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________________ ३३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड घोसविणास-संवाहविणास संणिवेसविणास-ढाणविणास-गामविणासादओ वत्तव्बा। तत्र घोषो नाम वजः। यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः । विषयाधिपस्य* अवस्थानं संनिवेशः। समुद्रावरुद्धः व्रजः स्थानं नाम, निम्नगावरुद्धं वा । वृतिपरिवृतो ग्रामः । एदेसिमुप्पाद-दिदि भंगे जाणदि त्ति भणिदं होदि । प्रमाणातिरिक्ता वष्टिर्वर्षणमतिवष्टिः। आवष्टिवर्षणम्, तस्य अभावः अनावृष्टिः । सस्यसम्पादिका वृष्टिः सुवृष्टिः । अतिवृष्टयवृष्टिलिंगा स्वगतक्षारत्वादिगुणेन सस्यसम्पादने अक्षमा वा दुर्वष्टिः । सालि व्रीहि-जव-गोधमादिधण्णाणं सुलहत्तं सुभिक्खं णाम । तग्विवरीयं दुभिक्खं णाम । मारीदि डमरादीण*मभावो खेमं णाम तविवरीदमक्खमं । परचक्कागमादओ भयं णाम । खय-कुट्र-जरादओ रोगो णाम । एदे अत्थे कालसंपजुत्ते कालेण विसेसिदे उजुमदिमणपज्जयणाणी पच्चक्खं जाणदि । एदेसिमुप्पाद-टिदि-भंगे जाणदि ति भणिदं होदि । किंचि भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि इसे देशामर्शक मानकर यहांपर घोष विनाश, संवाहविनाश, संनिवेश विनाश, स्थानविनाश और ग्रामविनाश आदिका कथन करना चाहिए । इनमेंसे घोषका अर्थ व्रज है। जहाँपर शिरसे ले जाकर धान्य रक्खी जाती है उसका नाम संवाह है। देशके स्वामीके रहने के स्थानका नाम संनिवेश है । समुद्रसे अवरुद्ध अथवा नदीसे अवरुद्ध ब्रजका नाम स्थान है। जो वाडीसे घिरा हो उसका नाम ग्राम है । इनके उत्पाद, स्थिति और विनाशको वह जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रमाणसे अधिक वर्षा का होना आवृष्टि है । आवृष्टिका अर्थ वर्षा है, उसका नमी होना अनावृष्टि है। जिस वर्षासे धान्यकी अच्छी उत्पत्ति होती है वह सुवृष्टि है। अतिवृष्टि और अवृष्टि जिसका चिन्ह है अथवा जो स्वगत क्षारत्व आदि गुणके कारण धान्यके उत्पन्न करने में असमर्थ है वह दुर्वष्टि हैं । शालि, व्रीहि, जौ और गेहूं आदि धान्योंकी सुलभताका नाम सुभिक्ष तथा इससे विपरित दुर्भिक्ष कहलाता है। मारी, ईति, व राष्ट्रविप्लव आदिके अभावका नाम क्षेम है, तथा इससे विपरीत अक्षेम है। परचक्रके आगमन आदिका नाम भय है । क्षय, कुष्ट और ज्वर आदिका नाम रोग है। इन अर्थोंको 'कालसंपजुत्ते ' अर्थात् कालसे विशेषित होनेपर ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी प्रत्यक्ष जानता है । इनकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशको जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और भी-व्यक्तमनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे संबंध रखनेवाले अर्थको वह प्रतिषु 'विषयाविषस्य ' इति पाठ: 1४ प्रतिष 'वृत्ति' इति पाठ:1.आप्रती ' अतिवृष्टावृष्टि लिंगा',का-ताप्रत्यो: ' अतिवृष्टयावृष्टिलिंगा 'इति पाठः। * प्रतिष' मारीदिदमरादीण-' इति पाठः । ताप्रतौ 'भगो' इति पाठः । .काप्रती 'वद्रमाणाणं 'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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