिष 'भावमाणस्स' इति पाठः1 ४ तद्विपरीतोऽप्रतिपाती। त. रा. १, २२, ४. से कि तं अपडिवाइ ओहिणाणं? अपडिवाइ ओहिनाणं जेण अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासइ तेण पर अपडिवाइ ओहिनाणं से तं अपडिवाइ ओहिनाणं । नं सू १५. 9 अ-आ-काप्रतिषु 'पविस्सदि ' इति पाठः1 नेरइय-देव-तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुति | पासति सव्वओ खल सेसा देसेण पासंति 11 नं. सू. गा. ६४. इति पाठः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५७. हराईणं सगसव्वावयवेहि सगविसईभरथस्स गहणवलंभादो । तेण सेसा देसेग सव्वदो च जाणंति त्ति घेत्तव्वं । ओहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेमदेसेणेव बज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो ? ण, अण्णत्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो । ण च सकरणो खओवसमो तेण विणा जाणदि, विप्पडिसेहादो। जीवपदेसाणमेगदेसे चेव ओहिणाणावरणक्खओसमे संते एयक्खैत्तं जुज्जदि ति ण पच्चवठेयं, उदयगदगोवुच्छाए सव्वजीवपदेसविसयाए देसटाइणीए संतीए* जीवगदेसे चेव खओवसमस्स वृत्तिविरोहादो। ण चोहिणाणस्स पच्चक्खत्तं पि फिट्टदि अणेयक्खेत्ते रायते पच्चवखलक्खणुवलंभादो । संपहि एयक्खेताणं सरूवपरूवणमुत्तरसुतं भणदि खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥ ५७ ।। जहा कायामिदियाणं च पडिगियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरोरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा होति । क्योंकि, परमावधिज्ञानी और सर्वावधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीरके सब अवयवोंसे अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हुए देखे जाते है । इसलिये शष जीव शरीरके एकदेशसे और सर्वांगसे जानते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। शका- अवधिज्ञान अनेकक्षेत्र ही होता है, क्योंकि, सब जीव प्रदेशोंके युगपत् क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर शरीरके एकदेशसे ही बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं बन सकता? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्य देशोंमें करणस्वरूपता नहीं है, अतएव करणस्वरूपसे परिणत हुए शरीरके एकदेशसे बाह्म अर्थका ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं आता । सकरण क्षयोपशम उसके विना जानता है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, इस मान्यताका विरोध है। जीदप्रदेशोंके एकदेशमें ही अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर एकक्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है, ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशोंको विषय करती है, इसलिये उसका देशस्थायिनी होकर जीवके एकदेशमें ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। इससे अवधिज्ञानकी प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, वह अनेक क्षेत्रमें उसके पराधीन न होनेपर उसमें प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है___ अब एकक्षेत्रोंके स्वरूपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंक्षेत्रको अपेक्षा शरीरप्रदेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ॥ ५७ ॥ जिस प्रकार शरीरोंका और इन्द्रियोंका प्रतिनियत आकार होता है उस प्रकार अवधिज्ञानका नहीं होता है, किन्तु अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशोंके करणरूप शरीरप्रदेश अनेक संस्थानोंसे संस्थित होते हैं। ४ प्रतिष ' णाणंति ' इति पाठः । * अ-आ-ताप्रतिषु — देसहाइणीए ' काप्रती ' देसहाणीए ' इति पाठ:1* अप्रतो ' सत्तीए इति पाठ। . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५८. ) पयडिअणुओगद्दारे एयक्खेतोहिणाणसंठाणाणि (२९७ मसुरिय-कुसग्ग-बिंदू सूइकलाओ पदाय संठाणा ।। पुढविदगागणि-वाऊ हरिद-तसा णेयसंठाणा ।। २५ ।। एवं कायसंठाणं । जवणालिया मसूरी अदिमुत्तय-चंडगे खुरप्पे य । इंदियसंठाणा खलु पासं तु अणेयसंठाणं ।। २६ ।। एदाणि इंदियसंठाणाणि । एवं काइंदियाणं संठागाणि अवगदसरूवाणि । एयखेतोहिणाणस्स संठाणाणि केरिसाणि त्ति पुच्छिदे उत्तरसुत्तं भणदि-- सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति ॥ ५८ ॥ एत्थ आदिसहेण अण्णेसि पिसुहसंठाणाणं गहणं कायव्वं। ण च एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि चेव पदेसे ओहिणाणकरणं होदि त्ति णियमो अस्थि, एग-दो-तिण्णि चत्तारि-पंच-छआदिखेत्ताणमेगजीवम्हि संखादिसुहसंठाणाणे कम्हि वि संवभादो*। एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख-मणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होंति, णो हेट्ठा; सुहसंठाणाणमधोभागेण* सह पृथिवीकायका आकार मसूरके समान होता है, जलकायका आकार कुशाग्रबिन्दुके समान होता है, अग्निकायका आकार सूचीकलापके समान होता है, तथा वायुकायका आकार ध्वजपटके समान होता है । हरितकाय तथा त्रसकाय अनेक आकारवाले होते हैं ।। २५ ॥ ___ यह कायोंका आकार है। श्रोत्र, चक्षु, नासिका और जिव्हा इन इन्द्रियोंका आकार क्रमशः यवनाली, मसूर, अतिमुक्तक फूल और अर्धचंद्र या खुरपाके समान है ; तथा स्पर्शन इंद्रिय अनेक आकारवाली है ।२६। ये इंद्रियोंके आकार हैं । इस प्रकार काय और इंद्रियोंके आकार अवगतस्वरूप है। किंतु एकक्षेत्र अवधिज्ञानके आकार कैसे होते हैं, ऐसा पूछनेपर आगेका सूत्र कहते हैं-- श्रीवत्स, कलश, शंख, सांथिया और नन्दावर्त आदि आकार जानने योग्य यहां आदि शब्दसे अन्य भी शुभ संस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये । एक जीवके एक ही स्थानमें अवधिज्ञानका करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, किसी भी जीवके एक, दो, तीन, चार, पांच और छह आदि क्षेत्ररूप शखादि शुभ संस्थान सम्भव हैं। ये संस्थान तिर्यंच और मनुष्योंके नाभिके उपरिम भागमें होते हैं, नीचेके भागमें नहीं होते ; क्योंकि, शुभ संस्थानोंका अ-आ-काप्रतिष 'चूईकलाओ' इति पाठः। ४ मसुरिय कुसग्गबिंदू सुइकलावा पडाय संठाणा कायाणं संठाणं हरिद-तमा गसंठाणा। मूला. १२-४८. मसुरंबबिंदू-सूईकलाव-धयसण्णिहो दवे देहो । पुढवीआदिचउण्हं तरु-तसकाया अणेयविहा । गो. जी. २००. .जवणालिया मसुरी अतिमुत्तय चंदए खरप्पे च । इंदियसंठाणा खलु फासस्स अणेयसंठाणं । मूला. १२-५०. चक्खू सोद घाणं जिब्भायारं मसूर-जवणाली । अतिमत्त-खुरप्पसमं फासं तु अणेयसंठाणं । गो. जी. १७०. * भवपच्च इगो सूर-णिरयाणं तित्थे वि सव्वअंगुत्थो। गुणपच्चइगो णर-तिरियाणं संखादिचिण्हभवो । गो जी. ३७०. अ-आप्रत्योः 'सुहसंणमधोभागेण', काप्रती 'सुहसंठाणमभागेण', ताप्रती ' सहसंठा (णा) णमधोभागेण इति पाठः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५,५, ५९. विरोहादो । तिरिक्ख- मणुस्सविहंगणाणीणं नाहीए हेट्ठा सरडादिअसुहसंठाणाणि होंति ति गुरुवदेसो, ण सुत्तमत्थि । विहंगणाणीणमोहिणाणे सम्मत्तादिफलेण समुप्पण्णे सरअसुहठाणाणि फिट्टिट्टण नाहीए उवरि संखादिसुहसंठाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं । एवमोहिणाणपच्छायद विहंगणाणीणं पि सुहसंठाणाणि फिट्टिण असुहसंठाणाणि होति त्ति घेत्तव्वं । केवि आइरिया ओहिणाण-विभंगणाणाणं खेत्तसंठाणभेदो णाभीए हेट्ठोवरि नियमो च णत्थि त्ति भणंति, दोष्णं पि ओहिणाणत्तं पडि भेदाभावादो। ण च सम्मतमिच्छत्तसहचारेण कदणामभेदादो भेदो अत्थि अइव्यसंगादो । एदमेत्थ पहाणं कायव्वं । कालदो ताव समयावलिय-खण-लव- मुहुत्त दिवस - पक्खरेमासउड्डु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व-पसिदोवम-सागरोवमावओ विधओ णादव्वा भवंति ॥ ५९॥ अवदिस्स ओहिणाणस्स अवद्वाणकालभेदपटुप्पायणटुमेदं सुत्तमागदं । दोष्णं परमाणूर्ण तपाओग्गवेगेण उडुमधो च गच्छंताणं सरीरेहि अण्णोष्णफोसणकालो समओ नाम । सो कस्स वि ओहिणाणस्स अवद्वाणकालो होदि । कुदो ? उप्पण्णबिदियसमए अधोभाग के साथ विरोध है । तथा तिर्यंच और मनुष्य विभंगज्ञानियोंके नाभिसे नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं । ऐसा गुरुका उपदेश है, इस विषय में कोई सूत्रवचन नहीं है । विभंगज्ञानियोंके सम्यक्त्व आदिके फल स्वरूपसे अवधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभिके ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार अवधिज्ञानसे लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियोंके भी शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । कितने ही आचार्य अवधिज्ञान और विभंगज्ञानका क्षेत्रसंस्थानभेद तथा नाभिके नीचेऊपरका नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं; क्योंकि, अवधिज्ञानसामान्य की अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी संगति से किये गये नामभेदके होनेपर भी अवधिज्ञानकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता; क्योंकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है । इसी अर्थको यहां प्रधान करना चाहिए । कालकी अपेक्षा तो समय, आवलि, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग पूर्व, पर्व, पल्योपम और सागरोपम आदि ज्ञातव्य हैं । ५९ । अनवस्थित अवधिज्ञानके अवस्थानकालके भेदोंका कथन करने के लिए यह सूत्र आया है। तत्प्रायोग्य वेगसे एकके ऊपरकी ओर और दूसरे के नीचेकी ओर जानेवाले दो परमाणुओंका उनके शरीर द्वारा स्पर्शन होने में लगनेवाला काल समय कहलाता है । वह किसी भी अवधिज्ञाTET अवस्थान काल होता है, क्योंकि, उत्पत्र होने के समय में ही विनष्ट हुए अवधिज्ञानका एक तातो 'लवदिवसमहुत्त पक्ख' इति पाठः । परमाणु नियदिगण पदेसस्स दिक्कमणमेत्तो । जो कालो अविभागी होदि पुढ समयणामा सो । ति प ४ २८५- अवरा पज्जायठिदी खणमेत्तं होदितं च सओ ति । दोण्हणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु । गो-जी, ५७२, Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स अवट्ठाणकालपरूवणा (२९९ चेव विणट्ठस्स ओहिणाणस्स एगसमयकालवलंभादो। जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अंतोमुत्तमिदि पढिदो । तेण सह कधमेदं सुत्तंण विरुज्झदे?ण एस दोसो, ओहिणाणसामण्ण-विसेसावलंबणादो। जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स* कालो परूविदो तेण तत्थ अंतोमुत्तमेत्तो होदि। एत्थ पुण ओहिणाणविसेसेण अहियारो, तेण एक्कम्हि ओहिणाणविसेसे एगसमयमच्छिदूग बिदियसमए वड्ढीए हाणीए वा णाणतर. मुवगयस्स एगसमओ लब्भदे। एवं दो-तिण्णिसमए आदि कादूण जाव समऊणावलिया त्ति ताव एवं चेव परूवणा कायव्वा । कुदो? दो तिण्णिआदिसमए अच्छिदूण वि ओहिणाणस्स वडि-हाणीहि णाणंतरगमणुवलंभादो। एवमावलियमेत्तकालं पि ओहिणाणविसेसे अच्छिदूण वडि-हाणीहि णाणंतरगमणं संभवदि । एवं खण-लव-महुत्त-दिवसपक्खादीसु सुत्तुद्दिद्रुतु ओहिणाणस्स अवडाणपरूवणा कायव्वा । संपहि खण-लवादीणमत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा- थोवो खणो णाम । स संखे. ज्जावलियमेत्तो होदि ।कुदो? संखेज्जावलियाहि एगो उस्सासो, सुत्तस्सासेहि एगो थोवो होदि ति परियम्मवयणादो। सत्तहि खणेहि एगो लवो होदि। सत्तहत्तरिलवेहि एगो मुहुत्तो होदि । अधवा सत्ततीससदेहि तेहत्तरिउस्सासेहिर एगो महत्तो होदि।वत्तं चसमय काल उपलब्ध होता है । शंका--- जीवस्थान आदिमें अवधिज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। उसके साथ यह सूत्र कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होता ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्य और अवधिज्ञानविशेषका अवलम्बन लिया गया है। यत: जीवस्थानमें सामान्य अवधिज्ञानका काल कहा है, अत: वहां अन्तर्मुहुर्त मात्र काल होता है। किन्तु यहांपर अवधिज्ञानविशेषका अधिकार है, इसलिए एक अवधिज्ञानविशेषका एक समय काल तक रहकर दूसरे समयमें वृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तरको प्राप्त हो जानेपर एक समय काल उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दो तीन समयसे लेकर एक समय कम आवलि काल तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, दो या तीन आदि समय तक रहकर भी अवधिज्ञानकी वृद्धि और हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूपसे उपलब्धि देखी जाती है। इसी प्रकार आवलिमात्र काल तक भी अवधिज्ञानविशेष में रहकर बृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूपसे प्राप्ति संभव है। इसी प्रकार सूत्र में कहे गए क्षण, लव, मुहर्त, दिवस और पक्ष आदि काल तक अवधिज्ञानके अवस्थानका काल कहना चाहिए। अब क्षण और लव आदिकोंके अर्थ कथन करते हैं । यथा- क्षणका अर्थ स्तोक है, वह संख्यात आवलि प्रमाण होता हैं; क्योंकि, संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास होता है और सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक होता है, ऐसा परिकर्म सूत्रका वचन है । सात क्षणोंका एक लव और सतत्तर लवोंका एक मुहूर्त होता है । अथवा तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छासोंका एक मुहूर्त होता है। कहा भी है-- *काप्रती पदिदो', ताप्रती 'पदिदो (परूविदो)' इति पाठः । षट्वं. पु. ७, पृ. १६४. *प्रतिष 'सामण्णेहिणाणस्स ' इति पाठः। ४ होंति हु असंखसमया आवलिणामो तहेव उस्सासो । संखेज्जावलिणिवहो सो चिय पाणो त्ति विक्खादो। सत्तुस्सासो थोनं सत्तत्थोबा लवित्ति णादवो। सत्तत्तरिदलिदवा णाली बेणालिया महत्तं च । ति. प. ४, २८६-८७. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तिणि सहस्सा सत्त य सयाणि तेवत्तरि च उस्सासा । सोहवदि मुहुत्त सव्वेसिं चेव मणुयाणं ।। २७ ।। तीसह दिवसो होदि । पण्णरसदिवसेहिं पक्खो होदि । बेहि पक्खेहि मासो । बेमासेहि उडू। तीहि उहि अयणं । अयणेहि बेहि संवच्छरो । पंचहि संवच्छ रेहि जुगो | सत्तरिको डिलक्ख छप्पण्णसहस्सकोडिव रिसेहिं पुव्वं होदि । वृत्तं च-पुव्वसदु परिमाणं सदर खलु कोडिसयसहस्साई । छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वस्सकोडीणं ॥ २८ ॥ ७०५६०००००००००० । पुणो एदाणि एगपुव्ववस्साणि हवेद्वण लक्खगुणिदेण चउरासीदिवग्गेण गुणिदे पव्वं होदि । असंखेज्जेहि वस्सेहि पलिदोषमं होदि । योजनं विस्तृतं पल्यं यच्च योजनमुच्छ्रितम् । आसप्ताहः प्ररूढानां केशानां तु सुपूरितम् ।। २९ ।। ततो वर्षशते पूर्णे एकैके रोम्णि उद्धृते । क्षीयते येन कालेन तत्पल्योपममुच्यते ( ५,५, ५९. ॥ ३० ॥ इति वचनात् संखेज्जेहि वि वस्सेहि ववहारपल्लं होदि, तमेत्थ किण्ण घेष्पदे ? सब मनुष्योंके तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त होता है ।। २७ ।। तीस मुहूर्तका एक दिन होता है । पन्द्रह दिनका एक पक्ष होता है। दो पक्षोंका एक महीना होता है । दो महीनेकी एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओंका एक अयन होता है ! दो अयनोंका एक वर्ष होता हैं। पांच वर्षका एक युग होता है । सत्तर लाख करोड और छप्पन्न हजार करोड वर्षोंका एक पूर्व होता है । कहा भी है- सत्तर लाख करोड और छप्पन्न हजार करोड वर्ष प्रमाण पूर्वका परिमाण जानना चाहिए ।। २८ ।। ७०५६००००००००००। पुनः एक पूर्वके इन वर्षोंको स्थापित कर एक लाखसे गुणित चौरासी के वर्गसे गुणा करनेपर पर्व होता है । असंख्यात वर्षोंका पल्योपम होता है । शंका -- एक योजन व्यासवाला और एक योजन ऊँचा पल्य अर्थात् कुशूल लेकर उसे एक दिन से लेकर सात दिन तकके उगे हुए केशोंसे भर दे । अनन्तर पूरे सौ-सौ वर्ष होनेपर एक-एक रोम निकले, जितने कालमें वह खाली होगा उतने कालको पल्योपम कहते हैं । २९-३०। इस वचनके अनुसार संख्यात वर्षोंका भी एक व्यवहार पल्य होता है । उसका ग्रहण यहां क्यों नहीं करते ? स. सि. ३ - ३१ ( उद्धृता). जं. प १३ - १२. प्र. सारो. १३८७. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पूर्वांगं परिभाष्यते । पूर्वांगताडितं तत्त् पर्वांगं पर्वमिष्यते । आ. पु. ३, २१९. * प्रमाणयोजनव्या सस्वावगाहविशेषवत् । त्रिगुणं परिवेषेण क्षेत्रं पर्यन्तभित्तिकम् । सप्ताहान्ताविरोमाग्रैरापूर्य कठिनीकृतम् । तदुद्वार्यमिदं पल्यं व्यवहाराख्यमिष्यते । एकैकस्मिस्ततो रोम्णि प्रत्यब्दशत मुद्धृते । यावतास्य क्षयः कालः पल्यं व्युत्पत्तिमात्रकृत् । ह पु. ७, ४७-४९. काप्रती 'संखेज्जेहिम्मि' इति पाठ: । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स खेत्तपरूवणा (३०१ ण, तत्थ वि वरिसमयसद्दो विउलत्तवाचओ त्ति असंखेज्जेसु वरिससदेसु अदिक्कं. तएस एगरोमसमुद्धरणादो असंखेज्जेहि चेव वस्सेहि पलिदोवमं होदि । दसकोडाकोडिपलिदोवमेहि एगं सागरोवमं होदि । वृत्तं च कोटिकोटयो दशैतेषां पल्यानां सागरोपमम । सागरोपमकोटीनां दश कोटयोऽवसर्पिणी ।३१। समयावलियादिसुत्तपदाणि जेण देसामासियाणि तेण एसि विच्चालिमसंखाए गहणं कायव्वं । अधवा, आदिसहो पयारवाचओ तेण एदेसिमंतरकालसंखाणं सागरो. वमादो उवरिमसंखाणं च गहणं कायव्वं । उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि एत्तियं कालमच्छि दूण अणवट्टिदमोहिणाणं वद्भिदूण वा हाइदूण वा जाणंतरं गच्छदि ति मणिद होदि। संपहि जहण्णओहिणाणस्स खेत्तपरूवणपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि .. ओगाहणा जहण्णा णियमा वु सुहमणिगोदजीवस्स जद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो ओही* ॥३॥ एक्स्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- एगमुस्सेहघणंगुलं ठविय पलिदोवमस्स असं. खेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एयखंडपमाणं सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स तदियसमय समाधान - नहीं, क्याकि, वहांपर भी वर्षशत शब्दको वैपुल्यवाची ग्रहण किया है; इसलिए असंख्यात सौ वर्षों के व्यतीत होनेपर एक रोम निकाले । अतः असंख्यात वर्षों का ही एक पल्योपम होता है। दस कोडाकोडी पल्योपमोंका एक सागर होता है। कहा भी है इन दस कोडाकोडी पल्योंका एक सागरोपम होता है और दस कोडाकोडी सागरोपमोंका एक अवसर्पिणी काल होता है । ३१ ।। सूत्रमें जो समय, आवलि आदि पद कहे हैं वे देशामर्शक हैं, अतः इनके बीचकी संख्याका भी ग्रहण करना चाहिए । अथवा आदि शब्द प्रकारवाची है, इसलिए इनके मध्य में आनेवाले कालोंकी संख्याओंका और सागरोपमसे ऊपरकी संख्याओंका ग्रहण होता है। अनवस्थित अवधिज्ञान उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर इतने काल तक अवस्थित रहकर वृद्धिको प्राप्त होकर या हानिको प्राप्त होकर ज्ञानान्तरको प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । अब जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवको जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र है । ३ । इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा- एक उत्सेघघनांगुलको स्थापित कर उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक खण्डप्रमाण लब्ध आता है उतनी तीसरे समयमें *ताप्रती ‘-सद्दे ( दे ) सु' इति पाठः। ह. पु. ७, ५१ पूर्वार्द्धम्. *म, बं. १, पृ. २१. षट्वं. पू ९प. १६ जावइया तिसमयाहारगस्स सुहमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहन्ना ओहीखित्तं जहन्न तु ।। नं सू. गा ४८. विशेषा, ५९१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ५९. आहार-तवियसमयतब्भवत्थस्स जहणिया ओगाहणा होदि । जद्देहि जावद्धा एसा ओगाहणा तद्देही तावद्धा चेव जहणिया ओही खेत्तदो होदि । तद्देही चेवे त्ति अवहारणं कुदोवलब्भदे? णियमणिद्देसादो। समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात् । सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स* ओगाहणाए एगागासपत्तीए वि ओगाहणसण्णा अस्थि त्ति तद्देही खेत्तदो जहणिया ओहि त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, जहण्णभावेण विसे सिदओगाहणणिद्देसादो। ण च एगोलो जहण्णोगाहणा होदि, समुदाए वक्कपरिसमत्तिमस्सिदूण तत्थतणसव्वागासपदेसाणं गहणादो । पादेक्क वक्कपरिसमत्ती एत्थ ण गहिदा ति कधं णव्वदे? आइरियपरंपरागदविरुद्धव दो। तम्हा जद्देहि जहणिया ओगाहणा तद्देही खेत्तदो जहण्णेहि त्ति सिद्धं । एवं जहण्णोगाहणक्खेत्तं एगागासपदेसोलीए रचेदूण तदंते टुदं जहण्णदव्वं जाणदि ति किण्ण घेप्पदे? ण, जहण्णोगाहणादो असंखेज्जगुणजहण्णोहिखेत्तप्पसंगादो। आहारको ग्रहण करनेवाले और तीसरे समयमें तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना होती है । 'जद्देही' अर्थात् जितनी यह अवगाहना होती है । तदेही' उतना ही क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान होता है । शंका- 'उतना ही' ऐसा अवधारण वचन किस प्रमाणसे उपलब्ध होता है ? समाधान- सूत्रमें जो नियम पदका निर्देश किया है, उससे जाना जाता है कि यह सावधारण वचन है, क्योंकि, समुदायोंमे प्रवृत्त हुए शब्द अवयवोंमें भी रहते हैं, ऐसा न्याय है। शंका- सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी अवगाहनाकी एक आकाशपंक्तिकी भी अवगाहना संज्ञा है, इसलिए क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान तत्प्रमाण क्यों नहीं ग्रहण करते? समाधान- नहीं, क्योंकि जघन्य विशेषगसे युक्त अवगाहनाका निर्देश किया है। एक आकाशपंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, समुदाय रूप अर्थमें वाक्यकी परिसमाप्ति इष्ट है । इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी अवगाहनामें स्थित सब आकाशप्रदेशोंका ग्रहण किया है। शंका- यहांपर अवयवरूप अर्थमें वाक्यकी परिसमाप्ति ग्रहण नहीं की गई है, यह किस प्रमाणसे जानते हो? । समाधान- आचार्यपरम्परासे आये हुए अविरुद्ध उपदेशसे जानते हैं। इसलिए जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान है: यह सिद्ध होता है। ___ शंका- इस जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको एक आकाशप्रदेशपंक्तिरूपसे स्थापित करके उसके भीतर जघन्य द्रव्यको जानता है, ऐसा यहां क्यों नहीं ग्रहण करते? समाधान- नहीं; क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणे जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका प्रसंग प्राप्त होता है । जो जघन्य अवधिज्ञानसे अवरुद्ध क्षेत्र है, वह *ताप्रती · सुहुमणिगोदअपज्जत रस्स ' इति पाठः। 9 अप्रतौ ' जहण्णोहोदि ' इति पाठः । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स खेत्रापरूवणा ( ३०३ गुलादीणं गहणं कायव्वं । णाणेण अवरुद्धखेत्तं तं जहण्णोहिखेत्तं णाम । तं च एत्थ जहण्णोगाहणादो असंखेज्जगणं दिस्सदे । तं जहा- जहण्णोगाहणाखेत्तायामेण जहण्णदक्वविक्खंभस्सेहेहि द्विदओहिक्खेत्तस्स खेत्तफले आणिज्जमाणे जहण्गोगाहणाए जहण्णदम्वविक्खंभस्सेहेहि गुणिदाए जहण्णोगाहणादो असंखेज्जगणं खेत्तमुवलब्भदे । ण च एवं होदि त्ति वोत्तुं जुत्तं, जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेव जहण्णोहिखेत्तमिदि सुत्तेण सह विरोहादो। ण च एवं ठविदजहण्णखेत्तस्स चरिमागासपदेसे जहण्णदव्वं सम्मादि, एगजीवपडिबद्धस्स विस्सासोवचयसहिदणोकमपिंडस्स घणलोगेण खंडिदए गखंडमेत्तस्त जहण्णदव्वस्स एगवग्गणाए वि अंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणुवलंभादो। ण च ओहिणाणी एगागाससूचीए जाणदि ति वोत्तुं जुत्तं, जहण्णमदिणाणादो वि तस्स जहण्णतप्पसंगादो जहण्णदव्वअवगमोवायाभावादो च। तम्हा जहण्णोहिणाणण अवरुद्धखेतं सव्वमुच्चिणिदूण घणपदरागारेण दुइदे सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणपमाणं होदित्ति घेत्तव्वजहण्णोहिणिबंधणस्स खेतस्स को विक्खंभो को उस्सेहो को वा आयामो त्ति भणिदे णस्थि एत्थ उवदेसो, किंतु ओहिणिबद्धक्खेत्तस्स पदरघणा. गारेण दुइदस्स पमाणमुस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो त्ति उवएसो । एवं जहण्णजघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र कहलाता है। किन्तु यहांपर वह जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणा दिखाई देता है । यथा- जितना जघन्य अवगाहनाके क्षेत्रका आयाम है तत्प्रमाण जघन्य द्रव्यके विष्कम्भ और उत्सेधरूपसे स्थित अवधिज्ञानके क्षेत्रका क्षेत्रफल लानेपर जघन्य अवगाहनाको जघन्य द्रव्यके विष्कम्भ और उत्सेधसे गुणित करनेपर जघन्य अवगाहनासे संख्यात गुणा क्षेत्र उपलब्ध होता है । परन्तु यह क्षेत्र इसी प्रकार होता है, यह कहना भी योग्य नहीं है। क्योंकि "जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र हैं" ऐसा प्रतिपादन करनेवाले सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध होता है। और इस तरहसे स्थापित जघन्य क्षेत्रके अन्तिम आकाशप्रदेशमें जघन्य द्रव्य समा जाता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि, एक जीवसे सम्बन्ध रखनेवाले, विस्रसोपचयसहित नोकर्मके पिण्डरूप और घनलोकका भाग देनेपर प्राप्त हए एक खण्डमात्र जघन्य द्रव्यकी एक वर्गणाकी भी अङगलके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहना उपलब्ध होती है। अवधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशसची रूपसे जानता है यह कहना भी यक्त नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर वह जघन्य मतिज्ञानसे भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्यके जाननेका अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्रको उठाकर धनप्रतरके आकाररूपसे स्थापित करनेपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। जघन्य अवधिज्ञानसे संबंध रखनेवाले क्षेत्रका क्या विष्कम्भ है, क्या उत्सेध है और क्या आयाम है; ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि इस संबंध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किंतु घनप्रतराकाररूपसे स्थापित अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता ताप्रती 'जहण्णो गाहणा ( ए )' इति पाठः। अवरोहिखेत्तदीहं वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो। अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहणपमाणं तु। अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरे होदि हु तक्खेतसमकरणे [ गो. जी. ३७८-७९. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ५९. मोहिक्खेत्तं तिरिक्ख-मणुस्सगइसंबंधियं परूवियं । संपहि ओहिणिबद्धखेत्तपडिबद्धकालस्स कालणिबद्धखेत्तस्स वा पदुप्पायण?मुत्तरगाहाओ भणदि अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज वो वि संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥४॥ एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा- अंगुलं ति वृत्ते पमाणघणंगुलं घेत्तव्यं, देव-गेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणमुस्सेहपरूवणं मोत्तूण अण्णत्थ पमाणां है। इस प्रकार तिर्यंच और मनुष्यगति सम्बन्धी जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन किया। विशेषार्थ- यहां जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका विचार करते हुए उसे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी तीसरे समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य अवगाहना प्रमाण बतलाया है। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके क्षुद्र भव ६०१२ होते हैं । जो जीव इन सब भवोंको क्रमसे धारणकर अन्तिम भवमें दो मोडा लेकर उत्पन्न होता है उसके यह जघन्य अवगाहना होती है और इतना ही अवधिज्ञानका क्षेत्र होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कितने ही आचार्य इस कथनका इस प्रकार व्याख्यान करते हैं कि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतने आकाशप्रदेशोंको एक श्रेणिमे स्थापित करनेपर अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र होता। पर यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर एक तो यह क्षेत्र उक्त क्षेत्रसे असंख्यातगुणा हो जाता है और दूसरे इस प्रकारके क्षेत्रमें जघन्य अवधिज्ञानका द्रव्य नहीं जाता। अतः पूर्वोक्त प्रकारसे ही अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र मानना चाहिए और यह कथन इसका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अविरोधी भी है। अब अवधिज्ञानके क्षेत्रसे सम्बन्ध रखनेवाले कालका और कालसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका कथन करने के लिए आगेके गाथासूत्र कहते हैं - ___ जहां अवधिज्ञानका क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है वहां काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जहां क्षेत्र घनांगलका संख्यातवां भाग है वहां काल आवलीका संख्यातवां भाग है। जहां क्षेत्र घनांगलप्रमाण है वहां काल कुछ कम एक आवलि प्रमाण है । जहाँ काल एक आवलिप्रमाण है वहां क्षेत्र घनां. गुलपृथक्त्व प्रमाण है ॥ ४ ॥ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- अंगुल ऐसा कहनेपर प्रमाणघनांगुल लेना चाहिए, क्योंकि, देव, नारकी तिर्यंच और मनुष्योंके उत्सेधके कथनके सिवा अन्यत्र प्रमाणांगुल म. बं. १, पृ. २१. षट्खं पु. ९, प २४. अगुलमावलियाणं भागमसंखिज्ज दोसु संखिज्जा । अंगलमावलिअंतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं नं. सू गा. ५०. ४ उस्सेहअंग लेणं सुराण णर-तिरिय-णारयाणं च । उस्सेहंगलमाणं चउदेवणिकेदगयराणि || दीवोदहि-सेलाण वेदीण णदीण कुंड-जगदीणं । वस्साणं च पमाण होदि पमाणंगुलेणेव । ति. प. १, ११०-११ अवरं सु ओहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा। सुहमोगाहणमाणं उवरि पमाणं तु अंगुलयं । गो. जी. ३८०. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणखेत्त-कालपरूवणा (३०५ गलादीणं गहणं कायव्वमिदि गरूवदेसादो। एदमंगलमसंखेज्जखंडाणि कायव्वं । तत्थ एगखंडमेत्तं जस्स ओहिणाणस्स ओहिणिबद्धखेत्तं घणागारेण दुइज्जमाणो* होदि सो कालदो आवलियाए असंखेज्जविभागं जाणदि । कुदो? साभावियादो । आवलियाए असंखेज्जविभागे काले तीदाणागयं च दव्वं जाणदि ति भणिदं होदि । ओहिणाणखेत्त-कालाणमेसो एगो चेव कि वियप्पो होदि आहो अण्णो वि अस्थि त्ति पुच्छिदे दो वि संखेज्जे त्ति भणिदं। खेत्त-काला दो वि संखेज्जदिभागमेत्ता वि होंति ति एत्थ संबंधो कायवो । केसि संखेज्जदिभागमेत्ता? अंगुलस्स आवलियाए च । कुदोवगम्मदे ? अहियाराणवृत्तीदो । खेत्तदो अंगुलस्स संखेज्जविभागं जाणंतो कालदो आवलियाए संखेज्जदिमागं* चेव जाणदि त्ति भणिदं होदि । कुदो? साभावियादो। खेत्तदो अंगुलं जाणंतो कालदो आवलियाए अंतो जाणदि । एत्थ अंगुलमिदि वृत्ते पमाणघणंगुलं घेत्तव्वं । आवलियंतो त्ति भणिदे देसूणावलिया घेत्तव्वा । जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धखत्तं धणागारेण दुइवं संतमंगलपुधत्तं होदि सो कालदो सगलमावलियं जाणदि । आदिका ग्रहण करना चाहिये, ऐसा गुरुका उपदेश है । इस अंगुलके असंख्यात खण्ड करने चाहिए । उनमेंसे एक खण्डमात्र जिस अवधिज्ञानका अवधिसे सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र धनप्रतर आकाररूपसे स्थापित करनेपर होता है वह कालकी अपेक्षा आवलिके असंख्यातवे भागको जानता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर अतीत और अनागत द्रव्यको जानता है, यह कथनका तात्पर्य हैं । अवधिज्ञावके क्षेत्र और कालका क्या यह एक ही विकल्प होता है या अन्य भी विकल्प है, ऐसा पूछनेपर दो वि संखेज्जा' ऐसा कहा है । क्षेत्र और काल ये दोनों ही संख्यातवें भागप्रमाण भी होते हैं, ऐसा यहां सम्बन्ध करना चाहिए। शंका- किनके संख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ? समाधान- अंगुलके और आवलिके । - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अधिकारकी अनुवृत्ति होनेसे । अंगुल और आवलिका यहाँ अधिकार है, उनकी अनुवृत्ति होनेसे यह जाना जाता हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुलके संख्यातवें भागको जाननेवाला कालकी अपेक्षा आवलिके संख्यातवें भागको ही जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है; क्योंकि ऐसा स्वभाव है। क्षेत्रकी अपेक्षा एक अंगुलप्रमाण क्षेत्रको जाननेवाला कालकी अपेक्षा आवलिके भीतर जानता है । यहापर — अंगुल ' ऐसा कहनेपर प्रमाणांगुल लेना चाहिए और 'आवलियंतो' ऐसा कहनेपर कुछ कम एक आवलि लेनी चाहिए। जिस अवधिज्ञानीका अवधिसे सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र धनप्रतराकाररूपसे स्थापित करनेपर अंगुलपृथक्त्व प्रमाण होता है वह कालकी अपेक्षा एक सम्पूर्ण आवलिकी बात जानता है । *अ-आ-काप्रतिषु — ठइज्जमाणे ' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः ' असंखे० भाग', ताप्रतौ ' (अ) संखे० भाग 'इति पाठः। ( काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः ) । | Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५,५९. आवलियपुधत्तं घणहत्थो तह गाउअं मुहुत्तंतो । जोयण भिण्णमुहुत्तं दिवसंतो पण्णवीसं तु । ५ । जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धक्खेत्तं घणपदरागारेण दृइदं संतं घणहत्थो होदि सो कालदो आवलियपुधत्तं सत्तट्ठावलियाओ जाणदि । जस्स ओहिणाणस्स ओहिणिबद्धवखेत्तं घणागारेण टुइदं संतं घणगाउअं होदि सो कालदो मुहुत्तंतो अंतोमुहुत्तं जाणदि जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धवखेत्तं घणागारेण ट्ठइदं संतं घणजोयणं होदि सो कालदो भिण्णमुहुत्तं समऊणमुहुत्तं जाणदि । किमट्ठे घणागारेण टुइट्टण ओहिणिबद्धक्खेत्तस्स णिद्देसो कीरदे ? ण, अण्णहा अद्ध*पमाणेहितो पुधभूदस्स कहणोवायाभावादो । जोयणसूई जोयणपदरं वा किण्ण घेप्पदे ? ण, जहण्णक्खेत्तदो एदस्स असंखेज्जगुणहीणत्तपसंगादो । ण च एवं । कुदो ? कालस्स भिण्णमुहुत्तुव देसण्णहाणुववत्तदो । जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धक्वेतं घणागारेण दृइदं संतं पंचवीसजोयणघणाणि होदि सो कालदो दिवसंतो देसूणदिवसं जाणदि । जहां काल आवलिपृथक्त्वप्रमाण है वहां क्षेत्र घनहाथप्रमाण है। जहां क्षेत्र घनकोसप्रमाण है वहां काल अन्तर्मुहूर्त है। जहां क्षेत्र घनयोजनप्रमाण है वहां काल भिन्नहूर्त है। जहां काल कुछ कम एक दिवसप्रमाण है वहां क्षेत्र पच्चीस घनयोजन है |५| जिस अवधिज्ञानीका अवधिसे संबंध रखनेवाला क्षेत्र घनप्रतराकर रूपसे स्थापित करनेपर घनाथ प्रमाण होता है वह कालकी अपेक्षा आवलिपृथक्त्व अर्थात् सात-आठ आवलियोंकी बात जानता है । जिस अवधिज्ञानीका अवधि निबद्ध क्षेत्र घनप्रताराकारूपसे स्थापित करनेपर घनकोस प्रमाण होता है वह कालकी अपेक्षा 'मुहुत्ततो' अर्थात् अन्तर्मुहूर्त की बात जानता है । जिस अवधिज्ञानीका अवधिनिबद्ध क्षेत्र घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर घनयोजन प्रमाण होता है। वह कालकी अपेक्षा भिन्नमुहुर्त अर्थात् एक समय कम मूहूर्तकी बात जानता है । शंका - अवधिनिबद्ध क्षेत्रका घनाकाररूपसे स्थापित करके किसलिए निर्देश करते हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अन्यथा कालप्रमाणोंसे पृथग्भूत क्षेत्रके कथन करनेका अन्व कोई उपाय नही है । इसलिए अवधिनिरुद्ध क्षेत्रको घनाकाररूपसे स्थापित कर उसका निर्देश करते हैं । शंका - यहांपर सूचीयोजन व प्रतरयोजन क्षेत्रका ग्रहण क्यों नहीं किया है ? समाधान - नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर जघन्य क्षेत्रकी अपेक्षा यह असंख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कालका भिन्नमुहूर्तप्रमाण उपदेश अन्यथा बन नहीं सकता | जिस अवधिज्ञानीका अवधिनिबद्ध क्षेत्र घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर पच्चीस घनयोजन होता है वह कालकी अपेक्षा 'दिवसंतो ' अर्थात् कुछ कम एक दिवसकी बात जानता है । Xx ताप्रती ' ( पुण) घणहत्थो' इति पाठः । षट्खं. पु. ९, पृ. २५. प्रतिषु 'अट्ठ ' इति पाठ: Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणखेत्त-कालपरूवणा ( ३०७ भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदीवम्मि। वासं च मणुअलोए वासपधत्तं च रुजगम्मिर ॥६॥ छब्बीसजोयणाहियपंचजोयणसयाणि छक्कला य भरहो त्ति भण्णदि । कुदो ? समुदायेषु प्रवत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात् । एदस्स घणो एत्थ भरहो त्ति घेत्तव्यो, कार्ये कारणोपचारात् । एत्थ कालो अद्धमासो होदि । जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धक्खेत्तं घणागारेण दुइदं संतं भरहणमेत्तं होदि सो कालेण अद्धमासं जाणाद त्ति भणिदं होदि । पुत्वं व जोयणलक्खघणो जंबूदीवो णाम । तम्हि कालो मासो सादिरेयो। जं ओहिणिबद्धं खेत्तं घणागारेण द्वइदे जोयणलक्खघणमेत्तखेत्तं होदि तम्हि* कालो सादिरेयमासमेत्तो होदि त्ति णिदं होदि। पणदालीसजोयणलक्खघणो पुव्वं व मणुअलोगो होदि, तम्हि मणुअलोए कालो एगं वस्सं । जम्हि ओहिणिबद्धक्खेत्ते घणागारेण दुइदे पणदालीसजोयणलक्खघणो उप्पज्जदि तत्थ कालो एसवस्समेत्तो होदि त्ति भणिदं होदि । रुजगवरदीवस्स बाहिरदोपासपेरंताणं मज्झिमजोयणाणि रुजगवरं णाम, अवयवेषु प्रवत्ताः शब्दाः समुदायेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात् । तस्स घणो वि रुजगवरो णाम, कार्ये कारणोपचारात् । तत्थ कालो वासपुधत्तं होदि । अद्धसयलयंदआगारेण संठिदभरह जहां घनरूप भरतवर्ष क्षेत्र है वहां काल आधा महिना है। जहां घनरूप जम्बूद्वीप क्षेत्र है वहां काल साधिक एक महिना है। जहां घनरूप मनुष्यलोक क्षेत्र है वहां काल एक वर्ष है। जहां घनरूप रुचकवर द्वीप क्षेत्र है वहां काल वर्षपृथक्त्व है ॥ ६ ॥ भरतक्षेत्र पांच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजनप्रमाण कहा जाता है, क्योंकि, समुदाय में प्रवृत्त हुए शब्द अवयवों में भी रहते हैं, ऐसा न्याय है । यहां इसका घनरूप भरतक्षेत्र लेना चाहिए, क्योंकि यहां कार्य में कारणका उपचार किया गया है। यहां काल अर्ध मासप्रमाण होता है । जिस अवधिज्ञानीका अवधिनिबद्ध क्षेत्र धनाकाररूपसे स्थापित करनेपर भरत क्षेत्रके घनप्रमाण होता है वह कालकी अपेक्षा अर्ध मासकी बात जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां जम्बूद्वीप पदसे पहलेके समान एक लाख योजनके घनप्रमाण जम्बूद्वीप लिया गया है। इतना क्षेत्र होनेपर काल साधिक एक महिना होता है । जो अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर एक लाख योजनके घनप्रमाण होता है उसमें काल साधिक एक महीना होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पैंतालीस लाख योजनके घनप्रमाण पहलेके समान मनुष्यलोक होता है, उस मनुष्यलोक प्रमाण क्षेत्रके होनेपर काल एक वर्ष प्रमाण होता है । जिस अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रके घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर वह पैंतालीस लाख योजन धनप्रमाण होता है वहां काल एक वर्ष मात्र होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । रुचकवर द्वीपके बाह्य दोनों पावों तक मध्यम योजनोंकी रुचकर संज्ञा है, क्योंकि, अवयवोंमें प्रवृत्त हुए शब्द समुदायोंमें भी रहते हैं, ऐसा न्याय है। उसका धन भी रुचकवर कहलाता है, क्योंकि, यहां कार्यमें कारणका उपचार किया गया है । इतना क्षेत्र होनेपर काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है। षट्वं. पु. ९, पृ. २५. * ताप्रतौ — भणदि ' इति पाठः । * प्रतिषु · तम्हा ' इति पाठः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड जंबूदीव-मणुसलोअ-रुजगपहुडओ किण्ण घेप्पते ? ण, अंगुलादिसु वि तधा गहणप्पसंगादो। ण च एवं, अव्ववत्थापसंगादो । संखेज्जदिमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा । कालम्मि असंखेज्जे दीव-समुद्दा असखेज्जा* ॥७॥ कालपमाणादो ओहिणिबद्धखेत्तपमाणपरूवणटुमेसा गाहा आगया। 'संखेज्जदिमे काले' संखेज्ज काले संतेत्ति भणिदं होदि। एत्थतणकालसद्दो संवच्छरवाचओ, ण कालसामण्णवाचओ; जहण्णोहिखेत्तस्स वि असंखेज्जदीवसमुद्दजोयणधणपमाणत्तप्पसंगादो। कालो संवच्छरवाचओ त्ति कधं णव्वदे? सामण्णम्मि विसेससंभवादो समयावलियामहत्त-दिवसद्धमास-मासपडिबद्धोहिखेत्तस्स परूविदत्तादो। संखेज्जेसु वासेसु ओहिणाणेण तीदमणागयं च दव्वं जाणंतो खेत्तेण कि जाणदि त्ति वुत्ते 'दीव समुद्दा हवंति संखेज्जा' तस्स ओहिणिबद्धक्खेते घणागारेण दुइदे संखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं आया शंका - अर्ध और पूर्ण चन्द्र के आकाररूपसे स्थित भरत, जम्बूद्वीप मनुष्यलोक और रुच. कवर द्वीप आदि क्यों नहीं ग्रहण किये जाते हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर अंगुल आदिमें भी उस प्रकारके ग्रहणका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। जहां काल संख्यात वर्ष प्रमाण होता है वहां क्षेत्र संख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण होता है और जहां काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है वहां क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण होता है । ७। कालके प्रमाणकी अपेक्षा अवधिज्ञानसे संबंध रखनेवाले क्षेत्रके प्रमाणका कथन करने के लिए यह गाथा आई है। ' संखेज्जदिमे काले ' अर्थात् संख्यात कालके होनेपर, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'काल' शब्द वर्षवाची लिया गया हैं, कालसामान्यवाची नहीं लिया गया, क्योंकि, अन्यथा जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके घनयोजन प्रमाण प्राप्त होगा। __ शंका - काल शब्द वर्षवाची है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? । समाधान - क्योंकि, कालसामान्य में विशेष कालका ग्रहण सम्भव है । और समय, आवलि, मुहूर्त, दिवस, अर्ध मास और माससे सम्बन्ध रखनेवाले अवधिज्ञानके क्षेत्रका निरूपण पहले कर आये हैं। अवधिज्ञानके द्वारा संख्यात वषों संबंधी अतीत और अनागत द्रव्योंको जानता हुआ क्षेत्रकी अपेक्षा कितना जानता है, ऐसा कहनेपर 'दीवसमुद्दा हवन्ति संखेज्जा ' यह वचन कहा है । उस अवधिज्ञानके क्षेत्रको घनाकार रूपसे स्थापित करनेपर वह संख्यात द्वीप-समुद्रोंके म. बं. १, प. २१. संखिज्जमि उ काले दीव-समहा वि हंति संखिज्जा1 कालंमि असंखिज्जे दीवसमद्दा उ भइअव्वा 11 नं. सू. गा. ५३. ॐ अप्रती 'संति इति पाठः1. आ-का-ताप्रतिष 'दिवसद्धमासपडि-' इति पाठ:1 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९. ) अणुओगद्दारे ओहिणाणस्स दव्वखेत्तादिवुढिपरूवणा ( ३०९ मघणमेत्तं होदि । 'कालम्मि असंखेज्जे ' असंखेज्जवासमेत्ते संते ओहिणिबद्धखेत्तं घणागारेण ट्ठइज्जमाणमसंखेज्जे दीव-समुद्दे आयामेण ओट्ठहदि । एवं तिरिक्ख-मणुस्साणं देसोहीए खेत्त-कालपमाणपरूवणा गदा । संपहि णाणाकालं णाणाजीवे च अस्सिदूण दव्वखेत्त-काल-भावाणं बुड्डिक्कम परूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदव्वो * खेत्तवुड्ढीए । वुड्ढीए वव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला दु ।। ८ ।। 'कालो चटुण्णं वुड्ढी' कालश्चतुर्णां वृद्धये भवति । केसि चदुष्णं ? काल-खेत-दव्वभावाणं । काले वडमाणे नियमा दव्व-खेत्त-भावा वि वड्ढति त्ति भणिदं होदि । 'कालो भजिदन्वो खेत्तवुड्ढीए' खेले वडमाणे कालो कयावि वढदि, कयावि णो वढदि । दव्वभावा पुण नियमा वढति, तेस बुड्ढोए विणा खेत्तबुड्ढीए अणुववत्ती दो । 'बुड्ढीए दब्वपज्जय' दव्व - पज्जयाणं बुड्ढीए संतीए खेत्त-कालाणं बुड्ढी भर्याणिज्जा । कुदो ? साभावियादो। दव्ववुड्ढीए पुर्ण नियमा पज्जयवुड्ढी, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो, पज्जयवुड्ढीए वि नियमा दव्ववुड्ढी, दव्ववदिरित्तपज्जायाभावादो | अत्र श्लोक:आयामघनप्रमाण होता है । कालके असंख्यात अर्थात् असंख्यात वर्ष प्रमाण होनेपर अवधिज्ञान संबंधी क्षेत्र घनरूपसे स्थापित करनेपर असंख्यात द्वीप समुद्रोंके आयामघनप्रमाण होता है । इस प्रकार तिर्यंच और मनुष्योंके देशावधि सम्बन्धी क्षेत्र और कालके प्रमाणका कथन किया । अब नाना काल और नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों वृद्धि क्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- काल चारोंकी वृद्धिके लिए होता है। क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती । तथा द्रव्य और पर्यायकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती ॥ ८ ॥ कालो 'चदुण्ण बुड्ढी' अर्थात् काल चारोंकी वृद्धिके लिए होता है । किन चारोंकी ? काल, क्षेत्र, द्रव्य और भावोंकी । कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्य, क्षेत्र और भाव भी नियमसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए' क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर काल कदाचित् वृद्धिको प्राप्त होता है और कदाचित् वृद्धिको नहीं भी प्राप्त होता है । परन्तु द्रव्य और भाव नियमसे वृद्धिको प्राप्त होते क्योंकि, द्रव्य और भावकी वृद्धि हुए विना क्षेत्रकी वृद्धि नहीं बन सकती । 'वुड्ढीए दव्वपज्जय' अर्थात् द्रव्य और पर्यायोंकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती; क्योंकि, ऐसा स्वभाव हैं । परंतु द्रव्यकी वृद्धि होनेपर पर्यायकी वृद्धि नियमसे होती है; क्योंकि, पर्याय अर्थात् भावके विना द्रव्य नहीं पाया जाता। इसी तरह पर्यायकी वृद्धि होनेपर भी द्रव्यकी वृद्धि नियमसे होती है; क्योंकि, द्रव्यके विना पर्यायका होना असम्भव है । इस विषय में श्लोक है- + ताप्रती 'ओहट्ठदि इति पाठः । * तातो 'भजिदव्वो (व्व ) ' इति पाठः । षट्खं पु९, पू. २९. ताप्रती 'वड्ढति । तेसि वुड्ढीए विणा खेत्तवुड्ढीए ( विणा, खेत्तवुड्ढीए ) ' इति पाठः । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राड्भावसंबन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।। ३२ ।। एदि गाहाए जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा एत्थ वि णिरवसेसा कायव्वा, भेदाभावादो । एसो गाहत्थो देसोहीए जोजेयव्वो, ण परमोहीए । कुदो णव्वदे? आइरियपरंपरागयसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो । परमोहीए पुण दव्व खेत्त-काल-भावाणमक्कमेण बुड्ढी होदित्ति वत्तव्वं । कुदो ? अविरुद्धाइरिवयणादो । दव्वेण सह खेत्तकाला सणसण्णट्टमुत्तरगाहासुत्तं भणदि - तेया- कम्मसरीरं तेयादव्वं च भासदव्वं च । ३१० ) ॥ ९ ॥ बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव - समुद्दा य वासा य तेजइयणोकम्मसंचिदपदेसपिंडो तेजासरीरं नाम तं जाणंतो खेत्तदो असंखेज्जे दीवसमुद्दे जाणदि । कालदो असंखेज्जेसु वासेसु अदीदमणागयं च दव्वं जाणदि । अट्ठकम्माणं कम्मट्ठदिसंचओ कम्मइयसरीरं णाम । तं जाणंतो वि ओहिणाणी खेत्तदो असंखेज्जे दीव-समुद्दे कालदो असंखेज्जाणि वस्साणि जाणदि । णवरि तेजासरीरखेत्त ( ५,५, ५९. नैगमादि नयोंके और उनकी शाखा उपशाख । रूप उपनयोंके विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायोंका कथंचित् तादात्म्य रूप जो समुदाय है उसे द्रव्य कहते हैं ! वह कथंचित् एक रूप है और कथंचित् अनेक रूप है ।। ३२ ।। इस गाथाका जैसा वेदनाखण्ड में कथन किया है उसी तरह यहां भी पूरी तरहसे कथन करना चाहिए; क्योंकि, उससे इसमें कोई भेद नहीं है इस गाथाके अर्थकी देशावधि ज्ञान में योजना करनी चाहिए, परमावधि ज्ञानमें नहीं । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- वह आचार्यपरम्परासे आए हुए सूत्राविरुद्ध व्याख्यानसे जाना जाता है । परमावधि ज्ञानमें तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी युगपत् वृद्धि होती है ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए; क्योंकि, सूत्रके अविरुद्ध व्याख्यान करनेवाले आचार्योंका ऐसा उपदेश है । अब द्रव्यके साथ क्षेत्र और कालकी सूक्ष्म-स्थूलता बतल नें के लिए आगेका गाथासूत्र कहते हैंजहां तैजससरीर, कार्मणशरीर, तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा द्रव्य होता है, वहां घनरूप असंख्यात द्वीप समुद्र क्षेत्र होता है और असंख्यात वर्ष काल होता है ॥ ८ ॥ तेजस नोकर्मके संचित हुए प्रदेशपिण्डको तैजसशरीर कहते हैं । उसे जानता हुआ क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्रोंको जानता है और कालकी अपेक्षा असंख्यात वर्ष सम्बन्धी अतीत और अनागत द्रव्यको जानता है । आठ कर्मों सम्बन्धी कर्मस्थितिके संचयको कार्मणशरीर कहते हैं उसे जानता हुआ भी अवधिज्ञानी क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्रोंको और कालकी अपेक्षा असंख्यात वर्षोंको जानता है । इतनी विशेषता है कि तेजसशरीर सम्बन्धी क्षेत्र आ. मी. १०७. षट्खं. पु. ९, पृ. ३८. अप्रतौ ' एवं ' इति पाठ: Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स दव्व-खेत्तादिपरूवणा ( ३११ कालेहितो इमस्त खेत्त-काला असंखेज्जगणा। तेजइयसरीरणोकम्मसंचयादो कम्मइयसरीरसंचओ अणंतगणो, तदो खेत-कालाणमसंखेज्जगुणत्तं ण जुज्जदि? एस दोसो, पदेसं पडि अणंतगुणत्ते संते वि तेजइयक्ख?हंतो कम्मइयक्खंधाणमइसुहुमत्तेण तदसंखेज्जगुणतं पडि विरोहाभावादो। ण च गेज्झत्तं परमाणुपच्चय महल्लत्तमुवेक्खदे, चक्खिदियगेज्झभेंड-रज्जगिर*कणादो बहुपरमाणुहि आरद्धपवणम्मि तदणवलंभादो। तेजइयओगाहणादो कम्मइयओगाहणा एगजीवदवाविणाभावेण सरिसा ति ण दोण्णमोहिगेज्झगुणाणं सरितं वोत्तुं जुत्तं, समाणोगाहणाए टिदओरालिय-कम्मइयसरूवेहि दुद्ध-पाणियरूवेहि वा वियहिचारादो। तेजइयदव्वं णाम तेजइयवग्गणा एगा विस्ससोवचयविरहिदा । तिस्से गाहगं जमोहिणाणं तस्स ओहिणिबद्धखेत्तस्स पमाणमसंखेज्जा दीव-समुद्दा, कालो असंखेज्जाणि वस्साणि । णवरि कम्मइयसरीरखेत्त-कालेहितो इमस्स खेत्त-काला असंखेज्जगणा । कुदो? कम्मइयसरीरकम्मपुंजादो तेजइयएगवग्गणाए पदेसाणमणंतगुणहीणत्तवलंभादो तत्तो सुहुमत्तादो वा। तेजादध्वमिदि वुत्ते तदेगसमयपबद्धस्स गहणं किण्ण कीरदे? ण, दव्वसहस्स रूढिवसेण वग्गणासु चेव उवरि और कालसे इसका क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है। शंका-- तैजसशरीर नोकर्म के संचयसे कार्मणशरीरका संचय अनन्तगुणा होता है, इसलिए क्षेत्र और काल असंख्यातगुणे नहीं बनते ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे होनेपर भी तैजस स्कन्धोंसे कार्मण स्कन्ध अति सूक्ष्म होते हैं, इसलिए इसके क्षेत्र और कालके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं आता। दूसरे, ग्राह्यता ( ग्रहणयोग्यता ) परमाणुप्रचयके विस्तारकी अपेक्षा नहीं करती है, क्योंकि, चक्षुके द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य भिण्डी और रजगिराके कणोंकी अपेक्षा बहुत परमाणुओंके द्वारा निर्मित पवन में वह (ग्राह्यता) नहीं पायी जाती (?)। चंकि तैजसशरीरकी अवगाहनासे कार्मगशरीरकी अवगाहना एक जीव द्रव्य सम्बन्धी होनेसे समान होती है, इसलिए अवधिज्ञानके द्वारा ग्राह्य गण (ग्रहणयोग्यता) भी दोनोंके सदश ऐसा कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, समान अवगाहनारूपसे स्थित औदारिकशरीर और कार्मणशरीरके साथ तथा दूध और पानीके साथ इस कथनका व्यभिचार आता है । तैजस द्रव्यका अर्थ विस्रसोपचयसे रहित एक तैजस वर्गणा है । उसे जो अवधिज्ञान ग्रहण करता है, उस अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका प्रमाण असंख्यात द्वीप-समुद्र होता है और काल असंख्यात वर्ष होता है ! इतनी विशेषता है कि कार्मणशरीरके क्षेत्र और कालसे इसका क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि, कार्मणशरीरके कर्म-पुञ्जसे तैजसकी एक वर्गणाके प्रदेश अनन्तगुणे हीन उपलब्ध होते हैं या उससे सूक्ष्म होते हैं । शंका-- 'तेजस द्रव्य' ऐसा कहनेपर उसका एक समयप्रबद्ध क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ? अ-आ-काप्रतिषु 'गेझंतं परमाणुपचय', ताप्रती गेज्झत्तं परमाणपच्चय-' इति पाठः । * प्रतिषु 'भेंडरंडगिर-' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'पवयणम्मि' इति पाठः । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ) छक्खंडागमे वग्गणाखंड ( ५, ५, ५९. भण्णमाणदव्वट्ठदाए पवुत्तिदसणादो। भासादव्वं णाम भासावग्गणाए.. एगो खंधो।तस्स जंगाहयमोहिणाणं तदोहिणिबद्धखेत्तपमाणमसंखज्जा दीव-समुद्दा। तक्कालो असंखेज्जाणि वस्साणि। किंतु तेजइयदव्व-कालेहितो भासाए खेत-काला असंखेज्जगुणा।तेजइयएगवग्गणपदेसेहितो अणंतगणपदेसे हि एमा भासावग्गणा णिप्पज्जदि। कधं तत्थ अइमहल्लक्खंधे वट्टमाणस्स ओहिणाणस्स बहुत्तं जुज्जदे? ण, तेजइयएगवग्गणाओगाहणादो असंखेज्जगुणहीणाए ओगाहणाए वट्टमाणभासाएगवग्गणाए पदेसं पडि अणंतगुणाए वि वट्टमाणस्स ओहिणाणस्स बहुत्तं पडि विरोहाभावादो। भासावग्गणाए ओगहणा तत्तो असंखेज्जगुणहीणा त्ति कुदो णव्वदे? सव्वत्थोवा कम्मइयसरीरदव्ववग्गणाए ओगाहणा। मणदग्ववग्गणाए ओगाहणा असंखेज्जगुगा। भासादव्ववग्गणाए ओगाहणा असंखेज्जगुणा। तेयासरीरदव्ववग्गणाए ओगाहणा असंखेज्जगुणा। आहारसरीरदव्ववग्गणाए ओगाहणा असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसरीरदव्यवग्गणाए ओगाहणा असंखेगुणा । ओरालियसरीरदव्ववग्गणाए४ ओगाहणा असंखेज्ज---- समाधान-- नहीं, क्योंकि आगे कहे जानेवाले द्रव्यार्थता नामक अनुयोगद्वारमें द्रव्य शब्दकी रूढि वश वर्गणा अर्थ में ही प्रवृत्ति देखी जाती है। भाषा द्रव्यका अर्थ भाषावर्गणाका एक स्कन्ध है । उसे जो अवधिज्ञान जानता है उम अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका प्रमाण असंख्यात द्वीप-समुद्र और कालका प्रमाण असंख्यात वर्ष है। किन्तु तैजसवर्गणा सम्बन्धी क्षेत्र और कालसे भाषावर्गणा सम्बन्धी क्षेत्र और काल असंख्यातगणा होता है। शंका-- तैजसकी एक वर्गणाके प्रदेशोंसे अनंतगुणे प्रदेशों द्वारा एक भाषावर्गणा निष्पन्न होती है। अतः ऐसे अत्यंत भारी स्कंधको विषय करनेवाला अवधिज्ञान बड़ा कैसे हो सकता है समाधान-- नहीं, क्योंकि तैजसकी एक वर्गणाकी अवगाहनासे असंख्यातगुणी हीन, अवगाहनाको धारण करनेवाली भाषावर्गणा यद्यपि प्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती है, फिर भी उसे विषय करनेवाले अवधिज्ञानके बडे होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका-- भाषावर्गणाकी अवगाहना तैजसवर्गणाकी अवगाहनासे असंख्यातगुणी हीन होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? । समाधान-- वह “कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना सबसे स्तोक हो ी है। उसमें मनोद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे भाषाद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे तैजसशरीरद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे आहारकशरीरद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे वैक्रियिकशरीरद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी होती है। उससे औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणाकी ताप्रती 'पवुत्तिदसणादो। भासादववग्गणाए' इति पाठः। ताप्रती 'हीणाए वट्टमाण' इति पाठः । अ-आप्रत्यो: 'भासावग्गणाए ओगाहणाए', आप्रतौ ' भासावग्गणाओगाहणाए' इति पाठः । ४ ताप्रती · ओरालियसरीरवग्गणाए ' इति पाठः । . Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणस्स दव्व-खेत्तादिपरूवणा (३१३ गुणा ति अप्पाबहुअवयणादो । णेदं पहाणं, ओगाहणडहरत्तं* णाणमहत्तस्स ण कारणमिदि पुव्वं परविदत्तादो । तेण सुहमत्तं चेव भासाणाणमहल्लत्तस्स कारणमिदि घेत्तव्वं । किमेत्थ सुहमत्तं? दुगेज्झतं । एसो अत्थो अण्णत्थ वि पओत्तम्वो। च-सद्दो किमट्ठो? अवत्तसमुच्चयट्ठो । तेण मणदव्ववग्गणमेगं जाणतो खेत्तदो असंखेज्जे दीव-समुद्दे कालदो असंखेज्जाणि वस्साणि जाणदि । णवरि भासाखेत्त-कालेहितों असंखेज्जगुणे जाणदि । जदि वि भासाए वग्गणपदेसेहितो अणंतगुणपदेसे हि एगा मणदव्ववग्गणा आरद्धा, तो वि मणदव्ववग्गणाए ओगाहणा भासावग्गणाओगाहणादो असंखेज्जगणहीणा ति मणदव्ववग्गणविसयमोहिणाणं बहुअमिदि भणिदं । कम्मइयदव्ववग्गणं जाणंतो खेत्तदो असंखेज्जे दीव-समुद्दे कालदो असंखेज्जाणि वस्साणि जाणदि । वरि एयमणदव्ववग्गणविसयओहिणाणखेत्तकालहितो एयकम्मइयदव्ववग्गणविसयओहिणाणखेत्तकाला असंखेज्जगणा । एवं तिरिक्खमणस्से अस्सिदूण ओहिणाणदव्व-खेत्त-कालाणं परूवणं करिय देवाणमोहिणाणविसयपरूवणमुत्तरगाहासुत्तं भणदिअवगाहना असंख्यातगुणी होती है । " इस अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । किन्तु इसकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि, अवगाहनाकी अल्पता ज्ञानके बडेपनका कारण नहीं है, यह पहिले कहा जा चुका है ! इसलिए सूक्ष्मता ही भाषाज्ञानके बडेपनका कारण है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । शंका- यहां सूक्ष्म शब्दका क्या अर्थ है ? समाधान- जिसका ग्रहण करना कठिन हो वह सूक्ष्म कहलाता है । यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिए।" शंका- गाथासूत्र में 'च' शब्द किसलिए आया है ? समाधान- वह अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए आया है। इसलिए मनोद्रव्य सम्बन्धी एक वर्गणाको जाननेवाला क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात द्वीपसमुद्रोंको और कालकी अपेक्षा असंख्यात वर्षोंको जानता है, इस अर्थका यहां ग्रहण होता है । इतनी विशेषता है कि यह भाषावर्गणा सम्बन्धी क्षेत्र और कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र और कालको जानता है । यद्यपि भाषाकी एक वर्गणाके प्रदेशोंसे अनन्तगुणे प्रदेशों द्वारा एक मनोद्रव्यवर्गणा निष्पन्न होती है, तो भी मनोद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना भाषावर्गणाकी अवगाहनासे असंख्यातगुणी हीन होती है, इसलिए मनोद्रव्यवर्गणाको विषय करनेवाला अवधिज्ञान बडा होता है, यह कहा है । कार्मणद्रव्यवर्गणाको जाननेवाला क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात द्वीपसमुद्रोंको और कालकी अपेक्षा असंख्यात वर्षोंको जानता है । इतनी विशेषता है कि एक मनोद्रव्यवर्गणाको विषय करनेवाले अवधिज्ञानके क्षेत्र और कालकी अपेक्षा एक कार्मणद्रव्यवर्गणाको विषय करनेवाले अवधिज्ञानका क्षेत्र और काल असंख्यातगुणा होता है । इस प्रकार तिथंच और मनुष्योंका आश्रय कर अवधिज्ञानके द्रव्य, क्षेत्र और कालका कथन करके अब देवोंके अवधिज्ञानके विषयका कथन करने के लिए आगेका गाथासूत्र कहते हैं *प्रतिषु — दहरत्तं ' इति पाठः Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५९. पणुवीस जोयणाणं ओही वेंतर-कुमारवग्गाणं। संखेज्जजोयणाणं जोदिसियाणं जहण्णोही ॥ १० ॥ __ वेंतरे ति* भणिदे अट्टविहा वाणवेंतरा घेत्तव्वा। कुमारा त्ति भणिदे वसविहभवणवासियदेवा घेत्तव्वा । एदेसि सव्वेसि पि खेत्तदो जहण्णोहिपमाणं पणुवीसघणजोयणाणि होदि, तेसिमोहिणिबद्धखेत्ते घणागारेण टुइदे पणवीसजोयणघणमेत्तखेत्तुवलंभादो। कालदो पुण एदे देसूर्ण दिवसं जाणंति, " दिवसंतो पण्णुवीसं तु" इदि वयणादो । जोइसियाणं खेत्तदो जहण्गोहिपमाणं संखेज्जजोयघणपमाणं होदि । णवरि वेंतरजहण्णोहिखेत्तादो जोइसियाणं जहण्णोहिखेतं संखेज्जगुणं। कुदो? जोइसियजहण्णोहिणिबद्धखेते घणागारेण टुइदे पणु-- वीसजोयणाणि होति त्ति अभणिदूण संखेज्जाणि जोयणाणि होति त्ति वयगादो। होतं पि पुग्विल्लखेत्तादो एवं खेत्तं संखेज्जगुणं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो । एदेसि व्यन्तर और भवनवासियोंका जघन्य अवधिज्ञान पच्चीस घनयोजनप्रमाण होता है और ज्योतिषियोंका जघन्य अवधिज्ञान संख्यात योजनप्रमाण होता है ।१०। 'व्यन्तर' ऐसा कहनेपर आठ प्रकारके वानव्यन्तरोंका ग्रहण करना चाहिए । 'कुमार' ऐसा कहनेपर दस प्रकारके भवनवासी देवोंका ग्रहण करना चाहिए। क्षेत्रकी अपेक्षा इन सबके ही जघन्य अवधिज्ञानका प्रमाण पच्चीस घनयोजन होता है, क्योंकि, उनके अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रको घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर पच्चीस योजनधनप्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है। कालकी अपेक्षा तो ये कुछ कम एक दिनकी बात जानते हैं, क्योंकि 'दिवसंतो पण्णुवीसं' ऐसा सूत्रवचन है । क्षेत्रकी अपेक्षा ज्योतिषी देवोंके जघन्य अवधिज्ञानका प्रमाण संख्यात घनयोजनप्रमाण होता है। इतनी विशेषता है कि व्यन्तरोंके जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रसे ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र संख्यातगुणा है, क्योंकि, ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको घनाकार रूपसे स्थापित करनेपर वह 'पच्चीस योजन होता है ' ऐसा न कहकर 'संख्यात योजन होता है ' ऐसा कहा है । शंका-- यद्यपि ऐसा है, तथापि पहलेके क्षेत्रसे यह क्षेत्र संख्यातगुणा है, यह किस प्रमाणसे जानते हो? समाधान-- गुरुके उपदेशसे जानते हैं । X षट्खं. पु. ९, पृ. २५ मला. १२-१०९. असुरकूमारा णं भंते? ओहिणा केवइयं खेतं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं पणवीसं जोअणाई उक्कोसेणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति । नागकुमारा णं जहन्नणं पणवीसं जोअगाई, उक्कोसेणं संखेज्जे वीव-समझे ओहिणा जाणंति पासंति। एवं जाव थणियकुमारा 1 xxxx वाणमंतरा जहा नागकुमारा। xxxx जोइसिया णं भंते ! केवतितं खेत्त ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं संखेज्जे दीव-समद्दे, उक्कोसेण वि संखेज्जे दीव-समद्दे 1 प्रज्ञापना ३३, ३-४. पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसिं। विहोऽवि जोइसाणं संखेज्ज ठिई विसेसेणं 11 वि. भा. ७०४. * का-ताप्रत्योः ' वेंतरित्ति' इति पाठः । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पयडिअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसयपरूवणा (३१५ कालो पुण भवणवासियकालादो बहुगो । किंतु तत्तो विसेसाहिओ कि संखेज्जगुणो त्ति ण णव्वदे, उवएसाभावादो । संपहि एदेसिमुक्कस्सोहिणाणस्स विसयपरूवण?मुत्तरगाहासुत्तं भणदि असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोविसंताणं । संखातीवसहस्सा उक्कस्सं ओहिविसओ दुध ॥ ११ ॥ असुरा णाम भवणवासियदेबा । तेसिमुक्कस्सोहिखेत्ते घणागारेण टुइदे असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ होति । णवरि भवणवासिय-वागवेंतर जोदिसियाणं देवाणं ओहिणिबद्धखेत्तमधो थोवं होदि, तिरिएण बहुअं होदि त्ति वत्तव्वं । सेसाणं भवणवासियादिजोदिसियदेवपेरंताणं उक्कस्सओहिखेत्तमसंखेज्जजोयणसहस्सघणमेत्तं होदि। णवविहभरणवासीणमटविहवेंतराणं पंचविहजोइसियाणं जमुक्कस्सं ओहिक्खेत्तं तमसुरउक्कस्सखेत्तं पेक्खि दूण संखेज्जगणहीणं होदि । तं कधं णव्वदे? असुराणमसंखेज्जाओ जोयणकोडोओ त्ति भणिदूण 'सेसजोदिसंताणमसंखेज्जाणि जोणयसहस्साणि इनका काल यद्यपि भवनवासियोंके कालसे बहुत होता है, किन्तु वह उससे विशेष अधिक होता है या संख्यातगुणा होता है, यह नहीं जानते हैं; क्योंकि, इस प्रकारका कोई उपदेश नहीं पाया जाता । अब इनके उत्कृष्ट अवधिज्ञानके विषयका कथन करनेके लिए आगेका गाथासूत्र कहते हैं असुरोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका विषय असंख्यात करोड घनयोजन होता है तथा ज्योतिषियों तक शेष देवोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका विषय असंख्यात हजार घनयोजन होता है ।। ११॥ असुर पदसे यहां असुर नामके भवनवासी देव लिए गये हैं। उनके उत्कृष्ट अवधिज्ञानके क्षेत्रको घनाकाररूपसे स्थापित करनेपर वह असंख्यात करोड योजन होता है । इतनी विशेषता है कि भवनवासी, वानव्यंतर और ज्योतिषी देवोंका अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्र नीचे अल्प होता है, किन्तु तिरछा बहुत होता है। ऐसा यहां कथन करना चाहिए । शेष भवनवासी देवोंसे लेकर ज्योतिषी देवों तक इन देवोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र असंख्यात हजार घनयोजन होता है । नौ प्रकारके भवनवासी, आठ प्रकारके व्यन्तर और पांच प्रकारके ज्योतिषी देवोंका जो उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र होता है वह असुरोंके उत्कृष्ट क्षेत्रको देखते हुए संख्यातगुणा हीन होता है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि 'असुरोंके असंख्यात करोड योजन होता है' ऐसा कहनेपर 'ज्योतिषियों तक शेष देवोंका वह क्षेत्र असंख्यात हजार योजन होता है' ऐसा सूत्रवचन है। हजारकी अपेक्षा ताप्रती — बहुगो किंतु तत्तो विसेसाहिओ । किं ' इति पाठः। ४ ताप्रती ' होदि विसओदु' इति पाठः । षट्खं. पु. ९, पृ. २५. असुराणमसंखेज्जा कोडी जोइसिय सेसाणं । संखातीदा य खलउक्कस्सोहीय विसओ दु ।। मूला. १२-११०. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५,५९. ति सुत्तणिद्देसादो । सहस्सादो कोडी संखेज्जगुणा त्ति कादूण असुरोहिखेतं सेसोहि खेत्तादो संखेज्जगुणत्तणेण णवदिति भणिदं होदि । असुराणमक्कस्सकालो असंखेज्जाणि वस्साणि होदि । सेसाणं जोविसंताणं पि देवाणं उक्कस्सओहिकालो असंखेज्जाणि वस्ताणि होदि । वरि असुरुक्कस्सकालादो सेसजोदिसंताणं देवाणमुक्कस्सो. हिकालो संखेज्जगुणहीणो । कुदो एदमवगम्मदे ? गुरुवदेसावो । कि च-- भवणवासियदेवा उक्कस्सेण पेक्खंता उवरि जाव मंदरचलियचरिमं ताव पेवखंति । संपहि कप्पवासियाणमोहिणाणविसयपरूवणटुमुत्तरगाहासुत्तं भणदि-- सक्कीसाणा पढमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा । तच्चं तु बम्ह-लंतय सुक्क-साहस्सारया चोत्थं ॥ १२ ॥ सक्कीसाणा सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवा सगविमाणउवरिमतलमंडलप्पहुडि जाव 'पढम' पढमपुढविहेद्विमतले ति ताव दिवड्डरज्जुआयदं एगरज्जवित्थारखेत्तं पस्संति । करोड संख्यातगुणा होता है, ऐसा समझकर असुरोंके अवधिज्ञानका क्षेत्र शेष देवोंके अवधिज्ञानके क्षेत्रसे संख्यातगुणा जाना जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । असुरोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष होता है तथा ज्योतिषियों तक शेष देवोंका भी उत्कृष्ट अवधिज्ञान संबंधी काल असंख्यात वर्ष होता है । इतनी विशेषता है कि असुरोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा ज्योतिषियों तक शेष देवोंके अवधिज्ञानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा हीन होता है । शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- वह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। इसके अतिरिक्त भवनवासी देव ऊपर देखते हुए उत्कृष्ट रूपसे मेरुकी चूलिकाके अन्तिम भाग तक देखते हैं । अब कल्पवासियोंके अवधिज्ञानके विषयका कथन करनेके लिए आगेका गाथासूत्र कहते है-- सौधर्म और ईशान कल्पके देव पहिली पृथिवी तक जानते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके देव दूसरी पथिवी तक जानते हैं। ब्रह्म और लान्तव कल्पके देव तीसरी पथिवी तक जानते हैं। तथा शुक्र और सहस्रार कल्पके देव चौथी पृथिवी तक जानते हैं ॥ १२ ॥ 'सक्कीसाणा' अर्थात् सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमानके उपरिम तलमंडलसे लेकर प्रथम पृथिवीके नीचेके तल तक डेढ राजु लम्बे और एक राजु विस्तारवाले अ-आ-काप्रतिषु ' -गुणत्तणे णव्यदि ' इति पाठः । ताप्रती 'वोत्थी (चोथि) ' इति पाठः । षट्खं. पु. ९, पृ. २६. सक्कीसाणा पढमं बिदियं तु सणक्कुमार-माहिंदा 1 बंभालंतव तदियं सुक्क-सहस्सारया चउत्थी दु। मूला. १२-१०७. ति. प. ८-६८५. * सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवतितं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जदिभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए हिटिल्ले 1 चरमते, तिरियं जाव असंखिज्जे दीव-समुद्दे, उडुढं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासं । एवं ईसाणदेवा वि 1 प्रज्ञापना ३३-४. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पर्याडअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसपरूवणा ( ३१७ कालेण असंखेज्जाओ वरिस कोडीओ जाणंति । सुत्तेण विणा कघमेदं नव्वदे? गुरुवदेसादो। 'सण्णक्कुमार-माहिंदा' सण्णक्कुमार-माहिंदकप्पवासियदेवा सगविमाणधयदंआदो हेट्टा 'दोच्चं तु जाव बिदिहपुढविहेट्टिमतले त्ति ताव चत्तारिरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं खेत्तं पस्संति*। कालदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे अदीदमणागयं च जाणंति । बम्ह बम्होत्तरकप्पवासियदेवा अप्पण्णो विमाणसिहरादो हेट्ठा 'तच्चं तु' जाव तदियपुढविहेट्टिमतले त्ति ताव अद्धच्छट्टरज्जआयामं एगरज्जुवित्थारं खेत्तं पस्संति । कालदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे अदीदाणागदं च जाणंति । लंतयकाविट्ठविमाणवासियदेवा सगविमाणसिहरादो जाव तदियपुढविहेटिमतले ति ताव छरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं खेत्तं पस्संति । एगरज्जुवित्थारो ति कधं णव्वदे ? सोहावलोगण्णाएण सबलोगणालिसद्दाणुवतीए छरज्जुआयदं सव्वं लोगणालि पस्संति ति सुत्तसिद्धीदो। एत्तो पहडि जाव उवरिमगेवजे ति ताव कालो वि देसूर्ण पलिदोवमं होदि । बम्ह बम्हुत्तरकप्पे कालो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि क्षेत्रको देखते हैं । कालकी अपेक्षा वे असंख्यात करोड वर्षकी बात जानते हैं। शंका-सूत्रके विना यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - गुरूके उपदेशसे जाना जाता है । 'सगक्कुमारमाहिंदा' सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव अपने विमानके ध्वजादण्डसे लेकर नीचे 'दोच्चं तु ' अर्थात दूसरी पथिवीके नीचे के तलभाग तक चार राज लम्बे और एक राजु विस्तारवाले क्षेत्रको जानते हैं। कालकी अपेक्षा ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अतीत और अनागत विषयको जानते हैं । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पवासी देव अपने विमानशिखरसे लेकर नीचे ‘तच्चं तु' अर्थात् तीसरी पृथिवीके नीचेके तलभाग तक साढे पाँच राजु लम्बे और राजु एक विस्तारवाले क्षेत्रको जानते हैं । कालको अपेक्षा ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अतीत और अनागत विषयको जानते हैं । लान्तव और कापिष्ठ विमानवासी देव अपने विमानशिखरसे लेकर तीसरे पृथिवीके नीचे के तल तक छह राजु लम्बे और एक राजु विस्तारवाले क्षेत्रको देखते हैं शंका - वह क्षेत्र एक राज विस्तारवाला है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - यहां सिंहावलोकन न्यायसे आगेके गाथासूत्र (१४ । में प्रयुक्त ' सव्वं च लोयणालि शब्द की अनुवृत्ति आनेसे 'छह राजु आयत सब लोकनालीको देखते हैं यह इस सूत्रका अर्थ सिद्ध है । इसीसे उक्त क्षेत्रका विस्तार एक राजु जाना जाता है। यहांसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंका काल भी कुछ कम पल्योपमप्रमाअ होता है । शंका - ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पोंमें पत्यका असंख्यातवां भाग कहा है । फिर काप्रती 'असंखेज्जाओ-वरिम' ताप्रतौ 'असंखेज्जा उवरिम ' इति पाठः1 * सणंकुमारदेवा वि एवं चेव । नवरं जाव अहे दोच्चाए सक्करप्पमाए पुढवीए हिट्रिल्ले चरमते । एव महिंददेवा वि 1प्रज्ञापना ३३-४. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,५, ५९. भागोत्ति वृत्ती, एत्थ पुण लंतय- काविट्ठदेवेसु तत्तो सादिरेयं खेत्तं परसंतेसु कधं कालो किचूणपल्लमेतो होदि?ण एस दोसो, भिण्णकप्पेसु भिण्णसहावेसु सगकप्पभेदेण ओहि - णाणावरणीयक्खओवसमस्त पुधभावं पडि विरोहाभावादो । खेत्तमस्सिदूण पुण काले अणिमाणे सोहम्म पहुडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवे त्ति ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण कालेन होदव्वं, एगस्स घणलोगस्स जदि एगं पलिदोवमं लब्भदि तो घणलोग संखेज्जदिभाग म्हि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिविच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागवलंभादो । ण च एदं, एवं विहगुरूवएसाभावादो । सुक्क - महासुक्क कप्पवासियदेवा अप्पणो विमाणचूलियप्पहुडि जाव चउत्थपुढ - विट्टिमतले त्ति ताव अद्धट्टमरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पसंति । सहस्सारया सदरसहस्सारकप्पवासियदेवा अष्पष्पणो विमाणसिहरत्पहुडि हेट्ठिम जाव चढविट्ठमतले त्ति ताव अट्ठरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पस्संति । आणद- पाणदवासी तह आरण-अच्चुवा य जे देवा । पसंति पंचमखिदिं छट्ठिम गेवज्जया देवा ।। १३ ।। यहां उनसे कुछ अधिक क्षेत्रको देखनेवाले लान्तव और कापिष्ठ कल्पके देवों में उक्त काल कुछ कम पत्यप्रमाण कैसे हो सकता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भिन्न स्वभाववाले विविध कल्पों में अपने कल्पके भेदसे अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके भिन्न होने में कोई विरोध नहीं है । परन्तु क्षेत्र की अपेक्षा कालके लानेपर सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक उक्त काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग होना चाहिए, क्योंकि, एक घनलोकके प्रति यदि पल्य काल प्राप्त होता है तो घनलोक के संख्यातवें भाग के प्रति क्या लब्ध होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशि से गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देनेपर पल्योपमका संख्यातवां भाग काल उपलब्ध होता है । परंतु यह संभव नहीं है, क्योंकि, ऐसा गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता । ( अत: क्षेत्रकी अपेक्षा किये विना जहां जो काल कहा है, उसका ग्रहण करना चाहिए। ) शुक्र और महाशुक्र कल्पवासी देव अपने विमान के शिखरसे लेकर चौथी पृथिवीके नीचे के तलभाग तक साढे सात राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालिको देखते हैं । शतार और सहस्रार कल्पवासी देव अपने विमान के शिखरसे लेकर नीचे चौथी पृथिवीके नीचे के तलभाग तक आठ राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालिको देखते हैं । आनत-प्राणतकल्पवासी और आरण- अच्युत कल्पके देव पांचवीं पृथिवी तक देखते हैं तथा ग्रैवेयकके देव छठी पृथिवी तक देखते हैं ॥ १३ ॥ षट्खं. पु. ९, पृ. २६. पंचमि आणद-पाणद छट्ठी आरणच्चदा य पस्संति । णवगेवज्जा सत्तमि अणुदिस - अणुत्तरा य लोगतं । मूला. १२ - १०८. ति. प. ८, ६८६ आनत प्राणता ऽऽ रणाच्युतानां जघन्योऽवधि: पङ्कप्रभाया अधश्चरमः, उत्कृष्टस्तमः प्रभाया अधश्चरम । त. रा. १, २१, ७ अणयपाणयकप्पे देवा पासति पंचमि पुढवि । तं चेष आरणच्चय ओहिण्णाणेण पासंति ॥ छट्ठि हेट्टिम-मज्झिम . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पडिअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसयपरूवणा (३१९ आणद-पाणदकप्पवासियदेवा सगविमाणसिहरप्पहुडि हेट्ठा जाव पंचमपुढविहेट्ठिमतले त्ति ताव अद्धसहिदणवरज्जुआयदं एयरज्जवित्थारं लोयणालि पस्संति। आरणअच्चुदकप्पवासियदेवा सगविमाणसिहरप्पडि हेढा जाव पंचमपुढविहेदिमतले त्ति ताव दसरज्जुआयदं एगरज्जुवित्थारं लोगणालि पेक्खंति।' छट्ठी गेवेज्जया देवा' णरगेवज्जविमाणवासियदेवा अप्पप्पणो विमाणसिहरप्पहुडि हेट्ठा जाव छट्टिपुढविहेट्ठिमतले त्ति ताव विसेसाहियएक्कारहरज्जुआयद रज्जुविक्खंभं लोगणालि पेक्खंति। सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणतभागं चं ॥१४॥ 'अणुत्तरेसु च' णवाणुद्दिस पंचाणुत्तरविमाणवासियदेवा अप्पप्पणो विमाणसिहरादो हेट्ठा जाव णिगोदट्टाणस्स बाहिरिल्लए वादवलए त्ति ताव किंचूणचोद्दसरज्जुआयदं रज्जुवित्थारं सब्दलोगणालि पस्संतिका'सव्वं च'एत्थ जो चसद्दो सो अवुत्तसमुच्चयट्ठो। तेण णवाणुद्दिसदेवाणं गाहासुत्ते अणुवइट्ठाणं* गहणं कदं। लोगणालीसद्दो अंतदीवओ त्ति आनत और प्राणत कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर नीचे पांचवी पृथिवीके नीचेके तलभाग तक साढे नौ राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। आरण और अच्युत कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर नीचे पांचवीं पृथिवीके नीचेके तलभाग तक दस राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। नौ अवेयक विमानवासी देव अपने अपने विमानोंके शिखरसे लेकर नीचे छठी पथिवीके नीचेके तल भाग तक साधिक ग्यारह राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली लोकनालीको देखते हैं। अनुत्तरोंमें रहनेवाले जितने देव हैं वे समस्त ही लोकनालीको देखते हैं। ये सब देव अपने अपने क्षेत्रके जितने प्रदेश हों उतनी बार अपने अपने कर्ममें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो अन्तिम एक भाग लब्ध आता है उसे जानते हैं ॥१४॥ नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देव अपने अपने विमानशिखरसे लेकर नीचे निगोदस्थानसे बाहरके वातवलय तक कुछ कम चौदह राजु लम्बी और एक राजु विस्तारवाली सब लोकनालीको देखते हैं। 'सव्वं च ' यहांपर जो 'च' शब्द है वह अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए है। इससे गाथासूत्र में अनिर्दिष्ट नौ अनुदिशवासी देवोंका ग्रहण किया है । लोकनाली गेविज्जा सत्तमि च उवरिल्ला 1 संभिण्णलोयणालिं पासंति अणुत्तरा देवा । वि. भा. ६९९-७०० (नि. ४९-- ५०). आणय-पाणय-आरणच्चय देवा अहे जाव पंचमाए धमप्पभाए हेठुिल्ले चरिमते, हेट्रिम-मज्झिमगेवेज्जगदेवा अधे जाव छठ्ठाए तमाए पुढवीए हेट्रिल्ले जाव चरमंते 1 उवरिमगेविज्जगदेवा णं भंते! केवतियं खेत्री ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं अगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं अधे सत्तमाए हेछिल्ले घरमंते, हिरियंजाव असंखेज्जे दीव-समुद्दे, उड्ढं जाव सयाई विमाणाइंओहिणाजाणंति पासंति प्रज्ञापना ३३-४, ४ षट्वं पु. ९, १, २६. ति.प.८, ६८७. नवानामनुदिशानां पंचानुत्तरविमानवासिनां च लोक नालिपर्यन्तोऽवधिः। त. रा १, २१, ७. * अ-आ-काप्रतिषु 'अणुद्दिसटाणं', ताप्रतो 'अणहिट्ठाणं ' इति पाठः । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० } छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५९. काण सव्वत्थ जोजेयव्वो । तं जहा- सक्कीसाणा संगविमाणसिहरादो जाव पढमपुढवित्ति सव्वं लोगणालि पसंति । सणक्कुमारमाहिंदा जाव बिदियपुढवित्ति सव्वं लोगणालि पसंति । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं, अण्णहा णवाणुद्दिस पंचाणुत्तर विमाणवासियदेवाणं सव्वलोगणालिविसयं दंसणं होज्ज । ण च एवं, सग-सगविमाणसिहरादो उवरि गहणाभावाद नवाजुद्दिस चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवाणं सत्तमपुढ विहेट्टिमतलादो ट्ठा गहणाभावादी च । सव्वसिद्धिविमाणवासियदेवा विण सव्वलोगणालि पसंति, सगविमाणसिहरादो उवरिमभागकचूणिगिवीसजोहणबाहल्ल रज्जुपदर परिहीणसयललोगणालीए गहणादो। णवाणुद्दिस चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवा सत्तमपुढ विहेट्ठिमतलादो हेट्ठाण पेच्छति त्ति कुदो गव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। णवाणुद्दिस चत्ता.रिअणुत्तर विमाणसम्बट्ट सिद्धिविमाणवासियदेवा सिहरादो हेट्ठा जाव अंतिमवादवओत्ति रज्जुपदरविक्खंभेण सव्वलोगणालि पेच्छति त्ति के वि आइरिया भणति तं जाणिय वत्तव्वं । सव्वे वि कालादो किंचूणपल्लं जाणंति । एसो वि गुरुवएसो चेव, वट्टमाणकाले शब्द अन्तदीपक है, ऐसा जानकर उसकी सर्वत्र योजना करनी चाहिए । यथा -- सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर पहली पृथिवी तक सब लोकनालीको देखते हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव दूसरी पृथिवी तक सब लोकनालीको देखते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिए । कारण कि इसके विना नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके सब लोकनालीविषयक अवधिज्ञान प्राप्त होता है । परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रथम तो अपने अपने विमानोंके शिखरसे ऊपरके विषयका ग्रहण किसीको नहीं होता । दूसरे, नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देवोंके सातवीं पृथिवीके अधस्तन तलसे taar ग्रहण नहीं होता। तीसरे, सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव भी सब लोकनालीको नहीं देखते हैं, क्योंकि, उनके अपने विमान शिखर से ऊपरका कुछ कम इक्कीस योजन बाहुल्यवाले एक राजुप्रतररूप क्षेत्र के सिवा सब लोकनाली क्षेत्रका ग्रहण होता है । शंका- नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव सातवीं पृथिवीके अधस्तन तलसे नीचे नहीं देखते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह सूत्र विरुद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है । अदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव तथा सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव अपने विमानशिखर से लेकर अंतिम वातवलय तक एक राजुप्रतरविस्तार रूप सब लोकनालीको देखते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य उक्त गाथासूत्रका व्याख्यान करते हैं; सो उसका जानकर कथन करना चाहिए । ये सभी देव कालकी अपेक्षा कुछ कम एक पल्यके भीतर अतीत अनागत द्रव्यको जानते है । यह भी गुरुका उपदेश ही है, इस विषयका कथन करनेवाला वर्तमान कालमें कोई सूत्र अती ' अणुत्तरविमाणवासियदेवा सव्वट्टसिद्धि सव्वट्टसिद्धिय विमाणवासियदेवा सिहरादो', काप्रती अणुत्तरविमाणवासियदेवा सव्वट्टसिद्धिविमाणसिहरादो ' ताप्रती अणुत्तरविमाणवासियदेवा सिहरादो' इति पाठः । " " Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे देवेसु ओहिविसयपरूवणा ( ३२१ सुत्ताभावादो। देवाणं विसईभददव्वस्त पमाणपरूवणठं गाहापच्छिमद्धं भणदि-सग' खेत्ते सलागभूदे संते सगकम्मे मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागेण सलागं परिच्छिज्जमाणे जमंतिम रूवगवं पोग्गलदव्वं तं तस्स विसओ होदि । एत्थ च सद्दो अवुत्तसमुच्चयो । तेण मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागभदभागहारो तदवट्टिदत्तं च सिद्धं । एत्थ ताव सोहम्मोसाणदेवाणं दवपरूवणं कस्सामो । तं जहा- सगक्खेत्तं लोगस्स संखेज्जविभागं सलागभदं द्ववेदूण मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलेदूण सव्वदच्वं समखंडं कादूण एक्केक्कस्स रूवस्स दादूण सलागरासीदो एगागासपदेदो अवणेदव्यो।पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तूण एदिस्से अवट्टिदविरलणाए समखंडं करिय दाऊण बिदिया सलागा अवणेदवा। एसो कमो ताव कायन्वो जाव सव्वाओ सलागाओ णिट्टिदाओ ति। एत्थ ज सव्वपच्छिमकिरियाणिप्पणं पोग्गलदव्व मेगरूधरिदं तं रूवगदं णाम । तं सोहम्मीसाणदेवा ओहिणाणेण पेक्खंति । एवं सव्वेदेवेसु दव्वपरूवणा कायन्वा । णवरि सगसगक्खेत्तं सलागभदं ठवेदूण किरिया कायव्वा। एवं दव्वं देवेसु किमुक्कस्समाहो अणक्कस्समिदि ? ण, देवेसु जादिविसेसेण णाणं पडि समाणभावमावण्णेसु उक्तस्साहुक्कस्सभेदाभावादो। नहीं है। अब देवोंक विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका कथन करनेके लिए गाथाके उत्तरार्धका व्याख्यान करते हैं - अपने अपने क्षेत्रको सलाकारूपसे स्थापित करके अपने अपने कर्ममें मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागकी जितनी शलाकायें स्थापित की हैं उतनी बार भाग देनेपर जो अन्तिम रूपगत पुद्गल द्रव्य प्राप्त होता है वह उस उस देवके अवधिज्ञानका विषय होता है । यहांपर 'च' शब्द अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए आया है। इससे मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागरूप भागहार तदवस्थित रहता है, यह सिद्ध होता है । .. अब यहापर पहले सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंके द्रव्यके प्रमाणका कथन करते हैं । यथा- लोकके संख्यातवें भागप्रमाण अपने क्षेत्रको शलाकारूपसे स्थापित करके और मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विरलन करके विरलित राशिको प्रत्येक एकके प्रति सब द्रव्यको समान खण्ड करके देनेपर शलाका राशिमेंसे एक आकाशप्रदेश कम कर देना चाहिए । पुनः यहां विरलित राशिके एक अंकके प्रति जो राशि प्राप्त हो उसे उक्त अवस्थित विरलन राशिके ऊपर समान खण्ड करके स्थापित करे और शलाका राशिमेंसे दूसरी शलाका कम करे । यह क्रिया सब शलाकाओंके समाप्त होने तक करे । यहां सबसे अन्तिम क्रियाके करनेपर जो एक अंकके प्रति प्राप्त पुद्गल द्रव्य निष्पन्न होता है उसकी रूपगत संज्ञा है। उसे सौधर्म और ऐशान कल्पके देव अपने अवधिज्ञान द्वारा देखते हैं। इसी प्रकार सब देवोंमें अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने अपने क्षेत्रको शलाकारूपसे स्थापित कर यह क्रिया करनी चाहिए। शंका-- यह द्रव्य देवोंमें क्या उत्कृष्ट है या अनुत्कृष्ट है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि देव जातिविशेषके कारण ज्ञानके प्रति समान भावको प्राप्त होते हैं, अतएव उनमें अवधिज्ञानके द्रव्यका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद नहीं होता। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं एवं सुत्तं कप्पवासियदेवाणं चेव, सेसाणं ण होदि ति कधं णबदे? तिरिक्खमणस्सेसु अंगुलस्स असंखेज्जविभागमेत्तजहण्णोहिक्खेत्तपमाणपरूवणादो ण च कम्मइयसरीरं जाणताणं अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्त जहण्णोहिक्खेत्तं होदि, असंखेज्जा दीव समुद्दा त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। पुणो तिरिक्ख-मणुस्सेसु ओरालियसरीरं विस्सासोवचयसहिदं एगघणलोगेण खंडिदे जमेगखंडं तं जहण्णोहिदव्वं होदि। पुणो मणदत्ववग्गणाए अणंतिमभागमवट्टिदं विरलेदूण जहण्णोहिदव्वं समखंडं काढूण दिण्णे बिदिय ओहिणाणस्स दव्वं होदि । एवं "कालो चउण्ण वड्ढी " एदस्स सुत्तस्स अत्थमवहारिय तिरिक्ख-मणुस्सेसु दव्व खेत्त-काल भावपरूवणा कायव्वा जाव देसोहीए सवषकस्सदव्व-खेत्त-काल-भावा जादा ति। सुत्तण विणा कधमेदं वच्चदे ? अविरूद्धाइरियवयणादो। संपहि परमोहिविसयदव्व-खेत्त-काल-भावपरूवणमुत्तरगाहासुत्तं भणदि परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु । शंका - यह सूत्र कल्लवासी देवोंकी ही अपेक्षासे हैं, शेष जीवोंकी अपेक्षासे नहीं है; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? ___समाधान - वह तिर्यंच और मनुष्योमें अंगुलके असंख्वातवें भागप्रमाण जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन करनेवाले सूत्र (गाथासूत्र ३) से जाना जाता है । और कार्मण शरीरको जानेवाले जीवोंके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस कथनका ' असंखेज्जा दीव-समुद्दा' इस सूत्र (गाथासूत्र ९, के साथ विरोध आता हैं। पुनः तिर्यंच और मनुष्योंमें विस्रसोपचयसहित औदारिक शरीरको एक घनलोकसे भाजित करनेपर जो एक भाग लब्ध आता है वह जघन्य अवधिज्ञानका द्रव्य होता है । पुनः मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागरूप अवस्थित विरलनराशिका विरलन करके उसपर जघन्य अवधिज्ञानके द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर जो एक विरलनके प्रति द्रव्य प्राप्त होता है वह दूसरे अवधिज्ञानका द्रव्य होता है । इस प्रकार 'कालो चउण्ण वुड्ढी' इस सूत्रके अर्थका अवधारण करके तिर्यंच और मनष्योंमें द्रव्य क्षत्र, काल और भावकी प्ररूपणा करनी चाहिए। और वह प्ररूपणा देशावधिज्ञानके सर्वोत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके प्राप्त होने तक करनी चाहिए। शंका - यह सूत्रके विना कैसे कहा जाता है ? समाधान - यह सूत्राविरूद्ध आचार्योंके वचनसे कहा जाता है। अब परमावधिज्ञानके विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका कथन करनेके लिए आगेका गाथासूत्र कहते हैंपरमावधिज्ञानका असंख्यात लोक प्रमाण क्षेत्र है और असंख्यात शलाकाक्रमसे *प्रतिषु ' एवं ' इति पाठ: 1 ताप्रती 'विदियं ' इति पाठः 1 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याअणुओगद्दारे परमोहिदव्व - खेत्त-काल- भावपरूवणा ५,५, ५९.) रूवगज लहइ दव्वं खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ १५ ॥ परमोहि ति णिसादो हेट्ठिमो सव्वो सुत्तकलओ देसोहीए परुविदो त्ति घेत्तव्वो । परमा ओही मज्जाया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाणं । किं परमं ? असंखेचज लोगमेत्तसंजमवियप्पा | परमोहिणाणं संजदेसु चेव उप्पज्जदि । उप्पण्णे हि परमोहिणाणे सो जीवो मिच्छत्तं ण कयावि गच्छदि, असंमंज पि णो गच्छदित्ति भणिदं होदि । परमो हिणाणस्स देवेपणस्स असंजमो किण्ण लब्भदि ति चे ण, तत्थ परमोहिणाणं पडिवादाभावेण उप्पादाभावादो । देसं सम्मत्तं, संजमस्त अवयवभावादी, तमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं देसोहिणाणं । तत्थ मिच्छत्तं पि गच्छेज्ज असंजमं* पि गच्छेज्ज अविरोहादो । सव्वं केवलणाणं, तस्स विसओ जो जो अत्थो सो वि सव्वं उवयारादो । सव्वमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं सव्वोहिणाणं । एदं पि णिग्गंथाणं चेव होदि । 'असंखेज्जाणि लोग ( ३२३ लोकप्रमाण समय काल है । तथा वह क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवोंके द्वारा परिच्छिन्न होकर प्राप्त हुए रूपगत द्रव्यको जानता है । १५ । 'परमावधि' ऐसा निर्देश करनेसे पिछला सब सूत्रकलाप देशावधिज्ञानका प्ररूपण करता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । परम अर्थात असंख्यात लोक्मात्र संयमभेद हो जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह परमावधिज्ञान कहा जाता है । शंका - यहां परम शब्दका क्या अर्थ है ? समाधान- यहां परम शब्द से असंख्यात लोकमात्र संयम के विकल्प अभीष्ठ हैं । परमावधिज्ञानकी उत्पत्ति संयतोके ही होते हैं । परमावधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर वह जीव न कभी मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और न कभी संयमको भी प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं। शंका - परमावधिज्ञानीके मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर असंयमकी प्राप्ति कैसे नहीं होती है ? नहीं क्योंकि, परमावधिज्ञानियोंका प्रतिपात नहीं होनेसे वहाँ उनका उत्पाद सम्भव नहीं है । समाधान 'देश' का अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि, वह संयमका अवयव है । वह जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह देशावधिज्ञान है। उसके होनेपर जींव मिथ्यात्वको भी प्राप्त होता है और असंयमको भी प्राप्त होता है, क्योंकि, ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है । ' सर्व ' का अर्थ केवलज्ञान है, उसका विषय जो जो अर्थ होता हैं वह भी उपचार से सर्व कहलाता है । सर्व अवधि अर्थात् मर्यादा जिस ज्ञानकी होती है वह सर्वावधिज्ञान है । यह भी निर्ग्रन्थौके ही होता है । ' असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि ' इसमें लोकमात्रका अर्थ एक घनलोक षट् पु. ९, पृ. ४२. सब्वबहुअगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिज्जंसु । खेत्तं सव्वदिसागं परमोही खेत्तणिद्दिट्ठो । नं सू गा. ४९. वि. भा. ६०१ ( नि. ३१ ) आ-का-ताप्रतिषु 'वि' इति पाठ: * प्रतिषु 'देससम्मत्तं ' इति पाठः । प्रतिषु ' असंजदं ' इति पाठ: : Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५९. मेत्ताणि' लोगमेतं णाम एगो धणलोगो, दोहि घणलोगेहि दोणि लोगमेत्ताणि एवं गंतूण असंखेज्जलोगमेत्ताणि घेत्तण उवकस्सं परमोहिक्खेत्तं होदि । एदेण परमोहि णिबद्धखेत्तपरूवणा कदा। 'समयकालो' दुसमओ च सो कालो च समयकालो। किम ठे समएण कालो विसेसिदो ? आवलि-खण-लव-महत्तादिपडिसेहटें। दु-सद्दो वुत्तसमुच्चयट्ठो। तेण समयकालो वि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि होति ति सिद्धं । एदेण परमोहीए उक्कस्सकालो परविदो। अगणिकाइयओगाहणदाणाणि खेत्तं णाम । तेन क्षेत्रेण उपमीयन्त इति क्षेत्रोपमा; क्षेत्रोपमाश्च ते अग्निजीवाश्च क्षेत्रोपमाग्निजीवाः । तेहि सलागभदेहि परिच्छिण्णं दव्वं रूवगदं अर्णतपरमाणुसमारद्धं परमोही लहदि जाणदि ति घेत्तव्वं । एदेण परमोहीए उक्कस्सदत्वपरूवणा कदा। संपहि देसोहिउक्कस्सदव्वं मणदब्यवग्गणाए अणंतिमभागस्स समखंडं काढूण दिण्ण एक्केक्कस्स रूवस्स परमोहिजहण्णदव्वं पावदि । एगघणलोगमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गणिदे परमोहीए जहण्णखेत्तं होदि । तेणेव गुणगारेण समऊणपल्ले गुणिदे तस्सेव जहण्णकालो होदि। सलागादो एगरूवमवणेयव्वं । को एत्थ सलागरापी? तेउक्काइयहै। दो घनलोकोंसे दो लोकमात्र होते हैं। इस प्रकार आगे जाकर असंख्यात लोकमात्रोंको ग्रहणकर परमावधिज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । इसके द्वारा परमावधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका कथन किया गया है । ' समयकालो' यहां 'समय रूप जो काल समयकाल' इस प्रकार कर्मधारयसमास है। शंका - समय द्वारा काल किसलिए विशेषित किया गया है ? समाधान - आवलि, क्षण, लव और मुहूर्त आदिका प्रतिषेध करनेके लिए कालको समयसे विशेषित किया गया है। 'दु' शब्द उक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिए आया है। इससे समय काल भी असंख्यात लोक प्रमाण है, यह सिद्ध होता है । इसके द्वारा परमावधिज्ञानके उत्कृष्ट कालका कथन किया हैं। अग्निकायिक जीवोंके अवगाहनस्थानोंका नाम क्षेत्र है। उस क्षेत्रके द्वारा जो उपमित किए जाते हैं वे क्षेत्रोपम कहलाते हैं । क्षेत्रोपम ऐसे जो अग्निजीव वे क्षेत्रोपम अग्निजीव हैं। शलाकारूप उन अग्निकायिक जीवोंके द्वारा परिच्छिन्न किये गये ऐसे अनन्त परमाणुओंसे आरब्ध रूपगत द्रव्यको परमावधिज्ञान उपलब्ध करता है अर्थात् जानता हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसके द्वारा परमावधिज्ञानके उत्कृष्ट द्रव्यका कथन किया गया है। ___ अब देशावधिज्ञानके उत्कृष्ट द्रव्यको मनोद्रव्य वर्गणाके अनन्तवें भागका विरलनकर उसके ऊपर समान खंड करके देनेपर एक एक विरलन अंकके प्रति परमावधिज्ञानका जघन्य द्रव्य प्राप्त ता है । एक घनलोकको आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर परमावधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र होता है । तथा उसी गुणकारसे एक कम पल्यको गुणित करनेपर उसीका जघन्य काल होता है। यहां शलाकामेंसे एक अंक कम कर देना चा हए। . आप्रती 'लोगमेत्ताणि ' इति पाठ: 18 अप्रतौ ' -लोगेहि भागे हिदे दोणि · इति पाठः । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे तिरिक्ख- रइएस ओहिविसओ ( ३२५ जहण्णोगाहणं तस्सेव उक्करसोग्गाहणाए सोहिय सुद्ध सेसम्मि रूवं पक्लिविय तेण तेक्काइयरासिम्हि गुणिदे सलागारासी होदि । पुणो परमोहिजहण्णदव्वमवद्विदविरणाए समखंड काढूण दिण्णे तत्थ एगखंडं परमोहोए बिदियो दव्ववियप्पो होदि । पुणो परमो हिजहण्णखेत्त-काले पडिरासिय पुव्विल्लआवलियाए असंखेज्ज विभागस्स + वगेण गुणिदे खेत्त कालाणं बिदियवियप्पो होदि । एवं वेयणाए वृत्तविहाणेण णंदवं जाव सागरासी सव्वो गिट्टिदो* त्ति । तत्थ चरिमो दव्ववियप्पो हवगदं णाम । तं परमोहिउक्क सविसओ होदि । चरिमखेत्त-काला वि तस्स उक्कस्सखेत्त-कालवियप्पा होंति । एवं सव्वोहीए वि जाणिदूण परूवणा कायव्वा । तेयासरीरलंबो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणिणीसु । गाउअ + जहण्णओहि णिरएस अ जोयणुक्कस्सं * ।। १६ ।। तिरिक्खजोणिणीसु' पंचिदियतिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणी उक्कस्सेण दव्वं केत्तियं होदि ? 'तेजासरीरलंबो' तेजइयसरीरसंचयभूदपवेस " शंका -- यहां शलाका राशि क्या हैं ? समाधान -- तेजकायिक जीवकी जघन्य अवगाहनाको उसीकी उत्कृष्ट अवगाहनामें से घटाकर जो शेष रहे उसमें एक मिलाकर उसके द्वारा तेजकायिक जीवराशिको गुणित करनेपर शलाकाराशि होती है । पुनः परमावधिज्ञानके जघन्य द्रव्यको अवस्थित विरलनराशिके ऊपर समान खंड करके देयरूपसे स्थापित करनेपर वहां प्राप्त एक खण्ड परमावधिज्ञानका दूसरा द्रव्यविकल्प होता है । पुनः परमावधिज्ञानके जघन्य क्षेत्र और कालको प्रतिरागि करके पूर्वोक्त आवलिके असंख्यातवें भाग के वर्गसे गुणित करनेपर क्षेत्र और कालका दूसरा विकल्प होता है । इस प्रकार वेदना खण्ड (पु. ९, पृ ४२-४७ ) में कहीं गई विधि के अनुसार पूरी शलाकाराशिके समाप्त होने तक कथन करना चाहिए । उसमें जो अन्तिम द्रव्यविकल्प हैं उसकी रूपगत संज्ञा है । वह परमावधिज्ञानका उत्कृष्ट विषय होता है । अन्तिम क्षेत्र और काल भी उसके उत्कृष्ट क्षेत्र और कालके भेद होते हैं । इसी प्रकार सर्वावधिज्ञानका भी जानकर कथन करना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनो जीवोंके तैजसशरीरका संचय उत्कृष्ट द्रव्य होता है । नारकियोंमें जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र गव्यूति प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन प्रमाण है ॥ १६ ॥ 'तिरिक्खजोणिणीसु' अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी जीवों के उत्कृष्ट द्रव्य कितना होता है ? 'तेजासरीरलंबो' अर्थात् तैजसशरीरके ताप्रती 'जहण्णोगाहणं 1 तस्सेव' इति पाठ: । षट्खं पु ९, पृ. ४२-४७. आ-का-ताप्रतिषु सरीरलंओ ' इति पाठः 1 काप्रतो ' आउअ ' इति पाठ: ताप्रती 'असंखे० भागादिभागस्स ' इति पाठः णिद्दिट्ठो' इति पाठः । X काप्रती ' तेयाम. बं. १, पृ. २३. आहारतेयलंभी उक्को 1 सेणं तिरिक्खजोणीसु । गाउअ जहण्णमोही नरएसु य जोयणवकोसो || वि. भा. ६९३. (नि. ४६ ) . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५९. मेत्तो होदि । खेत्तमुक्कस्सं पुण असंखेज्जदीव-समद्दमेत्तं होदि । उक्कस्सकालो असंखेज्जाणि वस्साणि । कधमेदं णव्वदे ? ' तेयाकम्मसरीरं' एवम्हादो सुत्तादो णव्वदे। रइएसु जहण्णोहिक्खेत्तं गाउअमेत्तं होदि, उक्कस्सं पुण एगजोयणपमाणं । एवं सुत्तं देसामासियं, णिरएस सामण्णण जहण्णुक्कस्सोहि*परूवणादो। तेणेदेण सूइदत्यस्स परूवणं कस्सामो। तं जहा- सत्तमाए पुढवीए रइयाणमक्कस्तोहिखेत्तं गाउअपमाणं होदि । तेसिमुक्कस्सकालो अंतोमहत्तं । छट्ठीए पुढवीए गैरइयाणमुक्कस्सोहिखेत्तं दिवड्डगाउअपमाणं । तेसि कालो वि अंतोमहत्तं । पंचमीए पुढवीए रइयाणं उक्कस्सोहिखेत्तं बेगाउअपमाणं। उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तं । चउत्थीए पुढवीए रइयाणमुक्कस्सोहिखेत्तमड्डाइज्जगाउअपमाणं होदि । तत्थुक्कस्सकालो/ अंतोमुहुत्तं । तदियाए पुढवीए रइयाणं उक्कस्सोहिखेत्तं तिणिगाउअपमाणं । तत्थ उक्कस्सकालो अंतोमहत्तं । बिदियाए पुढवीए रइयाणमुक्कस्सोहिखेत्तं अदुट्ठगाउअमपाणं । तत्थुक्रुस्सकालो अंतोमहत्तं । पढमाए पुढवीए रइयाणमुक्कस्सोहिखेत्तं चत्तारिगाउअपमाणं । तत्थुक्कस्सकालो मुहत्तं समऊणं। सुत्ते अवृत्तकालो कुदो संचयभूत प्रदेशों प्रमाण होता है। उसका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात दीप-समुद्र प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष होता है । शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- वह · तेया-कम्मसरीरं' ( गाथासूत्र ९ ) से जाना जाता है । नारकियोंमें जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र गव्यति प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र एक योजन प्रमाण है । यह सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, नारकियोंमें सामान्यरूपसे जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन करता है । इसलिए इसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका निरूपण करते हैं । यथा- सातवी पृथ्वीमें नारकियोंके अवधिज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र गव्यूति प्रमाण और वहां उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। छठी पृथ्वीमें नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र डेढ गव्यूति प्रमाण है और उन्हीं के उसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । पांचवीं पृथ्वी में नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र दो गव्यति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । चौथी पृथ्वीमें नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र अढाई गव्यूति प्रमाण और वहां उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीसरी पृथ्वीमें नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र तीन गव्यूति प्रमाण है और वहां उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। दूसरी पृथ्वीमें नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र साढे तीन गव्यूति प्रमाण और वहां उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। पहिली पृथ्वीमें नारकियोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र चार गव्यूति प्रमाण और वहां उत्कृष्ट काल एक समय कम मुहूर्त प्रमाण है। __शंका-- सूत्रमें काल नहीं कहा गया है, वह किस प्रमागसे जाना जाता है ? * काप्रतौ ' जहण्णुक्कस्सेहि-', ताप्रती 'जहण्णुक्कस्से (स्सो) हि-' इति पाठः। आ-का-ताप्रतिष 'तमुक्कस्सकालो ' इति पाठः । ताप्रती 'गाउपमाणं ' इति पाठः। ४ रयणप्पहाए जोयणमेय ओहिविसओ मुणेयव्वो। पुढवीदो पुढवीदो गाऊ अद्धद्धपरिहाणी । मूला. १२-१११. रयणप्पहावणीए कोसा चत्तारि ओहिणाणखिदी। तप्परदो पत्तेक्कं परिहाणी गाउदद्धेण । ति. प. २-२७१. चत्तारि गाउयाई अदधुढाई तिगाउयं चेव । अड्ढाइज्जा दोण्णि य दिवड्डमेगं च नरएसु । वि. भा. ६९६. ( नि. ४७ ). प्रज्ञापना ३३-२. . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ५९.) पडिअणुओगद्दारे जहण्णुक्कस्सोहिणाणसामित्तं ( ३२७ णव्वदे ? " गाउअं महत्तंतो। जोयण भिण्णमहत्तं "त्ति एदम्हादो सुत्तादो णवदे। जहण्णुक्कस्सओहिणाणीणं सामित्तपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि--- उक्कस्स माणुसेसु य माणुस-तेरिच्छए जहण्णोही । उक्कस्स लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमपडिवादी ॥ १७ ॥ 'उक्कस्स माणुसेसु य' उक्कस्सओहिणाणं तिरिक्खेसु देवेसु रइएसु वा ण होदि, किंतु मणुस्सेसु चेव होदि । च-सद्दो अवृत्तसमुच्चयट्ठो। तेण कि लद्धं ? उक्कस्समोहिणाणं महारिसीणं चेव होदि त्ति समुवलद्धं । 'माणस-तेरिच्छए जहण्णोही' जहण्णमोहिणाणं देव-णेरइएसु ण होदि, किंतु मणस्स-तिरिक्खसम्माइट्ठीसु चेव होदि। एगघणलोगेण ओरालियसरीरम्मि भागे हिदे जं भागलद्धं. तं जहण्णोहिणाणेण विसईकयदव्वं होदि। खेत पुण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो होतो वि सव्वजहण्णोगाहणमेत्तो। जहण्णोहिकालो आवलियाए असंखेज्जविभागो। एतो प्पहुडि उवरिमसम्ववियप्पा तिरिक्ख-मणुस्सेसु वेयणाए वुत्तविहाणेण* णेदव्वा जाव अप्पप्पणो उक्कस्सदव्व-खेत्त-काला ति* । णवरि तिरिक्खेसु ___ समाधान-- वह — गाउअं मुहुत्तंतो। जोयणभिण्णमुहुत्तं ' इस सूत्र (गाथासूत्र ५) से जाना जाता है। अब जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानियोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं। उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्योंके तथा जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच दोनोंके होता है। उत्कृष्ट क्षेत्र लोक प्रमाण है। यह प्रतिपाती है, इससे आगेके अवधिज्ञान अप्रतिपाती हैं ॥ १७ ॥ __ 'उक्कस्स माणुसेसु य' अर्थात् उत्कृष्ट अवधिज्ञान तिर्यंच, देव और नारकियोंके नहीं होता; किन्तु मनुष्योंके ही होता है । 'च' शब्द अनुक्त अर्थका समुच्चय करने के लिए आया है। इससे क्या लब्ध होता है ? इससे यह लब्ध होता है कि उत्कृष्ट अवधिज्ञान महा ऋषियोंके ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान देव और नारकियोंके नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंचोंके ही होता है। एक घनलोकका औदारिकशरीरमें भाग देनेपर जो भागलब्ध आता है वह जघन्य अवधिज्ञानका विषयभूत द्रव्य होता है। परन्तु क्षेत्र अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होकर भी सबसे जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है। जघन्य अवधिज्ञानका काल अवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यहांसे लेकर आगेके सब विकल्प तिर्यंच और मनुष्योंके वेदनाखंड (पु. ९, पृ. १४-३९) में कही गई विधिके अनुसार अपने अपने उत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र और कालके प्राप्त होने तक जानने चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट द्रव्य तैजसशरीर प्रमाण, ४ ताप्रती 'पडिवादी (ए)' इति पाठः । म. बं. १ पृ. २३. उक्कोसो मणुएसु मणुस्स-तेरिच्छिएसु य जहण्णो 1 उक्कोस लोगमेत्तो पडिवाह परं अपडिवाई1 वि भा ७०६ ( नि ५३) .ताप्रती ' भागं लद्धं ' इति पाठः। * षट्खं पु ९, १४-३९ अप्रतो'-कालो त्ति ' इति पाठ: 1 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ६०. उक्कस्सदव्वं तेजइयसरीरं । उक्कस्सखेत्तमसंखेज्जाणि जोयणाणि । उक्कस्सकालो असंखेज्जाणि वस्साणि । मणस्सेसु उक्कस्सदव्वमेगो परमाण । उक्कस्सखेत्त-काला असंखेज्जा लोगा। देसोहिउक्कस्सखेत्तं लोगमेत्तं, कालो समऊणपल्लं। एवं देसोहिणाणं पडिवादी होदि, तम्हि चेव भवे पडिवण्णमिच्छत्तजीवेसु विणासुवलंभादो। तेण परमप्पडिवादी' तत्तो उवरिमाणि परमोहि-सव्वोहिणाणाणि अप्पडिवादीणि अविणस्सराणि, केवलणाणंतियाणि होति त्ति भणिदं होदि । जावदियाणि ओहिणाणाणि परूविदाणि तत्तियाओ चेव ओहिणाणावरणीयस्स पयडीओ होति । विहंगणाणस्स जहण्ण खेत्तं तिरिवख-मणुस्सेसु अंगुलस्त असंखेज्जदिभागो उक्कस्सखेतं सत्तट्टदीव-समुद्दा। एवमोहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा कदा। मणपज्जवणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ ६०॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं । मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं चेव विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं चेव ॥ परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, परि समन्तात् अयः विशेषः पर्ययः मनसः पर्ययः मनः पर्ययः, मनःपर्ययस्स ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम् । तस्स आवरणीयं मणपज्जयणाणावरणीयं । उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात योजन, और उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष मात्र है। मनुष्योंमें उत्कृष्ट द्रव्य एक परमाणु तथा उत्कृष्ट क्षेत्र और काल असंख्यात लोक प्रमाण हैं । देशावधिज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र लोक प्रमाण हैं और उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य प्रमाण है । यह देशावधिज्ञान प्रतिपाती होती है, क्योंकि, उसी भवमें जीवोंके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जानेपर इसका विनाश देखा जाता है। उसके आगेके परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान अप्रतिपाती अर्थात् अविनश्वर है। अभिप्राय यह है कि वे केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक रहते हैं । जितने अवधिज्ञान कहे गये हैं उतनी ही अवधिज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ हैं। विभंगज्ञानका जघन्य क्षेत्र ति मनुष्योंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता हैं। उसका उत्कृष्ट क्षेत्र सात-आठ द्वीप समुद्र प्रमाण होता हैं । इस प्रकार अवधिज्ञानावरणीयकी कर्मका कथन किया। मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? । ६० । यह पृच्छासूत्र सुगम है। मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय । ६१ । परकीय मनोगत अर्थ मन कहलाता है । ' पर्यय' में परि शब्दका अर्थ सब ओर, ओर अय शब्दका अर्थ विशेष है मनका पर्यय मनःपर्यय, और मनःपर्ययका ज्ञान मनःपर्ययज्ञान; इस प्रकार यहां षष्ठी तत्परुष समास है। उसका जो आवरण करता है वह मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है। . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६२. ) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा (३२९ तस्स दुवे पयडीओ उजमदि-विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयभेएण। एयर मणपज्जयणाणावरणीयं ण दुब्भावं, पडिवज्जदि, एयस्स दुब्भावविरोहादो। अह दुवे, ण तेसिमेयत्तं; दोण्णमेयत्तविरोहादो ? ण एस दोसो, उजु-विउलमदिविसेसणविरहिदणाणविवक्खाए जाणभेदाभावेण तदावरणस्त एयत्तुवलंभादो। उजु विउलमदिविसेसणेहि विसेसिदमणपज्जयणाणस्स एयत्ताभावेण तदावरणस्स वि दुब्भावुवलंभादो। परेसिं* मणम्मि अट्टिदत्थविसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मणपज्जयणाणववएसो? ण, अचितिदं चेवळं जाणदि ति णियमाभावादो। किंतु चितियर्माचतियमद्धचितियं च जाणदि । तेण तस्स मणपज्जयणाणववएसो ण विरुज्झदे । जं तं उजुमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं तं तिविहंउजुगं मणोगदं जाणदि उजुगं वचिगदं जाणदि, उजुगं कायगद जाणदि* ॥ ६२॥ जेण उज्जुगमणोगवट्ठविसयं उज्जुगवचिगवट्ठविसयं उज्जगकायगवट्टविसयं ति उसकी ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीयके भेदसे दो प्रकृतियां है । __ शंका-- एक मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्म दो प्रकारका नहीं हो सकता, क्योंकि एकको दो रूप मानने में विरोध आता है। और यदि वह दो प्रकारका है तो फिर वे एक नहीं हो सकते, क्योंकि, दोके एक मानने में विरोध आता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऋजुमति और विपुलमति विशेषणसे रहित ज्ञानकी विवक्षा होनेपर ज्ञानके भेदोंका अभाव होनेसे तदावरण कर्म एक प्रकारका उपलब्ध होता है । तथा ऋजुमति और विपुलमति विशेषणोंके द्वारा विशेषताको प्राप्त हुए मन:पर्ययज्ञानके एकत्वका अभाव होनेसे तदावरण कर्म भी प्रकारका उपलब्ध होता है। शंका-- दूसरोंके मनमें नहीं स्थित हुए अर्थको विषय करनेवाले विपुलमतिज्ञानकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा कैसे है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि अचिन्तित अर्थको ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं हैं। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्द्धचिन्तित अर्थको जानता है; इसलिए उसकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता। जो ऋजमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह तीन प्रकारका है- ऋजुमनोगतको जानता है, ऋजुवचनगतको जानता है और ऋजुकायगतको जानता है ।६२। ____ यतः ऋजुमनोगत अर्थको विषय करता है, ऋजुवचनगत अर्थको विषय करता है और ४ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। 4 प्रतिषु ' दुब्भाग ' इति पाठ: 1 * आ-काप्रत्यो ‘एदेसिं' इति पाठः। चितियमचितियं वा अद्धचितियमणेयभेयगयं 1 मणपज्जवं ति उच्चह जं जाणइ तं खु णरलोए 1 गो. जी ४३७. अ-आ-काप्रतिष 'उज्जगं , इति पाठ: 1 म. बं. १ पृ. २४. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ६२. तिविहमुजुमदिमणपज्जयणाणं तेण तदावरण पितिविहं होदि । मणस्स कधमजुगतं ? जो जधा अत्थो द्विदो तं तधा चितयंतो मणो उज्जगो णाम । तस्विवरीयो मणो अणुज्जुगो । कधं वयणस्स उज्जुवत्तं ? जो जेम अत्थो द्विओ तं तेम जाणावयंतं वयणं उज्जुवं णाम तविवरीयमणुज्जवं । कधं कायस्स उपज वत्तं ? जो जहा अत्थो द्विदो तं तहा चेव अहिणइदूण दरिसयंतो* काओ उज्जुओ णाम । तग्विवरीयो अणुज्जुओ णाम तत्थ जं उज्जवं पउणं होदूण मणस्स गदमठे जाणदि तमुजुमदिमणपज्जयणाणं। अचितियमचितियं विवरीयभावेण चितियं च अट्ठ ण जाणदि त्ति भगिद होदि । जमुज्जन पउणं होदूण चितिसं पउणंट चेव उल्लविदमट्ठ जागवि तं पि उजुर्मादमणपज्जयणाणं णाम । अबोल्लिदमद्धबोल्लिदं विवरीयभावेण बोल्लिदं च अळं ण जाणदि त्ति भणिदं होदि , ऋज्वी मतिर्यस्मिन् मनः-- पर्ययज्ञाने तत् ऋजमतिमनःपर्ययज्ञानमिति व्युत्पत्तः । उज्जुववचिगदस्स मणपज्जयणाणस्स उजुमदिमणपज्जयववएसो. ण पावदि ति ? ण, एत्थ वि ऋजुकायगत अर्थको विषय करता है; अतः ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान तीन प्रकारका है और इसीसे तदावरण कर्म भी तीन प्रकारका है । शंका- मनको ऋजुपना कैसे आता है ? समाधान - जो अर्थ जिस प्रकारसे स्थित है उसका उस प्रकारसे चिन्तवन करनेवाला मन ऋजु हैं और उससे विपरीत चिन्तवन करनेवाला मन अनुजु हैं। शंका - वचनमें ऋजुपना कैसे आता है ? समाधान - जो अर्थ जिस प्रकारसे स्थित है उसे उस प्रकारसे ज्ञापन करनेवाला वचन ऋजु है और उससे विपरीत वचन अनृजु है। शंका - कायमें ऋजुपना कैसे आता है ? समाधान - जो अर्थ जिस प्रकारसे स्थित है उसको उसी प्रकारसे अभिनय द्वारा दिखलानेवाला काय ऋजु है और उससे विपरीत काय अनृजु है । । उनसे जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर मनोगत अर्थको जानता है वह ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान है । वह अचिंतित, अर्धचिंतित और विरीपतरूपसे चिंतित अर्थको नहीं जानता है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ___ जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये व सरल रूपसे ही कहे गये अर्थको जानता है वह भी ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान है । यह नहीं बोले गये, आधे बोले गये और विपरीतरूपसे बोले गये अर्थको नहीं जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि, जिस मनःपर्ययज्ञानमें मति ऋजु है वह ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान है; ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है। ___शंका - ऋजुवचनगत मनःपर्ययज्ञानकी ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान संज्ञा नहीं प्राप्त होती ? * अ-आ-ताप्रतिषु ' दरिसमंतो ' इति पाठः। * अ-आप्रत्यो 'पउण्णं , इति पाठः [ 8 काताप्रत्यो 'चिंतियपउणं ' इति पाठ:1.ताप्रती 'पज्जववएसो ' इति पाठः । '. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६२. ) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमगपज्जयणाणपरूवणा ( ३३१ उज्जवमणेण विणा उज्जुववघणपवृत्तीए अभावादो । चितिदं कहिदे संते जदि जाणदि तो मणपज्जयणाणस्स सुदणाणत्तं पसज्जदित्ति वृत्तं ण, एदं रज्जं एसो राया वा केत्तियाणि वस्साणि णंददि त्ति चितिय एवं चेव बोल्लिदे संते पच्चक्खेण रज्जसंताणपरिमाणं रायउट्ठदि च परिच्छंवंतस्स सुदणाणत्तविरोहादो । + जमुज्जवभावेण चितिय उज्जुवसरूवेण अहिणइदमत्थं जाणदि तंपि उज्जुमदिम जपज्जवणाणं णाम, उजुमदीए विणा कायवावारस्स उजुवत्तिविरोहादो। जदि मणपज्जयणाणमदिय णोइंदिय-जोगादिणिरवेक्खं संतं उप्पज्जदि तो परोसि मण वयण कायवावारणिरवेक्खं संतं क्रिष्ण उप्पज्जदि ? ण, विउलमइमणपज्जयणाणस्स तहा उत्पत्तिदंसणादो 4 | उज्जुमदिमणपज्जयणाणं तण्णिरवेक्खं किष्ण उप्पज्जदे ? ण, मनः पर्ययज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमस्य वैचित्र्यात् । जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेस संबंधिसंठाणपरूवणा कदा, मणपज्जयणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदे समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर भी ऋजु मनके विना ऋजु वचनकी प्रवृत्ति नहीं होती। शंका - चिन्तित अर्थको कहनेपर यदि जानता है तो मन:पर्ययज्ञानके श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा; ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करनेपर यह ज्ञान चूंकि प्रत्यक्षसे राज्यपरम्पराकी मर्यादाको और राजाकी आयुस्थितिको जानता है, इसलिए इस ज्ञानको श्रुतज्ञान माननेमें विरोध आता है। जो ऋजुभावसे विचार कर एवं ऋजुरूपसे अभिनय करके दिखाये गये अर्थको जानता है वह भी ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि, ऋजु मतिके विना कायकी क्रियाके ऋजु होने में विरोध आता है । शंका - यदि मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय, नोइन्द्रिय और योग आदिकी अपेक्षा किये विना उत्पन्न होता है तो वह दूसरोंके मन, वचन और कायके व्यापारकी अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान नहीं, क्योंकि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानकी उस प्रकारसे उत्पत्ति देखी जाती है । शंका- ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान उसकी अपेक्षा किये विना क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमकी यह विचित्रता है । शंका जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोंके संस्थानका कथन किया है उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोंके संस्थानका कथन - तातो 'रायाउदि इंदियणोई XXX आ-काप्रत्यो: 'पच्चक्खेप, ताप्रती' पच्चक्खेप ( ण ) ' इति पाठः । इति पाठ: 1 ताप्रतावतः प्राक् 'जदि मणपज्जव ( गाणं ) इत्यधिक: पाठ उपलभ्यते 1 दिय - जोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि 1 णिरवेक्खिय विउलमदी ओहिं वा होदि नियमेण । गो. जी. ४४५, प्रतिषु तं णिरवेक्खं ' इति पाठः । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ६३. साणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण कीरदे ? ण, मणपज्जयणाणावरणीयकम्मक्खओवसमस्स दवमणपदेसे विसियअदृच्छदारविंदसंठाणे समुप्पज्जमाणस्स तत्तो पुधभूदसंठाणाभावादो। संपहि मणपज्जयस्त विसयभूदटुपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि-- ___मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि चिंता जीविद-मरणं लाहालाहं सुह-दुक्खं णयरविणासं देसाविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अइवुट्ठि अणावुट्ठि सवुठ्ठि दुवुठि सुभिक्खं वुब्भिक्खं खेमाखेम-भय-रोग कालसंपजुत्ते अत्थे वि जाणवि ।। ६३ ॥ मणेण मदिणाणेण । कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो? कज्जे कारणोवयारादो। मणम्मि भवं लिंगं माणसं, अधवा मणो चेव माणसो। पडिविदइत्ता घेत्तूण पच्छा मणपज्जयणाणेण जाणदि। मदिणाणेण परेसिं मणं घेत्तण चेव मणपज्जयणाणेण मणम्मि टिदअत्थे क्यों नहीं करते ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम विकसित आठ पाँखुडीयुक्त कमल जैसे आकारवाले द्रव्यमन प्रदेशमें उत्पन्न होता है, उससे इसका पृथग्भूत संस्थान नहीं होता। अब मनःपर्ययज्ञानके विषयभूत अर्थका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है-- मनके द्वारा मानसको जानकर मनःपर्ययज्ञान कालसे विशेषित दूसरोंकी संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश, कर्वटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुभिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग रूप पदार्थों को भी जानता है।। ६३ ॥ मनसे अर्थात् मतिज्ञानसे । शंका-- मतिज्ञानकी मन संज्ञा कैसे है ? समाधान-- कार्य में कारणके उपचारसे मतिज्ञानकी मन संज्ञा सम्भव है। मनमें उत्पन्न हुए चिह नको मानस कहते हैं । अथवा मनकी ही संज्ञा मानस है। 'पडिविंदइत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जानता है। मतिज्ञानके द्वारा दूसरोंके मानसको ग्रहण करके ही मनःपर्ययज्ञानके द्वारा मनमें स्थित अर्थोंको जानता है. यह सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपज्जव्वं च दब्वमणादो उप्पज्जदे णियमा | हिदि होदि हु दवमणं वियसियअटुच्छदारविदं वा 1 अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंधदो णियमा।। गो. जी. ४४१-४२. त प्रिती · विजाणदि ' इति पाठ: 1 म. बं. १, पृ. २४. कथमयमर्थो लभ्यते ? आगमाविरोधात् । आगमे हयुक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् जानाति इति । त. रा. १, २३, ९. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६३.) पडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा (३३३ जाणदि ति भणिदं होदि । एसो णियमो ण विउलमइस्स, अचितिदाणं पि अडाणं विसईकरणादो। कि किमेदेण जाणिज्जदि त्ति वृत्ते मणपज्जयणाणविसयदिसा परूविज्जदे उत्तरसुत्तखंडेण-- परेसिं सण्णा सदि मदि चिता। जेण सद्दकलावण अत्थो पडिवज्जाविज्जदि सो सहकलाओ सण्णा णाम । तमुजुर्मादमणपज्जयणाणी पच्चक्खं पेच्छदि । विट्ठ-सुदाणुभूविसयणाणविसेसिदजीवो सदी णाम । तं पि पच्चक्खं पेच्छदि । अमत्तो जीवो कधं मणपज्जयणाणेण मुत्तपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्टिमेण परिच्छिज्जदे ? ण, मुत्तट्टकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमत्तत्ताणुववत्तीदो । स्मृतिरमर्ता चेत्- न, जीवादो पुधभूदसदीए अणुवलंभा । अणागयत्थविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो मदीले णाम । तं पि पच्चक्खं जाणदि । वट्टमाणत्य* विसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो चिता णाम । तं पच्चक्खं पेच्छदि । एदासि तिविहाँचताणं विसई भदअळं पि जाणदि ति परूवणट्टमुत्तरसुत्तखंडं भणदि- आउपमाण जीविदं णाम । तस्स परिसमती मरणं णाम । एदाणि दो वि जाणदि । जीविदणिद्देसो चेव कायव्वो, एत्तियाणि वस्साणि एसो जीवदि त्ति वयणेण चेव मरणावउक्त कथनका तात्पर्य है। विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानका यह नियम नहीं है, क्योंकि, वह अचिन्तित अर्थोंको भी विषय करता है। इसके द्वारा क्या क्या जाना जाता है, ऐसा पूछनेपर सूत्रके उत्तरार्ध द्वारा मनःपर्ययज्ञानके विषयकी दिशाका निरूपण करते हैं- 'परेसिं सण्णा सदि मदि चिता'। जिस शब्दकलापके द्वारा अर्थका कथन किया जाता है उस शब्दकलापको संज्ञा कहते हैं। उसे ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी प्रत्यक्ष देखता है। दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है। इसे भी वह प्रत्यक्षसे देखता है। __ शंका-- यत: जीव अमूर्त है अतः वह मूर्त अर्थको जाननेवाले अवधिज्ञानसे नीचेके मनःपर्यनज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मोंके द्वारा अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता। शंका-- स्मृति तो अमूर्त है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि स्मृति जीवसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती । अनागत अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी मति संज्ञा है, इसे भी वह प्रत्यक्ष जानता है । वर्तमान अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी चिन्ता संज्ञा है, इसे भी वह प्रत्यक्ष देखता है। इन तीन प्रकारकी चिन्ताओंके विषयभूत अर्थको भी वह जानता है, इस बातका कथन करने के लिए आगे सूत्रखण्ड कहते हैं- आयुके प्रमाणका नाम जीवित और उसकी परिसमाप्तिका नाम मरण है। इन दोनोंको भी जानता है। शंका-- सूत्र में जीवित ' पदका ही निर्देश करना चाहिये था, क्योंकि, यह इतने वर्षों तक जियेगा, इस वचनसे मरणका ज्ञान हो जाता है ? * का-ताप्रत्यो: ' ट्ठिद ' इति पाठ:1 ४ काप्रती · सेदी , ताप्रती · सदि ' इति पाठ: 1 का-ताप्रत्योः 'मदि ' इति पाठः। प्रतिष 'वद्रमाणस्स ' इति पाठः । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ६३. गमादो ? ण एस दोसो, दव्वट्टिय-पज्जवट्टियणयावलंबिसिस्साणुग्गहढं तदुत्तीदो कदलीघादेण मरंताणमाउटिदिचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउदिदि चरिमसमयाणं समाणाहियरणाभावादो च । इच्छिवट्ठोवलद्धी लाहो णाम । तविवरीयो अलाहो । एदे वि पच्चक्खं जाणदि । एत्थ वि पुव्वं व परिहारो वत्तव्यो। इटुत्थसमागमो अणि?त्थविओगो च सुहं णाम । अणिटुत्थसमागमो इटुत्थविओगो च दुःखं णाम । एत्तिएण कालेण सुहं होदि त्ति कि जाणदि आहो ण जाणदि त्ति ? बिदिए ण पच्चक्खेण सुहावगमो, कालपमाणावगमाभावादो। पढमपक्खे कालेण वि पच्चक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा कालं होदि त्ति वोत्तुमजोगादो। ण च कालो मणपज्जयणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स वुत्तिविरोहादो ति? ण एस दोसो, ववहारकालेण एत्थ अहियारादो। ण च मुत्ताणं दव्वाणं परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि ति णियमो अस्थि, अन्ववत्थावत्तीदो। चतुर्गोपुरान्वितं नगरम् , तस्स विणासो गरविणासो। तमेत्तिएण कालेण होदि ___ समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंका अनुग्रह करने के लिए दोनों वचन कहे गये हैं ! दूसरे, कदलीघातसे मरनेवाले जीवोंका आयुस्थितिके अन्तिम समयमें मरण नहीं हो सकनेसे मरण और आयुस्थितिके अन्तिम समयका समानाधिकरण भी नहीं है, इसलिए भी उक्त दोनों ही वचन कहे गये हैं। इच्छित अर्थकी प्राप्तिका नाम लाभ और इससे विपरीत अर्थात् इच्छित अर्थकी प्राप्तिका न होना अलाभ है। इन्हें भी प्रत्यक्ष जानता है। यहांपर भी उपस्थित होनेवाली शंकाका परिहार पहिलेके ही समान करना चाहिए । इष्ट अर्थके समागम और अनिष्ट अर्थके वियोगका नाम सुख है । तथा अनिष्ट अर्थके समागम और इष्ट अर्थ वियोगका नाम दुःख है। ( इन्हें भी प्रत्यक्ष जानता है। ) शंका-- इतने कालमें सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नहीं जानता ? दूसरा पक्ष स्वीकार करनेपर प्रत्यक्षसे सुखका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके कालके प्रमाणका ज्ञान नहीं उपलब्ध होता। पहला पक्ष माननेपर कालका भी प्रत्यक्ष ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि, अन्यथा इतने कालमें सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा; यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु कालका मनःपर्ययज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है, क्योंकि, उसकी अमूर्त पदार्थमें प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहांपर व्यवहार कालका अधिकार है। दूसरे, काल संज्ञावाला मत द्रव्योंका परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। जिसमें चार गोपुर अर्थात् दरवाजे हों उसकी नगर संज्ञा है और उसका विनाश * प्रतिषु ' मरणावृट्ठिदि ' इति पाठ । वइपरिवेढो गामो जयरं चउग'उरेहि रमणिज्ज 1 गिरिसरिकदपरिवेढं खेडं गिरिवेढिदं च कब्बडयं ॥ पणसयपमाणगामप्पहाणभूदं मडंबणामं ख1 वररयणाणं जोणी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६३. ) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३३५ ति जाणदि । नगरट्ठिदी किष्ण परूविदा ? ण, नगरविणासावगमस्स नगरट्ठिदिअवगमेण विणा उप्पत्तिविरोहादो । विणट्ठ पि नगरमेत्तिएण कालेन होदित्ति जादि । सुते विणा कधमेदं नव्वदे । ण, एक्स्स सुत्तस्स देसामासियत्तादो । अंग- बंग- कलिंग - मगधादओ देसो णाम । एदेसि विणासो देसविणासो णाम । तं जादि । एत्थ वि पुव्वं व तिविहा परूवणा कायव्वा । देसस्स एगदेसो जणवओ णाम, जहा सूरसेण गांधार- कासी-आवंति आदओ । एदेसि विणासो जणवयविणासो । तं जादि । एत्थ वि तिविहा परूवणा कायव्वा । सरित्पर्वतावरुद्धं खेडं णाम । तस्स विणासो खेडविणासो । एदम्हादो उवरिमसव्वविणासेसु तिविहा परूवणा कायव्वा । पर्वतावरुद्धं कव्वडं नाम । तस्स विणासो कव्वडविणासो | पंचशतग्रामपरिवारितं मडंबं णाम । तस्स विणासो मडंबविणासो | नावा पादप्रचारेण च यत्र गमन तत्पत्तनं नाम । तस्स विणासो पट्टणविणासो । समुद्र - निम्नगासमीपस्थमवत रन्नौनिवह द्रोणामुखं नाम । तस्स विणासो दोणामुहविणासो । एदं देसामासियं काऊन एत्थ I नगर विनाश कहलाता है । वह नगरविनाश इतने कालमें होगा, इसे यह ज्ञान जानता है । शंका- सूत्र में नगरकी स्थिति क्यों नहीं कही ? समाधान -- नहीं, क्योंकि नगरकी स्थितिका ज्ञान हुए विना नगरके विनाशके ज्ञानकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । विनष्ट हुआ भी नगर इतने कालमें बनेगा, इसे भी जानता ? शंका --- सूत्रके विना यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि यह सूत्र देशामर्शक है । अंग, वंग, कलिंग और मगध आदि देश कहलाते हैं; इनके विनाशकी देशविनाश संज्ञा है। से वह जानता है । यहांपर भी पहले के समान तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । देशका एक देश जनपद कहलाता है । यथा शूरसेन, गान्धार काशी और अवन्ती आदि । इनका विनाश जनपदविनाश कहलाता है । उसे भी वह जानता है। यहांपर भी तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । नदी और पर्वतसे अवरुद्ध नगरकी खेट संज्ञा है, इसका विनाश खेटविनाश कहलाता है । इससे आगे के सब विनाशोंकी तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । पर्वतों से रुके हुए नगरका नाम कर्वट है, तथा उसका विनाश कर्वटविनाश कहलाता है । पांच सौ ग्रामोंसे घिरे हुए नगरका नाम मडंब है, तथा उसका विनष्ट होना मडंबविनाश कहलाता है । नौका द्वारा और पैरोंसे चलकर जहां जाते हैं उस नगरकी पत्तन संज्ञा है, तथा उसका विनष्ट होना पत्तनविनाश कहलाता है । जो समुद्र और नदीके समीप में स्थित है और जहां नौकाय आती जाती हैं उसकी द्रोणमुख संज्ञा है, तथा उसका विनष्ट होना द्रोणमुखविनाश कहलाता है । पट्टणणामं विणिद्दिट्ठ || दोणामुहाभिधाणं सरिवइवेलाए वेढियं जाण । संबाहणं ति बहुविहरण्णमहासेलसहरत्यं 11 ति प ४, १३९८ - १४००. काप्रतौ ' गावा' इति पाठ: 1 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड घोसविणास-संवाहविणास संणिवेसविणास-ढाणविणास-गामविणासादओ वत्तव्बा। तत्र घोषो नाम वजः। यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः । विषयाधिपस्य* अवस्थानं संनिवेशः। समुद्रावरुद्धः व्रजः स्थानं नाम, निम्नगावरुद्धं वा । वृतिपरिवृतो ग्रामः । एदेसिमुप्पाद-दिदि भंगे जाणदि त्ति भणिदं होदि । प्रमाणातिरिक्ता वष्टिर्वर्षणमतिवष्टिः। आवष्टिवर्षणम्, तस्य अभावः अनावृष्टिः । सस्यसम्पादिका वृष्टिः सुवृष्टिः । अतिवृष्टयवृष्टिलिंगा स्वगतक्षारत्वादिगुणेन सस्यसम्पादने अक्षमा वा दुर्वष्टिः । सालि व्रीहि-जव-गोधमादिधण्णाणं सुलहत्तं सुभिक्खं णाम । तग्विवरीयं दुभिक्खं णाम । मारीदि डमरादीण*मभावो खेमं णाम तविवरीदमक्खमं । परचक्कागमादओ भयं णाम । खय-कुट्र-जरादओ रोगो णाम । एदे अत्थे कालसंपजुत्ते कालेण विसेसिदे उजुमदिमणपज्जयणाणी पच्चक्खं जाणदि । एदेसिमुप्पाद-टिदि-भंगे जाणदि ति भणिदं होदि । किंचि भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि इसे देशामर्शक मानकर यहांपर घोष विनाश, संवाहविनाश, संनिवेश विनाश, स्थानविनाश और ग्रामविनाश आदिका कथन करना चाहिए । इनमेंसे घोषका अर्थ व्रज है। जहाँपर शिरसे ले जाकर धान्य रक्खी जाती है उसका नाम संवाह है। देशके स्वामीके रहने के स्थानका नाम संनिवेश है । समुद्रसे अवरुद्ध अथवा नदीसे अवरुद्ध ब्रजका नाम स्थान है। जो वाडीसे घिरा हो उसका नाम ग्राम है । इनके उत्पाद, स्थिति और विनाशको वह जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रमाणसे अधिक वर्षा का होना आवृष्टि है । आवृष्टिका अर्थ वर्षा है, उसका नमी होना अनावृष्टि है। जिस वर्षासे धान्यकी अच्छी उत्पत्ति होती है वह सुवृष्टि है। अतिवृष्टि और अवृष्टि जिसका चिन्ह है अथवा जो स्वगत क्षारत्व आदि गुणके कारण धान्यके उत्पन्न करने में असमर्थ है वह दुर्वष्टि हैं । शालि, व्रीहि, जौ और गेहूं आदि धान्योंकी सुलभताका नाम सुभिक्ष तथा इससे विपरित दुर्भिक्ष कहलाता है। मारी, ईति, व राष्ट्रविप्लव आदिके अभावका नाम क्षेम है, तथा इससे विपरीत अक्षेम है। परचक्रके आगमन आदिका नाम भय है । क्षय, कुष्ट और ज्वर आदिका नाम रोग है। इन अर्थोंको 'कालसंपजुत्ते ' अर्थात् कालसे विशेषित होनेपर ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी प्रत्यक्ष जानता है । इनकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशको जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और भी-व्यक्तमनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे संबंध रखनेवाले अर्थको वह प्रतिषु 'विषयाविषस्य ' इति पाठ: 1४ प्रतिष 'वृत्ति' इति पाठ:1.आप्रती ' अतिवृष्टावृष्टि लिंगा',का-ताप्रत्यो: ' अतिवृष्टयावृष्टिलिंगा 'इति पाठः। * प्रतिष' मारीदिदमरादीण-' इति पाठः । ताप्रतौ 'भगो' इति पाठः । .काप्रती 'वद्रमाणाणं 'इति पाठः। . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६४. ) पडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३३७ णो आवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदिर ।। ६४ ॥ किचि अत्थं उजमदिणाणसंबद्धं भओ पुणो वि भण्णिस्सामो*। तं जहा-- कार्ये कारणोपचाराच्चिन्ता मनः, व्यक्तं निप्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मनः येषां ते व्यक्तमनसः, तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च सम्बन्धि वस्त्वन्तरं जानाति, नो अव्यक्तमनसां जीवानां सम्बन्धि वस्त्वन्तरम्। तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववएसो ? ण, 'एए छच्च समाणा' ति विहिददीहत्तादो। अथवा, वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसम्बन्धिनमर्थ जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति सूत्रार्थो व्याख्येयः। . . दव्वदो जहण्णण ओरालियसरीरस्स एयसमयणिज्जरमणंतागंतविस्सासोवचयपडिबद्धं जाणदि । उक्कस्सेण एयसमयइंदियणिज्जरं जाणदि । तेसि मज्झिमदव्ववियप्पे अजहण्णअणुक्कस्सउजुमदिमणपज्जवणाणी जाणदि । एवं जहण्णुक्कस्सदव्ववियप्पा सुत्ते असंता वि पुवाइरियोवदेसेज परूविदा । संपहि जहण्णुक्कस्सकालपमाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि--- जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको नहीं जानता ।६४। ___ 'किंचि' अर्थात् ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान सम्बन्धी अर्थको 'भूयः' अर्थात् फिरसे भी कहते हैं। यथा- कार्यमें कारणका उपचार होनेसे चिन्ताको मन कहा जाता है। 'व्यक्त' का अर्थ निष्पन्न होता है। अर्थात जिनका मन संशय. विपर्यय और अनध्यबसायसे रहित है वे व्यक्त मनवाले जीव हैं; उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवोंसे तथा स्वसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको जानता है । अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको नहीं जानता है, क्योंकि, इस प्रकारके अर्थको जाननेका इस ज्ञानका सामर्थ्य नहीं है। शंका-- मनको मान व्यपदेश कैसे किया है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ‘एर छच्च समाणा' इस नियमके अनुसार यहां दीर्घ हो गया है। अथवा, वर्तमान जीवोंके वर्तमान मनोगत त्रिकाल संबंधी अर्थको जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषयको नहीं जानता; इस प्रकार सूत्रके अर्थका व्याख्यान करना चाहिए । द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे अनंतानंत विस्रसोपचयोंसे संबंध रखनेवाले औदारिकशरीरके एक समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको जानता है, और उत्कृष्ट रूपसे एक समयमें होनेवाले इंद्रियके निर्जराद्रव्यको जानता है । इन उत्कृष्ट और जघन्यके मध्यके जितने द्रव्यविकल्प हैं उन्हें अजघन्यानुत्कृष्ट ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी जानता है । इस प्रकार यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके विकल्प सूत्र में नहीं कहे हैं तथापि पूर्व आचार्योंके उपदेशसे उनका कथन किया है। अब जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- * काप्रतौ ‘णाअवट्ट माणजीवाणं 'ताप्रती 'अवत्तमाणजीवाणं' इति पाठ 1 ४ म.बं. १, पृ. २४. व्यक्तमनसा जीवनामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् 1 त. रा. १, २३, ९. *ताप्रती 'भण्णिस्सामो' इति पाठ 18 अवरं दव्वमुरालियसरीरणिज्जिण्णंसमयबद्धं तू 1 चक्खि दियणिज्जि उक्करणं उमदिस्स हवे 1 गो, जी. ४५०. तत्थ दवओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पास। नं. सू. १८. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ६५. कालयो जहण्णण दो-तिम्णिभवग्गहणाणि ॥६५॥ जदि दो चेव भवग्गहणाणि जाणदि तो ण तिण्णि जाणदि। अह तिण्णि जाणदि तो ण दोण्णि, तिण्हं दुम्भावविरोहादो ति? एस दोसो, वट्टमाणभवग्गहणेण विणा दोणि, तेण सह तिण्णि भवग्गहणाणि जाणदि ति तदुत्तीदो। उक्कस्सेण सत्तभवम्गहणाणि ॥६६॥ एत्थ वि वट्टमाणभवग्गहणेण विणा सत्त, अण्णहा अट्ट जाणदि ति घेत्तव्वं । अणि. यदकालभवग्गहणणिद्देसादो एत्थ कालणियमो पत्थि त्ति अवगम्मदे । जीवाणं गदिमागवि पदुप्पादेवि ॥ ६७ ॥ एवम्हि काले जीवाणं गविमादि भुत्तं कयं पडिसेविवं च पदुप्पादेदि जागदि त्ति घेत्तव्वं । खेत्तवो ताव जहण्णेण गाउवधत्तं उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा ॥ ६८॥ कालकी अपेक्षा जघन्यसे वह दो-तीन भवोंको जानता है । ६५ । शंका - यदि दो ही भवोंको जानता है तो वह तीन को नहीं जान सकता, और यदि तीनको जानता है तो दोको नहीं जानता, क्योंकि, तीनको दो रूप मानने में विरोध आता है। समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह वर्तमान भवके विना दो भवोंकी और उसके साथ तीन भवोंकी बात जानता है, इसलिए दो और तीन भव कहे हैं। उत्कर्षसे सात और आठ भवोंको जानता है । ६६ । यहांपर भी वर्तमान भवके विना सात, अन्यथा आठ भवोंको जानता है; ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अनियत कालरूप भवग्रहणका निर्देश होनेसे यहां कालका नियम नहीं है, ऐसा जाना जाता है। जीवोंकी गति और आगतिको जानता है । ६७ ।। इस कालके भीतर जीवोंकी गति, आगति, भुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थको 'पदुप्पादेदि' अर्थात् जानता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे गव्यतिपृथक्त्वप्रमाण क्षेत्रको और उत्कर्षसे योजन पृथक्त्वके भीतरको बात जानता है, बाहरकी नहीं । ६८। म. वं.१ प. २५. तत्र ऋजमतिर्मन पर्य यः कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वि-त्रीणि भवग्रहजाणि, उत्कर्षेण सप्ताष्टौ गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । स .सि. १-२३. त रा १, २३, ९ कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभाग, उक्कोंसेण वि पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ 1नं सू १८.. म. बं. १, पृ. २५ क्षेत्रतो जघन्येन गव्यतिपृथक्त्वम् उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः । स. सि. १-२३, त रा १,२३, ९ खेत्तओ णं उज्जुमई अ जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोस्सेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पूढवीए उवरिम Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ६८.) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा (३३९ बेहि दंड सहस्तेहि एयं गाउअं होदि । तमहि गुणिदे गाउअपुधत्तं । एदस्स घणमेत्तं उज्जुमदिमणपज्जयणाणी जहण्णण जाणदि। ओहिणाणिस्स जहण्णखेत्तमंगलस्स असंखेज्जदिभागो त्ति वुत्तं। तक्कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। इमस्स पुण ओहिणाणीदो ऊणयरस्स, खतं गाउअपुधत्तं, कालो दो-तिणिभवग्गहणाणि त्ति भणिदं। कधमेदं घडदे ? ण, दोणं णाणाणं भिण्णजादित्तादो। . तमोहिणाणं णाम संजदासंजदविसयं, मणपज्जयणाणं पुण संजविसयं। तदो भिण्णजादित्तं गम्मदे। तेण दोण्णं णाणाणं ण विसएहि समाणत्तं । किच- जहा क्खिदियं रसादिपरिहारेण रूवं चेव परिच्छिददि तहा मणपज्जयणाणं पि भवविसयासेसअत्थपज्जाएहि विणा जेण भवसण्णिददो-तिण्णिवंजणपज्जायाणं चेव परिच्छेदयं, तेण दमोहिणाण सरिसमिदि। ण च बहुएण कालेण णिप्पण्णसत्तभवग्गहणाणमपरिच्छेदयं, तस्स अविसईकदअसेसअस्थपज्जायस्स भवसण्णिदवंजणपज्जाए वावदस्स बहुसमयणिप्फण्णभवेसु पत्तिविरोहाभावादो। अहि दंडसहस्सेहि जोयणं, तमहि गुणिदे जोयणपुधत्तभंतरदंडाणं पमाणं होदि । एदेसि घणो* उजुमदिमणपज्जयणाणस्स उक्कस्सक्खेतं होदि। दो हजार धनुषकी एक गव्यूति होती हैं। उसे आठसे गुणित करनेपर गव्यूतिपृथक्त्व होता है। इसके घनप्रमाण क्षेत्रको ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी जघन्यसे जानता है। शंका-- अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और काल उसका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। परंतु अवधिज्ञानसे अल्पतर इस ज्ञानका क्षेत्र गव्यतिपृथक्त्व कहा है और काल दो तीन भवग्रहणप्रमाण कहा है। यह कैसे बन सकता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न भिन्न जातिवाले हैं। वह अवधिज्ञान संयत व असंयत सम्बन्धी है, परन्तु मनःपर्ययज्ञान संयतसम्बन्धी है। इससे इनकी पृथक् पृथक जाति जानी जाती है। इसलिए दोनों ज्ञानोंमें विषयकी अपेक्षा समानता नहीं है। दूसरे, जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय रसादिको छोडकर रूपको ही जानती है उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान भी भवविषयक समस्त अर्थपर्यायोंके विना यतः भवसंज्ञक दो तीन व्यञ्जनपर्यायोंको ही जानता है, इसलिये वह अवधिज्ञानके समान नहीं है । बहुत कालके द्वारा निष्पन्न हुए सात आठ भवग्रहणोंका यह अपरिच्छेदक है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अशेष अर्थपर्यायोंको नहीं विषय करनेवाले और भवसंज्ञक व्यंजनपर्यायोंको विषय करनेवाले उस ज्ञानकी बहुत समयोंसे निष्पन्न हुए भवोंमें प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। आठ हजार धनुषोंका एक योजन होता है। उसे आठसे गुणित करनेपर योजनपृथक्त्वके भीतर धनुषोंका प्रमाण होता है। इनका धन ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। हेदिल्ले खुड्डुगपयरे, उढ्ढं जाव जोइसस्म उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचेदिआणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ न. सू १८. ताप्रती 'ऊणयस्स ' इति पाठ: 1४ ताप्रतौ सेसमत्थ-' इति पाठ: 1 अ-काप्रत्योः 'णिप्पण्णा' इति पाठः। प्रतिषु 'वृप्पत्तिविरोहाभावादो' इति पाठः। * प्रतिषु 'एदेसि पुणो ' इति पाठ 1 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तं सव्वमजमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥६९॥ __ तं सव्वं उजुमदिमणपज्जयणाणं उजुम दिमणपज्जयणाणावरणीयं कम्मं होदि । कुदो गाणस्स कम्मत्तं ? आवरणिज्जे आवरणोवयारादो । कुदो एगवयणणिद्देसो ? दव्वट्ठियणयावलंबणादो। जं तं विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं तं छविहं-उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुगं कायगज्जुदं जाणदि ॥७० ।। ____ जहत्थो मण वयण-कायवावारो उज्जुवो णाम । संशय-विपर्ययानध्यवसायरूपो मनोवाक्कायव्यापारः अनजः। अद्धचितनचितनम वा अनध्यवसायः। दोलायमानप्रत्ययः संशयः। अयथार्थचिता विपर्ययः । चितिदूण जं विस्सरिदं तं पि जाणदि, जं पि चितइस्सिहिदि तं पि जाणदि; तीदाणागयपज्जायागं सगसरूवेण जोवे संभवादो। जाणणकम्मपरूवणट्ठमुवरिमसुत्तं भणदि मणेण माणसं पडिविवइत्ता ।। ७१ ॥ वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है। ६९ । वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है । शंका-- ज्ञानको कर्मपना कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-- आवरणीयमें आवरणके उपचारसे ज्ञानको कर्मपना प्राप्त होता है । शंका-- सूत्र में एक वचनका निर्देश किस कारणसे किया है ? समाधान-- द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लेकर एक वचन का निर्देश किया है । जो विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है- ऋजुमनोगतको जानता है, अनजुमनोगतको जानता है, ऋजुवचनगतको जानता है, अनजुवचनगतको जानता है, ऋजुकायगतको जानता है और अनजुकायगतको जानता है । ७० । यथार्थ मन, वचन और कायका व्यापार ऋजु कहलाता है । तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मन, वचन और कायका व्यापार अनुज कहलाता है । अर्धचिन्तन या अचिन्तनका नाम अनध्यवसाय है । दोलायमान ज्ञानका नाम संशय है । अयथार्थ चिन्ताका नाम विपर्यय है। विचार करके जो भूल गये हैं उसे भी यह ज्ञान जानता है। जिसका भविष्य में चिन्तवन करेंगे उसे भी जानता है, क्योंकि, अतीत और अनागत पर्यायोंका अपने स्वरूपसे जीवमें पाया जाना सम्भव है। अब जानने रूप क्रियाके कर्मका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- मनके द्वारा मानसको जानकर ॥ ७१ ॥ * म. . १, पृ. २६. द्वितीयः षोढा ऋजु-वक्कमनोवाक्कायभेदात् । त रा. १. २३, १०. * म बं. १, पृ. २४. . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ७२. ) tasaणुओगद्दारे विउलमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३४१ मणेण मदिणाणेण, माणसं जोइंदियं मणोवग्वणखंधनिव्वत्तिदं, पडिविदइत्ता घेतूण पच्छा मणपज्जयणाणेण जाणदि । णोइंदियर्मादिदियं कथं मदिणाणेण घेप्पदे? ण ईहालिगावट्ठेभबलेण अदिदिएसु वि अत्थेसु वृत्तिदंसणादो। अधवा, मणेण मदिणाणेण माणसं मदिणाणविसयं पडिविदइत्ता उवलंभिय पच्छा मणपज्जयणाणं पयट्टदि ति वत्तव्वं । जदि मणपज्जयणाणं मदिपुव्वं होदि तो तस्स सुदणाणत्तं पसज्जदित्ति णासंकणिज्जं, पचचक्खस्स अवगहिदाणवर्गहिदत्थेसु वट्टमाणस्स मणपज्जयणाणस्स सुदभावविरोहादो | परेसि सण्णा सदि मदि चिंता जीविद मरणं लाहालाहं सुहदुक्खं जयरविणासं बेसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अविवुट्ठि अणावुद्धि सवुट्ठि बुबुट्ठि सुभिक्खं बुभिक्खं खेमाखेमं भय-रोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणवि ।। ७२ ।। एदस्स सुत्तस्स अत्थो जहा पुव्वं परुविदो तहा परूवेदव्वो । मन अर्थात् मतिज्ञानके द्वारा मानसको अर्थात् मनोवर्गणा के स्कन्धोंसे निष्पन्न हुई इन्द्रियको 'पडिदिइत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययज्ञानके द्वारा जानता है । शंका-- नोइन्द्रिय अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञानके द्वारा कैसे ग्रहण होता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ईहारूप लिंगके अवलम्बनके बलसे अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । अथवा, मन अर्थात् मतिज्ञानके द्वारा मानस अर्थात् मतिज्ञान विषयको ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है, ऐसा कथन करना चाहिए । शंका -- यदि मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो उसे श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है ? ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, अवग्रहण किये गये और नहीं अवग्रहण किये गये पदार्थों में प्रवृत्त होनेवाले प्रत्यक्षस्वरूप मन:पर्ययज्ञानको श्रुतज्ञान मानमें विरोध आता है । समाधान वह दूसरे जीवोंकी कालसे विशेषित संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपद विनाश, खेट विनाश, कटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग रूप इन अर्थोंको जानता है ।७२ | इस सूत्र का अर्थ जिस प्रकार पहले कह आयें हैं उसी प्रकार यहां पर भी उसका कथन करना चाहिए । - म. बं. १, पृ. २४- २५ तथाऽऽत्मनः परेषां च चिन्ता जीवित मरण-सुख-दुःख-लाभालाभादीन् अन्य - क्तमनोभिर्व्यक्तमनोभिश्च चिन्तितान् अचिन्तितान् जानाति विपुलमतिः । त. रा. १,२३, १०. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ७३. किंचि भूओ - अप्पणो परेसि च वत्तमाणाणं *जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि ॥ ७३ ॥ fare अपरिणयं विस्सरिदचितियवत्थु चिताए* अवावदं च मणमव्वत्तं, अवरं वत्तं । वत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाणं चिताविसयं मणपज्जयणाणी जादि । जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चितिदमद्धचितिदं चितिज्जमाणमद्धचितिज्जमाणं चितिहिदि अद्धं चितिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिदं होदि कालदो ताव जहणेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि ॥ ७४ ॥ सुगममेदं । जीवाणं गदिमाग पदुप्पावेदि ॥ ७५ ॥ एहि काले जीवाणं गदिमागद भुक्तं कथं पडिसेविदं च पञ्चवखं पटुप्पादेदि जाणदि त्ति भणिदं होदि । और भी व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है । ७३ । चिन्ता में अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तुके स्मरणसे रहित और चिन्तामें अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है । इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है । व्यक्त मनवाले और अव्यक्त मनवाले जीवोंके चिन्ता विषयको मन:पर्ययज्ञानी जानता है । ऋजु और अनृजु रूपसे जो चिन्तित या अर्ध चिन्तित है, वर्तमान में जिसका विचार किया जा रहा है या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्य में जिसका विचार किया जायेगा या आधा विचार किया जायेगा उस सब अर्थको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कालको अपेक्षा जघन्यसे सात आठ भवोंको और उत्कर्षसे असंख्यात भवोंको जानता है । ७४ । यह सूत्र सुगम है । जीवोंकी गति और अगतिको जानता है । ७५ । इतने कालके भीतर जीवोंकी गति, आगति, भुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थको प्रत्यक्ष ' पदुप्पादेदि ' अर्थात् जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । का तात्यो: ' वट्टमाणाणं ' इति पाठ 1 का-ताप्रत्या: ' अवट्टमाणाणं ' इति पाठ: 1 ताप्रती चितियवत्थु, चिताए ' इति पाठ: 1 अ आ-काप्रति 'वत्तमण्णाणमवत्तमण्णाणं ' इति पाठः । अप्रती जीवाणं जाणदि ' इति पाठ । चितियमचितियं वा अद्धं चितियमणेय भेयगयं ] ओहि वा विउलमदी लहिऊण विजाणए पच्छा। गो. जी. ४४८. म. बं. १, पृ २६. द्वितीयं कालतो जघन्येन सप्ताष्टो भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । स. सि. १-२३. त. रा. १, २३, १० तं चैव विलमई अब्भहियतरागं विउलतरांग विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ 1 नं सू. १८ " . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ७७.) पयडिअणुओगद्दारे विउलमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३४३ खेत्तदो ताव जहण्णण जोयणपुधत्तं ।। ७६ ।। सुगमं। उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो णो बहिद्धा ७७। माणसुत्तरसेलो एत्थ उवलक्खणभूदो, ण तंतो; तेण पणदालीसजोयणलक्खखेत्तभंतरे द्विवाणं चिताविसयं तिकालगोयरं जाणवि ति भणिवं होदि । तेण माणुसोत्तरसेलस्स बाहिरे वि सगविसई भदक्खेत्तंतो टाइदूण चितेमाणदेव तिरिक्खाणं चिताविसयं पि विउलमदिमणपज्जयणाणी जाणदि त्ति सिद्ध। के वि आइरिया माणसुत्तरसेलस्स अभंतरे चेव जाणदि ति भणंति । तेसिमहिप्पाएण माणुसोत्तरसेलादो बाहिरभावावगमो थि। माणुसुत्तरसेलमंतरे चेव द्वाइदूण चितिदं जाणदि त्ति के वि आइरिया भणंति । तेसिमहिप्पाएण लोगंतट्ठियअत्थो वि पच्चक्खो*। एदे दो वि अत्था ण समंजसा, सगणाणपहुपदलंतोपदिददव्वस्स अणवगमाणुववत्तीदो। ण च मणपज्जयणाणं माणसत्तरसेलेण पडिहम्मइ, अपरायत्तत्तण ववहाणविवज्जियस्स बाहाणुववत्तीदो। ण च लोगंतट्ठियमत्थं जाणंतो तत्थट्टिय क्षेत्रको अपेक्षा जघन्यसे योजनपृथक्त्वप्रमाण क्षेत्रको जानता है ॥ ७६ ।। यह सूत्र सुगम है। उत्कर्षसे मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता ।। ७७ ॥ मानुषोत्तर शैल यहां उपलक्षणभूत है, वास्तविक नहीं है। इसलिये पैंतालीस लाख योजन क्षेत्रके भीतर स्थित जीवोंके चिन्ताको विषयभूत त्रिकाल गोचर पदार्थको वह जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे मानुषोत्तर शैलके बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्रके भीतर स्थित होकर विचार करनेवाले देवों और तिर्यञ्चोंकी चिन्ताके विषयभत अर्थको भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी जानता है, यह सिद्ध होता है। कितने ही आचार्य मानुषोत्तर शैलके भीतर ही जानता है, ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार मानुषोत्तर शैलसे बाहरके पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता । मानुषोतर शैलके भीतर ही स्थित होकर चिन्तित अर्थको जानता है, ऐसा भी कितने ही आचार्य कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार लोकके अन्त में स्थित अर्थको भी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु ये दोनों ही अर्थ ठाक नहीं हैं, क्योंकि, तदनुसार अपने ज्ञानरूपी पुष्पदलके भीतर आये हुए द्रव्यका अनवगम बन नहीं सकता । मनःपर्ययज्ञान मानुषोत्तर शैलके द्वारा रोक दिया जाता है, यह तो कुछ संभव है नहीं; क्योंकि, स्वतन्त्र होनेसे व्यवधानसे रहित उक्त जानकी प्रवृत्ति में बाधाका होना संभव नहीं हैं। दूसरे, लोकके अन्त में स्थित अर्थको जाननेवाला यह ज्ञान वहां स्थित चित्तको नहीं जाने, म. बं. १, पृ. २६ क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण मानषोत्तरशैलस्याभ्यन्तरं न बहिः 1 स. सि. १-२३ त. रा. १, २३, १० तं चेव विउलमई अड्राइज्जेहिमंगलेहि अब्भहिअतरं विउलतरं विसूद्धतरं वितिमिरतराग खेत्तं जाणइ पासइ। नं. सू. १८. रणरलोए त्ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वस्स । जम्हा तग्घणपदरं मणपज्जयखेत्तमुद्दि] 11 xxxxx तदपि कुन: मानुषोत्तराबहिश्चतु:कोणस्थिततिर्यगमराणां परिचिन्तितानां उत्कृष्टविपूलमतेः परिज्ञानात 1 गो. जी. जी. प्र. ४५६. * प्रतिषु ‘पच्चक्खाए' इति पाठ 1 अ-आ-काप्रतिषु णाणवहुवदलंतो' इति पाठः । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ) (५,५, ७८. चित्तं ण जाणदि, सगखेत्तं तो ट्ठियसगविसयत्यस्स अणवगमाणुववत्तीदो। ण च एवं, खेत्तपमाणपरूवणाए विहलत्तावत्तदो । पणदालीसजोयणलक्खब्भंतरे ट्ठाइदूण चितयं जीवेहि चितिज्जमाणं दव्वं जदि मणपज्जयणाणपहाए ओदुध्दखे तब्भंतरे होदि तो जाद, अण्णा ण जागदित्ति भणिदं होदि । छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तं सव्वं विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ७८ ॥ सुगममेदं, पुव्वं वृत्तत्यत्तादो । एवं मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थका अनवगम न नहीं सकता । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर क्षेत्र के प्रमाणकी प्ररूपणा निष्फल ठहरती है । इसलिए पैंतालीस लाख योजनके भीतर स्थित होकर चिन्तवन करनेवाले जीवोंके द्वारा विचार्यमाण द्रव्य यदि मन:पर्ययज्ञानकी प्रभासे अवष्टब्ध क्षेत्रके भीतर होता है तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान कितने क्षेत्रके विषयको जानता है, इस बातका यहां विचार हो रहा है । सूत्रमें इतना ही कहा हैं कि मानुषोत्तर शैलके भीतर के विषयको जानता है, बाहरके विषयको नहीं जानता । वीरसेन स्वामी इसका यह व्याख्यान करते हैं कि यहां मानुषोत्तर शैल पद उपलक्षण है और इससे पैंतालीस लाख योजनका ग्रहण होता है । इसलिए पैंतालीस लाख योजनके भीतर जो भी चित्तगत पदार्थ स्थित हो उसे वह जानता है । पैंतालीस लाख योजनमें मानुषोत्तर शैलकी कोई मर्यादा नहीं । मानुषोत्तर शैलके बाहर भी यह क्षेत्र हो सकता है । इस विषयको दो व्याख्यान और उपलब्ध होते हैं। प्रथम तो यह कि ' मानुषोत्तर शैल' पद उपलक्षण नहीं है, किंतु इसके भीतरके चित्तगत पदार्थको ही जानता है, और दूसरा यह कि इसके भीतर स्थित जीवोंके चित्तगत पदार्थको यद्यपि जानता है फिर भी चित्तगत वह पदार्थ लोकान्त तकका भी यदि हो तो उसे भी जानता है । किन्तु वीरसेन स्वामी इन दोनों व्याख्यानोंको स्वीकार नहीं करते । प्रथम मतके सम्बन्ध में उनका कहना है कि मानुषोत्तर शैलको यदि मर्यांदा माना जाता है तो इसका यह अर्थ होता है कि वह शैल मन:पर्ययज्ञानमें रुकावट करता है। ऐसा हो नहीं सकता, क्योकि, मन:पर्ययज्ञान पराधीन ज्ञान नहीं है । इसलिए यहां मानुषोत्तर शैलको पैंतालीस लाख योजन क्षेत्रका उपलक्षण ही मानना चाहिए । दूसरे मतके संबंध में उनका कहना यह है कि यदि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान मानुषोत्तर शैलके भीतर स्थित जीवोंके चित्तगत लोकान्त तकके विषयको जानता है तो वह लोकान्त तकक जीवोंके चित्तको भी जान सकता हैं, और ऐसी हालत में फिर क्षेत्रकी मर्यादा मानुषोत्तर शैल तककी नहीं बन सकती । इसलिए यही निश्चित होता है कि मन:पर्ययज्ञानका जो क्षेत्र है उसके भीतर चित्तगत विषयको यदि वह उसके क्षत्र के भीतर हो तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता । यह सब विपुलमतिमनः पर्ययज्ञानावरणीय कर्म है ॥ ७८ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका अर्थ पहिले कहा जा चुका है। इस प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मका कथन किया । 8 प्रतिषु ' विहल्लत्तावत्तदो ' इति पाठ [ ताप्रतौ ' वृत्तत्थौदो ' इति पाठ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ पर्याअणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? । ७९ । सुगममेदं पुच्छासुतं । केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पयडी ।। ८० ।। कुदो ? बहूणं केवलणाणाणमभावादो । संपहि केवलणाणस्स लक्खणपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि --- ५, ५, ८१. ) तं च केवलणाणं सगलं संपूण्णं असवत्तं * ॥ ८१ ॥ अखंडत्वात् सकलम् । कथमस्याखंडत्वम् ? समस्ते बाह्यार्थे अप्रवृत्तौ सत्यां खंडता । न च तदस्ति, विषयीकृताशेष त्रिकाल गोचरबाह्यार्थत्वात् । अथवा, कलास्तावदववा द्रव्य-गुण- पर्य्यय भेदावगमान्यथानुपपत्तितोऽवगतसत्त्वाः, सह कलाभिर्वर्त्तत इति सकलम् । अनन्तदर्शन- वीर्य विरति क्षायिक सम्यक्त्वाद्यनन्तगुणैः सम्यक् परस्परपरिहारलक्षणविरोधे सत्यपि सहानवस्थानलक्षणविरोधाभावेन पूर्णत्वात् सम्पूर्ण केवलज्ञानम्, सकलगुणनिधानमिति यावत् । सपत्नाश्शत्रवः कर्माणि न विद्यते सपत्नाः यस्मिन् केवलज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। ७९ ।। यह पृच्छासूत्र सुगम है । केवलज्ञानावरणीय कर्मको एक ही प्रकृति है ॥ ८० ॥ क्योंकि, केवलज्ञान बहुत नहीं हैं । अब केवलज्ञानका लक्षण कहने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं- वह केवलज्ञान सकल है, सम्पूर्ण है, और असपत्न है ।। ८१ ।। अखण्ड होने से वह सकल है । शंका -- यह अखण्ड कैसे है ? समाधान-- समस्त बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति नहीं होनेपर ज्ञानमें खण्डपना आता है, सो वह इस ज्ञान में सम्भव नहीं है; इस ज्ञानके विषय त्रिकालगोचर अशेष बाह्य पदार्थ हैं । अथवा, द्रव्य, गुण और पर्यायोंके भेदका ज्ञान अन्यथा नहीं बन सकने के कारण जिनका अस्तित्व निश्चित है ऐसे ज्ञानके अवयवोंका नाम कला है; इन कलाओंके साथ वह अवस्थित रहता है इसलिए सकल है । ' सम् ' का अर्थ सम्यक् है, सम्यक् अर्थात् परस्परपरिहार लक्षण विरोध के होनेपर भी सहानवस्थान लक्षण विरोधके न होनेसे चूंकि यह अनंतदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि अनंत गुणोंसे पूर्ण है; इसीलिये इसे संपूर्ण कहा जाता है । वह सकल गुणों का निधान है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सपत्नका अर्थ शत्रु है, केवलज्ञानके शत्रु कर्म हैं । वे इसके नहीं रहे हैं, इसलिए केवलज्ञान असपत्न हैं। उसने अपने प्रतिपक्षी संपुष्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं 1 लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयब्नं 1 गो. जी. ४५९. अ-आ-काप्रतिषु ' कलास्थावयवा तातो' कलास्था (स्तावद ) वयवा ' इति पाठ: 1 * अ-आ- काप्रतिषु 'सयत्नाः शत्रवः कर्म्मणि' ताप्रती ' सपत्नाश्शत्रवः, ' कर्मणि' इति पाठ: 1 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ८२. तरसपत्नं केवलज्ञानम् निर्मूलोन्मूलितस्वप्रतिपक्षघातिचतुष्कमिति यावत् । एवं केवलगाणं सयं चेव उप्पज्जवि त्ति जाणावणठें तन्विसयपरूवणळंच उत्तरसुत्तं भणदि सई भयवं उप्पण्णणाणवरिसी सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स आगविं गदि चयणोववादं बंधं मोक्खं इड्ढि हिदि जुदि अणुभाग तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविवं आदिकम्मं अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जागदि पस्सवि विहरद ति ॥ ८२ ॥ ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भगः, सोऽस्यास्तीति भगवान् । उत्पन्नज्ञानेन द्रष्टुं शीलमस्येत्युत्पन्नज्ञानदी, स्वयमुत्पन्नज्ञानदर्शी भगवान् सर्वलोकं जानाति । कथं ज्ञानस्य स्वयमत्पत्तिः ? न, कार्य-कारणयोरेकाधिकरणत्वतो भेदाभावात् । सौधर्मादयो देवाः, असुराश्च भवनवासिनः। देवासुरवचनं देशामर्शकमिति ज्योतिषां व्यंतराणां तिरश्चां च ग्रहणं कर्तव्यम् । सदेवासुरमानुषस्य लोकस्य आगति जानति । अण्णगदीदो इच्छिदगदीए आगमणमागदी गाम । इच्छिवगदीदो अण्णगदिगमणं गदी णाम । सोम्मिवादिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयण घातिचतुष्कका समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह केवलज्ञान स्वयं ही उत्पन्न होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए और उसके विषयका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोक साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावोंको सम्यक् प्रकारसे युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। ८२ । ज्ञान-धर्मके माहात्म्योंका नाम भग है, वह जिनके है वे भगवान् कहलाते हैं । उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा देखना जिसका स्वभाव है उसे उत्पन्नज्ञानदर्शी कहते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञानदर्शन स्वभाववाले भगवान् सब लोकको जानते हैं। शंका - ज्ञानकी उत्पत्ति स्वयं कैसे हो सकती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, कार्य और कारणका एकाधिकरण होनेसे इनमें कोई भेद नहीं है। सौधर्मादिक देव, और भवनवासी असुर कहलाते हैं । यहां देवासुर वचन देशामर्शक है इसलिए इससे ज्योतिषी, व्यन्तर और तियंचोंका भी ग्रहण करना चाहिए। देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगतिको जानते हैं। अन्य गतिसे इच्छित गतिमें आना आगति है । इच्छित गतिसे अन्य गतिमें जाना गति है । सौधर्मादिक देवोंका अपनी सम्पदासे ७ म.नं. १, पृ. २७. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ८२.) अणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा ( ३४७ नाम । अप्पिदगदोदो अण्णगदीए समुप्पत्ती उववादो णाम । जीवाणं विग्गहाविग्गहसरूवेण आगमणं गमणं चयणमुववादं च जाणदि त्ति भणिदं होदि । तहा पोग्गलाणमागमणं गमणं चयण मुववादं च जाणदि । पोग्गलेसु अप्पिदपज्जाएण विगासो चयणं, अण्णपज्जाएण परिणामो उववादो णाम । धम्माधम्म - कालागासाणं चयणमुववादं च जाणदि, तेसि गमणागमणाभावादो । लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते अस्मिन् जीवादयः पदार्था इति आगासो चेव लोगो त्ति । तेण आधेये आधारोवयारेण धम्मादीणं पि लोगत्तसिद्धीए । बन्धनं बन्धः, बद्ध्यते अनेनास्मिन्निति वा बन्धः । सो च बंधो तिविहो - जीवबंधो पोग्गलबंधो जीव-पोग्गलबंधो चेदि । एगसरीरद्विदाणमणंताणंताणं णिगोदजीबाण अण्णाoणबंध सो जीवबंधो णाम । दो- तिणिआदिपोग्गलाणं जो समवाओ सो पोग्गलबंधो णाम । ओरालिय- वे उब्विय आहार- तेया कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं च जो बंधो सो. जीवपोग्गलबंधो णाम । जेण कम्मेण जीवा अनंताणंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंध णाम । जेण निद्ध-ल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधी होदि सो पोग्गलबंधो णामः । जेहि मिच्छत्तासंजम कसाथ जोगादीहि जीव-पोग्गलाणं बंधो होदि सो जीव-पोग्गल - गंधो णाम । एदं गंध पि सो भयवंतो जाणदि । विरह होना चयन है । विवक्षित गतिसे अन्य गति में उत्पन्न होना उपपाद है । जीवोंके विग्रहके साथ तथा विना विग्रहके आगमन, गमन चयन और उपपादको जानते हैं; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा पुद्गलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपादको जानते हैं । पुद्गलोंमें विवक्षित पर्यायका नाश होना चयन है। अन्य पर्यायरूपसे परिणमना उपपाद है । धर्म, अधर्म, काल और आकाशके चयन और उपपादको जानते हैं, क्योंकि, इनका गमन और आगमन नहीं होता । जिसमें जिवादिक पदार्थ लोके जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसकी लोक संज्ञा है । यहां ' लोक ' शब्दसे आकाश लिया गया है । इसलिए आधेय में आधारका उपचार करनेसे धर्मादिक भी लोक सिद्ध होते हैं । बंधने का नाम बंध है अथवा जिसके द्वारा या जिसमें बंधते हैं उसका नाम बंध है । वह बंध तीन प्रकारका है- जीवबंध, पुद्गलबंध और जीव- पुद्गलबंध । एक शरीरमें रहनेवाले अनन्तानन्त निगोद जीवोंका जो परस्पर बंध है वह जीवबंध कहलाता है। दो, तीन, आदि पुद्गलों का जो समवाय संबंध होता है वह पुद्गलबंध कहलाता है । तथा औदारिक वर्गणाएं, वैक्रियिक वर्गणाएं, आहारक वर्गणाएं, तैजस वर्गणाएं और कार्मण वर्गणाएं, इनका और जीवोंका जो बंध होता है वह जीव पुद्गलबंध कहलाता है । जिस कर्मके कारण अनन्तानन्त जीव एक शरीर में रहते हैं उस कर्मकी जीवबंध संज्ञा है जिस स्निग्ध और रूक्ष आदि गुणके कारण पुद्गलोंका बंध होता है उसकी पुद्गलबंध संज्ञा है । जिन मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग आदिके निमित्तसे जीव और पुद्गलोंका बन्ध होता है वह जीव-पुद्गलबन्ध कहलाता है । इस बन्धको भी वे भगवान् जानते हैं । का तात्यो:'-मागमणं चयण-' इति पाठ: 1 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ८२. मोचनं मोक्षः, मुच्यते अनेनास्मिन्निति वा मोक्षः । सो मोक्खो तिविहोजीवमोक्खो पोग्गलमोक्खो जीव-पोग्गलमोक्खो चेदि । एवं मोक्ख कारणं पि तिविह ति वत्तव्वं । बंधं बंधकारणं बंधपदेस-बद्ध-बज्झमाणजीवे पोग्गले च, मोक्खं मोक्खकारणं मोक्खपदेसमक्क-मुच्चमाणजीव-पोग्गले च तिकालविसए जाणदि त्ति भणिवं होदि । भोगोवभोगोहयहत्थि-मणि-रयणसंपया संपय कारणं च इद्धी गाम तिहुवणगयसयलसंपयाओ देवासुर-मणुवसंपयकारणाणि च जाणदि ति भणिदं होदि' छदव्वाणमप्पिदभावेण अवढाणं अवट्ठाणकारणं च द्विदी णाम । दव्वदिदि-कम्मट्ठिदिकायटिदि-भवदिदि-भावढिदिआदिट्टिदि च सकारणं जाणदि* ति भणिदं होदि । दव्वक्खेत्त-काल-भावेहि जीवादिदव्वाणं मेलणं जुडी णाम । युति-बन्धयोः को विशेषः ? एकीभावो बन्धः, सामीप्यं संयोगो वा युतिः। तत्थ दवजुडी तिविहा- जीवजडी पोग्गलजुडी जीव-पोग्गलजुडी चेदि । तत्थ एकम्हि कुले गामे णयरे बिले गुहाए अडईए जीवाणं मेलणं जीवजडी णाम । वाएण हिंडिज्जमाणपण्णाणं व एक्कम्हि देसे पोग्गलाणं मेलणं पोग्गलजुडी णाम । जीवाणं पोग्गलाणं च मेलणं जीव. पोग्गलजुडी णाम । अधवा दव्वजुडी जीव-पोग्गल-धम्माधम्मकाल-आगासाणमेगादि छूटनेका नाम मोक्ष है, अथवा जिसके द्वारा या जिसमें मुक्त होते हैं वह मोक्ष कहलाता है। वह मोक्ष तीन प्रकारका है- जीवमोक्ष पुद्गलमोक्ष और जीव-पुद्गलमोक्ष । इसी प्रकार मोक्षका कारण भी तीन प्रकार कहना चाहिए। बन्ध बन्धका कारण, बंधप्रदेश, बद्ध एवं बध्यमान जीव और पुद्गल; तथा मोक्ष, मोक्षका कारण, मोक्षप्रदेश, मुक्त एवं मुच्यमान जीव और पुद्गल; इन सब त्रिकालविषयक अर्थोको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । भोग व उपभोग रूप घोडा, हाथी, मणि व रत्न रूप सम्पदा तथा उस सम्पदाकी प्राप्तिके कारणका नाम ऋद्धि है। तीन लोकमें रहनेवाली सब सम्पदाओंको तथा देव, असुर और मनुष्य भवकी सम्प्राप्तिके कारणोंको भी जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। छह द्रव्योंका विवक्षित भावसे अवस्थान और अवस्थानके कारणका नाम स्थिति है। द्रव्यस्थिति, कर्मस्थिति, कायस्थिति, भवस्थिति और भावस्थिति आदि स्थितिको सकारण जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके साथ जीवादि द्रव्योंके सम्मेलनका नाम युति है । शंका-- यति और बन्धमें क्या भेद है ? समाधान-- एकीभावका नाम बंध है और समीपता या संयोगका नाम युति है। यहां द्रव्ययुति तीन प्रकारकी है- जीवयुति, पुद्गलयुति और जीव-पुद्गलयुति । इनमेंसे एक कुल, ग्राम, नगर बिल, गुफा या अटवीमें जीवोंका मिलना जीवयुति है। वायुके कारण हिलनेवाले पत्तोंके समान एक स्थानपर पुद्गलोंका मिलना पुद्गलयुति है । जीव और पुद्गलोंका मिलना जीव-पुद्गलयुति है । अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इनके एक आदि संयोगके * ताप्रती 'मणि रयणं संपयासंपय-' इति पाठः। * अप्रती '-ट्ठिदि य जाणदि ' इति पाठः । • आ-काप्रत्योः 'सामीणं', ताप्रती 'सामीणं (पं)' इति पाठः ] . Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ८२. ) पयडिअणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा ( ३४९ संजोगेण उप्पादेदवा। जीवादिवव्वाणं गिरयादिखेत्तेहि सह मेलणं खेत्तजुडी णाम । तेसिं चेव दव्वाणं विवस-मास-संवच्छरादिकालेहि सह मेलणं कालजुडी णाम । कोहमाण-माया-लोहादीहि सह मेलगं भावजुडी णाम । एदं सव्वं पि जुडिवियप्पं तिकालविसयं सो भयवंतो जाणदि । छदवाणं सत्ती अणुभागो जाम । सो च अणभागो छविहो-जीवाणभागो पोग्गलागुभागो धम्मत्थियअणुभागो अधम्मत्थियअणुभागो आगासत्थियअणुभागो कालदव्वाणु. भागो चेदि। तत्थ असेसदव्वावगमो जीवाणुभागो। जर-कुट्टक्खयादिविणासणं तदुप्पायणं च पोग्गलाणुभागो। जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो। जीव-पोग्गलाणं गमणागमणहेदुत्तं धम्मत्थियाणुभागो । तेसिमवट्ठाण हेदुत्तं अधम्मस्थियाणुभागो। जीवादिदव्याणमाहारत्तमागासत्थियाणभागो अण्णेसि दम्वाणं कमाकमेहि परिणमणहेदुत्तं कालदव्वाणुभागो। एवं दुसंजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायव्वा-जहाँ मट्रिआपिंड-दंड-चक्क-चीवर-जल-कुंभारादीणं घडप्पायणाणभागो । एदमणुभाग पि जाणदि । तों हेतुआपकमित्यनर्थान्तरम् । एवं पि जाणदि । चित्त कम्म-पत्तच्छेज्जादो कला णाम । कलं पि जाणदि । मणोवग्गणाए णिव्वत्तियं हिययपउमं मणो णाम, मणोजणिदणाणं द्वारा द्रव्ययुति उत्पन्न करानी चाहिए । जीवादि द्रव्योंका नारकादि क्षेत्रोंके साथ मिलना क्षेत्रयुति है । उन्हीं द्रव्योंका दिन, महीना और वर्ष आदि कालोंके साथ मिलाप होना कालयुति है। क्रोध, मान, माया और लोभादिकके साथ उनका मिलाप होना भावयुति है । त्रिकालविषयक इन सब युतियोंके भेदको वे भगवान् जानते हैं छह द्रव्योंकी शक्तिका नाम अनुभाग है । वह अनुभाग छह प्रकारका है-जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग । इनमेंसे समस्त द्रव्योंका जानना जीवानुभाग है । ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदिका विनाश करना और उत्पन्न कराना इसका नाम पुद्गलानुभाग है । योनिप्राभूतमें कहे गये मंत्रतंत्र-रूप शक्तियोंका नाम पुद्गलानुभाग है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। जीव और पुद्गलोंके गमन और आगमनमें हेतु होना धर्मास्तिकायानुभाग है । उन्हींके अवस्थानमें हेतु होना अधर्मास्तिकायानुभाग है। जीवादि द्रव्योका आधार होना आकाशास्तिकायानुभाग है। अन्य द्रव्योंके क्रम और अक्रमसे परिणमनमें हेतु होना कालद्रव्यानुभाग है। इसी प्रकार द्विसंयोगादि रूपसे अनभागका कथन करना चाहिए । जैसे-मत्तिकापिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल आदिका घटोत्पादन रूप अन भाग। इस अनुभागको भी जानते है। तर्क हेतु और ज्ञापक, र्थवाची शब्द हैं। इसे भी जानते हैं। चित्रकर्म ओर पत्रछेदन आदिका नाम कला है। कलाको भी वे जानते हैं मनोवर्गणासे बने हुए हृदय-कमलका नाम मन है, अथवा मनसे उत्पन्न हुए ज्ञानको मन @ अ-आ-ताप्रतिषु — हेतु ज्ञापक-', काप्रती ' हेतु ज्ञायक ' इति पाठः 12 अप्रतो ' पत्तच्छेद्यादि', का-ताप्रत्यो 'पत्तच्छेज्जादि ' इति पाठ 1 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५,५, ८२. वा मणो वच्चदे | मणसा चिन्तिदट्ठा माणसिया । ते वि जाणदि । रज्ज- महत्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम । तं भुत्तं जाणदि । जं किचि तिसु वि कालेसु अण्णत्तो froणं तं कदं णाम । पंचहि इंदिएहि तिसु वि कालेस जं सेविदं तं पडिसेविदं णाम । आद्यं कर्म्म आदियम्मं णाम । अत्थ- वंजणपज्जायभावेण सव्वेसि दव्वाणमादि जाणदिति भणिदं होदि । रहः अन्तरम्, अरहः अनन्तरम्, अरहः कर्म्म अरहस्कर्म ; तं जानाति । सुद्धदव्वट्ठियणयरिसएण सम्बेसि दव्वाणमणादित्तं जाणदि त्ति भणिदं होदि । सर्वस्मिन् लोके सर्वजीवान् सर्वभावांश्च जानाति । सव्वजीवग्गहणं ण कायव्वं, बद्ध मुत्ते हि गयत्थत्तादो ? ण, एगसंखाविसिट्ठबद्धमुक्कगहणं मा तत्थ होहदित्ति तप्पडिसेहट्ठ सव्वजीवणिद्देसादो। जीवा दुविहा- संसारिणो मुत्ता चेदि । तत्थ मुत्ता अणंतवियप्पा, सिद्धलोगस्स आदि अंताभावादो । कुदो तदभावो ? पवाहसरूवेणाणुवत्तीएटी सव्वा सिद्धा सेहणं पडि सादिया, संताणं पडि अनादिया "त्ति सुत्तादो। संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि । तसा चउविहा 66 कहते हैं | मनसे चिन्तित पदार्थोंका नाम मानसिक है । उन्हें भी जानते हैं। राज्य और महाव्रतादिका परिपालन करनेका नाम भुक्ति है । उस भुक्तको जानते हैं । जो कुछ तीनों ही कालों में अन्यके द्वारा निष्पन्न होता है उसका नाम कृत है । पांचों इन्द्रियोंके द्वारा तीनों ही कालों में जो सेवित होता है उसका नाम प्रतिसेवित है । आद्य कर्मका नाम आदिकर्म है । अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय रूपसे सब द्रव्योंकी आदिको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । रहस् शब्दका अर्थ अन्तर और अरहस् शब्दका अर्थ अनन्तर है । अरहस् ऐसा जो कर्म वह अरहःकर्म कहलाता है । उसको जानते हैं । शुद्ध द्रव्याथिक नयके विषय रूपसे सब द्रव्योंकी अनादिताको जानतें हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सम्पूर्ण लोकमें सब जीवों और सब भावोंको जानते हैं । शंका- - यहां 'सर्व जीव ' पदको ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, बद्ध और मुक्त पदके द्वारा उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है ? पदका निर्देश किया है । समाधान नहीं, क्योंकि एक संख्या विशिष्ट बद्ध और मुक्तका ग्रहण वहांपर न होवे, इसलिए इसका प्रतिषेध करनेके लिए ' सर्व जीव जीव दो प्रकार के हैं -- संसारी और मुक्त । क्योंकि, सिद्धलोकका आदि और अन्त नहीं पाया जाता । शंका-- सिद्ध लोकके आदि और अन्तका अभाव कैसे है ? इनमें मुक्त जीव अनन्त प्रकारके हैं, समाधान -- क्योंकि, उसकी प्रवाह स्वरूपसे अनुवृत्ति हैं, तथा 'सब सिद्ध जीव सिद्धिकी अपेक्षा सादि हैं और सन्तानकी अपेक्षा अनादि है, ' ऐसा सूत्रवचन भी है । संसारी जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव चार प्रकारके हैं- द्वीन्द्रियः , ॐ काप्रती ' अरहा' इति पाठ: ताप्रतो 'रहस्कर्म ' इति पाठ 1 संसारिणो मुक्ताश्च 1 त. सु. २, १०, Q अप्रतौ ' ऽणणवत्तीए' इति पाठः । Xx संसारिणस्त्र संस्थावरा त. सू. २, १२. . Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ८२. ) पयडिअणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा ( ३५१ बीइंदिया तीइंदिया चारिदिया पंचिदिया चेदि । चिदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो चेदि । एदे सव्वे तसा दुविहा पज्जत्तापज्जत्तभेएण। अपज्जत्ता दुविहा लद्धिअपज्जत्त-णिवत्तिअपज्जत्तभेएण। थावरा पंचविहा- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फदिकाइया चेदि । एदे पंच वि थावरकाया पादेक्कं दुविहा बादरा सुहमा चेदि। तत्थ बादरवणप्फदिकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साहारणसरीरा चेदि। एत्थ पत्तेयसरीरा दुविहा बादरणिगोदपदिट्टिदा बादरणिगोदअपदिट्टिदा चेदि । एदे थावरकाया सम्वे वि पादेक्कं दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि । अपज्जत्ता दुविहा लद्धिअपज्जत्ता णिव्वत्तिअपज्जत्ता चेदि। तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा, सेसा असंखेज्जवियप्पा । एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्टिदे जाणदि ति भणिदं होदि। भावा णवविहा जीवाजीव-पुण्ण पाव-आसव संवर-णिज्जरा-बंधमोक्खभेएण। तत्थ जीवा परूविदा। अजीवा दुविहा मुत्ता अमुत्ता चेदि । तत्थ मुत्ता एगणवीसदिविधा । तं जहा-- एयपदेसियवग्गणा संखेज्जपदेसियवग्गणा असंखेज्जपदेसियवग्गणा अणंतपदेसियवग्गणा आहारवग्गणा अगहणवग्गणा तेजइयसरीरवग्गणा अगहणवग्गणा भासावग्गणा अगहणवग्गणा मणोवग्गणा अगहणवग्गणा कम्मइयवग्गणा धवखंधवग्गणा सांतर-णिरंतरवग्गणा धुवसुग्णवग्गणा पत्तेयसरीरवग्गणा धुवसुण्णवग्गणा बादरणिगोदवग्गणा धवसुण्णवग्गणा सुहमणिगोदवग्गणा धुवसुण्णवग्गणा महाखंधवग्गणा चेदि । एत्थ तेवीसवग्गणासु चदुसु धुवसुण्णत्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं- संज्ञी और असंज्ञी । ये सब स जीव पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके हैं । अपर्याप्त जीव लब्ध्यपर्याप्त और निर्वत्त्यपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके हैं। स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । इन पांचों ही स्थावरकायिक जीवोंमें प्रत्येक दो प्रकारके है- बादर और सूक्ष्म । इनमें बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके है-- प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर। यहां प्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके हैं-- बादरनिगोदप्रतिष्ठित और बादरनिगोदअप्रतिष्ठित । ये सब स्थावरकायिक जीव भी प्रत्येक दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त दो प्रकारके हैं- लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्त्य-- पर्याप्त । इनमेंसे वनस्पतिकायिक अनन्त प्रकारके और शेष असंख्यात प्रकारके हैं। केवली भगवान् समस्त लोकमें स्थित इन सब जीवोंको जानते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जीव, अजीव. पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षके भेदसे पदार्थ नौ प्रकारके हैं। उनमेंसे जीवोंका कथन कर आये हैं। अजीव दो प्रकारके हैं- मूर्त और अमूर्त । इनमेंसे मूर्त पुद्गल उन्नीस प्रकारके हैं । यथा- एकप्रदेशी वर्गणा, संख्यातप्रदेशी वर्गणा, असंख्यातप्रदेशी वर्गणा, अनंतप्रदेशी वर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तैजसशरीरवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गगा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा। इन तेईस वर्गणाओंमेंसे चार द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । त. सू. २, १४. * पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः स्थावरा: 1 त. सू. २, १३. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ८२. वग्गणासु अवणिदासु एगणवीसदिविधा पोग्गला होति । पादेक्कमणंतभेदा । अमुत्ता चउविहा-धम्मत्थियो अधम्मत्थिओ आगासस्थिओ कालो चेदि । कालो घणलोगमेत्तो। सेसा एयवियप्या। आगासो अणंतपदेसियो। कालो अपदेसियो। सेसा असंखेज्जपदेसिया। सुहुपयडीओ पुण्णं । असुहपयडीओ पावं । तत्थ घाइवउक्कं पावं। अघाइच उक्कं मिस्सं, तत्थ सुहासुहपयडीणं संभवादो। मिच्छत्तासंजम कसाय-जोगा आसवो। तत्थ मिच्छत्तं पंचविहं । असंजमो बादालीसविहो । वुत्तं च-- पंचरस-पंचवण्णा दोगंधा अट्ठफास सत्तसरा । मणसा चोद्दसजीवा बादालीसं तु अविरमणं । ३३ । अणंताणुबंधि-पच्चक्खाण-अपच्चक्खाग-संजलण*कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय दुगुंछा-इत्थि-पुरिस-णqसयभेएण कसाओ पंचवीसविहो । जोगो पण्णरसविहो । आसवपडिवक्खो संवरो णाम । गुणसेडीए एक्कारसभेदभिण्णाए कम्मगलणं णिज्जरा णाम । जीव-कम्माणं समवाओ बंधो णाम । जीव-कम्माणं णिस्सेसविसिलेसो मोक्खो णाम । एदे सव्वे भावे जाणदि । समं अक्कमेण । एदं समग्गहणं केवलणाणस्स ध्रुवशून्यवर्गणाओंके निकाल देनेपर उन्नीस प्रकारके पुद्गल होते है और वे प्रत्येक अनन्त भेदोंको लिये हुए हैं। अमूर्त चार प्रकारके हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । काल घनलोकप्रमाण है, शेष एक एक है। आकाश अनन्तप्रदेशी है, काल अप्रदेशी है, और शेष असंख्यातप्रदेशी हैं। : शुभ प्रकृतियोंका नाम पुण्य है और अशुभ प्रकृतियोंका नाम पाप है। यहां घातिचतुष्क पाप रूप हैं। अघातिचतुष्क मिश्ररूप है, क्योंकि, इनमें शुभ और अशुभ दोनों प्रकृतियां सम्भव हैं। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये आस्रव हैं। इनमेंसे मिथ्यात्व पांच प्रकारका है । असंयम बयालीस प्रकारका है। कहा भी है 2 पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, सात स्वर, मन और चौदह प्रकारके जीव, इनकी अपेक्षा अविरमण अर्थात् इन्द्रिय व प्राणी रूप असंयम बयालीस प्रकारका है ॥ ३३॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ; हास्य, रति, अरति, शोक, भय. जुगुप्सा तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके भेदसे कषाय पच्चीस प्रकारकी है। योग पन्द्रह प्रकारका है । आस्रवके प्रतिपक्षका नाम संवर है। ग्यारह भेदरूप श्रेणिके द्वारा कर्मोंका गलना निर्जरा है । जीवों और कर्म-पुद्गलोंके समवायका नाम बन्ध है । जीव और कर्मका निःशेष विश्लेष होना मोक्ष है । इन सब भावोंको केवली जानते हैं । समं अर्थात् अक्रमसे । यहां जो 'सम' पदका ग्रहण किया है वह केवलज्ञान * पंचरस-पंचवण्णा दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदिय पाणा य संजमो णेओ। मला. ५, २२१. - अ-आ-काप्रतिषु · संजुलण-' इति पाठ 1 . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ८४.) पयडिअणुओगद्दारे दसणावरणपयडिणपरूवणा अदिवियत्तं ववहाणादिणिवट्टणं च सूचेदि, अण्णहा समग्गहणाणुववत्तीदो। संशय विप य॑यानध्यवसायाभावतस्त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायग्रहणाद्वा सम्यग् जानाति* भगवान् केवली । अशेषबाहयार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिनः सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्त्यभावादित्युक्ते आह- 'पस्सदि' त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति । केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं कृत्स्नकर्मक्षये सति स्तिनोरुपदेशाभावात् तीर्थाभाव इत्युक्ते आह- 'विहरदित्ति' चतुर्णामघातिकर्मणां सत्त्वात् देशोनां पूर्वकोटी विहरतीति । केवलणाणं ।। ८३॥ एवंगणविसिट्ठ केवलणाणं होदि । कधं गुणस्स गणा होंति ? केवलणाणेण केवलिणिसादो। एवं विहो केवली होवि त्ति भणिदं होदि । एवं केवलणाणावरणीयकम्मस्स परूवणा कदा होदि। दसणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ? ।। ८४॥ सुग। दसणावरणीयस्स कम्मस्स: णव पयडीओ---णिहाणिद्दा अतीन्द्रिय है और व्यवधानादिसे रहित है, इस बातको सूचित करता है; अन्यथा सब पदार्थोंका युगपत् ग्रहण करना नहीं बन सकता । संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे अथवा त्रिकालगोचर समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंका ग्रहण होनेसे केवली भगवान् सम्यक् प्रकारसे जानते हैं। केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थों का ग्रहण होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदनका अभाव है; ऐसी आशंकाके होनेपर सूत्र में पश्यति' कहा है । अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते हैं। केवलज्ञानकी उत्पत्ति होने के बाद सब कर्मोका क्षय हो जानेपर शरीररहित हुए केवली उपदेश नहीं दे सकते, इसलिए तीर्थका अभाव प्राप्त होता है; ऐसा कहनेपर सूत्रमें 'विहरदि' कहा है । अर्थात् चार अधाति कर्मोंका सत्त्व होनेसे वे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करते हैं। ऐसा केवलज्ञान होता है ।। ८३ ॥ इस प्रकारके गुणोंवाला केवलज्ञान होता है । शंका - गुणमें गुण कैसे हो सकते हैं ? समाधान - यहां केवलज्ञानके द्वारा केवलज्ञानीका निर्देश किया गया है । इस प्रकारके केवली होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार केवलज्ञानावरणीय कर्मका कथन किया। दर्शनावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ ८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतियां हैं- निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि * प्रतिषु 'जानातीति ' इति पाठ:1 . काप्रती · जानातीति भगवान् केवलिनः ' इति पाठः । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ) छक्खंडागमे वग्गणाखंड ( ५, ५, ८५. पयलापयला थीणगिद्धी णिहा य पयला य चक्खदसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ॥ जिस्से पयडीए उदएण अइणिभरं सोवदि, अण्णेहि उट्ठाविज्जतो वि ण उट्टइ सा णिहाणिद्दा णाम । जिस्से उदएण ट्ठियो णिसण्णो वि सोवदि गहगहियो व सीसं धुणदि वायाहयलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलापयला णाम । जिस्से णिहाए उदएण तो वि थंभियो व णिच्चलो चिदि, द्वियो वि वइसदि, वइट्टओ वि णिवज्जदि, णिवष्णओ वि उट्टाविदो वि ण उदि, सुत्तओ चेव पंथे वहदि, कसदि लुणदिर परिवादि कुणदि सा थीणगिद्धी णाम । जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि, धूलोए भरिया इव लोयणा होंति, गुरुव*भारेणोलुद्धं व सिरमइभारियं होइ सा णिद्दा णाम । जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा मणा चलदि सा पयला णाम । सगसंवेयणविणासहेदुत्तादो एदाओ. पंचविहपयडीओ दंसगावरणीयं । “जं सामण्णं गहणं दसणं " एदेण सुत्तण* सह विरोहो किण्ण जायदे ? ण, जीको सामण्णं णाम, तस्स गहणं दसणं ति सिद्धीदो। निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ।। ८५ ॥ जिस प्रकृतिके उदयसे अतिनिर्भर होकर सोता है और दूसरोंके द्वारा उठाये जानेपर भी नहीं उठता है वह निद्रानिद्रा प्रकृति है । जिसके उदयसे स्थित व निषण्ण अर्थात् बैठा हआ भी सो जाता है. भतसे गहीत हएके समान शिर धनता है, तथा वायसे आहत लताके समान चारों ही दिशाओंमें लोटता है वह प्रचलाप्रचला प्रकृति है । जिस निद्राके उदयसे जाता हुआ भी स्तम्भित किये गयेके समान निश्चल खडा रहता है, खडाखडा भी बैठ जाता है, बैठकर भी पड जाता है, पड़ा हुआ भी उठानेपर भी नहीं उठता है, सोता हुआ ही मार्गमें चलता है, मारता हैं, काटता है, और बडबडाता है; वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है । जिस प्रकृतिके उदयसे आधा जगता हुआ सोता है, धूलिसे भरे हुएके समान नेत्र हो जाते हैं, और गुरु भारको उठाये हुएके समान शिर अतिभारी हो जाता है वह निद्रा प्रकृति है । जिस प्रकृतिके उदयसे आधे सोते हुएका शिर थोडा थोडा हिलता रहता है वह प्रचलता प्रकृति है। स्वसंवेदनके विनाशमें कारण होनेसे ये पांचों ही प्रकृतियां दर्शनावरणीय हैं। शंका-- 'जं सामण्णं गहणं दसणं-' इस सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध क्यों नहीं होता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, यहां जीव सामान्य रूप है। इसीलिये उसका ग्रहण दर्शन है, यह सिद्ध ही है। ४ षट्खं. जी. च. १, १५-१६. काप्रती 'हणदि ' इति पाठ: 1 अ-आप्रत्योः 'गरुव ' इति पाठः1 ताप्रती ' हेदुत्तादो। एदाओ ' इति पाठः1 * सामण्णग्गहणं दसणमेयं विसेसियं णाणं । दोण्हं वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ll सं. सू. २-१. ... Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुओगद्दारे दसणावरणपयडिपरूवणा ( ३५५ कधं जीवो सामगं? ण, इदं चेवत्थं जाणवि ति णियमाभावादो, राग-दोस-मोहाभावादो वा जीवस्स समाणत्तसिद्धीवो एदासिपंचग्णं पयडीणं बहिरंगंतरंगत्थगहणपडिकूलाणंक, दसणावरणसण्णा, दोण्णमावारयाणमेगावारयत्तविरोहादो? ण, एदाओ पंच वि पयडीयो दसणावरणीयं चेव, सगसंवेयणविणासकरणादो। बहिरंगत्थगहणाभावो वि तत्तो चेव होदि त्तिण वोत्तुं जुत्तं, दंसणाभावेण तस्विणासादो। किमळं दसणाभावेण णाणाभावो? णिद्दाए विणासिदबज्झत्थगहणजगणसत्तित्तादो। न च तज्जणणसत्ती गाणं तिस्से दंसणप्पयजीवत्तादो। चक्खुविण्णाणप्पायगकारणं सगसंवेयणं चक्खुदंसणं णाम। तस्सावारयं कम्मं चक्खुदंसणावरणीय । सोद-घाण-जिम्मा फास-मणेहितो समुप्पज्जमाणणाणकारणसगसंवेयणमचक्खुदंसणं णाम । तस्स आवारयं अचक्खुदंसणावरणीयं । परमाणुआदि महक्खंधतंपोग्गलवम्वविसयओहिणाणकारणसगसंवेयणं ओहिदसणं । तस्स आवारयं ओहिदसणावरणीयं। केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसंवेयणं केवलदंसपं णाम। तस्स आवारयं शंका - जीव सामान्य रूप कैसे हो सकता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि इसी अर्थको जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं । अथवा राग द्वेष और मोहसे रहित होनेके कारण जीवके समानता सिद्ध है ।। शंका - ये पांचो ही प्रकृतियां बहिरंग ओर अन्तरंग दोनोंही प्रकारके अर्थके ग्रहणमें बाधक हैं, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है। क्योंकि, दोनोंका आवरण करनेवालोंका एकका आवरण करनेवाला मानने में विरोध आता है ? . ___समाधान - नहीं, ये पांचो ही प्रकृतियां दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि, वे स्वसंवेदनका विनाश करती हैं। - बहिरंग अर्थके ग्रहणका अभाव भी तो उन्हींसे होता है ? समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शनके अभावसे होता है । शंका - दर्शनका अभाव होनेसे ज्ञान का अभाव क्यों होता है ? समाधान - कारण कि निद्रा बाह्य अर्थके ग्रहणको उत्पन्न करनेवाली शक्तिकी विनाशक है। और बाह्यार्थग्रहणको उत्पन्न करनेवाली यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है । चाक्षुष विज्ञानको उत्पन्न करनेवाला जो स्वसंवेदन है वह चक्षुदर्शन और उसका आवारक कर्म चक्षुदर्शनावरणीय कहलाता है। श्रोत्र , घ्राण, जिव्हा स्पर्शन और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अचक्षुदर्शन और इसके आवारक कर्मका नाम अचक्षुदर्शनावरणीय है । परमाणुसे लेकर महास्कन्ध पर्यंत पुद्गल द्रव्यको विषय करनेवाले अवधिज्ञानके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अवधिदर्शन है और इसके आवारक कर्मका नाम अवधिदर्शनावरणीय हैं । केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम केवलदर्शन और Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ८६. केवलदसणावरणीयं । कि च- छमत्थणाणाणि सणवाणि, केवलणाणं पुण केवलदं. सणसमकालभावी, णिरावरणतादो। सुद-मणपज्जवदंसणाणि किण्ण सुत्ते परविदाणि? ण, तेसि मदिणाणपुव्वाणं सणपुव्वत्त विरोहादो। विहंगदंसणं किण्ण परूविदं ? ण, तस्स ओहिदसणे अंतब्भावादो । तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्- "अवधिविभंगयोरवधिदर्शनमेव" इति । चक्ख-अचक्ख-ओहिदसणाणमेत्थ वियप्पा किण्ण परविदा? ण, णाणभेदे अवगदे तक्कारणभेदो वि अवगदो चेवे त्ति तप्परूवणाकरणादो। एवडियाओ पयडीओ॥ ८६ ॥ जेण कारणेण सणावरणीयस्स अवराओ पयडीओ ण संभवंति तेण एवडियाओ णव चेव पयडीओ होति त्ति भणिदं । वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओं पयडीओ? ॥ ८७॥ सुगममेदं । वेयणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ-सादावेदणीयं चेव असादावेवणीयं चेवः । एवडियाओ पयडीओ ।। ८८॥ उसके आवारक कमका नाम केवलदर्शनावरणीय है । इतनी विशेषता है कि छद्मस्थोंके ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं, परन्तु केवलज्ञान केवलदर्शनके समान कालमें होता है; क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये दोनो निरावरण हैं। शंका - सूत्र में श्रुतदर्शन और मनःपर्ययदर्शन क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि वे ( श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ) मतिज्ञानपूर्वक होते हैं, इसलिए उनको दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है। शंका- विभंगदर्शन क्यों नहीं कहा है ? समाधान - नहीं, क्योंकि उसका अवधिदर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही सिद्धिविनिश्चयमें भी कहा गया है- ' अवधिज्ञान और विभंगज्ञानके अवधिदर्शन ही होता है। शंका - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिज्ञानदर्शनके यहां भेद क्यों नहीं कहे ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ज्ञानके भेदोंके ज्ञात हो जानेपर उनके कारणोंके भेदोंका भी ज्ञान हो ही जाता है, इसलिए उनका कथन नही किया है। इतनी ही प्रकृतियां होती हैं। ८६ । जिस कारणसे दर्शनावरणीय कर्मकी अन्य प्रकृतियां सम्भव नहीं हैं, इसलिए ये नौ ही प्रकृतियां होती हैं, ऐसा कहा है। वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां होती हैं ? । ८७ । यह सूत्र सुगम है । वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । इतनी ही प्रकृतियां होती हैं । ८८। प्रतिषु ' पुव्वुत्त ' इति पाठ 1 * षट्वं. जी. चू १, १७-१८. ... Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५,९१. ) अणुओगद्दारे मोहणीयपयडिपरूवणा ( ३५७ सत् सुखम्, सदेव सातम्, यथा पंडुरमेव पांडुरं । सातं वेदयतीति सातवेदनीयं, दुक्खपडिकार हेदुदव्वसंपादयं दुक्खुप्पायणकम्मदव्वसत्तिविणासयं च कम्मं सादावेदणीयं णाम । जीवस्त सुहसहावस्स दुक्खुप्पाययं दुक्खपसमण हे दुदव्वाणमवसारयं च कम्ममसादावेदणीयं णाम । एवं दो चेव पयडीओ । अण्णाणं पि दुक्खुप्पादिदिति तस्स वि असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे ? ण, अणियमेण दुक्खुप्पाग्रयस्स असादत्ते संते खग्ग-मोग्गरादीणं पि असादावेदणीय तप्पसंगादो । मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ८९ ॥ गमं । मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ ।। ९० ।। एवं संगहणयविसयसुत्तं सुगमं । संपहि पज्जवट्टियणयाणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि - तं च मोहणीयं दुविहं दंसणमोहणीयं चेव चरित्तमोहणीयं चेव ।। ९१ ।। मोहयतीति मोहणीयं कम्मदव्वं । अत्तागम पयत्थेषु पच्चओ हुई सद्धा पासो च सत्' का अर्थ सुख है, इसका ही यहां सात शब्दसे ग्रहण किया गया है; जैसे कि पण्डुरको पाण्डुर शब्दसे भी ग्रहग किया जाता है । सातका जो वेदन कराती है वह सातावेदनीय प्रकृति है । दुःखके प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्रीका मिलानेवाला और दुःखके उत्पादक कर्मद्रव्यकी शक्तिका विनाश करनेवाला कर्म सातावेदनीय कहलाता है । सुख स्वभाववाले जीवको दुःखका उत्पन्न करनेवाला और दुःखके प्रशमन करनेमें कारणभूत द्रव्योंका अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। इस प्रकार वेदनीयकी दो ही प्रकृतियां हैं । शंका-- अज्ञान भी तो दुःखका उत्पादक देखा जाता है, इसलिये उसे भी असातावेदनीय क्यों न माना जाय ? " समाधान- नहीं, क्योंकि अनियमसे दुःखके उत्पादकको असातावेदनीय मान लेने पर तलवार और मुद्गर आदिको भी असातावेदनीय मानना पडेगा । मोहनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं? ॥ ८९ ॥ यह सूत्र सुगम है । मोहनीय कर्मको अट्ठाईस प्रकृतियां हैं ॥ ९० ॥ यह संग्रहनयको विषय करनेवाला सूत्र सुगम है । अब पर्यायार्थिक नयवाले जीवोंका अनुग्रह करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-वह मोहनीय कर्म दो प्रकारका है- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । ९१ | जो मोहित करता है वह मोहनीय नामक कर्मद्रव्य है । आप्त, आगम और पदार्थों में जो अ-आ-प्रत्यो: ' वेदनायतीति', काप्रतौ ' वेदणायतीति', ताप्रतौ ' वेदणीयतीति ' पाठ: । का-ताप्रत्यो: ' संपातयं इति पाठः । * ताप्रतौ ' दुक्खुपसण- इति पाठः । षट्खं. जी. चू. १, १९. ॐ षट्खं जी चू. १, २०. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, ९२. बंसणं गाम । तस्स मोहयं तत्तो विवरीयभावजणणं वेसणमोहणीयं णाम । रागाभावो चारित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावप्पाययं चारित्तमोहणीयं । जं तं बंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधदो एयविहं॥ ९२॥ तब्बंधकारणस्स बहुत्तामावादो। कारणभेदेण कज्जभेदो होदि, ण अण्णहा । तदो दंसणमोहणीयं बंधदो एयविहं चेवेत्ति सिद्धं । तस्स संतकम्मं पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥९३॥ कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे ? ण एस दोसो, एक्कस्सेवळ कोहवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगकिरियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभावो*होदु तत्थ तधाभावो सकिरियजंतसंबंधेण? ण, एत्थ वि अणियट्टिकरणसहिदजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तधाविहभावाविरोहादो । उप्पण्णस्स सम्मत्तस्स सिढिल भावुप्पाययं अथिरत्तकारणं च कम्मं सम्मत्तं गाम । कधमेदस्स प्रत्यय, रुचि, श्रद्धा और दर्शन होता है उसका नाम दर्शन है। उसको मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म दर्शनमोहनीय कहलाता है। रागका न होना चारित्र है। उसे मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। जो दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्धको अपेक्षा एक प्रकारका है ॥ ९२ ॥ क्योंकि, उसके बन्धके कारण बहुत नहीं है। कारणके भेदसे ही कार्य में भेद होता है, अन्यथा नहीं होता। इसलिये दर्शनमोहनीय कर्म बंधकी अपेक्षा एक प्रकारका ही है, यह सिद्ध है। किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकारका है- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । शंका-- जो मोहनीय कर्म बंधकालमें एक प्रकारका है वह सत्त्व अवस्थामें तीन प्रकारका कैसे हो जाता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जानेवाला एक ही प्रकारका कोदों द्रव्य एक कालमें एक क्रियाविशेषके द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओंको प्राप्त होता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी जानना चाहिए। शंका-- वहां क्रियायुक्त जांते । एक प्रकारकी चक्की) के सम्बन्धसे उस प्रकारका परिणमन भले ही हो जावे, किन्तु यहां वैसा नहीं हो सकता? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि यहांपर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीवके सम्बन्धसे एक प्रकारके मोहनीयका तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं आता। उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें शिथिलताका उत्पादक और उसकी अस्थिरताका कारणभूत कर्म सम्यक्त्व कहलाता है । षट्खं जी. चू. १, २१. ४ षटखं. जी. चू. १, २१. हा अप्रतौ ' कम्मस्सेव ' इति पाठः । *जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजतेण । मिच्छं दव्वं तु तिधा असंखगणहीणदव्वकमा " गो. क. २६. काप्रती सिदिल', ताप्रती 'सिथिल ' इति पाठ: 1 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ९४. ) पयडिअणुओगद्दारे मोहणीयपयडिपरूवणा ( ३५९ कम्मरस सम्मत्तववएसो ? सम्मत्तसहचारादो। सम्मत्त-मिच्छत्तभावाणं संजोगसमुन्भदभावस्स उप्पाययं कम्मं सम्मामिच्छत्तं णाम । कधं दोणं विरुद्धागं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वृत्ती ? ण,* दोण्णं संजोगस्स कथंचि जन्चंतररस कम्मट्ठवणस्सेव ( ? ) वृत्तिविरोहाभावादो। अत्तागम-पयत्थेसु असद्धप्पाययं कम्म मिच्छत्तं णाम । एवं दसणमोहणीयं कम्म तिविहं होदि । ____जंतं चरित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं कसायवेवणीयं णोकसायवेयणीयं चेव ॥ ९४ ।। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्म कसायवेयणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो गोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम । सुख-दुःख-सस्यकर्म-क्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः। ईषत्कषायाः नोकषायाः । केन नोकषायाणामीषत्वम् ? स्थितिबन्धेन अनुभवबन्धेन च । कि च-कषायानोकषायाः अल्पाः, क्षपकश्रेण्यां नोकषायोदये विनष्टे सति पश्चात् कषायोदयविनाशात् णोकसायोदयअणुबंधकालं पेखिदूण शंका - इस कर्मकी सम्यक्त्व संज्ञा कैसे है ? समाधान - सम्यक्त्वका सहचारी होनेसे । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप दोनों भावोंके संयोगसे उत्पन्न हुए भावका उत्पादक कर्म सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है । शंका – सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावोंकी एक जीव द्रव्यमें एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ? ___ समाधान - नहीं, क्योंकि ( ? ) के समान उक्त दोनों भावोंके कथंचित् जात्यन्तरभूत संयोगके होने में कोई विरोध नहीं है। आप्त, आगम और पदार्थोंमें अश्रद्धाको उत्पन्न करनेवाला कर्म मिथ्यात्व कहलाता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकारका है। जो चरित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है-- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय ॥ ९४ ॥ जिस कर्मके उदयसे जीव कषायका वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव नोकषायका वेदन करता है वह नोकषायवेदनीय कर्म है। सुख और दुःख रूपी धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रको जो कृषते हैं अर्थात् जोतते हैं वे कषाय हैं। ईषत् कषायोंको नोकषाय कहा जाता है। शंका - नोकषायोंमें अल्परूपता किस कारणसे है ? समाधान - स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी अपेक्षा उनमें अल्परूपता है । तथा कषायोंसे नोकषाय अल्प हैं, क्योंकि, क्षपकश्रेणिमें नोकषायोंके उदयका अभाव हो जानेपर ताप्रती 'समुद्भूद- ' इति पाठ.1 * अ-आ-काप्रतिष ण ' इति नास्ति * काप्रती 'कवरवणस्सेव 'ताप्रती · कल्पट्ठरवणस्सेव ' इति पाठ: 1 * अ-आ-काप्रतिषु ' असदुप्पाययं ' इति पाठः [ ५ षट्खं. जी. चू. १. २२. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं कसायोदयअणुबंधकालस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो वा । कसायाणमुदयकालो अंतोमुहुत्तं, णोकसायस्स उदयकालो अणंतो, तेण णोकसाएहितो कसायाणं थोवत्तमस्थि त्ति सण्णाविवज्जासो किण्ण इच्छिदो ? ण, एवंविवक्खाभावादो। जं तं कसायवेयणीयं कम्मं तं सोलहविहं-- अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोहं अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं कोहसंजलणं माणसंजलणं मायासंजलणं लोभसंजलणं चेवि ॥ ९५ ॥ सम्मइंसण-चारित्ताणं विणासया कोह-माण-माया लोहा अणंतभवाणुबंधणसहावा अणंताणुबंधिणो णाम । अणतेसु भवेसु अणुबंधो जेसि ते वा अणंताणुबंधिणो भण्णंति । ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानमिति व्यत्पत्तेः अणुव्रतानामप्रत्याख्यानसंज्ञा। अपच्चक्खाणस्स आवारयं कम्मं अपच्चक्खाणावरणीयं । पच्चक्खाणं महत्वयाणि, तेसिमावारयं कम्मं पच्चक्खाणावरणीयं । तं चउन्विहं कोह-माण-माया लोहभेएण। सम्यक् शोभनं तत्पश्चात् कषायोंके उदयका विनाश होता है। अथवा नोकषायोंके उदयके अनुबन्धकालको देखते हुए कषायोंके उदयका अनुबन्धकाल अनन्तगुणा उपलब्ध होता हैं, इस कारण भी नोकषायोंकी अल्पता जानी जाती है। ___शंका-- कषायोंका उदयकाल अन्तर्मुहर्त है, परन्तु नोकषायोंका उदयकाल अनन्त है; इस कारण नोकषायोंकी अपेक्षा कषायोंमें ही स्तोपना है। इसीलिए इनकी उससे विपरीत संज्ञा क्यों नहीं स्वीकार की गई है ? ____समाधान-- नहीं, क्योंकि, इस प्रकारको यहां विवक्षा नहीं है । जो कषायवेदनीय कर्म है वह सोलह प्रकारका है- अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन।९५॥ जो क्रोध, मान, माया और लोभ सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रका विनाश करते हैं तथा जो अनन्त भवके अनुबन्धन स्वभाववाले होते हैं वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं । अथवा, अनन्त भवोंमें जिनका अनुबन्ध चला जाता है वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं। 'ईषत् प्रत्याख्यानं अप्रत्याख्यानम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार अणुव्रतोंकी अप्रत्याख्यान संज्ञा है । अप्रत्याख्यानका आवरण करनेवाला कर्म अप्रत्याख्यानावरणीय कर्म है। प्रत्याख्यानका अर्थ महाव्रत है। उनका आवरण करनेवाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय है। वह क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारका है । जो 'सम्यक्' अर्थात् शोभन रूपसे 'ज्वलति' अर्थात् प्रकाशित होता है वह संज्वलनकषाय है। षट्. जी. चू. १. २३. अप्रतो धिणो णाम भणंति ' इति पाठः 1 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ९६. ) पर्याडअणुओगद्दारे मोहणीयपयडिपरूवणा (३६१ ज्वलतीति संज्वलनः। कुतस्तस्य सम्यक्त्वम् ? रत्नत्रयाविरोधात् । कोह-माण' माया-लोहेसु पादेक्कं संजलणणिद्देसो किमढें कदो ? एदेसि बंधोदया पुध पुध विणट्ठा, पुग्विल्लतियच उक्कस्सेव अक्कमेण ण विणट्ठा त्ति जाणावणढें । जं तं गोकसायवेयणीयं कम्मं तं गवविहं- इत्थिवेद-पुरिसवेदणउसयवेद-हस्स-रवि-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छा चेदि* ॥ ९६ ।। जस्स कम्मस्स उदएण पुरिसाभिलासो होदि तं कम्मं इथिवेदो णाम । जस्स कम्मस्स उदएण मणस्सस्स इत्थीसु अहिलासो उप्पज्जदि तं कम्मं पुरिसवेदो णाम । जस्स कम्मस्स उदएण इत्थि-पुरिसेसु अहिलासो उप्पज्जदि तं कम्मं णवंसयवेदो णाम। जस्स कम्मस्स उदएण अणेयविहो हासो समप्पज्जदि तं कम्मं हस्सं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण दव्व खेत्त-काल-भावेसु जीवाणं रई समुप्पज्जदि तं कम्मं रई णाम। जस्स कम्मस्स उदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु अरई समुप्पज्जदि तं कम्मरई णाम । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं सोगो समप्पज्जदितं कम्मं सोगो णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स सत्त भयाणि समुप्पज्जति तं कम्मं भयं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण दन्व-खेत्त. काल-भावेसु चिलिसा समुप्पज्जदि तं कम्मं दुगुंछा णाम करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति शंका-- इसे सम्यक्पना कैसे है ? समाधान--- रत्नत्रयका विरोधी न होनेसे । शंका-- क्रोध, मान, माया और लोभमेंसे प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्दका निर्देश किसलिये किया गया है ? समाधान-- इनके बन्ध और उदयका विनाश पृथक् पृथक् होता है, पहिली तीन कषायोंके चतुष्कके समान इनका युगपत् विनाश नहीं होता; इस बातका ज्ञान करानेके लिए क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन पदका निर्देश किया गया है। जो नोकषायवेदनीय कर्म है वह नौ प्रकारका है-- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जगप्सा ॥ ९६ ॥ जिस कर्मके उदयसे पुरुषविषयक अभिलाषा होती है वह स्त्रीवेद कम है। जिस कर्मके उदयसे मनुष्यकी स्त्रियों में अभिलाषा उत्पन्न होती है वह पुरुषवेद कर्म है। जिस कर्मके उदयसे स्त्री और पुरुष उभयविषयक अभिलाषा उत्पन्न होती है वह नपुंसकवेद कर्म है । जिस कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका परिहास उत्पन्न होता है वह हास्य कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें रति उत्पन्न होती है वह रति कर्म है। जिस कर्मके उदयसे द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव में अरति उत्पन्न होती है वह अरति कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शोक उत्पन्न होता है वह शोक कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवके सात प्रकारका भय उत्पन्न होता है वह भय कर्म है। जिस कर्मके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें विचिकित्सा उत्पन्न होती है वह जुगुप्सा कम है। शंका--- करुणाका कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? ताप्रती 'णवविहं- तं इस्थिवेद-' इति पाठः। षट्वं. चू. १, २४. मूला. १२, १९२. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २७. कि ण वृत्तं ? ण, करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं ? ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भवगमादो। एवडियाओ पयडीओ।। ९७॥ णव चेव णोकसायपयडीओ, दसादीणमसंभवादो।। __ आउअस्स कम्मस्स केवडियाओं पयडीओ ? ॥ ९८ एति भवधारणं प्रतीति आय: । सेसं सुगमं । आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ-णिरयाउअं तिरिक्खाउअं मणुस्साउअं देवाउअं चेति । एवडियाओ पयडीओ ॥ ९९ ।। जं कम्मं णिरयभवं धारेदि तं णिरयाउअंणाम। जं कम्मं तिरिक्खभवं धारेदि तं तिरिक्खाउअं णाम । कम्मं मणसभवं धारेदि तं मणसाउअंजाम । जं कम्मं देवभवं धारेदि तं देवाउअंणाम। एवं चत्तारि चेव आउपपडीओ होंति, पंचमाविभवाणमभावादो णामस्स कम्मस्सल केवडियाओ पयडीओ ?॥ १०० ॥ नाना मिनोतीति नाम । सेसं सुगमं । समाधान - नहीं, क्योंकि, करुणा जीवका स्वभाव है, अत एव उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। शंका- तो फिर अकरुणाका कारण कर्म कहना चाहिए ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, उसे संयमघाती कर्मोके फल रूपसे स्वीकार किया गया है। नोकषायवेदनीयकी इतनी प्रकृतियां होती हैं ।। ९७ ॥ नौ ही नोकधायप्रकृतियां होती है, क्योंकि दस आदि प्रकृतियां सम्भव नहीं हैं। आयु कर्मकी कितनी प्रकृतियां होती हैं? ॥ ९८ ॥ __ जो भवधारणके प्रति जाता है वह आय है। शेष सुगम है। आयु कर्मकी चार प्रकृतियां हैं - नारकायु, तिर्यंचाय, मनुष्याय और देवायु । उसकी इतनी प्रकृतियां होती हैं। ९९ ॥ जो कर्म नरक भवको धारण कराता है वह नारकायु कर्म है। जो कर्म तिर्यंच भवको धारण कराता है वह तिर्यंचायु कर्म है । जो कर्म मनुष्य भवको धारण कराता है वह मनुष्यायु कर्म है । जो कर्म देव' भवको धारण कराता है वह देवायु कर्म है। इस प्रकार आयु कर्मकी चार ही प्रकृतियां हैं, क्योंकि पांचवें आदि भव नहीं पाये जाते । नामकर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं? ॥१०० ।। जो नाना प्रकारसे बनाता है वह नामकर्म है । शेष कथन सुगम है । * का-ताप्रत्यो: ' भवणधारणं ' इति पाठ:14 एत्यनेन नारकादिभवमित्यायुः 1 स. सि.८, ४. ४षखं. जी. च १.२५-२६ 8 अ-आ-काप्रतिष ' णामकम्मस्स ' इति पाठः । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ५, १०१.) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३६३ - णामस्स कम्मस्स बादालीसं पिंडपयडिणामाणि- गदिणामं जादिणाम सरीरणामं सरीरबंधणणामं सरीरसंघावणामं* सरीरसंठाणणामं सरीरअंगोवंगणाम सरीरसंघडणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुवुविणामं अगुरुगलहुअणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगवि-तसथावर-बादर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिरसुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर--दुस्सर-आदेज्ज-अणावेज्ज-जसकित्तिअजसकित्ति-णिमिण-तित्थयरणामं चेदि ।। १०१ ।। ___जं णिरय-तिरिक्ख-मणस्स-देवाणं णिवत्तयं कम्मं तं गदिणामं । एइंदिय-बेइंदियतेइंदिय-चरिदिय-पंचिदियभावणिवत्तयंज कम्मं तं जादिणाम जादो णाम सरिसप्प. च्चय* गेज्झा। ण च तण-तरुवरेसु सरिसत्तमस्थि, दोवंचिलियासु (?) सरिसभावाणुवलंभादो ? ण, जलाहारगहणेण दोणं पि समाणत्तदंसणादो। जस्स कम्मस्स उदएण ओरालिय-वेउब्विय आहार-तेजा-कम्मइयसरीरपरमाणू जीवेण सह बंधमागच्छंति तं नामकर्मको ब्यालीस पिण्डप्रकृतियां हैं- गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, शरीरबन्धननाम, शरीरसंघातनाम, शरीरसंस्थाननाम, शरीरांगोपांगनाम, शरीरसंहनननाम, वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, आनुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, परघातनाम, उच्छ्वासनाम, आतापनाम, उद्योतनाम, विहायोगतिनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, बादरनाम, सूक्ष्मनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, प्रत्यकशरीरनाम, साधारणशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशःकीर्तिनाम, अयशःकोतिनाम, निर्वाणनाम और तीर्थकरनाम ॥ १०१ ।। जो नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव पर्यायका बनानेवाला कर्म है वह गतिनामकर्म है। जो कर्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय भावका बनानेवाला है वह जाति नामकर्म है। शंका-- जाति तो सदृशप्रत्ययसे ग्राह्य है, परन्तु तृण और वृक्षोंमें समानता है नहीं; क्योंकि, दो दो वृक्षोंमें सदृशभाव उपलब्ध नहीं होता ? समाधान-- नहीं, क्योंकि जल व आहार ग्रहण करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता देखी जाती है। जिस कर्मके उदयसे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरके परमाण जीवके साथ बन्धको प्राप्त होते हैं वह शरीर नामकर्म हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवके साथ 8 अ-आ-काप्रतिषु ' णाम ' इति पाठः ( अग्रेऽप्ययमेवास्ति पाठस्तत्र )। अ-आ-ताप्रतिषु • -सरीरसंघादणामकाप्रती सरीरसंघादणाम ' इति पाठ: 1 9 षटखं. जी. चू. १, २७-२८. * ताप्रती 'सरीरपच्चय-' इति पाठ:1 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १०१. कम्म सरीरणामं । जस्स कम्मस्स उदएण जीवेण संबद्धाणं वग्गणाणं अण्णोण्णं संबंधो होदि तं कम्म सरीरबंधणणामं । जस्स कम्मस्स उदएण अण्णोण्णसंबद्धाणं वग्गणाणं मट्टत्तं होदितं सरीरसंघावणामं*, अण्णहा तिलमोअओ व्व विसंतुल+ सरीर होज्ज। जस्स कम्मस्स उदएण समचउरससादिय-खुज्ज -वामण हुंड-णग्गोहपरिमंडलसंट्ठाणं सरीरं होज्ज तं सरीरसंठाणणामं । जस्स कम्मस्सुवएण अढण्णमंगाणमुवगाणं च जिप्फत्ती होवि तं अंगोगंगं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण सरोरे हड्डणिप्पत्ती होदि तं सरीरसंघडणं णामं जस्स कम्मरस उदएण सरीरे वण्णणिप्पत्ती होवि तं वण्णणाम जस्स कम्मस्सुदएण दुविहगंधणिप्फत्ति होदि । तं गंधणामं । जस्स कम्मस्सदएण सरीरे रसहणिप्फत्ती होदि तं रसणामं । जस्स कम्मस्सुदएण सरीरे फास णिप्फत्ती होदि तं फासणामं । जस्स कम्मस्सुदएण परिचत्तपुव्वसरीरस्स अगहिदुत्तरसरीरस्स जीवपदेसाणं रचणापरिवाडी होदितं कम्ममाणुपुटवीणाम। जस्स कम्मस्सुद. एण जीवस्स सगसरीरं गुरु-लहुगभावविवज्जियं होदितं कम्मगुरुअलहुगं णाम । जस्स कम्मस्सुवरण सरीरमप्पणो चेव पीडं करेदि तं कम्ममुवघादं णाम, तस्स उदाहरणं दीह सिंग-तुंडोदरादओ। जस्स कम्मस्सुदएण सरीरं परपीडायरं होदितं परघावं णामांजस्स कम्मस्स उदएण उस्सास णिस्सासाणं णिप्फत्ती होदि तमुस्सासणामा जस्स कम्मस्सुदएण संबधको प्राप्त हुई वर्गणाओंका परस्पर संबंध होता है वह शरीरबन्धन नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे परस्पर संबंधको प्राप्त हुई वर्गणाओंमें मसृणता आती है वह शरीरसंघात नामकर्म है, इसके विना शरीर तिलके मोदकके समान विसंस्थुल ( अव्यवस्थित । हो जायगा । जिस कर्मके उदयसे समचतुरस्र, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंड और न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानवाला शरीर होता है वह शरीरसंस्थान नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे आठ अगों और उपांगोंकी उत्पत्ति होती है वह आंगोपांग नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें हड्डियोंकी निष्पत्ति होती है वह शरीरसंहनन नामकर्म हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें वर्णकी उत्पत्ति होती है वह बर्ण नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें दो प्रकारके गन्धकी उत्पत्ति होती है वह गन्ध नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें रसकी निष्पत्ति होती है वह रस नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें स्पर्शकी उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है। जिस जीवने पूर्व शरीरको तो छोड दिया है, किन्तु उत्तर शरीरको अभी ग्रहण नहीं किया है उसके आत्मप्रदेशोंकी रचनापरिपाटी जिस कर्मके उदयसे होती है वह आनुपूर्वी नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवका अपना शरीर गुरु और लघु भावसे रहित होता है वह अगुरुलघु नामकर्म हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर अपनेको ही पीडाकारी होता है वह उपघात नामकर्म है। इसका उदाहरण- जैसे दीर्घ सोंग, मुख और पेट आदिका होना । जिस कर्मके उदयसे शरीर दूसरोंको पीडा करनेवाला होता है वह परघात नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे उच्छ्वास और निश्वासकी उत्पत्ति होती है वह उच्छ्वास नामकर्म है। जिस अ-आ-काप्रतिषु ‘सरीरबंधण णाम इति पाठ.1 * अ-आ-काप्रतिष ' सरीरसंघाद णाम ' इति पाठ: 1 आप्रती — विसरुलं ., काप्रती' विसरलं , ताप्रती । विसंरुलं ' इति पाठ:1.काप्रती 'समचउरस्सादिखज्ज- इति पाठ:16अ-आ-काप्रतिषु '-संठाणं णाम ' इति पाठ:18 काप्रती '-संघडणं णाम, इति पाठः 1 5 का-ताप्रत्योः ‘-स्सुदएण रस' इति पाठ: 1 का-ताप्रत्योः 'स्सुदएण फास-' इति पाठः ] , Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.५, १०१. ) पर्याअणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा ( ३६५ सरीरे आदाओ होदितं आदावणामं । सोष्णप्रभा आतापः जस्स कम्मस्सुवएण सरीरे उज्जओ होदितं कम्ममुज्जोवं णामं । जस्स कम्मस्सुदएण भूमिमोट्ठहिय अणोदुहिय वा जीवाणमागासे गमणं होदि तं विहायगदिणामं । जस्त कम्मस्सुदएण जीवाणं संच रणासंचरण भावो होदि तं कम्मं तसणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरतं होदि तं कम्मं थावरं णामं । आउ-तेउवाउकाइयाणं संचरणोवलंभादो ण तसत्तमत्थि, सिगमणपरिणामस्स पारिणामियत्तादो । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा बादरा होंति तं बादरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा सुहुमेइंदिया होंति तं सुहुमणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा पज्जत्ता होंति तं कम्मं पज्जत्तं णामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा अपज्जत्ता होंति तं कम्मंमपज्जत्तं णाम । जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदितं कम्मं पत्तेयसरीरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण एगसरोरा होवूण अनंता जीवा अच्छंति तं कम्मं साहारणसरीरं । जस्स कम्मरपुदएण रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि कालमवद्वाणं होदि तं थिरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमवुरिम + धादुसवेण परिणामो होदि तमथिरणाम । जस्स कम्मस्सुदएण चक्कवट्टि बलदेव- वासु देव तादिरिद्वीणं सूचया सवंकुसाविदादओ अंग-पंच्चमेसु उप्पज्जेति तं सुहणामं । जस्स कम्मस्सुदएणअसुहलक्खणाणि उप्पज्जंतित ममुहणामंजस्स कम्मस्सुदएण जीवस्स सोहग्गं कर्मके उदयसे शरीरमें आताप होता है वह आताप नामकर्म है । उष्णता सहित प्रभाका नाम आताप हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर में उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे भूमिका आश्रय लेकर या विना उसका आश्रय लिए भी जीवोंका आकाश में गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवोंके गमनागमन भाव होता है वह त्रस नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे जीवोंके स्थावरपना होता है वह स्थावर नामकर्म है । जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंमें जो संचरण देखा जाता है उससे उन्हें त्रस नहीं समझ लेना चाहिये; क्योंकि, उनका वह गमन रूप परिणाम परिणामिक होता है । जिस कर्मके उदयसे जीव बादर होते हैं वह बादर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय होते हैं वह सूक्ष्म नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव पर्याप्त होते है वह पर्याप्त नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव अपर्याप्त होते हैं वह अपर्याप्त नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे एक शरीरमें एक ही व जीवित रहता है वह प्रत्येकशरीर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे एक हो शरीरबाले होकर अनंत जीव रहते हैं वह साधारणशरीर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिक धातुओंका अपने रूपसे कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिकोंका आगेकी धातुओं स्वरूपसे परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियोंके सूचक शंख, अंकुश और कमल आदि चिन्ह अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न होते हैं वह शुभ नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं वह अशुभ नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवके सौभाग्य होता है वह >अ आ ताप्रतिषु ' मुवरिमा' इति पाठः (काप्रतौ तु वाक्यमेवेदं नोपलभ्यते ) षट्खं. पु. ६, पृ. ६३. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १०१. होदि तं सुहगणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवो गृहवो होदि तं दूभगं णामं । जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसुहो सरो होदि तं सुस्सरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णसुहो सरोण होदि तं दुस्सरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवो आदेज्जो होदि तमादेज्जणामं । जस्स कम्मस्सुदएण सोभणाणुट्टाणो वि जीवो ण गउरविज्जदि तमणादेज्जं णाम । जस्स कम्मस्सुवएण जसो कित्तिज्जइ जणवयेण तं जसगित्तिणामं । जस्स कम्मस्सुदएण अजसो कित्तिज्जइ के लोएण तमजसगित्तिणामं । जस्स कम्मस्सुदएण अंग-पच्चंगाणं ठाणं पमाणं च जादिवसेग गियमिज्जदि तं णिमिणणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविण तित्थं दुबालसंग कुणदि तं तित्थयरणामं । एवमेदाओ बादालीसं पिंडपयडीयो । को विंडो णाम ? बहूणं पयडीणं संदोहो पिंडो । तसादिपयडीणं बहुत्तं णत्थि त्ति ताओ अपिंडपयडीओ त्ति ण घेत्तव्यं, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलंभादो । कुदो तदुवलद्धी ? जुत्तीदो । सुभग नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवके दौर्भाग्य होता है वह दुभंग नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे कानोंको प्यारा लगनेवाला स्वर होता है वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे गधा एवं ऊंटके समान कर्णोंको प्रिय लगनेवाला स्वर नहीं होता है वह दुस्वर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव आदेय होता है वह आदेय नामकर्म है । जिस कर्मके उदय से अच्छा कार्य करनेपर भी जीव गौरवको प्राप्त नहीं होता हैं वह अनादेय नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जनसमूहके द्वारा यश गाया जाता है अर्थात् कहा जाता है वह यशः कीर्ति नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे लोग अपयश कहते हैं वह अयशःकीर्ति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे अंग प्रत्यंगका स्थान और प्रमाण अपनी अपनी जातिके अनुसार नियमित किया जाता है वह निर्माण नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव पांच महाकल्याणकोंको प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगोंकी रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है । इस प्रकार ये ब्यालीस पिण्डप्रकृतियां हैं । शंका- पिण्डका अर्थ क्या है ? समाधान - बहुत प्रकृतियोंका समुदाय पिण्ड कहा जाता है । शंका- त्रस आदि प्रकृतियां तो बहुत नहीं हैं, इसलिए क्या वे अपिण्डप्रकृतियां हैं ? समाधान - ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, वहां भी बहुत प्रकृतियोंकी उपलब्धि होती है । शंका- वहां बहुत प्रकृतियोंकी उपलब्धि कैसे होती है ? समाधान - युक्तिसे । शंका- वह युक्ति कौनसी है ? समाधान- क्योंकि, कारणके बहुत हुए विना भ्रमर, पतंग, हाथी और घोडा अ आ-काप्रतिषु ' सरो होदि' इति पाठः । 2) प्रतिषु गित्तिज्जइ' इति पाठ: 1 ' . Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १०६. ) पर्याअणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा ( ३६७ का जुत्ती ? कारणबहुत्तेन विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगादीणं बहुत्ताणुववत्तीदोॐ । संपहि उत्तरुत्तरपयडिपमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि जं तं गदिणामकम्मं तं चउब्विहं - णिरयगइणामं तिरिक्खग-इणामं मणुस्सगदिणामं देवगविणामं ॥ १०२ ॥ जं तं जाविणामं तं पंचविहं - एइंदियजादिणामं बेइंदियजादिणामं तेइंदियजाविणामं चउरिदियजादिणामं पंचिदियजादिणामं चेदि० ।। १०३ ॥ जं तं सरीरणामं तं पंचविहं - ओरालियसरीरणामं वेउब्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेजइयसरीरणामं कम्मइयसरीरणाम चेवि ॥ १०४ ॥ जं तं सरीरबंधणणामं तं पचविहं - ओरालियसरीरबंधणणामं वेजव्वियसरी रगंधणणामं आहारसरीरगंधणणामं तेजइयसरीरबंधणामं कम्वइयसरीरबंधणणामं चेदि ॥ १०५ ॥ जं तं सरीरसंघादणामं तं पंचविहं- ओरालियसरीरसंघादणामं वेडव्वियसरीरसंघावणामं आहारसरीरसंघादणामं तेजइयसरोरसंघावणामं कम्मइयसरीरसंघादणामं चेदि ॥ १०६ ॥ आदिक नाना भेद नहीं बन सकते हैं। इससे जाना जाता है कि त्रसादि प्रकृतियां बहुत हैं । अब उत्तरोत्तर प्रकृतियों के प्रमाणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंजो गति नामकर्म है वह चार प्रकारका है- नरकगति नामकर्म, तिर्यंचगति नामकर्म, देवगति नामकर्म और मनुष्यगति नामकर्म ॥ १०२ ॥ जो जाति नामकर्म है वह पांच प्रकारका है- एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और पंचेन्द्रियजाति नामकर्म ॥ १०३ ॥ जो शरीर नामकर्म है वह पांच प्रकारका है- औदारिकशरीर, वै क्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, और कार्मणशरीर नामकर्म ।। १०४ ॥ जो शरीरबन्धन नामकर्म है वह पांच प्रकारका है - औदारिकशरीरबन्धन, वैक्रियिकशरीरबन्धन, आहारकशरीरबन्धन, तैजसशरीरबन्धन और कार्मणशरीरबन्धन नामकर्म ॥ १०५ ॥ जो शरीरसंघात नामकर्म है वह पांच प्रकारका है - औदारिकशरीरसंघात, वैक्रियिकशरीरसंघात, आहारकशरीरसंघात, तैजसशरीरसंघात और कार्मणशरीरसंघात नामकर्म ॥। १०६ ।। तातो वहुत्ताणुववत्ती ' इति पाठ: 10 षट्खं जी चू. १, २९ षट्ख. जी. चू. १, ३१. षट्खं. जी. चू. १, ३२. २५ षट्खं. जी. चू. १, ३३. षट्खं. जी. चू. १, ३०. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, १०७. एवाणि सुत्ताणि सुगमाणि । जं तं सरीरसंठाणणामं तं छविहं- समचउरसरीरसंठाणणामं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणणाम सादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं हुंडसरीरसंठाणणामं चेदि* ॥१०७ चतुरं शोभनम्, समन्ताच्चतुरं समचतुरम्, समानमानोन्मानमित्यर्थः ।समचतुरं च तत् शरीरसंस्थानं च समचतुरशरीरसंस्थानम्।तस्य संस्थानस्य निर्वर्तकं यत् कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । न्यग्रोधो वटवृक्षः, समन्तान्मंडलं परिमण्डलम्, न्यग्रोधस्य परिमण्डललिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्थानस्य तन्न्यग्रोधपरिमंडलशरीरसंस्थानं नाम । अधस्तात् श्लक्षणं उपरि विशालं यच्छरीरं तन्यग्रोधपरिमंडलशरीरसंस्थानं नाम । एतस्य यत् कारणं तस्याप्यषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । स्वातिर्वल्मीकः, स्वातिरिव शरीरसंस्थानं स्वातिशरीरस्थानं । एतस्य यत् कारणं कर्म तस्याप्येषैव संज्ञा, कारणे कार्योपचारात् । दीर्घशा कुब्जशरीरम, कुब्जशरीरस्य संस्थान कुब्जशरीरसंस्थानम्। एतस्य यत् कारणं कर्म तस्याप्येतदेव नाम, कारणे कार्योपचारात्। ये सूत्र सुगम हैं। जो शरीरसंस्थान नामकर्म है वह छह प्रकारका है - समचतुरशरीरसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थान, स्वातिशरीरसंस्थान, कुब्जशरीरसंस्थान, वामनशरीरसंस्थान और हुण्डशरीरसंस्थान नामकर्म ।। १०७॥ ___चतुरका अर्थ शोभन है, सब ओरसे चतुर समचतुर कहलाता है । समान मान और उन्मानवाला, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। समचतर ऐसा जो शरीरसंस्थान वह समचतरशरीरसंस्थान है । उस संस्थानका निर्वर्तक जो कर्म है उसकी भी कारणमें कार्यका उपचार करनेसे यही संज्ञा होती है । न्यग्रोधका अर्थ वटका वृक्ष है, और परिमण्डलका अर्थ है सब ओरका मंडल न्यग्रोधके परिमण्डलके समान जिस शरीरसंस्थानका परिमण्डल होता है वह न्यग्रोधपरिमण्डल शरीरसंस्थान है। जो शरीर नीचे सूक्ष्म और ऊपर विशाल होता है वह न्यग्रोधपरिमण्डल रसंस्थान कहलाता है इसका कारण जो कर्म है उसकी भी कारणमें कार्यका उपचार होनेसे यही संज्ञा है। स्वातिका अर्थ वल्मीक अर्थात वामी है। स्वातिके समान जो शरीरसंस्थ होता है वह स्वातिशरीरसंस्थान कहलाता है इस शरीरका कारण जो कर्म है उसकी भी यही संज्ञा है, क्योंकि, कारणमें कार्य का उपचार किया गया है । जिस शरीरकी शाखायें दीर्घ हों वह कुब्जशरीर है, कुब्जशरीरका जो संस्थान है वह कुब्जशरीरसंस्थान है । इसका कारण जो कर्म है उसका भी यही नाम है, क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। वामन शरीरका जो संस्थान है वह वामनशरीरसंस्थान है, अर्थात् जिसकी शाखायें हृस्व प्रतिषु 'समचउरससरीर-' इति पाठः 1 *षट्खं जी. चू. १, ३४. ॐ काप्रती वाक्यमिदं त्रुटितं जातम् । . Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १०९. ) पर्या अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा ( ३६९ वामनशरीरस्य संस्थानं वामनशरीरसंस्थानम् । हृस्वशाखं वामनशरीरम् । एतस्य कारणकर्मणोप्येषैव संज्ञा । विषमपाषाणभृतदृतिवत् समन्ततो विषमं हुण्डम्, हुंडं च तत् शरीरसंस्थानं हुंडसरीरसंस्थानम् । एतस्य कारणकर्मणोप्येषैव संज्ञा । जं तं मरीरअंगोवंगणामं तं तिविहं- ओरालियसरीर अंगोवंगणामं वेडव्वियसरीरअंगोवंगणामं आहारसरीरअंगोवंगणामं चेदि * ॥ सुगममेदं । जं तं सरीरसंघडणणामं तं छव्विहं- वज्जरि सहवइरणारायणसरीरसंघडणणामं वज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायण* सरीरसंघडणणामं अद्धणारायणसरीरसंघडणणामं खीलियसरीरसंघडण - णामं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेवि ।। १०९ ।। वज्रमिव वज्रम्, वज्रऋषभः वज्रनाराचश्च वज्रर्षभवज्रनाराचौ, तो एब शरीरसंहननं वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् वज्राकारेण स्थितास्थिः वेष्टकः ऋषभः तौ भित्वा स्थितं वज्रकीलकं वज्रनाराचं । ऋषभवज्ररहितं वज्रनाराचशरीर हों वह वामनशरीर हैं । उसका कारण जो कम है उसकी भी यही संज्ञा है । विषम पाषाणोंसे भरी हुई मशकके समान जो सब ओरसे विषम होता है वह हुण्ड कहलाता है, हुण्ड ऐसा जो शरीरसंस्थान वह हुण्डशरीरसंस्थान हैं । इसके कारणभूत कर्मकी भी यही संज्ञा है ! जो शरीरआंगोपांग नामकर्म है वह तीन प्रकारका है- औदारिकशरीरआंगोपांग, वैक्रियिकशरीरआंगोपांग और आहारकशरीरआंगोपांग नामकर्म । १०८ । यह सूत्र सुगम है । जो शरीरसंहनन नामकर्म है वह छह प्रकारका है- वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन, वज्रनाराचशरीरसंहनन, नाराचशरीरसंहनन, अर्धनाराचशरीरसंहनन, कीलितशरीरसंहनन और असंप्राप्तसेवार्तशरीरसंहनन नामकर्म ॥ १०९ ॥ जो वज्र के समान होता है यह वज्र कहलाता है । वज्रऋषभ और वज्रनाराच, इस प्रकार यहां द्वन्द्व समास है । इन दोनों रूप जो शरीरसंहनन है यह वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन कहलाता है । वज्ररूपसे स्थित हड्डी और ऋषभ अर्थात् वेष्टन इन दोनोंको भेद कर जिसमें वज्रमय कीलें स्थित हैं वह वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन है । जिसमें वज्रमय नाराच हों, पर ऋषभ वज्र रहित हो वह वज्रनाराचशरीरसंहनन है । इन दोनोंके विना जो शरीरसंहनन होता है अ आ-काप्रतिषु दद्यशाख, तापतो 'दह्यशाखं ' इति पाठ: 1 तातो' पाषाणभृतदृतिवत्' इति पाठ | षट्सं. जी. चू. १, ३५. ताप्रती 'णाराइण' इति पाठ: 1 षट्खं. जी. चू. १, ३६. 2) काप्रती ' वज्रऋषभ ' इति पाठः । अ आ-काप्रतिषु ' नाराचाः त एव'. तातो' नाराचः त एव ' इति पाठ: 1 * काप्रतो 'तो' इति पाठः । लकवज्रनाराचऋषभ रहितं ताप्रती 'वज्रकीलक ( ) वज्रनाराच (:) ॠषभरहितं ' इति पाठ: 1 अ-आ-ताप्रतिषु 'वज्रकी " Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ११०. संहननम् । ताभ्यां विना नाराचशरीरसंहननम् । नाराचेन अर्द्धभिन्नं अर्द्धनाराचशरीरसंहननम्। अवज्रकीलैः कीलितं कीलितशरीरसंहननम् । स्नायभिर्बद्धास्थि असंप्राप्तसरिसृपादिशरीरसंहननम् । एतेषां कारणानि यानि कर्माण तेषामेतान्येव नामानि । स्नायवन्त्र सिरादीनां निर्वत्तकानि कर्माणि किन्नोक्तानि? न, तेषामंगोपांगनाम्न्यन्तर्भावात् । __ जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविहं- किण्णवणणामं णीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हलिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णणामं चेदि ११० । जं तं गंधणामं तं दुविहं-- सुरहिगंधणामं दुरहिगंधणामं चेदि ॥१११॥ जं तं रसमाणं तं पंचविहं- तित्तणामं कड्डवणामं कसायणाम अंबिलणामं महुरणामं चेदि ॥ ११२ ॥ जं तं फासणामं तमट्ठविहं-कक्खडणामं मउअणामं गरुवणाम लहुअणामणिद्धणाम ल्हुक्खणामं सीदणाम उसुणणामं चेदि।११३। एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । वह नाराचशरीरसंहनन है । नाराचसे आधा भिदा हुआ संहनन अर्धनाराचशरीरसंहनन हैं। अवज्रमय कीलोंसे कीलित संहनन कीलितशरीरसंहनन है । जिसमें स्नायुओंसे हड्डियां बंधी होती हैं वह असंप्राप्तसरीसृपादिशरीरसंहनन है । इनके कारण जो कर्म हैं उनके भी ये नाम हैं। शंका - स्नायु, आंत और सिरा आदिके बनानेवाले कर्म क्यों नहीं कहे ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उनका आंगोपांग नामकर्ममें अन्तर्भाव हो जाता है। जो वर्ण नामकर्म है वह पांच प्रकारका है- कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रुधिरवर्ण हरिद्रावर्ण और शुक्लवर्ण नामकर्म । ११० ।। जो गन्ध नामकर्म है वह दो प्रकारका है-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध नामकर्म ॥ जो रस नामकर्म है वह पांच प्रकारका है- तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर नामकर्म । ११२ । जो स्पर्श नामकर्म है वह आठ प्रकारका है- कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण नामकर्म । ११३ । यह सूत्र सुगम है। प्रतिषु '-बध्नास्थि-' इति पाठः 1 * षट्वं. जी. चू. १, ३७. 18 षट्खं जी. चू. १, ३८. षट्खं. जी. च. १, ३९. अप्रतौ ' उण्हणामं ' इति पाठः। षट्वं. यी. चू. १,४०. . Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५, ११६. ) अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा जं तं आणुपुविणामं तं चउब्विहं निरयगइपाओग्गाणुपुविणामं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्विणामं मणुसगइपाओग्गाणुपुविवणामं देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामं चेदि ।। ११४ ॥ सुगममेदं सुतं । संपहि गिरयगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए उत्तरपयडिपमाणपरूवणटुमुत्तरसुत्तं भणदिनिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए केवडियाओ पयडीओ ? । ११५ । ( ३७१ सुगमं । निरयगइ पाओग्गाणुपुब्विणामाए पयडीओ अंगुलस्स असंखेज्जबिभागमेत्त बाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जविभाग मेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ ।। ११६ ।। मुक्कgoवसरीरस्स अगहिदुत्तसरीरस्स जीवस्स अट्ठकम्मक्खंधेहि एयत्तमुवगयस्स हंतधवलविस्सासोवचएहि उवचियपंचवण्णक मक्खंधंतस्स* विसिट्टमुहागारेण जीवपसाणं अणुपरिवाडीए परिणामो आणुपुन्वी णाम । कि मुहं णाम ? जीवपदेसाणं विसिठाणं । जो आनुपूर्वी नामकर्म है वह चार प्रकारका है- नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपुर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म ॥ ११४ ॥ यह सूत्र सुगम है । अब नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियों के प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नाम कर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। ११५ । यह सूत्र सुगम है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यक्प्रतररूप बाल्यको श्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ॥ ११६ ॥ जिसने पूर्व शरीरको छोड दिया है, किन्तु उत्तर शरीरको ग्रहण नहीं किया है, जो आठ कर्मस्कन्धों के साथ एकरूप हो रहा है, और जो हंसके समान धवल वर्णवाले विस्रसोपचयोंसे उपचित पांच वर्णवाले कर्मस्कन्धोंसे संयुक्त है; ऐसे जीवके विशिष्ट मुखाकाररूपसे जीवप्रदेशों का जो परिपाटीक्रमानुसार परिणमन होता है उसे आनुपूर्वी कहते है । शंका- मुख किसे कहते हैं ? समाधान- जीवप्रदेशोंके विशिष्ट संस्थानको मुख कहते हैं । षट्खं जी. चू. १, ४१. प्रतिषु 'कम्मक्खंधतं तस्स इति पाठ: । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, ११६. णिरयगईए पाओग्गाणपुव्वी णिरयगइपाओग्गागुपुव्वी तिस्से जं कारणं कम्मं तस्स वि एसा चेव सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो । संठागणामकम्मादो जेण सरीरसंठाणणिफत्ती तेग णिप्फला णिरयगइपाओग्गाणपुव्वी त्ति ण वोत्तं जत्तं, अगहिदओरालिय-वे. उन्विय-सरीरस्स जीवस्स संठाणाणमुदयाभावादो कम्मइयसरीरमसंठाणंमाहोहदि त्ति जीवपदेसाणं अण्णण्णाए अणुपरिवाडीए अवदाणस्स कारणमाणपुग्वि ति णिच्छिदव्वं । उस्सेहधणंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्तसव्वजहण्णोगाहणाए णिरयदि गच्छमाणसित्थमच्छस्स विसिटमुहागारेण ट्ठियस्स एगो गिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लब्भइ। पुणो तीए चेव जहण्णोगाहणाए णिरयदि गच्छमाणस्स अवरस्स सिस्थमच्छस्स बिदियो णिर यगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पो लम्भइ, पुग्विल्लजीवपदेसाणमणुपरिवाडीए अवट्ठाणादो पुग्विल्लागासपदेसादो पुधभूदआगासपदेससंबंधेण एत्थ अण्णारिसअणुपरिवाडीए अवठाणदंसणादो । संपहि ताए चेव सव्वजहण्णोगाहणाए णिरयगई गच्छमाणस्स अवरस्स सिस्थमच्छस्स तदियो णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पो लब्भदि, पुग्विल्लअणुपरिवाडिअवट्ठाणादो पुविल्लागासपदेसादो पुधभदआगासपदेससंबंधण एत्थ वि अण्णारिसअणुपरिवाडीए अवट्ठाणस्स उवलंभादो । एदं कारणं सव्वत्थ वत्तव्वं । पुणो सवजहण्णोगाहणाए अलद्धपुव्वमुहागारेण नरकगतिके योग्य जो आनुपूर्वी होती है वह नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी है, और इसका कारण जो कम है उसकी भी यही संज्ञा है, क्योंकि, यहां कारण में कार्यका उपचार किया गया है। शंका- यतः संस्थान नामकर्मके उदयसे शरीरसंस्थानकी उत्पत्ति होती है अतएव नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतिका मानना निष्फल है ? ___समाधान- ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि, जिसने औदारिक और वैक्रियिकशरीरको ग्रहण नहीं किया है ऐसे जीवके चूंकि संस्थानोंका उदय रहता नहीं है अतएव उसका कार्मणशरीर संस्थानरहित न होवे, इसलिए जीवप्रदेशोंके भिन्न भिन्न परिपाटीक्रमानुसार अवस्थानका कारण आनुपूर्वी प्रकृति है, ऐसा यहां निश्चय करना चाहिए। __ उत्सेध धनांगुलके संख्यातवें भागमात्र सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले और विशिष्ट मुखाकाररूपसे स्थित सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका एक विकल्प पाया जाता है । पुनः उसी जघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले दूसरे सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका दूसरा विकल्प पाया जाता है, क्योंकि, पहलेके जीवप्रदेशोंका अनुपरिपाटीसे जो अवस्थान पाया जाता है उससे यहांपर पहलेके आकाशप्रदेशोंसे पृथग्भूत आकाशप्रदेशोंके सम्बन्धसे भिन्न अनुपरिपाटीका अवस्थान देखा जाता हैं । अब उस ही सबसे जघन्य अवगाहनाके नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका तीसरा विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि, पहलेकी अनुपरिपाटी रूपसे जो अवस्थान है इससे यहां पर भी पहलेके आकाशप्रदेशोंसे पृथग्भूत आकाशप्रदेशोंके सम्बन्धसे अन्य अनुपरिपाटीका अवस्थान उपलब्ध होता है । यह कारण सर्वत्र कहना चाहिए । पुनः सबसे जघन्य अवगाहनाके * अप्रतौ 'त्ति वोत्तुं' इति पाठः। *ताप्रती भावादो। कम्मइय-' इति पाठः । . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ११६. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३७३ णिरयगइं गच्छमाणस्स अवरस्स सित्थमच्छस्स चउत्थो णिरयगइपाओग्गाणपुन्वि-- वियप्पो लब्भदि, अलद्धपुवमुहागारेण परिणयत्तादो। पुणो अवरस्स सित्थमच्छस्स ताए चेव सवजहण्णोगाहणाए णिरयगइं गच्छमाणस्स पंचमो णिरयगइपाओग्गाणुपुविवियप्पो लगभइ, अलद्धपुस्वमहागारेण परिणमिददव्वस्स कारणत्तादो। एवं छ-सत्त. अटु-णव-दस-आवलिय-उस्सास-थोव-लवणालि-महत्त-दिवस-पक्ख-मास-उड्ड-अयणसंवच्छर-जुग-पुव्व-पल्ल सागररज्जुतिरियपदरे ति णिरयगइपाओग्गाणुपुन्विवियप्पा परूवेयव्वा । पुणो एदेणेव कमेण दो-तिण्णिआदितिरियपदरवियप्पा वड्ढावेदव्वा जाव सूचिअंगलस्स असंखेज्जदिमागमेत्ततिरियपदराणं जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विवियप्पा लभंति । णवरि णव-णवमुहवियप्पेहि णिरएसु उप्पज्जमाणसित्थमच्छाणं सा सव्वजहण्णोगाहणा धुवा कायव्वा । रज्जुपदरं रज्जवग्गो तिरियपदरं त्ति एयट्ठो। सूचिअंगलस्स असंखेज्जदिभागेण तिरियपदरे गणिवे जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया चेव णिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा सित्थमच्छसव्वजहण्णोगाहणमस्सिदूण लद्धा त्ति भणिदं होदि । एत्तो अहियाण लभंति। कुदो ? साभावियादो। __ संपहि पदेसुत्तरसव्वजहण्णोगाहणाए णिरएसु मारणंतिएण तेण विणा वा विग्गहगदीए उप्पज्जमाणसिस्थमच्छाणं तत्तिया चेव णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा लब्भंति । साथ अलब्धपूर्व मुखाकाररूपसे नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका चौथा विकल्प होता है, क्योंकि, पहले नहीं उपलब्ध हुए ऐसे मुखाकाररूपसे वह परिणत हुआ है । पुनः उसी सर्वजघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पांचवां विकल्प उपलब्ध होता है, क्योंकि, यह अलब्धपूर्व मुखाकाररूपसे परिणमित हुए द्रव्यका कारण है । इस प्रकार छह, सात, आठ, नौ, दस, आवलि, उच्छ्वास, स्तोक, लव, घटिका, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष युग, पूर्व, पल्य, सागर और राजु रूप तिर्यक्प्रतर तक नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प कहने चाहिए । पुनः इसी क्रमसे दो तीन आदि तिर्यप्रतरविकल्पोंको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यकप्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने मात्र नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प प्राप्त होने तक बढाते जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नूतन नूतन मुखविकल्पोंके साथ नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंकी वह सबसे जघन्य अवगाहना ध्रुव करनी चाहिए । राजुप्रतर, राजुवर्ग और तिर्यकप्रतर ये एकार्थवाची शब्द हैं । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे तिर्यप्रतरको गणित करनेपर जितने आकाशप्रदेश उपलब्ध होते हैं उतने ही सिक्थ मत्स्यकी सबसे जघन्य अवगाहनाकी अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इनसे अधिक विकल्प नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। अब एक प्रदेश अधिक सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ नरकोंमें मरणांतिक समुद्घात करके या उसके विना विग्रहगति द्वारा उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके ४ अप्रतौ ' अव 'का-ताप्रत्यौः ' ताव 'इति पाठः। * का-ताप्रत्यो ' संवच्छर पुव्व ' इति पाठः | Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड अहियोगाहणाए अहिया मुहागारा ण लब्भंति, कारणसत्तिभेदेण कज्जभेदुप्पत्तीदो। ण च एक्कम्हि कारणे समाणसत्तिसंखोवलक्खिए संते कज्जसंखाविसयभेदो अत्यि, विरोहादो। जहण्णोगाहणमुहागारेहि पदेसुत्तरजहण्गोगाहणमुहागारा अण्णोण्णं कि सरिसा आहो विसरिसा ति ? जदि पढमादिया अणुपरिवाडीए पढमादिएहि सरिसा तो पदेसुत्तरजहण्णोगाहणाए लद्धगिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा पुणरुत्ता होति । अह जदि ण सरिसा तो एदे मुहागारा णिरयगइपाओग्गाणपुवीए ण होति । अह होंति, जहण्णोगाहणाए अण्णेहि वि0 मुहागारेहि होदव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण ताव पढमपक्खे वुत्तदोसो संभवदि, अणभव गमादो । ण च असरिसपक्खे वुत्तदोसो वि संभवदि, अण्णाणुपुव्वीदो असरिसमुहागारु पत्तीए विरोहाभावादो। ण च जहण्णोगाहणाए एसा आणुपुवी सकज्जमुप्पावेदि, पदेसुत्तरओगाहणापडिबद्वाणुपुवीए सेसोगाहणासु वावारविरोहादो। ण च जहण्णोगाहणमुहागारेहि पदेसुत्तरजहण्णोगाहणमुहागाराणं सरिसत्तमत्थि, पुणरत्तप्पसंगादो। एसा आणुपुवी पुग्विल्लाणपुवीहितो पुधभूदे त्ति कधं णव्वदे ? भिण्णकज्जकर गादो। " उतने ही विकल्प प्राप्त होते हैं। अधिक अवगाहनाके अधिक मुखाकार नहीं प्राप्त होते, क्योंकि कारण रूप शक्तिमें भेद होनेसे ही कार्य में भेद उत्पन्न होता है। समान शक्तिसंख्यासे युक्त एक कारणके होनेपर कार्यमें संख्याविषयक भेद नहीं होता है. क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। शंका-- जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंसे प्रदेशोत्तर जघन्य अवगाहनाके मुखाकार परस्परमें क्या समान होते हैं या असमान ? यदि प्रथमादि मुखाकार अनुपरिपाटीसे प्रथमादिकोंके साथ समान होते हैं तो एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहनाके द्वारा प्राप्त हुए नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प पुनरुक्त होते हैं। और यदि वे समान नहीं होते हैं तो ये मुखाकार नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके नहीं हो सकते। यदि उसीके होते हैं तो जघन्य अवगाहनासे भिन्न भी मुखाकार होने चाहिए ? समाधान-- यहां इस शंकाका समाधान कहते हैं, प्रथम पक्षमें कहा हुआ दोष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसे स्वीकार नहीं किया है । तथा असमान पक्षमें कहा हुआ दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्य आनुपूर्वीसे असमान मुखाकारोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता। जघन्य अवगाहनामें यह आनुपूर्वी अपने कार्यको उत्पन्न करती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, एक प्रदेश अधिक अवगाहनासे सम्बन्ध रखनेवाली आनुपूर्वीका शेष अवगाहनाओं में व्यापार मानने में विरोध आता है । जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंके साथ एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंकी समानता होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में पुनरुक्त दोष आता है । शंका-- यह आनुपूर्वी पहलेकी आनुपूर्वियोंसे भिन्न है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- उसका कार्य भिन्न है, इसीसे उसकी उनसे भिन्नता जानी जाती है। और भिन्न ४ अ-आ-काप्रतिषु · संखोवसक्कीए '. ताप्रती · संखोवलक्की ( द्धी ) ए ' इति पाठः । 9 अ-आ-प्रतिष 'मि' इति पाठः तातो ' अणुब्भुव-' इति पाठः 1 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, ११७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा (३७५ च भिण्णकज्जं कुगमाणाणं सत्ती समाणा, बिरोहादो। ण च सत्तिभेदे संते वत्थुस्स अभेदो अत्थि, अव्ववत्थापसंगादो । एवं पादेक्कं सवोगाहणावियप्पेसु सूचीअंगुलस्स असंखेज्जदिभागगणिदरज्जुपदरमेत्ता णिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा वत्तव्वा । एवं लभंति त्ति कादूण सित्थमच्छोगाहणं महामच्छोगाहणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि जहण्णोगाहणवियप्पट्टमेगरूवे पक्खित्तं सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्ता ओगाहणवियप्पा होति संखेज्जघणंगुलेसु वि सेडीए असंखेज्जविभागो ति संववहारुवलंभादो । पुणो जदि एगोगाहणवियप्पस्स अंगलस्स असंखेज्जविभागेण गणिदतिरियपदरमेत्ता णिरयगदिपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा लब्भंति तो संखेज्जघणंगलमेत्तोगाहणवियप्पाणं केवडिए गिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पे लभामो त्ति संखेज्जघणंगुलेहि सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततिरियपदरेसु गणिदेसु जावदिया आगासपदेसा तावदिया चेव गिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीए उत्तरोत्तरपयडीओ होति ।। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविणामाए केवडियाओ पयडीओ ?॥ सुगममेदं । । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविणामाए पयडीयो लोओ सेडीएक कार्योंको करनेवालोंकी शक्ति समान होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। शक्तिभेदके होनेपर भी वस्तुमें भेद नहीं होता, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। इस तरह पृथक् पृथक् सब अवगाहनाविकल्पोंमें नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित राजप्रतर प्रमाण विकल्प कहने चाहिए । वे इस तरहसे प्राप्त होते हैं, ऐसा समझकर सिक्थ मत्स्यकी अवगाहनाको महामत्स्यकी अवगाहनामेंसे घटाकर जो शेष रहे उसमें जघन्य अवगाहनाके विकल्पकी अपेक्षा एक मिलानेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाविकल्प होते है, क्योंकि, संख्यात घनांगलोंमें भी श्रेणिके असंख्यातवें भागरूप संख्याका व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। पुनः यदि एक अवगाहनाके विकल्पकी अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प अंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित तिर्यप्रतर प्रमाण प्राप्त होते हैं तो संख्यात घनांगुल मात्र अवगाहनाविकल्पोंके कितने नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार संख्यात घनांगुलोंसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यप्रतरोंको गुणित करनेपर जितने आकाशप्रदेश होते है उतनी ही नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी की उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ होती है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वोकी कितनी प्रकृतियां होती हैं ? ॥ ११७ ॥ यह सूत्र सुगम है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां लोकको जगश्रेणिके असंख्यातवें @ काप्रती — पयडीओ ताओ सेडीए' इति पाठः। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ) छक्खंडागमे वग्गणाडखं (५, ५, ११८. असंखेज्जविभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडिायाओ पयडीओ ॥ ११८॥ एक्स्स सुत्तस्स अत्यविवरणं कस्सामो। तं जहा सुहमणिगोदअपज्जत्तएण उस्सेहघणंगलस्स असंखेज्जविभागमेतसवजहण्णोगाहणाए तिरिक्खेसु मारणंतिए मेल्लिदे एगो तिरिक्खगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लभदि, एगागासपदेससंबंधेण अपुवमुहागारेण परिणामहेदुत्तादो। पुणो बिदियसहमणिगोदअपज्जत्तएण ताए चेव जहण्णोगाहणाए तिरिक्खेसु उप्पण्णएण अपुव्वो महायरो संपत्तो। ताधे विदियो तिरिक्खगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लब्भदि । एवमपुव्व-अपुव्वमहागारेहि तिरिक्खेसु उप्पादेदव्वो जाव जहण्णोगाहणमस्सिदूण घणलोगमेत्ता तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए उत्तरोत्तरपयडिवियप्पा लद्धा ति। संपहि जहण्णोगाहणमस्सिदण तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए वियप्पा एत्तिया चेव लब्भंति, एदेहितो अहियमहागारेणमेत्थ असंभवादो। सहमणिगोदअपज्जत्ताणं सवजहण्णोगाहणाए तिरिक्खेस उप्पज्जमाणाण णव-णवमुहागारा पगरिसेण जदि बहुआ होंति तो घणलोगमेत्ता चेव होंति ति भणिदं होदि । पुणो पदेसत्तरसव्वजहण्णोगाहणाए वि घणलोगमेता चेव तिरिक्खमइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडिवियप्पा लम्भंति । एवं दुपदेसुत्तरजहण्णोगाहणप्पहुडि महामच्छुक्कस्सोगाहणे त्ति ताव एदेसि सव्वोगाहणाणं घणलोगमेत्ता तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा उप्पादेदश। __ भाग मात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां होती हैं । ११८ । इस सूत्रके अर्थका विवरण करते हैं । यथा-सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीवके उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण सबसे जघन्य अवगाहनाके द्वारा तिर्यंचोमें मारणान्तिक समुद्घातके करनेपर एक तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि, वह एक आकाशप्रदेशके सम्बन्धसे अपूर्व मुखाकार रूपसे परिणमनका हेतु है । पुनः दूसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उसी जघन्य अवगाहनाके साथ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेपर अपूर्व मखाकार प्राप्त होता है । उस समय दूसरा तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प होता है । इस तरह जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर घनलोक प्रमाण तिर्यंचगतिप्रायोग्यानपूर्वीके उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्पोंके प्राप्त होने तक अपूर्व अपूर्व मुखाकारोंके साथ तिर्यचों में उत्पन्न कराना चाहिए । जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर तिर्य चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के इतने ही विकल्प उपलब्ध होते हैं, क्योंकि, इनसे अधिक मुखाकारोंका प्राप्त होना यहां सम्भव नहीं है । सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकोंके सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेपर नूतन नूतन मुखाकार उत्कृष्ट रूपसे यदि बहुत होते हैं तो वे घनलोक प्रमाण ही होते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । पुनः एक प्रदेश अधिक सर्वजघन्य अवगाहनाके आश्रयसे भी धनलोकप्रमाण ही तिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मके प्रकृतिविकल्प होते हैं। इसी प्रकार दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहनासे लेकर महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना तक इन सब अवगाहनाओं सम्बन्धी अलग अलग घनलोक प्रमाण तिर्यचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए। . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १२०.) पडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३७७ संपहि सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णोगाहणं महामच्छोगाहणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि एगरूवं पक्खि विय पुणो एदेण सेडीए असंखेज्जदिभागेण घणलोगे गणिदे जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया चेव तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविणामाए उत्तरोत्तरपयडीओ होंति। के वि आइरिया तिरियपदरेण गुणिदघणलोगमेत्ता तिरिक्खगइपाओग्गागुपुग्विवियप्पा एक्के क्किस्से ओगाहणाए होंति त्ति भणंति। तण्ण धउदे, सुत्तविरुद्धतादो-' लोगो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ' ति। ण च एदम्हि सुत्ते रज्जुपदरगुणिदघणलोगणिद्देसो अत्थि जेणेदं वक्खाणं सच्चं होज्ज । संपहि लोगो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणेयव्वो । एवं गुणिदाओ पयडीओ होंति ति सुत्तसंबधो कायन्वो । मणुसगइपाओग्गाणविणामाए केवडियाओ पयडीओ ? ॥ सुगमं। मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ पणदालीसजोयणसवसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उड्ढकवाडछेवणणिप्फण्णाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिवाओं। एवडियाओं पयडीओ ॥ १२० ॥ अब सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी सबसे जघन्य अवगाहनाको महामत्स्यकी अवगाहनामेंसे घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अक मिलाकर इस श्रेणिके असंख्यातवें भाग इससे घनलोकको गुणित करनेपर जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतनी ही तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्तरोत्तर प्रकृतियां होती हैं। कितने ही आचार्य तिर्यक्त्रतरसे गुणित धनलोक प्रमाण एक एक अवगाहना सम्बन्धी तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं, ऐसा कथन करते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस कथनमें प्रकृत सूत्रसे विरोध आता है- 'लोकको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करे ' यह उसका विरोधी सूत्रवचन है। इस . सूत्रमें ' राजुप्रतरसे गुणित धनलोक ' ऐसा उल्लेख नहीं है जिससे कि यह व्याख्यान सत्य माना जाय । अब लोकको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करना चाहिए । इस प्रकार गुणित करने पर उक्त प्रकृतियां होती हैं, ऐसा यहां सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिए। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको कितनी प्रकृतियां होती हैं ? । ११९ । यह सूत्र सुगम है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां ऊर्ध्वकपाटछेदनसे निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यकप्रतरोंको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहना. विकल्पोंसे गणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी है। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां होती हैं ॥ ताप्रती ' सुत्तविरुद्धत्तादो 1 ' लोगो' इति पाठः । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ५, १२० एदस्स सुत्तस्स अत्थवरूवणा कीरदे । तं जहा- उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेसवजहण्णोगाहगाए सुहुमणिगोदअपज्जत्तो विग्गहगदीए मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ एगो मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विवियप्पो लब्मदि । किफला एसा पयडी ? जहणो गाहाए अपुव्वसंठाणणिष्पायणफला । खेत्तंतरगमणफला त्ति किरण वुच्चदे ? ण, आणपुवि उदयाभावेण उजुगदीए गमणाभावप्यसंगादो। पुणो बिदिए सुहुमणिगोदअपज्जत्तजीवे जहण्णोगाहणाए विग्गहगदीए मणुस्सेसु उववण्णे बिदिओ मणुसदिपाओग्गाणुपुव्विणामाए वियप्पो होदि । पुणो तदिए सुहुमणिगोदअपज्जतजीवे जहण्णोगाहणाए अलद्धपुच्वेण महायारेण मणुस्सेसु उववण्णे* तदिओ मणुसगदिपाओग्गाणुपुवीए वियप्पो होदि, अण्णहा अपुव्वसुहागारुप्पत्तिविरोहादो । ण च कज्जभेदादो कारणभेदो असिद्धो, अकारणकज्जुप्पत्तिप्पसंगादो । एदं सव्वजहण्णोगाहणं निरुभिऊण अलद्धपुव्वणाणाविहमुहागारेहि मणुस्सेसु मारणंतियं करेमाण मणिगोदजीवाणं मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विपयडिवियप्पा उप्पादेदव्वा जाव पणदालीस जोयणसयस हसबाहल्लाणं तिरियपदराणं जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया वियप्पा लद्धा त्ति - इस सूत्र के अर्थका कथन करते हैं। यथा उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाग सबसे जघन्य अवगाहनाके द्वारा सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव विग्रहगतिसे मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । यहां मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका एक विकल्प प्राप्त होता है । शंका- इस प्रकृतिका क्या फल है ? समाधान- उसका फल जघन्य अवगाहना के द्वारा अपूर्व संस्थानोंको निष्पन्न कराना है । शंका- क्षेत्रान्तर में ले जाना, यह इस प्रकृतिका फल क्यों नहीं कहते ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऋजुगतिमें आनुपूर्वीका उदय नहीं होता, अतएव वहां ऋजुगति से अन्य गति में गमन के अभावका प्रसंग आता है । पुनः दूसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य अवगाहनाके साथ विग्रहगतिसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेपर दूसरा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प होता है । पुनः तीसरे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य अवगाहनाके साथ अलब्धपूर्व मुखाकार के द्वारा मनुष्यों में उत्पन्न होनेपर तीसरा मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प होता हैं, क्योंकि, अन्यथा अपूर्व मुखाकारकी उत्पत्ति होने में विरोध आता है । यदि कहो कि कार्यभेदसे कारणमें भेद मानना असिद्ध है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, इस तरह कारणके विना ही कार्यकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । सबसे जवन्य इस अवगाहनाका आलम्बन लेकर अलब्धपूर्व नानाविध मुखाकारोंके साथ मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पैंतालीस लाख योजन बाहल्य रूप तिर्यक्प्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने विकल्प प्राप्त होनेतक मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृति के विकल्प उत्पन्न कराने चाहिए । यहां जघन्य अवगाहनाका अ-आ-ताप्रतिषु 'णिरंभिऊण' इति पाठ: । अ-आ 'का-ताप्रत्योः ' उववण्णो इति पाठ । काप्रतिषु ' पुव्विवियप्पा ' इति पाठ 1 . Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १२०.) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा (३७९ संपहि एत्थ जहण्गोगाहणमस्सिदण मणसगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पा एत्तिया चेव लब्भंति। कुदो? साभावियादो। ण च सहाओ परपज्जणियोगारहो, अव्ववत्थावत्तीदो। के वि आइरिया मुहसंठाणाणि चेव आणुपुत्वीदो उप्पज्जति ति भणंति । तण्ण घडदे, सेसावयवसंठाणाणमकारणुप्पत्तिप्पसंगादो। एवाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि कधमुप्पण्णाणि त्ति भणिदे उच्चदे-उडकवाडच्छेदगिप्पण्णाणि त्ति । इदरेसिमाणुपुस्विकम्माणं तिरियपदराणं घणलोगस्स य उत्पत्तिमपरूविय एदेसि चेव तिरियपदराणमुप्पत्ती किमळं परूविज्जदे ? लोगसंठाणपरूवणठें। उड्डकवाडमिदि एदेण लोगो णिहिट्ठो। कधमेसा लोगस्स सण्णा? वुच्चदे2-ऊवं च तत् कपाटं च ऊर्ध्वकपाटं, ऊर्ध्वकपाटमिवरलोकः ऊर्ध्वकपाटम् । जेण लोगो चोद्दसरज्जु उस्सेहो सत्तरज्जुरुंदो मज्झे उवरिमपेरंते च एगरज्जुबाहल्लो उवरि बम्हलोगद्देसे पंचरज्ज बाहल्लो मुले सत्तरज्जुबाहल्लो अण्णत्थ जहाणुवडिबाहल्लो, तेण उट्ठियकवाडोवमो। उड्डकवाडस्स छेदणं उड्डकवाडच्छेदणं तेण* उड्डकवाढच्छेदणेण णिप्पण्णाणि एदाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबा हल्लतिरियपदराणि। आलम्बन लेकर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके इतने ही विकल्प उपलब्ध होते हैं, क्योंकि ऐसा स्व भाव है। और स्वभाव दूसरोंके द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता, अन्यथा अव्यवस्था प्राप्त हो जावेगी । कितने ही आचार्य आनुपूर्वीसे मुखसंस्थान ही उत्पन्न होते हैं ऐसा कथन करते हैं। वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर शेष अवयवोंके संस्थानोंकी अकारण उत्पत्तिका प्रसंग आता है। ये पैंतालीस लाख योजन बाहल्य रूप तिर्यप्रतर कैसे उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहनेपर सूत्र में उड्डकवाडच्छेदणणिप्पण्णाणि' यह वचन कहा है। ____ शंका - इतर आनुपुर्वी कर्मोंके तिर्यप्रतरोंकी और घनलोककी उत्पत्ति न कहकर इन्हींके तिर्यकप्रतरोंकी उत्पत्ति किसलिए कही जाती है ? समाधान - लोकसंस्थानका कथन करने के लिए। ' उनकवाडं' इस पदके द्वारा यहां लोकका निर्देश किया हैं। शंका - यह लोकको संज्ञा कैसे कही जाती हैं ? समाधान - ऊर्ध्व ऐसा जो कपाट वह ऊर्ध्वकपाट है, ऊर्ध्व कपाटके समान होनेसे लोक उर्ध्वंकपाट कहलाता है । यतः लोक चौदह राजु ऊंचा, सात राजु चोडा, मध्यमें और ऊपर अतिम भागमें एक राजु बाहल्यवाला, ऊपर ब्रह्मलोकके पास पांच राजु बाहल्यवाला, मुल में सात राजु बाहल्यवाला, तथा अन्यत्र वृद्धिके अनुरूप बाहल्यवाला है; अतः वह ऊर्ध्वस्थित कपाटके समान कहा गया है । ऊर्ध्वकपाटका छेदन ऊर्ध्वकपाटछेदन है, उस ऊर्ध्वकपाटछेदनसे ये पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतर निष्पन्न हुए हैं। ताप्रती · सण्णा वृच्चदे ? ' इति पाठ: 10 अ-आ-काप्रतिषु । कपाटं च ऊर्ध्वकपाटमिव ' इति पाठः। ताप्रती 'पंजरज्जु 'इति पाठः। ताप्रती · उनकवाडस्स छेदणं तेण 'इति पाठ:1 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १२०. ___ संपहि एत्थ उडकवाडछेदणविहाणं वच्चदे । तं जहा- सत्तरज्ज़रुंदंतम्मि दोसु वि पासेसु तिण्णि-तिण्णिरज्जआयामेण एगरज्जविक्खंभेण उकवाडं छत्तव्वं । पुणो पणदालीसजोयणलक्खस्सेहं मोत्तण हेट्टा उरि च मज्झिमवेसे उनकवाडं छिदिवव्वं । पुणो मुह १ भूमि ५ विसेसो ४ उच्छंय ३ मजिदो वडिपमाणं होदि । एदीए वड्ढीए पणवालीसजोयणलक्खेसु वडिदखेत्तं दोसु वि पासेसु अवणेदव्वं । एवमुकवाडच्छेदेणेण पणवालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियवपराणि णिप्फण्णाणि । एदेण लोगो मज्झपदेसे विक्खंभायामेहि एगरज्जुमेत्तो होदूण हेट्ठा उरिं च वडणाणो गदो त्ति जो लोगोवदेसो* सो फेरिदो, तत्थ उडुट्टियकवाडमंठागाभावावो । तुम्मे हि वृत्तलोगो वि उड्डकवाडसंठाणो ण* होदि, वढि हाणीहि गवबाहल्लत्तादो त्ति वुत्तेण, सव्वप्पणा सरिसविट्ठताभावादो। भावे वा चंदमही कण्णे तिर ण घडदे, चंदम्मि भ-महक्खि-णासादीणमभावादो।। के वि आइरिया उडमुवरि त्ति भगति, दो वि पासाणि कवाडमिदि भणंति । एदेसि छेदेण पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लतिरियपदराणं णिप्पत्ति- परवेंति। तण्ण घडदे दोण्णं पासाणं कवाडमिवि सण्णाभावादो। ण च अप्पसिद्धं वोत्तुं जुत्तं, अव्ववत्था __ अब यहां ऊर्ध्वकपाट अर्थात् लोककी छेदनविधि कहते हैं । यथा- सात राजु प्रमाण चौडाईमेंसे दोनों ही पार्श्व भागोंमें तीन-तीन राजु आयाम रूपसे और एक राजु विष्कम्भ रूपसे ऊर्ध्वकपाट अर्थात् लोकका छेदन करना चाहिए । पुनः पैंतालीस लाख योजन उत्सेधको छोडकर नीचे व ऊपर मध्यभागमें ऊर्ध्वकपाटका छेदन करना चाहिए । पुनः मुख एक राजु और भूमि ५ राज, इनका अन्तर ४ राज, इसमें उत्सेध राजका भाग देनेपर वृद्धिका प्रमाण होता है । इस वृद्धिके प्रमाणसे पैंतालीस लाख योजनोंमें बढे हुए क्षेत्रको दोनों ही पाश्व भागोंमेंसे अलग कर देना चाहिए । इस प्रकार ऊर्ध्वकपाटका छेदन करनेसे पतालोस है योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतर निष्पन्न होते हैं । इस कथनसे ' लोक मध्य भागमें विष्कम्भ और आयाम रूपसे एक राजु प्रमाण हो करके नीचे और ऊपर वृद्धिंगत होकर गया है' ऐसा जों लोकका उपदेश है वह खण्डित हो जाता है, क्योंकि, उसमें ऊर्ध्वस्थित कपाटके संस्थानका अभाव है। यहां शंकाकार कहता है कि तुम्हारे द्वारा कहा गया लोक भी ऊर्ध्वकपाटके संस्थानरूप नहीं होता है, क्योंकि, उसका बाहल्य वृद्धि और हानिको लिए हुए है । सो उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, दृष्टांत सर्वात्मना सदृश नहीं पाया जाता । यदि कहो कि सर्वात्मना सदृश दृष्टांत होता है तो ' चन्द्रमुखी कन्या' यह घटित नहीं हो सकता, क्योंकि, चन्द्रम भ्रू. मुख, आंख और नाक आदिक नहीं पाए जाते । कितने ही आचार्य 'ऊर्ध्व' का अर्थ 'ऊपर ' ऐसा कहते है और दोनों ही पार्श्व कपाट हैं, ऐसा कहते हैं। वे इनके छेदनसे पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंकी निप्पत्ति कहते हैं । परन्तु यह घटित नही होता, क्योंकि, दोनों पाश्र्वोको 'कपाट' यह संज्ञा नहीं है । और जो बात अप्रसिद्ध है उसका कथन करना उचित नहीं है, क्योंकि, इससे अव्यवस्थाकी आपत्ति *ताप्रती · त्ति लोगोवदेसो ' इति पाठः। काप्रती ' संठाणेण', ताप्रती ' संठाणे (णो) ण इति पाठः ताप्रती ' चंदमुहीकरणेत्ति ' इति पाठः [ ताप्रती णिप्पण्णं ' इति पाठः । . Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १२०. ) पर्य अणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८१ यत्तदो । ण च उवमेयस्स उवमाणसण्णा असिद्धा, अग्गिसमाणमणुअम्मि, अग्गिववएसुवलंभादो । के वि आइरिया एवं भणति जहा पणदालीसजोयणलक्खाणं रज्जुपदरस्स य अद्धच्छेद ए* कवे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अद्धच्छेदाणि लब्भंति । जत्तियाणि एवाणि अद्धच्छेदणाणि तत्तियमेत्ता मणुसगइपाओग्गाणुपुविवियप्पा होंति त्ति । एत्थ उवदेसं लद्धूण एवं चैव वक्खाणं सच्चमण्णं असच्चमिदि जिच्छओ कायन्वो । एवे च दो वि उवएसा सुत्तसिद्धा । कुदो ? उवरि दो वि उवदेसे अस्सिदृण अप्पा बहुगपरूवणादो । विरुद्वाणं दोष्णमत्थाणं परूवयं कथं सुत्तं होदित्ति वृत्ते - सच्चं जं सुत्तं तमविरुद्धत्थपरूवयं चेव । किंतु णेदं सुतं सुत्तमिव सुत्तमिवि एक्स्स उवयारेण सुत्तत्तन्भुवगमादो। किं पुण सुत्तं ? सुतं गणहरकहियं तव पत्तेयबुद्ध कहियं च । सुदवणा कहियं अभिण्णदसपुव्विकहियं च ॥ ३४ ॥ ण च भूतबलिमडारओ गणहरो पत्तेयबुद्धो सुदकेवली अभिण्णदसपुथ्वी वा जेणेवं सुत्तं होज्ज । जवि एवं सुत्तं ण होदि तो सव्वमप्यमाणत्तं किं ण पसज्जदे ? ण, एगुद्देसम्मि आती है । उपमयेकी उपमान संज्ञा असिद्ध है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अग्नि के समान मनुष्यकी अग्नि संज्ञा देखी जाती है । कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि पैंतालीस लाख योजनों और राजुप्रतरके अर्द्धच्छेद करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र अर्द्धच्छेद उपलब्ध होते है । और जितने ये अर्द्धच्छेद होते हैं उतने ही मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं। यहांपर उपदेशको प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, क्योंकि, अन्य व्याख्यान असत्य है; ऐसा निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि, आगे दोनों ही उपदेशोंका आश्रय करके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है । शंका - विरुद्ध दो अर्थोका कथन करनेवाला सूत्र कैसे हो सकता है ? समाघान यह कहना सत्य है, क्योंकि, जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थका ही प्ररूपण करनेवाला होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं हैं, क्योंकि, सूत्रके समान जो होता है वह सूत्र कहलाता है, इस प्रकारसे इसमें उपचार सूत्रपनासे स्वीकार किया है । शंका- तो फिर सूत्र क्या है ? -- समाधान " जिसका गणधरने कथन किया हो, उसी प्रकार जिसका प्रत्येकबुद्धोंने कथन किया हो, श्रुतकेवलियोंने जिसका कथन किया हो, तथा अभिन्नदशपूर्वियोंने जिसका कथन किया हो; वह सूत्र है । ३४ । परन्तु भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं, और न अभिन्नदशपूर्वी ही हैं; जिससे कि यह सूत्र हो सके । " शंका - यदि सूत्र नहीं है तो सबके अप्रमाण होनेका प्रसंग क्यों न प्राप्त होगा ? ताप्रती ' अद्धच्छेदणाए ' इति पा । * ताप्रती असंखे० भागमेत्ताणि अद्धछेदणाणि तत्ति - पमेत्ता इति पाठः+अ-आ-काप्रतिष् 'परूवणं इति पाठ: । XXX भ. आ ३४. मूला. ५, ८०. अ आ-काप्रतिषु कोष्ठकस्थोऽयं पाठो नास्ति । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १२१. पमाणत्ते संदिद्ध संते सव्वस्स अप्पमाणत्तविरोहादो । पमाणतं कूदो णव्वदे ? रागदोस-मोहाभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराए आगदत्तादो। अम्हाणं पुण एसो अहिप्पाओ जहा पढमपरूविदअत्थो चेव भद्दओ, ण बिदिओ ति। कुदो? पणदालीसजोयणलक्खबाहल्लाणं तिरियपदराणं अद्धच्छेदणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गणिवाओ ति सुत्ते संबंधुज्जोवछट्टिअंतणिद्देसाभावादो णिरत्थयउड्ढकवाडच्छेदणयणिसादो वा, केसु वि सुत्तपोत्थएसु बिदियमत्थमस्सिदूर्ण परूविदअप्पाबहुआभावादो च। एदाए ओगाहणाए + लद्धआणुपुग्विपयडीओ ठविय सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं महामच्छुक्कस्सोगाहणाए सोहिय एगरूवे पक्खित्ते सेडीए अखंखेज्जदिमागमेत्ता ओगाहणवियप्पा होंति । एदेहि ओगाहणवियप्पेहि एगोगाहणआणुपुग्विवियप्पेसु गुणिदेसु मणुसगइपाओग्गाणपुवीए सवपयडिसमासो होदि। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए केवडियाओ पयडीओ? ।१२१॥ सुगमं। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीयो णवजोयणसवबाह समाधान- नहीं, क्योंकि एक उद्देश में प्रमाणताका सन्देह सबको अप्रमाण मानने में विरोध आता है। शंका-- सूत्रकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? समाधान-- राग, द्वेष और मोहका अभाव हो जानेसे प्रमाणीभूत पुरुषपरम्परासे प्राप्त होने के कारण उसकी प्रमाणता जानी जाती है। हमारा तो यह अभिप्राय है कि पहले कहा गया अर्थ ही उत्तम है, दूसरा नहीं; क्योंकि 'पंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यकप्रतरोंके अर्द्धच्छेदोंको जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करे' इस प्रकार सूत्र में सम्बन्धको दिखानेवाले षठ्यन्त निर्देशका अभाव है, अथवा ऊर्ध्वकपाट छेदनका निर्देश निरर्थक किया है, कितनी ही सूत्रपोथियोंमें दूसरे अर्थका आश्रय करके कहे गए अल्पबहुत्वका अभाव भी है । इस अवगाहनासे प्राप्त आनुपूर्वी प्रकृतियोंको स्थापित करके सूक्ष्म निगोद लब्ध्यप - प्तिककी जघन्य अवगाहनाको महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिलानेपर जगश्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्प होते हैं। इन अवगाहनाविकल्पोंसे एक अवगाहना सम्बन्धी आनुपूर्वीविकल्पोंको गुणित करनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सब प्रकृति विकल्पोंका जोड होता है। । देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। १२१ ॥ ___ यह सूत्र सुगम है । देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियों नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यकप्रतरोंको 1 अप्रतो ' अह मं पुण', आकाप्रत्योः · अहमं पुण', ताप्रतौ — अह मंषुण (अम्हाणं पुण)' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु' पढमं परूविदं अत्थो ' इति पाठ: 1 + अ-आ-काप्रतिषु । तिरियपदराणि ' इति पाठः । ताप्रती 'एदाए एगो ( ओ ) गाहणाए ' इति पाठ: 1 . Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८३ ५, ५, १२२. ) पर्या अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जविभागमेत्तेहि ओगाहणवियहि गुणिवाओ । एवडियाओ पयडीओ ॥ १२२ ॥ ' तिरियपदराणि ' त्ति पुव्वं णवुंसयलगेण निद्देसं काऊण पच्छा 'गुणिदाओ त्ति सिमिथि लगेण णिद्देसो ण जुज्जदे, भिण्णाहियरणत्तादो ? ण एस दोसो, तिरिपदराणं पर्याsत्ति विवक्खाए इथिलगत्तुवलंमादो । उस्सेहघणंगुलस्स संखेज्जवि - भागमेत सव्वज हण्णो गाहणाए देवगडं गच्छ माणस्स सित्थमच्छस्स एगो देवगदिपाओगाणुपुव्विवियप्पो लम्भदि । पुणो तीए चेव सव्वजहण्णोगाहणाए अलद्धपुब्वेण महागारेण देवगई गच्छमाणस्स सित्थमच्छस्स बिदियो देवग दिपाओग्गाणपुव्विवियप्पो लब्भदि । मुह सरीरं, तस्स आगारो संठाणं त्ति घेत्तव्वं । अत्र श्लोक: मुखमर्द्ध शरीरस्य सर्वं वा मुखमुच्यते । तत्रापि नासिका श्रेष्ठा नासिकायाश्च चक्षुषी । ३५ । एवं पुणो पुणो अलद्धपुण्वमहागारेण देवे सुप्पज्जमानसित्थमच्छाणं णवजोयण सदबाहल्लाणं तिरियपदराणं जतिया आगासपदेसा तत्तिया चेव सव्वजहगोगाहणमस्सिदृण देवगइपाओग्गाणुपुविणामाए उत्तरोत्तरपयडिलब्भंति 1 पहि पदेसुत्तरसव्वजहण्णो गाहणाए जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं । १२२ । वियप्पा शंका - तिरियपदराणि ' इस प्रकार पहिले नपुंसकलिंग रूपसे निर्देश करके पश्चात् गुणिदाओ' इस प्रकार उनका स्त्रीलिंग रूपसे निर्देश करना योग्य नहीं है, क्योंकि, इस इनका भिन्न अधिकार हो जाता हैं ? 'प्रकारसे " 'समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि तिर्यक्प्रतरोंकी ' प्रकृति' ऐसी विवक्षा होनेपर स्त्रीलिंगपना उपलब्ध हो जाता है । उत्सेध घनांगुलके संख्यातवें भागमात्र सर्वजघन्य अवगाहनाके द्वारा देवगतिको जानेवाले सिक्थ मत्स्यके एक देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका विकल्प प्राप्त होता है । पुनः उसी सर्वजघन्य अवगाना के द्वारा अलब्धपूर्व मुखाकारके साथ देवगतिको जानेवाले सिक्थ मत्स्यके दुसरा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी विकल्प प्राप्त होता है। मुखका अर्थ शरीर हैं, उसका आकार अर्थात् संस्थान, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस विषय में श्लोक है शरीर के आधे भागको मुख कहते है, अथवा पूरा शरीर ही मुख कहलाता है । उसमें भी नासिका श्रेष्ठ है और नासिकासे भी दोनों आंखे श्रेष्ठ हैं । ३५ । इस प्रकार पुन: पुन: अलब्धपूर्व मुखाकारके साथ देवों में उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंके नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने ही सबसे जघन्य अवगाहनाका आलम्बन लेकर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । अब एक प्रदेश अधिक सबसे जघन्य अवगाहनामें भी इतने ही प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । तातो 'जोयण ' इति पाठ: 1 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ) छक्खंडागमे वग्गणाडंखं (५, ५, १२३. वि एत्तिया चेव वियप्पा लब्भंति । एवं दुपदेसुत्तरसम्वजहण्णोगाहणप्पहुडि णेदव्वं जाद सव्वुक्कस्समहामच्छोगाहणे ति। संपहि एगोगाहणवियप्पस्स जदि णवजोयण सदबाहल्लतिरियपदरमेत्ता देवदिपाओग्गाणव्विवियप्पा लब्भंति तो संखेज्जघणंगलमेत्तोगाहणमेत्तवियप्पाणं केवडिए देवगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पे लभामो ति सयलोगाहणवियप्पेहि णवजोयण*सदबाहल्लतिरियपदरेसु गणिदेसु देवगइपाओग्गाणपुविणामाए उत्तरोत्तरपयडिसव्ववियप्पा होति । *एत्थ अप्पाबहुगं ।। १२३ ।। किमट्टमेदं कीरदे? पयडीणं थोव-बहुत्तजाणावणळं, अण्णहा अणुत्तसमाणत्तप्पसंगादो। ___ सव्वत्थोवाओ गिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ ॥ कुदो ? सूचिअंगुलस्स असंखेज्जविभागबाहल्लतिरियपदरेसु गिरएसुप्पज्जमाणजीवाणमोगाहणट्टाणेहि गुणिदेसु तासि पमाणुप्पत्तीदो। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ असंखेज्जगु-- णाओ ॥ १२५ ।। एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, हेट्टिमतिरियपदरस्स उरिमतिरियपदरं सरिसं, हेटिमओगाहणटाणेहि उवरिमओगाहणढाणाणि सरिसाणि त्ति अवणिय इस प्रकार दो प्रदेश अधिक सर्वजघन्य अवगाहनासे लेकर सबसे उत्कृष्ट महामत्स्यकी अवगाहना तक ले जाना चाहिए। अब यदि एक अवगाहनाविकल्पके नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरप्रमाण देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होते हैं तो संख्यात घनांगुलमात्र अवगाहनाविकल्पोंके कितने देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार समस्त अवगाहनाविकल्पोंके द्वारा नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंको गुणित करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामक प्रकृतिके सब उत्तरोत्तर प्रकृतिविकल्प प्राप्त होते हैं । अब यहां अल्पबहुत्व कहते हैं ॥ १२३ ॥ शंका-- यह किसलिए कहा जा रहा है ? समाधान--- प्रकृतियोंके अल्प-बहुत्वका ज्ञान कराने के लिए, क्योंकि, अन्यथा अनुक्तके समान होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । नरकगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां सबसे स्तोक हैं ॥ १२४ ॥ क्योंकि, नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके अवगाहनास्थानोंसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरोंको गुणित करनेपर उनका प्रमाण उत्पन्न होता है ! देवतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं ॥ १२५ ॥ यहांपर गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, अधस्तन तिर्यप्रतरसे उपरिम तिर्यक्प्रतर सदृश है तथा अधस्तन अवगाहनास्थानोंसे उपरिम अवगाहनास्थान ताप्रतो 'जोजण ' इति पाठः। * काप्रती 'णयजोयण ', ताप्रती 'णवयोजण' इति पाठः। * ताप्रतौ सूत्रमिदं कोष्ठक () स्थमस्ति ] . Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १२७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८५ हेट्ठिमअंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण णवजोयणसदे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो । हेट्ठिमसूचिअंगुलस्स पल्लस्स असंखेज्जदिभागो अवहारो होदि त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। एदेण णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पेसु गुणिदेसु देवगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा होति । मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ संखेज्ज - गुणाओ ॥ १२६ ॥ एत्थ गुणगारो संखेज्जाणि रूवाणि, हेटिमतिरियपदरेण उवरिमतिरियपदरं सरिसं ति अवणिय हेटिमओगाहणट्टाणेहिंतो उवरिओगाहणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि त्ति ताणि वि अवणिय हेट्ठिमणवजोयणसदेण उवरिमपणदालीसजोयणसदसहस्सेसु ओवट्टिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो । एदेहि संखेज्जरूवेहि देवगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पेसु गुणिदेसु मणुसगदिपाओग्गाणुपुग्विवियप्पा होति । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ असंखेज्जगणाओ ।। १२७ ॥ एत्थ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? हेटिमओगाहणाणेहि उवरिमओगाहणढाणाणि सरिसाणि त्ति अवणिय पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लतिरियपदरेण समान है, इसलिए इनको छोडकर अधस्तन अंगुलके असंख्यातवें भागका नौ सौ योजनमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । शंका-- अधस्तन सूच्यंगुलका पल्योपमका असंख्यातवां भाग अवहार है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--- यह सूत्रसे अविरुद्ध कथन करनेवाले आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। इससे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्पोंके गुणित करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं। उनसे मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां संख्यातगुणी हैं ।१२६। यहांपर गुणकार संख्यात अंकप्रमाण है, क्योंकि, उपरिम तिर्यप्रतर अधस्तन तिर्यक्प्रतरके समान है, इसलिए उसे छोडकर तथा अधस्तन अवगाहनास्थानोंसे उपरिम अवगाहनास्थान विशेष अधिक हैं, इसलिए उन्हें भी छोडकर अधस्तन नौ सौ योजनका उपरिम पैंतालीस लाख योजनमें भाग देनेपर संख्यात अंक उपलब्ध होते हैं । इन संख्यात अंकोंसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्पोंको गुणित करनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प होते हैं । उनसे तिर्यंचगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां असंख्यातगणी हैं।१२७। यहांपर गुणकार श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाग है, क्योंकि, पिछले अवगाहनास्थानोंसे अगले अवगाहनास्थान समान हैं, इसलिए उन्हें छोडकर पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप 8 प्रतिषु — असंखेज्ज ' इति पाठ: 1 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १२८. घणलोगे भागे हिदे सेडीए असंखेज्जविभागस्स उवलंभादो । भूओ अप्पाबहुअं ॥ १२८॥ पुव्वमप्पाबहुगं भणिदूण किमळं पुणो वुच्चदे ? अण्णं पि वक्खाणंतरमत्थि त्ति जाणावणठें। सम्वत्थोवाओ मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ।१२९। कुदो ? पणदालीसजोयणलक्खबाहल्लाणं तिरियपदराणमद्धच्छेदणएहि सव्वोगाहणट्ठाणेसु गुणिदेसु मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडोणं सव्ववियप्पुप्पत्तीदो। णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीओ असंखेज्ज-- गुणाओ॥ १३०॥ __को गुणगारो ? असंखेज्जाणि जगपदराणि। कुदो ? हेटिमओगाहणट्ठाणेहितो उवरिमओगाहगट्टाणाणि विसेसहीणाणि त्ति अवणिय हेद्विमपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अंगुलस्स असंखेज्जदिमागबाहल्लतिरियपदरे भागे हिदे असंखेज्जतिरियपदरुवलंभादो । __ देवगइपाओग्गाणुपुविणामाए पयडीओ असंखेज्ज-- गुणाओ॥१३१ ॥ को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं सुगमं । तिर्यप्रतरसे घनलोकको भाजित करनेपर श्रेणीका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । पुनः अल्पबहुत्व कहते हैं ॥ १२८ ।। शंका - पहले इसी अल्पबहुत्वको कहकर अब उसे पुन: किसलिए कहते हैं ? समाधान - अन्य भी व्याख्यानान्तर है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसका कथन फिरसे भी किया जा रहा है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां सबसे अल्प हैं ।। १२९ ।। क्योंकि, पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतरोंके अर्धच्छेदोंसे सब अवगाहनास्थानोंको गुणित करनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामक प्रकृतिसे सब विकल्प उत्पत्र होते हैं । उनसे नरकगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मको प्रकतियां असंख्यातगुणी हैं। १३० । गुणकार क्या है ? असंख्यात जगप्रतर गुणकार हैं, क्योंकि, पिछले अवगाहनास्थानोंसे अगले अवगाहनस्थान विशेष हीन हैं, इसलिए उन्हें छोडकर पिछले पल्योपमके असंख्यातवें भागका अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यरूप तिर्यक् प्रतरमें भाग देनेपर असंख्यात तिर्यक्प्रतर उपलब्ध होते हैं। उनसे देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मको प्रकृतियां असंख्यातगणी हैं ॥१३१॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । कारण सुगम है । " काप्रती 'मणसजाइ' इति पाठः 1 . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्या अणुओगद्दारे गोदपय डिपरूवणा ( ३८७ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए पयडीओ असंखेज्ज ५,५, १३४. ) गुणाओ ।। १३२ ।। गमं । अगुरुअलहुअणामं उवघादणामं परघावणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं विहायगविणामं तसणामं थावरणामं बाबरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारणसरीरणामं थिरणामं अथिरणामं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दूभगणाम सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेज्जणामं अणावेज्जणा मं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणणामं तित्थयरणामं ।। १३३ ॥ एवासि पयडीणं उत्तरोत्तरपयडिपरूवणा जाणिदूण कायव्वा । ण च एदालिमुत्तरोत्तरपयडीओ नत्थि, पत्तेयसरीराणं धव-धम्ममणादीणं साहारणसरीराणं थूहल्लयादीणं बहुविहस र गमणादीणमुवलंभादो । मूलय गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ १३४ ॥ उच्च-नीचं गमयतीति गोत्रम् । सेसं सुगमं । उनसे तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं । १३२ । यह सूत्र सुगम है । अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, परघातनाम, उच्छवासनाम, आतापनाम, उद्योतनाम, विहायोगतिनाम, नाम, स्थावरनाम, बादरनाम, सूक्ष्मनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, साधारणशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशु - भनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशः किर्तिनाम, अयशकिर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थंकरनाम ॥ १३३ ॥ इन प्रकृतियोंकी उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन जानकर करना चाहिए। इनकी उत्तरोत्तर प्रकृतियां नहीं हैं, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, धव और धम्ममन आदि प्रत्येकशरीर; मूली ओर थूहर आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकारके गमन आदि उपलब्ध होते हैं । गोत्रकर्मी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ १३४ ॥ जो उच्च और नीचका ज्ञान कराता है उसे गोत्र कहते हैं। शेष कथन सुगम है । षट्ख. जी. चू. १, ४२-४४ ताप्रतौ ' ववधम्माणादीणं ' इति पाठः । अप्रतो' धवधम्माणादीर्ण', आ-काप्रत्यो: 'धुवधम्माणादीनं ' काप्रती ' उच्चं णीच ' इति पाठः [ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ) छत्खंडागमे वग्गणा-खंड (५,५, १३५ गोवस कम्मस दुवे पयडीओ उच्चागोदं चेव णीचागोंद चेव एवडियाओ पयडीओ ॥ १३५ ॥ : उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः ? न तावद् राज्यादिलक्षणायां सम्पदि, तस्या: सद्वेद्यतः समुत्पत्तेः नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्ययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदयाभावप्रसंगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पतौ व्यापारः, ज्ञानावरण क्षयोपशमसहाय सम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः । तिर्यग्--नरकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्त्वात् । नादेयत्वे यशसि सौभाग्यं वा व्यापार:, तेषां नामतः समुत्पत्तेः । नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तौ काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्त्वात् विड्-ब्राह्मणसाघुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न सम्पन्नेभ्यो जीवो तत्तौ तद्व्यापारः, म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् । नातिभ्यः समुत्पत्तौ तद्व्यापारः देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्यासत्त्वप्रसंगात् नाभेयस्य * नीचैर्गोत्रतापत्तेश्च । ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नीचंर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियां हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ।। १३५ ॥ शंका - उच्चगोत्रका व्यापार कहां होता है ? राज्यादि रूप सम्पदाकी प्राप्ति में तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति सातावेदनीय कर्मके निमित्तसे होती है । पांव महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यता भी उच्चगोत्रके द्वारा नहीं की जाती हैं, क्योंकि, ऐसा माननेपर जो सब देव और अभव्य जीव पांच महाव्रतोंको नहीं धारण कर सकते है, उनमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति में उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशमसे सहकृत सम्यग्दनसे होती है । तथा ऐसा माननेपर तियंचों और नारकियोंके भी उच्चगोत्रका उदय मानना पडेगा, क्योंकि, उनके सम्यग्ज्ञान होता है । आदेयता, यश और सौभाग्यकी प्राप्तिमें इसका व्यापार होता है; यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इनकी उत्पत्ति नामकर्म के निमित्तसे होती है । इक्ष्वाकु कुल आदिकी उत्पत्ति में भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि, वे काल्पनिक हैं, अतः परमार्थसे उनका अस्तित्व ही नहीं हैं। इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्रका उदय देखा जाता है । सम्पन्न जनोंसे जीवों की उत्पत्ति में इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालकके भी उच्च गोत्रका उदय प्राप्त होता है। अणुव्रतियोंसे जीवोंकी उत्पत्ति में उच्चगोत्रका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर औपपादिक देवों में उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते हैं। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है, और इसीलिए उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता । उसका अभाव होनेपर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि, वे दोनों एक दूसरे के अविनाभावी हैं। इसलिए गोत्रकर्म है ही नहीं ? अ आ-काप्रतिषु ' नाभेयश्न षट्ख. जी चू १,४५. ताप्रती ' ज्ञानावरण इति पाठ 1 ' ताप्रतीन' भेयश्च (स्य ) ' इति पाठ: 1 , . Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, ५, १ ३७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८९ इति ? न, जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयोकतेष्वर्थेषु सक्लेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत । न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसा - ध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां* आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहारनिबंधनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युचैर्गोत्रम । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः सम्भद्विवंति, विरोधात्। तपरीतं नीचर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे प्रकृती भवतः । अंतराइयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ १३६ ॥ सुगमं। अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ-दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोंगंतराइयं विरियंतराइयं चेदि । एवडियाओं पयडीओं ॥ १३७॥ अंतरमेति गच्छतीत्यन्तरायः*। रत्नत्रयवद्भ्यः स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनदित्सा वा । अभिलषितार्थप्राप्तिाभः । सकृद्भुज्यत् इति भोगः गन्ध-ताम्बूल ___ समाधान - नहीं, क्योंकि, जिनवचनके असत्य होने में विरोध आता है । वह विरोध भी वहां उसके कारणोमें नहीं होनेसे जाना जाता है। दूसरे, केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं हैं। इसीलिए यदि छद्मस्थोंके कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते हैं तो इससे जिनवचनको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । तथा गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात नहीं है; क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साघु आचारवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है, तथा जो 'आर्य' इस प्रकारके ज्ञान और वचनव्यवहारके निमित्त हैं; उन पुरूषों की परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है । तथा उनमें उत्पत्तिका कारणकर्म भी उच्चगोत्र है । यहां पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं हैं, क्योंकि, उनके होने में विरोध है । उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी दो ही प्रकृतियां होती है । अन्तराय कर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। १३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। अन्तराय कर्मको पांच प्रकृतियां हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । उसको इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ॥ १३७ ॥ जो अन्तर अर्थात् मध्यमें आता है वह अन्तरायकर्म है। रत्नत्रयसे युक्त जीवोंके लिए अपने वित्तका त्याग करने या रत्नत्रयके योग्य साधनोंके प्रदान करनेकी इच्छाका नाम दान है। अभिलषित अर्थकी प्राप्ति होना लाभ है । जो एक बार भोगा जाय वह भोग है । यथा- गन्ध, आ-का-ताप्रतिष · कृतसबंधनानां ' इति पाठ: काप्रती हेतुः कमप्युच्चैः गोत्रं', ताप्रती ' हेतुकमप्यच्चैर्गोत्रं ' इति पाठः। षट्खं जी. च. १, ४६. दात-देयादीनामन्तरं मध्यमेतीत्यन्तरायः। स. सि.८, ४. दात-पात्रयोदयादेयवोश्च अन्तरं मध्यम एति गच्छतीत्यन्तरायः । त. व, ८. ४,१४ ताप्रती मुज्जत' इति पाठः । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, १३८ पुष्पाहारादिः । परित्यज्य पुनर्भुज्यत इति परिभोगः स्त्री-वस्त्राभरणादिः । तत्रभरणानि स्त्रीणां चतुर्दश । तद्यया- तिरीट-मकूट चुडामणि हारार्द्धहार-कटि-कंठसूत्रमुक्तावलि- कटकांगदांगलीयक-कुंडलवेय-प्रालंबाः । परुषस्य खड्ग-क्षुरिकाभ्यां सह षोडश+ । वीर्य शक्तिरित्यर्थः । एतेषां विघ्नकदन्तरायः । एवमंतराइयस्स पच पयडीओ। एवं कम्मपयडीए समत्ताए दव्वपयडी समत्ता। जा सा भावपयडी णाम सा दुविहा-- आगमदो भावपयडी चेव णोआगमदो भावपयडी चेव ॥ १३८ ॥ आगमो सिद्धंतो सुदणाणं जिणवयणमिदि एयट्ठो । आगमदो अण्णो णोआगमो । जा सा आगमदो भावपयडी णाम तिस्से इमों णिद्देसो-- ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सत्तसमं अत्थसमं गंथसम णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थदि-धम्मकहा वा जेचा मण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्ट जावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी गाम ॥ १३९ ॥ पान, पुष्प और आहार आदि । छोडकर जो पुनः भोगा जाता है वह उपभोग है । यथा- स्त्री, वस्त्र और आभरण आदि । इनमें स्त्रियोंके आभरण चौदह होते हैं । यथा- तिरीट, मुकुट, चूडामणि, हार, अर्धहार, कटिसूत्र, कण्ठसूत्र, मुक्तावलि, कटक, अंगद, अंगूठी, कुण्डल, ग्रेवेय और प्रालम्ब । पुरुषके खड्ग और छुरी के साथ वे सोलह होते हैं । वीर्यका अर्थ शक्ति है । इनकी प्राप्तिमें विध्न करनेवाला अन्तराय कर्म है । इस प्रकार अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृति यां हैं। इस प्रकार कर्मप्रकृति के समाप्त होनेपर द्रव्यप्रकृति समाप्त हुई। जो भावप्रकृति है वह दो प्रकारको है - आगमभावप्रकृति और नोआगमभावप्रकृति ॥ १३८ । आगम, सिद्धान्त, श्रुतज्ञान और जिनवचन, ये एकार्थवाची शब्द है । आगमसे अन्य नोआगम है। जो आगमभावप्रकृति है उसका यह निर्देश है- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और धोषसम तथा इनमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनप्रेक्षणा, स्तव स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग हैं वे सब भाव हैं; ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगमभावकृति है ।। १४९ ॥ .कुंडलमंगद-हारा मउड केयरपळू-कडयाई । पालंबसूत्त-णेउर-दोमही-मेहलासि छुरियाओ || गेवज्ज कण्णपुरा पुरिसाणं होंति सोलसाभरणं । चोद्दस इत्थीआण रिया करवालहीणाई ! कधय-कडिसु-त्त-णेउरतिरिपालंबसुत्त-मद्दीओ 1 हारा कुंडल-मउलद्धहार-चुडामणी वि गेविजा 1 अंगद-रिया खग्गा. पुरिसाणं होति सोलसाभरणं 1 चोइस इत्थीण तहा रियाखग्गेहि परिहीणा। ति. प. ४,२६१-६४ * आप्रती 'पंचपयडीए ' इति पाठः। षटखं. क. अ. ५४-५५. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५,५, १४०. ) अणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३९१ एदस्स सुत्तस्स अत्थो जहा वेयणाए परुविदो तहा परूवेयव्वो, विसेसाभावादो । जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेयविहा । तं जहा -- सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्णर- किंपुरिस गरुड-गंधव्वजक्खरक्खस- मणुअ-महोरग मिय-पसु-पक्खि- - दुवय-चउप्पय- जलचर-थलचरखगचर-देव- मणुस्स- तिरिक्ख-णेरइयणियणुगा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम ।। १४० ॥ तत्र अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । तद्विपरीताः असुराः । फणोपलक्षिताः नागाः । सुपर्णा नाम शुभपक्षाकारविकरणप्रियाः । गीतरतयः किन्नराः प्रायेण मैथुनप्रियाः किंपु. रुषाः । गरुडाकारविकरणप्रियाः गरुडाः । इन्द्रादीनां गायकाः * गान्धर्वाः । लोभभूयिष्टा: नियुक्ताः यक्षाः नाम । भीषणरूपविकरणप्रियाः राक्षसा नाम। मानुषीसु मैथुनसेवकाः मनुजा नाम। सर्पाकारेण विकरणप्रियाः महोरगाः नाम । रोमंथवजितास्तिर्यंचो मृगा नाम । सरोमंथाः पशवो नाम । पक्षवन्तस्तिर्यंचः पक्षिणः द्वौ पादौ येषां ते द्विपदाः । चत्वारः पादाः येषां ते चतुष्पादाः | मकर- मत्स्यादयो जलचराः । वृक व्याघ्रादयः * इस सूत्र के अर्थ की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वार ( पु. ९, पृ. २५१-२६४ / में की गई हैं उसी प्रकारसे यहां भी करनी चाहिए, क्योंकि, उससे यहां कोई विशेषता नहीं है । जो नोआगमभावप्रकृति है वह अनेक प्रकारकी है । यथा- सुर, असुर, नाग, सुपर्ण, किनर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षीर द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर खगचर, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; इन जीवोंकी जो अपनी अपनी प्रकृति है वह सब नोआगमभावप्रकृति है ॥ ४० ॥ जिनकी अहिंसा आदि अनुष्ठानमें रति है वे सुर कहलाते हैं । इनसे विपरीत असुर होते हैं । फणसे उपलक्षित नाग कहलाते हैं । शुभ पक्षोंके आकाररूप विक्रिया करनेमें अनुराग रखनेवाले सुपर्ण कहलाते हैं । गानमें रति रखनेवाले किनर कहलाते हैं प्रायः मैथुन में रुचि रखनेवाले किंपुरुष कहलाते हैं । जिन्हें गरुडके आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड कहलाते हैं । इन्द्रादिकोंके गायकोंको गान्धर्व कहते हैं । जिनके लोभकी मात्रा अधिक होती है। और जो भाण्डागार में नियुक्त किये जाते हैं वे यक्ष कहलाते हैं । जिन्हे भीषण रूपकी विक्रिया करना प्रिय है वे राक्षस कहलाते हैं। मनुष्यिनियोंके साथ मैथुन कर्म करनेवाले मनुज कहलाते हैं । जिन्हें सर्पाकार विक्रिया करना प्रिय है वे महोरग कहलाते हैं । जो तिर्यंच रोंथते नहीं हैं वे मृग कहलाते हैं और जो रोथते हैं वे पशु कहलाते हैं। पंखोंवाले तिर्यंच पक्षी कहलाते हैं । जिनके दो पैर होते हैं वे द्विपाद कहलाते हैं जिनके चार पैर होते हैं वे चतुष्पाद कहलाते हैं । मगर - मछली आदि जलचर कहलाते हैं । भेडिया और वाघ आदि स्थलचर कहलाते हैं । जो आकाश में गमन करते हैं वे खचर कहलाते हैं । L का-ताप्रयोः ' गायनाः ' इति पाठ: । ताप्रती ' वृषव्याघ्रादयः ' इति पाठः Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १४१. स्थलचराः। खे चरन्तीति खचराः । अणिमादिगुणैर्दोव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । मनसा उत्कटाः मानुषाः । तिरः अच्चन्ति कौटिल्यमिति तियंचः । न रमन्त इति नारकाः । एतेषां निजानुगा या प्रकृतिः सा सर्वा नोआगमभावप्रकृतिर्नाम । एतत्सूत्रं येन देशामर्श कं तेन ये केचन जीवभावाः कर्मवर्जित अजीवभावाश्च ते सर्वेप्यत्र वक्तव्याः । एवं नोआगमदो भावपयडीए सह भावपयडी समत्ता । एवासि पयडीणं काए पयडीए पयदं ? कम्मपयडीए पयदं ॥ एदमवसंहारमस्सिदृण भणिदं । अणुवसंहारे पुण आसइज्जमाणे नोआगमदव्वपडीए णोआगमभावपयडीए च अहियारो, तत्थ दोष्णं वित्थारपरूवणादो | एवं पगडणिक्खंवेत्ति समत्तं । सेसं वेदणाए भंगों ॥ १४२ ॥ साणुओगद्दाराणं जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा । एवं पगदित्ति समत्तमणुयोगद्दारं । 1990 ♣♣♣♣♣♣♣+6‹ अबोधे बोधं यो जनयति सदा शिष्यः कुमुदे प्रभूय प्रहलादी दुतिपरितापोपशमनः । तपोवृत्तिर्यस्य स्फुरति जगदानन्दजननी जिनध्यानासक्तो जयति कुलचन्द्रो मुनिरयम् ॥ आणिमा आदि गुणोंके द्वारा ' दीव्यन्ति ' अर्थात् क्रीडा करते हैं वे देव कहलाते हैं । जो मनसे उत्कट होते हैं वे मानुष कहलाते हैं । जो ' तिर: ' अर्थात् कुटिलताको प्राप्त होते हैं, वे तिच कहलाते हैं । जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं । इनकी अपने अनुकुल जो प्रकृति होती है वह सब नोआगमभावप्रकृति है । यह सूत्र यतः देशामर्शक है, अतः जो कोई जीवभाव हैं और कर्म से रहित जितने अजीव भाव हैं वे सब यहांपर कहने चाहिए। इस प्रकार नोआगमभावप्रकृति के साथ भावप्रकृति समाप्त हुई । इन प्रकृतियोंमें किस प्रकृतिका प्रकरण है ? कर्मप्रकृतिका प्रकरण है । १४१ । यह उपसंहारका आलम्बन लेकर कहा है । अनुपसंहारका आश्रय करनेपर तो नोआगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमभावप्रकृतिका भी अधिकार है, क्योंकि, वहां दोनोंका विस्तारसे कथन किया है । इस प्रकार प्रकृतिनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । शेष कथन वेदना अनुयोगद्वारके समान है । १४२ । शेष अनुयोगद्वारोंकी जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिए । इस प्रकार प्रकृति नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 9 फासाणुओगेदारसुत्ताणि १६ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र सूत्र संख्या पृष्ठ १ फासे त्ति कीरदि फासे त्ति सो सव्वो णामफासो णाम ८ २ तत्थ इमाणि सोलस अणुयोगद्दाराणि |१० जो सो ठवणफासो णाम सो कट्टकम्मेसु । णादग्वाणि भवंति - फासणिक्खेवे वा चित्तकम्मेसु वा पोतकम्मेसु वा फासणयविभासणदाए फासणामविहाणे लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा फासदश्वविहाणे फासखेत्तविहाणे फास सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकालविहाणे फासभावविहाणे फासपच्चय कम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु विहाणे फाससामित्तविहाणे फास-फासविहाणे वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे फासगइविहाणे फासअणंतरविहाणे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि फासे त्ति फाससण्णियासविहाणे फासपरिमाण सो सव्वो ठवणफासो णाम । विहाणे फासभागाभागविहाणे ११ जो सो दवफासो णाम । ११ फासअप्पाबहुए ति। | १२ जं दव्वं दवेण पुसदि सो सम्बो २ फासणिक्खेवे त्ति । _ दवफासो णाम । ४ तेरसविहे फासणिक्खेवे- णामफासे १३ जो सो एयक्खेत्तफासो णाम । ठवणफासे दव्वफासे एयखेत्तफासे १४ जं दब्वमेयक्खेत्तेण पुसदि सो सम्वो अणंतरखेत्तफासे देसफासे तयफासे एयखेत्तफासो णाम । सव्वफासे फास- फासे कम्मफासे १५ जो सो अणंतरखेत्तफासो णाम १७ बंधफासे भवियफासे भावफासे चेदि । | १६ जं दव्वमणंतरक्खेण पुसदि सो सम्बो ५ फासणयविभासणदाए । अणंतरक्खेतफासो णाम । ६ को णओ के फासे इच्छदि ? १७ जो सो देसफासो णाम । ७ सव्वे एदे फासा बोद्धव्वा होंति १८ जं दव्वदेसं देसेण पुसदि सो सम्वो । णेगमणयस्स । णेच्छदि य बंध-भवियं देसफासो णाम। ववहारो संगहणओ य । | १९ जो सो तयफासों णाम । ८ एयक्खेत्तमणंतरबंधं भवियं च णेच्छ २० जं दव्वं तयं वा णोतयं वा पुसदि सो दुज्जुसुदो । णामं च फासफासं । सम्बो तयफासो णाम । भावप्फासं च सद्दणओ ॥ २१ जो सव्वफासो णाम । ९ जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स | २२ जं दव्वं सव्वं सव्वेण पुसदि, जहा वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं | परमाणुदव्वमिदि, सो सव्वो वा जीवस्स च अजीवस्स च जीवस्स सव्वफासो णाम । च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स |२३ जो सो फासफासो णाम । च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ २ ) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २४ सो अट्ठविहो- कक्खडफासो मउव- । विहाणे कम्मअणंतरविहाणे कम्मसं फासो गरुवफासो लहवफासो णिद्ध- णियासविहाणे कम्मपरिमाणविहाणे फासो लुक्खफासो सीदफासो उण्ह- कम्मभागाभागविहाणे कम्मअप्पाफासो । सो सव्वो फासफासो णाम । २४ बहुए ति । २५ जो सो कम्मफासो ( णाम ) । २६/ ३ कम्मणिक्खेवे त्ति । २६ सो अट्टविहो- णाणावरणीय-दसणा ४ दसविहे कम्मणिक्खवे- णामकम्मे वरणीय-वेयणीय-मोहणीय-आउअ ठवणकम्मे दव्वकम्मे पओअकम्मे णामा-गोद-अंतराइयकम्मफासो । सो समुदाणकम्मे आघाकम्मे इरियावहसव्वो कम्मफासो णाम । कम्मे तवोकम्मे किरियाकम्मे भाव२७ जो सो बंधफासो णाम । कम्मे चेदि । २८ सो पंचविहो- ओरालियसरीरबंध | ५ कम्मणयविभासणदाए को णओ के फासो एवं वेउव्विय-आहार-तेया कम्मे इच्छदि ? कम्मइयसरीरबंधफासो । सो सव्वो | ६ णेगम-ववहार-संगहा सव्वाणि । २९ बंधफासो णाम । ॥ ७ उजुसुदो ट्ठवणकम्मं णेच्छदि । २९ जो सो भवियफासो। | ८ सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मच ३० जहा विस-कड-जंत-पंजर-कंडय-बग्ग । इच्छदि । रादीणि कत्तारो समोद्दियारो य भवियो। |९ जंतं णामकम्म णाम । फुसणदाए णो य पुण ताव तं फुसदि १० तं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं सो सव्वो भवियफासो णाम । वा अजीवाणं वा जीवस्स च अजीवस्स ३१ जो सो भावफासो णाम । च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं ३२ उवजुत्तो पाहुडजाणओ सो सम्बो च अजीवस्स च जीवाण च अजीवाणं भावफासो णाम । च जस्स णामं कीरदि कम्मे त्ति तं ३३ एदेसि फासाणं केण फासेण पयदं ? सव्वं णामकम्म णाम । कम्मफासेण पयदं। | ११ जं तं ठवणकम्म णाम । ( कम्माणुओगद्दारसुत्ताणि ) १२ तं कठ्ठकम्मेसु वा चित्तकम्सेसु वा १ कम्मे त्ति। ३७ पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण२ तत्थ इमाणि सोलस अणुयोगद्दाराणि कम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु णादव्वाणि भवंति- कम्मणिक्खेवे वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा कम्मणयविभासणदार कम्मणाम भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ विहाणे कम्मदव्वविहाणे कम्मखेत्त वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए विहाणे कम्मकालविहाणे कम्मभाव- ठविज्जदि कम्मे त्ति तं सव्वं ठवणविहाणे कम्मपच्चयविहाणे कम्मसामित्त- कम्मं णाम। विहाणे कम्मकम्मविहाणे कम्मगइ- १३ जं तं दव्वकम्म णाम । ३५ ४३ . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माणुओगद्दारसुत्ताणि णाम। सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १४ जाणि दव्वाणि सब्भावकिरियाणिप्फ- । (पउिअणुओगद्दारसुत्ताणि ) ण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम। ४३ १५ जं तं पओक्म्म णाम । १ पयडि त्ति तत्थ इमाणि पयडीए १६ तं तिविहं - मणपओअकम्मं वचि सोलस अणुओगद्दाराणि णादव्वाणि पओअकम्म कायपओअकम्म भवति । १९७ १७ तं संसारावत्थाणं वा जीवाणं सजोगि २ पडिणिक्खेवे पयडिणविभासणकेवलीणं वा। दाए पयडिणामविहाणे पयडिदव्व१८ तं सव्वं पओअकम्मं णाम । विहाणे पयडिखेत्तविहाणे पयडि१९ जं तं समुदाणकम्मं णाम । कालविहाणे पयडिभावविहाणे पयडि२० तं अट्ठविहस्स वा सत्तविहस्स वा पच्चयविहाणे पयडिसामित्तविहाणे छविहस्स वा कम्मस्स समुदाणदाए पयडि-पयडिविहाणे पयडिगदिगहणं पवत्तादि तं सव्वं समुदाणकम्म विहाणे पयडिअणंतरविहाणे पयडि सण्णियासविहाणे पयडिपरिमाण२१ ज तमाधाकम्मं णाम । विहाणे पयडिभागाभागविहाणे २२ तं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण पयडिअप्पाबहुए त्ति । आरंभकदणिप्फण्णं । तं सव्व आधा ३ पयडिणिक्खेवे त्ति । १९८ ४ चउव्विहो पयडिणिक्खेवो- णामकम्म णाम । यडी दव्वपयडी भाव२३ जं तमीरियाविहकम्मं णाम । ४७ पयडी चेदि । २४ तं छदुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सब्वमीरियावहकम्म ५ पयडिणयविभासणदाए को गओ काओ पयडिओ इच्छदि ? णाम। २५ जं तं तवोकम्मणाम । ६ णेगम-ववहार-संगहा-सव्वाओ। २६ तं सब्भतरबाहिरं बारसविहं । तं सां । ७ उजुसुदो ट्ठवणपडि णेच्छदि। १९९ तवोकम्मं णाम । ८ सद्दणओ णामपडि भावपयडिं च २७ जंत किरियाकम्मं णाम। इच्छदि। २०० २८ तमादाहीणं पदाहिणं तिक्तृत्तं ९ जा सा णामपयडी णाम सा जीवस्स तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सळ वा, अ जीवस्स वा, जीवाणं वा, किरियाकम्भ णाम । अजीवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स २९ जं तं भावकम्मं णाम । च जीवस्स च अजीवाणं च, जीवाण ३० उवजुत्तो पाहुडजाणगो तं सां च अजीवस्स च, जीवाणं च अजीभावकम्मं णाम । वाणं च, जस्स णाम कीरदि पयडि ३१ एदेसि कम्माणं केण कम्मेण पयदं ? | त्ति सा सव्वा णामपयडी णाम । समोदाणकम्मेण पयदं। १० जा सा ट्ठवणपयडी णाम सा कट्ट Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ कम्मेसु वा चित्तकम्सेसु वा पोत्तकम्मेसु अट्ठविहा- णाणावरणीयकम्मपयडी एवं सणावरणीय-वेयणीय-मोहणीयवा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा उअ-णामा-गोद-अंतराइयसेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्ति कम्मपयडी चेदि। २०५ कम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु २० णाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडिवा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे याओ पयडीओ? २०९ (एवमादिया) ठवणाए ठविज्जति पगदि |२१ णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंचपयडीओ त्ति सा सव्वा ठवणपयडी णाम । २०१ आभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणा११ जा सा दव्वपयडी णाम सा दुविहा वरणीयं ओहिणाणावरणीयं आगमदो दव्वपयडी चेव णोआगमदो । मणपज्जयणाणावरणीय केवलणाणादव्वपयडी चेव। २०३ वरणीयं चेदि । १२ जा सा आगमदो दव्वपयडी णाम | २२ जंतमाभिणिबोहियणाणावरणीयं णाम तिस्से इमे अत्याधियारा ठिदं जिदं कम्मं तं चउव्विहं वा चउवीसदिविधं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्यसमं । वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसदिविधं गंथसमं णामसमं घोससमं । __ वा णादव्वागि भवंति। २१६ १३ जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा | २३ चउन्विहं ताव ओग्गहावरणीयं पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा | ईहावरणीयं अवायावरणीयं धारणावा थय-थुइ-धम्मकहा वा जे वरणीयं चेदि । चामण्णे एवमादिया। "|२४ जं तं ओग्गहावरणीयं णाम कम्म ४ अणुवजोगा दवे त्ति कटु जावदिया तं दुविहं अत्थोग्गहावरणीयं चेव अणुवजुत्ता दवा सा सव्वा आगमदो - वंजणोग्गहावरणीयं चेव । २१९ दव्वपयडी णाम । २०४ | २५ जं तं अत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्म १५ जा सा णोआगमदो दव्वपयडी णाम । तं थप्पं । २२१ सा दुविहा कम्मययडी चेव णोकम्म | २६ जं तं गंजणोग्गहावरणीयं णाम कम्म . पयडी चेव। तं चउव्विहं सोदियनंजणोग्गहावरणीयं १६ जा सा कम्मपयडी णाम सा थप्पा। " घाणिदियनंजणोग्गहावरणीयं १७ जा सा णोकम्मपयडी णाम सा. जिभिदियनंजणोम्गहावरणीयं फासिअणेयविहा। दियबंजणोग्गहावरणीयं चेदि । १८ घड-पिढर-सरावारंजणोलुचणादीणं २७ जं तं थप्पमत्थोग्गहावरणीयं णाम विविहभायणविसेसाणं मट्टिया पयडी, कम्मं तं छव्विहं। २२५ धाण-तप्पणादीणं च जव-गोधूमा |२८ चक्खिदियअत्थोग्गहावरणीयं सोदि पयडी, सा सव्वा णोकम्मपयडी गाम । , दियअत्थोग्गहावरणीयं घाणिदिय१९ जा सा थष्पा कम्मपयडी णाम सा अत्थोग्गहावरणीयं जिभिदिय . Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २३४ पयडिअणुओगद्दारसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र अत्थोग्गहावरणीयं फासिदियअत्थो- । दिविधं वा तिसद-चुलसीदिविधं वा ग्गहावरणीयं णोइंदियअत्थोग्गहा णादव्वाणि भवति । वरणीयं । तं सव्वं अत्थोग्गहावर- | ३६ तस्सेव आभिणिबोहियणाणावरणीयणीयं णाम कम्म। २२७ कम्मस्स अण्णा परूवणा कायव्वा २९ जं तं ईहावरणीयं णाम कम्मं तं भवदि । २४१ छव्विहं । २३० | ३७ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा। २४२ ३० चक्खिदियईहावरणीयं सोदिदिय- ३८ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवसणा ईहावरणीयं घाणिदियईहावरणीय मीमांसा । जिभिदियईहावरणीयं फासिंदिय- |३९ अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणी ईहावरणीयं णोइंदियईहावरणीयं ! तं ____ आउंडी पच्चाउंडी। २४३ सव्वमीहावरणीयं णाम कम्म। ,|४० धरणी धारणा ठवणा कोट्ठा पदिट्ठा । ३१ जंतं आवायावरणीयं णामकम्मं तं । | सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । २४४ छविहं। - २३२ | ४१ सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । ३२ चक्खि दियआवायावरणीयं सोदि- ४२ एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स दियआवायावरणीयं घाणिदिय ___कम्मस्स अण्णा परूवणा कदा होदि । , आवायावरणीयं जिभिदियआवाया- ४३ सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स केव-- वरणीयं फासिदियआवायावरणीयं डियाओ पयडीओ ? २४५ णोइंदियआवायावरणीयं । तं सव्वं ४४ सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेआवायावरणीयं णाम कम्म। ज्जाओ पयडीओ? ३३ जं तं धारणावरणीयं णाम कम्मं तं ४५ जावदियाणि अक्खराणि अक्खरछव्विह। संजोगा वा । । ३४ चक्खिदियधारणावरणीयं सोदिदिय |४६ तेसिं गणिदगाधा भवदि-संजोगाधारणावरणीयं घाणिदियधारणावरणीयं वरणळं चउसठिं थावए दुवे रासि । जिभिदियधारणावरणीयं फासिदिय अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिद्दिसे धारणावरणीयं णोइंदियधारणावर गणिदं ।। । णीयं । तं सव्वं धारणावरणीय णाम ४७ तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स कम्म। .. वीसदिविधा परूवणा कायव्वा ३५ एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स भवदि । २६० कम्मरस चउव्विहं वा चदुवी ४८ पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्तिसदिविध वा अट्ठावीसदिविध वा जोगदाराइं । पाहुड-पाहुड-वत्थू बत्तीसदिविध वा अडदालीसविध पुव्वसमासा य बोद्धव्वा । पज्ज वा चोद्दालसविधं वा अट्ठसट्ठि यावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं सदविधं वा बाणउदि-सदविधं वा अक्खरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं बेसद-अट्ठासीदिविधं वा तिसद-छत्तीस- । पदावरणीयं पदसमासावरणीयं २४७ २४८ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र पृष्ठ संघादावरणीयं संघादसमासावरणीयं गामी सप्पडिवादी अप्पडिवादी पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासा- एयक्खेत्तमणेयखेत्तं । २९२ वरणीयं अणुओगद्दारावरणीयं अणुओग- ५७ खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा । २९६ हारसमासावरणीयं पाहुडापाहुडवरणीयं 4८ सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदापाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं । वत्तादीगि संठाणाणि णादव्वाणि पाहुडसमासावरणीयं वत्थुआवरणीयं भवति । २९७ वत्थुसमासावरणीयं पुव्वावरणीयं पुव्वसमासावरणीयं चेदि । |५९ कालदो ताव समयावलिय-खण-लव२६० -मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उडु-अयण४९ तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स अण्णं संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व-पलिदोवमपरूवणं कस्सामो। सागरोवमादओ विधओ णादव्वा ५० पावयणं पवयणीयं पवयणट्ठो गदीसु भवंति। २९८ मग्गणदा आदा परंपरलद्धी अणुत्तरं ६० मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स पवयणं पवयणी पवयणद्धा पवयणसण्णि केवडियाओ पयडीओ? ३२८ यासो णयविधी णयंतरविधी भंगविधी भंगविधिविसेसो पुच्छाविधी पुच्छाविधि |६१ मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स विसेसो तच्चं भूदं भव्वं भवियं अवितथं दुवे पथडीओ उजुमदिमणपज्जयअविहदं वेदं णायं सुद्धं सम्माइट्ठी णाणावरणीयं चेव विउलमदिमणहेदुवादो गयवादो पवरवादो मग्गवादो पज्जयणाणावरणीयं चेव । सुदवादो परवादो लोइयवादो लोगुत्त- |६२ जं तं उजुमदिमणपज्जयणाणावररीयवादो अग्गं मग्गं जहाणुमग्गं पुळां । णीयं णाम कम्मं तं तिविहं उजुर्ग जहाणुपुव्वं पुव्वादिपुळां चेदि । २८०/ मणोगदं जाणदि, उजुगं वचिगदं जाणदि ५१ ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स उजुगं कायगदं जाणदि। कायम जाणदि। ३२९ केवडियाओ पयडीओ? २८९ । |६३ मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसिं ५२ मोहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स। सण्णा सदि मदि चिंता जीविदमरणं __ असंखेज्जाओ पयडीओ। लाहालाहं सुह-दुक्खं णयरविणासं ५३ तं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं देसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं चेव गुणपच्चइयं चेव । कव्वडविणास मंडबविणासं पट्टणविणासं २९० दोणामुहविणासं अइवुट्ठि अणावुट्टि ५४ जं तं गुणपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं। २९२ | सुवुट्ठि दुवुट्टि सुभिक्खं दुभिक्खां ५५ जं तं भवपच्चइयं तं तिरिक्खमणुस्साणं ,, खेमाखेम-भय-रोग कालसं (प) ५६ तं च अणेयविहं देसोही परमोही जुत्ते अत्थे वि जाणदि । ३३२ सव्वोही हायमाणयं वड्डमाणयं अवट्ठिदं अणवट्ठिदं अणुगामी अणणु ६४ किंचि भूओ अप्पण्णो परेसिं च ३२८ . Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पयडिअणुओगद्दारसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि, णो ७७ उक्कस्सेण माणसुत्तरसेलस्स अभंअवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि । ३३६ तरादो णो बहिद्धा । ३४३ ६५ कालदो जहण्णेण दो-तिण्णिभव ७८ तं सव्वं विउलमदिमणपज्जयणाणाग्गहणाणि । ३३८ वरणीयं णाम कम्मं । ६६ उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि । ७९ केवअणाणावरणीयस्स कम्मस्स ६७ जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि । केवडियाओ पयडीओ? ६८ खेत्तदो ताव जहण्णण गाउवपुधत्तं, ८० केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भं- । चेव पयडी। तरदो णो बहिद्धा। ,८१ तं च केवलणाणं सगलं संपुण्णं ६९ तं सव्वमुजमदिमणपज्जयणाणावर असवत्तं । णीयं णाम कम्म। ३४०८२ सई भयवं उप्पण्णणाणदरिसी ७० जंतं विउलमदिमणपज्जयणाणा सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स आगदि वरणीय णाम कम्मं तं छविहं गदि चयणोववादं बंधं मोक्खं उजुगमणुज्जुगं मणोगदं जाण दि, इड्डि टिदि जुदि अणुभागं तक्कं उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि ।। कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं उज्जुगमणुज्जुग कायगदं जाणदि। " पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्म ७१ मणेण माणसं पडिविंदइत्ता । सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म ७२ परेसिं सण्णा सदि मदि चिंता समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति। ३४६ जीविद-मरणं लाहालाहं सुह दुक्खं ८३ केवलणाणं । ३५३ णयरविणासं देसाविणासं जणवय ८४दसणावरणीयस्स कम्मस्स केवडिविणासं खेडविणासं कव्वडविणास मडबविणासं पट्टणविणासं दोणामुह ____ याओ पयडीओ। विणासं अदिवुट्ठि अणावुट्ठि सुवुट्टि ८५ दसणावरणीयस्स कम्मस्स णव दुवुट्टि सुभिक्खं दुभिक्खं खेमाखमं । पयडीओ- णिहाणिद्दा पयलापयला भय-रोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणदि। ३४१ | थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य चक्खु७३ किंचि भूओ-- अप्पणो परेसिं च दसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि, अवत्त- णीयं ओहिदसणावरणीयं केवल माणाणं जीवाणं जाणदि । ३४२ दसणावरणीयं चेदि। ७४ कालदो ताव जहण्णेण सत्तट्ट ८६ एवडियाओ पयडीओ। ३५६ भवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखे ८७ वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ ज्जाणि भवग्गहणाणि । पयडीओ? ७५ जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि । ८८ वेयणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ ७६ खेत्तदो ताव जहण्णण जोयण सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं पुधत्तं । ३४३ चेव । एवडियाओपयडीओ। " Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ८९ मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पिंडपयडिणामाणि-गदिणामं पयडीओ? ३५७ जदिणामं सरीरणामं सरीरबांधणणामं ९० मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस सरीरसंघादणामं सरीरसंठाणणामं पयडीओ। सरीरअंगोगंगणामं सरीरसंघडणणामं ९१ तं च मोहणीयं दुविहं दंसणमोहणीयं । वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं चेव चरित्तमोहणीयं चेव। ९२ जं तं दसणमोहणीयं कम्मं तं बंधदो । आणुपुग्विणामं अगुरुगलहुअणामं उवघादणाम परघादणाम उस्सासणामं एयविहं । ३५८ आदावणामं उज्जोवणामं विहायगदि९३ तस्स संतकम्मं पुण तिविहं सम्मत् । मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं । तस-थावर-बादर-सुहुमपज्जत्त-अपज्जत्त९४ जं तं चरित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुहकसायवेदणीयं णोकसायवेदणीयं सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जचेव। ३५९ अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति९५ जं तं कसायवेयणीयं कम्मं तं सोलस णिमिण-तित्थयरणामं चेदि। ३६३ विहं- अणंताणुबंधिकोह-माण-माया |१०२ जं तं गदिणामकमं तं चउविह लोहं अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माग णिरयगइणामं तिरिक्खगइणामं माया-लोहं पच्चक्खाणावरणीयकोह मणुस्सगदिणामं देवगदिणामं ३६७ माण-माया-लोहं कोहसंजलणं J१०३ जं तं जादिणामं तं पंचविहमाणसंजलणं मायासंजलणं लोभसंजलणं एइंदियजादिणामं बेइंदियजादिणामं चेदि । तेइंदियजादिणाम चउरिदियजादिणाम ९६ जं तं णोकसायवेणीयकम्मं तं पंचिंदियजादिणामं चेदि । णवविहं इत्थिवेद-पुरिसवेद-णउसय-वेद |१०४ जं तं सरीरणामं तं पंचविहहस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरचेदि। ३६१ णामं आहारसरीरणाम तेजइयसरीर९७ एवडियाओ पयडीओ। णामं क्म्मइयसरीरणामं चेदि । ९८ आउअस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ? १०५ जं तं सरीरबंधणामं तं पंचविहं-ओरा९९ आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ लियसरीरबंधणणामं वेउव्वियसरीर णिग्याउअंतिरिक्खाउअं मणुस्साउअं बंधणणामं आहारसरीरबंधणणाम देवाउअं चेदि । एवडियाओ तेजइयसरीरबंधणणामं पयडीओ। कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि। १०० णामस्स कम्मस्स केवडियाओ १०६ जं तं सरीरसंघादणणामं तं पंच पयडीओ? १०१ णामस्स कम्मस्स बादालीस ३६२ . Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडिअणुओगद्दारसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ विहं- ओरालियसरीरसंघादणणामं ११४ जं तं आणुपुग्विणामं तं चउव्विहंवेउब्वियसरीरसंघादणणामं आहार- । णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामं तिरि-- सरीरसंघादणणामं तेजइयसरीर क्खगइपाओग्गःणुपुविणामं मणुससंघादणणामं कम्मइयसरीरसंघादण- गइपाओग्गाणुपुविणाम देवणाम चेदि। गइपाओग्गाणुपुग्विणाम चेदि। ३७१ १०७ जं त सरीरांठाणणामं तं |११५ णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए छविहं- समचउरसरीरसंठाणणामं केवडियाओ पयडीओ? |११६ णिरयगइपाओग्गाणुपुन्विणामाए णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणणामं पथडीओ अंगुलस्स असंखेज्जदिसादियसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीर भागमेत्तबाहल्लाणि तिरियपदराणि संठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं । सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि इंडसरीरसंठाणणामं चेदि । ३६८ | ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । १०८ जंतं सरीरअंगोवंगंणामं तं एवडियाओ पयडीओ। तिविह- ओरालियसरीरअंगोवंग- ११७ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए णामं वेउव्वियसरीरअंगोवंगणामं केवडियाओ पयडीओ? ३७५ आहारसरीरअंगोवंगणामं चेदि । ३६९ /११८ तिरिक्खगइपाओग्गाणपुग्विणामाए १०९ जं तं सरीरसंघणणामं तं छव्विहं पयडीओ लोओ सेडीए असंवज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण- खेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि णामं वज्जणारायणसरीरसंघडण गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ। , णामं णारायणसरीरसघडणणामं |११९ मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए अद्धणारायणसरीरसंघडणणामं खीलि- | के वडियाओ पयडीओ? ३७७ यसरीरसंघडणणामं असंपत्तसेवद- १२० मणुसगइपाओग्गाणुपुन्विणामाए सरीरसंघडणणाम चेदि । पयडीओ पणदालीसजोयण११० जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविहं सदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदकिण्णवण्णणाम णीलवण्णणाम राणि उड्ढकवाडछेदणणिप्फण्णाणि रुहिरवण्णणामं हलिद्दवण्णणामं सेडीए असंखज्जदिभागमेत्तेहि ओगासूक्किलवण्णणामं चेदि। हणवियप्पेहि गुणिदाओ। एवडि१११ जं तं गंधणामं तं दुविहं-- सुरहि- . याओ पयडीओ। गंधणामं दुरहिगंधणामं चेदि। 11१२१ देवगइपाओग्गाणपूविणामाए ११२ जं तं रसणामं तं पंचविहं- तित्त केवडियाओ पयडीओ ? ३८२ णामं कडुवणामं कसायणाम • २२ देवगइपाओग्गाणविणामाए अंबिलणामं महुरणामं चेदि। पयडीओ णवजोयणसदबाह११३ जं तं फासणामं तमट्टविहं ल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए कक्खडणामं मउअणामं गरुवणामं असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगालहुअणामं णिद्धणाम ल्हुक्खणामं हण वियप्पेहि गुणिदाओ। एवडिसीदणामं उसुणणामं चेदि । याओ पयडीओ। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३९० १० ) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ | सूत्र संख्या सूत्र १२३ एत्थ अप्पाबहुगं । ३८४ | १३६ अंतराइयस्स कम्मस्स केवडियाओ १२४ सव्वत्थोवाओ णिरयगइपाओग्गाणु- | पयडीओ ? पुग्विणामार पयडीओ। ॥ | १३७ अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ १२५ देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए -दाणंतराइयं लाहंतराइयं पयडीओ असंखेज्जगुणाओ भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं विरि१२६ मणुसगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए यंतराइयं चेदि । एवडियाओ पयडीओ संखेज्जगुणाओ। ३८५ पयडीओ। १२७ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए |१३८ जा सा भावपयडी णाम सा दुविहापयडीओ असंखेज्जगुणाओ । आगमदो भावपयडी चेव णोआगमदो १२८ भूओ अप्पाबहुअं। ३८६ भावपयडी चेव । १२९ सव्वत्थोवा मणुसगइपाओग्गाणुपुविणामाए पयडीओ। १३९ जा सा आगमदो भावपयडी णाम १३० णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए तिस्से इमो णिद्देसो-ठिदं जिदं पयडीओ असंखेज्जगुणाओ। परिजिदं वयणोक्गदं सुत्तसमं १३१ देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोसपयडीओ असंखेज्जगुणाओ। समं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा १३२ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा पयडीओ असंखेज्जगुणाओ। ३८७ अणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा १३३ अगुरुअलहुअणामं उववादणामं वा जे चामण्णे एवमादिया उवपरघादणामं उस्सासणामं आदाव जोगा भावे त्ति कटु जावदिया णामं उज्जोवणामं विहायगदिणामं उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो तसणामं थावरणामं बादरणामं भावपयडी णाम। सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साधारण १४० जा सा णोआगमदो भावपयडी सरीरणामं थिरणामं अथिरणाम णाम सा अणेयविहा । तं जहासुहणामं असुहणामं सुभगणामं सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्गरदूभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं किंपुरिस-गरुड-गंधव्व-जवखआदेज्जणामं अणादेज्जणाम जस रक्खस-मणुअ-महोरग-मिय-पसुकित्तिणामं अजसकित्तिणामं पक्खि-दुवय-चउप्पय-जलचर-थलणिमिणणामं तित्थयरणामं । चर-खगचर-देव-मणुस्स-तिरिक्ख१३४ गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ रइयणियगुणा पयडी सा सव्वा पयडीओ ? णोआगमदो भावपयडी णाम । ३९१ १३५ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ |१४१ एदासि पयडीणं काए पयडीए उच्चागोदं चेव णीचागोदं चेव पयदं? कम्मपयडीए पयदं । ३९२ एवडियाओ पयडीओ। ३८८ | १४२ सेसं वेदणाए भंगो । i Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा-सुत्ताणि पृष्ठ २४८ ( फासाणुओगद्दार ) क्रमसंख्या गाथा १ सव्वे एदे फास बोद्धव्वा होंति णेगमणयस्स । णेच्छदि य बंध-भवियं ववहारो संगहणओ य ।। २ एयक्खेत्तमणतरबंध भवियं च णेच्छदुज्जुसुदो। णामं च फासफासं भावप्फासं च सद्दणओ । ( पयडिअणुओगद्दार ) १ संजोगावरणटुं चउसद्धिं थावए दुवे रासि । अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिद्दिसे गणिदं ॥ २ पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई । पाहुडपाहुड-वत्थू पुत्व समासा य बोद्धव्वा ।। ३ ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहुमणिगोदजीवस्स । जद्देही तद्देही जहणिया खेत्तदो ओही ।। ४ अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज दो वि संखेज्जा। अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ।। ५ आवलियपुधत्तं घणहत्थो तह गाउअं मुहत्तंतो। जोयण भिण्णमुहुत्तं दिवसंतो पण्णवीसं तु ॥ ६ भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदीवम्मि । वासं च मणुअलोए वासपुधत्तं च रुजगम्मि ।। ७ संखेज्जदिमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा। कालम्मि असंखेज्जे दीव-समुद्दा असंखेज्जा ।। ८ कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए । वुड्ढीए दव्व-पज्जय भजिदवा खेत्त-काला दु । ९ तेया-कम्मसरीरं तेयादळां च भासदळां च । बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य वासा य । १० पणुवीस जोयणाणं ओही वेंतर-कुमारवग्गाणं । संखेज्जजोयणाणं जोदिसियाणं जहण्णोही ॥ ११ असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोदिसंताणं । संखातीदसहस्सा उक्कस्सं ओहिविसओ दु॥ ३०६ ३०७ ३०८ ३०९ ३१४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) ऋपसंख्या गाथा क्रम संख्या गाथा १२ सक्कीसाणा पढमं दोच्चं तु सणक्कुमार- माहिंदा | तच्चं तु बम्ह-लंतय सुक्क सहस्सारया चोत्थं ॥ १३ आणद- पाणदवासी तह आरण अच्चुदा य जे देवा । पसंति पंचमखिदि छट्टिम गेवज्जया देवा || ३ खंधं सयलसमत्थं १ प्रमाणनय निक्षेपै २ लोगागासपदेसे ४ सत्ता सव्वपयत्था ( स्पर्शानुयोगद्वार ) १४ सव्वं च लोगणालि पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च ॥ १५ परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु । रूवगद लहइ दव्वं खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ १६ तेयासरीरलंबो उक्कस्सेण दु तिरिक्खजोणिणिसु । गाउअ जहण्णओही णिरएसु अ जोयणुक्कस्सं ॥ १७ उक्कस्स माणुसे व माणुस तेरिच्छए जहण्णोही । उक्कस्स लोगमेत्तं पडिवादी तेण परमपडिवादी || १३ २ अवतरण - गाथा-सूची पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रमसंख्या गाथा पृष्ठ ६० अत्थाण वंजणाण य ७८ ६३ ७९ २ अप्पं बादर मवु ४८ ६ अप्रवृत्तस्य दोषेभ्य- ५५ पंचा. ७५. "1 मूला. ५, ३४. ति. प. ९,९५. गो. जी. ६०३. | ६७ अभयासंमोहविवेग - ८२ ति.प. १८२७२ अविदक्कमवीचारं ८३ वि. भा. २७६४. ७७ गो. जी. ५८८. १६ पंचा. ८ ४ १३ ३१ अकसायमवेदत्तं ३७ अणुवगयपराणुग्गह-७१ परिशिष्ट ( कर्मानुयोगद्वार ) ७० ००० भग. २१५७ "" "" ८७ " ६४ अह खंति-मद्दवज्जव ८० ५२ अंतोमुहुत्तपरदो ७६ ५१ अंतोमुहुत्तमेत्तं ५४ आगमउवदेसाणा २१ आलंबणाणि वायण ६७ " M पृष्ठ ३१६ ३१८ ३१९ ३२२ ३२५ ३२७ अन्यत्र कहां भग. १८८२ " १८८५ भग. १८८६ . Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या गाथा पृष्ठ ३२ आलंबणेहि भरियो ७० ११ आलोयग-पडिकमणे ६० १ उच्चारिदम्मि दुपदे ३९ ४६ उवजोगलक्खणमणाइ ७३ ४२ एगाणेगभवगयं ७२ ४० कल्लाणपावए जे ६० १९ कालो वि सो च्चिय ६७ २८ किचिद्दिट्टिमुपात्त - ६८ ४९ कि बहुसो सव्वं चिय ७३ १० कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि ४५ खिदिवलयदीवसायर - ७३ ३ गहिदमगहिद च तहा ४८ ६८ चालिज्जइ वी व ८२ १४ जाच्चय देहावत्था ६६ ५९ जम्हा सुदं विदक्कं ७८ ६२ ६५ जह चिरसंचियसिंधण ७९ 37 37 9: ६६ जह रोगासयसमणं "" ५७ जह वा घणसंघाया ७७ ७५ जह सव्वसरीरगयं ८७ अवतरणगाथा-सूची अन्यत्र कहां क्रमसंख्या गाथा भग. १८७६ मूला. ५, १६५ भग. १७०६ ६८ २६ णवकम्माणादाणं ४८ णाणमयकण्णहारं ७३ २४ णा णिच्च भासो ६८ १७ णिच्चं विय- जुवइ-पसू ६६ ४ णिज्जरिदाणिज्जरिदं ४८ भग. १७१३ मूला. ५, २०४ | ३५ तत्थ मइदुब्बलेण य ७१ भग. १७११ मूला. ५, २०३ ४७ तस्य सकम्मजणियं ७३ ७६ तह बादरतणुविसयं ८७ १६ तो जत्थ समाहाणं ६६ २० तो देस-काल-चेट्ठा ६७ ७४ तोयमिव णालियाए ८६ १८ थिरकयजोगाणं पुण ६७ ५८ दव्वाइणेगाई ७८ ६९ देहविचित्त पेच्छइ ८२ ३० द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव ६९ २९ पच्चाहरित्तु विसएहि,, ४१ पर्याडिद्विदिप्पदेसा - ७२ ४४ पंचत्थिकामइयं ७३ ३८ पंचात्थिकायछज्जीव-७१ मूला. ५, २०२ २३ पुव्वकय भासो ६८ ९ प्राय इत्युच्यते लोक ५९ भग. ( मूलारा. ) ५२९ भग. १८८१ १८८४ ८२ ति प ९, १८ ५ जं च कामसुहं लोए ५१ मूला. १२, १०३ १२ जं थिरमज्झवसाणं ६४ ४३ जिणदेसिया लक्खण- ७३ ५५ जिणसाहुगुणुक्त्तिण- ७६ ६१ जेणेगमेव दव्वं ७९ ३४ झा एज्जो णिरवज्जं ७१ १३ झाणिस्स लक्खणं से ६५ ५० झाणोवरमे वि मुणी ७३ ७० ण कसायसमुत्थेहि वि ८२ भग. १८८३ पृष्ठ ( १३ अन्यत्र कहां भग. १७०७ ७ बत्तीस किर कवला ५६ भग. २११ ८ बाह्यं तपः परमदुश्वर ५९ बृहत्स्व. ८३ ३९ रागद्दोसकसाया - ७२ २२ विसमं हि समारोहइ ६७ १५ सव्वासु वट्टमाणा ६६ २५ संकाइसल्लरहियो ६८ ७१ सीयायवादिएहि मि ८२ ३३ सुणिउणमणाइणिहणं ७१ २७ सुविदियजयस्सहावो ६८ ३७ सुमम्मि कायजोगे ८३ भग. १८८७ ३६ हेदूदाहरणासंभवे ७१ ५३ होंति कमविसुद्धाओ ७६ ५६ होंति सुहासव संवर ७७ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४) परिशिष्ट क्रमसंख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां | क्रमसंख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां ( प्रकृत्यनुयोगद्वार ) १९ तिविहं पदमुद्दिसैं २६६ ७ अट्ठव धणुसहस्सा २२९ ११ तेत्तीसवंजणाई २४८ गो.जी. ३५२ १० अन्यथानुपपन्नत्वं २४६ न्या. विनि. | ३२ नयोपनयैकान्तानां ३१० आ मी. १०७ २. १५४-५५] २ पभवच्चुदस्स भागा २२३ ५ उणतीसजायणसया २२९ ३३ पंचरस-पंचवण्णा ३५२ मूला. २२१ ६ उणसट्ठिजोयणस्सया ८ पासे रसे य गंधे २२९ १२ एकमात्रो भवेद्बस्वो २४८ | २८ पुव्वस्स दु परिमाणं ३०० स.सि. ३, ३१ १४ एकोत्तरपदवृद्धो २५४ जं.प. १३-१२ १७ , २५८ प्र. सारो. ३८७ १३ एयट्ट च च य छ सत्तयं २५४ गो. जी.३५३/२० बारससदकोडीओ २६६ ३१ कोटिकोटयो दर्शतेषां ३०१ | ३ भासागदसमसेडि २२४ १६ गच्छकदी मूलजुदा २५६ २५ मसुरिय-कुस्सग्गबिंदू २९७ मूसा. १२, ४८ ४ चत्तारि धणुसयाई २२९ ३५ मुखमद्धे शरीरस्य ३८३ २६ जवणालिया मसूरी २९७ मूला. १२, ५० | २९ योजनं विस्तृतं पल्यं ३०० २२ जह जह सुदमोगा | १ वाग्दिगभ्या २०१ .. हिदि २८१ भग. १०५ २१ सज्झायं कुव्वंतो . २८१ भग. १०४, २३ जं अण्णाणी कम्म , प्र. सा ३, मूला ५. २१३ ३८ भग. १०८ ९ सत्तेत्तालसहस्सा २२९ २४ गेरइय-देव-तित्थयरो- २९५ नं.सू. गाथा६४ १५ संकलणरासिमिच्छेि २५६ ३० ततो वर्षशते पूर्णे ३०० ३४ सुत्तं गणहरकहियं ३८१ भग. ३४ १ तद विददो घण सुसिरो २२२ मूला. ५, ८० २७ तिणि सहस्सा सत्त य ३०० | १८ सोलससदचोत्तीसं २६६ गो. जी. ३३५ पृष्ठ ३०२, ३०७ ३ न्यायोक्तियां क्रमसख्या न्याय १ जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति गायादो .. .. भणदि२ समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात् । ३ अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दा समुदायेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात् । ४ सीहावलोगण्णाएण सव्वलोगणालिसद्दाणुवत्तीए छरज्जुआयदं लोगणालि पस्संति त्ति सुत्तट्ठसिद्धीदो। ५ ग्रंथोल्लेख १ खंडग्रंथ १ एदं खंडगंथमज्झप्पविसयं पडुच्च कम्मफासे पयदमिदि भणिदं । ३१७ . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थोल्लेख २ जीवस्थान २९९ ७७ २०७ २ जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अंतोमुत्तमिदि पढिदो। . . . . जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स कालो परूविदो तेण तत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तो होदि । ३ तत्वार्थसूत्र १ वितर्कः श्रुतं ( त. सू. ९-४३ ) द्वादशांगम् । २ 'अनन्तगुणे परे ' इति तत्त्वार्थसूत्रनिर्देशात् । ३ ण, रूविणो पोग्गला ( त. सू. १५-५ ) इच्चेवमाईसु णिच्चजोगे वि मदुप्पच्चयस्स उप्पत्तिदंसणादो। ४ ण च मदिपुव्वं सुदमिच्चेदेण सुत्तेण ( त. सू. १-२० ) सह विरोहो अत्थि, तस्स आदिप्पउत्ति पडुच्च परूविदत्तादो।। ५ ‘रूपिष्ववधेः ' ( त. सू. १-२७ ) इति वचनात् ।। ६ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ( त. सू. १-१९ ) इति तत्र तस्य प्रतिषेधात् । ७ परदो किण्ण गच्छंति ? धम्माथिकायाभावादो ( त. सू. १०-८ )। ''बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्त-ध्रुवाणां सेतराणाम् ' ( त. सू. १-१६ ) संख्या-वैपुल्यवाचिनो बहुशब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । ९ न ' सभ्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग: ' ( त.सू. १-१ ) इत्यनेन विरोधः, ४ परिकर्म १ अपदे णेव इंदिए गेझं ' इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि णासंकणिज्ज,...त्ति परि २ सव्वजीवरासीदो लद्धिमक्खरमणंतगुणमिदि कुदो णव्वदे ? परियम्मादो। ३ पुणो एगजीवस्स .... पावदि त्ति परियम्मे भणिदं । ४ खेज्जावलियाहि एगो उस्सासो, सुत्तस्सासेहि एगो थोवो होदि त्ति परियम्मवयणादो। ५ भावविधान २१० २११ २२० २२३ २३४ २८८ १ पुणो एदस्सुवरि भावविहाणकमेण . . . दुचरिमट्ठाणे त्ति । २ एत्थ भावविहाणक्कमो चेव होदि त्ति कधं णव्वदे? ... भावविहाणक्कमो पसज्जदे? ६ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत १ महाकम्मपयडिपाहुडे पुण दव्वफासेण सव्वफासेण कम्मफासेण पयदं । २ महाकम्मपयडिपाहुडे किमळं तेहि अणुयोगद्दारेहि तस्स परूवणा कदा ? ३६. १९६ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ) ७ मूलतंत्र पहाणं, तत्थ वित्थारेण परुविदत्तादो । ८ योनिप्राभृत १ जोणिपाहुडे भणिदमंत संतसत्तीयो पोम्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो । ९ वेदना १ मूलतंते पुण परिशिष्ट १ ण एस दोसो, वेणा परूविदत्थादो विसेसो णत्थि त्ति कादूण अकयतप्परूवणतादो । जहा वेणा परूवणा कदा तहा कायव्वा । २ ३ जहा वेयणाए परूंविदा तहा परूवेयन्वा । ४ अक्खरणाणादो उवरि छव्विहवडपरूविदवेयणाववखाणेण सह किण्ण विरोहो ? ५ तेसि वियष्पाणं परूवणा जहा वेयणाए कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । जहा वेयणाए कदा तहा कायव्वा, विसेसाभावादो । ६ ७ एदिस्से गाहाए जहा वेयणाए परूवणा कदा.... ८ एवं वेयणाए वृत्तविहाणेण णेदव्वं जाव सलागरासी सब्वो णिट्टिदो ति । अनिर्दिष्टनाम १ उवसंत कसायम्मि एयत्तविदक्कावीचारे संते ' उवसंतो दु पुधत्तं ' इच्नेदेण विरोहो होदि त्ति.. · २ ' प्रक्षेपकसंक्षेपेण एदेण सुत्तेण एत्थ समकरणं कायां । ३ अर्थामधान - प्रत्ययास्तुल्यनामधेया इति शाब्दिकजनप्रसिद्धत्वात् । ४ ण च देसघादी, ' केवलणाण-केयलदंसणावरणीयपयडीओ सव्वघादियाओ ' त्ति सुतेण सह विरोहादो । ५ अतिवृत्तौ नोत्तर विज्ञानोत्पत्तिः, ' एकार्थमेकमनस्त्वात् ' इत्थेनेन विरोधात् । ६ एत्थ अण्णे आइरिया असद्दपोग्गलेहि सह सुणेदित्ति मिस्सपदस्स अत्थं परूवेंति । ७ निःसृतमित्यपरे पठन्ति । तन्न घटते, उपमाप्रत्ययस्य एकस्यैव तत्रोपलम्भात् । ९० ९ • वेयणाए वृत्तविहाणेण णेदव्वा . ...I १० सेसाणुओगद्दाराणं जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायब्वा । १० सन्मतिसूत्र १ 'जं सामण्णं गहणं दसणं ' ( स सू. २- १ ) एदेण सुत्तेण सह विरोहो किष्ण जायदे ? ३५४ ११ सिद्धिविनिश्चय १ तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम् - अवधि-विभंगयोरवधिदर्शनमेव इति । ३४९ ३६ २०३ २१२ २६८ २९० २९३ ३१० ३२५ ३२७ ३९२ ३५६ ८१ ९५ २०० २१४ २३५ २२४ २३८ . Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थोल्लेख २४३ २६२ ३१२ ३३७ ३४३ ३५० २२२ २२३ २९८ ८ प्राकृते 'एदे छच्च समाणा' इत्यनेन ईत्वम् । ९ एदं णिरावरणं, अक्खरस्साणंतिमभागो णिच्चुग्घाडियो त्ति वयणादो . ...। १० जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेव जहण्णोहिखेत्तमिदि सुत्तण सह विरोहादो। ११ भासावग्गणाए ओगाहणा तत्तो असंखेज्जगुणहीणा त्ति कुदो णव्वदे ? ... त्ति अप्पाबहुअवयणादो। १२ ण, 'एए छच्च समाणा' त्ति विहिददीहत्तादो। १३ के वि आइरिया माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरे चेव जाणदि त्ति भणंति । .... माणुसुत्तरसेलभंतरे चेव ट्ठाइदूण चिंतिदं जाणदि त्ति के वि आइरिया भणंति।। १४ . . . . सव्वा सिद्धा सेहणं पडि सादिया, संताणं पडि अणादिया त्ति सुत्तादो । आचार्यपरम्परागत उपदेश १ कुदो एदं णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। २ ण च सव्वे पोग्गला एगसमएण चेव लोगंतं गच्छंति ति णियमो, .... त्ति उवदेसादो। ३ . . . . णाहीए हेट्ठा सरडादिअसुहसंठाणाणि होति त्ति गुरूवदेसो, ण सुत्तमत्थि । ४ पादेक्कं वक्कपरिसमत्ती एत्थ ण गहिदा त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरा गदअविरुद्धवदेसादो। ५ जहण्णोहिणिबंधणस्स खेत्तस्स को विक्खंभो . . . . त्ति भणिदे णत्थि एत्थ उवदेसो, किंतु . . . . त्ति उवएसो। ६ . . . . मोत्तूण अण्णत्थ पमाणंगुलादीणं गहणं कायव्वमिदि गुरुवदेसादो। ७ कुदो णव्वदे ? आइरियपरंपरागयसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो । x x x कुदो ? __अविरुद्धाइरियवयणादो।। ८ होतं पि पुग्विल्लखेत्तादो एवं संखेज्जगुणं कुदो णव्वदे ? गुरूबदेसादो। ९ कुदो एदमवगम्मदे ? गुरूवदेसादो। १० .... हेट्ठा ण पेच्छंति त्ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ११ एसो वि गुरूवएसो चेव, वट्टमाणकाले सुत्ताभावादो। १२ सुत्तेण ( विणा ) कधमेदं वुच्चदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। १३ एवं जहण्णुक्कस्सदव्ववियप्पा सुत्ते असंता वि पुवाइरियोवदेसेण परूविदा । १४ के वि आइरिया माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरे चेव जाणदि त्ति भणंति । .... माणुसुत्तरसेलब्भंतरे चेव ठाइदूण चिंतिदं जाणदि त्ति के वि आइरिया भणंति । १५ .... अवहारो होदि त्ति कुदो णब्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ३०२ ३०३ ३०४ ३१४ ३२० ३२२ ३३७ ३४३ ३८५ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ २३७ २०४ ५ पारिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ अ | अनन्तानुबन्धी ३६० अपोहा अनवस्थाप्य | अप्रतिपाति २९२, २९५ अक्ष ९, १०, ४१ | अनवस्थित २९२, २९४ अप्रत्याख्यान अक्षपाद २८८ २८ अनाकार उपयोग २०७ अभिमुख अर्थ २०९ अक्षर २४७, २६०, २६२ अनादेयनाम ३६३, ३६६ अयन २९८, ३०० अक्षरगता २२१ अनावृष्टि ३३२, ३३६ अयश:कीतिनाम ३६३, ३६६ अक्षरज्ञान अनि:सृतप्रत्यय अयोगवाह २४७ अक्षरश्रुतज्ञान २६५ २९२, २९४ अरञ्जन २०४ अक्षरसमासश्रुतज्ञान २६५ अनुत्तर २८०, २८३, ३१९ अरति अक्षरसमासावरणीय अक्षरसंयोग २०४ अनुपयुक्त अरहःकर्म २४७, २४८ ३४६, ३५० अक्षरावरणीय अनुपयोग अचि ११५, १४१ २६१ अक्षिप्रप्रत्यय २३७ अनुप्रेक्षणा अचिमालिनी २०३ अक्षेम २३२, २३६, २४१ अनुभाग अर्थ २४६, २४९ अगुरुलघुनाम ३६३, ३६४ अनुयोद्वार २, ३६, २६९ अर्थपद २६६ अग्र्य २८०, २८८ अनुयोगद्वारश्रुतज्ञान २६९ | अर्थसम २०३ अचक्षुदर्शन | अनुयोगद्वारसमास २७० | अर्थावग्रह अचक्षुदर्शनावरणीय | अनुयोगद्वारसमासा- अर्थावग्रहावरणीय २१९,२२० अच्युत वरणीय अर्धनाराचसंहनन ३६९, ३७० अजीव ८,४०, २०० अनुयोगद्वारावरणीय २६१ अर्धमास ३०७ अतिवृष्टि ३३२, ३३६, ३४१ | अनुजुक अलाभ ३३२, ३३४, ३४१ अधमंद्रव्य ४३ | अनेकक्षेत्र २९२, २९५ अल्प ४८ अधर्मास्तिकायानुभाग ३४९ / अनेकसस्थानसस्थित २९६ | अल्पबहुत्व ९१, १७५, ३८४ अधःकर्म ३८, ४६, ४७. अनेषण ५५ अवगाहना ३०१ अधःस्थितिगलन अन्तदीपक ३१९ अवगाहनाविकल्प ३७१, ३७६ अध्यात्मविद्या ३६ अन्तर ३७७, ३८३ अध्रुव २३९ अन्तरानुगम १३२ | अवग्रह २१६, २४२ अनक्षरगता २२१ अन्तराय २६, २०९ ३८९ | अवग्रहावरणीय २१६, २१९ अनध्यात्मविद्या ३६ अन्तरायकर्मप्रकृति २०६ अवदान २४२ अननुगामी २९२, २९४ | अपर्याप्तनाम ३६३, ३६५ | अवधि, २१०, २९० अनन्तर अपायविचय अवधिज्ञाना- २०९, २८९ अनन्तरक्षेत्र ७ अपिण्डप्रकृति ३६६ | वरणीय अनन्तरक्षेत्रस्पर्श ३, ७, १६ | अपूर्वस्पर्धक ८५ | अवधिदर्शन २२० ३५४ ३१८ ७२ ३५५ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक-शब्द-सूची ( १९ ३५४ yur ईहा अवाङ् २१८ ३ ३७१ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ अवधिदर्शनावरणीय ! आगमद्रव्यप्रकृति २०३, २०४ अवधिविषय ३१५ आगमभावप्रकृति ३९० ईर्यापथकर्म ३८, ४७ अवनमन आज्ञा | ईशान अवमौदर्य | आज्ञाविचय २१७, २४२ अवलम्बना २४२ आतपनाम ३६२, ३६५ | ईहावरणीय २१६, २३१ अवस्थित २९२,,२९४ आत्मन २८०, २८२ २१० ३३६,३४२ अवाय २१८, २४३ / आत्माधीन ८८ उक्त २३९ अवितथ २८०, २८६ आदिकर्म उच्चैर्गोत्र ३४६, ३५० ३८८, ३८९ अविहत २८०, २८६ | | आदित्य उच्छ्वासनाम ३६३, ३६४ अव्यक्तमनस् ३३७, ३४२ आदेयनाम ३६३, ३६६ उत्पन्नज्ञानदर्शी अशब्दलिंगज २४५ आनत उदयादिगुणश्रेणि ८० अशुद्धपर्यायार्थिक १९९ आनुपूर्वी उद्योतनाम ३६३, ३६५ अशुभनाम ३६३, ३६५ | आनुपूर्वीनाम ३६३ उपघातनाम ३६३. ३६४ असद्भावस्थापना १०, ४२ आभिनिबोधिक २०९, २१० उपद्रावण ४६ असपत्न ३४५ आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय उपपाद ३४६, ३४७ असंख्यात ३०४, ३०८/ २०९, २१६, २४१, २४४ उपयुक्त असंग्रहिक | आमुण्डा २४३ उपवास असंप्राप्तसृपाटिका आम्लनाम उभय संहनन ३६९, ३७० | आयुष्क २६, २०९, ३६२ उलुञ्चन असातावेदनीय ३५६, ३५७ | आयुष्कर्मप्रकृति उष्णनाम ३७० उष्णस्पर्श असुर ३१५, ३९१ | आरम्भ अस्पृष्टकाल आलोचना ऊर्ध्वकपाट ३७९ अंक ११५ अंग आवलि २४२ २९८, ३०४ | ऊहा अंगुल ३०४, ३७१ ३०६ अंगुलपृथक्त्व ३०४ आहारकशरीरननाम ३६७ / ऋजुक आ आहारकशरीरबन्धनाम ३६७ . ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानाआकार | आहारकशरीरबन्धस्पर्श ३० | वरणीय ३२८, ३२९, ३४० आकाश द्रव्य ४३ आहारकशरीर ऋजुसूत्र ६, ३९, ४०, १९९ आकाशास्तिकायानुभाग ३४९ / संघातनाम ३६७ ऋतु २९८, ३०० आगति ३३८, ३४२, ३४६ : आहारकशरीरांगोपांग ३६९/ ऋद्धि ३४६, ३४८ ma ३९० 1 wr २०४ २४ आवन्ती ३३० Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ) परिशिष्ट पृष्ठ एक ३३२ ३ औ ३ कीर पृष्ठ शब्द शब्द कर्मक्षेत्रविधान कालद्रव्यानुभाग ३४९ २३६ कर्मगतिविधान कालयुति ३४९ एकक्षेत्र ६. २९२, २९५ कर्मद्रव्यविधान कालसप्रयुक्त एकक्षेत्रस्पर्श ३ ६, १६ | कमन | कर्मनयविभाषणता काशी ३३५ एकत्ववितर्कअवीचार ७९ कर्मनामविधान काष्ठकर्म ९.४१, २०२ एकविध २३७ कर्मनिक्षेप कालाणु एकेन्द्रियजातिनाम ३६७ कर्मपरिमाणविधान कालानुगम १०७ किनर एषण ५ कर्मप्रकृति २०४, २०५, ३९१ किंपुरुष कर्मप्रत्ययविधान ३८ २२३ औदारिकशरी कर्मभागाभागविधान , कीलितसंहनन ३६९, ३७० पाङ्ग ३६९ कर्मभावविधान कुडव औदारिकशरीरनाम ३६७ कर्मसन्निकर्षविधान कब्जकशरीरसंस्थाननाम ३६८ औदारिकशरीरबंधननाम ३६७ | कर्मस्पर्श कुभाषा २२२ औदारिकशरीरबंधस्पर्श | कर्मानुयोग ३७ कुरुक २२२ कर्वट ३३५ औदारिकशरीरसंघातकर्वटविनाश ३३२,३३५,३४१ | कूट ५,३४ नाम कल ३४६, ३४९ कृत ३४६, ३५० कलश २९७ कृष्टि ८५ कलिंग कटकनाम ३७० कृष्णवर्णनाम ३७० कणभक्ष कवल २८८ केवलज्ञान २१२, २४५ कन्दक कषाय | केवलज्ञानावरणीय २०९,२१३ कपाट कषायनाम केवलदर्शन ३५५ कपिल कषायवेदनीय ३५९ ३६० | कोटि ३१५ करुणा ३६१ | कायक्लेश कोष्ठा २४३ कर्कशनाम ३७० | कायप्रयोग क्रिया कर्कशस्पर्श २४ कायोत्सर्ग क्रियाकर्म ३८, ८८ कर्म ३७, ३२८ कार्मणशरीर क्रोधसंज्वलन कर्मअनन्तरविधान ३८ कार्मणशरीरबंधननाम ३६७ २९८, २९९ कर्मअल्पबहुत्व ३८| कार्मणशरीरबंधस्पर्श ३० क्षिप्रप्रत्यय २३७ कर्मकर्मविधान कार्मणशरीरसंघातनाम ३६७ क्षेत्र ६, ९१, ३३८ कर्मकारक २७९ / काल ९१, ३०८. ३०९ क्षेत्रत्व कर्मकालविधान ३८| कालद्रव्य ४३ | क्षेत्रभवानुगामी لان والیبال कुल २८ क्षण २९४ . Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द क्षेत्र क्षेत्र वृद्धि क्षेत्राननुगामी क्षेत्रानुगम क्षेत्रानुगामी क्षेत्रोपमअग्निजीव क्षेम खगचर खेट गच्छ गण गति ३३२, ३३६, ३४१ ख गतिनाम गतिमार्गणता पृष्ठ शब्द ३४९ गोधूम ३०९ गोड २९४ | ग्रन्थसम ३९० घटोत्पादानुभाग ३३५ घन खेटविनाश ३३२,३३५, ३४१ | घनहस्त घनांगुल घोष ६३ |घोषसम पारिभाषिक शब्द - पूची ९८ ग्राम २९४ | ग्रैवेयक ३२३ ग्लान ग घट गन्धनाम ३६३, ३६४, ३७० गन्धर्व गरुड गलस्थ गवेषणा गव्यूति गव्यूतिपृथक्त्व गान्धार गुणप्रत्यय गुरुनाम गुरुस्पर्श गृहकर्म गृहीत- अगृहीत गोत्र गोत्रकर्म गोत्रकर्मप्रकृति घ ९, १०, ४१, २०२ चिन्ता ५१ २६, २०९ | चित्रकर्म ३८८ च ३७० | चारित्रमोहनीय २४ | चार्वाक पृष्ठ शब्द २०५ छेद २२२ २०३ ३३६ ३१८ ६३, १२१ जित ३०१, ३०४ २२१, ३३६ जिनवृषभ घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह " २०३ | जिह, वेन्द्रिय अर्थावग्रह २२८ जिह वेन्द्रियईहा ३३८, ३४२, ३४६ घ्राणेन्द्रियअवाय २३२ जिह वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह ३६३, ३६७ घ्राणेन्द्रियईहा २३१ २८०, २८२घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह २२५ जीव २०६ छद्मस्थवीतराग जीवद्रव्य ३९१ | चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह २२७ जीवबन्ध ३९१ ५६ २४२ चक्षुर्दर्शन ३५५ |जीवपुद्गलबन्ध चक्षुर्दर्शनावरणीय ३५४, ३५५ जीवपुद्गलमोक्ष चतुः शिरस् ३२५, ३३९ चतुरिन्द्रियजातिनाम ३०६, ३३८ चतुष्पद जीवपुद्गलयुति ३३५ चयन २९०, २९२ चयनलब्धि जघन्य जघन्यावधि जघन्यावधिक्षेत्र २०४ ३४९ २२१ जातिनाम ३०६ जनपद जनपद विनाश जम्बूद्वीप जलचर ज ८९ ३६७ जीवमोक्ष ३९१ जीवयुति ३४६, ३४७ जीवस्थान २७० | जीवानुभाग ३५७, ३५९ जीवित २८८ जुगुप्सा जैमिनि ४७ ज्योतिष्क ( २१ पृष्ठ ६१ ३०१, ३३८ ३२५, ३२७ ३०३ ३३५ ३३५, ३४१ ३०७ ३९१ ३६३, ३६७ २०३ ३७ २२८ २३१ २२५ ८, ४० ४३ ३४७ ३४७ ३४८ "3 31 19 २४४, ३३२ ३३३, ३४१ ज्ञान २०६, २०७ ९, ४१, २०२ ज्ञानावरणीय २६, २०६, २०७ ज्ञानावरणीयकर्मप्रकृति २०५ छ ३१४ २९९ ३४९ ३३२, ३३३, ३४१ ३६१ २८८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ) परिशिष्ट पष्ठ ३५३ दान २०५ दीर्घ २०५ ३६७ नगर शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ | शब्द दर्शनावरणीय २६, २०८, धर्मकथा २०३ तत धर्मद्रव्य तत्त्व २८०, २८५ ३८९ | धर्मास्तिकायानुभाग ३४९ तत्त्वार्थसूत्र दानान्तराय ३८९ - १८५ | धर्म्यध्यान ७०, ७४, ७७ तपःकर्म दिवस ३८, ५४ २९८, ३०० | धर्म्यध्यानफल ८०, ८१ तपस् दिवसान्त ५४, ६१ धान तर्क ३४६, ३४९ २४८ धारणा २१९, २३३, २४३ तर्पण :ख ३३२, ३३४, ३४१ धारणावरणीय २१६, २१९, तिक्तनाम ३७० स्वरनाम २३३ तिर्यक् २९२, ३२७, ३९१ दुरभिगन्धनाम ध्यात तिर्यप्रतर ३७१, ३७३ | | दुर्भगनाम ३६३,३६६ ध्यान ६४, ७४ ७६, ८६ तिर्यगायुष्क ३६२ | | दुर्भिक्ष ३३२, ३३६, ध्यानसंतान तिर्यग्गतिनाम ३६७ दुवृष्टि ३३२, ३३६, ध्येय तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी देव २६१, २९२ देवगतिनाम ३७१, ३७५ ३३४ तिर्यग्योनि ३२५ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ३७१ नगरविनाश ३३२.३३४,३४१ तीर्थङ्करनाम '३६३, सन्दावर्त २९७ तेजसशरीर ३१० देवायुष्क ३६२ नपुंसकवेद तैजसशरीरनाम देश देशविनाश ३३२, ३३५, ३४१ तैजसशरीरबन्धननाम ३६७ ३८, १९८, २८७ ३० तैजसशरीरबन्धस्पर्श देशस्पर्श ३, ५, १७ नयवाद २८०, २८७ तैजसशरीरलम्ब नयविधि द्रव्य ३२५ २८०, २८४ ९१, २०४, ३२३ द्रव्यकर्म तैजसशरीरसंघातनाम ३६७ नयविभाषणता ३८, ४३ ३ वसनाम | नयान्तरविधि २८०, २८४ ३६३, ३६५ द्रव्यप्रकृति १९८, २०३ द्रव्यप्रमाणानुगम त्रिःकृत्वा नरक ९३ नरकगतिनाम त्वकस्पर्श | द्रव्ययुति ३६७ ३, १९ त्वगिन्द्रिय नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ३७१ द्रव्यस्पर्श २४ द्रव्यार्थता नरकायुष्क ३६२ नाग द्विपद दण्ड ८४ नाभेय ३८८ द्वीन्द्रियजातिनाम दन्तकर्म ९, १०, ४१, २०२ नाम २६, २०९ दर्शन द्वीप २०७, २१६, ३५८ | नामकर्म २८, ४०, २६३ दर्शनमोहनीय ३५७, .३५८ । नामकर्मप्रकृति २०६ दर्शनावरणकर्मप्रकृति २०६] धरणी २४३ । नामप्रकृति १९८ ३८२ ३२५ mmmmm ३६७ ३०८ . Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक-शब्द-सूची ( २३ पृष्ठ पक्ष ३, ३८, १९८ पञ्चमक्षिति ३१८ पशु ००० Mr mrrrrrr 8 WWW ३४७ शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ शब्द नामप्रकृति १९८ पर्यायसमासावरणीय २६१ नामसम २०३ पर्यायावरणीय २६१ नामस्पर्श ३. ८/१० २९८, ३०० पर्व २९८, ३०० पक्षधर्मत्व नारक २९२, ३९१, ३९२॥ २४५ पल्योपम २९८, निःसृतप्रत्यय २३८ पक्षिन् ३९१ |पंच लोकपाल निक्षेप ३९१ निद्रा पञ्चेन्द्रियजातिनाम ३६७ पाप ३५२ . निद्रानिद्रा ३५३, ३५४ पञ्जर ५, ३४ पारञ्चिक निर्जरित-अनिर्जरित ५४ पट्टन ३३५ पारसिक निर्जरा ३५२ पट्टनविनाश ६३२,३३५,३४१ / पार्श्व निर्देश ९१ पद २६०, २६५ | पिठर निर्माणनाम ३६३, ३६६ पदश्रुतज्ञान २६५ | पिण्ड निर्वत्यक्षर २६५ पदसमास २६७ पिण्डप्रकृति नीचैर्गोत्र ३८८,३८९ पदसमासावरणीय २६१ पुण्य ३५२ नीलवर्णनाम ३७० पदावरणीय २६१ पुद्गलद्रव्य ४३ नेगम १९९ पदाहिन ८९| पुद्गलबन्ध नैगमनय परघातनाम ३६३ पुद्गलमोक्ष ३४८ नोआगम द्रव्यप्रकृति २०४ परमाणु ११, १८, २१५ | पुद्गलयुति ३४८ नोआगमभावप्रकृति ३९०, परमावधि २९२, ३२२ | पुद्गलानुभाग ३४९ ३९१ परम्परालब्धि २८०, २८३ पुरुषवेद ३६१ नोइन्द्रियअर्थावग्रह २२८ परवाद २८०, २८८ | पूर्व २८०, २८९, ३०० नोइन्द्रियअर्थावग्रहापरस्परपरिहारलक्षण- पूर्वश्रुतज्ञान २७१ वरणीय २२९ विरोध पूर्वसमासश्रुतज्ञान ३४५ नोइन्द्रियअवायावरणीय २३२ २७१ परिजित | पूर्वसमासावरणीय २६१ नोइन्द्रियईहा २३२ परिकर्म १७,२६२,२६३,२९९ पूर्वस्पर्धक नोइन्द्रियईहावरणीय २३३ नोइन्द्रियधारणावरणीय २३२ परितापन ४६ | पूर्वातिपूर्व परिभोग नोकर्मप्रकृति ३९० पूर्वावरणीय २६१ २०५ परिभोगान्तराय ३८९ पृच्छना २०३ नोकर्मस्पर्श ४, ५ परिवर्तना नोकषाय पृच्छाविधि २८०, २८५ ३५९ नोकषायवेदनीय ३५९, ३६१ | परिहार पृच्छाविधिविशेष २८०, २८५ २१२, नोत्वक २१४ |पृथक्त्व ७७ न्यग्रोधपरिमण्डलशरीर- पर्याप्तनाम ३६३ | पृथक्त्ववितर्कवीचार ७७, ८० संस्थाननाम ३६८/पर्याय २६० पोत्तकर्म ९,४१, २०२ न्याय २८६ पर्यायज्ञान २६३ प्रकीर्णकाध्याय २७६ न्याय्य २८६ पर्यायसमासज्ञान २६३ । प्रकृति १९७, २०५ ایام ارسال را २०३ २०३ १९/परोक्ष Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४ ) परिशिष्ट पृष्ठ ३०७ २०० ३५४ शब्द पृष्ठ शब्द शब्द पृष्ठ प्रकृति अल्पबहुत्व १९७ प्रवचनसंन्यास २८४ भङ्गविधि २८०, २८५ प्रकृतिक्षेत्रविघान १९७ प्रवचनी भङ्गविधिविशेष २८०, २८५ प्रकृतिद्रव्यविधान १९७ प्रवचनाद्धा २८०, २८४|| भजितव्य प्रकृतिनयविभाषणठा १९७ प्रवचनाप २८०, २८२| भय ३३२, ३३६, ३४१, ३६१ प्रकृतिनामाविधान १९७ प्रवचनीय २८०, २८१ प्रकृतिनिक्षेप प्रवरवाद भरत १९७, १९८ २८०, २८७ प्रकृतिशब्द प्राणत ३१८| भवग्रहण ३३८ ३४२ प्रचला प्राभृतज्ञायक भवप्रत्यय २९०, २९२ प्राभृतप्राभूत प्रचलाप्रचला २६० भवाननुगामी २९४ ३५४ प्रतर प्राभृतप्राभृतश्रुतज्ञान २७० | भवानुगामी २९४ प्रतिक्रमण प्राभृतप्राभृतसमास २७० भविष्यत् २८०, २८६ प्रतिपत्ति प्राभृतश्रुतज्ञान २७० २९२ भव्य ४, ५, २८०, २८६ प्रतिपत्तिआवरणीय २६१ प्राभृतसमासश्रुतज्ञान २७० भव्यस्पर्श प्राभृतप्राभृतसमासाप्रतिपत्तिश्रुतज्ञान २६९ वरणीय भामा २६१ प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान २६९ भाव प्राभृतप्राभृतावरणीय २६१ प्रतिपत्तिसमासावरणीय २६१ प्राभृत समासावरणीय भावकर्म ३६, ४०, ९० प्रतिपाती प्राभृतावरण भावनिक्षेप प्रतिष्ठा प्रायश्चित्त भावप्रकृति १९८, ३९० प्रतिसारी बुद्धि २७१, २७३ प्रावचन भावयुति ३४९ प्रतिसेवित भावस्पर्श प्रतीच्छा २०३ | भावानुवाद १७२ प्रत्यक्ष २१२, बद्ध-अबद्ध भाषा २२१, २२२ प्रत्याख्यान बन्ध | भाषाद्रव्य प्रत्यामुण्डा २१०, २१२ बन्धस्पर्श |भित्तिकर्म ९, १०,४१, २०२ प्रत्येकनाम बलदेव २६१ प्रत्येकशरीर |भिन्नमुहूर्त ३०६ ५०, २३५ प्रदेश | भीमसेन २६१ बहुविध २३७ प्रदेशार्थता बादर भुक्त ३४६, ३५० ४९, ५० प्रमाणपद बादरनाम ३६३, ३६५ २८०, २२६ प्रयोग ४४ बुद्धि ३६, ३८१ प्रयोगकर्म ३८, ४३, ४४ ब्रह्म | भेंडकर्म ९, १०, ४१, २०२ प्रवचन २८०, २८२ भोग ३८९ प्रवचनसंनिकर्ष २८०, २८४ भगवत् ३४६ 'भोगान्तराय ३८९ २४३ ३४६ ل 2. ० ५२ س له سه me لس ०० बहु २४३ / भूतबलि . Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक-शब्द-सूची पृष्ठ ३४९ २६६ / माहेन्द्र ४४ ३७ ३९१ ३७० शब्द | शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ मायासंज्वलन ३६० योगद्वार २६०, २६१ मार्ग मगध २८०, २८८ योगनिरोध ३६५ ८४ मार्गणा मडबविनाश ३३२,३३५,३४१ २४२ योजन ३०६, ३१४, ३२५ मति २४४,३३२, ३३३,३४१ | मालव २२२ योजनपृथक्त्व ३३८, ३३९ मधुरनाम ३७० मास २९८, ३०० योनिप्राभूत मध्यम पद ३१६ मनस् २१२, ३३२, ३४० मिथ्यात्व ३५८ | रति मनःपर्यय २१२ मिश्रक २२३, २२४ | रस मनःपर्ययज्ञान २१२, ३२८ | मीमांसा २४२] रसनाम ३६३, ३६४, ३७० मनःपर्ययज्ञानावरणीय २१३ मुख ३७१, ३८३ | रसपरित्याग मनःप्रयोग | मुनिसुव्रत राक्षस मनुज | मुहूर्त २९८, २९९ | रुचक ३०७ मनष्य २९२, ३२७ मुहूर्तात ३०६ रुधिरवर्णनाम ३७० मनुष्य गतिनाम मूलतंत्र रूक्षनाम मनुष्यगतिप्रायोग्या मूलप्रायश्चित ६२ रूक्षस्पर्श २४ नुपूर्वी ३७७ मनुष्यलोक ३९१ रूपगत ३१९, ३२१, ३२३ मनुष्यायुष्क मृत्तिका २०५ | रोग ३३२, ३३६, ३४१ मनोज्ञवैयावृत्त्य मन्द मृदुनाम ३७० लघुनाम ३७० मरण ३३२, ३३३, ३४१ मृदुस्पर्श २४ लघुस्पर्श मस्करी मेघा २४२ लब्ध्यक्षर २६२, २६३, २६५ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत मोक्ष लयनकर्म ९,४१, २०२ १९६ | मोहनीय २६, २०८, ३५७ लव २९८, २९९ महाराष्ट्र २२२) मोहनीयप्रकृति २०६ | लाढ २२२ महाव्यय य लान्तव महोरग ३९१ | यक्ष लाभ ३३२, ३३४, मागध २२२ | यथानुपूर्व २८० ३४१, ३८९ मान | यथानुमार्ग २८०, २८९ लाभान्तराय ३८९ मानस ३३२.३४० | यन्त्र ५, ३४ लिङ्ग २४५ मानसिक ३४६, ३५० यव २०५ लेपकर्म ९, १०, ४१, २०२ मानसंज्वलन ३६० | यशःकीर्तिनाम ३६३, ३६६ लोक २८८, ३४६, ३४७ मानुष ३९१ युग २९८,३०० लोकनाडी ३१९ मानुषोत्तरशैल ३४३ युति ३४६, ३४४ लोकपाल २०२ मृग . m mm मृदुक ५० २४ २८८ ५१ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ) परिशिष्ट ७७ ७२ २४७ ३३५ ३१४ ० विशेष ३६९ विष २३४ ५, ३४ ९.१० ४१ २१६ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ लोकपूरण वितर्क वैक्रियिकशरीरबंधननाम ३६७ लोकमात्र ३२२, ३२७ विद्रावण ४६ वैक्रियिकशरीरबन्धस्पर्श ३० लोकोत्तरीयवाद २८०. २८८ विनय वैक्रियिकशरीरसंघातलोभसंज्वलन ३६० विपक्षसत्त्व नाम लोहाग्नि विपाकविचय वैयावृत्य लौकिकवाद २८०, २८८ | विपुलमतिमनःपर्यय वैरोचन ११५ ज्ञानावरणीय ३३८, ३४० व्यञ्जन विभङ्गज्ञान २९१ व्यञ्जनावग्रह २२० वङ्ग विविक्त व्यञ्जनावग्रहावरणीय २२१ वचःप्रयोग ४४ विविक्तशय्यासन व्यन्तरकूमारवर्ग वज्र ११५ विविधभाजनविशेष व्यभिचार वज्रनाराचशरीरसंहनन ३६९ विवेक व्यवसाय २४३ वज्रर्षभनाराचशरीर. व्यवहार ४, ३९, १९९ मंहनन ३६९ व्यवहारपल्य ३०० वराटक विषय व्युत्सग वर्णनाम ३६३,३६४, ३७० विषयिन् वर्तमान विस्रसोपचय ३७१ वर्धमान २९२, २९३ विहायोगतिनाम ३६३, ३६५ शक ३१६ वर्वर वीचार शब्दनय ६, ७, ४०, २०० वर्ष ३०७ शब्दलिङ्गज २४५ वीर्यान्तराय वर्षपृथक व शरीरआङ्गोपाङ्ग ३६३ वृत्ति वस्तु ३६४ वृत्तिपरिसंख्यान वस्तुआवरणीय २६० | शरीरनाम ३६३, ३६७ वृद्धि ३०९ वस्तुश्रुतज्ञान शरीरबंधननाम ३६३, ३६४ वेद वस्तुसमासश्रुतज्ञान २८०, २८६ शरीरसंघातनाम ३६३, ३६४ वस्तुसमासावरणीय २६० वेदना ३६,२०३,२१२,२६८, | शरीरसस्थाननाम " " वागरा २९०,२९३,३१० | शरीरसंहनननाम ,, वाचना २०३ ३२५,३२७ शीतनाम ३७० वाचनोपगत वेदनीय २६, २०८, ३५६ | शीतस्पर्श | वेदनीयकर्मप्रकृति वानव्यन्तर २०६ शुक्र ३१६ वामनशरीरसंस्थाननाम ३६८ वेदित-अवेदित शुक्ल विज्ञप्ति २४३ | वैक्रियिकशरीरआंगोपांग ३६९ शुक्लत्व ७७ वितत २२१ वैक्रियिकशरीरनाम ३६७ | शुक्लध्यान ७५, ७७ ३३६ m २२२ ७७ २६० ० ० २०३ ३१४ २४ .. . Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक-शब्द-सूची ( २७ शोक २५४ श्रुतज्ञान ३४५ ३५८ ३५८ ४४ शब्द पृष्ठ । शब्द पृष्ठ । शब्द पृष्ठ शुक्लवर्णनाम ३७० | सप्रतिपक्ष २९२, २९५ | संघातश्रुतज्ञान २६७ शुद्ध २८०, २८६ | समचतुरशरीरसंस्थान- | संघातसमासश्रुतज्ञान २६९ शुभनाम ३६२, ३६५ नाम ३६८ | संघातसमासावरणीय २६१ शैलकर्म ९ १०,४१, २०२ समय २९८ संघातावरणीय २६१ समयकाल ३२२ | संज्ञा २४४,३३२, ३३३,३४१ शख समवदानकर्म संज्वलन श्रद्धान | समास २६०, २६२ | श्रीवत्स | सनिवेश २९७ ३३६ | समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ८७ श्रुत २८५ सपातफल | समुद्र ३०८ २१०, २१ संयोग २५० समोद्दियार संयोगाक्षर श्रुतज्ञानावरणीय २०९, २४५ २५४, २५९ सम्पूर्ण संवत्सर श्रुतवाद २८०, २८८ २९८, ३०० सम्यक्त्व संवर श्रेणि ३७१, ३७५, ३७७ ३५२ | सम्यग्दृष्टि २८०, २८७ श्रोतेन्द्रिय संवाह ३३६ २२१ | सम्यग्मिथ्यात्व श्रोतेन्द्रियअर्थावग्रह २२७ संसार सयोगिकेवलिन् ४४, ४७ श्रोतेन्द्रियईहा संसारस्थ २३१ सराव २०४ श्लक्ष्ण संस्थान अक्षर ३१९ संस्थानविचय सर्वजीव ३४६, ३५१ सर्वभाव साकार उपयोग ३४६ सर्वलोक सागरोपम २९८, ३०१ ३४६ सकलश्रुतज्ञान २६७ | सर्वस्पर्श ३, ५, ७, २१ सर्वावधि साताभ्यधिक सत् २९२ सत्कर्म ३५८ सर्वावयव सातावेदनीय ३५६, ३५७ सत्ता १६ सहस्रार ३१६ सादृश्य सामान्य १९९ सत्प्ररूपणा सहानवस्थान ३४५ साधारणनाम ३६३, ३६५ सत्यभामा | सहावस्थान २१३ | साधारणशरीर ३८७ सदेवासुरमानुष संकलना २५६ | साधिकमास ३०६ सद्भावक्रियानिष्पन्न ४३ | संख्यात ३०४, ३०८ | सान २४२ सद्भावस्थापना १०,४२ संख्यात योजन ३१४ सान्तरक्षेत्र सनत्कुमार ३१६ | सख्यातीत सहस्र ३१५ सामान्य १९९,२३४ सन्निकर्ष २८४ | संग्रहनय ४, ५, ३९, १९९ | सिद्धिविनिश्चय ३५६ सन्निपातफल २५४| संघवैयावत्त्य ६३ | सिंहल २२२ सपक्षसत्त्व २४५ | संघात २६० / सुख २०८,३३२,३३४,३४१ । २६५ सर्व ७२ २०७ सकल ३४ सात २६ ७ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ) शब्द सुभगनाम सुभिक्ष सुर सुरभिगन्धनाम सुषिर सुस्वरनाम सूक्ष्मक्रियापतिपाति सूक्ष्मनाम सूक्ष्म निगोदजीव सूत्रकण्ठग्रन्थ सूत्र पुस्तक सूत्रसम सूरसेन सेन सोम सोमरुचि सौद्धोदन पृष्ठ ३६३, ३६६ | स्थापनाप्रकृति ३३२, ३३६ | स्थापनास्पर्श स्थित ३९१ ३७० स्थिति शब्द २२१ ३६३, ३६६ स्थिर ३६३, ३६५ स्थितिकाण्डक "" ८३ स्थिरनाम स्निग्धनाम परिशिष्ट २६१ स्पशैक्षेत्रविधान ११५, १४१ | स्पर्शगतिविधान पृष्ठ शब्द २०१ | स्पर्श भागाभागविधान ९ स्पर्शभावविधान २०३ स्पर्शसन्निकर्ष विधान ३४६, ३४८ स्पर्शस्पर्श ८० स्पर्श स्पर्श विधान २३९ | स्पशंस्वामित्वविधान ३०१ स्निग्ध स्पर्श २८६ स्पर्श ३८२ स्पर्शअनन्तर विधान २०३ | स्पर्शअल्पबहुत्व ३३५ स्पर्शकालविधान २६३, २६५ | स्पर्शानुयोग ३७० |स्पर्शानुयोगद्वार २४ / स्पफटिक स्वकर्म स्वक्षेत्र १, ४, ५.७, ८, ३५ २ स्कन्ध स्तव स्तिवक संक्रम स्त्यानगृद्धि स्त्रीवेद स्तुति स्थलचर स्थान स्थापना २०१ स्थापनाकर्म ४१, २०१, २४३ स्पर्शपरिणाम विधान स्थापनाक्षर २६५ स्पर्शप्रत्ययविधान २ * स्वर स्वस्तिक स्वाध्याय 31 स्पर्शद्रव्यविधान २८८ स्पर्शनयविभाषणता ११ स्पर्शन २, ३ २०३ | स्पर्शनानुगम ९१ हर १०० हरि ५३ | स्पर्शनाम ३६३, ३६४, ३७० हरिद्रवर्णनाम ३५४ | स्पर्शनामविधान २ हायमान ३६१ स्पर्शनिक्षेप २०३ | स्पर्शनेन्द्रियअर्थावग्रह २ हास्य २२८ | हिरण्यगर्भ ३९१ स्पर्शनेन्द्रियईहा २३१, २३२ हुण्डशरीर संस्थाननाम ३३६ | स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह २२५ हेतु २ हेतुवाद २ ह्रस्व पृष्ठ २ २ २ २ २ स्पृष्ट-अस्पृष्ट ५२ २ स्मृति २४४, ३३२,३३३, ३४१ २ ३, ६, ८, २४ २ २ १, १६ २ ३१५ ३१९ ३१९ २४७ २९७ ६४ २८६ 37 ३७० २९२, २९३ ३६१ २८६ ३६८ २८७ २८०, २८७ २४८ . 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