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________________ ३३८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ६५. कालयो जहण्णण दो-तिम्णिभवग्गहणाणि ॥६५॥ जदि दो चेव भवग्गहणाणि जाणदि तो ण तिण्णि जाणदि। अह तिण्णि जाणदि तो ण दोण्णि, तिण्हं दुम्भावविरोहादो ति? एस दोसो, वट्टमाणभवग्गहणेण विणा दोणि, तेण सह तिण्णि भवग्गहणाणि जाणदि ति तदुत्तीदो। उक्कस्सेण सत्तभवम्गहणाणि ॥६६॥ एत्थ वि वट्टमाणभवग्गहणेण विणा सत्त, अण्णहा अट्ट जाणदि ति घेत्तव्वं । अणि. यदकालभवग्गहणणिद्देसादो एत्थ कालणियमो पत्थि त्ति अवगम्मदे । जीवाणं गदिमागवि पदुप्पादेवि ॥ ६७ ॥ एवम्हि काले जीवाणं गविमादि भुत्तं कयं पडिसेविवं च पदुप्पादेदि जागदि त्ति घेत्तव्वं । खेत्तवो ताव जहण्णेण गाउवधत्तं उक्कस्सेण जोयणपुधत्तस्स अब्भंतरदो णो बहिद्धा ॥ ६८॥ कालकी अपेक्षा जघन्यसे वह दो-तीन भवोंको जानता है । ६५ । शंका - यदि दो ही भवोंको जानता है तो वह तीन को नहीं जान सकता, और यदि तीनको जानता है तो दोको नहीं जानता, क्योंकि, तीनको दो रूप मानने में विरोध आता है। समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह वर्तमान भवके विना दो भवोंकी और उसके साथ तीन भवोंकी बात जानता है, इसलिए दो और तीन भव कहे हैं। उत्कर्षसे सात और आठ भवोंको जानता है । ६६ । यहांपर भी वर्तमान भवके विना सात, अन्यथा आठ भवोंको जानता है; ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अनियत कालरूप भवग्रहणका निर्देश होनेसे यहां कालका नियम नहीं है, ऐसा जाना जाता है। जीवोंकी गति और आगतिको जानता है । ६७ ।। इस कालके भीतर जीवोंकी गति, आगति, भुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थको 'पदुप्पादेदि' अर्थात् जानता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे गव्यतिपृथक्त्वप्रमाण क्षेत्रको और उत्कर्षसे योजन पृथक्त्वके भीतरको बात जानता है, बाहरकी नहीं । ६८। म. वं.१ प. २५. तत्र ऋजमतिर्मन पर्य यः कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वि-त्रीणि भवग्रहजाणि, उत्कर्षेण सप्ताष्टौ गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । स .सि. १-२३. त रा १, २३, ९ कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभाग, उक्कोंसेण वि पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ 1नं सू १८.. म. बं. १, पृ. २५ क्षेत्रतो जघन्येन गव्यतिपृथक्त्वम् उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं न बहिः । स. सि. १-२३, त रा १,२३, ९ खेत्तओ णं उज्जुमई अ जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोस्सेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पूढवीए उवरिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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