SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. ५, ५०. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एय?परूवणा (२८१ चनायास्तेभ्यः कथंचिद् व्यतिरिक्तायाः श्रुतव्यपदेशभाजस्तत उत्पत्यविरोधात्; प्रवचनमेव प्रावचन मिति व्युत्पत्तिसमाश्रयणाद्धा। एवं पावयणपरूवणा गदा । प्रबन्धेन वचनीयं व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम्। किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते ? श्रोतुयाख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्म निर्जरणहेतुत्वात्। उत्तं च सज्झायं कुन्वंतो पचिदियसंवुडो तिगुत्तो य। होदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू। २१ । जह जह सुदमोगाहिदि अदिसयरसपसरमसुदधुव्वं तु । तह तह पल्हादिज्जदि णव-णवसंवेगसद्धाए०।२२ । जं अण्णाणी कम्मं खवेइ भवसयसहस्पकोडीहिं । त णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अतोमुहुत्तेण+। २३ । एवं पवयणीयपरूवणा गदा । द्वादशांगवर्णकलापो वचनम्, अर्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति अर्थो नव पदार्थाः । अथवा, प्रवचनमेव प्रावचनम् ' ऐसी व्युत्पत्तिका आश्रय करनेसे उक्त दोष नहीं होता। इस प्रकार प्रावचनप्ररूपणा समाप्त हुई। प्रबन्धपूर्वक जो वचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है वह प्रवचनीय कहलाता है। शका - इसका सर्व काल किसलिए व्याख्यान करते हैं ? समाधान - क्योंकि, वह व्याख्याता और श्रोताके असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है । कहा भी है. स्वाध्यायको करनेवाला भिक्षु पांचों इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित और तीन गुप्तियोंसे सहित होकर एकाग्रमन होता हुआ विनयसे संयुक्त होता है । २१ । जिसमें अतिशय रसका प्रसार है और जो अश्रुतपूर्व है ऐसे श्रुतका वह जैसे जैसे अवगाहन करता है वह वैसे ही वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्धासे संयुक्त होता हुआ परम आनन्दका अनुभव करता है । २२ । अज्ञानी जीव जिस कर्मका लाखों करोडों भवोंके द्वारा क्षय करता है उसका ज्ञानी जीव तीन गुप्तियोंसे गुप्त होकर अन्तर्मुहुर्तसे क्षय कर देता है । २३ । इस प्रकार प्रवचनीयप्ररूपणा समाप्त हुई। द्वादशांग रूप वर्गों का समुदाय वचन है, जो ' अर्यते गम्यते परिच्छद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह अर्थ है । यहां अर्थ पदसे नौ पदार्थ लिये गये हैं। वचन और अर्थ ये दोनों मिलकर अ-आ-काप्रतिष ' भिक्खो ' इति पाठ:1 भ. आ. १०४. मला. ५-२१३. भ. आ. १०५. तत्र 'सुदमोगाहिदि ' इत्येतस्य स्थाने 'सुदमोग्गाहदि , णवणवसवेगसद्धाए इत्येतस्य च स्थाने ' नवनवसंवेगसड्ढाए इति पाठः । नवनवसंवेगसड्डाए प्रत्यग्रतरधर्मश्रद्धया। नन च संसाराभीरुता संवेगः, ततोयमर्थ स्यादसंबंधं ! न दोष संसारभीरताहेतुको धर्मपरिणाम: आयधनिपातभीरताहेतुककवचग्रहणवत । तेन संवेगशब्द: कार्ये धर्म वर्तते । विजयोदया. * प्र. सा. ३-३८ भ. आ. १०८. . अ- कापत्यो ' कदा · इति पाठः 1 Jain Education International - For Private &Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy