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________________ २९२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ५४. प्रत्ययकम् । जदि सम्मत्त अणुव्वद महव्वदेहितो ओहिणाणमुप्पज्जदि तो सव्वेसु असंजदसम्माइट्टिसंजवासंजद संजदेसु ओहिणाणं किण्ण उवलब्भदे ? ण एस दोसो, असंखेज्जलोगमेत्तसम्मत्त संजम-संजमासंजमपरिणामेसु ओहिणाणावरणक्खओवसमणिमित्ताणं परिणामाणमइथोवत्तादो । ण च ते सव्वेसु संभवंति, तप्पडिवक्खपरिणामाणं बहुत्तेण तदुवलद्धीए थोवत्तादो । जं तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं- ।। ५४ ॥ भवपच्चइयं जमोहिणाणं तं देव रइयाणं चेव होदि ति किमळं वच्चने ? ण, देव-णेरइयभवे मोत्तूण अण्णेसि भवाणं तक्कारणत्ताभावादो । जं तं गुणपच्चइयं तं तिरिक्ख-मणुस्साणं* ॥ ५५ ॥ कुदो ? तिरिक्ख-मणुस्सभवे मोत्तूण अण्णत्थ अणुव्वय-महव्वयाणमभावादो। तं च अणेयविहं देसोही परमोही सव्वोही हायमाणयं वड्ढमाणयं अवट्ठिदं अणवठ्ठिदं अणुगामी अणणुगामी सप्पडिवादी अप्पडिवादी एयक्खेत्तमणेयक्खेत्तं ।। ५६ ॥ शका- यदि सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतोंके अवधिज्ञान क्यों नहीं पाया जाता? ___ समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम रूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। उनमेंसे अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक हैं । वे सबके सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं। इसलिये उनकी उपलब्धि क्वचित् ही होती है। जो भवप्रत्यय अवधिज्ञान है वह देवों और नारकियोंके होता है ।। ६४ ।। शंका - जो अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है वह देवों और नारकियोंके ही होता है, यह किसलिये कहते हो ? समाधान- नहीं, क्योंकि देवों और नारकियोंके भवोंको छोडकर अन्य भव उसके कारण नहीं हैं । जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है वह तिर्यचों और मनुष्योंके होता है ॥ ५५ ॥ क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य भवोंको छोडकर अन्यत्र अणुव्रत और महावत नहीं पाये जाते । वह अनेक प्रकारका है- देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हायमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र ।। ५६ ॥ भवप्रत्ययोऽवधिव-नारकाणाम् । त. सू १-२१. से कि तं भवपच्चइयं ? भवपच्चइयं दुण्ह । तं जहा-देवाण य रइआण य न सू. ७. क्षयोपशमनिमित्तः षड़विकल्पः शेषाणाम 1 त. सू. १-२२. से कि तं खओवसमियं ? खाओवसमियं दुण्हं । तं जहा- मणुस्साण य पचिदियतिरिक्खजोणियाण यxxx नं. सू. ८. ३ त. रा. १, २२, ४. अहवा गुणपडिवनस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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