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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ५, ६३.
गमादो ? ण एस दोसो, दव्वट्टिय-पज्जवट्टियणयावलंबिसिस्साणुग्गहढं तदुत्तीदो कदलीघादेण मरंताणमाउटिदिचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउदिदि चरिमसमयाणं समाणाहियरणाभावादो च । इच्छिवट्ठोवलद्धी लाहो णाम । तविवरीयो अलाहो । एदे वि पच्चक्खं जाणदि । एत्थ वि पुव्वं व परिहारो वत्तव्यो। इटुत्थसमागमो अणि?त्थविओगो च सुहं णाम । अणिटुत्थसमागमो इटुत्थविओगो च दुःखं णाम । एत्तिएण कालेण सुहं होदि त्ति कि जाणदि आहो ण जाणदि त्ति ? बिदिए ण पच्चक्खेण सुहावगमो, कालपमाणावगमाभावादो। पढमपक्खे कालेण वि पच्चक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा कालं होदि त्ति वोत्तुमजोगादो। ण च कालो मणपज्जयणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स वुत्तिविरोहादो ति? ण एस दोसो, ववहारकालेण एत्थ अहियारादो। ण च मुत्ताणं दव्वाणं परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि ति णियमो अस्थि, अन्ववत्थावत्तीदो। चतुर्गोपुरान्वितं नगरम् , तस्स विणासो गरविणासो। तमेत्तिएण कालेण होदि
___ समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंका अनुग्रह करने के लिए दोनों वचन कहे गये हैं ! दूसरे, कदलीघातसे मरनेवाले जीवोंका आयुस्थितिके अन्तिम समयमें मरण नहीं हो सकनेसे मरण और आयुस्थितिके अन्तिम समयका समानाधिकरण भी नहीं है, इसलिए भी उक्त दोनों ही वचन कहे गये हैं।
इच्छित अर्थकी प्राप्तिका नाम लाभ और इससे विपरीत अर्थात् इच्छित अर्थकी प्राप्तिका न होना अलाभ है। इन्हें भी प्रत्यक्ष जानता है। यहांपर भी उपस्थित होनेवाली शंकाका परिहार पहिलेके ही समान करना चाहिए । इष्ट अर्थके समागम और अनिष्ट अर्थके वियोगका नाम सुख है । तथा अनिष्ट अर्थके समागम और इष्ट अर्थ वियोगका नाम दुःख है। ( इन्हें भी प्रत्यक्ष जानता है। )
शंका-- इतने कालमें सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नहीं जानता ? दूसरा पक्ष स्वीकार करनेपर प्रत्यक्षसे सुखका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके कालके प्रमाणका ज्ञान नहीं उपलब्ध होता। पहला पक्ष माननेपर कालका भी प्रत्यक्ष ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि, अन्यथा इतने कालमें सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा; यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु कालका मनःपर्ययज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है, क्योंकि, उसकी अमूर्त पदार्थमें प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहांपर व्यवहार कालका अधिकार है। दूसरे, काल संज्ञावाला मत द्रव्योंका परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
जिसमें चार गोपुर अर्थात् दरवाजे हों उसकी नगर संज्ञा है और उसका विनाश
* प्रतिषु ' मरणावृट्ठिदि ' इति पाठ । वइपरिवेढो गामो जयरं चउग'उरेहि रमणिज्ज 1 गिरिसरिकदपरिवेढं खेडं गिरिवेढिदं च कब्बडयं ॥ पणसयपमाणगामप्पहाणभूदं मडंबणामं ख1 वररयणाणं जोणी
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