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________________ ५,५,५०. ) पडअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्टपरूवणा ( २८३ धर्मस्योपचारेण प्राप्तागमसंज्ञस्य परमार्थतः आगमत्वाभावात् । एवमादा त्ति गदं । विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यंता इष्टवस्तूपलम्भा लब्धयः लब्धीनां परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् तत्प्राप्त्युपायो निरूप्यते वा स परम्परालब्धिरागमः । परंपरलद्धि त्ति गदं । उत्तरं प्रतिवचनम्, न विद्यते उत्तरं यस्य श्रुतस्य तदनुत्तरं श्रुतम् । अथवाअधिकमुत्तरम्, न विद्यते उत्तरोऽन्यसिद्धान्तः अस्मादित्यनुत्तरं श्रुतम् । एवमणुत्तरं त्ति गदं । प्रकर्षेण कुतीर्थ्याना लढतया उच्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनेनेति प्रवचनं वर्णपंक्त्यात्मकं द्वादशांगम् । अथवा, प्रमाणाद्यविरोधेन उच्यतेऽर्थोऽनेन ज्ञानेन करणभूतेनेति प्रवचनं द्वायशांगं भावश्रुतम् । कथं ज्ञानस्य करणत्वम्? न, अवबोधमन्तरेणार्थाविसंवादिवचनाप्रवृत्तेः । न च सुप्त मत्तवचनैर्व्यभिचारः, तत्र अविसंवादनियमाभावात् । पवयणं त्ति गदं । प्रकृष्टानि वचनान्यस्मिन् सन्तीति समाधान- नहीं. क्योंकि वह द्रव्यश्रुत आत्माका धर्म नहीं है । उसे जो आगम संज्ञा प्राप्त है वह उपचारसे प्राप्त है, वास्तवमें वह आगम नहीं है । इस प्रकार आत्माका कथन किया । मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तुको प्राप्त करनेवाली अणिमा आदि विक्रियायें लब्धि कही जाती है । इन लब्धियोंकी परम्परा जिस आगमसे प्राप्त होती है या जिसमें उनकी प्राप्तिका उपाय कहा जाता है वह परम्परालब्धि अर्थात् आगम है । इस प्रकार परम्परलब्धिका कथन किया । उत्तर प्रतिवचनका दूसरा नाम है, जिस श्रुतका उत्तर नहीं है वह श्रुत अनुत्तर कहलाता है । अथवा उत्तर शब्दका अर्थ अधिक है, इससे अधिक चूंकि अन्य कोई भी सिद्धान्त नहीं पाया जाता, इसीलिये इस श्रुतका नाम अनुत्तर है । इस प्रकार अनुत्तर पदका कथन किया । यह प्रकर्ष अर्थात् कुतीयके द्वारा नहीं स्पर्श किये जाने स्वरूपसे जीवादि पदार्थोंका निरूपण करता है, इसलिये वर्ण-पकत्यात्मक द्वादशांगको प्रवचन कहते है । अथवा करणभूत इस ज्ञानके द्वारा प्रमाण आदिके अविरोधरूपसे जीवादि अर्थ कहे जाते हैं, इसलिये द्वादशांग भावश्रुतको प्रवचन कहते हैं । शंका- ज्ञानको करणपना कैसे प्राप्त है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ज्ञानके विना अर्थमें अविसंवादी वचनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इस हेतुका सुप्त और मत्तके वचनोंके साथ व्यभिचार होगा, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उनके अविसंवादी होने का कोई नियम नहीं है । इस प्रकार प्रवचनका कथन किया । जिसमें प्रकृष्ट वचन होते हैं वह प्रवचनी है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भावगमका नाम प्रवचनी हैं । अथवा जो कहा जाता है वह प्रवचन है इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रवचन अर्थको कहते हैं । वह इसमें है इसलिये वर्णोपादानकारणक द्वादशांग ग्रन्थका नाम प्रवचनी है । इस काप्रती 'कुतीनालीढतया ' इति पाठः । * ताप्रतो' कारणभूनेनेति' इति पाठ: का-ता प्रत्योः ' प्रवचनं द्वादशांग, द्वादशांगभावश्रुत्तं ' इति पाठ: 1 काप्रती वचनप्रवृत्तेः ' ताप्रतो 'वचन (ना) प्रवृत्ते ' इति पाठः । I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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