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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ५, ५७.
हराईणं सगसव्वावयवेहि सगविसईभरथस्स गहणवलंभादो । तेण सेसा देसेग सव्वदो च जाणंति त्ति घेत्तव्वं । ओहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेमदेसेणेव बज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो ? ण, अण्णत्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो । ण च सकरणो खओवसमो तेण विणा जाणदि, विप्पडिसेहादो। जीवपदेसाणमेगदेसे चेव ओहिणाणावरणक्खओसमे संते एयक्खैत्तं जुज्जदि ति ण पच्चवठेयं, उदयगदगोवुच्छाए सव्वजीवपदेसविसयाए देसटाइणीए संतीए* जीवगदेसे चेव खओवसमस्स वृत्तिविरोहादो। ण चोहिणाणस्स पच्चक्खत्तं पि फिट्टदि अणेयक्खेत्ते रायते पच्चवखलक्खणुवलंभादो । संपहि एयक्खेताणं सरूवपरूवणमुत्तरसुतं भणदि
खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥ ५७ ।।
जहा कायामिदियाणं च पडिगियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरोरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा होति । क्योंकि, परमावधिज्ञानी और सर्वावधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीरके सब अवयवोंसे अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हुए देखे जाते है । इसलिये शष जीव शरीरके एकदेशसे और सर्वांगसे जानते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये।
शका- अवधिज्ञान अनेकक्षेत्र ही होता है, क्योंकि, सब जीव प्रदेशोंके युगपत् क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर शरीरके एकदेशसे ही बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं बन सकता?
समाधान- नहीं, क्योंकि अन्य देशोंमें करणस्वरूपता नहीं है, अतएव करणस्वरूपसे परिणत हुए शरीरके एकदेशसे बाह्म अर्थका ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं आता । सकरण क्षयोपशम उसके विना जानता है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, इस मान्यताका विरोध है। जीदप्रदेशोंके एकदेशमें ही अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर एकक्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है, ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशोंको विषय करती है, इसलिये उसका देशस्थायिनी होकर जीवके एकदेशमें ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। इससे अवधिज्ञानकी प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, वह अनेक क्षेत्रमें उसके पराधीन न होनेपर उसमें प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है___ अब एकक्षेत्रोंके स्वरूपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंक्षेत्रको अपेक्षा शरीरप्रदेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ॥ ५७ ॥
जिस प्रकार शरीरोंका और इन्द्रियोंका प्रतिनियत आकार होता है उस प्रकार अवधिज्ञानका नहीं होता है, किन्तु अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशोंके करणरूप शरीरप्रदेश अनेक संस्थानोंसे संस्थित होते हैं।
४ प्रतिष ' णाणंति ' इति पाठः । * अ-आ-ताप्रतिषु — देसहाइणीए ' काप्रती ' देसहाणीए ' इति पाठ:1* अप्रतो ' सत्तीए इति पाठ।
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