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________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १४१ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा गंतूण सम्मत्तं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण आदिल्ल--अंतिल्लअंतोमहुत्तेहि ऊणाणि अंतोमुत्तूणद्ध साग रोवमसहिदाणि बे सत्त दस चोद्दस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि। आणद-पाणद-प्पहुडि जाववरिम-उवरिमगेवज्ज देवे ति ताव किरियाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि?णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण आदिल्लंतिल्लअंतोमुत्तेहि ऊणाणि वीसं बावीसं तेवीसं चदुवीस पंचवीसं छव्वीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं एगणतीसंतीसं एक्कत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि। णवरि उवसमसेडि चडिय पुणो ओदरिदूण असंजदसम्मादिटिट्ठाणे दवसंजदो होदूण कालं करिय अप्पप्पणो इच्छिदविमाणेसुप्पण्णस्स किरियाकम्मस्स आदी होदि। तदो उवसमसम्मतकाले छआवलियावसेसे आसादणं गंतूण अंतरिदो । अप्पप्पणो आउअम्मि सव्वजहण्णअंतोमहत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णे लद्धमतरं। पुणो सासणं गंतूणं मरिय मणुस्सेसु उप्पण्णो त्ति वत्तव्वं। एदेहि बेहि अंतोमहत्तेहि ऊणाणि अप्पप्पणो उत्तसागरोवमाणि अंतरं होदि। अच्चि-अच्चिमालिणि वइर-वइरोयण सोम-सोमरुइ अंक-फलोह-आइच्च-विजय-वइजयंत-जयंत-अवराइद एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व या सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके यह अन्तरकाल पायाजाता है। क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल सर्वत्र आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहुर्त कम तथा अन्त। र्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक क्रमसे दो, सात, दस, चौदह, सोलह और अठारह सागर प्रमाण हैं आणत-प्राणत कल्पसे लेकर उपरिमउपरिम ग्रेवेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सर्वत्र आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहर्त कम क्रमसे बोस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरप्रमाण है। यहां इतना विशष कहना चाहिये कि उपशमश्रेणिपर चढकर फिर उतरकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें द्रव्य संयत होकर और मरकर जो अपने अपने इच्छित विमान में उत्पन्न हआ है उसके क्रियाकर्मकी आदी होती है। फिर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि कालके शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर उसका अन्तर करता है। और अपनी अपनी आयुमें सबसे जघन्य अन्तर्महर्त कालके शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है और इस तरह अन्तरकाल निकल आता है । फिर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर और मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ. ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार ये दो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी कही गई सागरोंप्रमाण उत्कृष्ट आयु उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । अचि, अचिमालिनी, वन वैरोचन सोम, सोमरुचि, अंक, स्फटिक, आदित्य, विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और * आ-का-ताप्रतिषु · अंतोमुत्तद्ध ' इति पाठः | आ-का-ताप्रतिषु 'जावुवरिमगेवज्ज- ' इति पाठः। .ताप्रती - विमाणेसुप्पण्णस्स आदी , इति पाठः । काप्रती 'वइज्जयंतअवराइद, इति पाठ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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