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________________ ५, ५, ६३. ) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३३५ ति जाणदि । नगरट्ठिदी किष्ण परूविदा ? ण, नगरविणासावगमस्स नगरट्ठिदिअवगमेण विणा उप्पत्तिविरोहादो । विणट्ठ पि नगरमेत्तिएण कालेन होदित्ति जादि । सुते विणा कधमेदं नव्वदे । ण, एक्स्स सुत्तस्स देसामासियत्तादो । अंग- बंग- कलिंग - मगधादओ देसो णाम । एदेसि विणासो देसविणासो णाम । तं जादि । एत्थ वि पुव्वं व तिविहा परूवणा कायव्वा । देसस्स एगदेसो जणवओ णाम, जहा सूरसेण गांधार- कासी-आवंति आदओ । एदेसि विणासो जणवयविणासो । तं जादि । एत्थ वि तिविहा परूवणा कायव्वा । सरित्पर्वतावरुद्धं खेडं णाम । तस्स विणासो खेडविणासो । एदम्हादो उवरिमसव्वविणासेसु तिविहा परूवणा कायव्वा । पर्वतावरुद्धं कव्वडं नाम । तस्स विणासो कव्वडविणासो | पंचशतग्रामपरिवारितं मडंबं णाम । तस्स विणासो मडंबविणासो | नावा पादप्रचारेण च यत्र गमन तत्पत्तनं नाम । तस्स विणासो पट्टणविणासो । समुद्र - निम्नगासमीपस्थमवत रन्नौनिवह द्रोणामुखं नाम । तस्स विणासो दोणामुहविणासो । एदं देसामासियं काऊन एत्थ I नगर विनाश कहलाता है । वह नगरविनाश इतने कालमें होगा, इसे यह ज्ञान जानता है । शंका- सूत्र में नगरकी स्थिति क्यों नहीं कही ? समाधान -- नहीं, क्योंकि नगरकी स्थितिका ज्ञान हुए विना नगरके विनाशके ज्ञानकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । विनष्ट हुआ भी नगर इतने कालमें बनेगा, इसे भी जानता ? शंका --- सूत्रके विना यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि यह सूत्र देशामर्शक है । अंग, वंग, कलिंग और मगध आदि देश कहलाते हैं; इनके विनाशकी देशविनाश संज्ञा है। से वह जानता है । यहांपर भी पहले के समान तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । देशका एक देश जनपद कहलाता है । यथा शूरसेन, गान्धार काशी और अवन्ती आदि । इनका विनाश जनपदविनाश कहलाता है । उसे भी वह जानता है। यहांपर भी तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । नदी और पर्वतसे अवरुद्ध नगरकी खेट संज्ञा है, इसका विनाश खेटविनाश कहलाता है । इससे आगे के सब विनाशोंकी तीन प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए । पर्वतों से रुके हुए नगरका नाम कर्वट है, तथा उसका विनाश कर्वटविनाश कहलाता है । पांच सौ ग्रामोंसे घिरे हुए नगरका नाम मडंब है, तथा उसका विनष्ट होना मडंबविनाश कहलाता है । नौका द्वारा और पैरोंसे चलकर जहां जाते हैं उस नगरकी पत्तन संज्ञा है, तथा उसका विनष्ट होना पत्तनविनाश कहलाता है । जो समुद्र और नदीके समीप में स्थित है और जहां नौकाय आती जाती हैं उसकी द्रोणमुख संज्ञा है, तथा उसका विनष्ट होना द्रोणमुखविनाश कहलाता है । पट्टणणामं विणिद्दिट्ठ || दोणामुहाभिधाणं सरिवइवेलाए वेढियं जाण । संबाहणं ति बहुविहरण्णमहासेलसहरत्यं 11 ति प ४, १३९८ - १४००. काप्रतौ ' गावा' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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