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________________ ३५८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, ९२. बंसणं गाम । तस्स मोहयं तत्तो विवरीयभावजणणं वेसणमोहणीयं णाम । रागाभावो चारित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावप्पाययं चारित्तमोहणीयं । जं तं बंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधदो एयविहं॥ ९२॥ तब्बंधकारणस्स बहुत्तामावादो। कारणभेदेण कज्जभेदो होदि, ण अण्णहा । तदो दंसणमोहणीयं बंधदो एयविहं चेवेत्ति सिद्धं । तस्स संतकम्मं पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥९३॥ कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे ? ण एस दोसो, एक्कस्सेवळ कोहवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगकिरियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभावो*होदु तत्थ तधाभावो सकिरियजंतसंबंधेण? ण, एत्थ वि अणियट्टिकरणसहिदजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तधाविहभावाविरोहादो । उप्पण्णस्स सम्मत्तस्स सिढिल भावुप्पाययं अथिरत्तकारणं च कम्मं सम्मत्तं गाम । कधमेदस्स प्रत्यय, रुचि, श्रद्धा और दर्शन होता है उसका नाम दर्शन है। उसको मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म दर्शनमोहनीय कहलाता है। रागका न होना चारित्र है। उसे मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। जो दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्धको अपेक्षा एक प्रकारका है ॥ ९२ ॥ क्योंकि, उसके बन्धके कारण बहुत नहीं है। कारणके भेदसे ही कार्य में भेद होता है, अन्यथा नहीं होता। इसलिये दर्शनमोहनीय कर्म बंधकी अपेक्षा एक प्रकारका ही है, यह सिद्ध है। किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकारका है- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । शंका-- जो मोहनीय कर्म बंधकालमें एक प्रकारका है वह सत्त्व अवस्थामें तीन प्रकारका कैसे हो जाता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जानेवाला एक ही प्रकारका कोदों द्रव्य एक कालमें एक क्रियाविशेषके द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओंको प्राप्त होता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी जानना चाहिए। शंका-- वहां क्रियायुक्त जांते । एक प्रकारकी चक्की) के सम्बन्धसे उस प्रकारका परिणमन भले ही हो जावे, किन्तु यहां वैसा नहीं हो सकता? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि यहांपर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीवके सम्बन्धसे एक प्रकारके मोहनीयका तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं आता। उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें शिथिलताका उत्पादक और उसकी अस्थिरताका कारणभूत कर्म सम्यक्त्व कहलाता है । षट्खं जी. चू. १, २१. ४ षटखं. जी. चू. १, २१. हा अप्रतौ ' कम्मस्सेव ' इति पाठः । *जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजतेण । मिच्छं दव्वं तु तिधा असंखगणहीणदव्वकमा " गो. क. २६. काप्रती सिदिल', ताप्रती 'सिथिल ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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