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________________ ६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवन्त्यात्मविगर्हणेन । प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं * वदामि ॥ १० ॥ तं च पायच्छित्तमालोचणा-प्पडिक्कमण-उभय-विवेग-विउसग्ग-तव-च्छेदमूल-परिहार-स्सद्दहणभेदेण दसविहं। एत्थ गाहा अलोयण-पडिकमणे उभय-विवेगे तहा विउस्सग्गो। तवछेदो मूलं पि य परिहारी चेव सद्दहणा ॥ ११॥ गुरूणमपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरु व्व थिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्तं । गुरुणमालोचणाए विणा ससंवेग-णिव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि? अप्पावराहे गुरूहि विणा वट्टमाणम्हि होदि। सगावराहं गुरूणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छितं । एवं कत्थ होदि? दुस्सुमिणदंसणादिसु। गण-गच्छ-दव्व-खेत्तादीहितो ओसारणं विवेगो णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि? जम्हि ---------- अपनी गर्दा करनेसे, दोषोंका प्रकाशन करनेसे और उनका संवर करनेसे किये गय अतिदारुण कर्म कृश हो जाते हैं। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं ।।१०।। वह प्रायश्चित्त आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धानके भेदसे दस प्रकारका है । इस विषयमें गाथा आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान; य प्रायश्चित्तके दस भेद हैं ॥ ११॥ __अपरिस्रव अर्थात् आस्रवसे रहित, श्रुतके रहस्यको जानने वाले, वीतराग, और रत्नत्रयमें मेरुके समान स्थिर ऐसे गुरुओंके सामने अपने दोषोंका निवेदन करना आलोचना नामका प्रायश्चित्त है। गुरुओंके सामने आलोचना किये विना संवेग और निर्वेदसे युक्त साधुका 'फिरसे कभी ऐसा न करूंगा' यह कहकर अपराधसे निवृत होना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चि शंका- यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित कहांपर होता है ? समाधान- जब अपराध छोटासा हो और गुरु समीप न हों, तब यह प्रायश्चित होता है। अपने अपराधकी गुरुके सामने आलोचना करके गुरुकी साक्षिपूर्वक अपराधसे निवृत्त होना उभय नामका प्रायश्चित्त है। शंका-यह उभय प्रायश्चित्त कहांपर होता है? समाधान- यह दुःस्वप्न देखने आदि अवसरोंपर होता है। गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह विवेक प्रायश्चित्त कहांपर होता है ? * ताप्रतौ ' मृलाद्धरणं' इति पाठः। ताप्रतौ 'कथं' इति पाठः । ॐ मूला. (पंचाचा. ) १६५., आचारसार. पृ. ६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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