SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि । उववासादीहि सह गच्छादिचागविहाणमेत्थेव णिवददि, उभयसद्दाणुवृत्तीदो। झाणेण सह कायमुज्झिदूण* मुहुत्त दिवस पक्ख-मासादिकालमच्छणं विउस्सग्गो नाम पायच्छित्तं । एत्थ वि दुसंजोगादीहि भंगुप्पत्ती वत्तव्वा; उभयसद्दस्स देसामासियत्तादो । सो कस्स होदि ? कयावराहस्स णाणेण दिट्ठणवटुस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहुस्स होदि । खवणायंबिलनिव्विsि - पुरिमंडलेयद्वाणाणि तवो णाम । एत्थ दुसंजोगा जोजेपव्वा । एदं कस्स होदि ? तिव्विदिस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि । दिवस - पक्ख मास - उदु-अयण-संवच्छ रादिपरियायं छेत्तूग इच्छिदपरियायादो हेमिभूमी ठवणं छेदो णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि ? उववासादिखमस्स समाधान- जिस दोषके होनेपर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह प्रायश्चित्त होता है । उभय शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे उपवास आदिकके साथ जो गच्छादिके त्यागका विधान किया जाता है उसका अन्तर्भाव इसी विवेक प्रायश्चित्तमें हो जाता है । कायका उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महिना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है । यहांपर भी द्विसंयोग आदिकी अपेक्षा भंगों की उत्पत्ति कहनी चाहिये, क्योंकि, उभय शब्द देशामर्शक है । शंका- यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसके होता है ? समाधान- जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अपने विमल ज्ञानसे नौ पदार्थों को समझता है, वज्रसंहननवाला है; शीतवात और आतपको सहन करनेमें समर्थ है; तथा सामान्य रूप से शूर है, ऐसे साधुके होता है । उपवास, आचाम्ल, निर्विकृति और दिवसके पूर्वार्ध में एकासन तप है। यहां द्विसंयोगी भंगों की योजना कर लेनी चाहिये । शंका- यह तप प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? ( ६१ समाधान- जिसकी इन्द्रियां तीव्र हैं, जो जवान है, बलवान् है और सशक्त है, ऐसे अपराधी साधुको दिया जाता है । एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तककी दीक्षा पर्यायका छेद कर इच्छित पर्यायसे नीचेकी भूमिका में स्थापित करना छेद नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह छेद प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? आ-ताप्रत्यो: ' उववादीहि ' इति पाठ: । प्रतिषु गच्छादि - भागविहाण' इति पाठः । * आ-ताप्रत्योः सह मुज्झिदूण' इति पाठः । दुःस्वप्न-दुश्चिन्तन-मलौत्सर्जनागमातीचार नदी -महाटवीरणादिभिरन्यैश्चाप्यतीचारे सति ध्यानमवलम्ब्य कायमुत्सृज्यान्तर्मुहूर्त -दिवस- पक्ष- मासादिकालावस्थानं व्युत्सर्ग इत्युच्यते । आचारसार. पृ. ६३. अ-आप्रत्योः 'खवणायं बिलणिच्चिय दिपुरिमं देयद्वाणाणि ताप्रती णिश्वियडी पुरिमंडल आयंबिलमेयठाण खवणायल बिणिव्वियडिपुरिमंडेयद्वाणाणि ' इति पाठः । खममिदि । एसो तवोत्ति भणिओ तवोविहाण पहाणेहि ॥ छेदपिण्ड. २०३. " Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy