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________________ ५, ५, ५६. ) पडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा ( २९३ तमोहिणाणमणेयविहं ति वृत्ते सामण्णेणोहिणाणमणेयविहं त्ति घेत्तव्वं । अणंतरत्तावो गुणपच्चइयमोहिणाणमणेयविहं ति किण्ण वुच्चदे ? ण, भवपच्चइयओहिणाणे वि अवटिव-अणवट्टिद-अणुगामि-अणणुगामिरियप्पुवलंभादो। सोहिपरमोहि-सव्वोहीणं दव्व-खेत्त-काल-भाववियप्पपरूवणा जहा वेयणाए कवा तहा कायब्वा, विसेसाभावादो। किण्हपक्खचंदमंडलं व जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं वडिअवदाणेहि विणा हायमाणं चेव होदूण गच्छदि जाव णिस्सेसं विणलृ ति तं हायमाणं णाम* । एदं देसोहीए अंतो णिवददि, ण परमोहिसव्वोहीसु; तत्थ हाणीए अभावावो । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं सुक्कपक्खचंदमंडलं व समयं पडि अबढाणेण विणा वड्डमाणं गच्छदि जाव अप्पणो उक्कस्सं पाविदूण उवरिमसमए केवलणाणे समुप्पण्णे विणळं ति तं वड्डमाणं णाम । एदं देसोहि-परमोहिसव्वोहीणमंतो वह अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा कथन करनेपर सामान्यसे अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। शंका-- अनन्तर निर्दिष्ट होनेसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? ___ समाधान-- नहीं, क्योंकि, भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी भेद उपलब्ध होते हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके विकल्प जिस प्रकार वेदनाखण्डमें कहे हैं उसी प्रकार यहां भी कहने चाहिये, क्योंकि उनसे इनमें कोई भेद नहीं हैं । कृष्ण पक्षके चद्रमंडलके समान जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थानके विना नि:शेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है वह हायमान अवधिज्ञान है । इसका देशावधिमें अंतर्भाव होता है, परमावधि और सर्वावधिमें नहीं: क्योंकि परमावधि और सर्वावधिमें हानि नहीं होती। जो अवधिजान उत्पन्न होकर शुक्ल पक्षके चद्रमडल समान प्रतिसमय अवस्थानके विना जब तक अपने उत्कृष्ट विकल्पको प्राप्त होकर अगले समयमें केवलज्ञानको उत्पन्न कर विनष्ट हो जाता तब तक बढता ही रहता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है। इसका देशावधि, परमावधि और सर्वावधिमें अंतर्भाव तं समासओ छविहं पन्नत्तं 1 तं जहा- आणगामिअं १, अणाणगामि २, वड्डमाणयं ३, हीयमाणयं ४, पडिवाइयं ५, अप्पडिवाइयं ६। नं. सू. ९ * अपरोऽवधिः परिच्छिन्नोपादानसन्तत्यग्निशिखावत् सम्यग्दर्शनादिगुणहानि-संक्लेशपरिणामदिवृद्धियोगात् यत्प्रमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अग़लस्याऽसंख्येयभागादिति ] त. रा. १, २२, ४ से किं तं हीयमाणथं ओहिनाणं? हीयमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणदाणेहिं वट्टमाणस्स बद्रमाणचरित्तस्स संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि परिहायड से त्तं हीयमाणयं ओहिनाणं ? नं. सू. १३. अपरोऽवधि अरणिनिर्मथनोत्पन्नशष्कपत्रोपचीयमानेन्धननिचयसमिद्धपावकवत् सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसन्निधानाद्यत्परिणाम उत्पन्नस्ततो वर्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः 1 त. रा. १, २२, ४. से कि सं वड्डमाणगं ओहिनाणं? पसत्थेसु अज्झवसाणदाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि वड्डइ । xxx से तं वडमाणयं ओहिनाणं । नं. सू. १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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