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________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (७९ सयमंतोमुत्तकालं ज्शायइ। अत्थदो अत्यंतरसंकमे संते विण ज्झाणविणासो, चित्तंतरगमणाभावादो। एवं संवर-णिज्जरामरसुहफलं, एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलंभादो। एवं पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणपरूवणा गदा । संपहि बिदियसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो-एकस्य भावः एकत्वम्, वितर्को द्वादशांगम्, असंक्रांतिरवीचारः; एकत्वेन वितर्कस्य अर्थ-व्यंजन-योगानामवीचारः असंक्रांतिः यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कवीचारं ध्यानम् । एत्थ गाहाओ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण । खीणकसाओ ज्झायइ तेणेयत्तं तगं भणिदं* ।। ६१ ।। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य । ज्झायदि झाणं एवं सविदक्कं तेण तज्झाणं*॥६२ ॥ अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स अभावेण तगं ज्झाणमवीचारमिदि वुत्तं ।। ६३ ।। एदस्स भावत्थो-खीणकसाओ सुक्कलेस्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोद्दसपुत्वहरो दसपुत्वहरो णवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी खविदासेसकसायवग्गो णवपयत्थेसु एगपयत्थं दव्व-गुण-पज्जयभेदेण काल तक ध्याता है। अर्थसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नहीं होता, क्योंकि, इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। इस प्रकार इस ध्यानके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि, इससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार पथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका कथन समाप्त हआ। अब द्वितीय शुक्लध्यानका कथन करते हैं- एकका भाव एकत्व है, वितर्क द्वादशांगको कहते हैं और अवीचारका अर्थ असंक्रान्ति है। अभेदरूपसे वितर्कसम्बन्धी अर्थ, व्यंजन और योगोंका अवीचार अर्थात् असंक्रान्ति जिस ध्यानमें होती है वह एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान है। इस विषयमें गाथायें यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है, इसलिये उस ध्यानको एकत्व कहा है ॥६१।। ___ यतः वितर्क का अर्थ श्रुत है और जिसलिये पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु इस ध्यानको ध्याता है, इसलिये इस ध्यानको सवितर्क कहा है ।। ६२ ।।। ___ अर्थ, व्यंजन और योगोंके संक्रमका नाम वीचार है। यतः उस वीचारके अभावसे यह ध्यान होता है इसलिये इसे अवीचार कहा है ।। ६३ ।। इसका यह आशय है-जिसके शुक्ल लेश्या है, जो निसर्गसे बलशाली है, निसर्गसे शूर है, वज्रवृषभवज्रनाराचसंहननका धारी है, किसी एक संस्थानवाला है, चौदह पूर्वधारी है, दस पूर्वधारी है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, और जिसने समस्त कषायवर्गका क्षय कर * भग. १८८३. * भग. १८८४. भग. १८८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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