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________________ ६२) - छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि। सव्वं परियायमवहारिय पुणो दीक्खणं मल णाम पायच्छितं। एवं कस्स होदि? अवरिमियअवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसील-सच्छंदादिउव्वदुट्टियस्स होदि । परिहारो दुविहो अणवट्ठओ परंचिओ* चेदि। तत्थ अणवढओजहण्णेण छम्मासकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरंतो। कायभूमीदो परदो चेव कयविहारो पडिवंदणविरहिदो गरुवदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खवणायंबिलपुरिमड़ढेयवाणणिवियदीहि सोसिय-रस-रुहिर-मांसो होदि। जो सो पारंचिओ सो एवंविहो चेव होदि, किंतु समाधान- जिसने अपराध किया है तथा जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार बलवान् है, सब प्रकार शूर है और अभिमानी है, ऐसे साधुको दिया जाता है। समस्त पर्यायका विच्छेद कर पुनः दीक्षा देना मूल नामका प्रायश्चित्त है। शंका- यह मूल प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ? समाधान- अपरिमित अपराध करनेवाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्गमें स्थित है, उसे दिया जाता है। परिहार दो प्रकारका है- अनवस्थाप्य और पारञ्चिक । उनमेंसे अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्तका जघन्य काल छह महीना और उत्कृष्ट काल वारह वर्ष है। वह कायमूमिसे दूर रह कर ही विहार करता हैं, प्रतिवन्दनासे रहित होता है, गुरुके सिवाय अन्य सब साधुओंके साथ मौनका नियम रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिन के पूर्वार्ध में एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीरके रस. रुधिर और मांसको शोषित करनेवाला होता है। पारञ्चिक तप भी इसी प्रकारका होता हैं । किन्तु इसे साधर्मी पुरुषोंसे रहित क्षेत्र में ताप्रतौ 'दिक्खणं' इति पाठः। ॐ पार्श्वस्थादीनां मूलं प्रायश्चित्तम् । तद्यथा- पार्श्वस्थ: कुशीलः संसक्त. अवसन्न: मगचारित्र इति । तत्र यो वसतिष प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणानां पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । क्रोधादिकषायकलषितात्मा व्रत-गुण-शीलैः परिहीनः संघस्यानयकारी कुशील: । मंत्र: वैद्यक-ज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः । जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानाचरणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्नः। त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मगचारित्रः स्वच्छंद इति वा। एते पंचश्रमणा जिनधर्मबाह्याः । आचारसार. पृ. ६३. * अ-आप्रत्योः 'अणुवठ्ठवओ पारंभिओ', ताप्रतौ ‘अणुवट्टवओ पारंभि (चि ) ओ' इति पाठः। स प्रतिषु 'अणुवट्टओ' इति पाठः।-परिहारोऽनुपस्थान-पारचिकभेदेन द्विविधः। तत्रानुपस्थापनं निज-परगणभेदाद् द्विविधम् । प्रमादादन्यमुनि-संबंधिनमषि छात्रं गृहस्थं वा परपाखंडिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परास्त्रियं वा स्तेनयतो मनीन् प्रहरतो वा अन्यदपि एवमादिविरुद्धाचरितमाचरतो नव-दशपूर्वधरस्यादित्रिकसंहननस्य जितपरीषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति ।"दपादनन्तरोक्तान्दोषानाचरत परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवतीति । आचारसार पृ. ६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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