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________________ ५, ५, ६४. ) पडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३३७ णो आवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदिर ।। ६४ ॥ किचि अत्थं उजमदिणाणसंबद्धं भओ पुणो वि भण्णिस्सामो*। तं जहा-- कार्ये कारणोपचाराच्चिन्ता मनः, व्यक्तं निप्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मनः येषां ते व्यक्तमनसः, तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च सम्बन्धि वस्त्वन्तरं जानाति, नो अव्यक्तमनसां जीवानां सम्बन्धि वस्त्वन्तरम्। तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववएसो ? ण, 'एए छच्च समाणा' ति विहिददीहत्तादो। अथवा, वर्तमानानां जीवानां वर्तमानमनोगतत्रिकालसम्बन्धिनमर्थ जानाति, नातीतानागतमनोविषयमिति सूत्रार्थो व्याख्येयः। . . दव्वदो जहण्णण ओरालियसरीरस्स एयसमयणिज्जरमणंतागंतविस्सासोवचयपडिबद्धं जाणदि । उक्कस्सेण एयसमयइंदियणिज्जरं जाणदि । तेसि मज्झिमदव्ववियप्पे अजहण्णअणुक्कस्सउजुमदिमणपज्जवणाणी जाणदि । एवं जहण्णुक्कस्सदव्ववियप्पा सुत्ते असंता वि पुवाइरियोवदेसेज परूविदा । संपहि जहण्णुक्कस्सकालपमाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि--- जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको नहीं जानता ।६४। ___ 'किंचि' अर्थात् ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान सम्बन्धी अर्थको 'भूयः' अर्थात् फिरसे भी कहते हैं। यथा- कार्यमें कारणका उपचार होनेसे चिन्ताको मन कहा जाता है। 'व्यक्त' का अर्थ निष्पन्न होता है। अर्थात जिनका मन संशय. विपर्यय और अनध्यबसायसे रहित है वे व्यक्त मनवाले जीव हैं; उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवोंसे तथा स्वसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको जानता है । अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको नहीं जानता है, क्योंकि, इस प्रकारके अर्थको जाननेका इस ज्ञानका सामर्थ्य नहीं है। शंका-- मनको मान व्यपदेश कैसे किया है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ‘एर छच्च समाणा' इस नियमके अनुसार यहां दीर्घ हो गया है। अथवा, वर्तमान जीवोंके वर्तमान मनोगत त्रिकाल संबंधी अर्थको जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषयको नहीं जानता; इस प्रकार सूत्रके अर्थका व्याख्यान करना चाहिए । द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे अनंतानंत विस्रसोपचयोंसे संबंध रखनेवाले औदारिकशरीरके एक समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको जानता है, और उत्कृष्ट रूपसे एक समयमें होनेवाले इंद्रियके निर्जराद्रव्यको जानता है । इन उत्कृष्ट और जघन्यके मध्यके जितने द्रव्यविकल्प हैं उन्हें अजघन्यानुत्कृष्ट ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी जानता है । इस प्रकार यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके विकल्प सूत्र में नहीं कहे हैं तथापि पूर्व आचार्योंके उपदेशसे उनका कथन किया है। अब जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- * काप्रतौ ‘णाअवट्ट माणजीवाणं 'ताप्रती 'अवत्तमाणजीवाणं' इति पाठ 1 ४ म.बं. १, पृ. २४. व्यक्तमनसा जीवनामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् 1 त. रा. १, २३, ९. *ताप्रती 'भण्णिस्सामो' इति पाठ 18 अवरं दव्वमुरालियसरीरणिज्जिण्णंसमयबद्धं तू 1 चक्खि दियणिज्जि उक्करणं उमदिस्स हवे 1 गो, जी. ४५०. तत्थ दवओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पास। नं. सू. १८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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