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________________ ३४०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तं सव्वमजमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥६९॥ __ तं सव्वं उजुमदिमणपज्जयणाणं उजुम दिमणपज्जयणाणावरणीयं कम्मं होदि । कुदो गाणस्स कम्मत्तं ? आवरणिज्जे आवरणोवयारादो । कुदो एगवयणणिद्देसो ? दव्वट्ठियणयावलंबणादो। जं तं विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं तं छविहं-उज्जुगमणुज्जुगं मणोगदं जाणदि, उज्जुगमणुज्जुगं वचिगदं जाणदि, उज्जुगमणुगं कायगज्जुदं जाणदि ॥७० ।। ____ जहत्थो मण वयण-कायवावारो उज्जुवो णाम । संशय-विपर्ययानध्यवसायरूपो मनोवाक्कायव्यापारः अनजः। अद्धचितनचितनम वा अनध्यवसायः। दोलायमानप्रत्ययः संशयः। अयथार्थचिता विपर्ययः । चितिदूण जं विस्सरिदं तं पि जाणदि, जं पि चितइस्सिहिदि तं पि जाणदि; तीदाणागयपज्जायागं सगसरूवेण जोवे संभवादो। जाणणकम्मपरूवणट्ठमुवरिमसुत्तं भणदि मणेण माणसं पडिविवइत्ता ।। ७१ ॥ वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है। ६९ । वह सब ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है । शंका-- ज्ञानको कर्मपना कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-- आवरणीयमें आवरणके उपचारसे ज्ञानको कर्मपना प्राप्त होता है । शंका-- सूत्र में एक वचनका निर्देश किस कारणसे किया है ? समाधान-- द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लेकर एक वचन का निर्देश किया है । जो विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है- ऋजुमनोगतको जानता है, अनजुमनोगतको जानता है, ऋजुवचनगतको जानता है, अनजुवचनगतको जानता है, ऋजुकायगतको जानता है और अनजुकायगतको जानता है । ७० । यथार्थ मन, वचन और कायका व्यापार ऋजु कहलाता है । तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मन, वचन और कायका व्यापार अनुज कहलाता है । अर्धचिन्तन या अचिन्तनका नाम अनध्यवसाय है । दोलायमान ज्ञानका नाम संशय है । अयथार्थ चिन्ताका नाम विपर्यय है। विचार करके जो भूल गये हैं उसे भी यह ज्ञान जानता है। जिसका भविष्य में चिन्तवन करेंगे उसे भी जानता है, क्योंकि, अतीत और अनागत पर्यायोंका अपने स्वरूपसे जीवमें पाया जाना सम्भव है। अब जानने रूप क्रियाके कर्मका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- मनके द्वारा मानसको जानकर ॥ ७१ ॥ * म. . १, पृ. २६. द्वितीयः षोढा ऋजु-वक्कमनोवाक्कायभेदात् । त रा. १. २३, १०. * म बं. १, पृ. २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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