SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९०) छक्खंडागमे बग्गणा-खंड ( ५, ५, ५३. तेसि वियप्पाणं परूवणा जहा वेयणाए कदा तहा एत्थ वि कायव्वा। ण च आवरणिज्जेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु संतेसु तदावरणीयाणं संखंज्जत्तमणंतत्तं वा जुज्जदे, विरोहादो। संपहि आवरणिज्जवियप्पदुष्पायणदुवारेण आवरणवियप्पपदुप्पायणटुमुत्तरसुत्तं भणदितं च ओहिणाणं दुविहं भवपच्चइयं चेव गुणपच्चइयं चेव* ॥५३॥ भव उत्पत्तिः प्रादुर्भावः, स प्रत्ययः कारणं यस्य अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययकम् । जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु रइएसु वा उप्पण्णपढमसमए ओहिणाणं किण्ण उप्पज्जदे ? —ण एस दोसो, ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो। ण च मिच्छाइट्ठीसु ओहिणाणं त्थि ति वोत्तुं जुत्तं, मिच्छत्तसहचरिदओहिणाणस्सेव विहंगणाणववएसादो । देवरइयसम्माइट्ठीसु समुप्पण्णोहिणाणं ण भवपच्चइयं, सम्मत्तेण विणा भवादो. चेव ओहिणाणस्साविज्भावाणुवलभादो ? ण एस दोसो, सम्मत्तेण विणा कथन जिस प्रकार वेदना खण्डमें किया गया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । आवरणी. योंके असंख्यात लोकप्रमाण होनेपर तदावरणीयके संख्यात या अनन्त विकल्प नहीं माने जा सकते. क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। अब आवरणीयभेदोंके कथन द्वारा आवरणके भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वह अवधिज्ञान दो प्रकारका है- भवप्रत्यय अवधिज्ञान और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान ॥ ५३ ॥ ___ भव, उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्याय नाम हैं। जिस अवधिज्ञानका प्रत्यय अर्थात कारण भव है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। - शंका- यदि भवमात्र ही अवधिज्ञानका कारण है तो देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त भवको ही यहां अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका कारण माना गया है । मिथ्यादृष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्वसहचरित अवधिज्ञानकी ही विभंगज्ञान संज्ञा है । शंका- देव और नारकी सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं है, क्योंकि, उनमें सम्यक्त्वके विना एक मात्र भवके निमित्तसे ही अवधिज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध नहीं होती? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्वके विना भी पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके *से कि तं ओहिणाणपच्चक्खं ? ओहिनाणपच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं। तं जहा भवपच्चइयं च खओवसमियं च 1 नं. सू ६. ओही भवपच्चइओ गुणपच्चइओ य वण्णिओ दुविहो 1 तस्स य बहू विगप्पा दध्वे खेत्ते य काले य || नं. सू. गा. ६३. प्रतिष विणाभावादो ' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy