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________________ ५, ५, ५३. ) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा ( २९१ वि मिच्छाइट्ठीसु पज्जत्तयदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदसणादो । तम्हा तत्थतणमोहिणाणं भवपच्चइयं चेव । सामण्णणिद्देसे संते सम्माइट्रि-मिच्छाइट्ठीणमोहिणाणं पज्जत्तभवपच्चइयं* चेवे त्ति कुदो जव्वदे ? अपज्जत्तदेव-णेरइएस विहंगणाणपडिसेहण्णहाणववत्तीदो । विहंगणाणस्सेव अपज्जत्तकाले ओहिणाणस्स पडिसेहो किण्ण कीरदे? ण उप्पति पडि तस्स वि तत्थ विहंगणाणस्व पडिसेहदसणादो । न च सम्माइट्ठी णमुप्पण्णपढमसमए चेव होदि, विहंगणाणस्स वि तहाभावप्पसंगादो। ण च सम्मत्तेण विसेसो कीरदे, भवपच्चइयत्तं फिट्टिदूण तस्स गुणपच्चइयत्तप्पसंगादो । ण च तत्थ ओहिणाणस्सच्चंताभावो, तिरिक्ख-मणस्सेसु सम्मत्तगुणेषुप्पण्णस्स तत्थावट्ठाणुवलंभादो । ण विहंगणाणस्स एस कमो, तक्कारणाणुकंपादीणं तत्थाभावेणी तदश्टाणाभावादो। अणुव्रत-महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद गुणअवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये वहां उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय शंका- देवों और नारकियोंका अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका अवधिज्ञान पर्याप्त भवके निमित्तसे ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? ___ समाधान - क्योंकि, अपर्याप्त देवों और नारकियोंके विभंगज्ञानका जो प्रतिषेध किया है वह अन्यथा बन नहीं सकता। इससे जाना जाता है कि देवों और नारकियोंके सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही अवस्थाओंमें अवधिज्ञान पर्याप्त भवके निमित्तसे ही होता है। शका- विभंगज्ञानके समान अपर्याप्त कालमें अवधिज्ञानका निषेध क्यों नहीं करते? समाधान- नहीं, क्योंकि उत्पत्तिकी अपेक्षा उसका भी वहां विभंगज्ञानके समान ही निषेध देखा जाता है। सम्यग्दृष्टियोंके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि, ऐसा माननेपर विभंगज्ञानके भी उसी प्रकार उत्पत्तिका प्रसंग आता है सम्यक्त्वसे इतनी विशेषता हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर भवप्रत्ययपना नष्ट होकर उसके गुणप्रत्ययपनेका प्रसंग आता है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानका अत्यन्त अभाव है, क्योंकि, तिर्यंचों और मनुष्योंमे सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है। विभंगज्ञानमें भी यह क्रम लागू हो जायगा, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, अवधिज्ञानके कारणभूत अनुकम्पा आदिका अभाव होनेसे अपर्याप्त अवस्था में वहां उसका अवस्थान नहीं रहता। सम्यक्त्वसे अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण हैं वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। *आ-का-ताप्रतिष ‘पच्जत्तं मवपच्चइयं इति पाठ:1 ताप्रती ' तत्थ भावेण' इति पाठः [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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