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________________ ५,५,५०. ) पर्याअणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा ( २८५ अहिंसा सत्यास्तेय शील-गुण-नय-वचन द्रव्यादिविकल्पाः भंगाः । ते विधीयन्तेऽनेनेति भंगविधिः श्रुतज्ञानम् । अथवा, भंगो वस्तुविनाशः स्थित्युत्पत्त्यविनाभावी, सोऽनेन विधीयते निरूप्यत इति भंगविधिः श्रुतम् । एवं भंगविधि ति गदं । विधानं विधिः, गानां विधिर्भेदो+विशिष्यते . पृथग्भावेन निरूप्यते अनेनेति भंग विधिविशेषः श्रुतज्ञानम् । एवं भंगविधिविसेसो त्ति गदं । द्रव्य गुण पर्यय - विधिनिषेधविषयप्रश्नः पृच्छा, तस्याः क्रमः अक्रमश्च अक्रमप्रायश्चितं च विधीयते अस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् अथवा पृष्टोऽर्थः पृच्छा, सा विधीयते निरूप्यतेऽस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् । एवं पुच्छाविधि त्ति गदं । विधानं विधिः पृच्छायाः विधिः पृच्छाविधिः स विशिष्यतेऽनेनेति पृच्छा विधिविशेषः । अर्हदाचार्योपाध्याय-साधवोऽनेन प्रकारेण पृष्टव्याः प्रश्नभंगाश्च इयन्त एवेत्ति यतः सिद्धान्ते निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञेत्युक्तं भवति । पुच्छाविधिविसेसो त्ति गदं । तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्त्वम् । कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यादिकके भेद भंग कहलाते हैं । उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है । अथवा, भंगका अर्थ स्थिति और उत्पत्तिका अविनाभावी वस्तुविनाश है । वह जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है । इस प्रकार भंगविधिका कथन किया । विधिका अर्थ विधान है । भगोंकी विधि अर्थात् भेद ' विशेष्यते ' अर्थात् पृथक् रूपसे जिसके द्वारा निरूपित किया जाता है वह भंगविधि विशेष अर्थात् श्रुतज्ञान है। इस प्रकार भंगविधिविशेषका कथन किया । द्रव्य, गुण और पर्यायके विधि-निषेधविषयक प्रश्नका नाम पृच्छा है । उसके क्रम और अक्रमका तथा प्रायश्चित्तका जिसमें विधान किया जाता है वह पृच्छाविधि अर्थात् श्रुत है । अथवा पूछा गया अर्थ पृच्छा है, वह जिसमें विहित की जाती है अर्थात् कही जाती है वह पृच्छाविधि श्रुत है । इस प्रकार पृच्छाविधिका कथन किया। विधान करना विधि है । पृच्छाकी विधि पृच्छाविधि है । वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है वह पृच्छाविधिविशेष है । अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकारसे पूछे जाने योग्य हैं तथा प्रश्नोंके भेद इतने ही हैं; ये सब चूंकि सिद्धान्त में निरूपित किये जाते हैं अतः उसकी पृच्छाविधिविशेष यह संज्ञा हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार पृच्छाविधिविशेषका कथन किया । ' तत् ' इस सर्वनामसे विधिकी विवक्षा है, 'तत्' का भाव तत्त्व है । शंका- श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है ? समाधान - चूंकि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है । प्रतिषु ' विधेर्भेदो' इति पाठः । अ-आ-काप्रतिषु निरूप्यते इति पाठ: 1 इति पाठ । ताप्रती ' विधिर्व्यपदेश:, इति पाठः । " For Private & Personal Use Only Jain Education International अ आ-काप्रतिषु ' विशेष्यंते ' इति पाठ: 1 * प्रतिषु ' अक्रमश्च अक्रमप्रश्नप्रायश्चितं www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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