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५, ४, २६. )
कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा
तस्सहवासेणय जणिदतिकालविसय राग-दोसपरिहरणट्ठं । अत्र श्लोक:
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने* ॥ ८ ॥
एवमेसो छव्विहो बाहिरतवो परुविदो । कथमेदस्स बज्झसण्णा ? अप्पणो पुधभूदेहि मिच्छ, इट्ठीहि वि णव्वदित्ति बज्झसण्णा ।
संपहि छव्विहअन्तरतवसरूवनिरूवणं कस्सामा । तं जहा- कयावराहेण ससंवेयणिव्वेण सगावराहणिरायरणट्ठे जमणुट्ठाणं कीरदि तं पायच्छित्तं णाम aatकम्मं । अत्र श्लोक:
प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। ९ ।। अत्र ग्राहके ग्राह्योपचाराच्चित्तग्राहकस्य कर्मणश्चित्तव्यपदेशः ।
शंका- यह विविक्त शयनासन तप किसलिये किया जाता है ?
समाधान- असभ्य जनोंके देखनेसे और उनके सहवाससे उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषों को दूर करनेके लिये किया जाता है । इस विषय में श्लोक है
( हे कुन्थु जिनेन्द्र ! ) आपने आध्यात्मिक तपको बढाने के लिये अत्यन्त दुश्चर बाह्य तपका आचरण किया और प्रारम्भके दो मलिन ध्यानोंको छोडकर अतिशयको प्राप्त उत्तरके दो ध्यानों में प्रवृत्ति की ॥ ८ ॥
इस प्रकार यह छह प्रकारका बाह्य तप कहा । शंका- इसकी ' बाह्य' संज्ञा किस कारणसे है ?
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समाधान- यह अपने से पृथग्भूत मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा भी जाना जाता है, इसलिये इसकी 'बाह्य' संज्ञा है |
अब छह प्रकारके आभ्यन्तर तपके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा - संवेग और निर्वेदसे युक्त अपराध करनेवाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिये जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नामका तपःकर्म है । इस विषय में श्लोक है
प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मनका है । इसलिये उस चित्तको ग्रहण करनेवाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ९ ॥
यहां ग्राहक में ग्राह्येका उपचार करके चित्त ग्राहक कर्मकी 'चित्त' संज्ञा दी है ।
* बृहत्स्व ८३. यतोऽन्यैस्तीर्थैरनभ्यस्तं ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम् । प्रायश्चित्तादितपो हि बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वादन्तःकरणव्यापाराच्चाभ्यन्तरम् । आचारसार. पृ. ६१. अ- आप्रत्यो ' भवे' इति पाठः ।
भग. ( मुलाराधना ) ५२९.
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