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________________ ५, ५, ५८. ) पयडिअणुओगद्दारे एयक्खेतोहिणाणसंठाणाणि (२९७ मसुरिय-कुसग्ग-बिंदू सूइकलाओ पदाय संठाणा ।। पुढविदगागणि-वाऊ हरिद-तसा णेयसंठाणा ।। २५ ।। एवं कायसंठाणं । जवणालिया मसूरी अदिमुत्तय-चंडगे खुरप्पे य । इंदियसंठाणा खलु पासं तु अणेयसंठाणं ।। २६ ।। एदाणि इंदियसंठाणाणि । एवं काइंदियाणं संठागाणि अवगदसरूवाणि । एयखेतोहिणाणस्स संठाणाणि केरिसाणि त्ति पुच्छिदे उत्तरसुत्तं भणदि-- सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति ॥ ५८ ॥ एत्थ आदिसहेण अण्णेसि पिसुहसंठाणाणं गहणं कायव्वं। ण च एक्कस्स जीवस्स एक्कम्हि चेव पदेसे ओहिणाणकरणं होदि त्ति णियमो अस्थि, एग-दो-तिण्णि चत्तारि-पंच-छआदिखेत्ताणमेगजीवम्हि संखादिसुहसंठाणाणे कम्हि वि संवभादो*। एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख-मणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होंति, णो हेट्ठा; सुहसंठाणाणमधोभागेण* सह पृथिवीकायका आकार मसूरके समान होता है, जलकायका आकार कुशाग्रबिन्दुके समान होता है, अग्निकायका आकार सूचीकलापके समान होता है, तथा वायुकायका आकार ध्वजपटके समान होता है । हरितकाय तथा त्रसकाय अनेक आकारवाले होते हैं ।। २५ ॥ ___ यह कायोंका आकार है। श्रोत्र, चक्षु, नासिका और जिव्हा इन इन्द्रियोंका आकार क्रमशः यवनाली, मसूर, अतिमुक्तक फूल और अर्धचंद्र या खुरपाके समान है ; तथा स्पर्शन इंद्रिय अनेक आकारवाली है ।२६। ये इंद्रियोंके आकार हैं । इस प्रकार काय और इंद्रियोंके आकार अवगतस्वरूप है। किंतु एकक्षेत्र अवधिज्ञानके आकार कैसे होते हैं, ऐसा पूछनेपर आगेका सूत्र कहते हैं-- श्रीवत्स, कलश, शंख, सांथिया और नन्दावर्त आदि आकार जानने योग्य यहां आदि शब्दसे अन्य भी शुभ संस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये । एक जीवके एक ही स्थानमें अवधिज्ञानका करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, किसी भी जीवके एक, दो, तीन, चार, पांच और छह आदि क्षेत्ररूप शखादि शुभ संस्थान सम्भव हैं। ये संस्थान तिर्यंच और मनुष्योंके नाभिके उपरिम भागमें होते हैं, नीचेके भागमें नहीं होते ; क्योंकि, शुभ संस्थानोंका अ-आ-काप्रतिष 'चूईकलाओ' इति पाठः। ४ मसुरिय कुसग्गबिंदू सुइकलावा पडाय संठाणा कायाणं संठाणं हरिद-तमा गसंठाणा। मूला. १२-४८. मसुरंबबिंदू-सूईकलाव-धयसण्णिहो दवे देहो । पुढवीआदिचउण्हं तरु-तसकाया अणेयविहा । गो. जी. २००. .जवणालिया मसुरी अतिमुत्तय चंदए खरप्पे च । इंदियसंठाणा खलु फासस्स अणेयसंठाणं । मूला. १२-५०. चक्खू सोद घाणं जिब्भायारं मसूर-जवणाली । अतिमत्त-खुरप्पसमं फासं तु अणेयसंठाणं । गो. जी. १७०. * भवपच्च इगो सूर-णिरयाणं तित्थे वि सव्वअंगुत्थो। गुणपच्चइगो णर-तिरियाणं संखादिचिण्हभवो । गो जी. ३७०. अ-आप्रत्योः 'सुहसंणमधोभागेण', काप्रती 'सुहसंठाणमभागेण', ताप्रती ' सहसंठा (णा) णमधोभागेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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