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________________ २९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड णिवददि, तिणि वि णाणाणि अवगाहिय अवदितादो। जमोहिणाणमुप्पज्जिप वड्डि. हाणीहि विणा दिगयरमंडलं व अवटिवं होदूग अच्छदि जाव केवलणाणमुप्पण्णं ति तमवट्टिदं णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं कयावि वड्ढदि कयावि हायदि कयावि अवट्ठाणभावमुवणमदि तमणवदिदं णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं जोवेण सह मच्छदि तमणुगामी णामतं च तिधिहं खेताणुगामो भवाणुगामी खेत-भवाणुगामी चेदि। तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पण्ण संतं सग परपयोगेहि सग-परक्खेत्तेसु हिंडंतस्स जीवस्स ण विणस्सदि तं खेताणगामी णाम। जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणगामी णाम जं भरहेरावद-विदेहादिखेत्ताणि देव-णेरइय माणस-तिरिक्खभवं पि गच्छदि त खेत-भवाणुगामि त्ति भगिदं होदि । जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं तं तिविहं खेत्तागणुगामी भवाणुगामी खेत्त भवाणणुगामी चेदि। जं खेतंतरं ण गच्छदि, भवतरं चेव गच्छदि त खेत्ताणणुगमि त्ति भण्णदि । जं भवंतरं ण गच्छदि, खेतंतरं चेव गच्छदि तं भवाणणुगामी णाम । ज होता है, क्योंकि, यह तीनों ही ज्ञानोंका सहारा लेकर अवस्थित है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि व हानिके विना दिवकरमण्डल के समान केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक अवस्थित रहता है वह अवस्थित अवधिज्ञान हैं । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कदाचित् बढता है कदाचित् घटता है, और कदाचित् अवस्थित रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है । वह तीन प्रकारका है- क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षत्र-भवानुगामी । उनमेंसे जो अवधिज्ञान एक क्षत्र में उत्पन्न होकर स्वतः या परप्रयोगसे जीवके स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें विहार करनेपर विनष्ट नहीं होता है वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीव के साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी अवधिज्ञान है। जो भरत, ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव, नारक मनुष्य और तिर्यंच भव में भी साथ जाता है वह क्षेत्र-भवानुगामी अवधिज्ञान है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो अननुगामी अवधिज्ञान है वह तीन प्रकारका है- क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्र-भवाननुगामी । जो क्षेत्रान्तरमें साथ नहीं जाता है; भवान्तरमें ही साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है जो भवान्तरमें साथ नहीं जाता है, क्षेत्रान्त-- रमें ही साथ जाता है; वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनोंम अपरोऽवधि. सम्यग्दर्शनादिगणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते न हीयते नापि वर्धते लिंगवत् आ भवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा 1 त. रा. १. २२, ४. * अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगणवृद्धि-हानियोगाद्यत्वरिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वधिव्यम्, हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत् 1 त. रा. १, ४, २२. कश्चिदवधि भाष्करप्रकाशकद्गच्छन्तमनगच्छति । त. रा.१, २२,४ अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंत लोअणं जहा पुरिसं| इयरो उ नाणुगच्छइ ठियप्पइवो व्व गच्छत्तं । नं. सू. गा. ९ (उदधृतास्तीयं गाथा मलयगिरिणास्य टीकायाम ).४ आ-काप्रत्योः , भरदरावत 'ताप्रती भरदेरावद : इति पाठ । कश्चिन्नानगच्छति ततेवाातिपतति उन्मुखप्रश्नदेशिकपुरुषवचनवत त. रा १, २२, ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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