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________________ २८४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५,५०. प्रवचनी भावागमः। अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थः, सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशांमग्रन्थः वर्णोपादानकारणः। एवं पवणि त्ति गदं । अद्धा कालः, प्रकृष्टानां शोभनानां वचनानामद्धा कालः यस्यां श्रुतौ सा पवयगद्धा श्रुतज्ञानम् । किमर्थं श्रुतज्ञानेन परिणतावस्थायां शोभनवचनानामेव प्रवृत्तिः ? नैष दोषः, अशोभनवचनहेतुरागादित्रितयस्य तत्रासत्त्वात् । एवं पवयणद्धा ति गदा । उच्यन्ते इति वचनानि जीवाद्यर्थाः, प्रकर्षेण वचनानि सन्निकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवचनसन्निकर्षों द्वादशांगश्रुतज्ञानम् । कः सन्निकर्षः ? एकस्मिन वस्तुन्यकस्मिन धर्मे निरुद्ध शेषधर्माणां तत्र सत्यासत्त्वविचारः सत्स्वप्यकस्मिन्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्क. विचारश्च सन्निकर्षः। अथवा, प्रकर्षेण वचनानि जीवाद्याः संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्तात्मतया अनेनेति प्रवचनसंन्यासः । एवं पवयणणियासो त्ति गदं । नयाः नैगमादयः, ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते सदसदादिरूपेणास्मिन्निति नयविधिः । अथवा, नैगमादिनयः विधीयन्ते जीवदयः पदार्था अस्मिन्निति नयविधिः । णयविधि त्ति गदं । नयान्तराणि नैगमादिसप्तशतनयभेदाः, ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते विषयसांकर्यनिराकरणद्वारेण अस्मिन्निति नयान्तरविधिः श्रुतज्ञानम् । एवं जयंतरविधि त्ति गदं । प्रकार प्रवचनीका कथन किया। अद्धा कालको कहते हैं, प्रकृष्ट अर्थात् शोभन वचनोंका काल जिस श्रुतिमें होता है वह प्रवचनाद्धा अर्थात् श्रुतज्ञान है। शंका- श्रुतज्ञानरूपसे परिणत हुई अवस्थामें शोभन वचनोंकी ही प्रवृत्ति किसलिय होती है ? ___ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अशोभन वचनोंके हेतुभूत रागादित्रिक ( राग, द्वेष और मोह ) का वहां अभाव है। इस प्रकार प्रवचनाद्धाका कथन किया । 'जो कहे जाते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार वचन शब्दका अर्थ जीवादि पदार्थ है । प्रकर्षरूपसे जिसमें वचन सन्निकृष्ट होते हैं वह प्रवचनसन्निकर्ष रूपसे प्रसिद्ध द्वादशांग श्रुतज्ञात है। शंका- सन्निकर्ष समाधान- एक वस्तुमें एक धर्म के विवक्षित होनेपर उसमें शेष धर्मोके सत्त्वासत्त्वका विचार तथा उसमें रहनेवाले उक्त धर्मों से किसी एक धर्मके उत्कर्षको प्राप्त होनेपर शेष धर्मोके उत्कर्षानत्कर्षका विचार करना सन्नित्कर्ष कहलाता है। अथवाप्रकर्षरूपसे वचन अर्थात् जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूपसे जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात् प्ररूपित किये जाते हैं वह प्रवचनसंन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग श्रुतज्ञान ही है। इस प्रकार प्रवचनसन्निकर्ष या प्रवचनसंन्यासका कथन किया। नय नैगम आदिक हैं। वे सत् व असत् आदि स्वरूपसे जिसमें 'विधीयन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं वह नयविधि आगम है । अथवा नैगमादि नयोंके द्वारा जीवादि पदार्थोंका जिसमें विधान किया जाता है वह नयविधि-आगम है। इस प्रकार नयविधिका कथन किया। नयान्तर अर्थात् नयोंके नैगमादिक सात सौ भेद विषयासांकर्यके निराकरण द्वारा जिसमें विहित अर्थात् निरूपित किये जाते हैं वह नयान्तरविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है । इस प्रकार नयान्तरविधिका कथन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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