SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ५, ६८.) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा (३३९ बेहि दंड सहस्तेहि एयं गाउअं होदि । तमहि गुणिदे गाउअपुधत्तं । एदस्स घणमेत्तं उज्जुमदिमणपज्जयणाणी जहण्णण जाणदि। ओहिणाणिस्स जहण्णखेत्तमंगलस्स असंखेज्जदिभागो त्ति वुत्तं। तक्कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। इमस्स पुण ओहिणाणीदो ऊणयरस्स, खतं गाउअपुधत्तं, कालो दो-तिणिभवग्गहणाणि त्ति भणिदं। कधमेदं घडदे ? ण, दोणं णाणाणं भिण्णजादित्तादो। . तमोहिणाणं णाम संजदासंजदविसयं, मणपज्जयणाणं पुण संजविसयं। तदो भिण्णजादित्तं गम्मदे। तेण दोण्णं णाणाणं ण विसएहि समाणत्तं । किच- जहा क्खिदियं रसादिपरिहारेण रूवं चेव परिच्छिददि तहा मणपज्जयणाणं पि भवविसयासेसअत्थपज्जाएहि विणा जेण भवसण्णिददो-तिण्णिवंजणपज्जायाणं चेव परिच्छेदयं, तेण दमोहिणाण सरिसमिदि। ण च बहुएण कालेण णिप्पण्णसत्तभवग्गहणाणमपरिच्छेदयं, तस्स अविसईकदअसेसअस्थपज्जायस्स भवसण्णिदवंजणपज्जाए वावदस्स बहुसमयणिप्फण्णभवेसु पत्तिविरोहाभावादो। अहि दंडसहस्सेहि जोयणं, तमहि गुणिदे जोयणपुधत्तभंतरदंडाणं पमाणं होदि । एदेसि घणो* उजुमदिमणपज्जयणाणस्स उक्कस्सक्खेतं होदि। दो हजार धनुषकी एक गव्यूति होती हैं। उसे आठसे गुणित करनेपर गव्यूतिपृथक्त्व होता है। इसके घनप्रमाण क्षेत्रको ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी जघन्यसे जानता है। शंका-- अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और काल उसका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। परंतु अवधिज्ञानसे अल्पतर इस ज्ञानका क्षेत्र गव्यतिपृथक्त्व कहा है और काल दो तीन भवग्रहणप्रमाण कहा है। यह कैसे बन सकता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न भिन्न जातिवाले हैं। वह अवधिज्ञान संयत व असंयत सम्बन्धी है, परन्तु मनःपर्ययज्ञान संयतसम्बन्धी है। इससे इनकी पृथक् पृथक जाति जानी जाती है। इसलिए दोनों ज्ञानोंमें विषयकी अपेक्षा समानता नहीं है। दूसरे, जिस प्रकार चक्षु इन्द्रिय रसादिको छोडकर रूपको ही जानती है उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान भी भवविषयक समस्त अर्थपर्यायोंके विना यतः भवसंज्ञक दो तीन व्यञ्जनपर्यायोंको ही जानता है, इसलिये वह अवधिज्ञानके समान नहीं है । बहुत कालके द्वारा निष्पन्न हुए सात आठ भवग्रहणोंका यह अपरिच्छेदक है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अशेष अर्थपर्यायोंको नहीं विषय करनेवाले और भवसंज्ञक व्यंजनपर्यायोंको विषय करनेवाले उस ज्ञानकी बहुत समयोंसे निष्पन्न हुए भवोंमें प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। आठ हजार धनुषोंका एक योजन होता है। उसे आठसे गुणित करनेपर योजनपृथक्त्वके भीतर धनुषोंका प्रमाण होता है। इनका धन ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। हेदिल्ले खुड्डुगपयरे, उढ्ढं जाव जोइसस्म उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचेदिआणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ न. सू १८. ताप्रती 'ऊणयस्स ' इति पाठ: 1४ ताप्रतौ सेसमत्थ-' इति पाठ: 1 अ-काप्रत्योः 'णिप्पण्णा' इति पाठः। प्रतिषु 'वृप्पत्तिविरोहाभावादो' इति पाठः। * प्रतिषु 'एदेसि पुणो ' इति पाठ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy