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________________ २९८ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५,५, ५९. विरोहादो । तिरिक्ख- मणुस्सविहंगणाणीणं नाहीए हेट्ठा सरडादिअसुहसंठाणाणि होंति ति गुरुवदेसो, ण सुत्तमत्थि । विहंगणाणीणमोहिणाणे सम्मत्तादिफलेण समुप्पण्णे सरअसुहठाणाणि फिट्टिट्टण नाहीए उवरि संखादिसुहसंठाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं । एवमोहिणाणपच्छायद विहंगणाणीणं पि सुहसंठाणाणि फिट्टिण असुहसंठाणाणि होति त्ति घेत्तव्वं । केवि आइरिया ओहिणाण-विभंगणाणाणं खेत्तसंठाणभेदो णाभीए हेट्ठोवरि नियमो च णत्थि त्ति भणंति, दोष्णं पि ओहिणाणत्तं पडि भेदाभावादो। ण च सम्मतमिच्छत्तसहचारेण कदणामभेदादो भेदो अत्थि अइव्यसंगादो । एदमेत्थ पहाणं कायव्वं । कालदो ताव समयावलिय-खण-लव- मुहुत्त दिवस - पक्खरेमासउड्डु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्व-पसिदोवम-सागरोवमावओ विधओ णादव्वा भवंति ॥ ५९॥ अवदिस्स ओहिणाणस्स अवद्वाणकालभेदपटुप्पायणटुमेदं सुत्तमागदं । दोष्णं परमाणूर्ण तपाओग्गवेगेण उडुमधो च गच्छंताणं सरीरेहि अण्णोष्णफोसणकालो समओ नाम । सो कस्स वि ओहिणाणस्स अवद्वाणकालो होदि । कुदो ? उप्पण्णबिदियसमए अधोभाग के साथ विरोध है । तथा तिर्यंच और मनुष्य विभंगज्ञानियोंके नाभिसे नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं । ऐसा गुरुका उपदेश है, इस विषय में कोई सूत्रवचन नहीं है । विभंगज्ञानियोंके सम्यक्त्व आदिके फल स्वरूपसे अवधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभिके ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार अवधिज्ञानसे लौटकर प्राप्त हुए विभंगज्ञानियोंके भी शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । कितने ही आचार्य अवधिज्ञान और विभंगज्ञानका क्षेत्रसंस्थानभेद तथा नाभिके नीचेऊपरका नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं; क्योंकि, अवधिज्ञानसामान्य की अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी संगति से किये गये नामभेदके होनेपर भी अवधिज्ञानकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता; क्योंकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है । इसी अर्थको यहां प्रधान करना चाहिए । कालकी अपेक्षा तो समय, आवलि, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग पूर्व, पर्व, पल्योपम और सागरोपम आदि ज्ञातव्य हैं । ५९ । अनवस्थित अवधिज्ञानके अवस्थानकालके भेदोंका कथन करने के लिए यह सूत्र आया है। तत्प्रायोग्य वेगसे एकके ऊपरकी ओर और दूसरे के नीचेकी ओर जानेवाले दो परमाणुओंका उनके शरीर द्वारा स्पर्शन होने में लगनेवाला काल समय कहलाता है । वह किसी भी अवधिज्ञाTET अवस्थान काल होता है, क्योंकि, उत्पत्र होने के समय में ही विनष्ट हुए अवधिज्ञानका एक तातो 'लवदिवसमहुत्त पक्ख' इति पाठः । परमाणु नियदिगण पदेसस्स दिक्कमणमेत्तो । जो कालो अविभागी होदि पुढ समयणामा सो । ति प ४ २८५- अवरा पज्जायठिदी खणमेत्तं होदितं च सओ ति । दोण्हणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु । गो-जी, ५७२, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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