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________________ ५, ५, ७२. ) tasaणुओगद्दारे विउलमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३४१ मणेण मदिणाणेण, माणसं जोइंदियं मणोवग्वणखंधनिव्वत्तिदं, पडिविदइत्ता घेतूण पच्छा मणपज्जयणाणेण जाणदि । णोइंदियर्मादिदियं कथं मदिणाणेण घेप्पदे? ण ईहालिगावट्ठेभबलेण अदिदिएसु वि अत्थेसु वृत्तिदंसणादो। अधवा, मणेण मदिणाणेण माणसं मदिणाणविसयं पडिविदइत्ता उवलंभिय पच्छा मणपज्जयणाणं पयट्टदि ति वत्तव्वं । जदि मणपज्जयणाणं मदिपुव्वं होदि तो तस्स सुदणाणत्तं पसज्जदित्ति णासंकणिज्जं, पचचक्खस्स अवगहिदाणवर्गहिदत्थेसु वट्टमाणस्स मणपज्जयणाणस्स सुदभावविरोहादो | परेसि सण्णा सदि मदि चिंता जीविद मरणं लाहालाहं सुहदुक्खं जयरविणासं बेसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अविवुट्ठि अणावुद्धि सवुट्ठि बुबुट्ठि सुभिक्खं बुभिक्खं खेमाखेमं भय-रोग कालसंपजुत्ते अत्थे जाणवि ।। ७२ ।। एदस्स सुत्तस्स अत्थो जहा पुव्वं परुविदो तहा परूवेदव्वो । मन अर्थात् मतिज्ञानके द्वारा मानसको अर्थात् मनोवर्गणा के स्कन्धोंसे निष्पन्न हुई इन्द्रियको 'पडिदिइत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययज्ञानके द्वारा जानता है । शंका-- नोइन्द्रिय अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञानके द्वारा कैसे ग्रहण होता है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ईहारूप लिंगके अवलम्बनके बलसे अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । अथवा, मन अर्थात् मतिज्ञानके द्वारा मानस अर्थात् मतिज्ञान विषयको ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है, ऐसा कथन करना चाहिए । शंका -- यदि मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो उसे श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है ? ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, अवग्रहण किये गये और नहीं अवग्रहण किये गये पदार्थों में प्रवृत्त होनेवाले प्रत्यक्षस्वरूप मन:पर्ययज्ञानको श्रुतज्ञान मानमें विरोध आता है । समाधान वह दूसरे जीवोंकी कालसे विशेषित संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपद विनाश, खेट विनाश, कटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग रूप इन अर्थोंको जानता है ।७२ | इस सूत्र का अर्थ जिस प्रकार पहले कह आयें हैं उसी प्रकार यहां पर भी उसका कथन करना चाहिए । - म. बं. १, पृ. २४- २५ तथाऽऽत्मनः परेषां च चिन्ता जीवित मरण-सुख-दुःख-लाभालाभादीन् अन्य - क्तमनोभिर्व्यक्तमनोभिश्च चिन्तितान् अचिन्तितान् जानाति विपुलमतिः । त. रा. १,२३, १०. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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