SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५०. वचनं च अर्थश्च वचनार्थो, प्रकृष्टौ निरवद्यौ वचनार्थो यस्मिन्नागमे स प्रवचनार्थः । प्रत्यक्षानुमानानुमताविरोधिसप्तभंग्यात्मकसुनयस्वरूपतया निरवद्यं वचनम् । ततो वचननिरवद्यत्वेनैव अर्थस्य निरवद्यत्वं गम्यते इति नार्थोऽर्थग्रहणेन? न एष दोषः। शब्दानुसारिजनानुग्रहार्थं तत्प्रतिपादनात् । अथवा, प्रकृष्टवचनरर्थ्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति प्रवचनार्थो द्वादशांगभावश्रुतम् । सकलसंयोगाक्षरविशिष्टवचनारचितबह विशिष्टोपादानकारणविशिष्टाचार्यसहायः द्वादशांगमुत्पाद्यत इति यावत् । एवं पवयणट्रपरूवणा गदा। गतिशब्दो येन देशामर्शकस्तेन गतिग्रहणेन मार्गणास्थानानां चतुर्दशानामपि ग्रहणम् । गतिषु मार्गणस्थानेषु चतुदर्शगुणस्थानोपलक्षिता जीवाः मग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुतिः एवं गदीसु मग्गणदा त्ति गदा । आत्मा द्वादशांगम्, आत्मपरिणामत्वात् । न च परिणामः परिणामिनो भिन्नः, मृद्रव्यात् पृथग्भूतघटादिपर्यायानुपलम्भात् । आगमत्वं प्रत्यविशेषतो द्रव्यश्रुतस्याप्यात्मत्वं प्राप्नोतीति चेत् - न, तस्यानात्मवचनार्थ कहलाते है । जिस आगममें वचन और अर्थ ये दोनों प्रकृष्ट अर्थात् निर्दोष हैं उस आगमकी प्रवचनार्थ संज्ञा है। शंका- प्रत्यक्ष व अनुमानसे अनुमत और परस्पर विरोधसे रहित सप्तभंगी रूप वचन सुनयस्वरूप होनेसे निर्दोष है । अतएव जब वचनकी निर्दोषतासे ही अर्थकी निर्दोषता जानी जाती है तब फिर अर्थके ग्रहणका कोई प्रयोजन नहीं रहता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शब्दानुसारी जनोंका अनुग्रह करने के लिये 'अर्थ' पदका कथन किया है। - अथवा, प्रकृष्ट वचनोंके द्वारा जो अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते ' अर्थात् जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात द्वादशांग भावश्रुत है। जो विशिष्ट रचनासे आरचित हैं, बहुत अर्थवाले हैं, विशिष्ट उपादान कारणोंसे सहित हैं और जिनको हृहयंगम करने में विशिष्ट आचार्योकी सहायता लगती है ऐसे सकल संयोगी अक्षरोंसे द्वादशांग उत्पन्न किया जाता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रवचनार्थका कथन किया। यतः गति शब्द देशामर्शक है, अतः गति शब्दका ग्रहण करनेसे चौदहों मार्गणास्थानोंका ग्रहण होता है । गतियोंमें अर्थात् मार्गणास्थानोंसे चौदह गुणस्थानोंसे उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते हैं वह गतियोंमें मार्गणता नामक श्रुति है । इस प्रकार गतियोंमें मार्गणताका कथन किया । द्वादशांगका नाम आत्मा है, क्योंकि वह आत्मका परिणाम है । और परिणाम परिणामीसे भिन्न होता नहीं है, क्योंकि, मिट्टी द्रव्यसे पृथग्भूत घटादि पर्यायें पाई नहीं जाती।। शंका - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दोनों ही आगमसामान्यकी अपेक्षा समान हैं । अतएव जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशांगको 'आत्मा' माना है उसी प्रकार द्रव्यश्रुतके भी आत्मस्वताका प्रसंग प्राप्त होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy