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________________ ५, ५, ५६. ) पडिअणुओगद्दारे ओहिणाणभेदपरूवणा खेतंतर-भवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धं तं खेत्त-भवाणणु गामि त्ति भण्णदि। जमोहिणाणमुप्पण्णं संतं णिम्मलदो विणस्सदि तं सप्पडिवादी णाम । ण च एदं पुन्विल्लओहिणाणेसु पविसदि*, एदस्स हायमाण-वड्डमाणअर्वादद-अणवद्विद अणुगामि-अणणुगामिओहिणाणाणं छण्णं भावमणावण्णस्स+ तत्थेवकम्हि पवेसविरोहादो। जमोहिणाणमुप्पण्णं संत केवलणाणे समुप्पण्णे चेव विणस्सदि ,अण्णहा विणस्सदि; तमप्पडिवादी णाम। एवं पि पुबिल्लोहिणाणेसु विसेससरूवेसु ण पविसदि, सामण्णसरूवत्तादो । जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसम्वावयवे सु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम । तित्थयर-देव-णेरइयाणं ओहिमाणमणेयखेत्तं चेव, सरौरसव्वावयवेहि सगविसयभूदत्थग्गहणादो। वुत्तं च रइय-देव-तित्थयरोहिक्खेत्तस्सबाहिरं एदे। जाणति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥ २४ ॥ सेसा देसेणेव जाणंति ति एत्थ णियमो ण कायव्वो, परमोहि-सव्वोहिणाणगणसाथ नहीं जाता, किन्तु एक हो क्षत्र और भवके साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्र-भवाननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है। इसका पूर्वोक्त अवधिज्ञानोंमें प्रवेश नहीं होता है, क्योंकि, हायमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी इन छहों ही अवधिज्ञानोंसे भिन्नस्वरूप होने के कारण उनमेंसे किसी एकमें उसका प्रवेश माननें में विरोध आता है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर ही विनष्ट होता है, अन्यथा विनष्ट नहीं होता; वह अप्रतिपाती अवधिज्ञ'न है। यह भी उन विशेषस्वरूप पहलेके अवधिज्ञानमें अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि, यह सामान्यस्वरूप है। जिस अवधिज्ञानका करण जीवशरीरका एकदेश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्रके शरीरके सब अवयवोंमें रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है । तीर्थंकर, देवों और नारकियोंके अनेकक्षेत्र ही अवधिज्ञान होता है, क्योंकि, ये शरीरके सब अवयवों द्वारा अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हैं। कहा भी है नारकी, देव और तीर्थंकर इनका जो अवधिक्षेत्र है उसके भीतर ये सर्वांगसे जानते हैं और शेष जीव शरीरके एकदेशसे जानते है ।। २४ ।। __ शेष जीव शरीरके एक्देशसे ही जानते हैं, इस प्रकारका यहां नियम नहीं करना चाहिये; ० प्रतिपातीति विनाशी विद्युत्प्रकाशवत् । त. रा. १, २२, ४ से किं तं पडिवाइ ओहिणाणं ? पडिवाइ ओहिणाणं जहण्णण अंगलस्स असखिज्जइभागं पा संखिज्जइभागं वा बालग्ग वा बालग्गपुहत्तं वा लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा xxx उक्कोसेण लोगं वा पासित्ता णं पडिवइज्जा से तं पडिवाइओहिणाण 1 नं. सू. १४. * अ-आ-काप्रतिष पविस्सदि ' इति पाठः। * प्रतिष 'भावमाणस्स' इति पाठः1 ४ तद्विपरीतोऽप्रतिपाती। त. रा. १, २२, ४. से कि तं अपडिवाइ ओहिणाणं? अपडिवाइ ओहिनाणं जेण अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासइ तेण पर अपडिवाइ ओहिनाणं से तं अपडिवाइ ओहिनाणं । नं सू १५. 9 अ-आ-काप्रतिषु 'पविस्सदि ' इति पाठः1 नेरइय-देव-तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुति | पासति सव्वओ खल सेसा देसेण पासंति 11 नं. सू. गा. ६४. इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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