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७८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ४, २६. दवाइमणेगाई तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणिदं ।। ५८ । जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्य कुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सविदक्कं तेण तं ज्झाणं॥ ५९ ।। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो।
तस्स त भावेण तगं सुत्त उत्तं सवीचारं ।। ६० ।। एदस्स भावत्थो उच्चदे-उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थो चोद्दस-दस-गवपुवहरो पसत्थतिविहसंघडणो कसाय-कलंकुत्तिण्णो तिसु जोगेसु एगजोगम्हि वट्टमाणो एगदव्वं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहणणिलोणं सुद-रविकिरणुज्जोयबलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव अंतोमुत्तमेत्तकालं ज्झाएदि *। तदो परदो अत्यंतरस्स णियमा संकमदि। अधवा तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जायस्स वा संकमदि। पुग्विल्लजोगादो जोगंतरं पि सिया संकमदि। एगमत्थमत्थंतरं गुणगुणंतरं पज्जायपज्जायंतरं च हेट्ठोवरि टुविय पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए ठविय | द | गु प | म व का दुसंजोग-तिसंजोगेहि एत्थ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणभंगा | द गुप | बादालीस* ॥४२॥ उप्पाएदव्वा। एवमंतोमहत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्सिओ पुधत्तविदक्क वीचारज्झाणं छदव्व-णवपयत्थवि.
यतः उपशान्तमोह जीव अनेक द्रव्योंका तीनों ही योगोंके आलम्बनसे ध्यान करते हैं इसलिये उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है ।। ५८ ।।
यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है, और यतः पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु ही इस ध्यानको ध्याते है, इसलिये उस ध्यान को सवितर्क कहा है ।। ५९ ।।
अर्थ, व्यंजन और योगोंका संक्रम वीचार है । जो ऐसे संक्रमसे युक्त होता है उसे सूत्र में सवीचार कहा है ।। ६० ॥
इसका भावार्थ कहते हैं-चौदह, दस और नौ पूर्वोका धारी, प्रशस्त तीन संहननवाला, कषाय-कलंकसे पारको प्राप्त हुआ और तीन योगों में से किसी एक योगमें विद्यमान ऐसा उपशान्तकषायवीतराग-छद्मस्थ जीव बहुत नयरूपी वनमें लीन हुए ऐसे एक द्रव्य या गुण-पर्यायको थतरूपी रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इस प्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। इसके बाद अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है। अथवा उसी अर्थके गुण या पर्यायपर संक्रमित होता है। और पूर्व योगले स्यात् योगान्तरपर संक्रमित होता है । इस तरह एक अर्थ, अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर और पर्याय, पर्यायान्तरको नीचे ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगोंको एक पंक्तिमे स्थापित करके द्विसंयोग और त्रिसंयोगको अपेक्षा यहां पथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानके ४२ भंग उत्पन्न करना चाहिये। इस प्रकार अन्तर्मुहुर्त काल तक शुक्ललेश्यावाला उपशान्तकषाय जीव छह द्रव्य और नौ पदार्थविषयक पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको अन्तर्मुहूर्त
ताप्रतौ ‘भणदि' इति पाठः। ॐ भग. १८८१. 'ज्झायदि ' इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः 'वाएदालीस इति पाठः ।
भग. १८८२. * आ-ताप्रत्योः प्रतिषु ‘वितक्क' इति पाठः।
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